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अनुयोग
आगम विषय कोश-२
दूसरे के भाव को जानने का उपक्रम भाव उपक्रम है। है-ऐसा कहकर उसे प्रसन्न किया। लौकिक भाव उपक्रम के दो प्रकार हैं
अमात्य दृष्टांत-एक राजा शिकार के लिए जा रहा था। मार्ग १. अप्रशस्त उपक्रम-वेश्या, ब्राह्मणी, मंत्री आदि की दूसरों में अश्व ने प्रस्रवण किया। लौटते समय राजा ने उस स्थान के भावबोध की प्रवृत्ति। यहां लौकिक फल वाले उपक्रम को को गीला देखकर सोचा-यहां तालाब हो तो अच्छा रहे। मंत्री अप्रशस्त कहा गया है।
ने राजा के अन्तर्मन की बात जान ली और वहां तालाब गंगाप्रवाह की दिशा बताकर शिष्य ने गुरु के इंगित खुदवा दिया। तट पर वृक्ष लगा दिए। की आराधना की।
(द्र विनय) एक दिन राजा उधर से गुजरा, तालाब देखा और गणिका दृष्टांत-एक वेश्या चौंसठ कलाओं में प्रवीण थी। पूछा-यह तालाब किसका है ? मंत्री ने कहा-आपका। राजा आगंतुकों का अभिप्राय जानने के लिए उसने अपनी चित्रसभा ने कहा-कैसे? मंत्री ने उस दिन की सारी बात बताई। राजा में मनुष्य जाति के जातिकर्म शिल्प, कुपित-प्रसादन आदि से मंत्री पर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने मंत्री का वेतन बढ़ा दिया। संबंधित अपने-अपने व्यापार में प्रवृत्त व्यक्तियों के चित्र आलेखित २. प्रशस्त उपक्रम-लोकोत्तर फल वाला उपक्रम, गुरु आदि करवाए। जो कोई व्यक्ति वहां आता, अपने व्यापार की प्रशंसा के भावबोध की प्रवत्ति। करता, अच्छे-बुरे चित्र की समीक्षा करता, उसके आधार पर (गुरु के भावों को समझकर तदनुरूप चेष्टा करना वह अंकन कर लेती कि कौन व्यक्ति किस श्रेणी का है, कैसे प्रशस्त भाव उपक्रम है। शास्त्राध्ययन के प्रसंग में गुरु का स्वभाव वाला है और फिर उसके प्रति अनुकूल आचरण कर, भावबोध तो अप्रासंगिक-सा लगता है, किन्तु गुरु के भावबोध उसे प्रसन्न कर, उससे पर्याप्त धन प्राप्त कर लेती।
को व्याख्या का मुख्य अंग माना गया है, क्योंकि शास्त्र का ब्राह्मणी दृष्टांत-एक ब्राह्मणी चाहती थी कि शादी के बाद प्रारंभ गुरु के अधीन होता है। इसलिए शिष्य को गुरु की मेरी तीनों पुत्रियां सुखी रहें। ऐसी व्यवस्था करने के लिए आराधना में तत्पर रहना चाहिये।-अनु ९९ का टि) उसने अपनी पत्रियों से कहा-आज तुम पहली बार ससुराल * शास्त्रीय भाव उपक्रम द्र श्रीआको १ अनुयोग जा रही हो। जब तुम्हारा पति कमरे में आए तो कोई गल्ती
५. सर्वश्रुत का अनुयोग : कल्प-व्यवहार अनुयोग बताकर उसके सिर पर अपनी पार्ट्ज (एडी) से प्रहार करना, फिर उसकी प्रतिक्रिया मुझे बताना।
जइ पवयणस्स सारो, अत्थो सो तेण कस्स कायव्यो। पहली पुत्री ने अपने पति के सिर पर पाद प्रहार किया।
एवंगुणन्निएणं, सव्वसुयस्साऽऽउ देसस्सा। पति ने उसके पांव को सहलाते हुए कहा-मेरे कठोर सिर से
को कल्लाणं निच्छइ, सव्वस्स वि एरिसेण वत्तव्यो। तुम्हारे कोमल पांव में पीड़ा तो नहीं हुई? इस घटनाचक्र को
कप्प-व्ववहाराण उ, पगयं सिस्साण थिज्जत्थं ॥ सुनकर मां ने कहा-बेटी ! वह तुम्हारा दास बनकर रहेगा।
जइ कप्पादणुयोगो, किं सो अंगं उयाहु सुयखंधो। दूसरी पुत्री ने प्रहार किया तो उसका पति थोड़ा सा
अज्झयणं उद्देसो, पडिवक्खंगादिणो बहवो॥ गुस्सा कर शांत हो गया। इस स्थिति को सुनकर मां ने कहा
सुयखंधो अज्झयणा, उद्देसा चेव हुंति निक्खिप्पा। तुम भी थोड़ी सी सावधानी के साथ इच्छानुसार घर में रहो।
सेसाणं पडिसेहो, पंचण्ह वि अंगमाईणं॥ तीसरी पुत्री का पति आहत होने पर रुष्ट हो गया,
(बृभा २४६, २४७, २५१, २५२) उसे पीटा और उठकर चला गया। इस घटनाचक्र को प्रवचन-द्वादशांग का सार है अर्थ, श्रुत का अनुयोग। सुनकर मां ने कहा-बेटी ! यह उत्तम है। तुम अप्रमत्तता से प्रश्न होता है कि गुण-संपन्न आचार्य श्रुत का अनुयोग समग्रता देवता की भांति उसकी सेवा करो। यह निर्देश देकर मां से करें या अंश रूप में करें ? इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए जामाता के पास गई और बोली-यह हमारी कुल-परंपरा आचार्य कहते हैं-आचार्य को संपूर्ण श्रुत का अनुयोग करना है, अन्यथा वह तुम्हारे प्रति ऐसा व्यवहार कैसे कर सकती चाहिए क्योंकि संपूर्ण श्रुत कल्याणकारी होता है और कल्याण
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