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आगम विषय कोश-२
आचार
पेयापान किया, वमन हुई और वह मर गया। मेरी मां मुझे में अतिचार की भजना है-कभी होता है, कभी नहीं होता। मक्षिका नहीं खिला सकती-यह सोचकर दूसरे भाई ने नि:शंक ११. वीर्याचार का स्वरूप होकर पेयापान किया, वह जीवित रहा।
__ अणिगूहियबलविरिओ, परक्कमति जो जहुत्तमाउत्तो। १०. अतिचार : ज्ञान-दर्शन-चारित्र और भाव
जुंजइ य जहत्थामं, णायव्वो वीरियायारो॥ एक्केक्कं पियतिविहं, सट्टाणे नस्थि खइय अतियारो।
(निभा ४३) उवसामिएसु दोसुं, अतियारो होज्ज सेसेसु॥
मुनि अपने बल-वीर्य का गोपन न करता हुआ अत्यंत सट्टाणपरट्ठाणे, खओवसमितेसु तीसु वी भयणा। जागरूकता से सत्रोक्त विधि के अनुसार ज्ञान आदि की आराधना दंसण-उवसम-खइए, परठाणे होति भयणा उ॥ में पराक्रम करता है, स्वयं को यथाशक्ति कार्यों में नियोजित करता
(व्यभा ९८३, ९८४)
है-यह वीर्याचार है। दर्शन के तीन प्रकार हैं
१२. वीर्याचार के प्रकार १. क्षायिक दर्शन–क्षायिकसम्यग्दृष्टि के क्षायिक सम्यक्त्व।
नाणे दंसण-चरणे, तवे य विरिये य भावमायारो। २. औपशमिक दर्शन-उपशम श्रेणी में औपशमिक सम्यक्त्व (किसी एक अपेक्षा से)।
अट्ठ टू टू दुवालस, विरियमहानी तु जा तेसिं॥ ३. क्षायोपशमिक दर्शन-उपर्युक्त दोनों से अतिरिक्त (शेष
(निभा ७) काल में) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व।
भाव आचार के पांच प्रकार हैं-जान. दर्शन. चारित्र. चारित्र के तीन प्रकार हैं
तप और वीर्य। ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इनमें से प्रत्येक १. क्षायिक चारित्र-क्षपक निर्ग्रन्थ में।
आचार के आठ-आठ भेद हैं। तप के बारह भेद हैं। इन २. औपशमिक चारित्र-उपशमक निर्ग्रन्थ में।
छत्तीस (८+८+८+१२-३६) भेदों के परिपालन में शक्ति ३. क्षायोपशमिक चारित्र-उल्लिखित द्वयी से अन्य निर्ग्रन्थ का गोपन न करना वीर्याचार है। उसके छत्तीस भेद हैं। में।
* दर्शन-चारित्र-तप आचार के भेद आदि क्षायिक भाव-क्षायिक ज्ञान-दर्शन-चारित्र में वर्तमान केवली
द्र श्रीआको १ आचार के स्वस्थान में किंचित् भी अतिचार नहीं होता, परस्थान में संभव भी है।
१३. आचार कुशल कौन? औपशमिक भाव-औपशमिक दर्शन और चारित्र में वर्तमान
यः कुशं दर्भ दात्रेण तथा लुनाति न क्वचिदपि निर्ग्रन्थ के स्वस्थान में अतिचार नहीं होता। कषाय-उपशांति
दात्रेण विच्छिद्यते स द्रव्यकुशलः।."यः पुनः पञ्चके कारण वहां प्रतिसेवना संभव नहीं है। उसमें अनुपयोग
विधेनाचारेण दात्रकल्पेन कर्मकुशं लुनाति स भाव(प्रमाद) से अन्यथा प्ररूपण-चिंतन के कारण ज्ञानविराधना कुशलः।
(व्य ३/३ वृ) हो सकती है।
कुशल के दो प्रकार हैंउपशमश्रेणी के पतनकाल में औदयिकभाव के कारण द्रव्य कुशल-जो कुश को दात्र से इस प्रकार से काटता है कि अतिचार संभव है।
वह उससे स्वयं छिन्न नहीं होता। औपशमिक और क्षायिक दर्शन-चारित्र में स्वस्थान में भाव कुशल-जो दात्रसदृश पंचविध आचार के द्वारा कर्मकुश अतिचार नहीं होता, परस्थान में प्रतिसेवना की भजना है। को काटता है। क्षायोपशमिक भाव-क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान निर्ग्रन्थ अब्भुट्ठाणे आसण, किंकर अब्भासकरणमविभत्ती। के ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीनों में स्वस्थान और परस्थान पडिरूवजोगजुंजण, नियोगपूजा जधाकमसो॥
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