________________
आगम
आगम विषय कोश-२
. आचार्य पारम्पर्यश्रुत्यायातो वृद्धवादो यमैतिह्यमाचक्षते। अर्थापत्ति से उसकी सिद्धि हो जाती है-यह सही है, तथापि ..' आदेशः वृद्धवादायातः । आनि २६५, २६६ की वृ विपक्ष का साक्षात् कथन किया जाता है-यह कालिकश्रुत की अंगबाह्य रचनाकार-सभी तीर्थंकरों ने अर्थागम का प्रतिपादन
रचना शैली है। कालिकश्रुत की रचना शैली के कुछ लक्षण ये किया। आरातीय (उत्तरवर्ती) आचार्यों ने कालदोष से प्रभावित अल्प आयु, मति और शक्ति वाले शिष्यों पर अनुग्रह कर
० व्यवहारनय-कालिकश्रुत में अर्थापत्ति का प्रयोग नहीं है। अंगबाह्य की रचना की। सर्वार्थसिद्धि, पृ ८७
उससे लब्ध अर्थ का भी शिष्यों पर अनुग्रह करने के लिए अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का तत्त्वार्थ अर्हत ने बतलाया
साक्षात् प्रतिपादन किया गया है। जैसे-उत्तराध्ययन के प्रथम और उपांग सहित द्वादशांग की रचना गणधर गौतम ने की।
अध्ययन की दूसरी गाथा में आणानिद्देसकरे... विनीत का
स्वरूप बताकर तीसरी गाथा में अविनीत का स्वरूप बताया -हरिवंशपुराण २/१०१, १११)
गया है, जब कि अर्थापत्ति से वह स्वतः प्राप्त है। ७. कालिकश्रुत और दृष्टिवाद की रचनाशैली . अनर्पित-कालिकश्रुत में विषयविभाग की प्रधानता नहीं
कामं विपक्खसिद्धी, अत्थावत्तीइ होतऽवुत्ता वि। है। सत्र में विशेष का कथन साक्षात् नहीं है, वह अर्थ से तह वि विवक्खो वुच्चति, कालियसुयधम्मता एसा।। ज्ञातव्य है। ववहार णऽत्थवत्ती, अणप्पिएण य चउत्थभासाए। . चतुर्थभाषा-असत्यामृषा भाषा अर्थात् व्यवहार भाषा को मूढणय अगमितेण य, कालेण य कालियं नेयं॥ चतुर्थभाषा कहा गया है, सत्य, मृषा, मिश्र और व्यवहार
व्यवहारनयमतेन कालिकश्रुते प्रायः सूत्रार्थनिबन्धो भाषा के इन चार प्रकारों में व्यवहारभाषा चौथा प्रकार है। भवति"अपत्तिः कालिकश्रुते न व्यवह्रियते किन्तु तया आमंत्रणी, आज्ञापनी आदि उसके भेद हैं। कालिकश्रुत इस लब्धोप्यर्थः प्रपंचितज्ञविनेयजनानुग्रहाय साक्षादेवाभि- भाषा में निबद्ध है, यथाधीयते, यथा उत्तराध्ययनेषु प्रथमाध्ययने "आणानिदेसकरे" ।
आमंत्रणी-गोयमा! (गा. २) इत्यादिना विनीतस्वरूपमभिधायार्थापत्तिलब्ध
आज्ञापनी-सव्वे पाणा ण हंतव्वा। मप्यविनीतस्वरूपम्"आणाअनिद्देसकरे"(गा. ३) इत्यादिना ० मूढनय-कालिकश्रुत मूढनयिक है। इसमें नयविभाग से भूयः साक्षादभिहितमिति"अनर्पितं विषयविभागस्यानर्पणं
सब नयों के भेद-प्रभेदों द्वारा विस्तत निरूपण नहीं है। तेन कालिकश्रुतं रचितम्, विशेषाभिधानरहितमित्यर्थः....
(अपृथक्त्व अनुयोग में सब नयों का समवतार था, विशेषः सूत्रे साक्षान्नोक्तः परमर्थादवगन्तव्यः'असत्यामृषा
पृथक्त्व अनुयोग में सब नयों का समवतरण नहीं है
मूढनइयं सुयं कालियं तु, ण णया समोयरंति इह । नाम चतुर्थभाषा भण्यते, सा चामन्त्रण्याऽऽज्ञापनीप्रभृतिस्वरूपा, तया कालिकश्रुतं निबद्धम् दृष्टिवादस्तु नैगमादि
अपुहुत्ते समोयारो, णत्थि पुहुत्ते समोयारो॥ नयमतप्रतिबद्धनिपुणयुक्तिभिर्वस्तुतत्त्वव्यवस्थापकतया
विभा २२७६)
० अगमिक-यह विसदृश पाठों में निबद्ध है। सत्यभाषानिबद्ध इति भावः। तथा मूढाः-विभागेना
० कालिक-जो आगम दिन-रात के प्रथम प्रहर व चरम प्रहर व्यवस्थापिता नया यस्मिन् तद् मूढनयम् ततो मूढनयत्वेन
में पढे जाते हैं, वे कालिक कहलाते हैं। ग्यारह अंग कालिक कालिकं विज्ञेयम्।तथा गमाः-भंग-गणितादयः सदृशपाठा । वा तैर्युक्तंगमिकम्, तद्विपरीत- मगमिकम्, तेनागमिकत्वेन
(आयारो आदि ग्यारह अंग कालग्रहण आदि की विधि कालिकश्रुतं ज्ञेयम् काले-प्रथम-चरमपौरुषीलक्षणे
से पढ़े जाते हैं, अत: वे कालिक हैं। कालिकश्रुत में प्राय: पठ्यते॥
(बृभा ५२३४,५२३५ वृ) चरणकरणानुयोग का प्रतिपादन है। विभा २२९४ की वृत्ति) कालिकश्रुत-यद्यपि प्रतिपक्ष का कथन न करने पर भी दृष्टिवाद-दृष्टिवाद में नैगम आदि नयों से प्रतिबद्ध निपुण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org