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आगम विषय कोश - २
चारः अभ्याहृतादिपरिहारी अशबलाचारः । जात्योपजीवनादि परिहरन् अभिन्नाचारः । दोषपरिहारी असंक्लिष्टः । (व्यभा १५२०, १५२१ वृ) जो तीन वर्ष का दीक्षित श्रमण निर्ग्रन्थ आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल (स्वसमय तथा परसमय के निरूपण में दक्ष), संग्रह-उपग्रहकुशल, अक्षत, अशबल, अखंड और असंक्लिष्ट चारित्र वाला, बहुश्रुतबहुआगम (प्रभूत सूत्र - अर्थ का ज्ञाता) तथा जघन्यतः आचारप्रकल्पधर, (उत्कृष्टत: द्वादशांगविद्) है, उसे उपाध्याय के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
पांच वर्ष की प्रव्रज्या पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ जघन्यतः दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प और व्यवहार का धारक आचार्य - उपाध्याय पद पर नियुक्त किया जा सकता है 1 आठ वर्ष का दीक्षित श्रमण निर्ग्रन्थ जघन्यतः स्थानांग और समवायांग का ज्ञाता (स्थान- समवायधर) मुनि आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी और गणावच्छेदक पद पर नियुक्त किया जा सकता है।
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• अक्षताचार - अशन, पान, शय्या और उपधि संबंधी आधाकर्म, औद्देशिक, पूति, शंकित, मिश्र, स्थापित आदि दोषों का परिहार करने वाला तथा आवश्यक में उद्यमी ।
० अशबलाचार - अभ्याहत आदि दोषों का परिहारी ।
० अभिन्नाचार - जाति आदि बताकर जीविका नहीं चलाने वाला ।
० असंक्लिष्टाचार - इहपरलोक की आशंसा आदि दोषों से मुक्त ।
११. अल्प पर्याय वाला श्रमण आचार्य क्यों ? कैसे ?
निरुद्धपरियाए समणे निग्गंथे कप्पइ तद्दिवसं आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए । से किमाहु भंते! अतिथ णं थेराणं तहारूवाणि कुलाणि कडाणि पत्तियाणि थेजाणि वेसासियाणि संमयाणि सम्मुइकराणि अणुमयाणि बहुमयाणि भवंति, तेहिं कडेहिं जं से निरुद्धपरियाए समणे निग्गंथे, कप्पड़ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए तद्दिवसं ॥
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आचार्य
निरुद्धवासपरियाए समणे निग्गंथे कप्पड़ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दित्तिए समुच्छेय कप्पंसि। तस्स णं आयारपकप्पस्स देसे अहिज्जिए देसे नो अहिज्जिए, से य अहिज्जिस्सामि त्ति अहिज्जइ, एवं से कप्पड़ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए। से य अहिज्जिस्सामि त्ति नो अहिज्जइ, एवं से नो कप्पड़ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ।
निरुद्धो विनाशित: पर्यायो यस्य स निरुद्धपर्यायः -- तस्य पूर्वपर्यायो विकृष्टो विंशतिवर्षाण्यासीत् ।
त्रिषु वर्षेषु परिपूर्णेषु यस्य निरुद्धः पूर्वपर्यायो यदि वापूर्णेषु समाप्तश्रुतस्य निरुद्धवर्षपर्यायः ।
(व्य ३ / ९, १० वृ)
निरुद्धपर्याय अर्थात् जिसने अपने बीस वर्षीय पूर्व संयम पर्याय को उत्प्रव्रजन द्वारा नष्ट कर दिया हो, वह श्रमण निर्ग्रन्थ जिस दिन पुनः संयमपर्याय ग्रहण कर रहा हो, उसी दिन उसे आचार्य - उपाध्याय के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। (शिष्य ने पूछा) भंते! ऐसा क्यों कहा गया है ? (आचार्य कहते हैं) ऐसे अनेक कुल हैं, जो आचार्यों के लिए प्रायोग्य, प्रीतिकर, स्थिर, विश्वसनीय, सम्मत, विसंगति मिटाकर मोद उत्पन्न करने वाले, अनुमत, बहुमत । इन कुलों को इस प्रकार निर्वर्तित करने में यह निरुद्धपर्याय वाला मुनि कारणभूत है। इसलिए निरुद्धपर्याय वाले मुनि को उसी दिन आचार्य - उपाध्याय के रूप में नियुक्त किया जा सकता है ।
आचार्य या उपाध्याय के कालगत हो जाने पर निरुद्ध वर्ष पर्याय वाला - तीन वर्ष के मुनि-पर्याय का विनाश करने वाला अथवा असमाप्तश्रुतपर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जिस दिन पुनः प्रव्रजित होता है, उसी दिन उसे आचार्य - उपाध्याय पद दिया जा सकता है।
उसने आचार प्रकल्प - निशीथ का देश (सूत्र) पढ़ा हो अथवा देश (अर्थ) पढ़ना शेष हो, शेष अंश को पढ़ लूंगा - यह सोचकर जो सम्पूर्ण सूत्र को पढ़ लेता है तो उसे आचार्य - उपाध्याय पद दिया जा सकता है। 'पूरा पढ़ लूंगा' ऐसा चिन्तन करके भी जो सम्पर्ण सूत्र नहीं पढ़ता, उसको आचार्य - उपाध्याय पद पर उद्दिष्ट नहीं किया जा सकता।
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