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आगम विषय कोश--२
आचार्य
इय सुद्धसुत्तमंडलि, दाविज्जति अत्थमंडली चेव। समर्पित वक्रस्वभावी के लिए वह सोचता है-यह क्रोधी, दोहिं पि असीदंते, देति गणं......॥ निरुपकारी, परुषभाषी, सबके प्रतिकूल वर्तन करने वाला और
(व्यभा १४२२-१४२९) अविनीत है-यह सोचकर उसे शत्रु की तरह आहत कर जो शिष्य गणधारण के योग्य हो. उसकी परीक्षा निकाल देता है, वह भी गणधारण के अयोग्य है। करनी चाहिए और उत्तीर्ण होने पर ही गणधरपद की
जो गणधारण की अर्हता से सम्पन्न है, वह क्षुल्लक अनुज्ञा देनी चाहिए। परीक्षा के बिंदु ये हैं
और वृद्ध का आहार, वस्त्र आदि द्वारा संग्रहण करता है, ० क्षुल्लक विषयक परीक्षा-तुम इस शैक्ष का ग्रहण-आसेवन सम्यक् अनुवर्तन करता है तथा मेधावी तरुण को अक्लांत शिक्षा द्वारा निर्माण करो-गुरु के इस निर्देश पर यदि वह भाव से ग्रहण और आसेवन शिक्षा में निपुण बनाता है। सोचता है
खग्गूड के साथ कोमल-कठोर वचनों से ऐसा व्यवहार यह शैक्ष चिरकाल के पश्चात मेरा उपकार करेगा. करता है, जिससे वह उसके वश में हो जाता है. माया को तब तक न जाने क्या होगा? क्यों इसे शिक्षित करूं? अथवा छोड़ देता है। जो खग्गूड छलपूर्वक एक स्थान को छोड़ पक्षी-शावक की भांति इसका पोषण करना कष्टप्रद है। विहार नहीं करता है, उसे भी वह मृदु-कठोर उपायों से पुष्ट होने पर भी मेरा होगा या नहीं होगा-कौन जाने? अथवा विहार के लिए तैयार कर देता है। इसकी सारणा से मेरे अध्ययन में व्याघात होगा। ऐसा चिंतन क्षुल्लक, स्थविर, तरुण और खग्गूड-इन चारों को सूत्र कर जो क्षुल्लक शैक्ष को प्रशिक्षित नहीं करता है, वह पढ़ाने में जो सफल होता है, उसे सूत्रमण्डली सौंपी जाती है। गणधारण के योग्य नहीं है।
जो सूत्रमण्डली और अर्थमण्डली-दोनों में विषण्ण नहीं ० स्थविर विषयक परीक्षा-यह स्थविर आर्यरक्षित के पिता होता, अपरिश्रांतता की अनुभूति करता हुआ ज्ञानाभिलाषी की तरह प्रवचन-प्रभावक होगा-ऐसा जानकर गुरु उसे स्थविर गच्छवर्ती साधुओं और प्रतीच्छकों को वाचना देता है, उनके शैक्ष समर्पित करते हैं, तब यदि वह सोचता है- चित्त को आकर्षित-आह्लादित करता है, मूल आचार्य उसे
यह वृद्ध है, पुष्ट करने पर भी न जाने कब काल- गण सौंप देते हैं। कवलित हो जाए? वृद्ध को संभालना दुष्कर है। यह प्रत्युपकार ७. गणधारण से पूर्व स्थविर पृच्छा। नहीं करेगा। जड़प्रज्ञ होने से इसे शिक्षित करने में सूत्रार्थ की
भिक्खू य इच्छेज्जा गणं धारेत्तए, नो से कप्पड़ थेरे हानि होगी। इसे शिक्षित करना बहुत सार्थक नहीं है। ऐसा
अणापुच्छित्ता गणं धारेत्तएजण्णं थेरेहिं अविइण्णं गणं सोच स्थविर को शिक्षित नहीं करने वाला गणधारण करने
धारेज्जा, से संतरा छेओ वा परिहारो वा। (व्य ३/२) योग्य नहीं है।
सयमेव दिसाबंध, अणणुण्णाते करे अणापुच्छा। ० तरुणविषयक परीक्षा-तरुण को सौंपने पर यदि वह सोचता
थेरेहि य पडिसिद्धो, सुद्धा लग्गा उवेहंता॥ है-यह मेधावी है, बहुत प्रश्न करता है, बहुत ग्रहण करता है। इसे आक्षेप पद्धति (संवाद शैली या विभज्यवाद शैली)
(व्यभा १४७४) से पढ़ाने में क्या लाभ है?
भिक्षु गणधारण करना चाहे तो स्थविर (गच्छमहत्तर) __ यह सूत्र-अर्थ में निपुण हो गया तो मेरा प्रतिपंथी हो को पूछे बिना गण धारण नहीं कर सकता। स्थविर की अनुज्ञा जाएगा इसलिए इसे कौन पढ़ाए? क्यों पढ़ाए? ऐसा चिन्तक के बिना गणधारण करने वाला छेद या परिहार प्रायश्चित्त का गणधारक पद के अनर्ह है।
भागी होता है। ० खग्गूड विषयक परीक्षण–वक्र सामाचारी वाले को शिक्षा मेरे आचार्य भावतः मुझे आचार्य बना चुके हैं, (आचार्य आदि द्वारा ऋज और कुशल बनाओ-इस निर्देश के साथ के कालगत होने पर) अब स्थविरों को क्या पछना है-ऐसा
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