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आचार्य
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जो इन उपकरण आदि स्थानों में आचार्यपदनियुक्ति से पूर्व भी जो सदा समुद्यत रहते थे, वे आचार्य बनने के पश्चात् भी इन स्थानों में विषण्ण नहीं होते, पूर्व अभ्यास के कारण खेद - खिन्न नहीं होते। ऐसे आचार्य ही दूसरे साधुओं को इन स्थानों में नियोजित करने में समर्थ होते हैं ।
गीतमगीता बहवो, गीतत्थसलक्खणा उ जे तत्थ । सिं दिसाउ दाउ, वितरति सेसे जहरिहं तु ॥ मूलायरि राइणिओ, अणुसरिसो तस्स होउवज्झाओ। गीतमगीता सेसा, सज्झिलगा होंति सीसाहा ॥ राइणिया गीतत्था, अलद्धिया धारयंति पुव्वदिसं । अपहुव्वंत सलक्खण, केवलमेगे दिसाबंधो ॥ सीसे य पहुव्वंत, सव्वेसि तेसि होति दायव्वा । अपहुप्पंतेसुं पुण केवलमेगे दिसाबंधो ॥ अच्चित्तं च जहरिहं, दिज्जति तेसुं च बहुसु गीतेसु । एस विधी अक्खातो, अग्गीतेसुं इमो उ विधी ॥ अरिहं व अनिम्माउं, णाउं थेरा भणंति जो ठवितो । एतं गीतं काउं, देज्जाहि दिसिं अणुदिसिं वा ॥ सो निम्माविय ठवितो, अच्छति जदि तेण सह ठितो लद्धं । अह न वि चिट्ठति तहियं, संघाडो तो सि दायव्वो । (व्यभा १३२३ - १३२९)
गच्छ में अनेक साधु गीतार्थ और अगीतार्थ होते हैं । उनमें जो आचार्यपद योग्य हों, लक्षणसम्पन्न हों, रानिक हों, संग्रह - उपग्रह की लब्धि से सम्पन्न हों, उन्हें दिशा (आचार्य पद) देकर शेष साधुओं को यथायोग्य (अनुरत्नाधिक आदि ) पद प्रदान किये जाते हैं ।
जो रानिक (दीक्षापर्याय में बड़े) और गीतार्थ हैं किन्तु लब्धिसम्पन्न नहीं हैं, वे पूर्वदिशा (पूर्वाचार्य द्वारा प्रदत्त दिशा अनुरत्नाधिकत्व आदि) को धारण करते हैं । उन्हें आचार्य या उपाध्याय पद पर आरोपित नहीं किया
जाता।
अनेक आचार्य वहां होते हैं, जहां बहुत साधु होते हैं। प्रत्येक आचार्य के साधु-परिवार की संख्या अपर्याप्त हो तो वहां केवल एक उसी को ही आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया जाता है, जो आचार्य के लक्षणों से सम्पन्न होता है। शेष सब
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साधु
शिष्यत्व से अनुबंधित होते हैं ।
उपाध्याय मूल आचार्य के अनुरूप तथा शेष गीतार्थ अनुरत्नाधिक और अगीतार्थ शिष्य होते हैं ।
० उपकरण वितरण - आचार्यपद पर स्थापित गीतार्थों को यथायोग्य वस्त्र, पात्र आदि उपकरण वितरित किए जाते हैं । • आचार्य पद योग्य शिष्य का निष्पादन- जो आचार्यपद योग्य है, किन्तु अभी तक अगीतार्थ है, उसके लिए स्थविर (वृद्धाचार्य) तत्काल स्थापित आचार्य को निवेदन करते हैं- भंते! अमुक साधु को गीतार्थ बनाकर दिशा या अनुदिशा (आचार्य या उपाध्याय पद) प्रदान करें।'
इस निवेदन पर आचार्य उसे सूत्र - अर्थ में निष्पन्न कर आचार्यपद पर स्थापित करते हैं ।
वह नव स्थापित आचार्य गुरु के साथ रहना चाहे तो गुरु के साथ रहे, स्वतंत्र विहार करना चाहे तो उसे एक संघटक समर्पित किया जाता है। ( वह गणधर द्वारा प्रदत्त दो-तीन सहयोगियों और पूर्व आचार्य द्वारा प्रदत्त वैयावृत्त्यकर को पढ़ाता है। उसके पास अभिनव प्रव्रजित साधु भी उसी के शिष्य होते हैं ।)
आगम विषय कोश - २
१०. आचार्य आदि पद : न्यूनतम संयमपर्याय- श्रुत
तिवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले, संजमकुसले, पवयणकुसले, पण्णत्तिकुसले, संगहकुसले, उग्गहकुसले अक्खयायारे असबलायारे अभिन्नायारे असंकिलिट्ठायारे बहुस्सुए बब्भागमे जहण्णेणं आयारपकप्पधरे कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥
पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे "जहण्णेणं दसाकप्पववहारधरे कप्पड़ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥
अवासपरियाए समणे निग्गंथे जहण्णेणं ठाणसमवायधरे कप्पड़ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए पवत्तित्ताए थेरत्ताए गणित्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए ॥ (व्य ३/३, ५, ७)
आधाकम्मुद्देसिय परिहरति असण-पाणं, सेज्जोवधिपूति-संकितं मीसं । अक्खुतमसबलमभिन्नऽसंकिलिट्ठमावासए जुत्तो ॥ आवश्यके युक्तः स्थापितादिपरिहारी अक्षता
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