________________
आगम विषय कोश-२
५३
आगम
१७. अर्थधर मुनि प्रमाण
(व्यतिकृष्ट काल-द्वितीय-तृतीय प्रहर) में अंगग्रंथों का अत्थधरो तु पमाणं, तित्थगरमुहुग्गतो तु सो जम्हा। पठन-पाठन नहीं करना चाहिये। पुव्वं च होति अत्थो, अत्थे गुरु जेसि तेसेवं ॥ २०. आचार, आचारचूला और निशीथ
(निभा २२) बंभचेरमइओ, अट्ठारसपदसहस्सिओ वेदो। कुल, गण और संघ के सामाचारी-प्ररूपण में अर्थधर हवइ य सपंचचूलो, बहुबहुतरओ पदग्गेणं॥ मुनि प्रमाण होता है क्योंकि अर्थ तीर्थंकर के श्रीमुख से सत्थपरिण्णा लोगविजओ य सीओसणिज्ज सम्मत्तं। उद्गत है। सूत्र से पहले अर्थ होता है।
तह लोगसारनाम, धुतं तह महापरिण्णा य॥ सूत्रार्थधर के अभाव में अर्थधर मुनि गणसंचालन (गण
अट्ठमए य विमोक्खो, उवहाणसुतंच नवमगं भणियं। अनुज्ञा) करते हैं, सूत्रधर नहीं।
इच्चेसो आयारो, आयारग्गाणि सेसाणि॥ अर्थभेद होने पर गुरु प्रायश्चित्त तथा सूत्रभेद होने
___(आनि ११, ३१, ३२) पर लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है-जिन आचार्यों का यह ताओ य पुण साओ पंचचूलाओ-पिंडेसणादिअभिमत है, उसका कारण यही है कि अर्थधर प्रमाण होता जावोग्गहपडिमा तावपढमा चूला, बितिया सत्तिक्कगा, तइया
भावणा, चउत्था विमोत्ती, पंचमी आयारपकप्पोएताहिं पंचहिं (सूत्रपौरुषी न करने पर मासलघु तथा अर्थपौरुषी न चूलाहिं सहिओ आयारो।"पुव्वाणुपुव्वीए इच्चेयं करने पर मासगुरु प्रायश्चित्त विहित है-निभा ४१ की चू) णिसीहचूलझयणं छव्वीसइमं। (निभा १ की चू) १८. अर्हत् महावीर की अंतिम देशना
__नवब्रह्मचर्यमय अर्थात् आचारांग के नौ अध्ययन हैं, पच्चूसकालसमयंसि संपलियंकनिसन्ने पणपन्नं
अठारह हजार पद हैं। इससे ब्रह्मचर्य का ज्ञान होता है (ब्रह्म अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई, पणपन्नं अज्झयणाई
और चरण की उत्पत्ति के निमित्त अथवा उनकी साधना के पावफलविवागाई, छत्तीसं च अपुट्ठवागरणाइं वागरित्ता
गुर जाने जाते हैं), इसलिए यह वेद है। इसकी पांच चूलाएं पधाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे-विभावेमाणे "सिद्धे
१. शस्त्रपरिज्ञा २. लोकविजय ३. शीतोष्णीय ४. बुद्धे मुत्ते।
(दशा ८ परि सू १०६)
सम्यक्त्व ५. लोकसार ६. धुत ७. महापरिज्ञा ८. विमोक्ष ९. प्रात:काल का समय, पर्यंकासन में आसीन तीर्थंकर
उपधानश्रुत-ये नौ अध्ययन आचार कहलाते हैं तथा शेष महावीर ने कल्याणफलविपाक वाले पचपन अध्ययन,
अध्ययन आचाराग्र (आचारचूला) कहलाते हैं। पापफलविपाक वाले पचपन अध्ययन तथा छत्तीस अपृष्ट- आचारचूला में चार चूलाएं हैंव्याकरणों को कहकर प्रधान अध्ययन का निरूपण करते- ० प्रथम चूला-पिंडैषणा यावत् अवग्रहप्रतिमा (१ से ७)। करते सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए।
० द्वितीय चूला-सप्त सप्तैकक (८ से १४) अध्ययन १९. उद्घाटा पौरुषी में अंगपठन निषिद्ध क्यों?
० तृतीय चूला-भावना (१५ वां अध्ययन)
.० चतुर्थ चूला-विमुक्ति (अंतिम १६ वां अध्ययन) ___अर्हन् पूर्वाह्नऽपराह्ने च भाषते, एषैव भगवतो देशना
___० पंचम चूला-आचारप्रकल्प (द्र छेदसूत्र) अंगे निबद्धा, तस्मादुद्धाटायां पौरुष्यां न पठनीयम्।
आचारांग प्रथम चार चूलिकाओं के प्रक्षेप से बहुपद (व्य ७/१४ का वृ) परिमाण वाला और पांचवीं चूलिका के प्रक्षप स बहुतर अर्हत् भगवान् पूर्वाह्न और अपराह्न में देशना देते हैं, परिमाण वाला है। वही देशना अंगप्रविष्ट में निबद्ध है, अतः उद्घाटा पौरुषी आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययन तथा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org