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आचार्य
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आगम विषय कोश-२
१२. आचार्य आदि पदों के अनर्ह
कोई देश दुर्भिक्ष, महामारी या अन्य उपद्रव से आक्रान्त आयरिय-उवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं अनि- है, वहां का राजा व्यसनी या अज्ञानी है, वह राज्य की चिंता क्खिवित्ता ओहाएज्जा, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो नहीं करता, उस राजा से राज्य सारहीन बन जाता है। उसी कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए प्रकार गच्छ की सारणा नहीं करने वाला आचार्य गच्छ को वा धारेत्तए वा॥
(व्य ३/२१) निस्सार बना देता है।
सारणा और गीतार्थ की अपेक्षा से आचार्य के चार आचार्य-उपाध्याय पद का विसर्जन किये बिना जो
विकल्प बनते हैंअवधावन या उत्प्रव्रजन करते हैं, उन्हें यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता।
१. कोई आचार्य अगीतार्थ है, गच्छ की सारणा नहीं करता।
२. कोई आचार्य अगीतार्थ है, गच्छ की सारणा करता है। वे स्वयं किसी पद को धारण नहीं कर सकते।
३. कोई आचार्य गीतार्थ है, गच्छ की सारणा नहीं करता। ० दोषसेवन से आचार्यत्व आदि के निषेध की सीमा
४. कोई आचार्य गीतार्थ है, गच्छ की सारणा करता है। भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म मेहुणधम्म पडि
प्रथम भंग उपद्रवयुक्त देश की तरह, दूसरा भंग सेवेज्जा""ओहायइ, तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं __ अज्ञानी राजा की तरह और तीसरा भंग व्यसनी राजा की नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दि- तरह परित्याज्य है। चौथा विकल्प शुद्ध है, आदरणीय है। सित्तए वा धारेत्तए वा। तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं
० सारणा-वारणा का मूल्य चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि"पडिविरयस्स निवि
जीहाए विलिहंतो, न भद्दओ जत्थ सारणा नत्थि। गारस्स, एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं
दंडेण वि ता.तो स भद्दओ सारणा जत्थ। वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा॥ (व्य ३/१३, १८)
(व्यभा ५६९) कोई भिक्षु (वेदोदय के कारण) गण से अपक्रमण कर मैथनधर्म की प्रतिसेवना करता है अथवा अवधावन करता
जो आचार्य सारणा नहीं करते, वे जिह्वा से चाटते है तो उसे उस कारण से (प्रायश्चित्त स्वरूप) तीन वर्ष पर्यन्त हुए (मधुर वचनी से प्रसन्न करते हुए) भी कल्याणकारी आचार्य यावत् गणावच्छेदक का पद नहीं दिया जा सकता,
नहीं हैं। वह कोई भी पद धारण नहीं कर सकता।
___ जहां सारणा होती है, प्रमत्त साधु का संयम योगों में तीन वर्ष बीतने पर चतुर्थ वर्ष के प्रवर्तित होने पर
पुनः प्रवर्तन होता है, वहां आचार्य दण्ड से ताडित करते हए प्रतिविरत और निर्विकार भिक्ष को आचार्य यावत गणावच्छेदक भी एकान्त कल्याणकारी हैं। के रूप में उद्दिष्ट (नियुक्त) किया जा सकता है। वह किसी ० सारणा-वारणा : दो दृष्टांत भी पद को धारण कर सकता है।
कन्नतेपुर ओलोयणेण अनिवारियं विणटुं तु। १३. आचार्य के प्रकार : गीतार्थ व सारणा के आधार पर ।
दारुभरो य विलतो. नगरद्वारे अवारिंतो॥ देसो व सोवसग्गो, वसणी व जहा अजाणगनरिंदो।
बितिएणोलोयंती, सव्वा पिंडित्तु तालिता पुरतो। रज्जं विलुत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो॥ भयजणणं सेसाण वि, एमेव य दारुहारी वि॥ अहवा वि अगीयत्थो, गच्छ न सारेइ इत्थ चउभंगो।
(बृभा ९९१, ९९२) बिइए अगीयदोसो, तइतो न सारेतरो सुद्धो॥ महर्द्धिक दृष्टांत-महर्द्धिक (राजा) के कन्याअन्त:पुर की देसो व सोवसग्गो, पढमो तइओ तु होइ वसणी वा। कन्याएं वातायनों से झांकती थीं। उनको किसी ने रोका नहीं। बिइओ
अजाणतुल्लो...........॥ उन्होंने विटपुत्रों के साथ आलाप करना शुरू कर दिया। वे (बृभा ९३७, ९४१, ९४२) सब विनष्ट हो गईं।
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