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आगम विषय कोश-२
आचार्य
अखण्ड आराधना करते हैं, जैसे लोग चक्रवर्ती की आज्ञा की ४. आचार्य के प्रकार : प्रव्राजनाचार्य....... आराधना करते हैं।
चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा-पव्वावणा० श्रीगृह की उपमा : तोसलिक दृष्टांत
यरिए नाममेगे नो उवट्ठावणायरिए, उवट्ठावणायरिए जह राया तोसलिओ, मणिपडिमा रक्खते पयत्तेण। नाममेगे नो पव्वावणायरिए, एगे पव्वावणायरिए वि तह होति रक्खियव्वो, सिरिघरसरिसो उ आयरिओ॥ उवट्ठावणायरिए वि, एगे नो पव्वावणायरिए नो उवट्ठापडिमुप्पत्ती वणिए, उदधीउप्पात उवायणं भीते। वणायरिए धम्मायरिए॥ रयणदुगे जिणपडिमा, करेमि जदि उत्तरेऽविग्धं ॥ चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा-उद्देसणायरिए उप्पा उवसम उत्तरणमविग्धं एक्कपडिमकरणं वा। नाममेगे नो वायणायरिए, वायणायरिए नाममेगे नो देवयछंदेण ततो, जाता बितिए वि पडिमा उ॥ उद्देसणायरिए, एगे उद्देसणायरिए वि वायणायरिए वि, एगे "ता दीवएण पडिमा, दीसंतिधरा उ रयणाई॥ नो उद्देसणायरिए नोवायणायरिए-धम्मायरिए॥ सोऊण पाडिहेरं, राया घेत्तूण सिरिहरे छुभति।
(व्य १०/१५, १६) मंगलभत्तीय ततो, पूएति परेण जत्तेण॥ जो पुण नोभयकारी, सो कम्हा भवति आयरीओ उ। पूयंति य रक्खंति य, सीसा सव्वे गणिं सदा पयता। भण्णति धम्मायरिओ, सो पुण गिहिओ व समणो वा॥ इध परलोए य गुणा, हवंति तप्पूयणे जम्हा॥ धम्मायरि पव्वावण, तह य उवट्ठावणा गुरू ततिओ।
___(व्यभा २५६०-२५६४, २५६६) कोइ तिहिं संपन्नो, दोहि वि एक्केक्कएणं वा॥ आचार्य श्रीगृह के समान होते हैं, अतः उनकी वैसे
(व्यभा ४५९२, ४५९३) ही रक्षा करनी चाहिए, जैसे तोसलिक नृप ने श्रीगृह में मणि- आचार्य के चार प्रकार हैं- . प्रतिमाओं की रक्षा की थी।
१. कुछ आचार्य प्रव्रज्या (मुनिवेश) देने वाले होते हैं, किन्तु प्रतिमाउत्पत्ति-एक रत्नवणिक् समुद्रयात्रा कर रहा उपस्थापना (महाव्रतों में आरोपित) करने वाले नहीं होते। था। उपद्रव उपस्थित हुआ। वणिक् ने भयभीत होकर २. कुछ आचार्य उपस्थापना करने वाले होते हैं, किन्तु प्रव्रज्या देवता की मनौती की-यदि मैं निर्विघ्न पार पहुंच जाऊं तो देने वाले नहीं होते। मणिरत्नमय दो जिनप्रतिमाएं बनवाऊंगा। उपद्रव शांत हो ३. कुछ आचार्य प्रव्रज्या भी देते हैं और उपस्थापित भी गया। वह निर्विघ्न समुद्र के पार पहुंच गया। मन में लोभ जागा। अतः मणिरत्नमय एक प्रतिमा बनवाई। देवता के ४. कुछ आचार्य न प्रव्रज्या देते हैं और न उपस्थापित करते अभिप्राय से दूसरी प्रतिमा भी निर्मित हो गई। हैं। यहां आचार्य धर्माचार्य की कक्षा के हैं (वे केवल धर्माचार्य
दीपक के प्रकाश में वे प्रतिमा के रूप में दृश्य होती होते हैं)। थीं अन्यथा रत्न ही दिखाई देते थे। प्रतिमाओं का यह चमत्कार । शिष्य ने पूछा-जो न प्रव्रज्या देता है, न उपस्थापना सुनकर राजा तोसलिक ने उनको अपने श्रीगृह भांडागार में करता है, वह आचार्य कैसे? रखवा दिया। राजा मंगलबुद्धि और परम भक्ति से यत्नपूर्वक आचार्य ने कहा-जो धर्मोपदेश देता है, प्रथम बार धर्म उनकी पूजा करता।
में प्रेरित करता है, वह धर्माचार्य होता है। वह गृहस्थ या इसी प्रकार सब शिष्य रत्नतुल्य आचार्य की सदा श्रमण कोई भी हो सकता है। प्रयत्नपूर्वक पूजा-रक्षा करते हैं। गुरु की पूजा करने से इस धर्माचार्य, प्रव्राजनाचार्य और उपस्थापनाचार्य-ये तीनों लोक और परलोक में महान् गुणों की प्राप्ति होती है-विपुल पृथक्-पृथक् भी हो सकते हैं अथवा एक ही व्यक्ति दोनों श्रुतलाभ और मोक्षमार्ग की आराधना होती है।
या तीनों प्रकार का आचार्य भी हो सकता है।
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