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आगम विषय कोश- २
तोऽङ्गाऽनङ्गेषु नानात्वम् । तद्यथा - ध्रुवं अंगप्रविष्टम्, तच्च द्वादशांगम्, तस्य नियमतो निर्यूहणात् चलानि प्रकीर्ण - कानि तानि हि कदाचिन्निर्यूह्यन्ते कदाचिन्न, तान्यनङ्ग- प्रविष्टम् । (बृभा १४४ की वृ) गणधरों द्वारा रचित आगम अंगप्रविष्ट है। गणधरकृत आगमों से स्थविरों द्वारा निर्यूढ आगम अनंगप्रविष्ट हैं।
अथवा आदेश और मुक्तव्याकरण अनंगप्रविष्ट हैं। • आदेश - जैसे आर्य मंगु को त्रिविध शंख मान्य हैं- एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । आर्य समुद्र को द्विविध शंख मान्य हैं - बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र। आर्य सुहस्ती केवल अभिमुखनामगोत्र शंख को मान्य करते हैं।
बहुसुतमाइणं न उ, बाहियऽण्णेहि जुगप्पहाणेहिं । आदेसो सो उ भवे, अधवावि नयंतरविगप्पो ॥ (व्यभा ३८२५)
जो बहुश्रुतों द्वारा आचीर्ण है और अन्य युगप्रधान आचार्यों द्वारा बाधित नहीं है, वह आदेश कहलाता है। अथवा नयान्तर (किसी अपेक्षा से कृत) विकल्प आदेश है। ० मुक्तव्याकरण- जैसे- दो उपाध्याय थे- कुरुट और उत्कुरु । किसी कारणवश रुष्ट होकर कुरुट ने कहा- देव ! कुणाला में बरसो । उत्कुरुट ने कहा- पन्द्रह दिन निरंतर बरसो । कुरुट ने कहा- मुसलाधार वर्षा करो - इतना कहकर वे साकेत चले गए। तीसरे वर्ष मरकर सातवीं नरक में उत्पन्न हुए। पन्द्रह दिन में कुणाला नगरी जलप्लावित होकर विनष्ट हो गई। कुणाला के विनाश के बारह वर्ष पश्चात् भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।
• मरुदेवा अनादि वनस्पतिकायिक से उद्वृत्त होकर सिद्ध हुई । विकृत आदेश और मुक्तव्याकरण अंगबाह्य हैं। अंगप्रविष्ट - द्वादशांग नियत है, उसका नियमतः संगुम्फन होता है।
अनंगप्रविष्ट - प्रकीर्णक अनियत हैं, उनका निर्यूहण कभी होता है, कभी नहीं होता ।
(विशेष - प्रस्तुत गाथा में आदेश और मुक्तव्याकरण - ये दो शब्द विमर्शनीय हैं। वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि ने विभिन्न नयों अथवा द्रव्यनिक्षेप के आधार पर विकल्पित
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मान्यताओं का आदेश के रूप में तथा पांच सौ आदेशों का मुक्तव्याकरण के रूप में प्रतिपादन किया है और दोनों को अंगबाह्य आगम कहा है T
भाष्यकार के अनुसार आदेश अंगप्रविष्ट और मुक्तव्याकरण अंगबाह्य है। विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में लिखा है
आगम
गणधर द्वारा कृत त्रिपृच्छा के प्रत्युत्तर में तीर्थंकर का उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक जो आदेश - प्रतिवचन है, उससे निष्पन्न है अंगप्रविष्ट ।
प्रश्न पूछे बिना तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित अर्थ - मुक्तव्याकरण से जो निष्पन्न है, वह अंगबाह्य है
गणधरपृष्टस्य तीर्थकरस्य संबंधी य आदेशः प्रतिवचनमुत्पादव्यय- ध्रौव्यवाचकं पदत्रयमित्यर्थः, तस्माद् यद् निष्पन्नं तदंगप्रविष्टं द्वादशांगमेव। 'मुत्कं मुत्कलम- प्रश्नपूर्वकं च यद् व्याकरणमर्थप्रतिपादनं, तस्माद् यद् निष्पन्नं तदंगबाह्यमभिधीयते, तच्चावश्यकादिकम् । ध्रुवं सर्वतीर्थकरतीर्थेषु नियतं निश्चयभावि श्रुतमंगप्रविष्टम्... अनियतमनिश्चयभावि तत् तंदुलवैकालिक प्रकीर्णकादि श्रुतमंगबाह्यम् । विभा ५५० की मवृ
आदेशाद् - आदेशेन त्रिपृच्छोत्थं तदंगप्रविष्टं, स्थविरकृतमंगबाह्यम् । उत्कृष्टव्याकरणव्यापारमात्रोपसंहतं वा । -विभा ५५० की कोवृ
आदेश शब्द का अन्यार्थ - श्रुतकरण के दो भेद हैंबद्धश्रुत और अबद्धश्रुत । द्वादशांग बद्धश्रुत है, शेष आगम अबद्धश्रुत हैं।
जो पाठ अंग- उपांग में नहीं हैं, उन्हें आदेश कहा गया है । यथा
श्रीविष्णु ने कुछ अधिक एक लाख योजन की विकुर्वणा की।
०
• स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यों और पद्मपत्रों के वलय संस्थान को छोड़कर शेष सब संस्थान होते हैं।
०
इस प्रकार के पांच सौ आदेश सूत्रों में निबद्ध नहीं हैं। यह वृद्धसम्प्रदाय से प्राप्त है -द्र श्रीआको १ श्रुतज्ञान ० जो आचार्यपरम्परा से प्राप्त है, वृद्धवाद से आयात है, वह आदेश है, इसे ऐतिह्य कहा गया है
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