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आगम
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आगम विषय कोश-२
करता है, इसलिए अंग है।
० आचारांग वाचना की प्राथमिकता ८. आचीर्ण-इसमें आचीर्ण-धर्म का प्रतिपादन है, इसलिए जे भिक्खू णव बंभचेराई अवाएत्ता उत्तमसुयं यह आचीर्ण है।
वाएति, वाएंतं वा सातिज्जति॥ (नि १९/१७) ९. आजाति-इससे ज्ञान आदि आचारों की प्रसूति होती है,
जो भिक्षु नौ ब्रह्मचर्य अर्थात् आचारांग से पहले छेद इसलिए आजाति है। १०. आमोक्ष-यह बंधन-मुक्ति का साधन है, इसलिए आमोक्ष सूत्र आदि की वाचना देता है, वह प्रायश्चित्त का भागी
होता है। ४. आचारांग की प्राथमिकता क्यों?
५. आचारधर : पहला गणिस्थान आयारपकप्पे ऊ, नवमे पुव्वम्मि आसि सोधी य।।
आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ। तत्तो च्चिय निज्जढो. डधाणितो एण्हि किं न भवे?॥
तम्हा आयारधरो भण्णति पढमं गणिट्ठाणं॥ पुब्विं सत्थपरिणा, अधीत-पढिताइ होउवट्ठवणा।
(आनि १०) एण्हिं छज्जीवणिया, किं सा उ न होउवट्ठवणा॥ 'आचार' को पढ़ लेने पर सारा श्रमण-धर्म परिज्ञात बितियम्मि बंभचेरे, पंचमउद्देस आमगंधम्मि। हो जाता है। इसलिए आचारधर को पहला गणिस्थान (आचार्य सत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणा एसो॥ होने का प्रथम कारण) कहा जाता है। आयारस्स उ उवरिं उत्तरज्झयणाणि आसि पुव्वि तु। अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट की भेदरेखा दसवेयालिय उवरिं, इयाणिं किं ते न होंति उ॥
___ गणहर-थेरकयं वा, आदेसा मुक्कवागरणतो वा। (व्यभा १५२८, १५३१-१५३३)
धव-चलविसेसतो वा, अंगा-ऽणंगेसु णाणत्तं॥ प्राचीनकाल में नौवें पूर्व में आचार प्रकल्प था, उससे
आदेसा जहा अज्जमंगू तिविहं संखं इच्छइ शोधि की जाती थी-उसके आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाता
एकभवियं, बद्धाउयं, अभिमुहणामगोत्तं। अजसमुद्दा था। वर्तमान में उसी पूर्व से नियूंढ निशीथ के आधार पर क्या
दुविहं-बद्धाउयं, अभिमुहणामगोत्तं च।अज्जसुहत्थी प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता?
एगं अभिमुहणामगोत्तं इच्छइ। प्राचीन काल में शस्त्रपरिज्ञा (आयारो का प्रथम
मुक्कवागरणा जहा-वरिस देव! कुणालाए। अध्ययन) का अर्थतः अध्ययन करने पर और सूत्रतः पढ़ने पर उपस्थापना होती थी। वर्तमान में षड्जीवनिका
मरुदेवा अणादिवणस्सइकातिता। एते आदेसमुक्क
वागरणा अंगबाहिरा। अधवा धुवा बारसंगा। चला (दशवैकालिक के चौथे अध्ययन) के अध्ययन-पठन से क्या उपस्थापना नहीं होती?
पइण्णगा-कयाइ णिज्जूहिज्जंति कताइ न।। पहले मुनि आचारांग के लोकविजय नामक दूसरे
(बृभा १४४ चू) अध्ययन के पांचवें उद्देशक ब्रह्मचर्य के आमगंधि सूत्र पर्यंत यद् गणधरैः कृतं तदङ्गप्रविष्टम्। यत्पुनर्गणधर(सव्वामगंधं परिण्णाय णिरामगंधो परिव्वए २/५/१०८) कृतादेव स्थविरैर्निर्मूढम्; ये चादेशाः यथा-आर्यमङ्गसूत्रतः और अर्थतः पढ़ लेने पर पिण्डकल्पी होता था। राचार्यस्त्रिविधं शंखमिच्छति""यानि च मुक्तकानि वर्तमान में दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन 'पिण्डैषणा' व्याकरणानि, यथा-"वर्ष देव कुणालायाम्" इत्यादि, को पढ़ लेने पर वह पिण्डकल्पी हो जाता है।
तथा मरुदेवा भगवती अनादिवनस्पतिकायिका तद्भवेन पहले आचारांग के पश्चात् उत्तराध्ययन पढ़ा जाता था। सिद्धा इत्यादि, एतत्स्थविरकृतम् आदेशा मुक्तकअब दशवैकालिक के पश्चात उत्तराध्ययन पढ़ा जाता है। व्याकरणतश्च अनंगप्रविष्टम्। अथवा ध्रुव-चलविशेष
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