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आगम विषय कोश-२
३९
अनुयोग
८. अप्रमादी शिष्य : आर्यकालक का स्वर्णभूमिगमन भूमि की ओर जा रहा हूं। पर मेरे चले जाने की सूचना सागारियमप्पाहण, सुवन्न सुयसिस्स खंतलक्खण। शिष्यवर्ग को अत्यन्त आग्रहपूर्वक पूछने पर उन्हें सरोष स्वरों कहणा सिस्सागमणं, धूलीपुंजोवमाणं च। में बताना।' शय्यातर को इस प्रकार अपनी बात परी तरह से
उज्जेणीए नयरीए अज्जकालगा नामं आयरिया समझाकर गुप्त रूप से आचार्य कालक ने वहां से विहार कर सुत्त-ऽत्थोववेया बहुपरिवारा विहरंति। तेसिं अज्ज- दिया। कालगाणं सीसस्स सीसो सुत्त-ऽत्थोववेओ सागरो नाम वे सुदूर स्वर्णभूमि में सागर के पास पहुंचे। आगमसुवन्नभूमीए विहरइ।ताहे अज्जकालया चिंतेंति-एस मम वाचनारत आचार्य सागर ने उन्हें सामान्य वृद्ध साधु समझकर सीसा अणुओगंन सुणंति तओ किमेएसिमझे चिट्ठामि? अभ्युत्थान आदि द्वारा उनका आदर नहीं किया। अर्थ-पौरुषी तत्थ जामि जत्थ अणुयोगंपवत्तेमि सुवन्नभूमीए सागराणं (अर्थ-वाचना) के समय शिष्य सागर ने अपने सम्मुख सगासंगयाखंतलक्खेण पविट्ठा सागरायरिया 'खंत' आसीन आगन्तुक को संकेत करते हुए पूछा-"वृद्ध ! मेरा त्ति काउं तं नाढाइया अब्भुट्ठाणाईहिं। तओ अत्थपोरिसी- कथन समझ में आ रहा है ?" आचार्य कालक ने 'ओम्' वेलाए सागरायरिएणं भणिया-खंता! तुब्भं एयं गमइ? कहकर स्वीकृति दी। सागर सगर्व बोले-"वृद्ध ! अवधानपूर्वक आयरिया भणंति-आमं। तो खाइंसुणेह'त्ति पकहिया, सुनो।" आचार्य कालक गंभीर मुद्रा में बैठे थे। आर्य सागर गव्वायंता य कहिं ति। इयरे वि सीसा पभाए अनुयोग प्रदान में प्रवृत्त हुए। संते"उच्चलिया सुवन्नभूमिं गंतुं। पंथे लोगो पुच्छइ
उधर अवन्ति में आचार्य कालक के शिष्यों ने देखाएस कयरो आयरिओ जाइ? ते कहिं ति उनके बीच में आचार्य कालक नहीं हैं। उन्होंने इधर-उधर अज्जकालगा।"सागरा सिस्साणं पुरओ भणंति-मम खोज की पर वे नहीं मिले। शिष्यों ने शय्यातर से पूछाअज्जया इंति, तेसिं सगासे पयत्थे पुच्छीहामि त्ति । अचिरेणं 'आचार्य देव कहां हैं ?' आग्रहपूर्वक पूछने पर शय्यातर ने तेसीसा आगया।तत्थ अग्गिल्लेहिं पुच्छिज्जंति-किं इत्थ कठोर रुख बनाकर शिष्यों से कहा-"आप जैसे अविनीत आयरिया आगया चिटुंति ? नत्थि, नवरं अन्ने खंता शिष्यों की अनुयोग ग्रहण करने में अलसता के कारण खेदखिन्न आगया। केरिसा ? वंदिए नायं 'एए आयरिया' ताहे सो आचार्य कालक स्वर्णभूमि में प्रशिष्य सागर के पास चले गए सागरो लज्जिओ 'बहुं मए इत्थ पलवियं, खमासमणा य हैं।" शय्यातर के कटु उपालम्भ से लज्जित-उदासीन शिष्यों वंदाविया।''भणियं च णेण-केरिसं खमासमणो अहं ने तत्काल अवन्ति से स्वर्णभूमि की ओर प्रस्थान कर दिया। वागरेमि? आयरिया भणंति-सुंदरं, मा पुण गव्वं विशाल श्रमण संघ को विहार करते देख लोग प्रश्न करतेकरिज्जासि।ताहे धूली-पुंजदिटुंतं करेंति।(बृभा २३९ वृ) कौन आचार्य जा रहे हैं ? शिष्य कहते-आचार्य कालक।
एक बार विहरण करते हुए आचार्य कालक का पदार्पण श्रावकवर्ग ने आर्य सागर से निवेदन किया-विशाल अवन्ति में हुआ। उस समय वे वृद्धावस्था में थे और अपने परिवारसहित आचार्य कालक आ रहे हैं। अपने दादा गुरु के शिष्य वर्ग को अत्यंत जागरूकता के साथ आगम-वाचना आगमन की बात सुनकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई। पुलकित देते थे। उनके जैसा उत्साह उनके शिष्य वर्ग में नहीं था। मन होकर आर्य सागर ने अपने शिष्य वर्ग को गुरु के आगमन सभी शिष्य आगम-वाचना ग्रहण करने में अत्यन्त उदासीन की सूचना दी और कहा-मैं उनसे कई गंभीर प्रश्न पूछकर थे। अपने शिष्यों के इस प्रमत्त भाव से आचार्य कालक समाहित होऊंगा। खिन्न हुए। वे उनको शिक्षा देने की दृष्टि से शय्यातर के शीघ्र गति से चलते हुए आचार्य कालक के शिष्य पास जाकर बोले-'मैं अपने अविनीत शिष्यों को यहां छोडकर स्वर्णभूमि में पहुंचे और आर्य सागर के अग्रवर्ती शिष्यों से इन्हें बिना सूचित किए अपने प्रशिष्य सागर के पास स्वर्ण- पूछा-आचार्य कालक यहां पधारे हुए हैं ? उत्तर मिला-एक
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