________________
आचार्य
६८
आगम विषय कोश-२
सोचकर जो स्वयं दिग्बंध (आचार्यत्व) करता है, स्थविर पव्वज्जाय कुलस्स य, गणस्स संघस्स चेव पत्तेयं । की अनुज्ञा प्राप्त नहीं करता, उसे स्थविर सचेत करते हैं कि समयं सुतेण भंगा, कुजा कमसो दिसाबंधो॥ 'ऐसा करना अर्हत् की आज्ञा में नहीं है । प्रतिषेध करने पर
(व्यभा १२९९,१३०३) भी वह प्रतिनिवर्तित नहीं होता है, तो स्थविर शुद्ध हैं। उसे
एकपाक्षिक दो प्रकार का होता हैचतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
१. प्रव्रज्या से-दीक्षित होकर एक ही संघ में रहना। __ यदि स्थविर उपेक्षा करते हैं तो वे भी उपेक्षा-प्रत्ययिक २. श्रुत से-एक गुरु के पास श्रुत ग्रहण करना अथवा गुरु के चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
समान ही जिसका वाचन-श्रुतज्ञान हो। ० गणधारक को तीन शिष्य
एक पाक्षिक-१. प्रव्रज्या से है, श्रुत से है। ..."पव्वाविते समाणे, तिण्णि जहन्नेण दिजंति॥ २. प्रव्रज्या से है, श्रुत से नहीं है। एगो चिट्ठति पासे, सण्णा आलित्तमादि कज्जवा। ३. श्रुत से है, प्रव्रज्या से नहीं है। भिक्खादि वियार दुवे, पच्चयहेउं य दो होउं॥ ४. न प्रव्रज्या से है, न श्रुत से है। (व्यभा १४०६, १४०७) .
इसी प्रकार कुल, गण और संघ भी श्रुत के साथ
विकल्पनीय हैं। आचार्य शिष्य को गणधारण की अनुज्ञा देने के पश्चात्
• इनमें प्रथम विकल्पवर्ती अर्थात् जो प्रव्रज्या, कुल या प्रव्रजित शिष्यों में से कम से कम तीन शिष्य उस गणधारक
गण तथा श्रुत इन दोनों से एकपाक्षिक है, वही इत्वर या को अवश्य दे।
यावत्कथिक आचार्य-उपाध्याय के पद पर स्थापित करने एक शिष्य उसके पास बैठता है, वह आवश्यक कार्य
योग्य है। प्रथम भंग के अभाव में तृतीय भंगवर्ती आचार्य संपादित करता है और निर्देशानसार किसी के साथ बातचीत
पद पर स्थापनीय है। करना, बुलाना आदि कार्य भी करता है। शेष दो शिष्य भिक्षा, औषध आदि लाते हैं, बाहर विचारभूमि में साथ जाते हैं,
० एकपाक्षिक न होने से हानि : अन्य विकल्प सूत्रार्थ में संवादी प्रमाण भी बनते हैं।
दुविध तिगिच्छं काऊण, आगतो संकियम्मि कं पुच्छे।
पुच्छंति व कं इतरे, गणभेदो पुच्छणा हेउं॥ ८. एकपाक्षिक आचार्य पदयोग्य
न तरति सो संधेलं, अप्पाहारो व पुच्छिउं देति। एगपक्खियस्स भिक्खुस्स कप्पति इत्तरियं दिसं।
अन्नत्थ व पुच्छंते, सच्चित्तादी उ गेण्हंति॥ वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा, जहा वा तस्स
... पव्वज्जऽणेगपक्खिय, ठवयंत भवे इमे दोसा॥ गणस्स पत्तियं सिया।
(व्य २/२६)
दोण्ह वि बाहिरभावो, सच्चित्तादीसु भंडणं नियमा। ___ एक पाक्षिक (एक ही आचार्य के पास दीक्षा एवं होति स गणस्स भेदो, सुचिरेण न एस अम्ह त्ति॥ श्रुतग्रहण किए हुए) भिक्षु को अल्पकाल के लिए (अथवा .... पढमासति
ततियभंगमित्तिरियं। यावज्जीवन के लिए) आचार्य या उपाध्याय पद पर स्थापित ततियस्सेव तु असती, बितिओ तस्साऽसति चउत्थो॥ किया जा सकता है, वह गण को धारण कर सकता है। पगतीए मिउसहावं, पगतीए सम्मतं विणीतं वा। अथवा जिसके प्रति गण की प्रीति या प्रतीति हो, उसे णाऊण गणस्स गुरुं, ठावेंति अणेगपक्खिं पि॥ आचार्य बनाया जा सकता है।
(व्यभा १३०६-१३११) • एकपाक्षिक के विकल्प
श्रुत से अनेकपाक्षिक के दोष-कोई साधु मोहचिकित्सा या दुविहो र गपक्खी, पव्वजसुते य होति नायव्वो। रोगचिकित्सा कर लौटा है, उसे लम्बे कालव्यवधान के सुत्तम्मि एगवायण, पव्वज्जाए कुलिव्वादी॥ कारण सूत्र-अर्थ में शंका उत्पन्न हो गई है तो वह किसके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org