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आगम विषय कोश-२
आगम
८-१४
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१-७
आचारांग की पांच चूलाओं में से एक है। इसलिए पांचों १ १-७
चूलाओं का कर्ता एक ही होना चाहिए। चार चूलाओं को एक २, ४
क्रम में पढ़ा जा सकता है। निशीथ को परिपक्व बुद्धि वाले २३. आचारचूला का निर्वृहण क्यों
को ही पढ़ने का अधिकार है। इसलिए संभव है कि प्रथम थेरेहिऽणुग्गहट्ठा, सीसहियं होउ पागडत्थं च।
चार चूलाओं की एक श्रुतस्कंध के रूप में और निशीथ की
स्वतंत्र आगम के रूप में योजना की गई। आयाराओ अत्थो, आयारग्गेसु पविभत्तो।
पंचकल्पभाष्य (गाथा २३) और चूर्णि के अनुसार स्थविरैः श्रुतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविद्भिः।
निशीथ के कर्ता भद्रबाह हैं। इसलिए आचारांग की चार (आनि ३०७ वृ)
चूलाओं के कर्ता भी वे ही होने चाहिए। यदि हमारा यह श्रुतवृद्ध चतुर्दशपूर्वी स्थविर (आचार्य भद्रबाहु) ने अनुमान ठीक है तो आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कंध दशवैकालिक शिष्यों के हित-सम्पादन का चिंतन कर उन पर अनुग्रह के बाद की रचना है। इसका पुष्ट आधार प्राप्त होता हैकरने के लिए तथा तथ्यों की स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए प्राचीन काल में आचारांग पढ़ने के बाद उत्तराध्ययन आचारांग का सम्पूर्ण अर्थ आचाराग्र में विस्तार से निरूपित पढ़ा जाता था, किन्तु दशवैकालिक की रचना के पश्चात् वह किया।
दशवैकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। पिंडीकृतो पृथक्-पृथक्, पिंडस्स पिंडेसणासुकतो प्राचीन काल में आमगंध (आ. १/२/५) का अध्ययन सेज्जत्थो सेज्जास एवं सेसाणवि। (आनि ३०७ की च) कर मनि पिण्डकल्पी होते थे। फिर वे दशवकालिक के
आचारांग में पिंडैषणा आदि के नियम बिखरे हुए हैं, पिण्डैषणा के अध्ययन के पश्चात् पिण्डकल्पी होने लगे। अर्थागम के रूप में प्रतिपादित हैं, उनका आचारचूला में
यदि आचारचूला की रचना पहले हो गई होती तो सूत्रागम के रूप में संकलन किया गया है। जैसे पिंड का दशवैकालिक को यह स्थान प्राप्त नहीं होता। दशवैकालिक: विषय 'पिंडैषणा' में तथा शय्या का विषय 'शय्या' अध्ययन में संकलित है। इसी प्रकार शेष अध्ययन ज्ञातव्य हैं।
० आचारचूला और दशवकालिक में समानता पूर्वोक्तस्य विस्तरतोऽनुक्तस्य च प्रतिपादनात्।
आचारचूला के पिण्डैषणा (प्रथम अध्ययन) और (आनि ३०५ की वृ)
भाषाजात (चतुर्थ अध्ययन) में तथा दशवैकालिक के पिण्डैषणा आचाराग्र में उक्त का विस्तार और अनुक्त का प्रतिपादन
(पंचम अध्ययन) और वाक्यशुद्धि (सप्तम अध्ययन) में शाब्दिक ये दोनों हैं। (इसके प्रथम सात अध्ययनों में उक्त का और आर्थिक-दोनों प्रकार की पर्याप्त समानता है। यथाविशदीकरण है। पन्द्रहवें अध्ययन में भगवान् महावीर का
आचारचूला
दशवैकालिक जीवन-वृत्त है, वह अनुक्त का प्रतिपादन है।)
... एगंतमवक्कमेत्तातओ एगंतमवक्कमित्ता, (नि!हणकर्ता के संदर्भ में निम्न मंतव्य पठनीय है
संजयामेव परिट्ठवेज्जा। अचित्तं पडिलेहिया। दशवैकालिक के नि!हक आचार्य शय्यंभव चतुर्दशपूर्वी
(१/३) जयं परिवेज्जा"॥ थे और आचारचूला के कर्ता भी चतुर्दशपूर्वी थे।
(५/१/८१) भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती आचार्यों में शय्यंभव, ... मा मेयं दाइयं संतं, सिया एगइओ लद्धं, यशोभद्र, सम्भूतविजय, भद्रबाहु और स्थूलभद्र-ये छह आचार्य दट्ठणं सयमायए, आयरिए लोभेण विणिगृहई। चतुर्दशपूर्वी हैं। इनमें आगमकर्ता के रूप में शय्यंभव और वाणो किंचिवि
मा मेयं दाइयं संतं, भद्रबाहु-ये दो ही आचार्य विश्रुत हैं। शय्यंभव दशवैकालिक णिगूहेज्जा।
दट्टणं सयमायए॥ के और भद्रबाहु छेदसूत्रों के कर्ता माने जाते हैं। निशीथ
(१/१३१)
(५/२/३१)
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