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अनशन
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० परीषह पराजित को प्रेरणा सव्वसुहप्पभवाओ, जीवियसाराउ सव्वजणगाओ । आहाराओ रतणं, न विज्जति हु उत्तमं लोए ॥ विग्गहगते य सिद्धे, य मोत्तु लोगम्मि जत्तिया जीवा । सव्वे सव्वावत्थं, आहारे होंति उवउत्ता ॥ तं तारिसगं रयणं, सारं जं सव्वलोगरयणाणं । सव्वं परिच्चइत्ता, पादोवगता पविहरति ॥ एयं पादोवगमं निप्पडिकम्मं जिणेहि पण्णत्तं । जं सोऊणं खमओ, ववसायपरक्कमं कुणति ॥ कोई परीसहेहिं, वाउलिओ वेयणहिओ वावि । ओभासेज्ज कयाई, पढमं बितियं च आसज्ज ॥ गीतत्थमगीतत्थं, सारेउ मतिविबोहणं काउं । तो पडिबोहिय...
॥
(व्यभा ४३५६-४३६१)
आहार सब सुखों का उत्पादक कारण, जीवन का सार और सबका जनक है। इस लोक में आहार से बढ़कर उत्तम रत्न अन्य कोई वस्तु नहीं है।
विग्रहगतिसमापन्न और सिद्ध - इनको छोड़कर लोक में शेष जितने जीव हैं, वे सब अवस्थाओं में आहार में उपयुक्त होते हैं ।
लोक में सब रत्नों में सारभूत ऐसे आहार रत्न को छोड़कर जो प्रायोपगमन अनशन करते हैं, वे धन्य हैं। अनशनी इस जिनप्रज्ञप्त निष्प्रतिकर्म प्रायोपगमन के विषय में सुनकर अपने स्वीकृत निश्चय में पराक्रम करता है।
कदाचित् कोई उत्तमार्थी परीषह से व्याकुल और वेदना अभिभूत हो आहार- पानी की याचना करे तो उसकी परीक्षा करनी चाहिये कि कहीं वह प्रान्तदेवता से अधिष्ठित होकर तो नहीं मांग रहा है। उसे पूछना चाहिये कि तुम गीतार्थ हो या अगीतार्थ ? अभी दिन है या रात? सही उत्तर देने वाले को परीषह से पराजित मान कर प्रतिबोधित करना चाहिये । २८. निर्बाध अनशन हेतु पर्यालोचन: देवसंकेत
कंचनपुर गुरुसण्णा, देवयरुवणा य पुंच्छ कधणा य। पारणगखीररुधिरं, आमंतण संघनासणया ॥ (व्यभा ४२७८)
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आगम विषय कोश - २
कलिंग जनपद में कांचनपुर नाम का नगर । वहां बहुश्रुत आचार्य रह रहे थे। उनका शिष्य परिवार बृहद् था । एक बार वे अपने शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना देकर संज्ञाभूमि में गए । अन्तराल में उन्होंने एक विशाल वृक्ष के नीचे एक स्त्री को रोते हुए देखा। दूसरे, तीसरे दिन भी यही देखा। आचार्य को आशंका हुई। उन्होंने उस स्त्री से पूछा- तुम क्यों रो रही हो ? उसने कहा- मैं इस नगर की अधिष्ठात्री देवी हूं। यह नगर शीघ्र ही जल-प्रवाह से आप्लावित होकर नष्ट हो जाएगा। यहां अनेक मुनि स्वाध्यायशील हैं। उनके विनाश को सोचकर मैं रो रही हूं । आचार्य ने पूछा -इस बात का प्रमाण क्या है ? उसने कहा
तपस्वी मुनि के पारणक में लाया हुआ दूध रक्त बन जाएगा। जहां जाने से पुनः वह स्वाभाविक रूप में आएगा, Pari सुभिक्ष होगा और वहां सुखपूर्वक रहा जा सकेगा।
दूसरे दिन तपस्वी मुनि द्वारा पारणक में लाया हुआ दूध रक्त में बदल गया । तब संघ के प्रमुख व्यक्ति एकत्रित हुए, पर्यालोचन किया और समूचे संघ ने वहां से प्रस्थान कर दिया।
२९. स्कन्दक के शिष्यों की समाधि मृत्यु
मुणिसुव्वयंतवासी, खंदगदाहे य कुंभकारकडे । देवी पुरंदरजसा, दंडगि पालक्क मरुगे य॥ पंचसता जंतेणं, रुद्वेण पुरोहिएण मलिताई । रागद्दोसतुलग्गं समकरणं चिंतयंतेहिं ॥
(व्यभा ४४१७, ४४१८)
कुम्भकारकट नगर । दंडकी राजा । पुरन्दरयशा रानी । पालक ब्राह्मण पुरोहित । अर्हत् मुनिसुव्रत के अंतेवासी स्कन्दक अनगार का अपने शिष्यों के साथ विहरण करते हुए वहां
आगमन ।
पुरोहित ने द्वेषवश उन पांच सौ शिष्यों को कोल्हू में पीकर मार डाला। जब सबसे छोटे मुनि को पीलने लगे तो स्कन्दंक अत्यंत कुपित हुए। उन्हें भी पील दिया। वे मरकर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुए। अपने पूर्वभव की स्मृति कर दंडकी के पूरे देश को भस्म कर दिया ।
पांच सौ शिष्य रुष्ट पुरोहित के द्वारा पीले जाते हुए भी
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