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आचार्य
आचार्य चार प्रकार के होते हैं
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१. कुछ उद्देशनाचार्य (सूत्र पढ़ने का आदेश देने वाले) होते
हैं, किन्तु वाचनाचार्य (पढ़ाने वाले) नहीं होते ।
२. कुछ वाचनाचार्य होते हैं, उद्देशनाचार्य नहीं । ३. कुछ आचार्य दोनों होते हैं।
४. कुछ दोनों नहीं होते, केवल धर्माचार्य होते हैं।
एक ही व्यक्ति धर्माचार्य, उद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य हो सकता है।
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५. बहुश्रुत - गीतार्थ - चतुर्भंगी : गणधारण के अर्ह अबहुस्सुतऽगीतत्थे जो सो चउत्थभंगो, दव्वे भावे य होति संछण्णो । गणधारणम्मि अरिहो, सो सुद्धो होति नायव्वो ॥
अबहुश्रुतागीतार्थपदाभ्यां भङ्गचतुष्टयम् । तद्यथा - बहुत अगीतार्थ इति प्रथमो भङ्ग, अबहुश्रुतो गीतार्थः, बहुश्रुतोऽगीतार्थः, बहुश्रुतो गीतार्थः । तत्र यस्य निशीथादिकं सूत्रोऽर्थतो वा न गतं प्रथमभङ्गः । यस्य पुनर्निशीथादिगौ सूत्रार्थी विस्मृतौ स द्वितीयभङ्गः । पुनरेकादशाङ्गधारी अश्रुतार्थः स तृतीयभङ्गः । सकलकालोचितसूत्रार्थोपेतश्चतुर्थः । (व्यभा १४१८, १४२१ वृ)
अबहुश्रुत-अगीतार्थ के चार विकल्प हैं
१. अबहुश्रुत-अगीतार्थ - जिसे निशीथ आदि आगम सूत्रतः और अर्थतः ज्ञात नहीं है।
२ अबहुश्रुत गीतार्थ - जो निशीथ आदि सूत्र अर्थसहित पढ़ सीख चुका है, किन्तु वर्तमान में वे विस्मृत हो चुके हैं। ३. बहुश्रुत अगीतार्थ - जो ग्यारह अंगों का धारक है, किन्तु जिसने उनका अर्थ नहीं सुना जाना है। ४. बहुश्रुत गीतार्थ - जो समग्रता से समयोचित सूत्र और अर्थ से सम्पन्न (सूत्रार्थ का ज्ञाता ) है ।
चतुर्थ भंगवर्ती शुद्ध है, गणधारण के योग्य है, क्योंकि वह द्रव्य और भाव से संछन्न- शिष्य समुदय और श्रुत से सम्पन्न होता है।
उवसंपाविय पव्वाविता य अण्णे य तेसि संगहिता । एरिसए देति गणं...... ॥ (व्यभा १९१३)
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आगम विषय कोश - २
देशाटन करते हुए जिस शिष्य ने बहुतों को उपसम्पदा
दी है, बहुतों को प्रव्रजित किया है और बहुतों को संगृहीत किया है, आचार्य उस पूर्णतः योग्य शिष्य को गण का भार सौंपते हैं।
भिक्खू य इच्छेज्जा गणं धारेत्तए, भगवं च से अच्छिन्ने एवं से नो कप्पइ गणं धारेत्तए । भगवं च से पलिच्छन्ने, एवं से कप्पड़ गणं धारेत्तए ॥ (व्य ३/१)
जो भगवान् भिक्षु गण को धारण करना चाहे, वह यदि अपरिच्छन्न - श्रुत और शिष्य सम्पदा से विहीन है, उस स्थिति में गण को धारण नहीं कर सकता। परिच्छन्न- भिक्षु गण को धारण कर सकता है।
.......गुणपरिवुड्डीय ठाणलंभो उ।........ भिक्षुर्गुणाधिकत्वेन गणावच्छेदकस्थानं लभते । गणावच्छेदको गुणाधिकतया आचार्योपाध्यायस्थानम् । (व्यभा २१९१ वृ)
भिक्षु अतिशय गुणों से युक्त होकर गणावच्छेदक का पद प्राप्त करता है और गणावच्छेदक अतिशय गुण - वृद्धि से आचार्य - उपाध्याय का पद प्राप्त करता I ६. गणधारण के योग्य की परीक्षाविधि
सुद्धस्स य पारिच्छा, खुड्डय थेरे य तरुणखग्गूडे । दोमादिमंडलीए, सुद्धमसुद्धे ततो पुच्छा ॥ उच्चफलो अह खुड्डो, सउणिच्छावो व पोसिउं दुक्खं । पुट्ठो वि होहिति न वा, पलिमंथो सारमंतस्स ॥ पुट्ठो वासु मरिस्सति, दुराणुयत्ते न वेत्थ पडिगारो । सुत्तत्थपारिहाणी, थेरे बहुयं निरत्थं तु ॥ अहियं पुच्छति ओगिण्हते बहुं किं गुणो मि रेगेणं । होहितिय विवर्द्धतो, एसो हु ममं पडिसवत्ती ॥ कोधी व निरुवगारी, फरुसो सव्वस्स वामवट्टो य । अविणीतो त्ति च काउं, हंतुं सत्तुं च निच्छुभती ॥ वत्थाहारादीभि य, संगिण्हऽणुवत्तए य जो जुयलं । गाहेति अपरितंतो, गाहण सिक्खावए तरुणं ॥ खरमउएहिऽणुवत्तति, खग्गूडं जेण पडति पासेण । देमो विहार विजढो, तत्थोड्डुणमप्पणा कुणति ॥
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