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आगम विषय कोश- २
चक्रवर्ती के अतिरिक्त शेष नृपति का जघन्य कालावग्रह अन्तर्मुहूर्त्त का है क्योंकि राज्याभिषेक के अन्तर्मुहूर्त्त पश्चात् भी वे मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं अथवा राज्यपद से च्युत भी हो सकते हैं । — बृभा ६८२ की वृ)
१०. मुनि के वृद्धवास आदि का कालावग्रह
केवतिकालं उग्गह, तिविधो उउबद्ध वास वुड्ढे य। मास - चउमासवासे, गेलणे सोलमुक्कोसो॥ (व्यभा २२५५)
काल- अवग्रह के तीन प्रकार हैं
१. ऋतुबद्धकाल -- सामान्यतः एक मास ।
२. वर्षाकाल - चार मास । ग्लान होने पर सोलह मास का अवग्रह है। कुछ आचार्य सोलह वर्ष भी मानते हैं।
३. वृद्धवास - जो क्षीण जंघाबली वृद्ध मुनि होता है, उसका प्रवास वृद्धवास कहलाता है। अथवा रोग के कारण वृद्धिंगत वास वृद्धवास है।
११. भाव अवग्रह : मनसा वाचा अनुज्ञा
चरो ओदइअम्मी, खओवसमियम्मि पच्छिमो होइ । मणसी करणमणुन्नं च जाण जं जत्थ ऊ कमइ ॥ देवेन्द्र-राजावग्रहयोर्मनसैवानुज्ञापनं करोति, गृहपत्यवग्रहस्य मनसा वा वचसा वा, सागारिकसाधर्मिकावग्रहयोर्नियमाद् वचसाऽनुज्ञापना, यथाअनुजानीतास्माकं शय्यां वस्त्र - पात्र - शैक्षादिकं वा । (बृभा ६८४ वृ)
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(वृद्धवास का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त्त (वास के अन्तर्मुहूर्त्त पश्चात् मृत्यु होने की स्थिति में), उत्कृष्ट काल गृहिपर्याय के नौ वर्ष कम पूर्वकोटि । कोई (नौ वर्ष का दीक्षा ले और) दीक्षित होते ही प्रतिकूल कर्मोदयवश जंघाबल की क्षीणता या रोग के कारण विहार करने में असमर्थ हो जाये, उसका पूर्वकोटि कालमान है। वृद्धवास का यह उत्कृष्ट कालपरिमाण अर्हत् ऋषभ के तीर्थ की अपेक्षा से कहा गया है। जिस तीर्थंकर के शासनकाल में जितनी उत्कृष्ट आयु होती है, उतना उत्कृष्ट (नौ वर्ष कम ) वृद्धवासकाल हो सकता है ।)
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अवग्रह
देवेन्द्र, राजा, गृहपति और शय्यातर - इन चारों का अवग्रह औदयिक भाव है, क्योंकि इनमें 'यह मेरा क्षेत्र है ' - इस रूप में मूर्च्छा का सद्भाव रहता है, जो कषाय मोहकर्मोदयजन्य है। साधर्मिक का अवग्रह मूर्च्छा के अभाव के कारण क्षायोपशमिक भाव है, यह भाव अवग्रह
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अणुजाणह जस्स ओग्गहं- जिसका स्थान है, उसकी आज्ञा है - इस रूप में अवग्रह का मन में ही अनुज्ञापन करना अथवा वचन से अनुज्ञापन करना अनुज्ञा है । जिस अवग्रह में जिसका अवतरण होता है, उसे जानो। यथा—
देवेन्द्र और राजा के अवग्रह की मन से ही अनुज्ञा ली
गृहपति के अवग्रह की अनुज्ञा मन से अथवा वचन से ली जाती है । शय्यातर और साधर्मिक के अवग्रह की
नियमतः वचन से अनुमति ली जाती है। जैसे- हमें शय्या, वस्त्र, पात्र, शैक्ष आदि के ग्रहण की अनुमति दें।
१२. अवग्रह (आभवद्व्यवहार) : अधिकारी - अनधिकारी किं उग्गहो त्ति भणिए, उग्गहतिविधो उ होति चित्तादी । एक्केक्को पंचविधो, देविंदादी मुणेयव्वो ॥ कस्स पुण उग्गहो त्ती, परपासंडीण उग्गहो नत्थि । निहोसन्ने संजति, अगीते य गीत एक्के वा ॥ ओसण्णाण बहूण वि, गीतमगीताण उग्गहो नत्थि । सच्छंदियगीताणं, असमत्त अणीसगीते वि ॥ एवं वा सावेक्खे, निरवेक्खाणं पि उग्गहो नत्थि । मोत्तूण अधालंदे, तत्थ वि जे गच्छपडिबद्धा ॥ आसन्नतरा जे तत्थ, संजता सो व जत्थ नित्थरति । तहियं देंतुवदेसं, आयपरं ते न इच्छंति ॥ अगीत समणा संजति, गीतत्थपरिग्गहाण खेत्तं तु । अपरिग्गहाण गुरुगा, न लभति सीसेत्थ आयरिओ ॥ गीतत्थागत गुरुगा, असती एगाणिए वि गीतत्थे । समुसरण नत्थि उग्गह, वसधीय उ मग्गणऽक्खेत्ते ॥ सेसं सकोसजोयण, पुव्वग्गहितं तु जेण तस्सेव । समगोग्गह साधारं, पच्छागत होति अक्खेत्ती ॥ (व्यभा २२१६ - २२२३ )
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