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आगम विषय कोश-२
आचार्य
कोई आचार्य सद्योघाती रोग आदि के कारण गणधर ० कई मुनि स्वच्छंदचारी बनकर घूमते हैं। को स्थापित किए बिना ही कालगत हो जाए तो नये आचार्य ० कई मुनि आचार्य के वियोग में क्षिप्तचित्त हो जाते हैं। के पदाभिषेक की विधि यह है--
० पार्श्वस्थ या गृहस्थ मंदधर्मा क्षुल्लक आदि को उन्निष्क्रांत कालगत आचार्य के शव को पर्दे के पीछे स्थापित कर कर सकते हैं-विपरिणत कर अपना बना सकते हैं। आचार्यपद योग्य शिष्य को पर्दे के बाहर बिठाया जाता है। कई मनि निराश्रित लता की भांति संयम या परीषहों से आचार्यपद पर किसे प्रतिष्ठत किया जाये?-ऐसा कहते हुए कंपित हो जाते हैं। गीतार्थ मुनि पर्दे के भीतर से आचार्य के हाथ को ऊपर उठाकर ० कई मुनि अपने आचार्य को दिवंगत सुनकर अनुत्तरज्ञान स्थाप्यमान गणधर के अभिमुख करते हुए कहते हैं
आदि की प्राप्ति के लिए अन्य आचार्य के पास चले जाते हैं। 'हमारे आचार्य बोलने में अशक्त हैं, अतः इनकी ० कई मुनि सारणा के अभाव में गच्छांतर में चले जाते हैं। हस्तानुज्ञा से अमुक मुनि हमारे आचार्य हैं।' तत्पश्चात् पूर्व
२९. गणधारक के आभाव्य पुरुषयुग आचार्य के कालगत होने की घोषणा की जाती है।
सीसो सीसो सीसो चउत्थगं पि पुरिसंतरं लभति। जो शिष्य अभिनव स्थापित आचार्य का परिभव करते
हेट्ठा वि लभति तिण्णी, पुरिसजुगं सत्तहा होति। हैं, आचार्योचित विनय नहीं करते हैं. उन्हें आचार्य सत्र-अर्थ
मूलायरिए वज्जित्तु, उवरि सगणो उ हेट्ठिमे तिन्नि। की वाचना नहीं देते।
अप्पा य सत्तमो खलु, पुरिसजुगं सत्तधा होति। ___ आचार्य के पदाभिषेक के पश्चात् गणवर्ती शेष साधु स्वयं को तथा स्पर्धकपति (अग्रणी) स्वयं को और अपने
अधवानलभति उवरि, हेट्ठिच्चिय लभति तिण्णि तिण्णेय। अनुगामियों को गुरुचरणों में समर्पित करते हैं।
तिण्णि तल्लाभ-परलाभ, तिण्णि दासक्खरेणातं॥ (भंते! मैं और मेरे सहवर्ती साधु आपके चरणों में
(व्यभा १४६८-१४७०) समर्पित हैं, आप हमारे नाथ हैं।)
जो शिष्य अन्य गण में श्रुतअध्ययन कर पुनः अपने
गण में आता है, उसके आभाव्य पुरुषयुग सप्तविध हैं० निरपेक्ष के कालगत की पूर्व घोषणा से हानि
१. मूल आचार्य को छोड़कर शेष सारा गण। आचार्य पितृस्थानीय .."रण्णो व्व अणभिसित्ते, रज्जे खोभो तधा गच्छे॥ जायामो अणाहो त्ति, अण्णहि गच्छंति केइ ओधावे।
२. पितामह को छोड़कर पितामह का परिवार। सच्छंदा व भमंती, केई खित्ता व होज्जाही॥
३. प्रपितामह का परिवार। पासत्थगिहत्थादी, उन्निक्खावेज्ज खुड्डगादी उ।
-ये तीन उपरितन पुरुषयुग हैं। लता व कंपमाणा उ, केई तरुणा उ अच्छंति॥
४. गुरु भ्रातृ-प्रव्राजित समस्त परिवार। आयरियपिवासाए, कालगतं सोउ ते वि गच्छेन्जा।
५. भ्रातृव्य-प्रताजित समस्त परिवार । गच्छेज्ज धम्मसद्धा, व केइ सारेंतगस्सऽसती॥ ६. भ्रात-प्रताजितों द्वारा प्रव्राजित गण।
(व्यभा १५८१, १५८३-१५८५) -ये तीन अधस्तन पुरुषयुग हैं। जैसे नये राजा का अभिषेक किए बिना दिवंगत राजा ७. स्वयं द्वारा दीक्षित (पुत्रस्थानीय) शिष्य, शिष्यों द्वारा की घोषणा से राज्य में क्षोभ उत्पन्न होता है, वैसे ही गच्छ में दीक्षित (पौत्रस्थानीय) अनुशिष्य, इनके द्वारा दीक्षित नए आचार्य की स्थापना किए बिना पूर्व आचार्य के कालगत (प्रपौत्रस्थानीय) प्रशिष्य-यह एक (सातवां) पुरुषयुग है। होने की घोषणा से अन्य अनेक हानियां हो सकती हैं
ये सातों पुरुषयुग नव गणधारक के आभाव्य हैं (उसे ० आचार्य के बिना हम अनाथ हो गए हैं-यह सोचकर कई प्राप्त हो सकते हैं)। अथवा प्रथम तीन पुरुषयुग एक गुरु द्वारा मुनि अन्य गच्छ में जा सकते हैं या अवधावन कर सकते हैं। दीक्षित होने से उसके आभाव्य नहीं भी होते (सहदीक्षित सदा
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