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हरिदास संस्कृत ग्रन्थमाला - ३०
नामलिङ्गानुशासनम्
अमरकोशः
सटिप्पण 'मणिप्रभा' हिन्दीटीकोपेतः
श्री पं० हरगोविन्दशास्त्री
5
5555
4444
F454545755
纷纷纷
चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी
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॥ श्रीः ।।
हरिदास संस्कृत ग्रन्थमाला
श्रीमदमरसिंहविरचितं नामलिङ्गानुशासनम्
अर्थात् अमरकोषः सटिप्पण 'मणिप्रभा' हिन्दीटीकोतः
टीका कारः व्याकरण-साहित्याचार्य-साहित्यरस्न-मिश्रोपाह
श्री पं० हरगोविन्दशास्त्री भागलपुरमण्डलान्तर्गतसुलतानगजस्थराजकीय
संस्कृतोञ्चविद्यालयसाहित्याध्यापकः ।
चौरखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस.वाराणसी-१
CM
१९६८
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प्रकाशक
मुद्रक
संस्करण
: चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी
: चौखम्बा प्रेस, वाराणसी
: षष्ठम्,
वि.सं. २०५५
ISBN: 81-7080-019-6
© चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस के. ३७ / ९९, गोपाल मन्दिर लेन गोलघर (मैदागिन ) के पास
पो. बा. नं. १००८, वाराणसी २२१००१ ( भारत ) फोन : आफिस - ३३३४५८
आवास- ३३४०३२, ३३५०२०
अपरं च प्राप्ति स्थानम् कृष्णदास अकादमी पो. बा. नं. ११९१८ के. ३७/ ११८, गोपाल मन्दिर लेन वाराणसी २२१००१ ( भारत )
फोन : ३३५०२०
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THE HARIDAS SANSKRIT SERIES
30
AMARAKOSA
(NĀMALINGĀNUSĀSANA )
Of
AMARASIMHA
Edited With Notes and The ‘Maniprabhā
Hindi commentary
By
Pt. HARAGOVINDA SASTRĪ
Vyakaraṇa-Sahityacharya-Sahityaratna.
THE
CHOWKHAMBA SANSKRIT SERIES OFFICE
VARANASI-1
1998
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Publisher : Chowkhamba Sanskrit Series Office, Varanasi-1 Printer : Chowkhamba Press, Varanasi-1 Edition : Sixth, 1998
ISBN: 81-7080-019-6
© Chowkhamba Sanskrit Series Office
K. 37/99, Gopal Mandir Lane
Near Golghar (Maidagin) P.BOX 1008, VARANASI-221001 (India) Phone : Office : 333458, Resi. : 334032 & 335020
Also can be had from KRISHNADAS ACADEMY
Post Box No. 1118, K 37/118, Gopal Mandir Lane, Varanasi-221001 (India)
Phone : 335020
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प्राक्कथन
__डॉ. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री एम. ए., पी-एच. डी., ए. एफ. आई., प्रिंसिपल टीचर्स ट्रेनिङ्ग कालेज, भागलपुर
हमारे शास्त्रों ने 'शब्द'को ही साक्षात् ब्रह्म कहा है। शब्द अथवा अनाहतनाद के रूप में प्राणियोंने ब्रह्मका साक्षात्कार किया है, मतः मानवजीवन में शब्न तथा उसके अवबोध एवं अनुभूनिकी कितनी महत्ता तथा उपयोगिता है-इसकी कल्पना समज ही की जा सकती है। पशु और मानवमें क्या अन्तर है ? बर्बरता और सभ्यताये क्या भेद है ?-व्यक्त, व्युत्पन्न एवं सार्थक शन्द । इसीलिये हमारे भाचार्यों ने कहा है कि यदि एक भी वर्ण, एक भी शब्द, सम्यग्ज्ञात तथा सुप्रयुक्त हुआ तो इहलोक तथा परलोकमें मनोवान्छित फल देनेवाला होता है।
थोड़ी-सी भ्रान्ति से कितना अनर्थ हो सकता है, यह निम्नलिखित श्लोकसे स्पष्ट परिलक्षित है--
'यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र ! व्याकरणम् ।
स्वजनः श्वजनो मा भूत् सकलं शकलं सकृच्छकृत् ॥' अतः यह सिद्ध हुआ कि मानवमात्रको वर्गों तथा शब्दोंका यथावत् ज्ञान होना आवश्यक है।
वेदोंसे लेकर आधुनिक साहित्य तक जो अनगिनत ग्रन्थ निर्मित हुए हैं, वे ही हमारी संस्कृनिकी प्रगति के प्रतीक हैं। ये ग्रन्थ क्या हैं ?-शब्द तथा अर्थका समन्वय-'सम्पृक्त वागर्थ' । इसकी महिमाको इजित करने के उद्देश्यसे कालिदासने 'पार्वतीपरमेश्वरौ'को 'वागर्थाविव सम्पृक्ती'का विशेषण दिया है। मानवकी समस्त भावनाएँ मन में ही विलीन हो जायँ, यदि उसे उन सार्थक, इतरावबोध्य शब्दों में गुम्फित करने की पमता नहीं हो। यदि भाम हमने वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसी, सूर आदिको अमरत्व प्रदान किया है
al
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तो इसका कारण क्या है ?-उनमें उपर्युक्त शब्दचयन तथा शब्दगुम्फनकी क्षमता जनसाधारणकी अपेक्षा अधिक थी।
कोश तथा व्याकरण-इन दो शास्त्रों के द्वारा उपयुक्त शब्दभाण्डारकी सृष्टि तथा उसके चयन एवं समीचीन प्रयोगकी शक्ति भाती है, अतः भारत में अतिप्राचीन कालसे-निघण्टु तथा निरुक्त समय से ही कोशके अध्ययनको परम्परा चली आ रही है। संस्कृत के प्रत्येक विद्यार्थीको इसो कारण 'अमरकोश' कण्ठस्थ कराया जाता था और अब भी कराया जाता है, यद्यपि धीरे धीरे यह परम्परा कुछ क्षीण होती जा रही है। अब तो जैसे अंग्रेजोके विद्यार्थी पद-पदया 'डिक्शनरी' उलटते हैं, वैसे ही संस्कृत के विद्यार्थियों में भी सस्ते, प्रमादर्ण बाजार में बिकनेवाले कोशीको उलटनेकी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । मैं समझना हूँ कि यह प्रवृत्ति घातक है। एक 'अमरकोश' के मुखस्थ कर लेनेसे-या कमसे कम हस्तामलकवत् आवश्यक शब्दपर्यायों को याद रखनेसे-वारविन्यास या अन्धनिर्माण में जो सुविधा होगी, वह कदापि बार-बार आधुनिक उनके कोशोंको एलटने से नहीं हो सकती, उसे तो शब्ददारिद्रयसे ही मुक्ति नहीं मिलेगी, भाषों तथा कल्पनाओंकी ऊँची उड़ान कैसे ले सकेगा?
'अमरकोश' जैसे अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा उपयोगी प्रन्यकी ऐसी टीका जो न केवल प्रामाणिक हो, किन्तु साथ-साथ सुगम हो तथा हिन्दी विद्यार्थियों अथवा विद्वानों के निमित्त उपयोगी हो, स्वागतका विषय है। श्रीहरगोविन्द शास्त्रीने अत्यन्त परिश्रमसे तथा वैज्ञानिक पद्धति से यह टीका निर्मित की है। इसमें उन्होंने अनेकानेक ज्ञातव्य सामग्रीका समावेश किया है। परिशिष्ट' तथा 'शब्दानुक्रमणिका' के द्वारा उन्होंने अपनी टीकाके महत्वको अभिवृद्ध किया है। हर्षका विषय है कि इसका नवोन संस्करण प्रकाशित हो रहा है। हमें पूर्ण विश्वास है कि संस्कृत साहित्य तथा वाङ्मयसे प्रेम रखनेवाले सुधी एवं विज्ञासु इसे अपनायेंगे और सद्वारा अपना हितसाधन करेंगे।
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धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री
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भूमिका अनादिनिधनं शब्दब्रह्म नित्यमुपास्महे ।
व्यवहारक्रमः सृष्टेर्यतश्चलति निर्भरम् ॥ १॥ पण्डितप्रकाण्ड श्री अमरसिंह-विरचित अमरकोषको यदि अमरभाषा (संस्कृत) साहित्यका अमरकोष ( अक्षय निधि) कहा जाय तो लेशमात्र भी अत्युक्ति नहीं होगी। जिस अमरकोषके द्वारा उक्त पण्डितप्रवरका नाम चिरकाल के लिये अमर हो गया है, उस अमरकोषका अनुपम आदर केवल भारतवर्ष में ही नहीं, किन्तु भूमण्डलमात्रमें देखा जाता है। विद्याप्रेमी योरप देशवासी विद्वानोंको अपनी अपनी भाषाओं में इसका अनुवादकर इससे लाभ भठाना कोई विशेष आश्चर्यकर नहीं है, जितना कि धर्मान्धताके कारण अन्य सम्प्रदायके ग्रन्थों को अग्नि और जलदेवको शरण देते हुए मुहम्मद जातिवालोंने भी जब इसका अपनी भाषामें अनुवादका' खुले हृदयसे इसकी उपयोगिताको अङ्गीकार किया, यह हम भारतवासियोंके लिये अत्यन्त हो हर्षप्रद विजयाचिए है। सुदूरतम चीनमें भी इसका अनुवाद होना हम भारतियों के लिये विशेषरूपेग गौरव की बात है।
कोषकी आवश्यकता
सर्वप्रथम वैदिक शब्दकोषका निर्माण जश्व बृहस्पति के समान गुरु भी इन्द्र के समान शिष्यको हजारों वर्षोंतक शब्द पारायण करते हुए शब्दसागरका' अन्त नहीं पा सके, तब किसका
1. इसी कारण 'खालीक बरी, नामक फारसीमाषाके शब्दकोषको पद्यमय उर्दू भाषामें इन लोगोंने रचना की।
१. 'छठी शताब्दी में 'गुणराज' नामक विद्वान ने चीनी भाषामें अमरकोषका अनुवाद किया यह मैक्सगलरका कथन है। इस बातका ज्योतिषाचार्य विद्वद्वरेण्य पं० गिरिजाप्रसाद द्विवेदीने 'भट्ट जीरस्वामी' शीर्षक लेख में अन्वेषण किया है। ३. जैसे कहा भी है'इन्द्रादयोऽपि यस्पान्तं न पयुश्माम्बवारिधः।
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[८] सामर्थ्य है कि अतिशय विस्तृत शब्दसागरकी चरम सीमाका पता लगावे । हाँ, यह तो अतिप्राचीनकालमें शब्दब्रह्मोपासक मुनियोंका ही सामर्थ्य था कि वे योगाभ्यासके बल से साक्षात् मन्त्रद्रष्टा होते थे और उन्हें किसी ग्रन्थसे किसी प्रकारकी भी सहायता अपेक्षित नहीं रहती थी, इसी आधारपर सर्व सर्वार्थवाचका' (सष शब्द सत्र अर्थों के वाचक हैं) यह वैयाकरणों का सिद्धान्त है। किन्तु परिवर्तनशील संसारमें काल-परिवर्तन होनेके कारण योगाभ्यासका भी क्रमशः हास होता गया और साथ ही साथ साक्षात् मन्त्रद्रष्टव शक्तिका भी।
इसप्रकार अनिवार्य हासो देखकर भगवान् कश्यपने वेदके कठिन शब्दोंका संग्रहकर सर्वप्रथम 'निघण्टु' नामक कोषकी रचना की। यूथभ्रष्ट गौका गोत्र जिसप्रकार कदापि नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार' वेदसे निकालकर संगृहीत इन शब्दों का वेदस्य भी नष्ट नहीं हुआ है, अत एव 'निघण्टु'को भी वेद ही कहते हैं। एच 'निघण्टु'के वेद होनेसे सव्याख्यानभूत निरुतमें भी वेदस्व भवाषित ही है। भगवान् प्रजापति कश्यप वेदके उपज्ञाता थे, इस बातको भगवान् ग्यासजीने कहा है
'वृषो हि भगवान् धर्मो स्यातो लोकेषु भारत । निघण्टुकपदाण्याने विद्धि मां वृषमुत्तमम् ॥ कपिराहः श्रेष्ठ धर्मश्च वृष मुच्यते । तस्माद् वृषाकपि प्राह कश्यपो मा प्रजापतिः॥
(महाभारत मोचपर्व म०३४२ । श्लो.८६-८७) निघण्टु ग्रन्थमें 'वृषाकपि' शब्दका निर्वचन ( अध्याय ५ खण्ड ६ पद६) मिलता भी है। किन्तु फिर भी जब योगाभ्यासका पूर्वाधिक हास होनेसे निघण्टु का अर्थ भी लोगों को अबोध्य प्रतीत होने लगा, तब श्यामूर्ति भगवान् 'यार'ने समाम्नाय (वेद) भून उस 'निघण्टु'का भाष्य किया;
प्रक्रिया तस्य कृस्नस्म तमो वक्तुं नः कथम् ॥ सारस्वत श्को सं२।
..इसी कारण भगवान् पास्कने निघण्टु प्रन्थको रूपयकर 'समानायः समाख्याता सग्यारुपातम्यः' इस वचन के द्वारा यहाँ वेदमात्रविषयक समागाव' सम्मका प्रयोग किया है।
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[६] जिसका नाम 'निरुक्त' हुआ। इस बातको भी भगवान् व्यासजी स्वयं स्वीकार करते हैं
'शिपिविष्टेति चाख्यायां होनरोमा च योऽभवत् । तेनाविष्टं तु यस्किश्चिच्छिपिविष्टेति च स्मृतः ॥ 'यास्को मामृषिरण्यग्रोऽने कयज्ञेषु गीतवान् । शिपिविष्ट इति स्माद् गुह्य नामधरो झहम् ॥ स्तुस्वा मा शिपिविष्टेति शास्क ऋषिरुदारधीः । मप्रसादाददो नष्टं निरुत'मधिजग्मिवान् ॥
(महाभारत मोक्षपर्व अध्याय ३४२ श्लो० ६९-७१) 'शिपिविष्ट' शब्दका निर्वचन निरुक्तमें (अध्याय ५ खण्ड ८ पद ३७ ) में मिलता भी है। किन्तु निरुक्तनिर्माता कौन यास्क थे, यह विषयान्तर होने से इसकी विवेचनाको यहीं छोड़कर अब प्रकृतानुसरण करता हूँ।
लौकिक-शब्दकोषकी रचना इसप्रकार और भी अधिक तपोबलके हास के साथ-साथ बुद्धिविकाशका भी हास होनेसे लौकिक शब्दोंका अर्थज्ञान भी जब लोगों को अतिदुरूह एवं अज्ञेय होने लगा, तब लौकिक शब्दकोषोंकी रचना हुई, किन्तु इनमें सर्वप्रथम किस कोषको रचना हुई, यह पता नहीं चलता; क्योंकि 'शब्दकल्पद्रुमकोष में ही २९ कोषोंके नाम भाये हैं । 'साहसाङ्क, कास्यायन' इत्यादि भनेक कोष ऐसे हैं, जो अब अलभ्य है, किन्तु संगृहीत प्राचीन कोषों में उनके वचन संस्कृत. साहिस्योपासकोंके उपजीम्य हो रहे हैं। इसीतरह 'उत्पलिनी' भादि भो अनेक कोषोंके वचन 'मेदिनीकोष में संगृहीत जान पड़ते हैं, किन्तु इसप्रकार अनेका. नेक कोषों के रहते हुए भी इस 'अमरकोषका ही सर्वाधिक प्रचार हुआ, इसमें ग्रन्थकारकी रचना-शैली ही प्रधान हेतु है।
कुछ कोषों में केवल नामार्थक शब्दोंका हो संग्रह पाया जाता है तो कुछ कोषों में केवल साधारण शब्दोंका ही, इसपर भी इन साधारण-शब्दार्थवाचक कोषों में लिङ्गादिका विवरण नहीं है और कुछ तो ऐसे कोष हैं, जिनमें साधारण साधारण सर्वविध शब्दों को भरकर उन्हें अस्यन्त दुरूह कर दिया गया है। ऐसा कोई भी कोष नहीं, जो प्रसिद्धसम, साधारण और नानार्थक
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[ १० ] (भनेक अर्थवाले ) शब्दोंके सुसंग्रहसे परिपूर्ण होता हुआ भी लिङ्गनिर्देशसे अलस्कृत एवं आबालबोध्य पथमय निबद्ध हो । यदि कोई ऐसा कोष है तो 'अमरकोष' ही है। इसके विषयमें इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि अन्य कोषों में जो न्यूनता या दोष थे, उन सबोंका यथावत् परिमार्जन करते हुए अमरसिंहने बालकोंके भी सुलभतया कण्ठस्थ करने योग्य सरल श्लोकों में इस 'अमरकोष'की रचनाकर संसारका बहुत बड़ा उपकार किया।
अमरसिंहका समय विवेचन इनके समय के विषयमें अनेक मत हैं । कोई तो इनको'धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कुवेतालभट्टघटखपरकालिदासाः ।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि चै वररुचि व विक्रमस्य' ॥ इस श्लोकके आधारपर "विक्रम' नृपति के नवरत्नों में से कहते हैं। तथा कोई कोई
'इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेन्द्रा भवत्यष्टौ हि शाब्दिकाः ॥ इस श्लोक के आधारपर 'पाणिनि' और 'जैन' अर्थात् समन्तभद्र के मध्य कालमें ये हुए थे, ऐसा कहते हैं, किन्तु पाणिनिविरचित अष्टाध्यायी के भाष्य. कार भगवान् पतञ्जलि के समकालीन 'चान्द्रव्याकरण' कर्ता आचार्य 'चन्द्र'का नाम उक्त श्लोकमें पाणिनिके पहले बानेसे उक्त श्लाकमें क्रम अपेक्षित नहीं है, ऐसा प्रतीत होता है। अन्य लोग इनको इस्वीय सन् छठी शताब्दी के बतलाते हैं।
जो कुछ हो 'स्वर्गवर्ग में देवताओं के पर्यायोंको कहने के बाद इन्होंने भगवान् 'बुद्ध' के पर्यायवाचक शब्दों को कहा है, अतः ये 'अमरसिंह' बौद्धमतावलम्बी थे, यह प्रायः सभी विद्वानोंका मत है। ___ शोलापुर निवासी स्व० सेठ रावजी सखाराम दोशी महोदय ने अमरकोषसम्बन्धी एक ट्रैक्ट प्रकाशित किया है, उसकी भूमिका भनेक युक्तियों से उन्होंने प्रमाणित किया है कि अमरकोषकार अमरसिंह बौद्ध नहीं, किन्तु जैनी था। अपने कथन के प्रमाणमें दोशी महोदयका कहना है कि वर्तमानमें उपलभ्यमान अमरकोषमें लगभग एक सौ श्लोक छूट गये हैं या जान-बूझकर
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[ ११ ] छोड़ दिये गये हैं । 'यस्य ज्ञानदयासिन्धोः......(11) श्लोकके पूर्व जिन एवं जैनसम्मत सोलहवें तीर्थकरकी वन्दना अमरसिंहने दो श्लोकों में की है, तथा 'सुरलोको ....... त्रिविष्टपम् ।' ( 16) के बाद ८.३ श्लोकोंमें अमरसिंहने महावीर आदि तीर्थङ्करों एवं जैनसम्प्रदायसम्मत देवी-देवताओंके पर्यायों को कहा है। द्वितीय काण्डमें भी प्रायः १०-१२ श्लोकोंका वर्तमान अमरकोषमें छूट जाने या छोड़ दिये जानेको चर्चा उक्त दोशी महोदयने की है। यद्यति दोशीमहोदय कथित मङ्गलाचरणके दो श्लोकों में से प्रथम श्लोक वाहोमसिंह-विरचित 'गधचिन्तामणि' अन्धमें भी मिलता है, अतः यह कहना कठिन है कि यह श्लोक भमरसिंहकी रचना है या वादीमसिंहकी, किन्तु द्वितीय
छोक अन्यत्र कहीं नहीं उपलब्ध होता और वह श्लोक दोशीजीके कथनानुसार यदि मङ्गलाचरणका ही है तब तो दोशीमहोदयके कथनकी विशेषतः पुष्टि होती है कि अमरसिंह बौद्ध नहीं, किन्तु जैनी ही था।
मेरा विचार था कि उक्त दोशीजीके ट्रैक्टके श्लोकोंको अपने अमरकोष द्वितीय संस्करण में भी समाविष्ट करूँ, किन्तु उक ट्रैक्टके श्लोकों में प्रचुर. मात्रामें अशुद्धियाँ होनेसे वैसा करना उचित प्रतीत नहीं हुआ और दोशीजी महोदय के ट्रैक्टकी मूल प्रति-जो द्रविडप्रान्त-निवासी 'आप्पण्डानाथशास्त्री से द्रविडा बरमें तालपत्रपर लिखित थी-को प्राप्त करनेका प्रयत्न करनेपर भी कृतकार्य न हो सकने के कारण मुझे अपने विचारको स्थगित कर देना पड़ा। ____ अमरसिंहने अन्य किसी ग्रन्थको भीरचना की या नहीं, यह विषय सन्देहास्पद है। जयपुर सं० पाठशालाओं के निरीक्षक साहित्याचार्य पं. भट्ट श्रीलङ्ग मथुरानाथ शास्त्रीने 'अमरकोषे टीकाकाराणां कृपा' शीर्षक लेखमें अमरभारती में लिखा है कि इनके विषय में यह भी प्राचीन दन्तकथा है कि 'ये अनेक अन्धोंकी रचनाकर इन्हें नाव में रख कहीं अन्यत्र जा रहे थे, किन्तु बौद्धधर्मः
1. तद्यथा-जिनस्य लोकनपन्दितस्य प्रहालयेस्पाइसरोज युग्मम् ।
नखप्रभादिष्यसरिस्प्रवाहैः संसारपकं मयि गाठलम्मम् ॥ ॥ नमः श्रोमान्तिनाथाय कारातिविनाशिने । पञ्चमबक्रिमा पस्तु कामस्तस्मै मिनेशिने ॥१॥'इति।
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[१२]
विरोधी आयौंने 'अमरकोष' के अतिरिक्त सब ग्रन्थों को पानी में डुबो दिया' किन्तु यह बात निराधार होनेसे प्रामाणिक नहीं समझी जा सकती ।
लिङ्गानुशासन के श्लोकोंको प्रायः पाणिनिसूत्रके आधार पर इन्होंने लिखा है, इससे तथा
'अमरसिंहस्तु पापीयान् सर्वं भाष्यमचूचुरत्' ।
इस श्लोक के आधारपर व्याकरण शास्त्रमें इनका पाण्डित्यप्राखर्यं अनाच्छन है, किन्तु उक्त श्लोकद्वारा इनपर भाग्यचौर्यका दोष लगाना ईर्ष्याकृत मालूम पड़ता है, क्योंकि ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही 'समाहृत्यान्यतन्त्राणि संक्षिप्तैः प्रतिसंस्कृतैः ( ११२ ) इस वचनद्वारा ये उक्त दोष मुक्त हो चुके हैं और उक्त दोषाभाव में दूसरी बात यह भी है कि यदि भाष्यकार 'घञन्त-अबन्त' शब्दोंको पुंल्लिङ्ग लिखते हैं, तो गतानुगतिक या चौर्यदोष के भय से बादका कोई भी ग्रन्थकार स्त्री तो लिख नहीं सकता, अतः यदि वह पुंलिङ्ग लिखे तब उसपर चौर्यदोषारोपण न कर इन्हें भाष्यमतप्रचारकका श्रेय मिलना ही उचित प्रतीत होता है । इसीप्रकार भानुजिदीक्षितने 'गौतमाबन्धु (१।१।१५ ) की स्वनिर्मित 'याक्या सुधा' टीका में यद्यपि 'वेदविरुद्धार्थानुष्ठातृस्वाज्जिन शाक्यौ नरकवर्गे वक्तुमुचितौ तथापि देवविरोधित्वेन बुद्धबुपारोहादत्रैवोको' अर्थात् 'वेदविरुद्ध अर्थानुष्ठान के कारण 'जिन और शाक्य' को पद्यपि 'नरकवर्ग' में कहना उचित था, तथापि देवविरोधी होने से बुद्धिस्थ होने के कारण ये यहींपर कहे गये हैं' ऐसा कहा है, किन्तु इस श्लोक के आधारपर जिन बुद्ध भगवान् की गणना भगवान् कृष्णके दश अवतारों में है, तथा जिन्हें वैष्णवभक्तवरेण्य 'जयदेव' - जैसे श्रेष्ठ विद्वान् भी कृष्ण भगवान्का अंश 'मानकर नमस्कार करते है, उन 'बुद्ध' के लिये 'नरकवर्गे, देवविरोधित्वेन' इन शब्दों का प्रयोग करना नितान्त अनुचित प्रतीत होता है ।
...
१. 'वेदानुद्धरते
जगन्ति वहते भूगोल मुद्विभ्रते दैत्यान् दारयते बलिं छलयते चरत्रचयं कुर्वते । पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते उले छान्मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ' ॥
गीतगोविन्द ।।१२ ॥
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[ १३ ]
अमरकोषके नाम अन्धकारके नाम के आधारपर । 'अमरकोष', अन्धकारकृत भन्वर्थ (सार्थक ) नाम-करणके
'समाहत्यान्यतन्त्राणि संक्षिप्त प्रतिसंस्कृतैः।
सम्पूर्णमुच्यते वगै मलिङ्गानुशासनम्' (१२) तथा अन्य के तीनों काण्डों के अन्त में
'इत्यमरसिंहचौ 'नामलिलानुशासने।। इस वचन के आधारपर 'नामलिङ्गानुशासन' और ग्रन्थमें तीन काण्ड हानेसे 'त्रिकाण्ड' --- तीन नाम हैं। देवभाषाशब्दसंग्रह होने से कोई कोई इसे 'देवकोष' भी कहते हैं।
अमरकोषकी टीकाये 'असर कोष'की उपयोगिता ग्रन्थरचनाके बाद अतिप्राचीन विद्वानोंसे लेकर भाधुनिक विद्वानों के द्वारा की गयी उसकी टीकाओं से भी सिद्ध होती है । इसपर प्राचीन विद्वानों की निम्न टीकायें हैं, व्याख्याप्रदीप
अच्युतोपाध्याय । २ क्रियाकलाप
आशाधर । ३ काशिका
काशीनाथ । ४ 'अमरकोषोद्धाटन
भट्टक्षीरस्वामी।
१. देवराज 'यज्या'ने निघाटुपर भाष्य लिखने में भोज और वीरस्वामीके नाम लिये हैं । भोजकाल ई० सन् १०१८-१०६० है, सी० स्वा० का समय ११ वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है। इन्होंने ई० सन् ८८०-९१. कालके राजशेखरका नाम अपनी टीकामें लिया है। 'गणराजमहोदधि में वर्द्धमानने पी० स्वा० का नाम लिया है, जो ई० सन् ११४० में हुए थे। क्षी० स्वा० ने उपाध्याय, गौड़, श्रीभोज, ध्याडि, भागुरि, मालाकार, और कास्य (कात्यायन) आदि कई विद्वानों वचन अपने ग्रन्थमें उद्धृत किये हैं। ये बहुत जगह 'अमरकोषोद्धाटन' नामक 'अमरकोष'की टीकामें ग्रन्थकारके शब्दों का विवेचन भी किये हैं। जैसे-'स्त्री दाराधैर्यद्विशेष्यं. (१२) 'अन्न स्त्री दाराधम्'
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५ बालबोधिनी
* ६ अमरकौमुदी
७ 'अमरकोपपञ्जिका
८ शब्दार्थसंदीपिका
९ सुबोधिनी
१० अमरकोषमाला
११ अमरकोषपञ्जिका
*१२ मुग्धबोध []
१३) व्याख्यासुधा
अथवा - रामाश्रमी
* १४ गुरुबालप्रबोधिनी
१५ सारसुन्दरी
१६ अमरपदपारिजात
[ 18 ]
...
***
...
134
...
***
...
***
...
गोस्वामी ।
नयनानन्द रामचन्द्र । नारायणशर्मा ।
नारायण विद्याविनोद |
नीलकण्ठ ।
परमानन्द | बृहस्पति | भरतमल्लिक (भरतसेन ) भानुनिदीक्षित द्वितीय
रामाश्रम |
मन्जु भट्ट ।
मधुरेश. विद्यालङ्कार । महिलनाथ |
इति युक्तः पाठः' ऐसा, तथा 'कमनः कामनोऽभिक:' ( ३|१| २४ ) यहाँ 'कामनः कमनोऽभिकः' इति तु युक्तः पाठः' ऐसा कहा है । इसीप्रकार इन्होंने और भी कई जगह विवेचना की है। ये मागुरि, तथा मालाकार आदि की भी अपनी टीका में भ्रान्ति आदि बतलाये हैं ।
1. इसका दूसरा नाम 'पदार्थकौमुदी' भी है, इसको सन् १६१९ ई० में नारायणशर्माने बनाया था ।
२. इस निशानवाले टीकाओंके नाम आदिमें थोड़ा-थोड़ा अन्तर है । इन टीकाओंका नाम 'कश्पद्रुम' कोषकी भूमिका के ६ ठे पेजमें आये हैं तथा अमरभारती ( वर्ष १ अङ्क ६) के 'अमरकोषे टीकाकाराणां कृपा' शीर्षक लेख में छुपा है । [] गौरांगमशिक के पुत्र भरत मल्लिक ( भरतसेन ) की टीका बहुत विशद है । इसमें बहुत पाठान्तर है । इसमें वोपदेवके व्याकरणानुसार शब्दक्रम है | १८ वीं शताब्दी में इसके टीकाकारकी सम्भावना की जाती है ।
() 'सिद्धान्तकौमुदी' कार भट्टोजिदीक्षित' के पुत्र 'भानुजिदीक्षित'ने १७ वीं शताब्दी में बनेलवंशी 'कीर्तिसिंह'को प्रार्थनासे यह टीका बनायी ।
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*१७ बुधमनोहरा *१८ अमर विवेक १९ 'अमरबोधिनी १० त्रिकाण्डचिन्तामणि *२१ अमरकोषम्याण्या ११ त्रिकाण्डविवेक २३ वैषम्यकौमुदी *२४ अमरकोषब्याख्या *२५ अमरवृत्ति
२६ प्रदीपमन्जरी *२७ पदचन्द्रिका *२८ अमरव्याख्या *१९ अमरबोधिनी ३० पदमन्जरी *३. व्याख्यामृत ३२ भमरटीका ३३ 'टीकासर्वस्व
महादेवतीर्थ । महेश्वर । मुकुन्दशर्मा । रघुनाथचक्रवर्ती। राघवेन्द्र । रामनाथ । रामप्रसाद । रामशर्मा । रामस्वामी। रामेश्वरशर्मा। रायमुकुट । लचमणशास्त्री। लिंगमट्ट। लोकनाथ । शङ्कराचार्य। श्रीधर । सर्वानन्द।
1. यह टोका वोपदेवानुसारिणी है।
२. सन् १६३३ ई० में यह टीका बनी टीकाकारने भूमिकामें बहुत टीकाकारोंके नाम लिये हैं।
३. बंगाल के 'राधानगर में रहनेवाले 'गोविन्द के पुत्र बृहस्पतिने 'पदचन्द्रिका' (राय मुकुटमणि) बनायी, इसीको लोग रापमुकुट कहते हैं। जो सन् १४३. ई० में बना था, इसके पूर्व १६ टीकायें थीं। 'बृहस्पति के पुत्रके , विश्राम, १ राम' आदि नाम थे । 'रापमुकुट में २७० व्यक्तियों के प्रमापक वचन हैं, यह बात Aafrecht ने लिखी है। २८, १०९-११८॥
४. यह टीका १० टीकाओं के आधारपर ११५९ ई. सन् में लिखी गयी है और लगमा क्षी. स्वा० कृत टीकाके बराबर ही है। यह रायमुकुट आदि
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३४ अमरपद्ममुकुर
*३५ बृहद्वृत्ति
* ३६
X
* ३७ गुरुबालप्रबोधिनी
* ३८
X
३९
X
* ४० अमरकोषपद विवृति *४१ कामधेनु
[ १६ ]
...
...
...
...
...
रंगाचार्य ।
X
अध्यrय दीक्षित | भानुदीक्षित ।
मान्यभट्ट ।
लिंगमसूरि ।
x
वंगदेशीय कोई विद्वान्
यद्यपि आधुनिक अनेक विद्वानोंने भी इस ग्रन्थपर अनेक संस्कृत तथा हिन्दी टीकायें लिखी हैं, तथापि उनमें प्रत्येक शब्दोंका प्रचलित हिन्दी में अर्थ, किंगज्ञान, वचनज्ञान, शब्द के प्रातिपदिकादस्थाका शुद्ध स्वरूप, पाठान्तर, कठिन शब्दों की विवेचना, शब्दसे सम्बद्ध विषय या अन्य आवश्यकीय बातोंका समावेश नहीं होने से एक बहुत कमी चिरकालसे मेरे हृदय में खटक रही थी । इसीकी पूर्ति के लिये मैंने संस्कृत और हिन्दीमें इस ग्रन्यराजको क्रमशः टीका और टिप्पणी लिखकर इसे पूज्यपाद विद्वन्मुकुटमणि दार्शनिक सार्वभौम साहित्यदर्शनाद्याचार्य माध्वमतावलम्बी श्री १०८ गोस्वामी दामोदरलालजी महाराजको दिलाया । पूज्यपाद गोस्वामीजी महाराजने इस टीकाकी भूरि-भूरि प्रशंसा की, पूज्य गोस्वामीजीकी बतलायी हुई शैली से मैंने इल 'मणिप्रभा' नामक हिन्दी टोका और साथ में 'अमरकौमुदी' नामक संस्कृत टिप्पणी में अन्य आवश्यक बातोंका भी समावेश किया । सम्पूर्ण ग्रन्थ में लगभग सौ श्लोक क्षेपकके दिये गये हैं, मूल ग्रन्थमें आनेवाले शब्दोंके अतिरिक्त प्रसिद्ध १ बाहरी शब्द तथा मूल ग्रन्थ में आनेवाले शब्दोंके आंशिक समानाकार बाहरी
वंगदेशीय टीकाकाका आधार हुई। इसके बाद किन्तु अन्य वंगदेशीय टीकाकारोंके पूर्व 'सुभूतिचन्द्र या बौद्ध सुभूति' ने कामधेनु टीका बनायी जिसका बंगाली टीकाकर्ताओंने अधिकतर 'उल्लेख किया है । सन् ११७३ ई० में बनी हुईं शरणदेवके 'दुर्घटवृत्ति' में 'सुभूति' का नाम मिलता है ।
x इस निशान में नाम नहीं कहा गया है ।
·
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[ १७ ]
1
शब्द में भी + ऐसे निशान कर दिये गये हैं, जिससे ग्रन्थको उपयोगिता अधिक बढ़ गयी है । शीघ्रता आदिके कारण जो बातें छुट गयी थी, उनकी पूर्ति परिशिष्ट में की गयी है । यद्यपि परिशिष्ट में और भी अधिक बातोंको देनेका विचार था, किन्तु ग्रन्थाकारके बहुत बढ़ जाने से वह विचार छोड़ देना पड़ा । मूल शब्दों की सूची के अतिरिक्त बाहरी समानाकार शब्दोंकी तथा क्षेपक श्लोकों में आए हुए शब्दोंकी सूची भी साथ में दी गयी है, जो अन्यत्र किसी अमर कोष में नहीं पायी जाती। इस प्रकार इस ग्रन्थको यथासाध्य सर्वावश्यकीय विषयोंसे परिपूर्ण बनानेकी भरपूर चेष्टा की गयी है ।
आभारप्रदर्शन
इस भूमिकाको पूरा करने के पहले उन महानुभावोंका मैं अतिशय आभारी हूँ, जिन्होंने इस टीकाके निर्माण करने में किसी तरह भी सहायता पहुँचायी है । उनमें सर्वप्रथम जिन प्रन्थोंसे इस टीकाकी रचना में सहायता की गयी है, सन प्रन्थकारोंके प्रति आभारप्रदर्शन पूर्वक कृतज्ञता अभिव्यक्त करता हूँ ।
सम्मतिदाता
१ पूज्यपाद म० म० पं० श्री १०८ गोपीनाथ कविराजजी, प्रिंसिपल गवर्नमेण्ट सं० कालेज, बनारस - आपने अनेक प्रन्थोंका नाम तथा प्रकरणादिका निर्देशकर टिप्पणी और परिशिष्ट बनाने में मुझे बहुत सहायता पहुंचायी ।
२ पूज्यपाद दार्शनिक सार्वभौम दर्शन साहित्याचार्य श्री १०८ गोस्वामी दामोदरलालजी शास्त्री - आपको आदिष्ट शैलीद्वारा इस टीकाकी रचना हुई, तथा आपसे अन्य भी अनेक सम्मतियाँ मिलीं ।
३ पू० पा० गवर्नमेण्ट सं० कालेज के प्रोफेसर व्याकरणाचार्य श्री गोपालशास्त्रीजी नेने आपने द्वितीयकाण्ड तक इस टीकाका : प्रूफ देखा, तथा अन्यान्य अमूल्य सम्मतियाँ प्रदान की ।
४ पं० नारायणदत्तजी त्रिपाठी मारवाड़ी सं. कालेज के प्रधानाध्यापक, व्याकरणाचार्य पोष्टाचार्य स्वर्णपदकप्राप्त
५ पू० पा० पं० वंशीधर मिश्रजी आरामण्डलान्तर्गत गिरिधरबरांव निवासी उयोतिषाचार्य, पोटाचार्य तथा ज्यौतिषतीर्थ
२ अ० भू०
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[ १८ ] आप लोगोंसे क्रमशः व्याकरण और ज्योतिष सम्बन्धी बहुतसी सम्मतियाँ प्राप्त हुई।
ग्रन्थद्वारा सहायतादाता १ श्री पं० नन्दविहारी मिश्र भायुर्वेदाचार्य, विशारद, आरामण्डलान्तर्गत गिरिधरपरांवनिवासी-आपने 'अमरविवेक' की प्राचीन पुस्तकद्वारा सहायता की।
२ श्री पं. ऋषिनन्दन पाण्डेय व्याकरणशासी, काव्यतीर्थ, अध्यापक सं० पाठ. कसाप, भारा-आपने भाषाटीकासहित अमरकोषकी अतिप्राचीन पुस्तकके द्वारा सहायता की।
३ श्री पं. कृष्णपन्त साहित्यार्य, अध्यक्ष विश्वनाथ संस्कृत पुस्तकालय, ललिताघाट, काशी-आपने अपने पुस्तकालय से बहुतसी पुस्तकें समय-समय पर देकर बहुत सहायता की।
इनके अतिरिक्त अन्यान्य जिन महानुभाव विद्वानों के द्वारा भी मुझे जो कुछ सहायता प्राप्त हुई है, उनका मैं बहुत भाभारी होते हुए कृतज्ञता प्रकाश करता हूँ।
टीकाके सहायक प्रन्थ 'साङ्केतिक चिह्न और शब्दका विवरण' शीर्षक लेख में आये हुए प्रन्यों के अतिरिक्त अग्निपुराण, अत्रिस्मृति, यमस्मृति, हारीतस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति की बालभिट्टी टीका, आह्निकसूत्रावली, कहाद्रुमकोश, हिन्दी शब्दसागर, श्रीधरकोष भादि ग्रन्थ तथा अमरकोषकी सी० स्वा० कृत 'अमरकोषद्घाटन', महेश्वरकृत 'अमरविवेक', भानुजिदीक्षितकृत व्याख्यासुधा (रामाश्रमी) सर्वानन्दकृत 'टोकासर्वस्व', 'संक्षिप्तमाहेश्वरी', तथा एतद्वयाख्यानभूत 'अमरप्रकाश' द्वारा सहायता ली गयी है। इनके अतिरिक्त अन्य बहुत प्रन्यों द्वारा भी यत्र तन्त्र सहायता ली गयी है, उन ग्रन्थ कारों और टीकाकारोंका मैं विशेष भाभारी हूँ।
अन्तमें 'काशीस्थ चौखम्बा-बनारस-काशी-हरिदास सं० सिरीज़' के अध्यक्ष बाबू 'जयकृष्णदास हरिदास गुप्त' महोदयको अनेक धन्यवाद देता हूँ,
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[ १६ ]
जिन्होंने इस प्रन्थका प्रकाशनभार लेकर संस्कृत साहित्य ग्रन्थोद्धार में उत्साहपूर्ण अपनी उदारताका परिचय दिया है ।
ग्रन्थ-सम्पादन के समय मानवसुलभ दृष्टिदोषवश एवं टाइपके अतिसूक्ष्माचर होने से तथा यन्त्र-सम्बन्धी दोषोंसे अर्थात् किसी प्रकारकी यदि अशुद्धि हो गयी हो तो—
'गच्छतः स्खलनं कापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधनि सज्जनाः ॥
इस पथ के अनुसार वीरग्राही हंसके समान विद्वज्जन उन अशुद्धियों को सुधार कर मुझे अनुगृहीत करेंगे ।
इति शम् ।
रथयात्रा, सं० १९९४
}
विद्वत्पादाब्जरजश्चञ्चरीकहरगोविन्दशास्त्री
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द्वितीय संस्करण
लोकशङ्कर भगवान् शङ्करकी असीम अनुकम्पासे स्व-प्रथम-प्रयास सम्पादित अमरकोषीय 'मणिप्रभा के द्वितीय संस्करणको प्रकाशित होते हुए देखकर अनुवादक होनेके नाते मुझे परम प्रसन्नता हो रही है, क्योंकि कविकुछशिरोमणि महाकवि कालिदास-जैसे विद्वान् भी सूत्रधारके मुखसे
'भा परितोषाद्विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम् ।
बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेतः ।' कहलवाते हुए कृतिकी सफलता सशक होना अभिव्यक्त करते हैं, तब अपनी कृति-यह भी अध्ययनावस्थाकी प्रथम कृति-होने के कारण मुझ जैसे अल्पज्ञको अपनी सफलतामें पाशङ्कित होना अस्वाभाविक नहीं समझा जा सकता; परन्तु 'मणिप्रभा' युक्त इस अमरकोष अन्य के प्रथम तथा द्वितीय काण्डोंका पाँच-पाँच, संस्करण प्रकाशित होना और इस सम्पूर्ण ग्रन्थ के पुनः प्रकाशनार्थ अनेक वर्षोंसे पत्रादिद्वारा प्रेरणा करते रहना इस कृतिकी सफलता को स्पष्टतः अभिव्यक्त करता है।
इस अमरकोषके ही नहीं, किन्तु 'मणिप्रभा' नामक मेरे राष्ट्रभाषाऽनुवाद. सहित अन्यान्य प्रन्थों-रघुवंश, शिशुपालवध, नैषधचरित तथा मनुस्मृति आदि-को भी अन्यान्य विद्वज नसम्पादित विविध टीकाओं तथा अनुवादोंके रहते हुए भी अपनी नीर-क्षीर विवेकिताद्वारा जिनलोगोंने अपनी गुणेकपक्षपातिताका स्पष्ट परिचय प्रदान किया है, मन परमादरणीय विद्वानोंका आभार मानता हुआ मैं उन्हें भूरिशः धन्यवाद देता हूँ। ___ साथ ही वर्तमानमें शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय के प्राचार्य एवं समाज (सोसल )-विभाग, विहार सरकार के भूतपूर्व उपनिर्देशक श्रीमान् माननीय 'डॉ. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री महोदयका भी अस्यन्त आभारी होता हुआ उन्हें अनेकानेक धन्यवाद देना अपना परम कर्तव्य समझता हूँ; जिन्होंने मेरी
al
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[ २१ ] प्रार्थना स्वीकृत कर इस संस्करणका अपना पाण्डिस्य पूर्ण 'प्राक्कथन' लिखनेकी अनुकम्पा की है।
इसके अतिरिक्त प्रायः पैंसठ वर्षों से संस्कृत साहित्य के विविध विषयक ग्रन्धोंका प्रकाशनकर भारतीय आर्ष संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन के अन्यतम सेवाव्रती, चौखम्बा संस्कृत पुस्तकालय तथा चौखम्बा विद्याभवन, काशी के अध्यक्ष श्रीमान् माननीय सेठ 'जय कृष्ण दामजी गुप्त' महोदयको भी शुभाशी:पूर्वक भूरिशः धन्यवाद देता हूँ; जिन्होंने इस प्रन्थका पुनर्मुद्रण करके सकल संस्कृतानुरागियों के लिए इसे सुलभतम मूल्य में प्रदान करते हुए त्रिवर्गको अर्जित करने का सफल प्रयास किया है।
इस संस्करण के मुद्रण में मेरे सुदूर प्रदेशमें रहने के कारण प्रूफ संशोधन आदि कार्य करनेवाले मित्रवर्गको भी अनेकशः धन्यवाद प्रदान करता हूँ।
यद्यपि मैंने इस संस्करणमें दृष्टचर त्रुटियों के निराकरणका पूर्णतया प्रयास किया है, एवं कतिपय स्थलों में अनेक विषयोंको विशदकर इस संस्करणको पूर्वापेक्षया अधिक उपयुक्त बनानेका यथाशक्य प्रयत्न किया है; तथापि इसका सम्पादन, अक्षरसंयोजन, संशोधन एवं मुद्रणादि सब कार्य मानवकृत होनेसे और जगरना ईश्वरके अतिरिक्त प्राणिमात्रको सर्वथा दोषविनिर्मुक्त होना असम्भव होनेसे इस संस्करण में भी सम्भावित त्रुटियों के लिए गुणकपक्षपाती विवृन्दसे बद्धाञ्जलि हो समायाचना करता हूँ कि वे जिस प्रकार इसे अपनाकर अन्यान्य अन्योंको लिखने के लिए मुझे उत्साहित करनेकी असीम अनुकम्पा की है, उसी प्रकार भविष्य में भी अनुकम्पा करते रहें।
।
रामनवमी सं० २०१४
विद्वज्जनवशंवदः
हरगोविन्दशास्त्री
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साङ्केतिक चिह्न और शब्दके विवरण
मूल के सङ्केत ' ' इस चिह्न के बीचवाले अंश क्षेपक हैं, उनके भन्तमें ( ) इस कोछके मध्य में क्रमानुसार पतिसंख्या लिखी गई है। श्लोकोंके पहले या मध्य भागमें दिये गये अङ्क हिन्दी टीकाके प्रतीक हैं।
टीका और टिप्पणीके संकेत 3-सन्धि ('सु' विभक्ति प्रातिपदिकसे भिन्न रूपवाले ) शब्दों के प्रातिपदिकावस्थाका शुद्ध रूप । __+-पाठभेद या मतभेदसे उपलब्ध पर्याय; और ग्रन्थान्तरमें उपलब्ध शिक समानाकार (प्रायःमिलते जुलते हुए) या प्रसिद्धतम पर्यायवाचक शब्द । [ ]-क्षेपक श्लोकों की हिन्दी टीका ।
उन-इन ग्रन्थों के काण्ड, वर्ग, श्लोक, परिच्छेद, अध्यायादि जानने के लिये अङ्क दिये गये हैं। पुपा पुल-पुंलिंग
भा. दो०-भानुजिदीक्षित खो या सी-सिलिंग
मु०-मुकुट नया म.-मपुंसकलिंग
मा.-मागुरि त्रिपा वि-विलिंग
प्रा०-प्राज्य मि-नित्य
रा. कृ. दी.-रामकृष्णदीक्षित
बु. म.-बुधमनोहर ९.०-एकवचन
म. वि.-अमरविवेक दिव०-द्विवचन
ज्या० सु.--व्याख्यासुधा (रामाश्रमी) ब.प. या बहुव०-बहुवचन पा० सू-पाणिनीयसूत्र शे०-शेष
लि. सू०-लिंगसूत्र म.-मत या मतभेद
उ. सू०-उणादिसूत्र उदा०-दाहरण
वा०-वार्तिक स्वा०-स्वामी
यो० सू०-योगसूत्र जी. स्वा.-क्षीरस्वामी
अभि. चिन्ता. या भ० चि० म०महे.-महेश्वर
अभिधानचिन्तामणि
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[ २३ ] या०स्मृ०या याज्ञस्मृ०-याज्ञवल्क्यस्मृति अ०-अध्याय मनु या मनुस्मृ०-मनुस्मृति
चतु० चिन्ता-चतुर्वर्गचिन्तामणि सा. ३०-साहित्यदर्पण
दा० खं०- दानवण्ड गी--श्रीमद्भगवद्गीता
वृ० रत्ना०-वृत्तरत्नाकर वि० पु०-विष्णुपुराण वै०सि० म०-वैयाकरणसिद्धान्त लघु
वीर० राजप्रक०-वीरमित्रोदयराजमन्जूपा
प्रकरण सु. श्रु० क० रथा-सुश्रुत कल्पस्थान कु. सं०-कुमारसम्भव मा. नि.-माधवनिदान वाचस्प०-वाचस्पत्याभिधान भने० सं०-अनेकार्थसंग्रह नि० सिं०-निर्णय सिन्धु मे. या मेदि०-मेदिनी कोष रघु०--रघुवंश पृ.-पृष्ठ
*, + + $, इत्यादि चिह्न टिप्पणीके श्लो०-श्लोक
प्रतीक हैं। देखनेका प्रकार-१ जिस शब्दके बाद जो संकेत है, उसीके साथ उस संकेतका सम्बन्ध है । २ संख्यासहित संकेतका पहलेवाले इतने शब्दों के साथ सम्बन्ध है । ३ कहीं-कहीं एक ही शब्द में एकाधिक भी संकेत हैं। ४ नामके अन्तमें लिखी हुई संख्या में पाठान्तर, कोषान्तर भादिके कोष्ठमध्यगत पर्यायोंकी गणना नहीं है। उदाहरण-'स्वः (= स्वर् , अ०), स्वर्गः, नाका, त्रिदिवः, त्रिदशालयः सुरलोकः (५ पु), चौः ( = घो); घोः ( = दिन् । २ स्त्री), 'त्रिविष्टपम्' (न । + त्रिपिष्टपम् ), 'स्वर्ग के ९ नाम है", यहाँ पर 'स्व' के प्रातिपदिकावस्थाका शुद्ध रूप 'स्वर' है और यह अव्यय है । 'स्वर्ग' श्रादि पाच शब्द पुंलिंग हैं। पहले 'चौः' के प्रातिपदिकावस्थाका शुद्ध रूप 'वो' और दूसरे के प्रातिपदिकावस्थाका शुद्ध रूप 'दिव्' है, तथा ये दोनों शब्द 'सीलिंग' हैं । 'त्रिविष्टप' शब्द नपुंसक है, मतान्तरसे 'त्रिविष्टपम्' यह भी पर्याय है। 'स्व' आदि ९ नाम 'स्वर्ग' के हैं, इसमें 'त्रिपिष्टपम्' की गणना नहीं है। इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये ।
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[ २४ ]
परिशिष्टके संकेत परिशिष्टमें पहले मूल ग्रन्थमें आये हुए शब्दको देकर उसके काण्डा, वर्गात और श्लोकाङ्क दे दिये गये हैं, फिर उस शब्दसे सम्बद्ध विषय लिखकर प्रमापक ग्रन्धके नाम भादि दिये गये हैं ॥
शब्द-सूचीके संकेत मूल ग्रन्थकी सूची देखनेका प्रकार-पहले शब्द, बादमें क्रमशः 'काण्डाङ्क, वर्गाङ्क और श्लोकाङ्क' दिये गये हैं। जैसे-'अ३४११' अर्थात् 'अ' शब्द तृतीय काण्ड के चतुर्थ अध्ययवर्गके ग्यारहवें श्लोक में आया है। ( देखिये पृ० ५.७)॥
क्षेपक और टीकास्थ शब्दकी सूची देखनेका प्रकार-क्षेपक और टीकास्थ शब्दोंकी सूची ११६ पृष्ठसे आरम्भ होकर १४९ पृष्ठों में समाप्त हुई है। उनमें से जो शब्द क्षेपकमें आये हैं, उन शब्दों के पहले अध्याय के क्रम से चलने वाला क्षेपकाङ्क, पकका शब्द और बादमें मूल अन्य के जिस स्थल में वह क्षेपकका शब्द भाया है, उस मूल ग्रन्थ के काण्ड, वर्ग और श्लोक के अङ्क दिये गये हैं। इसमें अर्द्धरलोककी गणना नहीं है। जैसे-४१ अंशुमालिन् १३३०' यहाँ पहले वेपकका अङ्क, बादमें क्षेपकका 'अंशुमालिन्' शब्द, फिर प्रथम काण्डके तृतीय 'दिग्वर्ग' ३० वें श्लोकके बाद वह 'अंशुमालिन्' शब्द मिलेगा। (देखिये पृष्ठ-३१)।
कुछ शब्द क्षेपकसे सम्बद्ध होते हुए भी भूल पक में नहीं आये हैं, किन्तु हेपकसे भी बाहरी हैं। ऐसे शब्दों में क्षेपकाङ्कके भागे+ ऐसा चिह लगाया गया है। जैसे+५३+ आश्विन १४१३' है, इसे भी इसीप्रकार पृष्ठ १. में देखिये । यह शब्द क्षेपक में नहीं भाया है, किन्तु क्षेत्रककी टीका भाया है।
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विषयानुक्रमणिका
पृष्ठसंख्या
१-१०४
प्राकथन ... भूमिका ... द्वितीय संस्करण की भूमिका सांकेतिक चिह्न और शब्दके विवरण विषयाः श्लोकसंख्या
प्रथमकाण्डम् (मालावरणम् , श्लोक १ मः) (प्रतिज्ञा " २ यः) (परिभाषा "३-५ मा) १ स्वर्गवर्गः २ व्योमवर्गः ३ दिग्वर्ग: ४ कालवर्गः ५ धीवर्गः ६ शब्दादिवर्गः ७ नाट्यवर्गः
३८ ८ पातालिमोगिवर्गः ९ नरकवर्गः १० वारिवगः
वर्गोपसंहारः काण्डसमाप्तिश्च २
द्वितीयकाण्डम् :." (वर्गभेदकथनम् , श्लोकः १ मा) १ भूमिवर्ग:
.
४८
५४
...
११
८
४३
१०५-३६६
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________________
विषयाः २ पुरवर्गः ३. शैलवर्गः
४ वनौषधिवर्गः
५ सिंहादिवर्गः ६ मनुष्यवर्गः
७ ब्रह्मवर्गः
८ क्षत्रियवर्गः
९ वैश्यवर्गः
१० शूदवगं
१ विशेष्यनिघ्नवर्गः
२ संकीर्णवर्गः
३ नानार्थवर्गः
४ अययवर्गः
५ लिगादिसंग्रह वर्गः
[ २६ ]
श्लोकसंख्या
काण्डसमाप्तिः
तृतीय काण्डम्
( सर्गभेदकथनम्, श्लोकः १मः )
"
( परिभाषा
२यः )
११२॥
४२॥
τ
१६९॥
४३
१३९॥
५७॥
११९॥
१११
४६॥
1
...
२५७
२३
४६
काण्डसमाप्तिः (श्को०४७मः ) १
...
...
...
...
...
...
...
...
...
900
...
...
...
४२१
५१६
५२२
५५२
प्रथमकाण्डे समितश्कोकसंख्या २७८॥ द्वितीयकाण्डे सङ्कलितश्कोकसंख्या ७३३॥ तृतीय काण्डे सङ्कलितश्लोकसंख्या ४८२ ए सम्पूर्णप्रये सङ्कलितश्लोकसंख्या १४९४
...
...
...
पृष्ठसंख्या
११३
१२०
१२४
१७३
१८७
२३७
२६३
३०६
३५०
३६६
३६७–५५२
३६७
३६८
33
४०७
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चक्रसूची
पृष्ठावा
२२४
२.४
कमाझा: चक्रनामानि १ कालमानपोषचक्रम् २ विविधमतेन हाराणा संज्ञाया यटिसंख्यायाश्च बोधकचक्रम् ३ पत्यादिसेनाविशेषे गजरयादिसंख्याबोधकचक्रम् ४ तुलामानबोधकचक्रम् ५ अनुलोमन प्रतिलोमत्र जात्युत्पत्तिबोधकचकम्
क्षेपकश्लोकपंक्तिसंख्या प्रथमकाण्डे क्षेपकपलया ५८ । तृतीयकाण्डे क्षेपकपडयः द्वितीयकाण्डे ॥
३३ एवं सम्पूर्णप्रन्थे
३४१ ३५२
८६
परिशिष्टसूची अमरकोषस्य परिशिष्टम् मूलस्थशम्दानुक्रमणिका क्षेपक-टोकास्यशब्दानुक्रमणिका
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________________
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|| श्रीः॥ नामलिङ्गानुशासनम्
नाम
अमरकोषः
प्रथमं काण्डम् १ यस्य शानदयासिन्धोरगावस्यानघा गुणाः । सेव्यतामक्षयो धीराः स धिये चामृताय च ॥१॥
विश्वेषां करणैरगोचरमपि प्रज्ञाशा पश्यता
यत्प्रत्यक्षमपश्चिमं कृतिरिह स्वःश्रेयसे योगिनाम् । आरभ्याणु महत्तमावधि परं यद्व्यापकं सर्वतो
वन्दे निर्गुणमेष पाणियुगलं बद्ध्वाऽऽनतस्तन्महः ॥ १॥ आसृष्टि प्रलयावधि त्रिभुवने विस्तारसिन्धोः परं
यस्या द्रष्टुमपि क्षमो न यदि चेस्पारङ्गतौ का कथा । ब्रह्मश्रीशशिवादिभिश्च सततं ज्ञानाय योपास्यते ।
___तां वाचामधिनायिका भगवतीं श्रीशारदामाश्रये ॥ २ ॥ मन्थाचलाषिलपयोधिविनिस्सृतेन दृष्ट्वा ज्वलज्जगदिदं गरलेन शीघ्रम् । पीत्वा हसंस्तदभिरक्षितवान् भृशं यस्तनोलकण्ठचरणाम्बुजमाश्रयामि ॥३॥
१ श्री अमरसिंह अपने रचे जानेवाले इस ग्रन्थको निर्विघ्नतापूर्वक समाप्ति तथा प्रसिद्धि होने के लिये और व्याख्याता तथा अध्येताओं (पढ़नेवालों ) के उपदेशके लिये यथाचार' किए हुए मङ्गलाचरणको पहले लिखते हैं-'यस्य शान..."हे पण्डितो! अतिगम्भीर, ज्ञान और करुणाके समुद्र, जिसके निर्मल क्षमा आदि गुण हैं; उस अविनाशीकी आपलोग धन और मोक्ष के लिये सेवा करें ।
१. 'प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते' इति न्यायात्। 'मङ्गलादीनि हि शास्त्राणि प्रथन्ते, वीरपुरुषाणि च भवन्ति, आयुष्मत्पुरुषाणि चाध्येतारश्च सिद्धार्था यथा स्युः' इति मान्योक्तेश्च ।
___
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे१ समाहृत्यान्यतन्त्राणि,सङ्क्षिप्तः प्रतिसंस्कृतैः ।
सम्पूर्णमुच्यते वगै मलिङ्गानुशासनम् ॥२॥ २प्रायशो रूपभेदेन साहचर्याच्च कुत्रचित् ।
१ ग्रन्थ-समाप्तिके लिये इष्ट देव 'जिनदेव' का स्मरण कर श्रोता आदिके उत्साहवर्धनार्थ साभिधेय प्रयोजनको कह रहे हैं-'समाहृत्य' । नाम और लिङ्गको बतलानेवाले वररुचि आदिके तन्त्रों ( कोशों) को एकत्रित कर विस्तार के थोड़ा होनेपर भी अधिक अर्थवाले, प्रत्येक पदकी प्रकृति और प्रत्ययोंको विचारपूर्वक संस्कार कर बनाये हुए वर्गों (प्रकरणों) से सम्पूर्ण नाम ( स्वः, स्वर्गः, नाकः, आदि) और लिङ्ग (पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग) को बतलाने वाले इस शास्त्रको मैं कहता हूँ। त्रिकाण्ड-उत्पलिनी भादि कोशोंमें केवल नाम (पर्याय ) बतलाये गये हैं और वररुचि आदिके ग्रन्थों में केवल लिङ्ग बतलाये गये हैं; नामलिङ्गानुशासन' (अमरकोष) नामक इस शास्त्र (ग्रन्थ ) में तो नाम (पर्याय ) और लिङ्ग (पुंल्लिङ्ग..... ) ये सभी बतलाये गये हैं; अतः इसीको पढ़ना चाहिये ।
२ अब 'प्रायशः' इत्यादिसे इस ग्रन्थमें लिङ्गादि जाननेका उपाय (परिभाषा) बतलाते हैं-प्रायः रूप ( आकार ) भेद अर्थात् 'छोप , ङीष् , टाप, विसर्ग और अमादेश' आदिसे लिङ्गों (स्त्रीलिङ्ग, पुंल्लिा और नपुंसकलिङ्ग) को जानना चाहिये। ( उदाहरण-स्त्रीलिङ्ग जैसे-'शिवा भवानी रुद्राणी शर्वाणी सर्वमङ्गल।।' (११३७), यहां 'शिवा और सर्वमङ्गला' इन दो शब्दों के आबन्त होनेसे तथा 'भवानी, रुद्राणी और शर्वाणी' इन तीनों शब्दों के व्यन्त होनेसे 'सु' (प्रथमा विभक्ति एकवचन) का लोप हो गया है। अतएव 'शिवा'.....' पाँचों शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं । क्रमशः पुंल्लिा और नपुंसकलिन जैसे-..... प्रदोषो रजनीमुखम् (४६) यहाँ 'प्रदोष' शब्दकी
१. नाम च लिङ्गं च नामलिङ्गे, तयोरनुशासनमिति नामलिङ्गानुशासनम् । स्वरादिनाम्नां पुंस्त्वादिलिङ्गानां च व्युत्पादकमिति यावत् ।।
२. आदिपदेन यत्र 'वामोरू' इत्यादावूडप्रत्ययः, कृतिरित्यादौ चिन्प्रत्ययश्च तस्य ग्रहणम् । एवञ्च 'लक्ष्मीः' इत्यादौ सुलोपाभावे स्त्रीत्वं 'दधि' इत्यादौ सुलोपेऽपि क्लीबत्वमेवेति
वाशास्त्रं व्यवस्था कार्या, नानुमानमात्रेणैव ॥
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३
स्वर्गवर्गः1] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
स्त्रीपुंनपुंसकं शेयं १ तद्विशेषविधेः क्वचित् ॥ ३॥
'सु' विभक्तिको रुस्व-विसर्ग होने से 'प्रदोष' शब्द पुंल्लिङ्ग और 'रजनीमुख' शब्दकी 'सु' विभक्तिको अमादेश होनेसे 'रजनोमुख' शब्द नपुंसकलिङ्ग है.)॥ कहीं-कहीं साहचर्य (पासवाले शब्द के अनुसार ) से तीनों लिङ्ग समझना चाहिए। (स्त्रीलिङ्ग जैसे-'तडित्सौदामनी विद्युञ्चञ्चला चपला अपि (१॥३॥९) यहाँ स्त्रीलिङ्गवाले 'सौदामनी' आदि शब्दों के साहचर्य से सन्दिग्ध 'तडित् और विद्युत्' ये दोनों शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं। पुल्लिङ्ग जैसे—'स्फूर्जथुर्वज्रनिर्घोषः (१॥३॥१०) यहाँ 'वज्रनिघोष' शब्दके साहचर्य से 'स्फूर्जथु' शब्द पुंल्लिङ्ग है । नपुंसकलिङ्ग जैसे-'इन्द्रायुधं शक्रधनुः (१॥३॥०) यहाँ 'इन्द्रा. युध' शब्दके साहचर्य से 'शक्रधनुष' शब्द नपुंसकलिन है)।
१ कहीं-कहीं विशेष रूपसे कहनेपर स्त्रीलिज, पुंलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग जानना चाहिये ।(स्त्रीलिङ्ग जैसे-'धोदिवौ द्वे स्त्रियाम्.....(२१)यहां 'स्त्रियाम्' इस विशेष शब्दसे 'धो और दिव' ये दोनों शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं। पुंल्लिन जैसे-'निधिर्ना शेवधि::.....(१९७१) यहाँ 'ना' इस विशेष शब्दसे 'निधि' शब्द पुल्लिङ्ग है । नपुंसकलिङ्ग जैसे-'रोचिः शोचिरुमे क्लीवे (१॥३॥३४) यहाँ 'क्लीबे' इस विशेष शब्दसे 'रोचिष और शोचिष' ये दोनों शब्द नपुंसकलिङ्ग हैं)॥
विशेषः-कहीं-कहीं सर्वनाम पदसे और विशेषण पदसे भी तीनों लिङ्ग जानने चाहिए । ( सर्वनाम पदसे स्त्रीलिक जैसे-'दिशस्तु ककुभः काष्ठा भाशाश्व हरितश्च ताः (१॥३१)' यहाँ 'ताः' इस स्त्रीलिङ्गवाले सर्वनाम पद से 'विक , ककुप, काष्ठा, आशा और हरित' ये पांचों शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं। सर्वनाम पदसे पुंल्लिा जैसे-..........शुचिस्त्वयम् (१४६) यहाँ 'अयम्' इस सर्वनाम पदसे 'शुचि' शब्द पुंल्लिङ्ग है। सर्वनाम पदसे नपुंसकलिङ्ग जैसे... विषुवद्विषुवं च तत् (१।४।१४) यहाँ तत्' इस सर्वनाम पद विषुवत् और विषुव' ये दोनों शब्द नपुंसकलिङ्ग हैं ॥ विशेषण पदसे स्त्रीलिङ्ग जैसे...... संहूतिर्बहुभिः कृता (१॥६८) यहाँ 'कृता' इस स्त्रीलिङ्ग विशेषण पदसे 'संहूति' शब्द स्त्रीलिङ्ग है)। विशेष पदसे लिङ्गके अतिरिक्त वचन आदिका भी ज्ञान होता है। (जैसे-'स्त्रियां बहुष्वप्सरस..........( ५।५२) यहाँ 'स्त्रियां और बहुषु' इन दो विशेष शब्दोंके कहने से 'अप्सरस' शब्द केवल स्त्रीलिङ्ग
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[प्रथमकाण्डे
अमरकोषः १ 'भेदाख्यानाय न द्वन्द्वो नैकशेषो न सङ्करः ।
और बहुवचन ही होता है । दूसरा उदाहरण जैसे-'स्वरव्यय............ (१६)' यहाँ 'अव्ययम्' इस विशेष पदसे 'स्वर' शब्द अव्यय ही है । इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये)॥
१इस ग्रन्थ में प्रत्येक शब्दका लिङ्गमालूम करने के लिये उन शब्दोंके 'द्वन्द्व, एकशेष और सङ्कर' प्रायः नहीं किये गये हैं, जिनके लिङ्ग पहिले नहीं कहे हैं और भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु जिन शब्दोंके लिङ्ग आदि कहींपर कह दिये गये हैं, उन्हींके 'द्वन्द्व, एकशेष और सङ्कर' किये गये हैं । (क्रमशः उदाहरण-पहला द्वन्द्व जैसेजातिर्जातञ्च सामान्य ......(१।४।३१) यहाँ 'जातिसामान्यजातानि' इस तरह और 'कुलिशं भिदुरं पविः' (११॥४७)' यहाँ 'कुलिशभिदुरपवयः' इस तरह द्वन्द्व नहीं किया गया है। यहाँ पहले उदाहरण द्वन्द्व समास करने पर अन्तिम शब्दका लिङ्ग हो जाने से 'जाति' शब्द स्त्रीलिङ्ग और 'जात तथा सामान्य'ये दोनों नपुंसकलिङ्ग हैं, यह मालूम नहीं हो सकता, इसी तरह दूसरे उदाहरणमें भी द्वन्द्व करनेपर 'कुलिश और भिदुर' ये दोनों शब्द नपुंसकलिङ्ग और 'पवि' शब्द खित है, यह मालूम नहीं पड़ सकता। दूसरा एकशेष जैसे-'भोकः समाश्रयश्चौकाः......(३।३।२३३) सहाँ 'ओकस्' शब्दको 'सद्माश्रयश्चौकसौ' इस तरह और 'नभः खं श्रावणो नभाः (३।३।२३२) यहाँ 'खश्रावणौ तु नभसी' इस तरह एक. शेष नहीं किया गया है; अन्यथा पहले उदाहरण में 'ओकस' शब्द 'सम' अर्थात् गृह अर्थमें नपुंसक तथा 'आश्रय' अर्थमें पुंल्लिङ्ग है यह मालूम नहीं पड़ सकता, इसी तरह दूसरे उदाहरणमें भी 'नभस' शब्द 'आकाश' अर्थमें नपुंसकलिङ्ग तथा श्रावण महीना' अर्थमें पुंल्लिङ्ग है यह ज्ञान नहीं हो सकता। तीसरा सङ्कर जैसे-....... स्तवः स्तोत्रं स्तुतिर्नुतिः(१।६।११)'यहाँ पुंल्लिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग क्रमसे
१. उपाध्याय-गौड-मालाकार-श्रीमोजास्तु इमं विमिन्नक्रमेण व्याचख्युः, तद्वयाख्या च 'उपाध्यायश्च कमाइते....."हस्ताद्यैश्चार्थसूचनेति' क्षीरस्वामिकृतामरकोशोद्घाटनाख्यव्याख्यायो मा० दी० कृतम्याख्यासुधायाः, पं० शिवदत्तकृतटिप्पण्यां क्षीरस्वाभ्यादिमतं, रायमुकुटकृत 'पदचन्द्रिका रामकृष्णदीक्षितकृत 'पीयूष' व्याख्यां चानुपर्येण विलिख्य पूर्वोक्त. टिप्पणीकारमतं च लिखितमिति तत एव सकलं सविस्तरतोऽवधाय॑म् ॥
२. 'परवल्लिङ्ग द्वन्द्वतत्पुरुषयोः (पा० सू० २।४।२६) हति परवलिमाता स्यादित्याशयः॥
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स्वर्गवर्गः i:]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
कृतोऽत्र भिन्नलिङ्गानामनुक्तानां क्रमादृते ॥ ४ ॥
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ही कहे गये हैं- 'सङ्कर' अर्थात् मिश्रण करके 'स्तुतिः स्तोत्रं स्तत्रो तुति:' इस तरह व्यतिक्रमसे नहीं कहा गया है । 'पीयूषममृतं सुधा (१|१|४८ ) ' यहाँ 'पीयूषन्तु सुधाऽमृतम्' इस तरह सङ्कर अर्थात् संमिश्रण नहीं किया गया है, किन्तु पहले नपुंसकलिङ्गवाले 'पीयूष और अमृत' इन दो शब्दों को कहने के उपरान्त ही स्त्रीलिङ्गवाले 'सुधा' शब्दको कहा गया है; इसी तरह 'प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च (१।६।१० ) ' इत्यादि में भी समझना चाहिये । इस ग्रन्थ में जिन शब्दों के कहाँपर लिङ्ग कहे गये हैं; उन शब्दों के तो '१ द्वन्द्व, २ एकशेष और ३ सङ्कर' प्रायः किये ही गये हैं । पहला द्वन्द्व जैसे - १ 'स्त्रियां बहुध्वप्सरसः (१1१/५२ ) - २ 'कपिलवल .. ( १।१।६९ ) - ३ 'नैर्ऋतो यातुरक्षसी (१।१।६० ) ' - 8 'गन्धर्वो दिव्यगायने ( ३ । ३ । १३३ ) ' - '५ 'स्यात्किन्नरः 'किम्पुरुषः ( 1111७१ )' इन पाँच वाक्योंले '१ अप्सरस् २ यत्र ३ रक्षस्, ४ गन्धर्व और ५ किन्न' इन पाँच शब्दों के लिङ्ग कह दिये गये हैं; अतः 'विद्याधराष्परोयक्षरक्षो गन्धर्दकनराः ( १।१।११ ) यहाँ उक्त पाँच शब्दोंका द्वन्द्व किया ही गया है । समान लिङ्गवाले शब्दोंका तो यथावसर द्वन्द्व किया ही गया है; जैसे --' यक्ष कपिलैल विलश्रीदपुण्यजनेश्वराः (१1१/६९ ) ' यहाँ 'यक्ष, एकपिङ्ग, ऐलविल, श्रीद और पुण्यजनेश्वर' ये शब्द समानलिङ्ग अर्थात् पुंल्लिङ्ग ही हैं, अतः इनका द्वन्द्व किया ही गया है । दूसरा एकशेष जैसे – 'पतिपरन्योः प्रसूः श्वश्रूः श्वशुरस्तु पिता तयोः ( २/६/३१ ) इस वाक्य से 'श्वश्रू और श्वशुर' इन दोनों शब्दोंक लिङ्ग कह दिये गये हैं; अतएवं 'श्रश्रूश्वशुरौ श्वशुरौ ( २.६।३७ ) यहाँ 'श्वश्रू और श्वशुर' इन दोनों शब्दों का 'एकशेष' क्रिया हो गया है। तीसरा लङ्कर जैसे- 'श्रुतिः स्त्री वेद आम्नायस्त्रयी - ( १।६।३ ) यहाँ पहले खालिङ्गवाले 'श्रुतिः' शब्दको कहने के उपरान्त पुंल्लिङ्गवाले 'वेद और आम्नाय' इन दो शब्दों को कह कर फिर स्त्रीलिङ्गवाले 'त्रयी' शब्दको कहा गया है । 'प्रायश:' इस शब्दको कहने से 'पयः कीलालममृतं - . (१।१०।३) ' - 'दुग्धं क्षीरं पयः समम् (२|९|५१) ' इत्यादि वाक्यों से यद्यपि 'पवल' शब्दको नपुंसकलिङ्ग कह दिया गया है; तथापि 'पयः क्षीरं पयोऽम्बु च ( ३।३।२३३ ) ' यहाँ 'अम्बुचारे तु पयसी' इस तरह
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे१ त्रिलिङ्गयां त्रिग्विति पदं मिथुने तु द्वयोरिति। २ निषिद्धलिङ्गंशेषार्थ,
३ त्वन्ताथादि न पूर्वभाक् ॥५॥ एकशेष नहीं करनेपर भी कोई दोष (प्रतिज्ञाहाान ) नहीं है। इसी तरह अन्यान्य उदाहरण भी समझने चाहिये)॥
१ तीनों लिङ्ग (पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग) हैं, यह बतलाने के लिये इस ग्रंथमें 'त्रिषु', पुंल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग दोनों लिङ्ग हैं, यह बतलानेके लिये 'द्वयोः' ये शब्द कहे गये हैं। (पहला तीनो लिङ्ग बतलाने के लिये जैसे....."मण्डलं त्रिषु ( १।३।१५) यहाँ 'त्रिषु' शब्द कहनेसे 'मण्डल' शब्दके तीनों लिङ्ग (पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग) होते हैं । दूसरा स्त्रीलिङ्ग बतलानेके लिये जैसे-....... अशनियोः (११४७)' यहाँ 'यो' शब्दके कहनेसे 'अशनि' शब्द पुंल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग होता है)
विशेषः-पुंल्लिङ्ग को बतलाने के लिये 'ना, पुमान् , पुंसि....... स्त्रीलिङ्ग को बतलाने के लिये 'स्त्री, स्त्रियाम् ....." और नपुंसकलिङ्ग को बतलाने के लिये 'पलीबम्.....' शब्द कहे गये हैं। इनके उदाहरण स्वयं समझ लेना चाहिये।
२ जहाँ जिस लिङ्गका निषेध किया गया है, उस निषिद्ध (मना किये हुए) लिङ्गके अतिरिक्त शेष (बाकी) लिङ्ग उस शब्दके होते हैं । (जैसे-'संवासरो वरसरोऽब्दो हायनोऽस्त्री.....(१४२.) यहाँ 'अस्त्री' इस शब्दसे 'संवत्सर' आदि चार शब्दोंके स्त्रीलिङ्गका निषेध करनेसे उक्त चार शब्द पुंल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग दोनों में हैं)।
३ जिस शब्दके अन्त में 'तु' या आदि में 'अथ' शब्द हों, ऐसे, '१ नाम पद, २लिङ्गपद,३ सर्वनामपद और अव्ययपद' इन चारोंका पहलेवाले (पूर्वमें रहनेवाले) शब्दों के साथमें सम्बन्ध नहीं होता है। (क्रमशः उदाहरण-पहला (नामपद) त्वन्त ('तु' अन्तवाला) जैसे-... और्वस्तु वाडवो वडवानलः (११५६) यहाँ 'और्व' शब्दके आगे (अन्तमें ) 'तु' शब्द है; अतः 'और्व' शब्दका सम्बन्ध आगेवाले 'चाडव' ही शब्द के साथ है, पूर्व (पहले ) वाले शब्द के साथ नहीं । दूसरा (लिङ्गपद) त्वन्त जैसे'अन्तर्धा व्यवधा पुंसि स्वन्तर्धिरपवारणम् (१।३।१२) यहाँ 'पुंसि' इस शब्दके
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स्वर्गवर्गः १] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१. अथ स्वर्गवर्गः, १ स्वरव्ययं स्वर्गनाकत्रिदिवत्रिदशालयाः, । अन्तमें 'तु' शब्द है; अत एव 'पुखि' इस पदका आगेवाले 'अन्तर्षि' शब्दके साथ होनेसे वही (अन्तर्धि शब्द ही) पुंल्लिङ्ग है, पूर्व (पहलेवाला) नहीं। तीसरा (सर्वनामपद) त्वन्त जैसे-'गोष्ठं गोष्ठानकं तत्तु गौष्ठीनं भूतपूर्वकम् (२।१।१३)' यहाँ 'तत्' इस सर्वनाम पद के भागे 'तु' शब्द होनेसे उसका सम्बन्ध आगेवाले 'गोष्ठीन' शब्दके साथ है, पूर्ववाले 'गोष्ठानक' शब्दके साथ नहीं। चौथा (अव्ययपद) त्वन्त जैसे-'वियद्विष्णुपद वा तु पुस्याकाशविहायसी (१२।२)यहाँ 'वा' इस अव्यय पदके अन्तमें 'तु' शब्द है, अतः 'वा' पदका सम्बन्ध 'पुंसि' के साथ होनेसे 'आकाश और विहायस्' ये ही दो शब्द विकल्पसे पुंल्लिङ्ग होते हैं, पूर्ववाला 'विष्णुपद' शब्द नहीं। इसी तरहसे पहला (नामपद ) अथादि ( 'अथ' शब्द आदिमें हो ऐसा) जैसे'मोक्षोऽपवर्गोऽथाज्ञानमविद्या......(१५७)' यहाँ 'अज्ञान' शब्दके पूर्वमें (पहले) 'अथ' शब्द रहने से वह 'अज्ञान' शब्द भागेवाले 'अविद्या' शब्दका ही पर्याय है, पूर्ववाले 'अपवर्ग' शब्दका नहीं। दूसरा (लिङ्गपद) अथादि जैसे'शस्तं चाथ त्रिषु द्रव्ये पापं पुण्यं (१।४।२६)' यहाँ 'त्रिषु' इस लिंगपदके आदिमें 'अथ' शब्द रहनेसे पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्गके अर्थ में प्रयुक्त "त्रिषु' इस शब्दका आगेवाले 'द्रव्ये' इसके साथ सम्बन्ध होनेसे 'शस्त' शब्द द्रव्य ही अर्थमें त्रिलिंग है, पूर्ववाले शब्दोंका पर्यायवाचक (कल्याणमात्र का वाचक) होनेपर त्रिलिंग नहीं है। इसी तरह तीसरे और चौथे अर्थात् सर्व. नामपद और अव्ययपदके भी अथादिका उदाहरण समझना चाहिये)।
विशेषः- यहाँ 'अथ' शब्द 'अयो' शब्दका उपलक्षण है, अतः 'अथके तुल्य 'अथो' शब्द भी जिसके भादिमें रहे, उसका सम्बन्ध भी पूर्ववाले शब्दके साथ नहीं होता है । (जैसे-.........साम सान्त्वमथो समो- 'भेदोपजापावु..........(२।८।२१)' यहाँ 'समौके आदि में 'अथो' शब्दके रहने से 'समौ' इस शब्दका सम्बन्ध आगेवाले 'भेद और उपजाप' इन्हीं शब्दों के साथ होगा, पूर्ववाले 'सारव' शब्द के साथ नहीं)। इसी तरह अन्यत्र भी अन्यान्य उदाहरणोंको स्वयं समझ लेना चाहिये ॥ . स्वः (=स्वर अ०), स्वर्गा, नाकः, त्रिदिवः, त्रिदशालयः, सुरलोकः
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अमरकोषः सुरलोको द्योदिवौ द्वे, स्त्रियां क्लीवे त्रिविष्टपम् ॥ ६ । १ अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः सुराः । सुपर्वाणः सुमनसुस्त्रिदिवेशा दिवौकसः ॥ ७ ॥ आदितेया दिविषदों, लेखा अदितिनन्दनाः । आदित्या ऋभवोऽस्वप्ना, अमर्त्या अमृतान्धसः ॥ ८ ॥ बर्हिर्मुखाः ऋतुभुजो गीर्वाणा दानवारयः । वृन्दारका देवतानि पुंसि वा देवताः स्त्रियाम् ॥ ९ ॥ आदित्य विश्ववस वस्तुषिताऽऽभास्वरानिलाः । महाराजिकाध्याच रुद्राश्व गणदेवताः ॥ १० ॥
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[ प्रथमकाण्डे
( ५ पु ), द्यौः (= द्यो), द्यौः (= दिव् । २ स्त्री), त्रिविष्टपम् (न । + त्रिपिटपम् ), 'स्वर्ग' के ९ नाम हैं ॥
१ अमरः, निर्जरः, देवः, त्रिदशः, विबुधः, सुरः, सुपर्वा (= सुपर्वन् ), सुमनाः ( = सुमनस् ), त्रिदिवेशः, दिवौकाः (= दिवौकस् । + दिवोकाः ), आदितेयः, दिविषत् (= दिविषद्), लेखः, अदितिनन्दनः, आदित्यः, ऋभुः, अस्वप्नः, , अमर्यः, अमृतान्धाः ( = अमृतान्धस् ), बर्हिर्मुखः, क्रतुभुक् ( = क्रतुभुज् ), गीर्वाणः ( + गीर्वाणः), दानवारिः, वृन्दारकः ( २४ पु), दैवतम् (पुन), देवता (स्त्री), 'देवता' के २६ नाम हैं ॥
२ आदित्याः १२, विश्वे १०, वसवः ८, तुषिताः २६ या ३६, आभास्वराः ६४, अनिलाः ४९, महाराजिकाः २२० या २३६ या ४०००, साध्याः १२, रुद्राः ११, ( ९ पु ) 'गणदेवता' देवताओंके एक-एक गण ( समूह ) के ९ नाम हैं । इन गणदेवताओंके जितने जितने भेद होते हैं, वे प्रत्येकके आगे लिख दिये गये हैं' ॥
१. 'आदित्या द्वादश प्रोक्ता विश्वेदेवा दश स्मृताः ॥ वसवश्चाष्ट संख्याताः षट्त्रिंशत्तुषिता मताः ॥ १ ॥ आमा स्वराश्चतुःषष्टिर्वाताः पञ्चाशदूनकाः ॥ महाराजिकनामानो द्वे शते विंशतिस्तथा ॥ २ ॥ साध्या द्वादश विख्याता रुद्रा एकादश स्मृताः ॥ इति ॥ एषां नामानि परिशिष्टे द्रष्टव्यानि ।
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स्वर्गवर्गः.] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ विद्याधराप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नराः, । ___ पिशाचो गुह्यकः सिद्धो, भूतोऽपी देवयोनयः ॥ ११ ॥ २ असुरा दैत्यदैतेयदनुजेन्द्रारिदानवाः ।
शुक्रशिया दितिसुताः, पूर्वदेवाः सुरद्विषः ॥ १२॥ ३ सर्वज्ञः सुगतो वुद्धो, धर्मराजस्तथागतः ।
समन्तभद्रो भगवान्मारजिल्लोकजिज्जिनः ॥ १३॥ षडभिलो दशबलोऽद्वयवादी विनायकः ।
विद्याधराः ( 'जीमूतवाहन,..' ), अप्सरसः ( स्त्री, नि० ब०, देवताओंकी स्त्रियाँ घृताची, मेनका, रम्भा,..... ), यक्षाः (कुबेर,..'), रक्षांसि (= रक्षस , न । लङ्कावासी, माया करनेवाले), गन्धर्वाः (देवताओंके यहाँ गानेवाले-'तुम्बुरु,.......'), किन्नराः (घोड़ेका मुँह तथा आदमीके शरीरवाले
और आदमीका मुँह तथा घोड़े के शरीरवाले), पिशाचाः (मांसभोजी भूत. विशेष), 'गुह्यकाः ('मणिभद्र,' . . . . .'), सिद्धाः ( 'विश्वावसु......"), भूताः (शिव के गणविशेष-प्रमथ । शे० ८ पु), 'देवयोनि' के १० नाम हैं। (इनका प्रयोग तीनों वचनों में होता है)।
२ असुरः ( + आसुरः), दैत्यः, देतेयः, दनुजः, इन्द्रारिः, दानवः, शुक्र. शिष्यः, दितिसुतः, पूर्वदेवः, सुरद्विट ( = सुरद्विष । १० पु) 'दैत्य' के १० नाम हैं।
३ सर्वज्ञः, सुगतः, बुद्धः, धर्मराजः, तथागत:, समन्तभद्रः, भगवान् (= भगवत्), "मारजित् , लोकजित् , जिनः, “षडभिज्ञः, दशबल:, अद्वयवादी
१. सिद्धगुह्यकभूता हि पिशाचा देवयोनयः' इति भागुरिः पपाठेति क्षी० स्वा० ॥ २. 'निधि रक्षन्ति ये रक्षास्ते स्युर्गुह्यकसंज्ञकाः ॥ इति । ३. 'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां मग इतोरणा ||"
इति पूर्वोक्ताः षड् मगा यस्य स 'भगवान्' इति ।। ४.मारान् कामक्रोधादीन् बौद्धसम्मतान् स्कन्धमार-क्लेशमार-मृत्युमार-देवपुत्रमारॉश्च जयतीति मारजित्।
५. 'दिव्यं चक्षुःश्रोत्रम् १. परचित्तज्ञानम् २, पूर्वनिवासानुस्मृति; ३, आत्मशानम् ४, वियद्गमनम् ५, कायव्यूहसिद्धिः ६' इति षटसु–'दानम् १, शीलम् २, क्षान्तिः ३, वीर्यम् ४, ध्यानम् ५, प्रज्ञा ६' इति षटसु वा अभिशा ज्ञानं यस्य स 'षडभिज्ञः' इति ॥ ६. 'दानं १ शीलं २ क्षमा ३ वीर्य ४ ध्यानं ५ प्रज्ञा ६ बलानि ७ च ॥
उपायः ८ प्रणिधि ९ र्शानं १० दश बुद्धिबलानि वै ॥ १॥ इति ।।
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डेमुनीन्द्रः श्रीधनः शास्ता,मुनिःशाक्यमुनिस्तु यः॥ १४ ॥ स शाक्यसिंहः सर्वार्थसिद्धः शौद्धोदनिश्च सः।
गौतमश्चार्कबन्धुश्च, मायादेवीसुतश्च सः॥ १५।। २ ब्रह्माऽऽत्मभूः सुरज्येष्ठः, परमेष्ठी पितामहः ।
हिरण्यगर्भो लोकेशः, स्वयंभूश्चतुराननः ॥ १६ ॥ धाताऽब्जयोनिहिणो, विरनिः कमलासनः ।
स्रष्टा प्रजापतिधा,विधाता विश्वसृड् विधिः ॥ १७ ।। ३ 'नाभिजन्माण्डजः पूर्वो,निधनः कमलोद्भवः (१)
सदानन्दो रजोमूतिः, सत्यको हंसवाहनः' (२) ४ विष्णुर्नारायणः कृष्णो, वैकुण्ठो विष्टरश्रवाः । दामोदरो हृषीकेशः, केशवो माधवः स्वभूः ।। १८ ।। दैत्यारिः पुण्डरीकाक्षो, गोविन्दो गरुडध्वजः।
पीताम्बरोऽच्युतः शाही, विष्वक्सेनो जनार्दनः ॥ १९ ॥ (अद्वयवादिन् ), विनायकः, मुनीन्द्रः, श्रीघनः, शास्ता ( = शास्तू), मुनिः (१८ पु) 'बुद्ध' के १८ नाम हैं।
१ शाक्यमुनिः, शाक्यसिंहः, सर्वार्थसिद्धः, शौद्धोदनिः, गौतमः, अर्कबन्धुः, मायादेवीसुतः (७ पु), 'बुद्धके अवान्तरभेद, 'सप्तम बुद्ध' के ७ नाम हैं। ___ २ ब्रह्मा (ब्रह्मन्), भास्मभूः, सुरज्येष्ठः, परमेष्ठी (=परमेष्ठिन् ), पितामहः, हिरण्यगर्भः, लोकेशः, स्वयम्भूः, चतुराननः, धाता(धातृ), अब्जयोनिः, द्रुहिणः (= द्रुषणः), विरश्चिः(+ विरिञ्चिः), कमलासनः, स्रष्टा (= स्रष्ट), प्रजापतिः, वेधाः (वेधस् ), विधाता (= विधातृ ), विश्वसृट् ( = विश्वसृज), विधि: (२० पु), 'ब्रह्मा' के २० नाम हैं । - ३ [नाभिजन्मा (नाभिजन्मन् ), अण्डजा, पूर्वः, निधनः, कमलोद्भवः, सदानन्दः, रजोमूर्तिः, सत्यकः, हंसवाहनः (९ पु), 'ब्रह्मा' के ९ नाम हैं ॥] ___विष्णुः, नारायणः ( + नरायणः ), कृष्णः, वैकुण्ठः, विष्टरश्रवाः (= विष्टरश्रवस), दामोदरः, हृषीकेशः, केशवः, माधवः, स्वभूः, दैत्यारित, पुण्डरीकाक्षः, गोविन्दः, गरुडध्वजः, पीताम्बरः, अच्युतः, शाी (शाझ्न् ि ), विष्व
१. विपश्यी शिखी विश्वभूःककुच्छन्दश्च काश्चनः काश्यपश्च, सप्तमस्तु शाक्यसिंहोऽर्कबान्धवः॥ तथा राहुलसः सवोथेसिद्धो गौतमान्वयः । मायाशुद्धोदनसुतो देवदत्तप्रजश्व सः॥
(अमि० चिन्ता० २।१४९-१५१)
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स्वर्गवर्गः 9 ]
मणिप्रभा व्याख्यासहितः ।
इन्द्रावरजश्चकपाणिश्चतुर्भुजः । मधुरिपुर्वासुदेवस्त्रिविक्रमः ॥ २० ॥
देवकीनन्दनः शौरिः, श्रीपतिः पुरुषोत्तमः । वनमाली बलिध्वंसी, कंसारातिरधोक्षजः ॥ २१ ॥ विश्वम्भरः कैटभजिद्विधुः श्रीवत्सलान्छनः । १ 'पुराणपुरुषो यज्ञपुरुषो नरकान्तकः (३) जलशायी विश्वरूपो, मुकुन्दो मुरमर्दनः' (४) २ वसुदेवोऽस्य जनकः, स एवानकदुन्दुभिः ॥ २२ ॥ ३ बलभद्रः प्रलम्बनो, बलदेवोऽच्युताग्रजः ।
उपेन्द्र पद्मनाभो
रेवतीरमणो रामः कामपालो हलायुधः ॥ २३ ॥ नीलाम्बरो रौहिणेयस्तालाङ्को मुसली इली | सङ्कर्षणः सीरपाणिः, कालिन्दीभेदनो बलः ॥ २४ ॥ ४ मदनो मन्मथों मारः, प्रद्युम्नो मीनकेतनः । कन्दर्पो दर्पकोऽनङ्गः कामः पञ्चशरः स्मरः ॥ २५ ॥
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११
क्सेनः (+ विश्वक्सेनः ), जनार्दनः, उपेन्द्रः, इन्द्रावरजः, चक्रपाणिः, चतुर्भुजः, पद्मनाभः, मधुरिपुः, वासुदेवः, त्रिविक्रमः, देवकीनन्दनः, शौरिः ( + सौरिः), श्रीपतिः, पुरुषोत्तमः, वनमाली (= वनमालिनू ), बलिध्वंसी (= बलिध्वंसिन् ), कंसारातिः, अधोक्षजः, विश्वम्भरः कैटभजित् विधुः श्रीवत्सलान्छन ( ३९ ),
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>
कृष्ण भगवान् के ३९ नाम हैं ॥
"
[ : पुराणपुरुषः, यज्ञपुरुषः, नरकान्तकः, जेलशायी ( = जलशायिन् ), विश्वरूपः, मुकुन्दः, मुरमर्दनः (७ पु ), कृष्णभगवान् के ७ नाम हैं ॥ ]
२ वसुदेवः, आनकदुन्दुभिः ( २ पु ), कृष्णके पिता' के २ नाम हैं ॥
"
३ बलभद्र, प्रलम्बघ्नः, बलदेवः, अच्युताग्रजः, रेवतीरमणः रामः, कामपाल:, हलायुधः, नीलाम्बरः, रौहिणेयः, तालाङ्कः, मुसली (= मुसलिन् । + मुषली = मुषलिन् ), हली ( =हलिन् ), सङ्कर्षणः, सीरपाणि, कालिन्दीभेदन:, बल: ( १७ पु ), 'बलदेव' के १७ नाम हैं ॥
४ मदनः, मन्मथः, मारः, प्रद्युम्नः, मीनकेतनः, कन्दर्पः, दर्पकः, अनङ्गः, कामः, पञ्चशरः, स्मरः, शम्बरारिः ( + सम्बरारि: ), मनसिज, कुसुमेषुः,
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डेशम्बरारिमनसिजा, कुसुमेषुरनन्यजः ।
पुष्पधन्वा रतिपतिर्मकरध्वज आत्मभूः ॥ २६ ॥ १ 'अरविन्दमशोकं च चूतं च नवमलिलका (५)
नीलोत्पलं च पञ्चैते, पञ्चबाणस्य सायकाः (६) २ उन्मादनस्तापनश्च, शोषणः स्तम्भनस्तथा (७)
सम्मोहनश्च कामस्य, पश्चबाणाः प्रकीर्तिताः' (6) ३ ब्रह्मसूर्विश्वकेतुः स्यादनिरुद्ध उषापतिः । ४ लक्ष्मीः पद्मालया पना,कमला श्रीहरिप्रिया ॥ २७॥ ५ 'इन्दिरा लोकमाता मा, क्षीरोदतनया रमा (९) भार्गवी लोकजननी, क्षीरसागरकन्यका' (१०)
भनन्यजः, पुष्पधन्वा (=पुष्पधन्वन्), रतिपतिः, मकरध्वजः, भारमभूः (१९ पु), 'कामदेव' 'प्रद्युम्न' श्रीकृष्णपुत्रके १९ नाम हैं ।
[अरविन्दम् , अशोकम् , चूतम, नवमल्लिका (स्त्री), नीलोत्पलम् (शे० ४ न ), ये ५ 'कामदेवके बाण' हैं ॥ ]
२ [उन्मादन, तापन, शोषण, स्तम्भन, सम्मोहन, ये क्रमसे पूर्वोक ५ 'कामदेवके बाणोके धर्म' हैं।]
३ ब्रह्मसूः, विश्वकेतुः(+ ऋश्यकेतुः, ऋष्यकेतुः, अषकेतुः), अनिरुद्धः, उषापतिः (पु), 'कामदेवके पुत्र' के ४ नाम हैं । (पहलेवाले दो नाम कामदेवके तथा अन्तवाले दो नाम अनिरुद्ध के हैं, ऐसा भी किसी का मत है)।
४ लचमी:, रमालया, पना, कमला, श्री:, हरिप्रिया (६ स्त्री), 'लक्ष्मी' के ६ नाम हैं॥
५ [इन्दिरा, लोकमाता (=लोकमातृ), मा, क्षीरोदतनया (+ क्षीराब्धि.
१. 'उन्मादनं शोचनं च तथा संमोहनं विदुः । शोषणं मारणं चैव पञ्च बाणा मनोभुवः ॥ १ ॥ मदनोन्मादनौ चैव मोहनः शोषणस्तथा। सन्दीपनः समाख्याताः पञ्च बाणा इमे स्मृताः ॥ २॥
ईदृशः क्षी० स्वा० पाठः॥
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स्वर्गवर्गः १]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ शङ्को लक्ष्मीपतेः पाञ्चजन्यश्चक्रं सुदर्शनः ।
कौमोदकी गदा खड्गो, नन्दकः कौस्तुभो मणिः ॥ २८ ॥ २ ' चापः शार्ङ्गं मुरारेस्तु, श्रीवत्सो लाञ्छनं स्मृतम् (११) अश्वाश्च शैन्य सुग्रीवमेघपुष्पबलाहकाः, (१२) सारथिर्दारुको मन्त्री, ह्युद्धवश्चानुजो गदः' (१३) ३ गरुत्मान् गरुडस्ताक्ष्यों, वैनतेयः खगेश्वरः । नागान्तको विष्णुरथः सुपर्णः पन्नगाशनः ।। २९ ।। ४ शम्भुरीशः पशुपतिः शिवः शूली मद्देश्वरः ।
ईश्वरः शर्व ईशानः, शङ्करश्चन्द्रशेखरः ॥ ३० ॥ भूतेशः खण्डपरशुर्गिरीशो गिरिशो मृडः । मृत्युञ्जयः कृत्तिवासाः पिनाकी प्रमथाधिपः ॥ ३१ ॥ उग्रः कपर्दी श्रीकण्ठः, शितिकण्ठः कपालभृत् ।
१३
तनया···), रमा, भार्गवी, लोकजननी, क्षीरसागर कन्यका (८ स्त्री), 'लक्ष्मी' के ८ नाम हैं ॥ ]
१ पाञ्चजन्य: ( पु ) - 'विष्णुका शङ्ख', सुदर्शन: ( पु न ) - 'विष्णुका चक्र', कौमोदकी ( स्त्री ) - 'विष्णुकी गदा', नन्दकः ( पु ) - 'विष्णुकी तलवार' और कौस्तुभः (पु) - 'विष्णुका मणि' है ॥
२ शार्ङ्गम् ( न ) - 'विष्णुका धनुष', श्रीवरसः (पु) - 'विष्णुका चिह्न', शैव्यः, सुग्रीवः, मेघपुष्पः, बलाहकः (४ पु), ४ 'विष्णु के घोड़े', दारुकः (g)'विष्णुका सारथी' । उद्धवः ( g ) - 'विष्णुका मन्त्री' और गदः (पु) 'विष्णुका छोटा भाई' है ॥ ]
३ गरुत्मान् (=गरुत्मत् ), गरुडः, तार्यः, वैनतेयः, खगेश्वरः, नागान्तकः, विष्णुरथः, सुपर्णः पन्नगाशन: ( ९ पु ) 'गरुड़' के ९ नाम हैं |
४ शम्भुः ईशः, पशुपतिः, शिवः, शूली ( = शूलिन् ), महेश्वरः, ईश्वरः, शर्वः ( + सर्वः ), ईशानः, शङ्करः, चन्द्रशेखरः, भूतेशः, खण्डपरशुः, गिरीशः, गिरिशः, मृडः, मृत्युञ्जयः, कृत्तिवासाः (=कृत्तिवासस् ), पिनाकी ( = पिनाकिन् ), प्रमथाधिपः, उग्रः, कपर्दी (=कपर्दिन् ), श्रीकण्ठः, शितिकण्ठः, कपालभृत्,
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे
वामदेवो महादेवो, विरूपाक्षस्त्रिलोचनः ।। ३२ ।। कृशानुरेताः सर्वलो, धूर्जटिर्नीललोहितः। हरः स्मरहरो भर्गरूयम्बकस्त्रिपुरान्तकः ॥ ३३ ॥ गङ्गाधरोऽन्धकरिपुः, क्रतुध्वंसो वृषध्वजा । व्योमकेशो भवो भीमः स्थाण रुद्र उमापतिः ।। ३४॥
'अहिर्बुध्योऽष्टमूर्तिश्च ,गजारिश्च महानटः' (१७) २ कपर्दोऽस्य जटाजूटः पिनाकोऽजगवं धनुः ।
प्रमथाः स्युः पारिषदा,३ब्राह्मीत्याद्यास्तु मातरः ।। ३५ ।। "ब्राह्मी माहेश्वरी चैव, कौमारी वैष्णवी तथा (१५) धाराही च तथेन्द्राणी, चामुण्डा सप्त मातरः' (१६)
वामदेवः, महादेवः, विरूपाक्षः, त्रिलोचनः, कृशानुरेताः (-कृशानुरेतस्), सर्वज्ञः, धूर्जटिः, नीललोहितः, हरः (+ हारः), स्मरहरः, भर्गः (+ भयः), व्यम्बका, त्रिपुरान्तकः, गङ्गाधरः, अन्धकरिपुः, क्रतुध्वंसी (=क्रतुध्वंसिन्), वृषध्वजा, व्योमकेशः, भवः, भीमः, स्थाणुः, रुद्रः, उमापत्तिः ( ४८ पु) 'शिव' के ४८ नाम हैं।
[अहिर्बुध्न्यः, अष्टमूर्तिः, गजारिः, महानटः ( ४ ), 'शिव' के ४ नाम हैं ॥]
२ कपर्दः (पु) 'शिवका जटासमूह', अजगवम् ( न । + अजवम् ), पिनाकः (पु), २ 'शिवका धनुष' और 'प्रमथा:' (पु) 'शिवक सभासद' हैं।
३ ब्राह्मी,......(स्त्री। आदि पदसे 'माहेश्वरी, कौमारी' इत्यादि आगे कहे हुए का संग्रह है) 'लोकमाताएँ हैं।
४ [ब्राह्मी (स्त्री। + ब्रह्माणी), माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी, चामुण्डा (७ स्त्रो), ये ७ 'लोकमातायें' हैं ॥]
१. 'ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री वाराही वैष्णवी तथा ।।
कौमारी चर्ममुण्डा च काली सङ्कर्षणीति च ॥१॥ इति ।। 'ब्राह्मयाद्या मातरः स्मृताः' इति क्षी० स्वा० ॥ २. 'पृथिवी १ सलिलं २ तेजो ३ वायु ४ राकाश ५ मेव च ।।
सूर्या ६ चन्द्रभसौ ७ सोमयाजी ८ चेत्यष्ट मूर्तयः ॥११॥' इति यादवः ॥
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स्वर्गवर्गः .] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ विभूतिभूतिरैश्वर्यमणिमादिकमष्टधा २ 'अणिमा महिमा चैव,गरिमा लघिमा तथा (१७)
प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्व वशित्वं चाष्ट सिद्धयः' (१८) उमा कात्यायनी गौरी, काली हैमवतीश्वरी ॥ ३६ ।। शिवा भवानी रुद्राणी, शर्वाणी सर्वमाला।
अपर्णा पार्वती दुर्गा,मृडानी चण्डिकाऽम्बिका ॥ ३७॥ ४ 'आर्या दाक्षायणी चैव,गिरिजा मेनकात्मजा (१९) ५ कर्ममोटी तु चामुण्डा, ६ चर्ममुण्डा तु चर्चिका' (२०) ७ विनायको विघ्नराजद्वैमातुरगणाधिपाः ।
अप्येकदन्तहेरम्पलम्बोदरगजाननाः , ॥३८॥ ८ कार्तिकेयो महासेनः,शरजन्मा षडाननः ।
पार्वतीनन्दनः स्कन्दः सेनानीरग्निभूर्गुहः ॥ ३९ ॥ बाहुलेयस्तारकजिद्विशास्त्रः शिस्निवाहनः ।
विभूतिः, भूतिः ( २ स्त्री), ऐश्वर्यम् (न), 'ऐश्वर्य यासिद्धि' के ३ नाम हैं । (वे आगे कहे हुए 'अणिमा' आदि भेद से ८ प्रकार के हैं)॥
२ [भणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्तिः (५ स्त्री), प्राकाम्यम्, ईशित्वम् , वशित्वम् (३ न ), ये ८ 'सिद्धियाँ हैं ॥]
३ उमा, कात्यायनी, गौरी, काली ( + काला), हैमवती, ईश्वरी ( + ईश्वरा), शिवा (+ शिवी), भवानी, रुद्राणी, शर्वाणी, सर्वमङ्गला, अपर्णा, पार्वती, दुर्गा, मृडानी, चण्डिका, अम्बिका (१७ स्त्री), 'पार्वती' के १७ नाम हैं।
४ [भार्या, दाक्षायणी,गिरिजा, मेनकात्मजा (४स्त्री) 'पार्वती'के ४नाम हैं।] ५ कर्ममोटी, चामुण्डा (२ स्त्री)'चामुण्डा' के २ नाम हैं ॥]
६[चर्ममुण्डा, चर्चिका ( + चण्डिका २ स्त्री), 'चण्डिका" के २ नाम हैं ॥]
७ विनायकः, विघ्नरानः, द्वैमातुरः, गणाधिपः, एकदन्तः, हेरम्बा, लम्बोदरा, गजाननः (८ पु), 'गणेश' के ८ नाम हैं ।
८ कार्तिकेयः, महासेनः, शरजन्मा (शरजन्मन्), षडाननः, पार्वतीनन्दनः, स्कन्दः, सेनानीः, अग्निभूः, गुहः, बाहुलेयः, तारकजित् , विशाखः, शिखिवाहनः,
१. 'चर्ममुण्डेति चण्डिका' इति क्षीरस्वामिपाठात् ।
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डेपाण्मातुरः शक्तिधरः कुमारः क्रौञ्चदारणः॥ ४०॥ "शृङ्गी भृङ्गी रिटिस्तुण्डी,नन्दिको नन्दिकेश्वर' (२१) इन्द्रो मरुत्वान्मघवा, विडोजाः पाकशासनः। वृद्धश्रवाः सुनासीरः, पुरुहूतः पुरन्दरः ।। ४१ ॥ जिष्णुले वर्षभः शक्रः शतमन्युदिवस्पतिः । सुत्रामा गोत्रभिद्वजी,वासवो वृत्रहा वृषा ॥ ४२ ॥ वास्तोष्पतिः सुरपतिर्बलारातिः शचीपतिः। जम्भभेदी हरिहयः, स्वारापनमुचिसूदनः ॥ ४३ ॥ सङक्रन्दनो दुश्च्यवनस्तुराषाण्मेघवाहनः । आखण्डलः सहस्राक्ष,ऋभुक्षा३स्तस्य तु प्रिया ॥४४॥ पुलोमजा शचीन्द्राणी,४ नगरी त्वमरावती।
पाण्मातुरः, शक्तिधरः, कुमारः, क्रौञ्चदारणः ( + क्रौञ्चदारणः । १७ पु), 'कार्तिकेय के १७ नाम हैं ॥ .
[शृङ्गी (= शृङ्गिन्), भृङ्गी (= भृङ्गिन्), रिटिः, तुण्डी (=तुण्डिन्), नन्दिकः, नन्दिकेश्वरः ( ६पु), 'नन्दी' के ६ नाम हैं ॥]
२ इन्द्रः, मरुत्वान् (=मरुस्वत्), मघवा (=मघवन् । वै० मघवान् ), बिडोजाः (= बिडोजस), पाकशासनः, वृद्धश्रवाः (= वृद्धश्रवस्), सुनासीरः (+ शुनासीरः, शुनाशीरः ), पुरुहूतः, पुरन्दरः, जिष्णुः, लेखर्षभः, शक्रः, शतमन्युः, दिवस्पतिः, सुत्रामा (= सुग्रामन् । + सूत्रामा), गोत्रभिद्, वज्री (= वज्रिन्), वासवः, वृत्रहा (वृत्रहन्), वृषा (वृषन्), वास्तोष्पतिः, सुरपतिः, बलारातिः, शचीपतिः, जग्मभेदी (=जम्भभेदिन् ), हरिहयः, स्वाराट् (= स्वाराज ), नमुचि सूदनः, सङक्रन्दना, दुश्च्यवनः, तुराबाट (तुहासा ), मेघवाहनः, आखण्डलः, सहस्राक्षः, ऋभुक्षाः (ऋभुतिन् । ३५ पु), 'इन्द्र' के ३५ नाम हैं।
२ पुलोमजा, शची ( + सची), इन्द्राणी ( ३ स्त्री), 'इन्द्राणी' के २ नाम हैं।
४ अमरावती (स्त्री), 'इन्द्रकी नगरी' उच्चैःश्रवाः (= उच्चैःश्रवस । पु),
१. 'भूङ्गी भृङ्गरिटिस्तुण्डिनन्दिनौ नन्दिकेश्वरे ॥ इति क्षी० स्वा०॥
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स्वर्गवर्गः 1
मणिप्रभा-भाषाटीकासहितः ।
इय उच्चैःश्रवाः सूतो, मातलिर्नन्दनं वनम् ॥ ४५ ॥ स्यात् प्रासादो वैजयन्तो जयन्तः पाकशासनिः । १ ऐरावतोऽभ्रमातङ्गे रावणाभ्रमुवल्लभाः ॥ ४६ ॥ २ हादिनी वज्रमस्त्री स्यात्कुलिशं भिदुरं पविः । शतकोटिः स्वरुः शम्बो, दम्भोलि रशनिर्द्वयोः ॥ ४७ ॥ ३ व्योमयानं विमानोऽस्त्री४ नारदाद्याः सुरर्षयः । ५ स्यात्सुधर्मा देवसमा ६ पीयूषममृतं सुधा ॥ ४८ ॥ ७ मन्दाकिनी वियद्गङ्गा, स्वर्णदी सुरदीर्घिका ।
८ मेरुः सुमेरुर्हेमाद्री, रत्नसानुः सुरालयः ॥ ४९ ॥
'इन्द्र का घोड़ा'; मातलिः (पु) 'इन्द्र का सारथि '; नन्दनम् (न) 'इन्द्र का उद्यान'; वैजयन्तः (पु). 'इन्द्रकी अटारी'; जयन्तः, पाकशासनिः (२ पु ) 'इन्द्र के पुत्र' के २ नाम हैं ॥
१ ऐरावतः, अभ्रमातङ्गः, ऐरावणः, अभ्रमुवल्लभः ( ४ पु ), 'ऐरावत' अर्थात् इन्द्रके हाथी के ४ नाम हैं ॥
२ ह्रादिनी (स्त्री), वज्रम् ( पु न ), कुलिशम् भिदुरम् (+ भिदिरम् । २ न ), पविः, शतकोटिः स्वरुः (= स्वरु | + स्वरुः = स्वरुस्), शम्बः (+स. उब:, शंवः ), दम्भोलि : (५ पु), अशनि: ( पु स्त्री), 'वज्र' के १० नाम हैं ॥ ३ व्योमयानम् ( न ), विमान: ( पु न ), 'पुष्पक विमान' या 'देवोके 'विमानमात्र' के २ नाम हैं ॥
४ नारदः (पु) आदि शब्द से 'तुम्बुरु, भरत, पर्वत, देवल > 'देव' हैं ॥
१७
५ सुधर्मा ( = सुधर्मा, सुधर्मन् ), देवसभा ( २ स्त्री), 'देवसभा' के २ नाम हैं ॥
६ पीयूषम् ( + पेयूषम् ), अमृतम् ( २
'अमृत' के ३ नाम हैं ॥
७ मन्दाकिनी, वियद्गङ्गा, गड़ा' के ४ नाम हैं ॥
८ मेरुः, सुमेरुः, हेमाद्रिः, पर्वत' के ५ नाम हैं ॥
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न ) सुधा (स्त्री),
स्वर्णदी, सुरदीर्घिका ( ४ स्त्री ), 'आकाश
रत्नसानुः, सुरालयः ( ५ पु ) 'सुमेरु
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे१ पञ्चैते देवतरवो, मन्दारः पारिजातकः ।
सन्तानः कल्पवृक्षश्व, पुंसि वा हरिचन्दनम् ॥५०॥ २ सनत्कुमारो वैधात्रः,३ स्वर्वैद्यावश्विनीसुतौ ।
ॐनासत्यावश्विनौ दस्रावाश्विनेयौ च तावुभौ ॥५१॥ ४ स्त्रियां बहुम्पप्सरसः स्ववेश्या उर्वशीमुखाः। ५ 'घृताची मेनका रम्भा उर्वशी च तिलोत्तमा (२२)
सुकेशी मञ्जुघोषाधाः, कथ्यन्तेऽप्सरसो बुधैः' (२३) ६ हाहा हूहूश्चैवमाद्या, गन्धर्वास्त्रिदिवौकसाम् ॥५२॥ ७ अग्निर्वैश्वानरो वह्नि:तिहोत्रो धनञ्जयः ।
कृपीटयोनिर्वलनो, जातवेदास्तनूनपात् ।। ५३॥ १ मन्दारः, पारिजातकः, सन्तानः, कल्पवृक्षः (४ पु), हरिचन्दनम् (पु न ), ये ५ 'देवताओं के वृक्ष' हैं ।
२ सनत्कुमारः ( = सनाकुमारः ), वैधात्रः ( २ पु), 'सनकादि' के २ नाम हैं । ('आदि' शब्दसे 'सनक, सनन्दन, सनातन' का संग्रह है)। __ ३ स्ववैद्यौ, अश्विनीसुतौ, नासस्यौ, अश्विनी, दस्रो, आश्विनेयो ( ६ पु. नि. द्वि० व०), 'अश्विनीकुमार' के ६ नाम हैं । ___अप्सरसः (स्त्री, नि० ब० व०), 'उर्वशो आदि स्वर्ग को वेश्याओं' का नाम है।
५ (घृताची, मेनका, रम्भा, उर्वशी, तिलोत्तमा, सुकेशी, मजुघोषा (७ स्त्री), इत्यादि उन 'अप्सराओं' के विशेष नाम हैं) ॥
६ हाहाः ( + हहा), हुहुः (२ पु), इत्यादि देवताओं के यहां गानेवाले गन्धर्व' (पु) हैं। 'आदि शब्दसे 'चित्ररथ, विश्वावसु....." का संग्रह है।
७ अग्निः, वैश्वानरः, वहिः, वीतिहोत्रा, धनञ्जयः, कृपीटयोनिः, ज्वलना, जातवेदाः (जातवेदस), तनूनपात् 'बर्हिः (=बर्हिस् , बर्हिष् । + बर्हिः - बहि)
• 'मागुरिस्वाह-'नासत्यदस्रौ यमजावकंजावश्विनौ यमौ ।' नासस्यसहितौ दसाविति व्याख्येयं न स्वेको नासस्योऽन्यो दस
विक्षो. स्वा.॥
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१६
स्वर्गवर्गः1] मणिप्रभा-भाषाटीकासहितः
बर्हिःशुष्मा कृष्णवां, शोचिष्केश उषर्बुधः । आश्रयाशो बृहद्भानुः, कृशानुः पावकोऽनलः ॥ ५४॥ रोहिताश्वो वायुसखः, शिस्त्रावानाशुशुक्षणिः । हिरण्यरेता हुतभुरदहनो हव्यवाहनः ॥ ५५ ॥ सप्ताचिर्दमुनाः शुक्रश्चित्रभानुर्विभावमुः।
शुचिरपित्त १ मौर्वस्तु, वाडवो वडवानलः ॥ ५६ ॥ २ वह्नयोालकीलावर्चिहेतिः शिखा स्त्रियाम् । ३ त्रिषु स्फुलिङ्गोऽग्निकणः ४ सन्तापः संज्वरः समौ ।। ५७ ॥ ५ 'उल्का स्यानिर्गतज्वाला,६ भूतिर्भसितभस्मनी (२४)
शुष्मा (-शुष्मन् । म० बर्हिःशुष्मा=बर्हिःशुष्मन्), कृष्णवर्मा (=कृष्णवर्मन् ), शोचिष्केशः, उपर्बुधः, आश्रयाशः (+भाशयाशः), बृहद्भानुः, कृशानुः, पावकः, अनलः, रोहिताश्वः (+ लोहिताश्वः), वायुसखः, शिखावान्( = शिखावत् ),आशु. शुक्षणिः, हिरण्यरेताः (=हिरण्यरेतस्), हुतभुक् (=हुतभुज), दहनः, हव्यवाहना, सहार्चिः (-सहार्चिष् । + सप्ताचिः + सहार्चि), दमुनाः, (दमुनस् । + दमूना: दमूनस् ),शुक्रः, चित्रभानुः, विभावसुः, शुचिः (३३ पु), अप्पित्तम् (न), 'अग्नि' के ३४ नाम हैं।
और्वः (+ ऊर्वः), वाडबा, वडवानलः (३ पु), 'वडवानल' के ३नाम हैं। २ ज्वालः, कीलः (२ पु स्त्री), भर्चिः (= अर्चिष् , भर्चिस् । + अर्चिः = अर्चि । स्त्री न), हेतिः, शिखा (२ स्त्री), 'भागकी लहर' के ५ नाम हैं।
३ स्फुलिङ्गः, अग्निकणः (१ त्रि), 'चिनगारी' के २ नाम हैं। ४ सन्तापः, संज्वरः (२ पु), 'अग्नि के ताप' के नाम हैं ।
५[ उल्का (स्त्री), 'निकली हुई ज्वाला' अर्थात् तारा टूटने या लुक्छ का नाम है ] ॥
६ [भूतिः (पु स्त्री), भसितम् , भस्म (-भस्मन् । २ न), क्षार
कालो १, करालो २, मनोजवा ३, सुलोहिता ४, सुधूम्रवर्णा ५, स्फुलिङ्गिनी ६, विश्वदासा ७ इति'करालो धूमिनी श्वेता लोहिता नीललोहिता। सुवर्णा पद्मरागा च सप्त जिहा विमावसोमा
__बाचस्पत्युक्ता इति वा सप्ताषि इत्यवधेयम् ।
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डेक्षारो रक्षा च १ दावस्तु,दवो वनहुताशनः' (२५) २ धर्मराजः पितृपतिः, समवर्ती परेतराट् ।
कृतान्तो यमुनाभ्राता, शमनो यमराड यमः ॥५८॥ कालो दण्डधरः श्राद्धदेवो वैवस्वतोऽन्तकः। राक्षसः कौणपः कन्याक्रव्यादोऽनप आशरः ॥ ५९॥ रात्रिचरो रात्रिचरः, कर्बुरो निकषात्मजः । यातुधानः पुण्यजनो, नैऋतो यातुरक्षसी ॥६०॥ प्रचेता वरुणः पाशी, यादसांपतिरप्पतिः । श्वसनः स्पर्शनो वायुर्मातरिश्वा सदागतिः ॥६१ ॥ पृषदश्वो गन्धवहो, गन्धवाहानिलाशुगाः। समीर-मारुत-मरुज्जगत्प्राण-समीरणाः, ॥६२॥ नभस्वद्वात-पवन-पवमान प्रमखनाः
।
(पु), रक्षा (स्त्री), 'राख' के ५ नाम हैं ] ॥
1 [वावः, दवः, वनहुताशनः (३ पु), 'दावाग्नि' के ३ नाम हैं ]॥
२ धर्मराजः, पितृपतिः, समवर्ती (समवर्तिन्), परेतराट् (-परेतराज ), कृतान्तः, यमुनाभ्राता (=यमुनाभ्रातृ), शमनः, यमराट् (=यमराज), यमः, कालः, दण्डधरः, श्राद्धदेवः, वैवस्वतः, अन्तकः (१४ पु), 'यमराज' के १४ नाम हैं।
३ राक्षसः, कौणपः, ऋव्यात् (=क्रव्याद), ऋव्यादः, अस्त्रपः (+ अश्रपः), आशरः ( + आशिरः), रात्रिञ्चरः, रात्रिचरः,कर्बुरः (+ कर्बरः ), निकषात्मजः, पातुधानः (+जातुधानः), पुण्यजनः, नैर्ऋतः (१३ पु), यातु, रसः (=रक्षस् । २न) 'राक्षस' के १५ नाम हैं ।
प्रचेताः (= प्रचेतस्), वरुणः ( + वरणः), पाशी (=पाशिन् ), याद. सांपतिः, अप्पतिः (५ पु), 'वरुण' के ५ नाम हैं ॥
५ श्वसनः, स्पर्शनः, वायुः, मातरिश्वा ( = मातरिश्वन् ), सदागतिः, पृषदवः, गन्धवहः, गन्धवाहः, अनिलः, आशुगः, समीरस, मारुतः, मरुत , जगत्प्राणः (म. जगत् , प्राणः),समीरणः, नभस्वान् (=भस्वत्), वातः (+वाति:), पवना, पवमानः, प्रमअनः,(२० पु) 'हवा' के २० नाम हैं ।
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स्वर्गवर्गः १] मणिप्रभा-भाषाटीकासहितः ।
१ 'प्रकम्पनो महावातो,२ झंझावातः सवृष्टिकः' (२६) ३ प्राणोऽपानः समानचोदानव्यानौ च वायवः ॥ ६३ ।। ४ 'हृदि प्राणो गुदेऽपान, समानो नाभिमण्डले (२७)
उदानः कण्ठदेशे स्यावयानः सर्वशरीरगः' (२८) शरीरस्था इमे ५ रहस्तरसी तु रथः स्यदः । जवो ६ऽथ शीघ्रं त्वरितं,लघु क्षिप्रमरं द्रुतम् ॥ ६४ ॥ सत्वरं चपलं तूर्णमविलम्बितमाशु च। सततानारताश्रान्तसन्तताविरतानिशम् . ॥६५॥ नित्यानवरसाजनमप्य ८ थातिशयो 'भरः। अतिवेलभृशात्यतिमात्रोद्गाढनिर्भरम् , ॥६६॥ तीवेकान्तनितान्तानि गाढबाढढानि च।
[प्रकम्पनः (पु), 'आँधी' का १ नाम है ॥
२ [झंझावातः (पु) 'वर्षाके सहित हवा' अर्थात् झपसी का , नाम है ] ॥
३ प्राणः, अपानः, समाना, उदानः, व्यानः (५ पु), ये ५ 'शरीरमें रहने वाले वायु' हैं।
[हृदय में 'प्राण', गुदामें 'अपान', नाभिमण्डलमें' 'समान', कण्ठदेशमें 'उदान' और सम्पूर्ण शरीर में 'व्यान' (५ पु) नामक वायु रहता है ।
५ रहः (= रंहस), तरः (=तरस्। २ न), रयः, स्यदः, जवः (१), 'वेग' के ५ नाम हैं।
६ शीघ्रम्, स्वस्तिम , लघु, क्षिप्रम, अरम द्रुतम् , सस्वरम्, चपलम् , सूर्णम् , अविलम्बितम् , आशु (११ न ), 'शीघ्र' के ५१ नाम हैं ।
७ सततम्, अनारतम्, अश्रान्तम् , सन्ततम्, अविरतम् , अनिशम्, नियम, अनवरतम् , अजस्रम् ( ९ न ) "नित्य' के ९ नाम हैं। (इनमें से 'सतत' शब्दका प्रयोग जहाँ बीच में दूसरा काम नहीं किया जाय, वहीं होता है। जैसे-यह काम सतत करता है अर्थात् निरन्तर करता है)
अतिशयः, भरः (२३), अतिवेलम्, भृशम्, अस्पर्थम्, अतिमात्रम्, उदातम्, निर्भरम, तीव्रम्, एकान्तम्, नितान्तम्, गाढम्, बातम्, तम्
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अमरकोषः
[ प्रथमकाण्डे -
१ क्लीवे शीघ्राद्यसत्त्वे स्यात्रिष्वेषां सत्वगामि यत् ॥ ६७ ॥ २ कुबेरस्यम्बकसखो, यक्षराड् गुह्यकेश्वरः । मनुष्यधर्मा धनदो राजराजो धनाधिपः ॥ ६८ ॥ किन्नरेशां वैश्रवणः, पौलस्त्यो नरवाहनः । यक्षैकपिल विलश्रीदपुण्यजनेश्वराः, ॥ ६९ ॥ ३ अस्योद्यानं चैत्ररथं पुत्रस्तु नलकूबरः । कैलासः स्थानमलका, पूर्विमानं तु पुष्पकम् ॥ ७० ॥ स्यात्किन्नरः किम्पुरुषस्तुरङ्गवदनो मयुः ।
( १२.न), 'अतिशय' अर्थात् अधिक १४ नाम हैं | शब्दका प्रयोग जहाँ किसी काम को अनेक बार किया जैसे - अतिशय करता है अर्थात् बारम्बार करता है ) |
( इनमें से 'अतिशय ' जाय, वहीं होता है ।
१ 'शीघ्रम् ' 'दृढम्' तक शब्दों का प्रयोग द्रव्यवाचक न रहने पर नपुंसकलिङ्ग में ही होता है और द्रव्यवाचक होनेपर तीनों लिङ्गों में उनका प्रयोग होता है । जैसे पहले उदा० - 'भृशं धनम्, भृशं पण्डितः, भृशं पठति, दुष्टा" इनमें 'भृशम्' शब्द केवल न० है । दूसरा उदा० - 'शीघ्रोऽश्वः,
......3
शीघ्रा लक्ष्मीः, शीघ्रं गमनम् " अतिशय:' इन दोनों शब्दोंका प्रयोग विशेष्याधीन नहीं होते) ॥
.3
इनमें 'शीघ्रम्' शब्द त्रि० है । 'भरः, केवल पु० में ही होता है, अर्थात् ये
२ कुबेरः, त्र्यम्बकसखः, यक्षराट् ( = यक्षराज् ), गुह्य केश्वरः, मनुष्यधर्मा ( = मनुष्यधर्मन्), धनदः, राजराजः, धनाधिपः, किनरेशः, वैश्रवणः, पौलस्स्यः, नरवाहनः, यक्षः, एक पिङ्गः, ऐलविलः ( + ऐडविल:, ऐडविडः) श्रीदः, पुण्यजनेश्वरः ( १७ पु ) 'कुबेर' के १७ नाम हैं ॥
३ चैत्ररथम् ( न ) 'कुबेरका उद्यान', नलकूबरः (पु) 'कुबेरका पुत्र', कैलासः (पु) 'कुबेरका निवासस्थान', अलका (स्त्री) 'कुबेर की नगरी', पुष्पकम् (न) 'कुबेर का विमान' है ॥
४ किरः, किम्पुरुषः, तुरङ्गवदनः मयुः ( ४ ), 'किन्नर' अर्थात् 'कुबेर के दूत' के ४ नाम हैं ॥
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बोमवर्ग:.] मणिप्रभा-भाषाटीकासहितः।।
१ निधिर्ना शेवधिभेदाः २ पद्मशङ्खादयो निधेः ॥ ७१ ।। ३ 'महापनश्च पश्च, गड्डो मकरकच्छपौ (२९) मुकुन्दकुन्दनीलाच,खर्वश्च निधयो नव' (३०)
इति स्वर्गवर्गः ॥१॥
२. अथ व्योमवर्गः॥ ५ धादिवौ द्वे स्त्रियामनं,व्योम पुस्करमम्बरम् ।
नभोऽन्तरिक्षं गगनमनन्तं सुरवर्त्म खम् ॥ १॥ विद्विष्णुपदं वा तु पुंस्याकाशविहायसी । ५ विहायसोऽपि नाकोऽपि, धुपि स्यात्तदव्ययम् (३१)
निधिः, शेवधिः (२ पु), 'निधिसामान्य' अर्थात् खजानामात्र के नाम हैं ॥
२ पद्मः, शङ्खः (२ पु)......"खजानेके भेद' हैं ॥ ___३ [ महापद्मः, पद्मः, शङ्खः, मकरः, कच्छपः, मुकुन्दः, कुन्दः, नीला, खर्वः (९पु), ये ९ 'निधिविशेष' हैं ] ॥
इति स्वर्गवः ॥ १॥
२. अथ व्योमवर्गः ॥ ४ चौः ( घो), चौः (=दिव् । २ स्त्री); अभ्रम , व्योम ( = व्योमन् ), पुष्करम, अम्वरम्, नमः (=नभस्), अन्तरिक्षम, गगनम्, अनन्तम्, सुरवस्म (=सुरवर्मन् ), खम, वियत्, विष्णुपदम् (१४ न), आकाशम्, विहायः (=विहायस् । २ पुन); 'आकाश' के १६ नाम हैं ।
५ [विहायसः, नाकः,धुः (म.), तारापथः, अन्तरिक्षम् (न), मेघावा • अयं श्लोकः श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिताभिधानचिन्तामणौ ( २११०७) नाममालायां समुपलभ्यते ॥ 'पोऽस्त्रियां महापद्मः शंखो मकरकच्छपौ । मुकुन्दकुन्दनीलाच खर्वश्च निधयो नव' ॥१॥
इत्ययं व्याख्यामुषायाः पाठः॥
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२४
अमरकोषः
[प्रथमकाण्डेतारापथोऽन्तरिक्षं च मेघावा च महाबिलम् (३२) विहायाः शकुने पुंलि, गगने पुनपुंसकम् (३३)
इति व्योमवर्गः ॥२॥
३. अथ दिग्वर्गः ॥ विशस्तु ककुभः काष्ठा, आशाश्व हरितश्च ताः। २ प्राच्यवाचीप्रतीच्यस्ताः, पूर्वदक्षिणपश्चिमाः ॥१॥
उत्तरा दिगुदीची स्याद्,३ दिश्यं तु त्रिषु दिग्भवे । ४ 'अवाग्भवमवाचीनमुदीचीनमुदग्भवम् (३४)
प्रत्यम्भवं प्रतीचीनं,प्राचीनं प्राग्भवं त्रिषु' (३५) ५ इन्द्रो वह्निः पितृपतिनैर्ऋतो वरुणो मरुत् ।। २ ।। (=मेघावन् । शे० ४ पु), महाबिलम (न), विहायः (=विहायस् , पुन । किन्तु पक्षिवाचक होनेपर यह 'विहायस' शब्द केवल पुंल्लिग ही है) 'आकाश' के ८ नाम हैं। इति व्योमवर्गः ॥२॥
३. अथ दिग्वर्गः॥ दिक (=दिश ), ककुप (ककुभ ), काष्ठा, आशा, हरित् (५ सो), 'विशाओं' के ५ नाम हैं ।
२ प्राची, भवानी ( + अपाची), प्रतीची, उदीची ( ४ स्त्री), 'पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा' के क्रमशः 1-1 नाम हैं ॥
३ दिश्यम् (त्रि), 'दिशामें होने वाले पदार्थ' का १ नाम है । (जैसेविश्यो गजः, दिश्या करिणी, दिश्यं वस्त्रम्...........)॥
[भवाचीनम, उदीचीनम्, प्रतीचीनम् प्राचीनम् (४ त्रि), 'दक्षिण, उत्तर, पश्चिम और पूर्व दिशामें होनेवाले पदार्थ' के क्रमशः 11 नाम हैं] ॥
५इन्द्रा, वहिः, पितृपतिः, नैऋतः, वरुणा, मरुत्, कुबेरः, ईशः (पु), 'पूर्व दिशा, अग्नि कोण, दक्षिण दिशा, नैर्ऋत कोण, पश्चिम दिशा, वायव्य कोण, उत्तर दिशा और ईशान कोण के क्रमशः - स्वामी
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दिग्वर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
कुबेर ईशः पतयः, पूर्वादीनां दिशा क्रमात् । १ 'रविः शुको महीसूनुः, स्वर्मानुर्भानुजो विधुः (३६)
बुधो बृहस्पतिश्चेति,दिशां दैव तथा ग्रहाः' (३७) २ 'ऐरावतः पुण्डरीको, वामनः कुमुदोऽञ्जनः ॥ ३॥
पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्च दिग्गजाः। ३ करिण्योऽभ्रमुकपिलापिङ्गलानुपमाः क्रमात् ॥ ४॥
ताम्रकर्णी शुभ्रदन्ती चालना चाञ्जनावती।
हैं। (अर्थात् पूर्व दिशाके स्वामी इन्द्र, अग्निकोण के स्वामी अग्नि, दक्षिण दिशा के स्वामी यमराज,.......... ... ... ) ॥
१ रविः, शुक्रः, महीसूनुः ( मंगलः ), स्वर्भानुः (राहुः), भानुजः (शनिः) विधुः (चन्द्रः), बुधः, बृहस्पतिः ( ८ पु ) 'पूर्व दिशा, अग्नि कोण, आदि
आठ दिशाओं' के क्रमशः १-१ ग्रह हैं। (जैसे-पूर्व दिशाका ग्रह 'सूर्य', अग्निकोणका 'शुक्र', दक्षिण दिशाका 'मङ्गल'.........] ॥
२ ऐरावतः, पुण्डरीकः, मनः, कुमुदः, अञ्जनः पुष्पदन्तः, सार्वभौमा, सुप्रतीकः (८ पु), 'पूर्वदिशा, अग्नि कोण, दक्षिण दिशा, नैर्ऋतकोण, पश्चिम दिशा वायव्यकोण, उत्तर दिशा और ईशान कोण' के क्रमशः १-१ दिग्गज हैं । (अर्थात् पूर्व दिशाका दिग्गज ऐरावत', अग्नि कोणका दिग्गज 'पुण्डरीक', नैर्ऋत्य कोणका दिग्गज 'वामन...' ) ॥
३ अभ्रमुः, कपिला, पिङ्गला, अनुपमा, ताम्रकी, शुभ्रदन्ती (+ शुभदन्ती), अङ्गाना ( + अञ्जना), अञ्जनावती ( ८ स्त्री), 'पूर्व दिशा, अग्नि कोण, दक्षिण कोण आदि आठ दिशामओकी हथिनी' और 'ऐरावत, पुण्डरीक, वामन आदि आट दिग्गजोंकी स्त्रियों के क्रमशः १-१ नाम हैं। (अर्थात् 'पूर्व दिशाकी हथिनी 'अभ्रमु' अग्नि कोग की हथिनी 'कपिला', दक्षिण दिशाकी
१. 'ऐरावतः पुण्डरीकः कुमुदाऽअनवामनाः' इति भागुरिः क्रमं व्यत्यस्तवान् । माछापि'ऐरावतः सुप्रतीकः इति' इति क्षी० स्वा० ॥
२. 'करिण्यो"नावती' अयमंशः क्षी० स्वा० मूलपुस्तके नास्ति, किन्तु टोकायामुपलभ्यते। ध्या० मु०, अम० वि० पुस्तके मूल एवास्ति । 'वामना चाजनावती' इति क्षी. स्वा० पाठः ॥
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे१ क्लीवाव्ययं त्वदिशं,दिशोमध्ये विदिक्रियाम् ॥५॥ २ अभ्यन्तरं त्वन्तरालं,३ चक्रवालं तु मण्डलम् । ४ अभं मेघो वारिवाहः, स्तनयित्नुर्बलाहकः ॥ ६ ॥
धाराधरो जलधरस्तडित्वान् वारिदोऽम्बुभृत् । घनजीमूतमुदिरजलमुग्धूमयोनयः ॥ ७॥
कादम्बिनी मेघमाला,६ त्रिषु मेघभवेऽम्रियम् । ७ स्तनितं गर्जितं मेघनि?षे रसितादि च ॥ ८॥ ८ शम्पाशतहदाहादिन्यैरावत्यः क्षणप्रभा,।
तडित्सोदामनी विद्युच्चञ्चला चपला अपि ॥ ९॥
हथिनी 'पिङ्गला........। इसी तरह ऐरावतकी स्त्री 'अभ्रमु', पुण्डरीककी की 'कपिला', वामन की स्त्री "पिंगला'............' ॥
1 अपदिशम् (न, अ), विदिक ( = विदिश स्त्री ।+ प्रदिक = प्रदिश ), 'दिशाओके मध्यभाग' अर्थात् 'कोण' के २ नाम हैं।
२ अभ्यन्तरालम्, अन्तरालम् (२न) 'बीच'अर्थात् मध्यमभागके २ नाम हैं। ३ चक्रवालम् , मण्डलम् (२ न), 'घेरा,गोलाई' के २ नाम हैं ।
४ अभ्रम् (न), मेघः, वारिवाहः, स्तनयित्नुः, बलाहकः, धाराधरः, जल. घर: (+पयोधरः), तडिस्वान् ( = तडित्वत), वारिदः, अम्बुभृत् , घनः, जीमूतः, मुदिरः, जलमुक् ( = जलमुच। + पयोमुक् = पयोमुच्), धूमयोनिः (१४ पु) 'बादल' के १५ नाम हैं ॥
५ कादम्बिनी, मेघमाला (२ स्त्री), 'मेघ-समूह' के २ नाम हैं ।
६ भभ्रियम् (त्रि), 'मेघमें होनेवाले पदार्थ का । नाम है ॥ (जैसेअप्रियो धारापातः, अभ्रियं जलम , अभ्रिया भापः," ...... )।
७ स्तनितम्, गर्जितम्, रसितम्,............. ( ३ न । 'आदि शब्दसे ध्वनितम्,.......... ) 'मेघके गर्जन या तड़पने के ३ नाम हैं ।
८ शम्पा (+ शम्बा), शतहदा, हादिनी, ऐरावती, क्षणप्रभा, तडित् , सौदामनी ( + सौदामिनी), विद्युत् , चञ्चला, चपला (१० स्त्री)"बिजली' के नाम हैं।
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दिग्वर्गः ३] मणिप्रभा-भाषाटीकासहितः।
१ स्फूर्जथुर्वजनि?षणे, २ मेघज्योतिरिरम्मदः । ३ इन्द्रायुधं शक्रधनुस्तदेव ऋजुरोहितम् ॥ १० ॥ ४ वृष्टिर्ष ५ तद्विधातेऽवग्राहावग्रही समौ । ६ धारासम्पात आसारः ७ सीकरोऽम्बुकणाः स्मृताः ॥११॥ ८ वर्षोपलस्तु करका ९ मेघच्छन्नेऽह्नि दिनम् । १० अन्तर्धा व्यवधा पुंसि, स्वन्तधिरपवारणम् ॥ १२॥
। स्फूर्जथुः, वननिर्घोषः ( + वज्रनिष्पेषः । २ पु ), 'बिजली गिरने के समयकी आवाज' के २ नाम हैं।
२ मेघज्योतिः ( = मेघज्योति, मेघज्योतिः = मेघज्योतिष ), इरंमदः (२ पु०), 'बादलके प्रकाश के २ नाम हैं। (यह प्रकाशप्रायः प्रातःकाल या सायंकाल बादल के लाल-पीला होने से होता है)
३ इन्द्रायुधम्, शक्रधनुः ( = शक्रधनुष), ऋजुरोहितम् (३ न) 'इन्द्र धनष' के नाम हैं।(म. पहलेवाले दो शब्द पहले अर्थ और 'रोहितम्' यह एक शब्द 'सीधा इन्द्रधनुष' इस भर्थ में है)।
४ वृष्टिः (स्त्री), वर्षम् (न) 'वर्षा' के २ नाम हैं ॥ ५ अवग्रहः, अवमाहः (२ पु), 'वर्षाके न होने' अर्थात् 'सूखा पड़ने'
६ धारासम्पातः, भासारः (२ पु), 'लगातार जोरसे वर्षा होने' के १ नाम हैं।
७ सीकरः (पु। + शीकरः) 'पानीके कण' अर्थात 'पानी की छोटीछोटी बृदो' का नाम है ॥
८ वर्षोपल: (पु), करका (पुस्खी), 'बनौरी, भोला' के २ नाम हैं। (जो पानी बादलसे भी ऊँचे स्थान में जाकर बर्फ के समान कड़ा और सफेद होकर पानी के साथ गिरता है, जिसे पत्थर पड़ना कहते हैं ।)
९ दुर्दिनम् (न), 'जब आकाशमें लगातार बादल घिरे रहें, ऐसे समय का एक नाम है ॥
.. अन्तर्धा, व्यवधा (२ सी), अन्तधिः (पु), अपवारणम्, अपिधा
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डेअपिधानतिरोधानपिधानाच्छादनानि च । हिमांशुश्चन्द्रमाश्चन्द्र. इन्दुः कुमुदबान्धवः ॥ १३ ॥ विधुः सुधांशुः शुभ्रांशुरोषधीशो निशापतिः । अन्जो जैवातृकः सोमो, ग्लोर्मुगाङ्कः कलानिधिः ॥ १४ ॥ द्विजराजः शशधरो, नक्षत्रेशः क्षपाकरः । २ कला तु षोडशो भागो, ३ बिम्बोऽस्त्री मण्डलं त्रिषु ॥ १५ ॥ ४ भित्तं शकलस्त्रण्डे वा, पुंस्योऽध समेंऽशके । ५ चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्सना,६ प्रसादस्तु प्रसन्नता ।। १६ ।।
७ कलङ्काको लाञ्छनं च चिह्न लक्ष्म च लक्षणम् । नम्, तिरोधानम्, पिधानम्, आच्छादनम् (५ न), 'ढाँकने' अर्थात् 'कपड़े आदिसे छिपाने के ८ नाम हैं।
१ हिमांशुः, चन्द्रमाः (= चन्द्रमस), चन्द्रः, इन्दुः कुमुदबान्धवः, विधुः, सुधांशुः, शुभ्रांशुः,ओषधीशः, निशापतिः, अजः, जैवातृकः, सोमः (-सोमा, =सोमन् ), ग्लौः,मृगाङ्कः ( + शशाङ्कः), कलानिधिः, द्विजराजः, शशधरः, नक्षत्रेशः, क्षपाकरः ( + निशाकरः । २० पु०), 'चन्द्रमा' के २० नाम हैं ।
२ कला (स्त्री) 'पूर्ण चन्द्रमाके सोलहवें हिस्से का , नाम है। (चन्द्रमाकी सोलह कलायें हैं, अतः सोलहवें भागको एक कला कहते हैं)॥ ____३ बिम्बः (पुन ), मण्डलम् (त्रि), 'सूर्य या चन्द्रमाके बिम्ब' के २ नाम हैं ।
४ भित्तम (न), शकलम, खण्डम् (२ पु न), अर्धः (पु) 'स्त्रण्ड, टुकड़ा' के ४ नाम हैं; किन्तु 'बराबर का हिस्सा' इस अर्थ में 'अर्ध' शब्द निस्य नपुंसक है ॥
५ चन्द्रिका, कौमुदी, ज्योत्स्ना (३ स्वी), 'चाँदनी' के ३ नाम हैं ॥ ६ प्रसादः (पु), प्रसन्नता (स्त्री), 'प्रसन्नता' के २ नाम हैं । ७ कलङ्कः, अङ्कः (२ पु), लान्छनम्, चिहम, लक्ष्म (लक्ष्मन्), • 'अमृता मानदा पूषा पुष्टिस्तुष्टी रतिधृतिः।
शशिनी चन्द्रिका कान्तिज्योत्स्ना श्रीः प्रीतिरगदा ॥१॥
पूषणा चाथ पूर्णा स्युः कलाश्चन्द्रस्ट डिश।' इति ॥
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दिग्वर्ग:३] मणिप्रभाध्याख्यासहितः।
१ सुषमा परमा शोभा,२ शोभा कान्तिधुतिश्छविः ॥ १७ ॥ ३ अवश्यायस्तु नीहारस्तुषारस्तुहिनं हिमम् ।
प्रालेयं मिहिका चाथ ४ हिमानी हिमसंहतिः ॥ १८ ॥ ५ शीतं गुणे ६ तद्वदर्थाः, सुषीमः शिशिरो जडः ।
तुषारः शीतलः शीतो, हमः सप्तान्यलिङ्गकाः॥ १९ ॥ ७ ध्रव औत्तानपादिः स्यागस्त्यः कुम्भसम्भवः ।
मैत्रावणिर ९ स्यैव, लोपामुद्रा सधर्मिणी ॥ २०॥ ~~~~~~~~~~~~~ ~~....~~~~~~~ लक्षणम् (+ लचमणम् ४ न) चिह्न' अर्थात् निशान के ६ नाम हैं।
१ सुषमा (स्त्री), 'अधिक शोभा' का । नाम है ॥ ___ २ शोभा (म० अभिख्या), कान्तिः, थुतिः, छविः ( ४ स्त्री) 'शोभा' के ४ नाम हैं।
३ अवश्यायः, नीहारः, तुषारः (३ पु), तुहिनम्, हिमम्, प्रालयमा (३ न), मिहिका (स्त्री। + महिका), 'पाला पड़ने' अर्थात् 'भोस, हिमर के ७ नाम हैं ।
४ हिमानी, हिमसंहतिः ( २ को) 'बहुत पाला पड़ने के २ नाम हैं।
५ शीतम् (न) 'यह शब्द 'गुणवाचक' है, अर्थात् शीतलता के अर्थमें नपुंसकलिंग में ही प्रयुक्त होता है।
६ सुषीमः (+ सुषिमः, सुशीमः), शिशिरः, जहः, तुषारः, शीतलः, शीतः, हिमा (७ त्रि), 'ठण्ढा गुणवाले द्रन्य' अर्थात् 'ठण्ढी हवा पानी' इत्यादिके ७ नाम हैं। 'तुषार, हिम, शीत इन तीन शब्दोंके निरूढ लक्षणासे द्रव्यादि अर्थात् हवा, पानी इत्यादि भी अर्थ हैं, अतः इन शब्दोंको दोनों जगह (गुण और गुणीके पर्याय में) कहा गया है'। __ ७ ध्रुवः, औत्तानपादिः (२) 'उत्तानपाद' के पुत्र अर्थात् 'मनुके पौत्र ध्रुव' के २ नाम हैं।
८ अगस्त्यः ( + अगस्तिः), कुम्भसम्भवः ( + कुम्भजः ), मैत्रावरुणिः (+मैत्रावरुणः । ३ पु), 'अगस्त्य मुनि' के ३ नाम हैं ॥
९ लोपामुद्रा (स्त्री), 'अगस्त्य मुनिकी स्त्री' का । नाम है ।
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे१ नक्षत्रमृतं भं तारा, तारकाऽप्युड वा स्त्रियाम् । २ दाक्षायण्योऽश्विनीत्यादितारा ३ अश्वयुगश्विनी ॥ २१ ।। ४ राधा विशाखा ५ पुण्ये तु,सिध्यतिभ्यो ६ श्रविष्ठया।
समा धनिष्ठा ४ स्युः प्रोष्ठपदा भाद्रपदाः स्त्रियः॥२२॥ ८ मृगशीर्षे मृगशिरस्तस्मिन्नेवाग्रहायणी ।
1 नक्षत्रम्, ऋक्षम्, भम् (३ न), तारा, तारका (२ स्त्री), उदुः (स्त्री न), 'नक्षत्र' के ६ नाम हैं।
२ दाक्षायण्यः (स्त्री नि० ब. २०) अश्विनी, भरणी...... सत्ताइस नक्षत्रों का नाम है ॥
३ अश्वयुक् ( = अश्वयुज), अश्विनी (२ स्त्री), 'मश्विनी' के २ नाम हैं। ४ राधा, विशाखा (२ स्त्री) 'विशाखा नक्षत्र के २ नाम हैं । ५ पुष्यः, सिध्यः, तिष्य; (३ पु), "पुष्य नक्षत्र के ३ नाम हैं । ६ श्रविष्ठा, धनिष्ठा (२ स्त्री), 'धनिष्ठा नक्षत्र' के २ नाम हैं।
७ प्रोष्ठपदाः (+प्रौष्ठपदाः), भाद्रपदाः (२ पु स्त्री, नि० ब०व०), पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र' के दो नाम हैं। ८ मृगशीर्षम्, मृगशिरः (= मृगशिरस । २ न), आग्रहायणी (बी),
१. अश्विनी भरणी चैव कृत्तिका रोहिणी' मृगः । आर्दा-पुनर्वसू पुष्य आश्लेषा च ततो मषा ॥१॥ पूर्वाफल्गुनिका ज्ञेया तत उत्तर फल्गुनी। हस्तश्चित्रा ततः स्वाती विशाखा मैत्रमं ततः ॥ २॥ ज्येष्ठा मूलं ततः पूर्वोत्तराषाढेऽमिजित्ततः । श्रवणश्च धनिष्ठा च ततश्च शततारकाः ॥३॥ पूर्वोत्तराभाद्रपदे रेवती तदनन्तरम् ।। अष्टाविंशतिराख्यातास्तारका
मुनिसत्तमैः ॥ ४॥ इति । अत्रामिजिन्मानमाह
'अभिजिद्भोगमिदं वै वैश्वदेवान्यपादमखिलं च तत् ।।
आयाश्चतस्रो नाड्योऽथ हरिमस्यैतस्य रोहिणोविद्धम् ॥ १॥ इति । अश्विन्यादिवनामिजितः स्वतन्त्रमानमतः सप्तविंशतिरेव नक्षत्राणि मुख्यानोस्यतस्तदेतो. क्तमित्यवधेयम् ।
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दिग्वर्गः ३] मणिप्रभाध्याख्यासहितः।
१ इल्वलास्तच्छिरोदेशे,तारका निवसन्ति याः ॥ २३ ॥ २ वृहस्पतिः सुराचार्यो,गीपतिर्धिषणो गुरुः ।
जीव आङ्गिरसो वाचस्पतिश्चित्रशिखण्डिजः॥ २४॥ ३ शुक्रो दैत्यगुरुः काव्य, उशना भार्गवः कविः । ५ अङ्गारकः कुजो भीमो,लोहितालो महीसुतः ॥२५॥ ५ रोहिणेयो बुधः सौम्यः,६ समौ सौरिशनैश्चरौ। ७ तमस्तु राहुः स्वर्भानुः,सैंहिकेयो विधुन्तुदः ॥२६॥
८ सप्तर्षयो मरीच्यत्रिमुखाचित्रशिखण्डिनः। 'मृगशिरा नक्षत्र' के ३ नाम हैं।
इल्वलाः (स्त्री, नि.ब. २० । 'इश्वकाः' क्षी० स्वा०), 'मृगशिरा नक्षत्रके शिरोभागमें उदय होनेवाली पाँच ताराओं' का नाम है ॥ ___ २ बृहस्पतिः ( + बृहतां पतिः), सुराचार्यः गोष्पतिः (वै० गीतिः), विषणः गुरु, जीवा, आङ्गिरसः,वाचस्पतिः (+ वाक्पतिः, वाचा पतिः),चित्रशिखण्डिजः (९ पु), 'बृहस्पति' के ९ नाम हैं)। (ये देवताओंके गुरु हैं)। ___ ३ शुकः, दैत्यगुरुः, काव्यः, उशनाः (=उशनस् ), भार्गवः, कविः (६ पु), "शुकाचार्य' के ६ नाम हैं ( ये दैत्योंके गुरु हैं)॥
४ अङ्गारकः, कुजः, भौमः, लोहिताङ्गः, महीसुतः (५ पु । इसी तरह 'धरणीसुतः, भूमिसुतः......"), 'मङ्गलग्रह' के ५ नाम हैं ।
५ रौहिणेयः, बुधः, सौम्यः (३ पु), 'बुध' के ३ नाम हैं ।
६ सौरिः ( + शौरिः, सूरः), शनैश्चरः (+शनिः, पङ्गु, मन्दः । २ पु), 'शनि' के दो नाम हैं ।
७ तमः ( + तमस् , न + तमः = तम, पु), राहुः, स्वर्भानुः, सैहिकेयः, विधुन्तुदः (४ पु), 'राहु' के ५ नाम हैं।
८ चित्रशिखण्डिनः (= चित्रशिखण्डिन्, पु, नि० ब० व०), 'सप्तर्षियों' का एक नाम है। (उनके मरीचि 1, अङ्गिरा २, अत्रि ३, पुलस्स्य ४, पुलह ५, ऋतु और वसिष्ठ ७ ये नाम हैं, इन्हींको "चित्रशिखण्डी' कहते हैं)॥
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१. मरीचिरगिरा भत्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।।
वसिष्ठश्चेति सप्तैते शेयाश्चिशिखण्डिनः ॥ १॥ इति ॥
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे
१ राशीनामुदयो लग्नं,ते तु मेषवृषादयः ॥२७॥ २ सूरसूर्यमादित्यद्वादशात्मदिवाकराः।
भास्कराहस्करबध्नप्रभाकरविभाकराः ॥ २८॥ भास्वद्विवस्वत्सप्ताश्वहरिदश्वोष्णरश्मयः ।, विकर्तनार्कमार्तण्डमिहिरारुणपूषणः ॥ २९ ।। धमणिस्तरणिमित्रभित्रभानुर्विरोचनः । विभावसुर्ग्रहपतिस्विषाम्पतिरहर्पतिः ॥३०॥
भानुहसः सहस्रांशुस्तपनः सविता रविः । ३ 'पद्माक्षस्तेजसाराशिश्छायानाथस्तमिस्रहा (३८)
कर्मसाक्षी जगच्चक्षुर्लोकबन्धुत्रयीतनुः (३९) प्रद्योतनो दिनमणिः खद्योतो लोकबान्धवः (४०)
१ लग्नम् (न), 'राशि' का १ नाम है। 'मेष १, वृष २, मिथुन ३, कर्क ४, सिंह ५, कन्या ६, तुला ७, वृश्चिक ८, धनुः ९, मकर १०, कुम्भ ११, और १२ मीन' ये 'बारह राशियाँ होती हैं।
२ सूरः, सूर्यः, अर्यमा ( = अर्यमन् ), आदित्यः, द्वादशात्मा (= द्वादशास्मन्), दिवाकरः, भास्करः, अहस्करः, अध्नः, प्रभाकरः, विभाकरः, भास्वान् ( = भास्वत् ), विवस्वान् ( = विवस्वत् ), सप्ताश्वः हरिदश्वः, उष्णरश्मिः, विकर्तनः, अर्कः, मार्तण्डः (= मार्ताण्डः), मिहिरः (= मिहः,महिरः) अरुणः, पूषा ( = पूषन् ), धुमणिः ( = अम्बरमणिः, गगनमणिः,.. ), तरणिः, मित्रः, चित्रभानुः, विरोचनः, विभावसुः, ग्रहपतिः, विषाम्पतिः, महर्पतिः (वै०. महापतिः, मह पतिः), भानुः, हंसः, सहस्रांशुः (= चण्डांशुः), तपनः (= तापनः), सविता (= सवितृ, ), रविः ( ३७ पु ) 'सूर्य' के ३७ नाम हैं ।
[पद्माक्षः, तेजसाराशिः, छायानाथः, तमिस्रहा (तमिनहन् ), कर्मसाक्षी (= कर्मसाक्षिन् ), जगच्चतुः (=जगच्चचुष्), लोकबन्धुः, त्रयीतनुः, प्रद्योतना, दिनमणिः, खद्योतः, लोकबान्धवः, इनः, भगः, धामनिधिः, अंशुमाली १. 'मेषो वृषोऽथ मिथुनं कर्कटः सिंहकन्यके ॥ तुला च वृश्चिको धन्वी मकरः कुम्ममीनको ॥ १॥ इति ॥
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दिग्दर्गः ३] मणिप्रमाव्याख्यासहितः।
इनो भगो धामनिधिश्चांशुमाल्यब्जिनीपतिः' (४१) १ माठरः पिङ्गलो दण्डवण्डांशोः पारिपाश्विकाः ॥ ३१ ॥ २ सुरसूतोऽरुणोऽनूरुः, काश्यपिर्गरुडाग्रजः। ३ परिवेषस्तु परिधिरूपसूर्यकमण्डले ॥३२॥ ४ किरणोनमयूखांशुगभस्तिघृणिवृष्णयः ।
भानुः करो मरीचिः स्त्रीपुंसयोर्दीधितिः स्त्रियाम् ।। ३३ ।। ५ स्युः प्रभारुचिस्त्विड्भामाश्छविद्युतिदीप्तयः ।
( = अंशुमालिन् , अब्जिनीपतिः ( + पद्मिनीपतिः १७ पु), 'सूर्य' के १७ नाम हैं ]॥
माठरः, पिङ्गलः, दण्डः (३ पु), 'सूर्य के पार्श्ववर्तियों अर्थात् 'सूर्यके पासमें रहनेवालो' के ३ नाम हैं ।
२ सूरसूतः, अरुणः, अनूरुः, काश्यपिः, गरुडाग्रजा (५३), 'सूर्यके सारथि' के ५ नाम हैं।
३ परिवेषः ( + परिवेशः), परिधिः ( २ पु), उपसूर्यकम् , मण्डलम् (२ न), 'मण्डल' के ४ नाम हैं ('सूर्य और चन्द्रमाके चारों तरफ दिखलाई पड़ने वाले तेजोविशेषको 'मण्डल' कहते हैं')॥
४ किरणः, उसः, मयूखः, अंशुः, गभस्तिः, घृणिः ( + वृष्णिः ), पृष्णिः (+ वृष्णिः, पृश्निः, रश्मिः ), भानुः, कर: (९ पु), मरीचिः (पु स्त्री), दीधितिः (बी), 'किरण' के नाम हैं।
५ प्रभा, रुक ( = रुच् ), रुचिः, स्विट् ( = स्विष ), भा, भाः (=भास), • ....."घृणिवृष्णयः' ..."घृणिपृश्नयः, ....."घृणिरश्मयः' इति पाठान्तराणि । + 'इन्द्रादयो अष्टादश नामान्तरेणार्कपरिचारकाः, यत्सौर(तन्त्र)म्
'तत्र शको वामपावें दण्डाख्यो दण्डनायकः ।। वह्निस्तु दक्षिणे पावें पिङ्गो बामनश्च सः॥१॥
यमोऽपि दक्षिणे पाय पदेन्माठरसंशया' ॥ इति । एवमन्ये यावायाः गुहारराहुखरादयः । तेषु प्राधान्यात्त्रय एवोकसी .सा.॥ कचित बामन इत्वस्व स्थाने भामबलियामापाला. नेपालमा पति च पाठान्तरम् ।।
३५०
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डेरोचिः शोचिरुमे क्लोवे, १ प्रकाशो द्योत आतपः ॥ ३४ ॥ २ कोष्णं कोणं मन्दोणं, कदुष्णं त्रिषु तद्वति । ३ तिग्मं तीक्ष्णं खरं तर मृगतृष्णा मरीचिका ।। ३५ ॥
इति दिग्वर्गः ॥३॥
४. अथ कालवर्गः॥ ५ कालो दिशेऽप्यनेहाऽपि समयोऽ६प्यथ पक्षतिः । छविः, धुतिः, दीप्तिः ( ९ स्त्रो), रोचिः ( = रोचिष ), शोचि ( = शोचिष् । २ न), 'प्रभा' के ११ नाम हैं ॥
प्रकाशः, द्योतः, आतपः (३ पु), 'धू' अर्थात् 'घाम' के ३ नाम हैं। ('दीप्ति, भातप आदि यद्यपि असाधारण धर्म हैं तथापि कविलोग इनका प्रयोग सामान्यरूपसे करते हैं, जैसे-'मुख दीप्ति, चन्द्रातपः.........")॥
२ कोष्णम् , कवोष्णम् , मन्दोषणम्, कदुष्णम् (४ न), 'थोड़ा गर्म के ४ नाम हैं। (ये शब्द धर्मिवाचक होनेपर त्रि० हैं, जैसे-'कोष्णं जलम् , कोष्णः प्रस्तरः, कोष्णा शिला, .......' इन उदाहरणों में 'जल, प्रस्तर और शिला' शब्द के क्रमशः नपुंसक, लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग होनेसे 'कोष्ण' शब्द भी क्रमशः नपुंसक, पुंल्लिंग और स्त्रीलिङ्गमें प्रयुक्त हुआ है)।
३ तिग्मम् , तीचगम् , खरम् (३ न), 'अधिक गर्म के ३ नाम हैं।
" मृगतृष्णा, मरीचिका ( २ स्त्री), 'मृगतृष्णा' के २ नाम है । (गर्मी के दिनों में रेतीली जमीनपर सूर्यका ताप लगने से अलका जो मामास होता है उसे 'मृगतृष्णा ' कहते हैं )।
इति दिग्वर्गः ॥३॥
४. अथ कालवर्गः॥ ५कालः, विष्टः, अनेहा (+ अनेहस् ), समयः (पु) 'समय'
पतिः (+पती), प्रतिपत (= प्रतिपद् । २ सो) 'परिवा तिथि
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कालवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
प्रतिपद् द्वे इमे स्त्रीत्वे १ तदाद्यास्तिथयो द्वयोः॥१॥ २ घस्रो दिनाहनी वा तु क्लीबे दिवसवासरौ। ३ प्रत्यूषोऽहर्मुखं कल्यमुषाप्रत्युषसी अपि ॥२॥
प्रभातं च ४ दिनान्ते तु सायं सन्ध्या पितृप्रसूः । ५ प्रासापराह्नमध्याह्नास्त्रिसन्ध्यक्ष्मथ शर्वरी ॥३॥
निशा निशीथिनी रात्रिस्त्रियामा क्षणदा क्षपा। तिथिः (पु स्त्रो), 'प्रतिपत् , द्वितीया आदि तिथियों' का । नाम है । ('वे प्रतिपत् 1, द्वितीया२, तृतीया३, चतुर्थी४, पञ्चमी५, षष्ठी६, सप्तमी, अष्टमी ८, नवमी९, दशमी०, एकादशी, द्वादशो१२, त्रयोदशी १३, चतुर्दशी१४, और शुक्लपक्ष में पूर्णिमा तथा कृष्णपक्ष में अमावास्या१५, पन्द्रहा तिथियाँ होती हैं)॥
२ घनः (पु), दिनम् , महः (=अहन् । २ न), दिवसः, वासरः (+ वारः । २ पु न) 'दिन' के ५ नाम हैं ॥
३ प्रत्यूषः (+ प्रत्यूषस् , पु न), अहर्मुखम्, कल्यम् (+ काल्यम्), उषः (= उषस्। + उषा, अ०), प्रत्युषः ( = प्रत्युषस् ), प्रभातम् (५ न ), 'प्रातःकाल' के ६ नाम है।
४ दिनान्तः (पु), सायम् ( अ०, न। + साय..[] पु), सन्या (+ सन्धा), पितृप्रसूः ( २ स्त्री ), 'सायङ्काल' के ४ नाम हैं । __ ५ त्रिसज्यम् ( न । वै० त्रिसन्ध्या, स्त्री), 'प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायङ्काल; इन तीनों समयके समूह' का । नाम है ।
६ शर्वरी (+ शार्वरी), निशा (+निट = निश), निशीथिनी, रात्रिः * 'ज्युष्टं विमातं द्वे क्लीने पुंसि गोसर्ग इष्यते' इत्यधिकः क्षेपकाशः कचित्समुपलभ्यते ।
+ 'प्रतिपच्च द्वितीया च तृतीया च ततः परम् । चतुर्थी पश्चमी षष्ठी सप्तमी चाष्टमी ततः ॥१॥ नवमी दशमी चैबैकादशी द्वादशी तथा। त्रयोदशो ततो शेषा पुनया चतुर्दशी ॥१॥ शुक्के पश्चदशी समिः पूर्णिमा समुदायते।
कृष्णपक्षे तु विबुधैरमापास्वा प्रकता ॥ हति ॥ तथाच मोदी- 'भारतदीपं..."साब भूतः इति नै प० २०५२ ।
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अमरकोषः
[प्रथमकाले विभावरीतमस्विन्यौ रजनी यामिनी तमी ॥४॥ १ तमिस्रा तामली रात्रिज्योत्स्नी चन्द्रिकयाऽन्विता। ३ आगाभिवर्तमानाहर्युक्तायां निशि पक्षिणी ॥५॥ ४ गणरात्रं निशा वह्वयः ५ प्रदोषो रजनीमुखम् । ६ अर्धरात्रनिशीधौ द्वौ ७ द्वौ यामप्रहरी समौ ॥ ६ ॥ ८ स पर्वसन्धिः प्रतिपत्पश्चदश्योर्यदन्तरम्।
(+रात्री ), बियामा, क्षणदा, पा, विभावरी, तमस्विनी, रजनी(+ रजनिः), यामिनी, तमी ( + तमिः, तमा । १२ स्त्री), 'रात' के १२ नाम हैं ॥
१ तमिस्रा (स्त्री) 'अंधेरी रात' का । नाम है ॥
२ ज्योत्स्नी ( स्त्री ।+ ज्योत्स्ना, ज्योत्स्नी), 'उजेली रात' का १ नाम है।
३ पक्षिणी (स्त्री), 'वर्तमान और आगेके दिनसे युक्त रात' का : नाम है। तुल्यन्यायसे वर्तमान रात्रि और दूसरी रात्रिके सहित दूसरे दिन का भी यह नाम है ॥
गणरात्रम् (न ), 'रात्रियों के समूह' का नाम है ॥ . ५ प्रदोषः (पु), रजनीमुखम् (न), 'रातके पहले हिस्से के २ नाम हैं।
६ अर्धरात्रः, निशीथः (पु२), 'आधीरात' के २ नाम हैं।
७ यामः, प्रहरः ( २ पु०), 'प्रहर' के २ नाम हैं। (दिन और रातके भाठवें हिस्से अर्थात् तीन घण्टेका १ 'प्रहर' होता है')॥
८ पर्व ( =पर्वन् , न । म०, 'पर्व = पर्वन् , सन्धिः , ये दो नाम या 'पर्वसन्धिः' यह एक नाम) 'प्रतिपद और पूर्णिमा या अमावास्याके मध्यभाग' का नाम है।
• 'परिणी' पबतुल्याभ्यामहोभ्यां वेरिता निशा ।। इति ॥ 'परिणी' 'पूर्णिमायां स्यादिकायां शाकमेदिनि । भागामिवर्षमानाइजराभ्यामपि सियाम् ॥१॥
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कालवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः !
१ पक्षान्तौ पञ्चदश्यौ द्वे २ पौर्णमासी तु पूर्णिमा ॥ ७ ॥ ३ कलाहीने सानुमतिः ४ पूर्ण राका निशाकरे । ५ अमावास्या त्वमावस्या दर्शः सूर्येन्दुलनमः ॥ ८॥ ६ सा हष्टेन्दुः सिनीवाली ७ सा नष्टेन्टुकला कुहूः । ८ उपरागो ग्रहो राहप्रस्ते विन्दो चणि च ।।९।।
. पक्षान्तः (पु), पञ्चदशी (स्त्री), 'पूर्णिमा या अमावास्या तिथि के २ नाम हैं।
२ पौर्णमासी, पूर्णिमा ( २ स्त्री), 'पूर्णिमा' अर्थात् 'शुक्लपक्षकी अन्तिम तिथि' के २ नाम हैं।
३ अनुमतिः ( स्त्री) 'जिसमें चन्द्रमा की कला कुछ क्षीण हो उस पूर्णिमा' का अर्थात् 'प्रतिपयुक्त पूर्णिमा' का १ नाम है ॥
४ राका (स्त्री), 'जिसमें चन्द्रमाकी कला परिपूर्ण हो, उस पूर्णिमा' का अर्थात् 'शुद्ध पूर्णिमा' का १ नाम है ॥
५ अमावास्या, अमावस्या ( २ स्त्री । + अमावली, अमावासी, अमामासी, अमामसी, अमा), दर्शः, सूर्येन्दुपङ्गमः (२ पु), 'अमावास्या' अर्थात् 'कृष्णपक्षकी अन्तिम तिथि' के ४ नाम हैं । ___सिनीवाली (स्त्री), जिसमें चन्द्रमाकी कला पूर्णतया क्षीण नहीं हुई हो, उस अमावास्या' का अर्थात् 'चतुर्दशीयुक्त अमावास्या' का १ नाम है। __[] कुहूः ( स्त्री। + कुहुः ), 'जिसमें चन्द्रमाकी कलापूर्णतया क्षीण हो गई हो, उस अमावास्या' अर्थात् 'शुद्ध अमावस्या का । नाम है।
८ उपरागः, प्रहः (२ पु), 'सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण'के २ नाम हैं ।
__ * + [] या पूर्वामावास्या सिनीवाली योत्तरा सा कुहूः' इति श्रुतिः। अयमभिप्रायःचतुर्दश्याश्चरमप्रहरोऽमावस्याया अष्टौ प्रहराश्चेति नवप्रहरारमकश्चन्द्रस्य क्षयसमयः शास्त्र. सम्मतः । तत्र प्रथमप्रहरद्वये चन्द्रस्य सूक्ष्मत्वम् , अन्तिमप्रहरदये करस्नक्षयः। अतोऽमा. पास्यायाः प्रथमप्रहरः 'सिनीवाली' संशका, मन्तिमप्रहरदयं 'कुहू' नामकम् , मध्यमप्रहरपत्र 'दर्श' नामकमित्यवधेयम् ।।
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डे१ सोपप्लवोपरक्तौ द्वारवग्न्युत्पात उपाहितः। ३ एकयोक्त्या पुष्पवन्तो दिवाकरनिशाकरौ ॥ १०॥ ४ अष्टादश निमेषास्तु काष्ठा५त्रिंशत्तु ताः कला । ६ तास्तु त्रिंशत्मणस्ते तु मुहूतों द्वादशास्त्रियाम् ॥ ११ ॥ ८ ते तु त्रिंशदहोरात्रः९ पक्षस्ते दश पञ्च च ।
१ सोपप्लवः, उपरक्तः (२ पु), 'ग्रहण लगनेपर राहुसे ग्रस्त' (कुछ कटे हुए) सूर्य या चन्द्रमा के २ नाम हैं ।
१ अग्न्युत्पातः, उपाहितः ( २ पु), 'आकाशमें अग्नि-विकार, तारा टूटना, धूमकेतु नामकी ताराका उदय होना और उसके उपद्गव, सूर्यग्रहणादिमें आग्नेयमण्डलसे उत्पन्न तेजोविशेष' इनके २ नाम है ॥
३ पुष्पधन्ती (= पुष्पवत् , नि० द्विव० । + पुष्पदन्तौ । म० पुष्पवन्तौ = पुष्पवन्तः ) 'सूर्य और चन्द्रमा इन दोनों का । नाम है ॥
४ निमेष: (पु), 'निमेष' का १ नाम है। आँखके पलक गिरनेमें जितना समय लगे उसे 'निमेष' कहते हैं )। काष्ठा (स्त्री), 'अटठारह निमेषके बराबर समय' का 'काष्ठा' यह १ नाम है ॥
५ कला (स्त्री), 'तीस काष्ठाके बराबर समय' का १ नाम है । ६ क्षणः (पु) 'तीस कलाके बराबर समय' का । नाम है ॥
७ मुहूर्तः ( पु न ) 'बारह क्षण' अर्थात् 'दो घड़ी' के बराबर समय का १ नाम है।
८ अहोरात्रः (पु), "दिन रात' अर्थात् 'तीस मुहूर्त' या साठ घड़ी का १ नाम है॥
९ पक्षः (पु), 'पन्द्रह दिन-रात या पक्ष' का नाम है ॥
• 'यावता समयेन चलितः परमाणुः पूर्वदेशं नह्यादुत्तरदेशमुपसंपयेत स कालः 'क्षणः' इति पातालमाष्यम् । तस्य च क्षणस्यातीन्द्रियखम् । निमेषस्य चतुर्थों मागः 'क्षणः' इति टीकाकत' इति वै०सि० मजवायां शब्दद्धयादीनां क्षणिकत्वनिरूपणावसरे कुञ्जिकावामुक्तः
क्षणस्वतीन्द्रियोऽन्य एवेत्यवधेयम ॥
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कालवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
३९ १ पक्षी पूर्वापरौ शुक्लकृष्णौ २ मासस्तु तावुभौ ॥ १२ ॥ ३ द्वौ द्वौ माघादिमासी स्यारतु४स्तैरयनं त्रिभिः । ५ अयने द्वे गतिरुदग्ददक्षिणार्कस्य वत्सरः ॥१३॥ ६ समरात्रिदिवे काले विषुद्विषुवं च तत् ।
१ शुक्लः, कृष्णः (२ पु), ये 'पक्षके दो भेद' हैं। ( उसमें उजियाले पक्षको 'शुक्ल' और अंधियारे पक्षको 'कृष्ण' कहते हैं ) ॥
२ मासः (पु), दो पक्ष, महीना' का नाम है । ('मार्गशीर्ष १, पौष २, माघ ३, फाल्गुन ४, चैत्र ५, पैशाख ६, ज्येष्ठ ७, पाढ ८, श्रावण ९, भाद्र १०, पाश्विन ११ और कार्तिक १२ ये बारह महीने होते हैं)॥
३ ऋतुः (पु), 'ऋतु' का । नाम हैं । मार्गशीर्ष अर्थात् अगहनसे दो दो महीनों के 'हेमन्त' सादि एक-एक *ऋतु होते हैं, इस प्रकार एक वर्ष ६ ऋतु होते हैं। ('हेमन्त १, शिशिर २, वसन्त ३, ग्रीष्म ४, वर्षा ५ और शरत् ६ ये ६ ऋतु हैं, मार्गशीर्ष (अगहन) और पोपमें 'हेमन्त' १, माघ और फाल्गुन में 'शिशिर' २, चैत और वैशाखमें 'वसन्त' ३, ज्येष्ठ और आषाढ में 'ग्रीष्म' ४, श्रावण और भादमें 'वर्षा' ५ तथा आश्विन और कार्तिक में 'शरत् ६ ऋतु होते हैं। )॥
४ अयनम् (न), 'अयन' का १ नाम है। यह ३ ऋतु या ६ मासका होता है।
५ सूर्यके गतिभेदसे यह 'अयन' दो प्रकारका होता है, उसमें जब सूर्यकी गति कुछ उत्तरकी तरफ होती है उसे 'उत्तरायणम्' (न), अर्थात् 'उत्तरायण' और जब सूर्यकी गति कुछ दक्षिणकी तरफ होती है उसे 'दक्षिणायनम्' (न), अर्थात् 'दक्षिणायन' कहते हैं। 'उत्तरायण' में मकरसे मिथुन राशितक और 'दक्षिणायन' में कर्कसे धनु राशितक सूर्यकी संक्रान्ति रहती है)
६ विषुवत् , विषुवम् ( + विषुणम् । २ न ), 'जब रात दिन दोनों बराबर हो जाते हैं, उस समय के २ नाम हैं। ('जब तुला और मेषकी सूर्यसंक्रान्ति होती है, तब दिन रात बराबर होते हैं')॥
• तदुक्तम् -'मादाय मार्गशीर्षाच्च दौ दो मासावृतः स्मृतः' इति ।
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अमरकोषः ।
[प्रथमकाण्डे
१ 'पुष्ययुक्ता पौर्णमासी पौषी २ मासे तु यत्र स्ला (४२)
नाम्ना स पौषो ३ माघाद्याश्चैवमेकादशापरे (४३) ४ मार्गशीर्ष सहा मार्ग आग्रहायणिकश्च सः ॥१४॥ ५ पौषे तैषसहस्यो द्वौ ६ तपा माघेऽथ फाल्गुने ।
स्यात्तपस्यः फाल्गुनिकः ८ स्याच्चैत्रे चेत्रिको मधुः ॥ १५ ॥
, [पौषी ( स्त्री ), 'पुष्य नक्षत्रले युक्त पूर्णिमा' अर्थात् 'पौष मासकी पूर्णिमा' का नाम है ।
२ [ पौषः (पु), 'पूस महीना' अर्थात् जिसमें 'पोषी' पूर्णिमा हो, उसका १ नाम है ] ॥
३ [ इसी तरह माघ आदि ग्यारह महीनों को भी समझना चाहिये, अर्थात् मघा नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा'माघी' महीना 'माघः' १, पूर्वोत्तरफाल्गुनी नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा 'फाल्गुनी' मास 'फाल्गुनः' २, चित्रा नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा 'चैत्री' मास 'चैत्रः' ३, विशाखा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा 'वैशाखी' मास 'वैशाख' ४, ज्येष्ठा नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा 'ज्यैष्ठी' मास 'ज्येष्ठः' ५, पूर्वोत्तरा. षाढा नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा 'आषाढी' मास आषाढः' ६, श्रवण नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा 'श्रावणी' मास 'श्रावण:' ७, पूर्वोत्तराभाद्रपद नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा 'भाद्रपदी' मास 'भाद्रपदः, अश्विनी नक्षत्रले युक्त पूर्णिमा 'आश्विनी' मास 'आश्विनः' ९, कृत्तिका नपत्रसे युक्त पूर्णिमा 'कार्तिकी' मास 'कात्तिकः १. और मृग नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा मार्गी' मास 'मार्ग:'" होते हैं, इनमें पूर्णिमाके वाचक 'माघी' आदि । शब्द खो० और मासके वाचक 'माघ' आदि । शब्द पुं० हैं' ] ॥ ___४ मार्गशीर्षः, सहाः (= सहस्), मार्गः, आग्रहायणिकः (+ आग्रहायणः । पु), 'अगहन महीने के ४ नाम हैं। ५ पौषः, तैषः, सहस्थः (३ पु ), 'पौष मास' के ३ नाम हैं । ६ तपाः (= तपस् ), माघः ( २ पु), 'माघ मास' के २ नाम हैं । ७ फाल्गुना, तपस्यः, फाल्गुनिकः (३ पु)'फाल्गुन मास के ३ नाम हैं। ८ चैत्रः, चैत्रिका, मधुः (३ पु), 'चैत्र मास के ३ नाम हैं।
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कालवर्गः ४ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ वैशाखे माधवो राधो २ ज्येष्ठे शुक्रः ३ शुचिस्त्वयम् । आषाढे ४ श्रावणे तु स्यान्नभाः श्रावणिक्रश्च सः ॥ १६ ॥ ५ स्युर्नभस्यप्रोष्ठपदभाद्रभाद्रपदाः
समाः
६ स्यादाश्विन इषोऽप्याश्वयुजोऽपि ७ स्यात्तु कार्तिके ॥ १७ ॥ बाहुलोज कार्तिकिको ८ हेमन्तः ९ शिशिरोऽस्त्रियाम् । १० वसन्ते पुष्पसमयः सुरभि११ ग्रीष्म ऊष्मकः ॥ १८ ॥ निदाघ उष्णोपगम उष्ण ऊष्मागमस्तपः ।
४१
१ वैशाखः, माधवः, राधः ( २ पु ), 'वैशाख मास' के ३ नाम हैं ॥ २ ज्येष्ठः ( + ज्यैष्ठः ), शुक्रः, ( २ पु ), 'ज्येष्ठ मास' के २ नाम हैं ॥ ३ शुचिः, आषाढः ( + आषाढकः 1 २ पु ), 'आषाढ मास' के २ नाम हैं ॥
४ श्रावणः, नभाः ( = नभस् ) श्रावणिकः (३ पु), 'भावण मास' के ३ नाम हैं ॥
५ नभस्य:, प्रौष्ठपदः, भाद्रः, भाद्रपदः (४५), 'भादों मास' के ४ नाम हैं ॥ ६ आश्विनः, इषः, आश्वयुजः (३ पु), 'आश्विन मास' अर्थात् 'कार' के ३ नाम हैं ॥
७ कार्तिकः, बाहुलः, ऊर्जः, कार्तिकिक: ( ४ पु ), 'कार्तिक मास' के ४ नाम हैं ॥
"
८ हेमन्तः ( पु । + हेमा, = हेमन् पु ), 'हेमन्त ऋतु' का नाम है । ( 'यह अगहन और पौष मास में होता है' ) ॥
९ शिशिरः ( पु न ), 'शिशिर ऋतु' का १ नाम है । ( 'यह मात्र मौर फाल्गुन मास में होता है' ) ॥
१० वसन्तः, पुष्पसमयः, सुरभिः ( + ऋतुराजः । ३ पु ), 'वसन्त ऋतु' के ३ नाम हैं । ( 'यह चैत वैशाख मास में होता है' ) ॥
११ ग्रीष्मः, ऊष्मकः, ( + उष्मकः, उष्णकः, ऊष्णकः, उष्मणः, ऊष्मणः ), निदाघः, उष्णोपगमः ( + ष्णोपगमः ), उष्णः ( + ऊष्णः ), ऊष्मागमः ( + उष्मागमः ), तपः ( ७ पु ), 'ग्रीष्म ऋतु' के ७ नाम हैं । ( 'यह ज्येष्ठ और आषाढ मास में होता है' ) ॥
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४२
अमरकोषः
[ प्रथमकाण्डे
१ स्त्रियां प्रावृट् स्त्रियां भूम्नि वर्षा २ अथ शरत्स्त्रियाम् ॥ १९ ॥ ३ षडमी ऋतवः पुंसि मार्गादीनां युगैः क्रमात् ।
४ संवत्सरो वत्सरोऽब्दो हायनोऽस्त्री शरत्समाः ॥ २० ॥ ५ मासेन स्यादहोरात्रः पैशो ६ वर्षेण वतः ।
१ प्रावृट् ( = प्रावृष्, स्त्री ), वर्षाः (स्त्री, नि० ब० व०) 'वर्षा ऋतु के २ नाम हैं । ( 'यह श्रावण और भादों मास में होता है' ) ॥
२ शरत् ( = शरद्, स्त्री ), 'शरद ऋतु' का १ नाम है । ('यह आश्विन और कार्तिक मास में होता है' ) ॥
३ मार्गशीर्ष अर्थात् अगहन महीने से हर दो-दो महीनों में हेमन्त आदि एक एक ऋतु होते हैं । 'ऋतु' शब्द ( पु ) है । ( ' इनका क्रम पृष्ठ ३९ श्लोक १३ में कहा जा चुका है है, अतः वहीं से देखिये ) ॥
४ संवत्सरः ( + परिवत्सरः ), वरसरः, अब्दः ( ३ पु ), हायनः ( पु न । म० ४ पु न ), शरत् ( = शरद्, स्त्री), समाः (स्त्री०, नि० ब० व० ), 'वर्ष, साल' के ६ नाम है ( 'यह १२ महीने का होता है' ) ॥
५ मनुष्यों के एक महीने का 'पैत्रः अहोरात्रः' (पु) अर्थात् 'पितरोंकी दिनरात' होती है । ( 'उसमें मनुष्यों के कृष्णपक्ष में पितरोंका दिन' और मनुष्यों के शुक्लपक्ष में 'पितरोंकी रात' होती है । मिस मतमें आधीरात के बाद दिनका आरम्भ माना जाता है - जैसा कि अंग्रेजीमें तारीखोंका क्रम है; उसके अनुसार यह कथन ठीक है, वस्तुतः तो मनुष्योंके कृष्णपक्ष की अष्टमी के उत्तरार्द्धसे शुक्ल. पक्ष की अष्टमी के पूर्वार्द्धतक 'पितरोंका दिन' और मनुष्यों को शुक्लपक्ष की अष्टमी के उत्तरार्द्धसे कृष्णपक्ष की अष्टमी के पूर्वार्द्धतक 'पितरोंकी रात' होती है; इस तरह मनुष्यों की अमावास्या के अन्त में 'पितरोंका मध्याह्न' और मनुष्यों की पूर्णिमा के अन्तमें पितरोंकी आधी रात' होती है' )
६ मनुष्यों के एक वर्ष या उत्तरायण और दक्षिणायन का 'दैवः अहोरात्र' (पु) अर्थात् 'देवताओंकी एक दिन-रात' होती है । ( 'इसमें उत्तरायण
'पित्र्ये रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तु पक्षयोः ।
कर्मचेष्टास्वहः कृष्णः शुकुः स्वप्नाय शर्वरी ॥ १ ॥' इति मनुः १ ६६ ॥
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कालवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ दैवे युगसहने द्वे ब्राह्मः
~~~ अर्थात् सूर्य की मकरसंक्रान्ति मिथुनसंक्रान्तितक 'देवताओंका दिन' और दक्षिणायन अर्थात् सूर्यकी कर्कलंक्रान्तिले धनुसंक्रान्तितक 'देवताओंकी रात' होती है। यह भी आधीरात दिनारम्भसे गणनानुसार ही है, वस्तुतः तो उत्तरायणके उत्तरार्द्ध अर्थात् सूर्यकी मेषसंक्रान्ति के प्रथम दिनसे दक्षिणायन के पूर्वार्द्ध अर्थात् सूर्य की कन्यासंक्रान्तिके अन्तिम दिनतक 'देवताओंका दिन' और दक्षिणायन के उत्तरार्द्ध अर्थात् सूर्यको तुलासंक्रान्ति के प्रथम दिनसे उत्तरायणके पूर्वार्द्ध अर्थात् मीनसंक्रान्ति के अन्तिम दिन तक 'देवताओंकी रात' होती है। इस प्रकार उत्तरायण के अर्थात सूर्यकी मिथुनसंक्रान्ति के अन्तिम दिनको 'देवता
ओका मध्याह्न और दक्षिणायन के अर्थात् सूर्य की धनुसंक्रान्तिके अन्तिम दिनको 'देवताओकी आधीरात' होती है')॥
. देवताओंके दो हजार युगका 'ब्राह्मः अहोरात्रः' (पु) अर्थात् 'ब्रह्माकी दिन-रात' होती है । ('देवताओंके ३६० दिन या मनुष्यों के ३६० वर्षका 'दिव्यवर्षम् (न)अर्थात् 'देवताओंका एक वर्ष होता है । और बाहर हजार दिव्य वर्ष ( देवताओंके वर्ष) का "मनुष्योंका चतुर्युग' ('सत्ययुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग' ) होता है, यही "देवताओंका एक युग' है।
१. 'देवे रात्र्यहनी वर्ष प्रविमागस्तयोः पुनः।
अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्यादक्षिणायनम् ।। १ ।। इति मनुः १६६७ ।। २. 'कृतं त्रेतो द्वापरश्च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।
प्रोच्यते तत्सहनं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते ॥१॥ इति वि० पु० । कृतं सत्ययुगम्, अन्ये प्रसिद्धाः॥ ३. 'चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणान्तु कृतं युगम् ।
तस्य तावच्छती संख्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः ॥ १॥ इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु । एकापायेन वत्तन्ते सहस्राणि शतानि च ॥२॥ यदेतत्परिसख्यातमादावेव चतुर्युगम् ।
एतदादासाहवं 'देवानां युगमुच्यते ॥ ३ ॥ इति मनुः ११६९-७११
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अमरकोषः । [ प्रथमकाण्डे
--१ कल्पौ तु ती नृणाम् ।। २१ ।। __२ मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानालेकसप्ततिः ।
देवताओं के इपी दो हजार युगका 'ब्रह्माको एक दिन-रात' होती है। अर्थात् देवताओंके एक हजार युगका 'ब्रह्माका दिन' और उतने ही ( देवताओं के एक हजार युग) की "ब्रह्माकी रात' होती है')॥
१ वही ब्रह्माकी दिन-रात मनुष्यों का करौ' (ए. व. भी होता है), 'कल्प' अर्थात् स्थिति और प्रलयका काल है । ('उसमें ब्रह्माके दिन में 'मनुष्यों का स्थिति काल और ब्रह्माकी रातमें 'मनुष्यों का प्रलयकाल' है')॥
२ देवताओं के एकहत्तर युगका "मन्वन्तरम्' (न), १ 'मन्वन्तर' अर्थात् 'चौदह मनुओं में से प्रत्येक मनुका स्थितिकाल होता है। (स्वाय. म्भुव । स्वारोचिष २, औत्तमि ३, तामसि ४, रैवन ५, आयुष ६, वैवस्वत ७, सावर्णि ८, दक्षप्तावर्ण ९, ब्रह्मावर्ण १०, धर्मसावर्ण ११, रौद्रमावर्ण १२, रोच्यसावनि १३ और भौत्यसावर्णि १४ थे चौदह मनु हैं। इनमें से प्रत्येक स्थितिकाल को 'मन्वन्तर' कहते हैं। उनमें ६ मनु बीत चुके हैं, सातवाँ 'वैवस्वत' मन्वन्तर बीत रहा है और अन्य सात बाकी हैं। 'पृष्ठ३८ श्लोक ११से यहाँ तक कहे
१ 'दैविकानां युगानान्तु सहस्र परिसङ्घयया ।
ब्राह्ममेकमहरि तावती रात्रिमेव च ॥१॥ इति मनुः ११७२ ।। २ 'यत्ताग्दादशसाहस्रमुदितं देविकं युगम् ।।
तदेकसप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते ॥१॥ इति मनुः ११७९ ॥ ३ 'मनुः स्वायम्भुवो नाम मनुःस्वारोचिषस्तथा ।
औत्तमिस्तामसिश्चैव रैवतश्वायुषस्तया ॥१॥ एते तु मनवोऽतीताः सप्तमस्तु रवः सुतः ।। वैवस्वतोऽयं यस्यैतत्सप्तमं वर्तते युगम् ॥ २ ॥ सावर्णिदक्षसावर्णो ब्रह्मसावर्ण इत्यपि ।
धर्मसावर्ण रुद्रस्तु सावर्णो रोच्यमोत्यवद ॥ ३ ॥ इति वि० पु० ।
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कालवर्गः . ]
मणिप्रभाध्याख्यासहितः
हुए कालका मान चक्रमें स्पष्ट है'।
• 'अष्टादश निमेषास्तु (१।४।११) इत्यत आरभ्य 'युगानामेकसप्ततिः (१।४।२२) इत्यन्तग्रन्थस्य कालज्ञानात्मको निष्कोऽत्र चक्रे द्रष्टव्यः ।।
® अथ कालमानवोधकचक्रम् 8 नेत्र स्पन्दकाल,
१निमेषः ( विपला) | (३० सेकेण्ड ) १८ निमेषाः १ काष्ठा (२विएला)
(६८ सेकेण्ड ) ३० काष्ठाः १ कला ( २० विपला)
(८ सेकेण्ड) ३० कलाः १ क्षणः (१० पला)
(४ मिण्ट) १२ क्षणाः
१ मुहूर्तः (२ षटयौ) (४८ मिण्ट) ३० मुहूर्ताः १ अहोरात्रः (मानुषः)
( २४ घण्टा १५ अहोरात्राः १ पक्षः (मानुषः)
१ दिनं निशा वा २ पक्षी
१ मासः ( मानुषः) १ अहोरात्रः (वैत्रः) १२ मासाः
१ वर्षम् (मानुषम् ) १ अहोरात्रः (दैवः ३६० देवाहोरात्राः ३६० मानुषवर्षाणि
१ वर्षम् (दिव्यम् ) ४३२००० मानुषवर्षाणि १२०० दिव्यवर्षाणि
1 १ कलिमानम् ८६४००० . २४००
१द्वापरमानम् १२९६००० "
१ त्रेतामानम् १७२८०००
१ सत्ययुगमानम् ४३२०००० " एवं १२००० "
मानुषं चतुर्युगमानम्
वा देवं युगम् १२०००दिव्यवर्षाणि १०००/४३२०००० मानववर्षाणि x१०००- १ दिनम् (ब्राह्मम् ) १२००००००दिव्यवर्षाणि ४३२००००००० भानुषवर्षाणि
१ रात्रिः (ब्राह्मी) १२००००००+१२००००००-४३२०००००००:४३२०००००००। १ अहोरात्रः (ब्राह्मः) २४०००००० दिम्यवर्षाणि - ८६४००००.०० मानुषवर्षाणि १२०००दिव्यव.-चतुर्युगमानम् ४३२.... मनुवाणि ४७१ = १ मन्वन्तरम् ४७१८५२०००दिम्पवर्षाणि ३०६०२०... मानुषवर्षाणि 'मा १७॥१४२८ पनि विगाहन: ५१म१ मन्नान्तरमहत्या
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डे
१ संवतः प्रलयः कल्पः क्षयः कल्पान्त इत्यपि ॥ २२ ॥ २ अस्त्री पळू पुमान् पाप्मा पापं किल्विषकल्मषम् ।
कलुषं वृजिनैनोऽघमंहो दुरितदुष्कृतम् ।। २३ ॥ ३ स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः । ४ मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसम्मदाः ॥ २४ ॥
स्यादानन्दाथुरानन्दः शर्मशातसुखानि च। ५ श्वःश्रेयसं शिवं भद्रं कल्याणं मलं शुभम् ॥ २५ ॥
भावुकं भबिकं भव्यं कुशलं क्षेममस्त्रियाम् ।
शस्तं ६ चाथ त्रिषु द्रव्ये पापं पुण्यं मुखादि च ।। २६ ।। ७ मतल्लिका मचर्चिका प्रकाण्डमुद्धतल्लजौ ।
१ संवतः, प्रलयः, कल्पः, चपः, करारान्तः, (५पु), 'प्रलय काल' के ५ नाम हैं।
२ पक्कम (न पु), पाप्मा (=पाध्मन् , पु) पापम् किल्बिषम, करमषम्, कलुषम्, वृजिनम्, एनः (= एनस), अधम् , अंहः (= अंहस। + अंधा, अंघस), दुरितम्, दुष्कृतम् (१० न), 'पाप' के १२ नाम हैं।
३ धर्मः (पु न । +धर्मा = धर्मन् , पु), पुण्यम् , श्रेयः ( = श्रेयस), सुकृतम् (३ न ) वृषः (पु) 'धर्म' के ५ नाम हैं।
४ मुत् (= मुद्), प्रीतिः (२ सो), प्रमदः, हर्षः, प्रमोदः, आमोदा, संमदः, भानन्दथुः, आनन्दः, (७ पु), शर्म (= शर्मन्), शातम् (+ सातम्) सुखम् (३ न), 'हर्ष के १२ नाम हैं।
५ श्वःश्रेयसम् ( स्वःश्रेयसम्), शिवम् , भद्रम् (भन्दम् ), कल्याणम्, मङ्गलम् , शुभम्, भावुकम्, मविकम्, माश्म, कुशलम् (+ कुशलम् । १० न), खेमम्' शस्तम् (२ न पु) 'कल्याण' के १२ नाम हैं ।
६ 'पाप, पुण्य' शब्द और 'सुख' शब्दसे 'शस्त' शब्दतक १३ शब्द दुष्पविशेष में प्रयुक होने पर त्रिलिङ्ग होते हैं। (जैसे-'पापो मनुष्यः, पापा निधनता, पापं दैन्यम् । पुण्यः प्रतापः, पुण्या सम्पत् , पुण्यं यशः । कल्याणा बन्धुः, कल्याणी भार्या, कल्याणं वित्तम्.....")"
मताहिका, मचर्यिका (नि. ) प्रकार (नि. म. + पु )
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कालवर्ग: ४ ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
प्रशस्तवाचकान्यमूरन्ययः शुभावहो विधिः ॥ २७॥
दैवं दिष्टं भागधेयं भाग्यं स्त्री नियतिविधिः । ३ हेतुर्ना कारणं बीजं ४ निदानं त्वादिकारणम् ।। २८ ॥ ५ क्षेत्र आत्मा पुरुषः ६प्रधान प्रकृतिः स्त्रियाम् । ७ विशेषः कालिकोऽवस्था८गुणाःसत्त्वं रजस्तमः ।। २९ ॥ ९ जनुर्जननजन्मानि जनिरुत्पत्तिरुद्भवः । १० प्राणी तु चेतनो जन्मी जन्तुजन्युशरीरिणः ॥ ३०॥
उखा, तल्लनः (२ पु), ये ५ किसी द्रव्यवाचक शब्द के साथ समस्त होकर अन्तमें रहनेसे उसकी श्रेष्ठताको प्रकट करते हैं । इनका स्वतन्त्र प्रयोग नहीं होता है। जैसे-'गोमतल्लिका, गोमचर्चिका, गोप्रकाण्डम् , गवोद्धः, गोतलजा,.....")॥
अयः (पु)'शुभकारक भाग्य' का । नाम है । २ दैवम् , दिष्टम् , भागधेयम् , भाग्यम (४ न), नियतिः (सो), विधिः (पु), 'भाग्य' के ६ नाम हैं ।
३ हेतुः (पु), कारणम् , धोत्रम् ( २ न ), 'कारण' के ३ नाम हैं । ४ निदानम् (न), 'मूल कारण' का नाम है ॥
५ क्षेत्रज्ञः, आश्मा (=आस्मन् ), पुरुषः (३ पु), 'शरीरकी अधिष्ठात्री देवता के ३ नाम हैं ।
६ प्रधानम् (न), प्रकृतिः (स्त्री), 'सत्त्वगुण, रजोगुण और तमो. गुणकी साम्यावस्था के २ नाम हैं। __अवस्था (स्त्री), 'समयकृत विशेष' अर्थात् 'उम्र'का । नाम है। (जैसे-लड़कपन, जवानी, गुढ़ापा, "...")॥
८ सयम , रजः ( = रजस। + रजः = रज, पु), तमः (=तमस) + तमः,तम, पु । ३ न), ये ३ 'प्रकृति के धर्म हैं। उनका क्रमशः 'सावगुण, रजोगुण और तमोगुग' यह १-१ नाम है ॥
९ अनुः (जनुस), मननम्, सम्म ( = जन्मन् । + जम्मः = जन्म, पु। ३ म), जनिः (+पु), उत्पत्तिः (१त्री), उद्भवा (पु), 'उत्पत्ति' अर्थात् 'पैदा होने पा जन्म लेने के ६ माम हैं।
१. पाणी (पाणिनमः , जन्मी (जन्मिन् ) , मन्युः, शरीरी
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे१ जातिर्जातं च सामान्य २ व्यक्तिस्तु पृथगात्मता। ३ चित्तं तु चेतो हृदयं स्वान्तं हृन्मानसं मनः ।। ३१ ॥
इति कालवर्गः॥४॥
५. अथ धीवर्गः। ५ बुद्धिर्मनीषा धिषणा धीः प्रशा शेसुषी मतिः।
प्रेक्षोपलब्धिश्चित्सवित्प्रतिपज्ज्ञप्तिचेतनाः ॥१॥ ५ धीर्धारणावती मेधा ६ सङ्कल्पः कर्म मानसम् । ७ 'अवधानं समाधानं प्रणिधानं तथैव च' (४४) ( = शरीरिन् । ६ पु), 'प्राणी' के ६ नाम हैं ।
जातिः (स्त्री), जातम्, सामान्यम् (१ न), 'जाति' के ३ नाम हैं। ('जैसे-गोरव, ब्राह्मणव, घटस्व, .....')॥
२ व्यक्तिः, पृथगात्मता (२ स्त्री), 'व्यक्ति के २ नाम हैं। ('जैसेगौ, मनुष्य, राम, श्याम,....")॥
३ चित्तम्, चेतः (= चेतस्), हृदयम, स्वान्तम्, हृत् (= हृद्), मानसम्, मनः ( = मनस् । ७ न ), 'मन या चित्त' के ७ नाम हैं ।
इति कालवर्गः ॥ ४॥
५. अथ धीवर्गः ॥ ४ बुद्धिः, मनीषा, विषणा, धीः, प्रज्ञा, शेमुवो, मतिः, प्रेक्षा, उपलब्धिः, चित् (= चिद्), संवित् ( =संविद्), प्रतिपत् ( = प्रतिपद् ), ज्ञप्तिः, चेतना (१४ स्त्री), 'बुद्धि' के १४ नाम हैं। ५ मेधा (स्त्री), 'धारणा शक्तिवाती बुद्धि' का । नाम है ॥
संकल्पः (५), 'संकल्प, मानसिक कर्म' का । नाम है ॥ ७ [अवधामम्, समाधानम् , प्रणिधानम् (३), 'समाधान के माम है ]॥
• 'साये मुखिषमस्यैते पाया, वैशेषिकादौ तु चतुर्दशापि प्रत्याशी . स्वा०॥
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धीवर्ग: ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ चित्ताभोगो मनस्कार२श्चर्चा सडया विचारणा ॥ २ ॥ ३ 'विमर्शो भावना चैव वासना च निगद्यते' (४५) ४ अध्याहारस्तर्क ऊहो ५ विचिकित्सा तु संशयः ।
सन्देहद्वापरौ ६ चाथ समौ निर्णयनिश्चयौ ॥ ३ ॥ ७ मिथ्याष्टिनास्तिकता ८ व्यापादो द्रोहचिन्तनम् । ९ समौ सिद्धान्तराद्धान्तौ १० भ्रान्तिर्मिथ्यामतिभ्रंमः॥४॥ ११ संविदागूः प्रतिज्ञानं नियमाश्रवसंश्रवाः ।
, चित्ताभोगः, मनस्कारः ( २ पु ), 'सुखादिमें मनके लगे रहने के २ नाम हैं।
२ चर्चा, सङ्ख्या, विचारणा (३ स्त्री), 'प्रमाणोके द्वारा किसी विषयके विचार करने के ३ नाम हैं॥ __३ [विमर्शः (पु) भावना, वासना (२ स्त्री), 'बीती हुई बात मादिके संस्कार' के ३ नाम हैं ] ।
४ अध्याहारः, तर्कः, ऊहः (३ पु), 'तर्क' के ३ नाम हैं ।
५ विचिकित्सा ( स्त्री ), संशयः, सन्देहः, द्वापरः (३ पु), 'सन्देह के ४ नाम हैं ।
६ निर्णयः, निश्चयः (२ पु), 'निश्चय के २ नाम हैं ॥
७ मिथ्यादृष्टिः, नास्तिकता ( २ खी), 'नास्तिकपना' के २ नाम हैं। ('ईश्वर या परलोक नहीं हैं, ऐसे ज्ञानको 'नास्तिकपना' कहते हैं)॥
८ व्यापादः (पु), द्रोहचिन्तनम् (न), 'किसीसे द्रोह करनेका विचार करने के २ नाम हैं ।
९ सिद्धान्तः, राद्धान्तः (२ पु), 'सिद्धान्त' के २ नाम हैं। ('वाद. विवादके द्वारा किसी विषयको निश्चय करने या अपने अटल मतको सिद्धान्त' कहते हैं)॥
१. भ्रान्तिः, मिथ्यामतिः ( २ स्त्री), भ्रमः (पु), 'भ्रम' के ३ नाम हैं। ('जैसे-शुक्किमें रजतका, रस्सी में सर्पका ज्ञान होना 'भ्रम' है)॥
संवित् (= संविद् ), आगूः (= आगुर् , 'मागू, आगुरो, भागुर!" ऐसे रूप होते हैं। अथवा-मागू, - भागू, 'मागू, भाग्वी, भाग्या' इत्यादि Jain E n ternational
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अमरकोषः
[ प्रथमकाण्डे
१ अङ्गीकाराभ्युपगमप्रतिश्रवसमाधयः २ मोक्षे धीर्शान३मन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः । ४ मुक्तिः कैवल्यनिर्वाणश्रेयोनिःश्रेयसामृतम् ॥६॥
मोक्षोऽपवर्गोऽ५थाज्ञानमविद्याऽहम्मतिः स्त्रियाम् । ६ रूपं शब्दो गन्धरसस्पर्शाश्व विषया अमी ॥ ७॥
गोचरा इन्द्रियार्थाश्च ७ हृषीकं विषयीन्द्रियम् । ८ कर्मेन्द्रियं तु पाय्वादि'खलपू' शब्दके समान रूप होते हैं। (२ स्त्री), प्रतिज्ञानम् (न), नियमा, आश्रवः, संश्रवः (३ पु), 'प्रतिज्ञा' के ६ नाम हैं ।
१ अङ्गीकार: (+ स्वीकारः ), अभ्युपगमः, प्रतिश्रवः, समाधिः (पु), 'स्वीकार करने के नाम हैं।
२ ज्ञानम् (न), 'मोक्ष-विषयक बुद्धि' का । नाम है ॥
३ विज्ञानम् (न), 'शिल्प (कारीगरी), अथवा शास्त्रविषयक बुद्धि' का १ नाम है । (मुकुटने 'मोक्ष' इसको निमित्त सप्तमी मानकर मोक्षनिमित्तक शिरुप शास्त्र विषयक बुद्धिको 'ज्ञान' तथा अन्यनिमित्तक शिल्प-शास्त्रविषयक बुद्धिको 'विक्षान' अर्थ किया है)॥
४ मुक्तिः (स्त्री), कैवल्यम् , निर्वाणम्, श्रेयः (= श्रेयस् ), निःश्रेयसम्, अमृतम् (५ न), मोक्षः, अपवर्गः (२३), 'मोक्ष' के ८ नाम हैं।
५ अज्ञानम् (न), अविद्या, महम्मतिः (२ वी), 'अचान'के ३ नाम हैं ।
५ रूपम् (न), शब्दः, गन्धः, रसः, स्पर्शः (पु), ये ५ नेत्रादि एक-एक इन्द्रिय के एक-एक विषय के नाम हैं। ('नेत्रका विषय 'रूप' बिह्वा का विषय 'रस' नासिकाका विषय 'गन्ध' कानका विषय 'शब्द' और स्वचा अर्थात् चमड़े का विषय 'स्पर्श है। इन्हींके गोचरः, विषयः, इन्द्रियार्थः ( पु), ये ३ सामान्य नाम हैं।
हृषीकम्, विषयि (= विषयिन्), इन्द्रियम् (३), "इन्द्रियों' के नाम हैं। ('कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय भेदसे इन्द्रिय दो प्रकारके हैं। जिनका विवरण आगे किया जा रहा है')॥
८ कर्मेन्द्रियम् (न), 'काम करनेवाली इन्द्रियों का नाम है। ('पायु मर्थात् गुदा , उपस्थ अर्थात् भग या लिझ२, हाथ ३, पैर ४ और का५कर्मेन्द्रिय अर्थात काम करनेवाली इन्द्रियां हैं। 'मलस्याग करना,
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धीवर्गः ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
-१ मनोनेत्रादि धीन्द्रियम् ॥ ८॥ २ तुयरस्तु कषायोऽनी ३ मधुरो लवणः कटुः ।
तिक्तोऽब्लश्व रसाः पुंसि४ तद्वत्सु षडमी त्रिषु ॥९॥ ५ विमोत्थे परिमलो गन्धे जनमनोहरे
भोग करना, ग्रहण करना, चलना और बोलना' इनमें से 1-1 नाम क्रमशः एक-एक इन्द्रियका' है)
१ धीन्द्रियम् (न ।+ ज्ञानेन्द्रियम् ), 'ज्ञानेन्द्रिय का , नाम हैं। ('मन , कान , नेत्र ३, जीभ ४, स्वचा ५ और नाक ६, ये ६ ज्ञानेन्द्रिय अर्थात् ज्ञान करनेवाली इन्द्रियां हैं। 'जानना, सुनना, देखना, स्वाद लेना ,स्पर्श ज्ञान करना और सूंघना' इनमें से 1-1 काम क्रमशः 1-1 इन्द्रियका है)।
२ सुवरः (+तूवरः, कुवरः । पु) कषायः, (पुन) 'कषाय' कलाव' के २ नाम हैं । (हरें में 'कषाय' रस होता है)॥
१ मधुरः, लवणः, कटुः, तिकः, अम्लः (+ब्ल:, भरकः । ५ पु), 'मीठा, खारा, कडुआ, तीता और खट्टा' ये पांच और पहिला कषाय' ऐसे ६ रस हैं। ('इनमें पानी आदि 'मीठा', नमक, सोरा मादि 'बारा मिर्च भादि 'कडुआ' नीम, चिरैता आदि 'तीता' और आम, नींबू, इमली भादि बट्टे' होते हैं । रसः (पु) हैं')॥ __४ ये 'तुवर, मधुर' आदि ७ नाम स्वतः रसवाचक रहनेपर पुहिक है; किन्तु द्रव्यवाचक अर्थात् रसवाले पदार्थ के अर्थ में प्रयुक्त होनेपर निलिम हैं। जैसे-मधुरं जलम, मधुरा भापः, मधुरो गुडः,........")॥
५ परिमलः (पु), 'किसी पदार्थके संघर्ष अर्थात् रगड़से
१. तथा च कामन्दकः -- 'पायपस्थे पाणिपादौ वाक्चेतीन्द्रियसंग्रहः।
उत्सर्ग मानन्दादानगस्यालापाश्च तस्किरणः॥१॥ इति ॥ २. सयुक्तम्-'मनः कर्णस्तथा नेत्रं रसना च स्वचा मह।
नासिका चेति पट तानि धीन्द्रियाणि प्रचक्षते ॥१॥ ति।
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अमरकोषः
[प्रथमकाते१ आमोदः सोऽतिनिहरी २ वाच्यलिङ्गत्वमागुणात् ॥१०॥ ३ समाकर्षी तु निर्हारी ४ सुरभिर्घाण तर्पणः ।
इष्टगन्धः सुगन्धिः स्या५दामोदी मुखवासनः ॥ ११ ॥ ६ पूतिगन्धिस्तु दुर्गन्धो ७ विन स्यादामगन्धि यत् । ८ शुक्लशुभ्रशुचिश्वेतविशदश्येत पाण्डराः ॥१२॥
अवदातः सितो गोरो वलक्षो धवलोऽर्जुनः ।
हरिणः पाण्डुरः पाण्डु:-- उत्पन्न जनमनोहर गन्धविशेष या बकुलके गन्ध' का १ नाम है ।
'आमोदः (पु), 'अत्यन्त बढ़ियां गन्ध या कस्तूरीके गन्ध' का १ नाम है ॥
२ यहां से 'गुणे शुक्लादयः पुंसि (१।५।१७) के पूर्वतक सब शब्द त्रिलिङ्ग हैं।
३ समाकर्षी (= समाकर्षिन् ), निर्हारी (= निहारिन् । २ त्रि), 'दूरस्थ सुगन्धित पदार्थ' के २ नाम हैं ।
४ 'सुरभिः, घ्राणतर्पणः, इष्टगन्धः, सुगन्धिः (४ त्रि), 'सुगन्धि' के ५ नाम हैं (इनमें 'सुरमि' नाम 'चम्पक के गन्ध' का भी है)।
५ आमोदी (= आमोदिन् ), मुखवासनः (भागुरि म. भगुरुवासनः । २ त्रि), 'मुखको सुगन्धित करनेवाले पान आदि' के २ नाम हैं । ('मुखवासनः' नाम 'कपूरके गन्ध' का भी है' )॥
६ पूतिगन्धिः, दुर्गन्धः ( २ त्रि ), 'दुर्गन्धि, बदबू' के २ नाम हैं ॥ ७ विनम् (त्रि ), 'विना पके हुए मांस आदिकेगन्ध' का नाम है।
८ शुक्ल:, शुभ्रः, शुचिः, श्वेतः, विशदः, श्येतः, पाण्डरः, अवदातः, सितः, गौरः, वलक्षः ( + अवलक्षः), धवलः, अर्जुनः, हरिणः, पाण्डुस, पाण्डः (१६ त्रि), 'सफेद, उजले के १६ नाम हैं । ('मतान्तरसे 'शुक्ल' आदि १३ नाम 'सफेद' के हैं और मन्तवाले 'हरिणः' भादि ३ नाम 'पाण्डुर' अर्थात् 'कुछ पीलापन लिये हुए सफेद' के हैं)॥
१-२.३. 'कस्तूरिकायामामोदः कर्पूरे मुखवासनः ।
बकुळे स्यात्परिमलश्चम्पके सुरभिस्तथा ॥ १॥ इति ॥
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धीवाः ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ ईषत्पाण्डुस्तु धूसरः॥ १३॥ २ कृष्णे नीलासितश्यामकालश्यामलमेचकाः । ३ पीतो गौरो दरिद्राभः ४ पालाशो हरितो हरित् ।। १४॥ ५ लोहितो रोहितो रक्तः ६ शोणः कोकनदच्छविः । ७ अव्यक्तरागस्वरुणः ८ श्वेतरक्तस्तु पाटलः ।। १५॥ ९ श्यावः श्यात्कपिशो १० धूम्रधूमलौ कृष्णलोहिते। ११ कडारः कपिलः पिङ्गपिशङ्गो कद्रुपिङ्गलौ ॥१६॥ १२ चित्रं किर्मीरकल्माषशबले ताश्च कबुरे । 1 ईषस्पाण्डः, धूसरः (२ त्रि), 'धूसर' के २ नाम हैं।
२ कृष्णः, नीलः, असितः, श्यामः, कालः, श्यामलः, मेचकः ( ७ त्रि), 'काले' के ७ नाम हैं।
३ पोतः, गौरः, हरिद्वाभः (३), 'पीले' के ३ नाम हैं।
४ पालाशः + पलाशः), हरितः, हरित् ( ३ नि ), 'हरे के ३ नाम हैं ॥
५ लोहितः रोहितः, रक्तः (३ त्रि), 'लाल' के ३ नाम हैं ॥ ६ शोण: (त्रि.), 'लाल कमल के समान सुर्ख लाल' का । नाम है। ७ अरुणः (त्रि), 'गुलाबी' का नाम हैं । ८ पाटलः (नि), 'सफेदी लिये हुए लाल रंग' का । नाम है । ९ श्यावः, कपिशः (२ त्रि), 'फीके रंग' के २ नाम हैं। १. धूम्रः, धूमल:, कृष्णलोहित, (३ त्रि), 'कालापनसे युक्त लाल'के ३ नाम हैं। ___११ कडारः, कपिलः, पिङ्गः, पिशङ्गः, कद्रुः, पिङ्गलः ( त्रि), 'भूरे के ६ नाम हैं।
१२ चित्रम् (भा० दी० म० नपुं० ), किर्मीरः ( + कर्मीरः), कल्माषः, शबलः, एतः, कर्बुरः (६ त्रि), 'चितकबरे' के ६ नाम हैं। ('कौन २ रंग कैसे होते हैं, यह बात टिप्पणीमें स्पष्ट है' 8)॥
श्वेतादिरागाणां व्यक्तं विवरणं शब्दार्णवे प्रोक्तम् । तथथा'श्वेतस्तु समपीतोऽसौ रक्ततरजपारुचिः। पलवस्तु सितः श्यामः कन्दलीकामोपमः ॥१॥
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे१ गुणे शुक्लादयः पुंसि गुणिलिङ्गास्तु तद्वति ॥ १७॥
इति धीवर्गः ॥५॥
६. अथ शब्दादिवर्गः। २ बाह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती । ज्याहार उक्तिर्लपितं भाषितं वचनं वचः॥१॥
। इनमें से 'शुक्ल' आदि सब शब्द गुणवाचक रहनेपर पुंलिङ्ग ही होते हैं और गुणिवाचक होनेपर त्रिलिङ्ग होते हैं (जैसे-शुक्लः पटा, शुक्ला शाटी, शुक्लं वसाम्,.........))॥
इति धीवर्गः ॥ ५॥
६. अथ शब्दादिवर्गः। २ ब्राझी ( +गौः, - गो), भारती, भाषा, गोः (गिर। + गिरा), वाक् ( = वाच्), वाणी ( + वाणिः ), सरस्वती, स्याहार(पु), उक्तिः (शेष ८ वी), लपितम्, भाषितम्, वचनम् , वचः ( = वचस् । ४ न), 'वचन' अर्थात् 'बोलने' के १३ नाम हैं। (इनमें से 'ब्राह्मी' से 'सरस्वती' तक
शब्द 'वचनके अधिष्ठात्री देवी के भी नाम हैं)॥
अर्जुनस्तु सितः कृष्णलेशवान् कुमुदच्छविः । पाण्डस्तु पीतमागार्द्धः केतकीधूलिसनिमः ॥२॥ धूसरस्तु सितः पोतलेशवान् बकुलच्छविः । मेचका कृष्णनीलः स्यादतमीपुष्षसन्निभः ॥३॥ सितपीतहरिद्रतः कडारस्तृणवह्निवत् । अयं तद्रक्तपीताङ्गः अपिलो गोविभूषणः ॥४॥ हरितांशेऽधिकेऽसौ तु पिशनः पभधूलिवत् । पिशङ्गस्वासितावेशापिशो दीपशिखादिपु ।।५।।
पिङ्गलस्तु परिच्छायः पिङ्गे शुक्लाङ्गखण्डवत् ।' इति ।। १'बायी गौारती........" इति पाठान्तरम् ॥
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शब्दादिवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ अपभ्रंशोऽपशब्दः स्यारच्छास्त्रे शब्दस्तु वाचकः । ३ तिङ्सुबन्तचयो वाक्यं क्रिया वा कारकान्विता ॥२॥ ४ श्रुतिः स्त्री वेद आम्नायस्त्रयी ५ धर्मस्तु तद्विधिः।
१ अपभ्रंशः, अपशब्दः (२ पु) 'अपभ्रंश' अर्थात् 'व्याकरण शास्त्र नहीं सिद्ध होनेवाले गगरी, घड़ा, इत्यादि भ्रष्ट (असंस्कृत) शब्द' के २ नाम हैं ।।
२ शब्दः (पु), 'व्याकरण आदि शास्त्रोंमें जो वाचक हैं उनका नाम है । (जैसे-'ओत-प्रोत तन्तुओंका वाचक 'पट' शब्द है, कम्बुनीवादि. संस्थान विशिष्टका वाचक 'घट' शब्द है,.......... )॥
३ वाक्यम् (न), 'वाक्य' का १ नाम है । ('तिङन्त समुदाय ३, 'सुबन्त. समुदाय २, पद-समुदाय ३, मा कारकान्वित क्रिया ४, को 'वाक्य' कहते हैं । क्रमशः उदाहरण-1 तिङन्त-समुदाध जैसे-'पत्नति, भवति,........। २ सुबन्त समुदाय जैसे-'प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्,........'। ३ पद. समुदाय जैसे-'देवदत्तो गच्छति, मोदनं पति,.....'। ४ कारकान्वित क्रिया जैसे-'रावणं जहि निशितेन शरेण,.......)॥ ____४ श्रुतिः, वेदः, आम्नायः ( २ पु ), यी ( शेष २ स्त्री), 'वेद' के ४ नाम हैं ॥
५ धर्मः (पु । मुकुट म० "योधर्मः', पु.) 'धर्म' अर्थात् 'वेदोक यज्ञादि
१. 'ऋक , साम, यजुः' इति प्रत्येक वेदस्य पर्याय इत्युक्त्वा 'त्रयोधर्मः' इत्येक 'वेदविदितयागादिकर्मणः' पर्याय इत्युक्तम् , तत्र च त्रय्या धर्मस्त्रयोधर्मः, तया त्रय्या विधिविधी. यमानो यागादिरिति विग्रहः प्रदर्शितस्तच्चिन्त्यम् । 'विधा धर्मेण शोभते, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे (गी. १।१), धर्मान्नो वक्तुमर्हसि (मनु. १२)। ब्रहि धर्मानशेषतः (याश. स्मृ. १११), धर्माद निच केवलात् (पा. सू. ५।४।१२४), इत्याद्यमियुक्तोक्तवचनेषु 'धर्म'शब्दस्यैव दर्शनात् । 'भीमः भीमसेनः, सत्या, भामा, सत्यभामा', इतिवत्पदैकदेशस्यात्रापि प्रयोग इति तु नाशयम् । लोके भीमादीनां पृथक पृथक् प्रयोगदर्शनेनास्य 'त्रयोधर्म'शब्दस्य क्वापि तथाऽदर्शनेन वैषम्यात् । 'त्रयीधर्म'शब्दस्य प्रयोग उपलब्धे तु प्रतिपाद्यप्रतिपादकमावरूपं सम्बन्धं मत्वा पष्ठीतत्पुरुषसमासो बोध्यः। ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यानां द्विजत्वेऽपि ब्राह्मणस्यापि द्विजत्ववदिहापि सामान्यविशेषरूपेणोमयसम्भवात् ... 'वेदास्त्रयस्त्रयो ( १६३६ ) इत्यनेन पौनरुक्त्यं नाशङ्कथम् । ....."धर्ममस्त्रियाम् (१।४।२४) इत्यनेनापि न पौनरुक्त्यम् । तत्र धर्मपर्यायाणामत्र च धर्मस्वरूपस्य धर्मप्रमाणस्य चामिधानेनादोषात । अधिकन्तु परत्र द्रष्टव्यम् ।।
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५६
अमरकोषः।
[ प्रथमकाण्डे१ स्त्रियामृक्सामयजुषी इति वेदास्त्रयस्त्रयी ।। ३ ।। २ शिक्षेत्यादि श्रुतेरजमोङ्कारप्रणवौ समो। ४ इतिहासः पुरावृत्त५मुदात्ताधास्त्रयः स्वराः ॥ ४॥ ६ आन्वीक्षिकी
कर्म'का । नाम है। ('स्मृतियों के भी वेदमूलक होनेसे स्मृत्युक्त कर्म भी 'धर्म' ही हैं')॥
१ ऋक ( = ऋच, स्त्री), साम (= सामन्), यजुः (= यजुस । २ न), अर्थात् 'ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद' थे ३ 'वेद' हैं, इन तीनों का 'प्रयी' ( स्त्री), यह ! नाम है।
२ शिक्षा (स्त्री), आदि ( 'आदि शब्दसे 'कल्प १, व्याकरण २, निरुक्त ३, ज्योतिष ४ और छन्दः ५, इनका संग्रह है') को 'वेदाङ्गम्' (न) 'वेदाङ्ग' अर्थात् 'वेदोंका अङ्ग' कहते हैं ।
३ ओङ्कारः ( + ॐकारः ), प्रणवः, (२ पु), 'वेदारम्भ' अर्थात् 'ओंकार' के २ नाम हैं ।
४ इतिहासः (पु), 'पुरावृत्तम् (न), 'इतिहास' के २ नाम हैं। ('पूर्व. कालमें बीती हुई कथाको 'इतिहास' कहते हैं, जैसे-'महाभारत,......')॥
५ उदात्तः (पु). आदि ('आदि पदसे नुदात्त और स्वरित' का संग्रह है'), ३ को 'स्वरः२ (पु), अर्थात् 'स्वर' कहते हैं ।
६ आन्वीक्षिकी (स्त्री), 'गौतम आदिकी रचित तर्कविद्या' का . नाम है ॥
१. तदुक्तम् -'शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं ज्योतिषां गतिः।
छन्दोविचितिरित्येष षडङ्गो वेद उच्यते ॥ १॥ इति ॥ २. तदुक्तम्-'उदात्तश्चानुदात्तश्च स्वरितश्च स्वरास्त्रयः ।
चतुर्थः प्रचितो नोको यतोऽसौ छान्दसः स्मृतः ॥ १॥इति ।। ३. भान्वीक्षिक्यादयश्चतस्रो विद्याः कामन्दके
'अन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्च शाश्वती ।
विषा घेताश्चतस्रस्तु लोकसंस्थितिहेतवः ॥१॥ इति ।।
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शब्दादिवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः
१दण्डनीतिस्तर्कविद्याऽर्थशास्त्रयोः । २ आख्यायिकोपलब्धार्था ३ पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥५॥
, दण्डनीतिः (स्त्री), 'वृहस्पति आदिके रचित अर्थशास्त्र' का नाम है।
२ आख्यायिका, उपलब्धार्था ( २ स्त्री), 'आख्यायिका' के २ नाम हैं । ('अनुभूत विषयको प्रतिपादन करनेवाले अन्यको 'आख्यायिका'' कहते हैं, हैं, जैसे- 'कादम्बरी, वासवदत्ता......')॥
३ पुराणम् (न), 'पुराण' अर्थात् पांच लक्षणोंसे युक्त ग्रंथ' का १ नाम है। ('सर्ग , प्रतिसर्ग अर्थात् संहार २, वंश ३, मन्वन्तर ४ और वंशवर्णन ५, इन पांच लक्षणों से युक्त प्रन्थको 'पुराण' कहते हैं । 'पद्मपुराण १, ब्रह्मपुराण ३, शिवपुराण ४, देवीभागवत पुराण ५, नारदपुराण ६, मार्कण्डेयपुराण ७, अग्निपुराण ८, भविष्यपुराण ९, ब्रह्मवैवर्तपुराण १०, लिङ्गपुराण 11, वाराहपुराण १२, स्कन्दपुराण १३, वामनपुराण १४, कूर्मपुराण १५, मत्स्यपुराण १६ गरुडपुराण १७, और ब्रह्माण्डपुराण १८, ये १८ 'पुराण हैं' ) ॥
तासां प्रतिपाद्यविषयाश्च विशानादयस्तदाह
'आन्वीक्षिक्यां तु विज्ञानं धर्माधर्मों त्रयोस्थिती ।
अर्थानौँ तु वार्तायां दण्डनीत्यां नयानयौ ॥ १॥ इति ॥ १. 'आख्यायिका कथावस्यात्कवेर्वशादिकीर्तनम् ।
अस्यामन्यकवीनाञ्च वृत्तं पद्यं क्वचिस्वचित् ॥ १॥ कथांशानां व्यवच्छेद आश्वास इति बध्यते । आर्यावक्त्रापवक्त्राणां छन्दसा येन केनचित् ॥ २ ॥
अन्यापदेशेनाश्वासमुखे भावार्थसूचनम् ॥ इति ।। सा द० ६।३३४॥ २. 'सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तरराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ।।१।।
इति अमि० चिन्ता० 'हैम' २।१६६ ॥ प्रतिसर्गः संहारोऽन्यत्स्पष्टम् । कचित् 'वंशानुचरितं चैवेति तृतीयपादस्थाने 'भूम्यादेश्चैव संस्थानम् इति पाठभेदः।
३. तदुक्तं विष्णुपुराणे
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[प्रथमकाण्डे
अमरकोषः। १ प्रबन्धकल्पना कथा २ प्रवहिका प्रहेलिका।
, कथा (स्त्री), 'कथा' अर्थात् "वाक्य विस्तारकी कल्पनावाले प्रन्धका १ नाम है । ( 'जैसे-'रामायण, कथासरित्सागर, बृहत्कथामञ्जरी,.....")॥
२ प्रवह्निका ( + प्रवाहिका, प्रवल्ही, प्रश्नदूती, विपादिका ), प्रहेलि. का (२ स्त्री), 'पहेली, बुझौवल' के २ नाम हैं । (संस्कृतकी पहेली जैसे'पानीयं पातुमिच्छामि स्वत्तः कमललोचने । यदि दास्यसि नेच्छामि न दास्यसि पिबाम्यहम्' । इस श्लोकमें दोनों 'दास्यसि' पदको दानार्थक मानकर 'दोगी' यह अर्थ करनेपर सन्देह होता है और एक 'दास्यसि' पदको उक्कार्थक तथा दूसरे 'दास्यसि' पदका 'दासी हो' यह अर्थ माननेपर संदेह दूर हो जाता है। हिन्दीकी पहेली जैसे-'सारी लुगड़ी जल गई, जला न एको तागा। घरके लड़के फंस गये, घर खिड़कीसे भागा'। इस पद्यमें 'समूची लुगड़ी अर्थात् कन्धाके जाने पर एक तागाका भी नहीं जलना, चैतन्य गृहवासियों का फंस जाना और अचैतन्य घरका भाग जाना, ये सब सन्देह उत्पन्न होते हैं; किन्तु 'जल गया' इस शब्दका 'जलमें गया' ऐसा अर्थ करनेपर एक तागाका भी नहीं जलना असन्देहार्थक है, तथा जाल में चैतन्य मछलियोंका फँस जाना और जालके छिवरूपो खिड़कीसे पानोरूपी मछलियों के घरका भाग जाना ऐसा अर्थ करने से कोई सन्देह नहीं होता है, इसी तरह प्रत्येक भाषामें 'पहेली' होती है)॥
अष्टादश पुराणानि पुराणशाः प्रचक्षते । पाम ब्राह्म वैष्णवञ्च शैवं भागवतं तथा ॥१॥ तथाऽन्यन्नारदोयश्च मार्कण्डेय सप्तमम् आग्नेयमष्टमं चैव भविष्य नवमं स्मृतम् ॥२॥ दशमं ब्रह्मवैवर्त लैङ्गमेकादशं तथा। वाराह द्वादशश्चैव स्कान्दश्चात्र प्रयोदशम् ।।३।। चतुर्दशं वामनकं कोर्म पञ्चदशं स्मृतम् । मात्स्यन्त्र गारुड चेव ब्रह्माण्डञ्च ततः परम् ।।४।' इति।।
प्रत्येकपुराणस्य श्लोकसङ्ख्याविषयादिज्ञानार्थ विष्णुपुराणस्य त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायो द्रष्टव्य इति । १. तदुकम्-'व्यक्तीकृत्य कमप्यर्थं स्वरूपार्थस्य गोपनम् ।
यत्र बाधार्थसम्बद्धं कथ्यते सा प्रहेलिका ॥१॥ इति ।।
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शब्दादिवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ स्मृतिस्तु धर्मसंहिता २ समाहृतिस्तु संग्रहः ॥६॥ ३ समस्या तु समासा ४ किंवदन्ती जनश्रुतिः । ५ वार्ता प्रवृत्तिवृत्तान्त उदन्तः स्याद६थालयः ॥७॥
. स्मृतिः (स्त्री), 'स्मृति शास्त्र' अर्थात् 'मनु आदिके बनाये हुए धर्म-प्रन्य' का । नाम है। ( मनुस्मृति आदि २० या इससे भी अधिक स्मृतियां हैं)॥ ___ २ समाहृतिः (स्त्री) संग्रह (पु), 'संग्रह ग्रन्थ' के २ नाम हैं। ('जैसे-'हितोपदेश, पञ्चतन्त्र,......')॥ __३ समस्या, समासार्था ( + असमासार्था' । २ स्त्री), 'समस्या' के २ नाम हैं । ('पथपूर्ति के लिये पद्यका थोड़ा अंश जो कहा जाय, उसे 'समस्या' कहते हैं, जैसे-'टटटटटटटटटटंटः' यह थोड़ा पर्याश कहा गया है, इसे पूरा करनेपर 'राज्याभिषेके मदविलाया हस्तच्युतो हेमघटो युवस्याः। सोपानमार्गेषु करोति शब्दं टटटटटटटटटट:' यह पद्य होता है। यह भी प्रत्येक भाषामें होती है)॥
४ किंवदन्ती, जनश्रुतिः (२ स्त्री), लोगों में बातचीतके चलने, होरा हो जाने, लोकनिन्दा या लोकोक्ति' के १ नाम है॥
५ वार्ता, प्रवृत्तिः (२ वी). वृत्तान्तः, उदन्तः (२ पु), 'बात' के ४ नाम हैं।
६ आह्वयः (पु), आस्था, आह्वा (२त्री), अभिधानम् , नामधेयम् , १. 'समस्या त्वसमासार्था'........" इति पाठान्तरम् ।।
२. मनुर्यमो वसिष्ठोऽत्रिदक्षो विष्णुस्तथाऽङ्गिराः। उशना वाक्पतियास आपस्तम्बोऽथ गौतमः॥१॥ कात्यायनो नारदश्च याज्ञवल्क्यः पराशरः। संवतश्चैव शसश्च हारीतो लिखितस्तथा ॥ २॥ इति ॥
एता विंशतिराख्याता धर्मशास्त्रप्रवर्तकाः। क्वचित् 'नारदश्च' इत्यस्य स्थाने 'शातातपश्च' इति पाठः । 'मन्वादिस्मृतयो यास्तु पत्रिशत्परिकीर्तिताः' इति भविष्यपुराणे गुई प्रति विष्णूक्तेस्तासो षट्त्रिंशत्सङ्ख्या वा बोध्या ।। ___३. 'विस्तरेणोपदिष्टानामांनां सूत्रमाष्ययोः। निबन्धो यः समासेन संग्रहं तं विदुषाः ॥१॥इति ।
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डेआख्याह्ने अभिधानं च नामधेयं च नाम च । १ हूतिराकारणावानं २ सहूतिर्बहुभिः कृता ॥ ८॥ ३ विवादो व्यवहारः स्यादुपन्यासस्तु वाङमुखम् । ५ उपोद्धात उदाहारः ६शपनं शपथः पुमान् ।। ९ ॥ ७ प्रश्नोऽनुयोगः प्रच्छा च८ प्रतिवाक्योत्तरे समे। ९ मिथ्याभियोगोऽभ्याख्यान१०मथ मिथ्याभिशंसनम् ।। १० ।।
नाम ( = नामन् । ३ न । + संज्ञा, स्त्री), 'नाम' के ६ नाम हैं ।
हूतिः, आकारणा ( २ स्त्री), आह्वानम् (न), 'बुलाने या पुकारने के ३ नाम हैं।
२ सहूतिः (स्त्री), 'इकट्ठा होकर बहुत लोगोंके पुकारने' का १ नाम है ॥
३ विवादः, व्यवहारः (१९), 'विवाद या झगड़ा' अर्थात् 'लेन, देन इत्यादि किसी विरुद्ध विषयों को लेकर परस्पर विरुद्ध भाषण करने या मुकदमे बाजी' के २ नाम हैं।
४ सपन्यासः (पु), वाहमुखम् (क), बातको प्रारम्भ करने के २ नाम हैं।
५. उपोद्धातः, उदाहारः (२ पु), 'कही जानेवाली बातकी सिद्धिके लिये भूमिका बाँधने, या दृष्टान्त आदि देने के २ नाम हैं ।
६ शपनम् (न), शपथः (पु) 'शपथ कसम' के २ नाम हैं । ७ प्रश्नः, अनुयोगः, (पु), पृच्छा (स्त्री), 'प्रश्न' के २ नाम हैं । ८ प्रति वाक्यम् , उत्तरम् (२ न ), 'उत्तर, जबाब' के २ नाम हैं ।
९ मिथ्याभियोगः (पु), अभ्याख्यानम् (न), 'किसीपर झूठा आक्षेप करने' के २ नाम हैं ॥ (जैसे-'कुछ नहीं लिये हुए किसी आदमीपर तुमने अमुक चीज ली है, इत्यादि आक्षेप करना,.........")॥
१० मिथ्याभिशंसनम् (न), अभिशापः (पु। + शापः ), 'किसीके ऊपर पापविषयक झूठा सन्देह करने के २ नाम हैं। ('जैसे-किसीने परदारागमन या मद्यपान इत्यादि नहीं किया है, किन्तु उसपर परदारागमन था मद्यपान आदि करनेका सन्देह करना,..............")
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शब्दादिवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
अभिशापः १ प्रणादस्तु शब्दः स्यादनुरागजः । २ 'यशः कीर्तिः समक्षा च ३ स्तवः स्तोत्रं नुतिः स्तुतिः ॥ ११ ॥ ४ आनेडितं द्विस्त्रिरुक्त५मुच्चेपुष्टं तु घोषणा । ७ काकुः स्त्रियां विकारो यः शोकभीत्यादिभिर्वनेः ॥ १२ ॥ ७ अवर्णाक्षेपनिर्वादपरीवादापवादवत्
उपक्रोशो जुगुप्सा च कुत्सा निन्दा च गर्हणे ॥ १३ ॥ ८ पारुष्यमतिवादः स्याद्
१ प्रशादः (पु), 'गुणके प्रेमसे कहे हुए शब्द' अर्थात् 'वाहवाही या शाबासी देने का २ नाम है ॥ __ २ यशः (= यशस , न ), कीर्तिः, समज्ञा ( + समाज्ञा, समज्या । ३ स्त्री), 'कीर्ति यश' के ३ नाम हैं । ( जीवित व्यक्तिकी ख्यातिको 'यश' तथा मृत व्यक्तिको ख्यातिको 'कीर्ति' कहते हैं, ऐसा मनुस्मृत्तिके टीकाकार कुलूक भट्टने कहा है।
३ स्तवः (पु), स्तोत्रम् ( न ), नुतिः, स्तुतिः ( + प्रशंसा । २ स्नी), 'स्तुति' के ४ नाम हैं।
४ आनेडितम् (न), 'एक ही शब्दको दो या तीन बार कहने' का १ नाम है । (जैसे-साँप साँप दौड़ो दौडो,.....")॥
५ उच्चैथुष्टम ( न ), घोषणा (स्त्री), ऊंचे स्वरसे घोषणा कहने के २ नाम हैं।
६ काकुः (स्त्री), 'शोक डर या काम इत्यादिके कारण विकृत ध्वनिसे बोलने का १ नाम हैं। 'जैसे-उपकृतं बहु तत्र किमुच्यते'......" अर्थात् किसी बुराई करनेवालेसे-'आपने हमारा बड़ा उपकार किया' इत्यादि वचन कहना.....) __७ भवर्णः, आक्षेपः, निर्वादः, परीवादः (+ परिवादः), अपवादा (+अ. ववादः), उपक्रोशः (६ पु), जुगुप्सा, कुस्सा, निन्दा (३ स्त्री), गहणम् (न), 'निन्दा, शिकायत' के १० नाम हैं ।
८ पारुष्यम् (न), अतिवादः (पु), 'कटु वचन या कड़ाई से बोलने के २ नाम हैं ।
१. 'यशः कीर्तिः समज्या च... ...' इति पाठान्तरम् । २. एतदर्थ मनुस्मृतेमन्वर्थमुक्तावली ( ८।१२७) टीका द्रष्टव्या।
३. तस्य परमानेडितम् (पा० सू० ८।१२) इत्यनेनेत्यवधेयम् ॥
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डे
-१ भर्त्सनं त्वपकारगीः। २ यः सनिन्द उपालम्भस्तत्र स्थात्परिभाषणम् ॥१४॥ ३ तत्र स्वाक्षारणा यः स्वादाक्रोशो मैथुनं प्रति । ४ स्यादाभाषणमालापः ५ प्रलापोऽनर्थकं वचः ॥ १५॥ ६ अनुलापो मुहुर्भाषा ७ विलापः परिदेवनम् । ८ विप्रलापो विरोधोक्तिः ९ संलापो भाषणं मिथः ॥ १६ ॥ १० सुप्रलापः सुषचन११मपलापस्तु निह्नवः ।
भर्सनम् (न), अपकारगीः ( = अपकारगिर , स्त्री ), 'फटकारने के २ माम हैं।
२ परिभाषणम् (न), 'शिकायत करते हुए दोषको कहने का १ नाम है ॥
३ साक्षारणा (स्त्री। +न), 'परपुरुषगमन या परस्त्री-गमनविषयक दोष लगाने का नाम है ॥ ____४ आभाषणम् (न), आलापः (पु), 'प्रेमसे बात करने के २ नाम हैं।
५ प्रलापः (पु), 'प्रलाप करने, बड़षडाने' का १ नाम है ॥
६ अनुलापः (पु), मुहुर्भाषा (स्त्री), 'एक ही विषयको बार-बार कहने के ३ नाम हैं।
७ विलापः (पु। + विलपनम्, न), परिदेवनम् (न । +स्त्री), रोते हुए बोलने के नाम हैं।
८ विप्रलापः (पु), विरोधोक्तिः (स्त्री), 'परस्पर विरुद्ध बात कहने' के २ नाम हैं।
९संलापः (पु), 'परस्परमें बात करने का १ नाम है। ('मालाप' एक भादमी भी कर सकता है; किन्तु 'संलाप' एक आदमी नहीं कर सकता, यही आलाप और संलापमें भेद है')॥
१० सुप्रलापः (पु), सुवचनम् (न), 'मीठे वचन' के २ नाम हैं ।
"अपलापः, निहवः (पु), 'असल विषयको छिपानेके लिये मुकर जाने के नाम है।
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शब्दादिवर्गः ६ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ " चोद्यमाक्षेपाभियोगौ २ शापाकोशौ दुरेषणा (४६) ३ अस्त्री चाटु चटु ४ श्लाघा प्रेम्णा मिथ्याविकत्थनम्' (४७) ५ सन्देशवाग्वाचिकं स्यादद्वाग्भेदास्तु त्रिषूत्तरे ।। १७ ।। ७ रुषती वागकल्याणी ८ स्यात्कल्या तु शुभात्मिका । ९ अत्यर्थमधुरं सान्त्वं
६३
१ [ चोथम् (न), आक्षेपः, अभियोगः (२५), 'आक्षेप' के २ नाम हैं ]
॥
२ [ शापः आक्रोशः ( २ पु ), दुरेषणा (स्त्री), 'शाप देने' के ३ नाम हैं ] ॥
३ [ चाटु, चटु (२ पुन), 'मुंहदेखी बात कहने, चापलूसी करने' के २ नाम हैं ] ॥
४ [ श्लाघा (स्त्री) 'प्रेमसे झूठी स्तुति करने' का १ नाम है ] ॥
५ सन्देशवाक् ( = सन्देशवाच्, स्त्री), वाचिक्रम् (न ) 'संदेश कहने ' के २ नाम हैं ॥
६ यहां से .
• त्रिषु तद्वति (१।६।२२) तक सब शब्द त्रिलिङ्ग हैं |
७ रुपती ( त्रि । + रुशती, उषती मु० म० । यह 'रुपती' स्त्रीलिङ्गका रूप है, पुंलिङ्गमें 'रुष' और नपुंसकलिङ्गमें 'रुवत्' रूप होता है । कहे जानेवाले शब्दों के भी तीनों लिङ्गमें भिच २ रूप होंगे, लेना चाहिये'), 'अशुभ वचन' का १ नाम है ॥
इसी तरह आगे उन्हें स्वयं समझ
८ कल्या (त्रि । + काश्या ), 'शुभ वचन' का १ नाम है ॥ ९ साम्यम् (त्रि ), 'अत्यन्त मधुर वचन' का १ नाम है ॥
१. 'चोद्यमाक्षेप
"विकत्थनम्' अयमंशः क्षी० स्वा० टीकायामुपलभ्यते ॥
२. 'उपती वागकख्याणी ....... इति मुकुटसम्मतं पाठान्तरम् । अत्र (रुपती) हिंखे. स्यर्थः, न तां वदेदुषतीं (गां) पापकोक्याम्, अत एव 'उषती 'ति असभ्यः पाठः' इति क्षो० स्वा० । 'मुकुटस्तु 'उषती 'ति पाठे 'उष दाहे' इत्यस्य शत्रन्तस्य 'उपती' इति रूपमाह, तन । तस्माच्छपि 'कर्तरि शपू' ( पा० सू० ३। १२६८ ) 'पुगन्तलघु - ( पा० सू० ७ ३८६ ) इति गुणस्य 'शश्यनोर्नित्यम्' ( पा० सू० ७ १/८१ ) इति नुमश्च प्रसङ्गाव' इति भा० दी० । तन्नेति भा० दी० प्रतीकमादाय 'गुणस्य संशापूर्वकत्वेन नुम आगमशासनरवेन वारितत्वेना किञ्चित्करमेतत् । पीयूषव्याख्यायामपि 'उपती' इति पाठ प्रदर्श्य 'रुशती' इत्येके ' इत्युक्तम्' इति शि० द० इत्युक्तम् ॥
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६४
अमरकोषः ।
-१ सङ्गतं हृदयङ्गमम् ॥ १८ ॥
सत्ये ऽ५थ
२ निष्ठुरं परुषं ३ ग्राम्यमश्लील ४ सूनृतं प्रिये । सङ्कलक्लिष्टे परस्परपराहते ॥ १९ ॥ त्वरितोदितम् । स्यादनर्थकम् ॥ २० ॥
निरस्तं
4
६ लुप्तवर्णपदं प्रस्तं
८ अम्बूकतं
सनिष्ठीव९मबद्धं
१० अनक्षरमवाच्यं स्या११दाइतं तु मृषार्थकम् ।
[ प्रथमकाण्डे
6
१ सङ्गतम् , हृदयङ्गमम् (२ त्रि), 'संगतियुक्त वचन, मौकेकी बात' के २ नाम है |
२ निष्ठुरम्, परु
(२ त्रि ), 'निष्ठुर वचन' के २ नाम हैं ॥
३ ग्राभ्यम्, अश्लीलम् (२ त्रि ), 'भाँड़ आदिके कहे हुए सभ्यताविरुद्ध वचन' के २ नाम हैं ॥
४ सूनृतम् (त्रि ), 'सत्य और प्रिय वचन' का १ नाम है ॥
५ सङ्कुलम्, विकष्टम्, परस्परपराहतम् (भा० दी० म० । ३ त्रि), 'विरु द्धार्थक या बेमौकेकी बात' के ३ नाम हैं ॥
६ लुप्तवर्णपदम् ग्रस्तम् (भा० दी० म० । २ त्रि), 'रोगी, बालक या असमर्थके कहे हुए अधूरे वचन' के २ नाम हैं ।
७ नितम्, खरितोदितम् ( भा० दी० स० । २ त्रि ), शीघ्रता से कहे हुए वचन' के २ नाम हैं ॥
८ अम्बूकृतम्, सनिष्ठीवम् ( भा० दी० म० सनिष्ठेवम् । २ त्रि ), 'थूकका छोटा निकलते हुए कहे गये वचन' के २ नाम हैं ॥
९ अबद्धम् ( + अवध्यम् ), अनर्थकम् ( भा० दी० म० । 'अनर्थक वचन' अर्थात् 'बिना मतलब की बात' के २ नाम हैं ॥
१० अनक्षरम्, अवाच्यम् ( २ त्रि ), 'नहीं कहने योग्य वचन' के २ नाम हैं ॥
१. 'अम्बूकृतं सनिष्ठेवमवध्यं स्यादनर्थकम्' इति पाठान्तरम् ॥
२ त्र ),
११ आहतम्, मृषार्थकम् (भा० दी० म० । २ त्रि), 'अत्यन्त झूठे वचन ' के २ नाम हैं । (जैसे[-बन्ध्याका वह लड़का, आकाशपुरपका मुकुट पहने हुए, मृगतृष्णा के जल में स्नान कर, कच्छपी दुग्ध को पीनेके उपरान्त, शशशृङ्गके बाजाको
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शब्दादिवर्गः ६ ] मणिप्रयायाख्यासहितः।
१ "सोल्लुण्ठनं तु सोत्मासं २ भणितं रतिकूजितम् (४८) ३ थाव्यं हृधं मनोहारि विस्पष्टं प्रकटोदितम्'(४९) ४ अथ मिलष्टमविस्पष्टं ५ वितथं त्वन्तं वयः ॥ २१ ॥ ६ सत्य तथ्य मृतं सम्यगमूनि त्रिषु तद्वति ।
शब्दे निनादनिनदध्वनिध्वानरवस्थना: ॥ २२ ॥ स्वाननिघोषनिदिनानिस्तालाना । आरधारावरावविरावा ८ अथ मर्मरः ॥२३ ।। स्वनिते घस्त्रपर्णानां ९ भूषणानां तु शिक्षितम् ।
बनाकर बटम स्वर गान किया तो, उसे परार्द्धसे अधिक रुपमा पारितोषिक मिला...... ...")॥
. [ सोल्लुण्ठामा , सोमासम (२ त्रि), 'हँसीकी बात'के २ नाम है] ॥
२ [ भणितम् ( + गितम् ), रस्कूिजितम् (२ त्रि), 'रति-कालमें किये हुए शब्द' २ नाम हैं ] ॥
३ [श्राव्यम् , हृद्यम् , (मनोहारि = मनोहारिन् ), विस्पष्टम् , प्रकटोदितम् (५त्रि), 'स्पष्ट वचन' के ५ नाम हैं। (म. से 'श्राव्यम्' आदि ३ नाम 'मनोहर वचन' के हैं और शेष 'विस्पष्टम्' आदि १ नाम उक्तार्थक हैं')]॥
४ लिष्टम, अविस्पष्टम् (२ त्रि) 'अस्पष्ट वचन' के २ नाम हैं ॥ ५ वितथम् , अनृतम् (२ त्रि), झूठे वचन' के २ नाम हैं ॥
६ सत्यम् , तथ्यम् , ऋतम् , सम्यक ( = सम्यन्च । ४ त्रि), 'सत्य वचन' के ४ नाम हैं । ये चार शब्द दम्यवाचक होनेपर त्रिलिङ्ग होते हैं। ('जैसे-सत्यः पुरुषः, साया नारी, सत्यं कुलम् , ...........")॥
७ शब्दः, निनादः, निनदः, नि:, ध्वानः, रवः, स्वनः, स्वानः, निर्घोषः, निहर्हादः, नादः, निस्वाना, निस्वनः, भारवः, भारावा, संशयः, विराम: (१७ पु), 'शब्द' के १७ नाम हैं।
८ मर्मरः (पु), 'कपड़े या सूखे पत्तोंके शब्द' का । नाम है। ९शिक्षितम (न + स्वामी म 'शिक्षा'), 'आभूषणके शब्द' का नाम है।
१. 'सोल्लुण्ठनं..."प्रकटोदितम्' भयमंशः क्षी. स्वा. टीकायामुपलभ्यते । 'सोलु. बं..."कृवितम्' इत्येतावन्मात्रोऽशो भा०दी० प्याख्यातम् ॥
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्ड १ निकाणो निक्वणः काणः क्वणः क्वगनमित्यपि ॥ २४॥
वीणायाः कणिते २ प्रादेः प्रकाणाप्रकणादयः। ३ कोलाहलः कलकत्तस्तिरश्चां वाशितं रुतम् ॥ २५ ॥ ५ स्त्री प्रतिश्रुत्पतिध्वाने ६ गीतं गानमिमे समे ।
__इति शब्दादिवर्गः॥६॥
__७. अथ नाट्यवर्गः। ७ निषादर्षभगान्धारषड्जमध्यमवैवताः ।
१ निक्वाणः, निक्वणः, काणः, कगः ( ४ पु), वगनम् (न), 'वीणा आदिके शब्द' के ५ नाम हैं ॥
२ इन 'निकाण' आदि शब्दों के 'x' आदि ( आदिसे 'उर, सु' इत्यादिका संग्रह है) उपसर्ग जोड़नेसे बने हुए 'प्रकाण:' प्रकगः' आदि ( आदि शब्दसे 'प्रकाशनम् , उपक्क गः, उपक्काणः, उपक गनम्.....' का संग्रह है) शब्द भी उसी अर्थ में होते हैं । ('भा० दी. मतमें 'शिञ्जिनम्....' आदि ६ नाम 'भूषगादिके शब्द' के हैं, 'प्रकाश' आदि 'वीणादि के शब्द' के हैं")॥
३ कोलाहलः, कल कलः (२ पु०), 'कोलाहल, शोरगुल' के २ नाम हैं। ___ ४ वाशितम् ( + वासितम् । न ), 'पक्षियोंके चहचहाने' अर्थात् शब्द करने का १ नाम है ॥
५ प्रतिश्रुत् (स्त्री), प्रतिध्वानः (+ प्रतिध्वनिः । पु), प्रतिध्वनित शम्' के . नाम हैं । (ऐसा शब्द पहाड़ आदिकी गुफामें या मन्दिरों में होता है)। ६ गीतम् , गानम् (२ न), 'गाना' के २ नाम हैं ॥
इति शब्दादिवर्गः ॥६॥
७. अथ नाट्यवर्गः ॥ ७ निषादः, ऋषभः, गान्धारः, पड्जः, मध्यमः, धैवतः,
१. चिन्त्यमेतत् , 'क्वणो वीणायाच' पा० सू० ३।३।६५) इति 'च'कारस्य, 'नौ अनुपसर्गे? इत्यनुकर्षणार्थकत्वात् क्षी० स्वा० महे. रा० कृ. दो० कृतपूर्वव्याख्यानस्यैवौचित्यात् ।।
२ 'नासां कण्ठमुरस्तालुं जिह्वां दन्तांश्च संस्पृशन् ।
पड्भ्यः संजायते यस्मात्तस्मात्पडज ति स्मृतः ॥१॥इति ॥ ३'तददेवोत्थितो वायुरुरःकण्ठसमाहतः।
नामि प्राप्तो महानादो मध्यस्थस्तेन मध्यमः ॥२॥ इति ।
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भाव्य वर्गः ७] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः ॥१॥ १ काकली तु कले सूक्ष्मे २ वनौ तु मधुरास्फुटे।
कलो ३ मन्द्रस्तु गम्भोरे ४ तारोऽत्युच्चैत्रयस्त्रियु ॥ २ ॥ ५ "नृणामुरसि मध्यस्थो द्वाविंशतिविधो ध्वनिः (५०)
स मन्द्रः कण्ठ अध्यायातारः शिरति गोय' (५१) ६ समन्वितलयस्त्वेकतालो ७ वीणा तु वलका । 'पञ्चमः ( ७ पु), ये ७ 'वीणा आदिके तार तथा प्राणियोके कण्ठसे निकले हुए स्वरोके भेद' हैं।
। काकली (+काकलिः ! स्त्री), 'मधुर ध्वनि' का १ नाम है ॥ २ कलः (त्रि), 'अस्पष्ट मधुर ध्वनि' का नाम है ॥ ३ मन्द्रः (+मदः । त्रि), 'गम्पोर ध्वनि' का नाम है ॥ ४ तारः (त्रि), 'अत्यन्त ऊँचे शब्द का । नाम है ॥
५ [ मनुष्यों के हृदय में बाइस प्रकारको धनिया रहता हैं, उनमें कण्ड के बोल वालोको 'मन्द्रः, (त्रि) 'मन्द्र' भोर शिके बीच रहने वालोको 'तार' (त्रि), 'तार' कहते हैं ] ॥
६ एकतालः (पु), 'गति ओर बाजाओं के लयका एक में मिलाने का नाम है ॥
७ वोणा, बलका, विपञ्ची (३ स्त्रो), "वोणा के ३ नाम हैं ।
१. 'नृगामुरसि........."गोयते' इत्यंशः केवलं महेधरण्याख्याते पुस्तके समुपलभ्य, किन्तु सर्वैरप्यव्याख्यातोऽयमिरयवधेयम् ॥
२. 'वायुः समुद्गतो नाभेरुरोहृत्कण्ठमूर्द्ध ।
विचरन् पञ्चमस्थानप्राप्त्या पश्चम उच्यते ॥ १॥ इति ।। अथ प्रसङ्गारकुतः २ स्थानास्कस्य २ स्वरस्थाविर्भाव इत्यत्र नारदोक्तिः प्रदश्यते
'षडजं रौति मयूरस्तु गायो नईन्ति चर्षभम् । मजाविको च गान्धारं क्रौञ्चो वदति मध्यमम् ॥१॥ पुष्पसापारणे काले कोकिलो रौति पत्रमम् ।
अश्वस्तु धैवतं रौति निषादं रोति कुजरः ॥ २ ॥ इति ।। पुष्पसाधारणे काले वसन्नत्तौं इत्यर्थः ।।
३. कस्य २ वीणायाः कानि २ नामानीत्यत्र हेमोकं प्रदश्यते
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डेविषशी १ सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी ॥३॥ २ ततं वीणादिक वाद्यमानाई मुरजादिकम् । ४ शादिकं तु सुधिरं ५ कांस्यतालादिकं घनम् ।।४।। ६ चतुविधमिदं वछि बाझिालोचनामकम् ।
जिदिनी (स्त्री), सितार' अर्थात् 'सात तारवाली चीणा' का , नाम है ॥
२ ततम् (न), 'वीणा आदि बाजाओं' का नाम है। ('आदि पदसे 'सैरन्ध्री, रावणहस्त, एकतारा, सारंगी, इसरात्र, वेला, तानपूरा,....." का संग्रह है')॥
३ भाद्धम ( + अन नद्धम् । न ), 'जो चमड़ेसे मढ़े गये हो, उन मुरज आदि बाजाओ' का १ नाम है। (जैसे-मुरज, एटह, ढोल, तबला,.....")॥
४ सुषिरम् ( + शुपिरम् । न ), 'वंशी आदि बाजाओं' का । नाम है। ('आदि पदसे 'गङ्ख, मुरली; तुनही, सींगा, वेन......" का संग्रह है)।
५ धनम् (न), 'घड़ी, घण्टा आदि बाजाओं' का । नाम है। ('आदि पदसे 'घण्टी, झाल, जोको, मंजीरा,...' का संग्रह है')॥
६ वादित्रम्, भातोयम् ( २ न), पूर्वोक्त 'तत १, आनद्ध २, सुषिर३ और घन ४' इन चार प्रकारके बाजाओं' के २ नाम हैं।
'शिवस्य वीणा नालम्बी सरस्वत्यास्तु कच्छपी॥ नारदस्याथ महती गणानान्तु प्रभावती। विश्वावसोस्तु बृहती तुम्बुरोस्तु कलावती । चाण्डालानां तु कण्डोलवीणा चाण्डालिकाऽपि सा' ।। इति ।।
अ० चि० म० हैम' २ । २०२-२०४ ॥ १. वंशादिकं तु शुषिरं..........' उति भा० दी. प्राच्य सम्मतं पाठान्तरम् , क्षी० स्वा० महे० सम्मतं तु मूलोक्तमित्यवधेयम् ॥
२. तथा च मरतः'वतत्रैवावनद्धं च धनं शुषिरमेव च । चतुर्विधं तु विशेयमातोचं लक्षणान्वितम् ॥१॥ इति ।।
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नाटयवर्गः ७] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
६६ १ मृदङ्गा मुर जा २ भेदास्त्वयालियोधकास्त्रयः ॥५॥ ३ स्याद्यशःपटही ढका ४ 'भेरी स्त्री दुन्दुभिः पुमान् । ५ आनका पटहोली स्याहत्को गोली देवादनम् ॥ ६॥ ७ मीणादण्डः : स्य काकुवस्तु प्रसेवकः । ९ कोलम्बवास्तु कायोऽस्थाई हो निबाधनम् ।। ७ ॥
। मृदङ्गः, मुरजः ( २ ) 'मृदङ्ग' के नाम हैं ।
२ अङ्कयः, आलिङ्गयः, ऊर्ध्वकः (पु) ये सीन 'मृदमके भेद हैं। (हरीतकीके समान आकारवाला 'अय', अब सध्यभाग के समान आकार वाला 'ऊर्वक' और गोपुच्छ के समान आकारबाला साटिन्य होता है')॥
३ यशःपटहः (पु), ढक्का (स्त्री) 'नगाड़ा' के दो नाम हैं।
४ भेरी (+ भेरिः, भम्भा । स्त्री), दुन्दुभिः (पु। आनः, दुन्दुभिः । २ पु) 'दुन्दुभिः' के २ नाम हैं ॥
५ भानका, पटहः, (२ पु), 'पटह' के २ नाम हैं ॥
६ कोणः (पु), 'वीणा, बेला, सारङ्गी या इसराज भादि बजानेके लिये काठकी बनाई हुई धनुही' का १ नाम है ॥ ___वीणादण्डः (भा० दी० म०), प्रवाल: (२ पु) 'वीणादण्ड' के २ नाम हैं॥ ___८ ककुभः, प्रसेवकः ( २ ) 'वीणाके नीचेवाले, चमड़ा आदिसे ढके हुए भाण्ड' के २ नाम है ॥
९ कोलम्बकः (पु), 'वीणाका ढाँवा' अर्थात् 'ताररहित वीणाके दण्डादि समुदाय' का १ नाम हैं ।
१० उपनाहः (पु), निबन्धनम् (न । भा० दी० म०), जहाँ वीणाका तार बांधा जाता है, उस जगह' के २ नाम हैं ॥
.. १........... भे-मानकदुन्दुभी' इति भा० दी० सम्मतः पाठः । तत्र भेर्यानकदुन्दुमिशब्दान् पृथक् २ व्याख्याय 'द्वे भेर्याः' इति तदुक्तिश्चिनया' 'त्रीणि भेयाः' इत्युक्तेरौचित्यात॥ २. ३. ४. तदुक्तम्-'हरीतक्याकृतिस्वङ्कयो यवमध्यस्तथोकः ।
आलिजयश्चैव गोपुच्छसमानः परिकीर्तितः ॥१॥इति ।
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डे१ वाद्यप्रभेदा डमरु मड्डु डिण्डिम-झझशः ।
मर्दलः पणवोऽन्ये च २ नर्तकीलासिके समे ॥ ८॥ चिलम्बितं द्रुतं मध्य तत्व ४ मोघो ५ धनंक्रमात् । ६ तालः कालक्रियामानं हायः सास्य ८ मथास्त्रियाम्॥९॥
ताण्डवं नटनं नाटयं लास्यं नृत्यं च नर्तने । ९ तौर्यत्रिक नृत्यगीतवाद्यं नास्यमिदं प्रयम् ॥ १०॥
१ मरुः मड्डुः, सिण्डिमः, झर्झरः, मर्दलः, पणवः ( ६ पु), भादि ('मादि पदसे 'गोमुखः, हुडका.......' का संग्रह है') 'डमरु, मड्डु अर्थात् जलतरण, डुगडुगी, झांझ, मर्दल, ढोल आदि बाजाओं' का क्रमशः - नाम है।
२ नर्तकी, लासिका ( २ स्त्री । वस्तुतः ये दोनों शब्द त्रिलिङ्ग हैं, किन्तु सीलिङ्गमें रूपदर्शन के लिये सीरिङ्ग कहा गया है, पु. में 'नर्तकलासकः' न. में 'नर्तकम् , लासकम्' ऐसे रूप होते हैं। ), 'नाचने वाले के २ नाम हैं ॥ ("जैले-'कत्थक, छोकड़ा, वेश्या......')॥
३ तत्वम् (न), विलम्बसे नाचने, गाने और बजाने' का १ नाम है। ४ ओघः (पु) 'जल्दी २ नाचने, गाने और बजाने का । नाम है।
५ धनम् (न), 'सामान्य समय ( मध्यम गति ) से नाचने, गाने मौर बजाने' का १ नाम है ।
६ सालः (पु), 'ताल' अर्थात् "जिसमें समय और क्रियाकी कमी-बेशीका प्रमाण रहता है, उसका नाम है।
७ लयः (पु), 'लय' अर्थात् 'जिसमें गाने बजाने और हाथ, भ्र आदि चलाकर भाव दिखलाने के लिये समय और क्रियाकी कमी-बेशीका प्रमाण रहता हैसका नाम है ॥
८ ताण्डवम् (पुन), नटनम , नाटयम्, हास्यम्, नृत्यम् (+नृत्तम् ), मतनम् (५ न ), 'नाचने के ६ नाम हैं ।
__ ९ तौर्यनिकम, नाट्यम् (२न ), 'नाचना, गाना और बजाना इन तीनोंके समुदाय के नाम हैं।
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नाटयवर्गः .] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
७१ १ भ्रकुंसश्च भ्रकुंसश्च भ्रकुंसश्चेति नर्तकः।
स्त्रीवेषधारी पुरुषो २ नाट्योक्तौ ३ गणिकाज्जुका ॥ ११ ॥ ४ भगिनीपतिरावुत्तो ५ भावो विद्वान ६ थावुकः।
जनको ७ युधराजस्तु कुपारो भर्तृदारकः ॥ १२ ॥ ८ राजा भट्टारको देव ९ स्तत्सुता मतदारिका । १० देवी कृताभिषेकाया ११ मितरासु तु भट्टिनी ॥ १३ ॥
१ भ्रकुंसः, भ्रुकुंसः, भृकुं: ( + कुंसः । ३ पु), स्त्रीका रूप बनाकर नाचनेवाले पुरुष के ३ नाम हैं ।
२ 'नाट्योती' इस पदका 'अङ्गहारः' (११७१६ ) के पहलेतक अधिकार होने से आगे कहे जाने वाले नामोका प्रयोग नाटक में ही होगा, अन्यत्र नहीं॥
३ गणिका, अज्जुका (२ स्त्री) 'वेश्या' के २ नाम हैं ।
" भावुत्तः (+भाबूत्तः । पु), 'बहनोई' अर्थात् 'बहनके पति' का नाम है॥ ५ मावः (पु), 'विद्वान्' का नाम है ॥ ६ माधुकः (पु), 'पिता' का । नाम है ॥
७ युवराजः, कुमारः (२ पु । म कुमारः, भर्तृदारकः) 'युवराज' के नाम हैं। ८ भट्टारकः, देवः (२ पु), 'राजा' के २ नाम हैं। ९ भर्तृदारिका (स्त्री), 'राजकुमारी' का १ नाम है। १० देवी (स्त्री), 'पटरानी' का नाम है। " 'भट्टिनी (स्त्री), 'राजाकी दूसरी सामान्य स्त्रियों का । नाम है ॥
'भयमत्र प्रयोगक्रमः'गणिकानुचरैरज्जुकेति नाम्ना नृपेण सा । युवराजस्तु सर्वेण कुमारो भर्तृदारकः ॥१॥ भट्टारको वा देवोवावाच्यो भृत्यजनेन सः । ब्राह्मणेन तु नाम्नवराजनित्यषिमिःसच ॥ २॥ वयस्य राजनिति बाविदूषक इमं वदेत ।अभिषिक्ता तुराशाऽसौ देवीत्यन्या तु मोगिनी ।।३॥
मट्टिनीत्यपरैरन्या नोचैर्गोस्वामिनीति सा' ॥ इति ॥
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डे१ अब्रह्मण्यमवयोक्तौ २ 'राजश्यालस्तु राष्ट्रियः। ३ अम्बा मालास्थ बाला स्याद्वासूपरार्यस्तु मारिषः ॥ २४॥ ६ अत्तिका भगिनी उगेष्ठा ७ निष्ठानिर्वहणे समे।
, अब्रह्मण्यम ( न ), 'सर्वथा अवध्य ब्राह्मण इत्यादिको मारनेके वोषको कहन' का । नाम है ॥
२ राष्ट्रियः (पु), 'राजाके शाले' का , नाम है । ( 'इसे प्रायः नगर के कोतवालीका अधिकार मिलता है')॥
३ अम्बा, माता ( = मातृ । २ स्वं), 'मामा' के २ नाम हैं। ('नाट्योक्ती' इस शब्दका अधिकार प्रायिक या विधि और नियम है; अत एव नाटकस्थल से भिन्न स्थल में भी अम्बा,माता' इन शब्दों का प्रयोग होता है।)
४ बाला, वासूः (२ स्त्री) 'कुमारी' के २ नाम हैं।
५ आर्यः, मारिषः (+मार्षकः । २), 'अपनेसे श्रेष्ठ या सूत्रधारके पार्श्ववर्ती' के २ नाम हैं ॥
६ अत्तिका ( + अन्तिका । स्त्री), 'बड़ी बहन' का १ नाम हैं ।
७ निष्ठा (स्त्री) निर्वहणम् (न), 'नाटकके निर्वहण' नामक पांचवे सन्धि विशेष या आरमर किये हुये विषयको पूरा करने के २ नाम हैं ।
''राजशालम्तु' इति महे० सम्मतः पाठः।
'नाट्यातिरिक्तस्थलेऽपि 'अम्बा' शब्दस्य, नाट्य स्थलेऽपि 'मातृ' शब्दस्य प्रयोगोपलब्धेर्नाट्यस्थलेऽम्बाशब्दस्य प्रचुरप्रयोगात्प्रायिकत्वम्, 'मट्टिन्यज्जुकात्तिके त्यादीनान्तु नियमः। अत एव"मथैषी रूपकादीनामुक्तीवक्ष्याम्यशेषतः। कासुचिनियमस्तत्र विधिरेव तु कामचित्' ॥१॥ इति शब्दार्णवोक्तयोविधिनियमयोः सङ्गतिरित्यवधेयम् ।। तद्क्तं साहित्यदर्पणे'मुखं १ प्रतिमुखं २ गर्भो ३ विमर्शः ४ उपसंहृतिः ५। इति पञ्चास्य भेदाः स्युः क्रमात'।
सा० द०६ । ७५-७६ ॥ उपसंहतिनिर्वहणमित्यर्थः । एतल्लक्षणञ्चोक्तं सुधाकरण'मुखसन्ध्यादयो यत्र विकीर्णा बीजसंयुताः। महाप्रयोजनं यान्ति तन्निर्वहणमुच्यते' ॥१।। इति
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नायवर्गः ७] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ हण्डे २ हजे ३ हलाऽऽह्वानं नोचा चेटी सखी प्रति ॥ १५ ॥ ४ अङ्गहारोगविक्षेपो ५ ब्यकाभिनयौ समो। ६ निवृत्ते त्वङ्गसत्याभ्यां द्वे निवानिकसात्विके ।। १६ ।। ८ मारवीरकरुषाभुतहास्यभयानका
१ हण्डे (अ), 'नीचको बुलाने' का । नाम है ॥ २ हजे (अ), 'चेटी (दासी ) को बुलाने का । नाम है ॥ ३ हला (अ), 'सस्त्रीको बुलाने का १ नाम है ॥
४ अङ्गहारः, अङ्गविक्षेपः (२ पु) 'नृत्य विशेष' के २ नाम हैं। ('नाटयोक्तौ' इस पदका अधिकार यहाँ तक है, अतः आगे कहे जानेवाले शब्दों का प्रयोग नाटकसे भिन्न स्थल में भी होगा')॥
५ व्याकः, अभिनयः (२ पु) 'इशारा आदिसे मनके अभिप्रायको प्रकट करने के २ नाम हैं।
६ आह्निकम् (त्रि ), 'अनके द्वारा किये गये कटाक्ष आदि' का नाम है ॥
७ साविकम् (त्रि ), 'सत्त्वगुणले उत्पन्न स्तम्भ आदि गुणों' का नाम है । ( 'स्तम्भ १, स्वेद ( पसीना) २, रोमाञ्च ३, स्वरमा ४, वेपथु (कम्पन) ५, वैवयं ६, अश्रु ७ और प्रलय (मूर्छा ) ८, ये ८ "साविक गुण' हैं।
८ शृङ्गारः, वीरः, करुणः, अद्भुतः, हास्यः, भयानकः, बीमरस:, रौद्रः
यथा वा साहित्यदर्पणे'बोजवन्तो मुखाद्य विप्रकीर्णा यथायथम् । एकार्थमुपनीयन्ते यत्र निर्वहणं हि तत्' ॥ १॥
ति सा० द०६ । ८१-८२॥ १. तदुक्तम्-'स्तम्भः १ स्वेदोऽथ रोमाञ्चः ३ स्वरभङ्गोऽ४थ वेपथुः ५। वैवय॑मथुप्रलय८ इत्यष्टौ सारिवका गुणाः ॥ १॥
इति सा० द०३ । १३५-१६॥
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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डेबीभत्सरौद्रौ च रसाः १ शृङ्गारः शुचिरुज्ज्वलः ॥ १७॥ २ उत्साहवर्धनो वीरः ३ कारुण्यं करुणा घृणा।
कृपा दयाऽनुकम्पा स्यात्नुकोशोऽय४थो हलः ॥ १८ ॥
हासो हास्यं च ५ बीभत्सं विकृतं त्रिविदं द्वयम् । ६ विस्मयोऽभुतमाश्चर्य चित्रमप्यथ भैरवम् ॥ १९॥
दारुणं भीषणं भीष्मं घोरं भीमं भयानकम् । ( पु)ये ८ 'शृङ्गार, वीर आदि' 'रस' (पु) अर्थात् 'रस' हैं। (च शब्दसे नवम 'शान्तः' (पु) अर्थात् "शान्त' रसका और मुनीन्द्र के मत से दशम 'वात्सल्यम्' (न) अर्थात् “वात्सल्य रसका भी संग्रह है')॥
, शृङ्गारः, शुचिः, उज्ज्वलः, (३ पु ), 'शृङ्गार रस' के ३ नाम हैं । २ उत्साहवर्द्धनः, वीरः, (२ पु), 'वीर रस' के २ नाम हैं ।
३ कारुण्यम् (न), करुणा, घृणा, कृपा, दया, अनुकम्पा (५ स्त्री), अनुक्रोशः (पु), 'करुण रस या दया' के नाम हैं ।
४ हसा, हासः ( + हासिका, स्त्री। २ पु), हास्यम् (न), 'हास्य रस' के नाम हैं।
५ बीभरसम् , विकृतम् (+ वैकृतः। २ त्रि), 'बीभत्स रस' के २नाम हैं ॥
६ विस्मयः (पु), अद्भुतम् , माश्चर्यम् , चित्रम् (३ त्रि), 'आश्चर्य या अदभुत रस' के ४ नाम हैं ।
७ भैरवम् , दारुणम् , भीषणम् , भीष्मम् , घोरम् , भीमम् , भयानकम् , १. साहित्यदर्पणे 'शान्त'स्यापि नवमरसत्वमङ्गीकृतम् । तथथा --
'शृङ्गार १ हास्य २ करुण ३ रौद्र ४ वीर ५ मयानकाः ६ । बीमत्सोऽद्भुत ८ इत्यष्टौ रसाः शान्तस्तथा मतः ॥ १॥
इति सा० द. ३ । १८२ ॥ २. मुनीन्द्रेण 'वात्सल्यस्यापि दशमरसस्वमङ्गीकृतम् । तद्यथा
'स्फुटं चमत्कारितया वस्सलं च रसं विदुः । इति सा० द०३ ॥ २७ ॥
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नाटयाः ] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
भयङ्करं प्रतिभयं १ रौद्रं तूग्रमरमी त्रिषु ॥२०॥
चतुर्दश ३ दरखासोभीतिर्भाःसाध्वसं भयम् । ४ विकारो मानसोभावो५ऽनुभावो भावबोधकः ।। २१ ।। ६ गर्वोऽभिमानोऽहङ्कारो मानश्चित्तलमुन्नतिः । ८ 'दर्पोऽवलेपोऽवष्टम्भश्चित्तोद्रेकः स्मयो मदः' (५२) ९ अनादरः परिभवः परीभावस्तिरस्क्रिया ॥ २२ ॥
रीढाऽवमाननाऽवाऽवहेलनमसूक्षणम् ।
भयङ्करम् , प्रतिभयम् , (९ त्रि), 'भयानक रस' के ९ नाम हैं ।
१ रौद्रम् , उप्रम् , (२ त्रि), 'उग्र रल' के २ नाम हैं।
२ 'अद्भुतम्' यहाँसे लेकर 'उग्रम्' यहाँतक १४ शब्द 'रस'के अर्थ में प्रयुक्त होने पर पुंलिङ्ग हैं और रखवाले' के अर्थमें प्रयुक्त होने पर विलिङ्ग हैं।
३ दरः, त्राय: (२ पु), भीतिः, भीः (· + भिया । २ स्त्री), साध्वसम्, भयम् ( न), 'डर' के ६ नाम हैं ।
४ भावः (पु), 'रत्यादिरूप मनके विकार-विशेष' का । नाम है।
५ अनुभावः (पु), 'मनके विकारके प्रकाशक रत्यादिसूचक रोमाश आदि' का नाम है।
६ गः, अभिमानः, अहङ्कारः (३ पु), 'अभिमान, घमण्ड' के ३ नाम हैं।
७ मानः (पु), चित्तसमुखतिः (भा. दी० म० । स्त्री), 'मान, चित्तो. नति' के २ नाम हैं। ('महे• मादिके मतसे । ही नाम है। 'गर्व' आदि ५ शब्द एकार्थक हैं, यह भी किसी किसी का मत है')॥
८ [ दर्पः, अवलेपा, अवष्टम्भः, चित्तोद्रेकः, स्मयः, मदः (६ ), 'घमण्ड' के नाम हैं ]॥
९ अनादर:, परिभवः, परीभावः (३ पु), तिरक्रिया, रीढा, अवमानना, अवज्ञा ( बी), अवहेलनम् (+अवहेला, स्त्री), भसूक्षणम् ( + मु०, बु. मनो०, महे• 'असूक्षणम, मसुषणम्, संसूर्षणम्, संसुक्षणम्। २न), अनादर
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डे१ मन्दाक्षं ह्रीस्त्रपा ब्रोडा लजा २ साऽपत्रपाऽन्यतः ॥ २३॥ ३ क्षान्तिस्तितिक्षाऽभिध्या तु 'परस्य विषये स्पृहा । ५ अक्षान्दिरी६िऽसूया तु दोषारोपो गुणेष्वपि ।। २४ ॥ ७ वैरं विरोधो विद्वेषो ८ मन्युशोको तु शुक्लियाम् । ९ पश्चात्तापाऽनुतापश्च विप्रतीसार इत्यपि ।। २५ ॥
१ मन्दाक्षम (+मन्दास्यम् । न), हीः, पा, वीडा ( + वीडः, पु), लज्जा ( ४ स्त्री), 'लज्जा ' के ५ नाम हैं।
२ अपनपा (स्त्री), 'पिता आदि दूसरेसे लज्जा करने का । नाम है ॥
३ शान्तिः, तितिक्षा (२ स्त्री), 'दूसरेकी उन्नतिको सहन करने' के २ नाम हैं।
४ अभिध्या (स्त्री), 'दुसरेकी सम्पत्ति आदिको चाहने' का , नाम है ॥ ___५ अक्षान्तिः, ईर्ष्या (२ स्त्री), 'ईया' अर्थात् 'दूसरे की सम्पत्ति को नहीं सहने के २ नाम हैं।
६ असूया (स्वी ), 'औद्धत्यसे किसीके गुण-विषयक काममें भी दोष निकालने' का १ नाम है। ('जैसे-किसीके दमाई होकर पुण्य करनेपर 'यह नाम के लिये पुण्य करता है। इस्यादि दोष निकालनेको “असूया' कहते हैं')॥
७ वैरम. (ब), विरोधः, विद्वेषः (१), 'वैर करने के ३ नाम हैं ॥ ८ मन्युः, शोकः ( २ पु), शुक् (= शुच्, स्नी), 'शोक' के ३ नाम हैं।
९ पश्चात्तापः, भनुतापः, विप्रतीसारः ( +विप्रतिसारः । ३ पु), 'पछ. ताने के ३ नाम हैं ।
१............परस्य विषये स्पृहा' इति पाठान्तरम् ॥ २. तदुक्तम्-'असूयाऽन्यगुणीनामौद्धत्यादसहिष्णुता ।
दोषोद्धोषभूविभेदाऽवचाक्रोधेजितादिकृत्' ।। १ ।। इति सा० द० ३।१६६॥
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भाटयवर्गः ७] मणिप्रभाव्याख्यासहितः। १ कोपक्रोधामर्षरोषप्रतिघा रुटको स्त्रियो। २ शुलौ तु चरिते शील३मुन्माश्चित्तविभ्रमः ।। २६ ॥ ४ प्रेमा ना प्रियता हार्द प्रेम स्नेहो५ऽथ दोहदम् ।
इच्छा कासा स्पृहेहा तृड्धाञ्छा लिप्सा मनोरथः ॥ २७ ॥
कामोऽभिलाषस्तर्षश्च ६ सोऽत्यर्थ लालसा द्वयोः । ७ उपाधिर्ना धर्मचिन्ता ८ पुंस्याधिर्मानसी न्यथा ॥ २८॥ ९ स्याचिन्ता स्मृतिराध्यान१०मुत्कण्ठोत्कलिके समे। ११ उत्साहोऽध्यवसायः स्यात् १२ स वीर्यभतिशक्तिभाक् ॥ २९ ॥ १३ कपटोऽस्त्री
व्याजदम्भोपधयश्छमकेतवे। १ कोपः, क्रोधा, अमर्षः, रोषः, प्रतिधः (५ पु), रुट ( = रुष । + रुषा), कुध ( + क्रुधा । सी), 'क्रोध' के ७ नाम हैं ॥
२ शीलम् (न), 'शील' अर्थात् 'आचरण शुद्ध रखने का नाम है ॥ ३ सन्मादः, चित्तविभ्रमः (२ पु), 'पागलपन' के २ नाम हैं
४ प्रेमा ( = प्रेमन् , पु), प्रियता (स्त्री), हार्दम्, प्रेम ( = प्रेमन् २ न), स्नेहः (पु)'प्रेम' के ५ नाम हैं। __ ५ दोहरम् (न), इच्छा, काला, स्पृहा, ईहा, तृट् (= तृष), वान्छा, लिप्सा ( ७ स्त्री), मनोरथः, कामः, अभिलाषः, सर्षः (पु), 'इच्छा, चाहना' के १२ नाम हैं। ('म से 'दोहदम्' यह १ नाम 'गर्भिणीकी इच्छा' का है और शेष १२ नाम उक्तार्थक हैं।)॥
६ हालसा (पु स्त्री), 'लालसा' अर्थात् 'अधिक चाहना' का नाम है ।
७ उपाधिः (पु), धचिन्ता (स्त्री) 'धविषयक चिन्ता' के २ नाम हैं ।
८ श्राधिः (पु), 'मानसिक दुःख' का । नाम है ॥
९ चिन्ता, स्मृतिः (२ स्त्री), माध्यानम् (न), 'याद करने के ३ नाम हैं। १० उत्कण्ठा, उत्कलिका (२ वी ), 'उत्कण्ठा' के २ नाम हैं ॥ " सासाहः, अध्यवसायः (२ पु) 'उत्साह के २ नाम हैं ॥ १२ वीर्यम् (न), 'सामग्रंयुक्त उत्साह' का १ नाम है। १३ परः (पुन), ग्याजः, दम्मा उपधिः (३ पु), छम (= छान्),
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अमरकोषः
[ प्रथमकाण्डे
कुसृतिनिंकृतिः शाठयं १ प्रमादोऽनवधानता ॥ ३० ॥ २ कौतूहलं कौतुकं च कुतुकं च कुतूहलम् ।
३ स्त्रीणां विलासविग्वोकविभ्रमा ललितं तथा ॥ ३१ ॥ हेला लोलेत्यमी हावाः क्रियाः शृङ्गारभावजाः ।
कैतवम्, कुसृतिः, निकृतिः, ( २ स्त्री ), शाठ्यम् ( + शठनम् । शेष ३ न ), 'धूर्तता, कपट, दगाबाज़ी' के ९ नाम हैं ॥
१ प्रमादः (पु), अनवधानता ( स्त्री ), 'अलावधानी' के २ नाम हैं ॥ २ कौतूहलम्, कौतुकम् कुतुकम् कुतूहलम् ( ४ न ), 'कौतूहल' अर्थात् 'खेल, तमाशा, जादू, के ४ नाम हैं ॥
.
१०,
३ विलासः, विश्वोकः, विभ्रमः ( ३ ), लहितम् ( न ), हेला, लीला (२ स्त्री), ये ६ 'स्त्रियों के शृङ्गार, भाव अर्थात् रत्यादि और मनोविकारसे उत्पन्न क्रियाविशेष' हैं, इनका 'हाव:' (पु) 'हाव' यह १ नाम है । ('नाटकरस्नकोष' में 'लीला १, विलास २, विच्छित्ति ३, विभ्रम ४, किलकिञ्चित५, मोट्टायित ६, कुछमित ७, विश्वोक ८, ललित ९ और विहृत १० ये १० स्त्रियों की स्वभावज क्रियाएँ हैं, यह कहा है ' | साहित्यदर्पण' में 'भाव १, हाव २, हेला ३, शोभा ४, कान्ति ५, दीप्ति ६, माधुर्य ७, प्रगमता ८, औदार्य ९, धैर्य लीला ११, विलास १२, विच्छित्ति १३, विश्वोक १४, किलकिञ्चित १५, मोहायित १६, कुट्टमित १७, विभ्रम १८, ललित १९, मद २०, विहृत २१, तपन २२, - मौग्ध्य २३, विक्षेप २४, कुतूहल २५, हसित २६, चकित २७, और केलि २८, ये २८ जवानीमै स्त्रियों के साविक भाव से उत्पन्न अलङ्कार होते हैं, ऐसा कहा है; उनमें 'भाव' आदि ३ 'आङ्गिक अलङ्कार' है, 'शोभा' आदि ७ विना यख के उत्पन्न अलङ्कार, हैं और 'लीला' आदि १८ 'स्वभावज अलङ्कार' हैं। पूर्वोक २८ अलङ्कारों में 'भाव' आदि १० अलङ्कार पुरुषों के भी हो सकते हैं, किन्तु स्त्रियों में हो इन को
१. तदुक्तं नाटकररनकोषे
......
'लीका बिकासो विच्छित्तिर्विभ्रमः किलकिश्चितम् । मोट्टायितं कुट्टमितं विव्योको रूढितं तथा ॥ १ ॥ विहृतं चेति मन्तव्या दश स्त्रीणां स्वभावजाः ॥ इति ॥
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नाटयवर्गः ७] मणिप्रभाव्याख्यासहितः
१ द्रवकेलिपरीहासाः क्रीडा लीला च नर्म च ॥ ३२॥ २ व्याजोऽपदेशो लक्ष्यं च ३ क्रीडा खेला च कूदनम् । ४ घों निदाघः स्वेदः स्या५त्प्रलयो नश्चेश्ता ।। ३३ ।।
अधि: शोभा होती है, ऐसा भी कहा है')
द्रवः, केलिः (+ केली, स्त्री, ), परीहासः (+ परिहासः । ३ पु), क्रीडा, लीला (+खेल।। स्त्री), नर्म ( = नन् न), 'क्रीडामात्र के ६ नाम हैं।
२ व्याजः, अपदेशः (२ पु), लयम (+ लक्षम् । न), 'बहाना करने के ३ नाम हैं ।
क्रीडा, खेला (२ श्री), कूदनम् (न), 'लड़कपनके खेल के नाम हैं। (म० प्रथम दो नाम उक्तार्थक और तीसरा नाम 'कूदने' का है।
४ धर्म, निदाघः, स्वेदः (३ तु), भा० दो० मा 'घाम' के और मु. म. 'पसीने के ३ नाम हैं ॥
५ प्रलयः (पु) नष्टचेष्टता (+ मूर्छ । स्त्री), 'बेहोशी' के नाम है।
१. तदुक्तम्
'यौवने सत्त्वजास्तासामष्टाविंशतिसङख्यकाः । अलङ्कारास्तत्र भावहावहेलास्त्रयोऽङ्गजाः ॥१॥ शोमा कान्तिश्च दीप्तिश्च माधुर्य च प्रगस्मता। औदार्य धैर्यमित्येते सप्तव स्युरयनजाः ॥२॥ लीला विलासो विच्छित्तिविबोकः किलकिञ्चितम् । मोट्टायितं कुट्टमितं विभ्रमो ललितं मदः ॥ ३ ॥ विहृतं तपनं मौग्यं विक्षेपश्च कुतुहलम् । हसितं चकितं केलिरित्याशसंख्यकाः॥४॥ स्वभावजाच, भावाचा दश पुंसां भवन्त्यपि ।।"
(इति सा० द. १८९-९॥) एतेषां लक्षगोदाहरगान्यत्र प्रन्यविस्तरमिया नोकानोत्यस्तानि सा०६० २९६-११० समे श्लोके द्रष्टव्यानि ॥
___
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अमरकोषः ।
[ प्रथमकाण्डे१ अपहित्थाऽऽकारगुतिः २ समौ संवेगांभी। ३ स्यादाच्छुनिलकं हासः मोत्मासः ४स मनाकिस्मतम् ॥३४॥
मध्यमः स्वाद्विलितं रोमाञ्चो 'रोमहर्षणम् । ७ क्रन्दितं रुदितं , ८ जम्भस्त माथु जम्माम् ॥ ३५ ॥ ९ विप्रहमी विलंबायो १० रिङ्ग बितानं समे। ११ स्यानिगा शयन् स्वासः सनः संवेश इत्यपि ॥ ३६ ॥
। अवहिस्या (+न), आकारगुत: ( २ यो ), 'अपने आकारको छिपाने के २ नाम हैं ।
२ संवेगः, सम्भ्रमः ( २ पु ) 'हर्ष आदिके कारण शीघ्रता करने के २नाम हैं॥
३ आच्छुरितकम् ( न ! कास्य म० 'अवच्छुरितम् ) 'साभिप्राय हँसने' का नाम है ॥
४ 'स्मितम् (न), 'साभिप्राय मुस्कुराने' का नाम है ॥ ५ विहसितम् (न)'साधारण हँसने का नाम है।
रोमान: (पु), रोमहर्षणम् (+ लोमहर्षणम् , रोमोगमा, सद्धर्षणम् उल्लासनकम् । 'रोमाञ्च होने के नाम हैं।
७ कन्दितम् रुदितम्, क्रुष्टम (३न ) 'रोने के ३ नाम हैं । ८ जम्भः (नि), जम्भणम (न ) 'जम्हाई' के २ नाम हैं । ९ विप्रलम्भा, विसंवादः (२ पु) 'ठापनेसे बात करने के २ नाम है ॥
१. रिङ्गणम् (+ रिङ्कणम् ), स्खलनम् (२न)'धर्ममार्गसे प्रतिकूल चलने, रंगने, की जगह चिकनी होनेसे या अन्य किसी कारणसे पैर फिसल जाने के ५ नाम ॥
"निद्रा (स्त्री) शयनम् (न) स्थापः, स्वप्नः, संवेशः (३ पु), नीद' के ५ नाम हैं।
१. ......."लोमहर्षणम्' इति पाठान्तरम् ॥ २. तदुक्तम्-'ईषद्विकसितैदं तैः कटाक्षः सौष्ठवान्वितम् ।
अक्षितद्विजदारमुत्तमानां स्मितं भवेत् ॥ १ ॥ इति ॥ ३. तदुकम्-'आकुत्रितकपोकाक्षं सस्वनं निःस्वनं तथा।
प्रस्तावोत्थं सानुरागमाहुर्विहसितं बुधाः' ॥१॥ इति ।।
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८१
पातालभोगिवर्गः ८] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ तन्द्री प्रमोला २ भ्रकुटिर्धकुटिभ्रंकुटिः स्त्रियाम् । ३ अदृष्टिः स्यादसौम्येऽणि ४ संसिद्धिप्रकृती त्विमे ॥ ३७ ।।
स्वरूपं च स्वभावश्च निसर्गश्चा५थ वेपथुः। कम्पोऽ६थ क्षण उद्धर्षो मह उद्धव उत्सवः॥ ३८ ॥
इति नाट्यवर्गः ।। ७॥
८. अथ पातालभोगिवर्गः। ७ अधोभुवनपातालं बलिसा रसातलम् ।
नागलोकोऽथ कुहरं 'शुधिर विवरं बिलम् ॥ १॥ । तन्द्री (. + तन्द्रिः, नन्द्रा), प्रमीला (२ स्त्री ), 'तन्द्रा होने' अर्थात् 'अधिक थकावट आदि के कारण शरीरेन्द्रियों के शिथिल होने या नींद के आदि और अन्त में आलस्य होने के २ नाम हैं ॥ __ २ भ्रकुटिः, भ्रुकुटिः, भ्रूकुटिः (+ भृकुटिः । ३ स्त्री ), 'क्रोध आदिसे भौंहको टेढा करने के ३ नाम हैं। ___ ३ अदृष्टिः (स्त्री), 'क्रूरतापूर्वक देखने' का । नाम है ॥
४ संसिद्धिः, प्रकृतिः (२ स्त्री), स्वरूपम् (न), स्वभावः, निसर्गः (२ पु), 'स्वभाव' के ५ नाम हैं ॥
५ वेपथुः, कम्पः (२ पु), 'काँपने' के २ नाम हैं । ६ क्षणः, उद्धर्षः, महः, उद्धवः, उत्सवः (५ पु), 'उत्सव' के ५ नाम हैं।
इति नाटयवर्गः ॥७॥
raNai.
८. अथ पातालभोगिवर्गः। ७ अधोभुवनम् ( + अधः, अ.), पातालम् , बलिसन (= बलिसमन्), रसातलम् (४ न), नागलोका (पु। + अधोलोकः), 'पाताल' के ५ नाम हैं।
८ कुहरम , शुषिरम् (सुषिरम् ), विवरम , बिलम् (+विलम्),
१. ....."सुधिरं विवरं विलम्' इति पाठान्तरम् । Jain Ede Onternational
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८२ अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डेछिद्रं निय॑थनं रोक रन्धं श्वध्रवपा शुषिः । १ गावटी भुधि श्वभ्रे २ सरन्ध्रे शुषिरं त्रिषु ॥ २॥ ३ अन्धकारोऽस्त्रियां ध्वान्तं तमिनं तिमिरं तमः । ४ ध्वान्त गाढेऽधितमलं ५ क्षीणेऽवतमसं तमः ॥ ३ ॥ ६ विष्वक्संतमसं ७ नागाः कावेया८स्तदीश्वराः ।
शेषोऽनन्तो९धामुकिस्तु सर्पराजो१०ऽथ गोनसे ॥४॥
तिलिसः स्या११द्जगरे शयुर्वाहस इत्युभो। छिद्रम, नियंथनम्. शेकम, रन्ध्रम्, श्वभ्रम (+ स्वभ्रम् । ९ न ), वपा, शुषिः ( + सुषिः । २ स्त्री), 'बिल' के ११ नाम हैं ।
१ गतः (+ गर्ता, स्त्री), अक्टः (+ अवाटः, स्त्री। २ पु), 'गढे' के २ नाम हैं।
२ शुषिरम् (त्रि । + सुषिरम् ), 'छेदवाली चीज़' का १ नाम है ।
३ अन्धकारः (पु न ), वान्तम्, तमिस्रम, तिमिरम्, तमः (= तमस । + तमसम् । ४ न), 'अन्धकार' के ५ नाम हैं ।
४ अन्धतमसम् (न), 'बहुत अधिक अन्धकार' का । नाम है ॥ ५ भवतमसम् (न), 'थोड़े अन्धकार' का ? नाम है ॥ ६ संतमसम (न), 'सर्वत्र फैले हुए अन्धकार' का । नाम है ॥
७ नागः, काद्रवेयः (२ पु), महे० मतसे 'नाग' के और मा० दी. मतसे 'फणा और पूंछके सहित मनुष्याकार देवयोनि-विशेष' के नाम हैं ।
८ शेषः, अनन्तः ( २ पु ), 'शेष' अर्थात् 'नागोंके राजा' के १ नाम हैं ॥
९ वासुकिः, सर्पराजः ( २ पु), 'वामुकि' अर्थात् 'साँपोंके राजा' के २ नाम हैं ।
१० गोनसः (+गोनासः ), तिलिसः (२ पु), 'पनस जातिके साँप या छोटे जातिके सर्प-सामान्य' के २ नाम हैं।
"अजगरः, शयुः, वाहसः (३ पु), 'अजगर साँप' के ३ नाम है।
१. ....."वपा मुषिः' इति पाठान्तरम् ।
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पातालभोगिवर्गः ८] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ 'अलगदर्दी जलव्यालः २ समौ राजिलडुण्डुभौ ॥५॥ ३ मालुधानो मातलाहिटनिर्मुक्तो मुक्तकञ्चुकः । ५ सर्पः पृदाकुर्भुजगो भुजङ्गोऽहिर्भुजङ्गमः ॥ ६॥
आशीविषो विषधरश्चको व्यालः सरीसृपः । कुण्डली गूढपाचक्षुःश्रवाः काकोदरः फणी ।। ७ ।। दकिशे दीर्घपृष्ठो दन्दशूको बिलेशयः ।
उरगः पन्नगो भोगी जिह्मगः पवनाशनः ॥ ८ ॥ ६ 'लेलिहानो द्विरसनो गोकर्णः कचुकी तथा (५३)
कुम्भीनसः फणधरो हरि गधरस्तथा (५४) १ अलगर्दः (+ अलगर्द्धः), जलव्यालः (२ पु ), 'डोंड़ साँप, या पानी में रहनेवाले सब साँप' के २ नाम हैं ।
२ राजिलः ( + राजीलः ), दुण्डमः (मु० म० दुण्डुमः, स्वा० म० दण्डमः । २ पु ), 'दोनों तरफ मुखवाले साँप' के २ नाम हैं। (इसे विष नहीं होता है)॥ ___३ मालुधानः, मातुलाहिः (२ पु), 'बटवाकार चितकबरे साँप' के २ नाम हैं। ___ ४ निर्मुक्तः, मुक्तकन्चुः ( २ ) 'जिसने केचुल छोड़ दिया हो उस साँप के २ नाम हैं।
५ सर्पः, पृदाकुः, भुजगः, भुजङ्गः, अहिः, भुजङ्गमः, आशीविषः (+पाशी. विषः ), विषधर, चक्री (= चक्रिन् ), व्यालः (+ व्याडः), सरीसृपः, कुण्डली (= कुण्डलिन् ), गूढपात् (गूढपाद् ), चतुःश्रवाः (= चक्षुःश्रवस्). काकोदरः, फणी (= फणिन् ), दकिरः दीर्घपृष्ठः, दन्दशूकः, बिलेशयः (+ बिलेशयः) उरगः, पन्नगः, भोगी (= भोगिन् ), जिह्मगः, पवनाशनः, (९५ पु । ये २५ पुल्लिङ्ग हैं, किन्तु स्त्रीलिङ्ग होने पर इनमें अकारान्त के 'सर्पिणी' भुजगी, इत्यादि रूप बदल जायेंगे), 'साँप' के २५ नाम हैं ।
६ [ लेलिहानः, द्विरसनः (+द्विजिह्वा), गोकर्णः, काकी (+कबुकिन् ), कुम्भीनसः, फणधरः, हरिः, भोगधरः (८ पु), 'साँप के नाम भी हैं].
१. 'मलगों जलध्वाः समौ राजिलडुण्डुमौ' इति पाठान्तरम् ।
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अमरकोषः ।
[प्रथमकाण्डे१ अहेः शरीरं भोगः स्यारदाशीरण्यहिदष्ट्रिका' (५५) ३ विवाहेयं विषास्थ्यादि ४ स्फटायां तु फणा द्वयोः । ५ समौ कञ्चकनिर्मोको ६ श्वेडस्तु गरलं विषम् ॥९॥ ७ पुंसि क्लीबे च काकोलकालकूटहलाहलाः ।
'सौराष्ट्रिकः शौक्लिकेयो ब्रह्मपुत्रः प्रदीपनः ।।१०।। दारदो वत्सनाभश्च विषभेदा अमी नव । [भोगः (पु), 'साँपके शरीर' का । नाम है ] ॥ २ [आशी: ( = आशी। + आशी:, + आशिस , स्त्री), अहिदष्ट्रिका (२ स्त्री) 'साँपके दाँत' के २ नाम हैं ] ॥
३ आहेयम् (त्रि ), 'साँके विष, हड्डी, शरीर, केचुल, दाँत, आदि, साँपसे उत्पन्न पदार्थमात्र' का १ नाम है ॥
४ स्फटा (स्त्री । + फटा), फणा ( स्त्री पु । + २ स्त्री पु), 'साँपके फणा' के १ नाम हैं ॥
५ कम्चुका, निर्मोकः ( २ पु ) 'साँपके केंचुल' के २ नाम हैं ।
६ चवेडः (पु), गरलम् , विषम् (२ न । + २ पु न ), 'विष, जहर के ३ नाम हैं ।
७ काकोलः, कालकूटः, हलाहलः (+हालाहलम् , हालहलम् । ३ पुन) सौराष्ट्रिकः, (+ सारोष्ट्रिकः), शौक्लिफेयः, ब्रह्मपुत्रः, प्रदीपना, दारा, वरसनाम: (पु)'काकोल, कालकूट आदि स्थावर विष' का १.१ नाम है। ('विषके दो भेद होते हैं-'स्थावर १ और जङ्गम २२ । पहले स्थावर.
१. 'सारोष्ट्रिकः.........' इति मु० पाठः ।। २. तदुक्तं श्रीमद्भगवद्धन्वन्तर्युपदिष्टसुश्रुतेन सुश्रुतसंहितायाः कल्पस्थानस्य द्वितीयाध्याये'स्थावरं जङ्गमं चैव द्विविधं विषमुच्यते । दशाधिष्ठानमाद्यन्तुं द्वितीयं षोडशाश्रयम् ॥ १॥
सुश्रु० क० स्था०२ भन्यञ्च माधवनिदानस्य विषरोगनिदानप्रकरणे-- स्थावर बङ्गमं चैव द्विविधं विषमुच्यते । मूलाद्यात्मकमाचं स्यात्परं सदिसम्भवम् ॥ १॥
मा. नि. विषरोगनिदानप्रकरण
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पातालभोगिवर्गः ८ ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
विषके १० भेद होते हैं - मूल १, पत्र २, फल ३, पुष्प ४, खकू (छाल) ५, क्षीर (दूध ) ६, सार ७, निर्यास ( लासा ) ८, धातु ९ और कन्द १०१ । उनमें मूलविष ८, पत्रविष ५, फलविष के १२, पुष्प विष के ५, स्वग्विष-निर्यासविषसारविषके ७, क्षीर विषके ३, धातुविषके २ और कन्दविषके १३ भेद होते हैं। इन ५५ भेदोंके नाम टिप्पणी में स्पष्ट हैं। ये विष पहाड़, पेड़, पौधा आदि स्थावर पदार्थों में होते हैं । जङ्गमविष १६ तरहका होता है-इन भेदोंके नाम टिप्पण में स्पष्ट हैं : जङ्गमविष बाघ, सिंह, भेड़िया, स्यार, सौंप, बिच्छू, बरें, भौरा, मधुमक्खी, मेंढक, छिपकली, चूहा आदि लङ्गम जन्तुओं में पाये
८५
१. सुश्रुते 'दशाधिष्ठान माद्यन्तु' इत्यनेनाद्यस्य स्थावर विषस्य दशाधिष्ठानान्युक्त्वा तानि नामतो निर्दिशति
'मूलं १ पत्रं २ फलं ३ पुष्पं ४ त्वक् ५ क्षीरं ६ सार ७ एव च । निर्यासो ८ धातव ९ इचैव कन्दश्च १० दशमः स्मृतः ॥ १ ॥
इति सुश्रु० क० स्था० २|२||
२. तदुक्तं सुश्रुतस्य कल्पस्थानीय तृतीयाध्याये -
'तत्र क्लीतकाश्वमारगुञ्जासुगन्धगर्गर ककरघाटविद्युच्छिखाविजयानीत्यष्टौ मूलविषाणि । विषपत्रिका लम्बावरदारुककरम्भमहाकरम्भाणि पञ्च पत्रविषाणि । कुमुद्वतीवेणुकारकरम्भमहाकरम्मकर्कोटक रेणुकखद्योतक चमेरो भगन्धास पघातिनन्दनसार पाकानीति द्वादश फलवि· पाणि । वेत्रकादम्बवल्लिजकरम्भमहाकरम्भाणि पञ्च पुष्पविषाणि । अन्त्रपाचककर्त्तरीसोरीयककरघाटकरम्भनन्दनवराटकानि सप्त त्वक्सारनिर्यासविषाणि । कुमुदघ्नीस्नुहोजालक्षीर्याणि त्रीणि क्षीरविषाणि । फेणाश्मभस्म हरिताल द्वे धातुविषे । कालकूटवत्सनाभसर्वपपालककर्दमक वैराटक मुस्त शृङ्गीविषप्रपुण्डरीकमूल कहालाहलमहाविषक कंटकानीति त्रयोदश कन्दविषाणि । इत्येवं पचपचाशत्स्थावरविषाणि भवन्ति ॥
इति सुश्रु० क० स्था० २ । ३. - १० ॥
३. तदुक्तं सुश्रुते कल्पस्थानीयतृतीयाध्याये
'नङ्गमस्य विषस्योक्तान्यधिष्ठानानि षोडश । समासेन मया यानि विस्तरस्तेषु वक्ष्यते ' ॥ १ ॥ तत्र दृष्टिनिःश्वासदंष्ट्रान स्वमूत्रपुरीष शुकलालार्तव मुखसन्दंश विशद्धिंतगुदा स्थिपित्तशूकशवानीति' ॥ २ ॥ इति सुश्रु० क० स्था० ३ । १-२ ।
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८६
अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डे१ विषवैद्यो जाङ्गुलिको २ 'ब्यालग्राह्यहितुण्डिकः ॥ ११ ॥
इति पातालभोगिवर्गः॥ ८॥
९. अथ नरकवर्गः। ३ स्थानारकस्तु नरको निरयो दुर्गतिः स्त्रियाम् ।
४ तद्भेदास्तपनापीचिमहारौरवरौरवाः जाते हैं । किन २ जन्तुओं में कौन २ विष रहते हैं यह भी टिप्पणी में स्पष्ट है२)॥
विषवैद्यः, जाङ्गुलिका (२ पु), 'विषका दूर करनेवाले वैद्य' के २ नाम हैं॥
२ ख्यालमाही (= व्यालग्राहिन् । + व्याल ग्राहः), अहितुण्डिकः, (+भा. हितुण्डिकः । २ पु), 'साँप पकड़नेवाले या सँपेरा' के २ नाम हैं ।
इति पातालभोगिवर्गः ॥ ८ ॥
९. अथ नरकवर्गः ।। ३ नारकः, नरका, निरयः (३ पुं), दुर्गतिः (स्त्री), 'नरक' के नाम हैं । ४ तपन, अवीचिः ( + स्त्री ), महाशैरवा, रौरवः, संघातः १. ........."व्यालग्रामाहितुण्डिकः' इति पाठान्तरम् ।।
२. 'तत्र दृष्टिनिःश्वासविषास्तु दिव्याः सर्पाः, मौमास्तु दंधाविषाः। मार्जारश्ववानरमकरमण्डूकपाकमस्यगोधाशम्बूकप्रचलाकगृहगोषिकाचतुष्पादकीयात्तथान्ये दंष्टानखवि. पाः ॥ चिपिटपिञ्चटककषायवासिकसर्षपवासिकतोटकबर्च कीटकौण्डिल्यकाः शकृन्मूत्रविषाः ॥ मूषिकाः शूक्रविषाः। लूताश्च लालामूत्रपुरीषमुखसन्दंशनखशुक्रारीवविषाः ॥ दृश्चिकविश्वम्म. रराचीवमस्स्योचिटिङ्गाः समुद्रवृश्चिकाश्चालविषाः॥ चित्रशिरस्सरावकुर्दिशतदारुकारिमेदक. शारिकामुखा मुखसन्दंशविशद्धिंतमूत्रपुरीषविषाः । मक्षिकाकगमजलायुका मुखसन्दंशविषाः॥ विषहतास्थिसपंकण्टकवरीमत्स्यास्थि चेत्यस्थिविषाणि । शकुलीमस्यरक्तराजीवरकीमत्स्याश्च पिचविषाः॥ सूक्ष्मतुण्डोचिटिकवरटीशतपदीशूकवलमिकाशृङ्गीभ्रमराः शूकतुण्डविषाः ।। कारसदाः गतासकः शवविषाः। शेषास्वनुका मुखसन्दंशविषेष्वेव गणयितव्याः॥ इति
मु.क. स्वा०३।१-१०॥
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नरकवर्ग: ९] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
'संघातः कालसूत्रं चेत्याद्याः १ सत्त्वास्तु नारकाः।
प्रेता २ वैतरणी सिन्धुः ३ स्थादलमोस्तु नितिः ।।२।। ४ विष्टिराजूः ५ कारणा तु यातना तोत्रवेदना । ६ पोडा बाधा व्यथा 'दुःस्त्रमामनस्यं प्रसूति जम् ।। ३ ।। ( + संहारः । ५ पु), कालसूत्रम् (न), आदि (आदि शब्दसे 'तामि. सम , अन्धतामिस्नम, संजीवनम, महावीचिः (स्त्री), सम्प्रतापनम् (शेष ४ न), इत्यादिका संग्रह है'), 'भिन्न भिन्न नरक-विशेष' का 1-1 नाम है । ('नरक २१ होते हैं, उनके नाम टिप्पणी में स्पष्ट हैं)॥
१ नारकः ( भा० दी. म.), प्रेतः ( + परेतः । २ पु), 'नरकके प्राणियों के २ नाम हैं ।
२ वैतरणी (स्त्री), 'यमलोकके समीप बहनेवाली वैतरणी नामकी नदी' का नाम है ॥
३ अली : (भा० बी० म०), निर्ऋतिः (२ स्त्री), 'नरककी अशोभा' के २ नाम हैं।
४ विष्टिः, भाजू: ( २ स्त्री), 'बलात्कारसे नरकमें ढकेलने' के २ नाम हैं। __ ५ कारणा, यातना, तीनवेदना (३ स्त्री), स्वा० म० 'नरकके दुःख' के और भा० दी. म. 'कठोर दुःख' के ३ नाम हैं ।
६ पीडा, बाधा ( + भाबाधा), व्यथा ( ३ स्त्री), दुःखम् , आमनस्यम्
१. 'संहारः काल..........' इति पाठान्तरम् । २. .....""दुःखममानस्य....' इति पाठान्तरम् ॥
३. उच्छास्त्रवत्तिनो लुब्धस्य राशः प्रतिग्रहस्वीकारे पर्यायेणेकविंशतिं नरकान् यातीत्यु. पक्रम्य तेषामेकविंशतिनरकाणां नामान्युक्तानि मनुना ! तद्यथा'तामिस्रमन्धतामिस्र महारौरवगैरवी । नरकं कालसूत्रं च महानरकमेव च ॥१॥ सजीवनं महावीचिं तपनं संप्रतापनम् । संघातं च सकाकोलं कुडमलं प्रतिमूर्तकम् ॥२॥ लोहशंकुमृजीपं च पन्थान शाल्मली नदीम् । असिपत्रवनं चैव लोहदारकमेव च ॥३॥
इति मनुः ४। ८८-९० ॥
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डेस्यात्कष्ट कृच्छ्रमाभीलं १ त्रिध्वेषां भेद्यगामि यत् ।
इति नरकवर्गः ।। ९॥
१०. अथ वारिवर्गः । २ समुद्रोऽब्धिरकूपारः पागवारः सरित्पतिः ।
उदम्बानुदधिः सिन्धुः सरस्वान् सागरोऽर्णवः ।। १ ।।
रत्नाकरो जलनिधिर्शदापतिरपाम्पतिः । १ तस्य प्रभेदाः क्षीरोदो लवणोदस्तथापरे ॥ २॥ (+ अमानस्यम्), प्रसूतिजम् , कष्टम् ; कृच्छम् , अाभीलम् ( ६ न ), 'दुःख' के ९ नाम हैं। ('वस्तुतस्तु पीडा....... ४ 'मानसिक दुःख' के, 'आमन. स्यम्,.......' २ 'मनोविकार' अर्थात 'उदाप्ती' के और 'कष्टम,.........." ३ 'शारीरिक दुःख' के नाम है' ) ॥
इनमें 'दुःख' इत्यादि शमन किसी विशेषण होने पर त्रिलिङ्ग होते हैं। ('जैसे-'दुःखा दुपसेवा, दुःखः पुत्रो एण्डितः, दारिद्रयमखिलं दुःखम्,....')॥
इति नरकवर्गः ॥ ९॥
१०. अथ बारिवर्गः। २ समुद्रः, अधिः, अकूपारः, पारावारः ( + पारापारः ), सरिस्पतिः, उद. न्वान् ( = उदन्वत् ), दधिः, सिन्धुः, सरस्वान् ( = सरस्वत् ), सागरः, अर्णवः, रत्नाकरः जलनिधिः, यादःपतिः ( + पाथःपतिः), अपांपतिः (१५पु), "समुद्र' के १५ नाम हैं॥
३ पीरोदः, लवणोदः (२ पु), आदि ('आदि शब्दसे 'दध्युदः ।, घृतोदः २, सुरोदः ३, इधुदः ४, स्वादूदः ५ (५५)' इन पांचोंका संग्रह है') 'क्षीरसमुद्र १, खारा समुद्र २, आदि ('आदि' शब्द से 'दधि-समुन्द्र , घृतसमुद्र, मध-समुद्र ३, रस-समुद्र ४, मीठे जलका समुद्र ५, इन पांचोंका
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बारिवर्गः १०] मणिप्रभा-भाषाटीकासहितः १ आपः स्त्री भूम्नि वार्धारि सलिलं कमलं जलम् ।
पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनं वनम् ॥३॥ 'कबन्धमुदकं पाथः पुष्करं सर्वतोमुखम् । अम्भोऽर्णस्तोयपानीयनीरक्षीराम्बुशम्बरम् ॥४॥
मेघपुष्पं धनरसरस्त्रिषु द्वे आप्यमम्मयम् । ३ भास्तरा ऊर्मिर्वा स्त्रियां वीचि ५ रथोमिंषु ॥ ५॥
महसूलोलकल्लोलो ६ स्यादावोंऽम्भसा भ्रमः ।
संग्रह है, इस तरह सब २ मात 'समुद्र' हैं') का १-१ नाम हैं ।
१ आपः (= अप, निस्य स्त्री.ब. २०। + आपः = आपस, न), वाः (= वार् ), वारि ( + वारम ), सलिलम् ( + सरिलम्, सलिरम् ), कमलम् , जलम् , पयः (+ पयस् ), कीलालम, अमृतम्, जीवनम, भुवनम, धनम् , कबन्धम् (+कमन्धम् , कम्, अन्धम् ), उदकम् (+ दकम् ), पाथः ( = पाथप ), पुष्करम् , सर्वतोमुखम, अम्भः (=अम्मस), अर्णः (=अर्णस्), तोयम, पानीयम, नीरम (+ नारम, न पु), सीरम, अम्बु, शम्बरम् (संवरम्), मेषपुष्पम् (२५ न), धनरसः (पु+ न ), 'पानी' के २७ नाम हैं।
२ माध्यम् , अम्मयम् (२ न) 'पानी के विकार' अर्थात् 'पानीसे बने पदार्थ बर्फ, शर्वत आदि' के २ नाम हैं ।
३ भङ्गः, तरङ्गः (२ पु), अर्मिः, वीचिः ( स्वा० म० नि० स्त्री। २ पु स्त्री), 'पानी के तरफ लहर' के ४ नाम हैं। __४ उल्लोला, कल्लोलः (२ पु), 'बड़ी तरह के २ नाम है ॥
५ भावतः(पु), 'चकोह' भँवर अर्थात् 'पानीके गोलाकार घूमने' का १ नाम है।
१. केचितु 'कमन्धमुदकं......' इति पठित्वा 'कमन्धम्' प्रत्येकं नाम 'कम्, अन्धम्' इति नामद्वयं वेत्याहुः । अत्र 'कबन्धञ्च दकम् .....' इति च पाठान्तरम् ॥ २. तदुक्तमभिधानचिन्तामणौ हेमचन्द्राचार्येण'लवणक्षीरदध्याज्य सुरेक्षुस्वादुवारयः ।
इति अमि०चि० म० हैम' ४ । १४१ ॥ यया वा- 'लवणेक्षुसरासपिदधिक्षीरजलाः समाः ॥ इत्यन्यत्र ॥
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अमरकोषः ।
[प्रथमकाण्डे१ पृषन्ति बिन्दुपृषताः पुमांसो विपुषः स्त्रियाम् ॥ ६॥ २ 'चक्राणि पुटभेदाः स्युर्धमाश्च जलनिर्गमाः । ३ कूलं रोधश्च तीरं च प्रतीरं च तटं त्रिषु ॥ ७॥ ४ पारा५वारे पराची तीरे ६ पात्रं तदन्तरम् । ७ द्वीपोऽस्त्रियामन्तरीपं यदन्तर्वारिणस्तटम् ॥ ८॥ ८ तोयोत्थितं तत्पुलिनं ९ सैकतं सिकतामयम् । १० निषद्वरस्तु जम्बालः पङ्कोऽस्त्री शादकर्दमौ ॥९॥
१ पृषत् (न । + पृषन्तिः , पु ), बिन्दुः, पृषतः (२ पु), विप्रट, (= वि. पुष , स्त्री । + विप्लुट् = विप्लुष ), 'बूंद' ठोप' के ४ नाम हैं ।
२ चक्रम् (न । + चक्रम्), पुटभेदः, भ्रमः, जलनिर्गमः (३ पु), महे०, स्वा. म. 'गोलाकार होकर जलके नीचे जाने के नाम हैं। (भा.
दी. म. पहलेवाले दो नाम उतार्थक और अन्त वाले दो नाम 'जल निकलनेके समुदाय के और अन्य के म० पहले वाले दो नाम उतार्थक तथा अन्तवाले दो नाम 'नीचेसे ऊपरकी तरफ जलके निकलने' अर्थात् 'जमीन फटकर भव फूटने या फोब्बारा छूटने के हैं)॥
३ कूलम, रोधः ( = रोधस्। +रोधः, - रोध, पु), तीरम, प्रतीरम् (४ न), तटम् (त्रि), 'नदी के किनारे के ५ नाम हैं ।
४ पारम् (न) 'नदीके उधरवाले किनारे' का नाम १ है ॥ ५ अवारम् (न), 'नदीके इधरवाले किनारे' का १ नाम है ॥ ६ पात्रम् (न) 'दोनों किनारों के मध्य भाग' का १ नाम है ॥ ७ द्वीपम् , अन्तरीपम् (२ पु न), 'टापू' के २ नाम हैं । ८ पुलिनम् (न), 'पानीसे शीघ्र निकले हुए किनारे' का नाम है। ९ सैकतम् , सिकतामयम् (२ न ), 'रेतीले स्थान या किनारे' के नाम हैं।
१० निषदः, जम्बालः, पङ्कः ( पु न ), शादः, कर्दमः (शेष ४ पु), 'कीचड़, पत' के ५ नाम हैं । १. 'वक्राणि पुटभेदा.........' इति मा० दी० पाठान्तरम् ।
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पारिवर्गः १०] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ जलोच्छासाः परीवाहाः २ कूपकास्तु विदारकाः । ३ नाव्यं त्रिलिङ्गं नौतायें ४ स्त्रियां नौस्तरणिस्तरिः ॥१०॥ ५ उडुपं तु प्लवः कोलः ६ स्रोतोऽम्बुसरणं स्वतः। ७ आतरस्तरपण्यं स्याद् ८ द्रोणी काष्ठाम्बुवाहिनो ॥ ११ ॥ ९ सांयात्रिका पोतवणिक १० कर्णधारस्तु नाविकः।
9-जलोच्छामः, परीवाहः (+ परिवाहः । २ पु), 'बढ़े हुए पानीके निकलनेके मार्ग' अर्थात् 'कनवाह' के २ नाम हैं ।
२-कूपकः; विदारकः, 'सूखीसी नदियों में थोड़ी देर में कुछ पानी इकट्ठा होनेके लिये किये गये गढे के २ नाम हैं। ('शोण मद्र, फागु आदि पहाड़ी या बालूदार नदियों में गढा करनेसे १०.५ मिनट में थोड़ा पानी जमा हो जाता है')॥
३ नाट्यम् (त्रि), 'नावसे पार होने योग्य नदी आदि' का नाम है ।।
४ नौः, तरणिः ( + तरणी), तरिः ( + तरी:, तरी । ३ स्त्री), 'नाव' के ३ नाम हैं । __ ५ उडुपम् (पु न ), प्लवः, कोलः (२ पु), महे. म. 'छोटी नाव' के
और भा० दी० म० 'तैरनेके लिए घड़ा, कनस्तर, तुम्बी आदिले बनाये गये साधन-विशेष' के २ नाम हैं ॥
६ स्रोत: ( = स्रोतस , न । + स्रोतः, = स्त्रोत, पु; श्रोतः, + श्रोतस, न), 'सोता' अर्थात् 'पानी के प्राकृतिक बहाव' का १ नाम है ।
७ आतरः (पु। + आवाफ: ). तरपण्यम् (न), 'नेवाई' अर्थात 'नावके भाड़े या उतराई' के २ नाम हैं ।।
८ द्रोणी (+द्रोणिः, द्रुणि:), काष्ठाम्बुवाहिनी (भा. दी० म० । २ स्त्री), 'काठकी बनाई गई छोटी नाव' अर्थात् 'टोंगी' के २ नाम हैं।
९ सायानिकः, पोतवणिक ( = पोतवणिज् । २ पु ), 'नाव या जहाजके व्यापारी' के २ नाम हैं।
१० कर्णधारः, नाविकः (२), 'पतवार पकड़नेवाले' के २ नाम हैं।
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अमरकोषः ।
[प्रथमकाण्डे१ नियामकाः पोतवाहाः २ कृपको गुणवृक्षकः ॥ १२॥ ३ नौकादण्डः क्षेपणी स्यादरित्रं केनिपातकः । ५ अम्रिः स्त्री काष्ठकुदालः ६ सेकपात्रं तु सेचनम् ।। १३ ।। ७ "यानपात्रं तु पोतोऽधिभवे त्रिषु समुद्रियम् (५६) ९ सामुद्रिको मनुष्यो१०ऽधिजाता सामुद्रिका व नौः' (५७)
१ नियामकः, पोतवाहः (२), 'मगर, मछली आदि दुष्ट जलजन्तुओंसे जहाजकी रक्षाके लिये जहाजके ऊँचे हिस्सेपर बैठनेवाले' के २ नाम हैं । ('समुद्रगामी बड़े-बड़े जहाजों में ऐसे लोग रहते हैं, जिन्हें "जहाजका कप्तान' कहते हैं')॥
२ कूपकः, गुणवृक्षकः (२ पु), 'मस्तूल' के २ नाम हैं । ('पाल या गोंद बांधने के लिए जहाज या नावके बीच में खड़े किये हुए खम्भेको 'मस्तूल' कहते हैं। किसी २ के मतसे 'नावको बाँधनेवाले खूटे'के ये २ नाम हैं। )॥
३ नौकादण्डः (पु), क्षेपणी (स्त्री। + क्षेपणिः, क्षिपणिः, क्षिपा), 'डांडे' के २ नाम हैं।
४ अरित्रम्, केनिपातकः (२ पु), 'पतवार के २ नाम हैं ॥
५ अनिः (स्त्री। + अभ्री), काष्ठकुहालः (पु। + काष्ठकूदालः), 'जहाज आदिके कतवार आदिको हटाने के लिये काष्ठके बनाये कुदाल' के २ नाम हैं।
६ सेकपात्रम्, सेचनम् (२ न), 'नाव, जहाज इत्यादिमें एकत्रित हुए पानीको फेंकने के लिये चमड़ा आदिके थैले या मशक' के नाम हैं। उपलक्षणतया 'पानी भरनेवाले मशकमात्र के भी ये २ नाम हैं ॥
७ [ पोतः (पु), 'जहाज' का नाम है ] ॥ ८ [ समुद्रियम् (त्रि ), 'समुद्र में होनेवाले पदार्थ' का १ नाम है ] ॥ ९ [ सामुद्रिका (पु), 'समुद्रके मनुष्य' का १ नाम है ॥
१. [ सामुद्रिका (स्त्री। + ममुद्रिका ), 'समुद्र में जानेवाली नाव' का नाम है।
१. यानपात्रं..."च नौः' इत्येषोंऽशः क्षी० स्वा० व्याख्यानुरोधेनात्र मूले एवोपन्यस्तः। तत्र....."मनुष्योऽधिजातादौ नौः समुद्रिका' इति पाठान्तरम् ॥
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वारिवर्गः १० ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
३
१ क्लीबेऽर्धनावं नावोऽधेऽतीत नौकेऽतिनु त्रिषु । त्रिष्वागाधा४त्प्रसन्नोऽच्छः ५ कलुषोऽनच्छ आविलः ॥ १४ ॥ ६ निम्नं गभीरं गम्भीरमुत्तानं तद्विपर्यये । ८ अगाधमतलस्पर्श ९ केवतें दाशधीवरौ ।। १५ ।। १० आनायः पुंसि जालं स्या११णसूत्रं पवित्रकम् । १२ मत्स्याधानी कुवेणी स्या१३द्वडिशं मत्स्यवेधनम् ॥ १६ ॥
६३
१ श्रर्द्धनावम् (न), 'नावके आधे हिस्से' का १ नाम है ॥ २ अतिनु (त्रि ) 'नावकी अपेक्षा अधिक वेगसे चलनेवाले मनुष्य या पानीके बहाव आदि' का १ नाम है ॥
३ यहाँसे लेकर 'अगाधमतलस्पर्शे '' - ( १|१०/१५ ) के पहलेतक 'त्रिषु' शब्दका अधिकार होनेसे सब शब्द त्रिलिङ्ग हैं ॥
४ प्रसन्नः, अच्छः ( + स्वच्छः | २त्रि ), 'साफ, निर्मल पानी आदि' के २ नाम हैं ॥
५ कलुषः, अनच्छः, आविल: ( ३ त्रि ), 'गन्दे पानी आदि' के ३ नाम हैं ॥
६ निम्नम्, गभीरम्, गम्भीरम् (३ त्रि), 'गम्भीर गहरे' के ३ नाम हैं ॥ ७ उत्तानम् (त्रि ) 'थाह, या उथला छिछिल' का १ नाम है ॥ ८ अगाधम्, अतलस्पर्शम् (२ त्रि), 'अथाह, बहुत गहरे' के २ नाम हैं ॥ ९ कैवर्तः, दाशः ( + दासः), धीवरः (३ पु ), 'मल्लाह' के ३ नाम हैं ॥ १० आनायः ( पु ), जालम् (न ), 'जाल' के २ नाम हैं ॥
११ शणसूत्रम्, पवित्रकम् ( २ न ), 'सुतली के बने हुए जात' के २ नाम हैं ॥
१२ मरस्याधानी, कु.वेणी ( २ स्त्री ), 'मछलियोंको पकड़कर रखनेवाले बर्तन' के २ नाम हैं ॥
१३ बडिशम् ( + बलिशम् ), मरस्यवेधनम् ( २ न ), 'बंशी' अर्थात् 'लोहे के बने हुए मछली फँसाने के साधन-विशेष' के २ नाम हैं । ' ('जिसमें भाटा
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६४
अमरकोषः ।
[ प्रथमकाण्डे
१ पृथुरोमा झषो मत्स्यो मीनो वैसारिणोऽण्डजः । 'विसारः शकली चाथ २ गडकः शकुलार्भकः ॥ १७ ॥ ३ सहस्रदंष्ट्रः पाठीन ४ उलूपी शिशुकः समौ । ५ नलमीनश्चिलिचिमः ६ प्रोष्ठी तु शफरी द्वयोः ।। १८ ।। ७ क्षुद्राण्डमत्स्य संघातः पोताधानदमथो भषाः ।
रोहितो मदुगुरः शालो राजीवः शकुलस्तिमिः ॥ १९ ॥
या कीड़ा आदि लपेटकर पानी में फेंककर मछलियां फैलाई जाती हैं, उसे 'बंसी' कहते हैं ) ॥
A
१ पृथुरोमा ( पृथुरोमनू ), क्षषः, मत्स्यः, मीनः, वैसारिणः, अण्डजः, विसारः, शकली ( = शकलिन् । + शकुली, = शकुलिन्, सकली, = सकलिन् । ८ पु ), 'मछली' के ८ नाम हैं ।।
२ गडकः, शकुलार्भकः ( २ पु ), 'गडक मछली' के २ नाम हैं ॥ ३ सहस्रदंष्ट्रः, पाठीनः ( २ पु ), 'पहिना मछली' अर्थात् 'बहुत दांत वाली पहिनानामक एक प्रकारकी मछली या पोठिया मछली के २ नाम हैं ॥ ४ उलूपी ( = उलूपिन् ), शिशुकः ( २ पु ), 'स' के नाम हैं ॥ ५ नलमीन ( + नडमीनः, तलमीनः ), चिलिचिमः ( चिल चिमिः । २ पु), 'नरकटमें रहनेवाली एक प्रकारकी मछली- विशेष' के २ नाम हैं ॥ ६ प्रोष्ठी (स्त्री), शफरी ( स्त्री । + पुत्री ), 'सहरी या पोठिया मछली' के २ नाम हैं ॥
७ पोताधानम् (न ), 'अण्डेसे निकले हुए मछलियों के छोटे छोटे बच्चोंके समुदाय' का १ नाम है 1
८ अब मछलियों के 'भेद' को कहते हैं अर्थात् वक्ष्यमाण शब्द पर्याय नहीं हैं ॥
९ रोहितः, मद्गुरः शालः ( + सालः ), राजीवः, शकुलः, तिमिः, तिमिङ्गिलः (७ पु ), आदि ( 'आदि पदसे 'तिमिङ्गिलगिल:, नन्दीवर्त्तः (२ पु ), आदिका संग्रह है' ), 'रोहू, मोगरा, शाल, बरारी, शकुल, तिमि,
१. 'विसारः शकुली चाथ' इति मा० दी० सम्मतः पाठः, मूलोतश्च महे० क्षी० स्वा० सम्मतः पाठ इत्यवधेयम् ॥
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पारिवः १०] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
तिमिङ्गिलादयश्चाश्थ यादांसि जलजन्तवः । २ तद्भेदाः शिशुमारोद्रशङ्कवो मकरायः ॥२०॥ ३ स्यात्कुलीर: कर्कटकः ४ कूमें कमठकच्छपौ। ५ ग्राहोऽवहारी ६ नकस्तु कुम्भीरोऽथ महीलता ॥ २१ ॥
गण्डुपदः 'किञ्चुलको ८ निहाका पोधिका समे। ९ रक्तपा तु जलौकायां स्त्रियां भूम्नि जलौकसः ।। २२ ।। तिमिडिल आदि ('मादि पदसे 'तिमिङ्गिलागल और नन्दीवर्त' आदिका संग्रह है'), 'मछलियोंके भेद हैं।
१ यादः ( = यादस , न ) जलजन्तुः (पु), 'जलमें रहनेवाले जीव' के २ नाम हैं॥
२ शिशुमारः, उदः, शङ्कः, मकरः, (४ पु), आदि ('आदि पदसे 'जल. हस्ती' ( = जलहस्तिन् ), जलकुक्कुटः, कर्कः, कच्छपः, (४ पु), का संग्रह है।) सूस, ऊद, शङ, मगर, भादि ('भादि शब्दसे 'जलहाथी, जलमुर्गा, केकड़ा, कछुश्रा' आदिका संग्रह है) जल में रहनेवाले जीव' हैं।
३ कुलीरः ( + कुलिरः), कर्कटकः (ककटः, कर्कः, करटकः, करडकः । (२ पु), 'केकड़े' के २ नाम हैं ॥
४ कूर्मः, कमठः, कच्छपः, (३ पु), 'कछुए' के ३ नाम हैं ।
५ ग्राहः, अवहार ( + अवराहः । २ पु), 'ग्राह' अर्थात् 'घडियाल' के २ नाम हैं।
६ नकः, कुम्भीरः (२ पु), 'नाक' अर्थात् 'ग्राहके भेद, एक तरहके जलचर विशेष' के २ नाम हैं।
७ महीलता (स्त्री), गण्डूपदः, किनुलकः ( + किनुलुकः, किश्चिलिकः । २ पु), 'केचुआ' के ३ नाम हैं।
८ निहाका, गोधिका (२ स्त्री), 'गोह' के २ नाम हैं।
९ रक्तपा, जलौका, जलौकसः (= जलौकस, प्रायः ब.३०।+जलोका, जलूका, जलजन्तुका, जलोरगी । ३ स्त्री), 'जोक' के ३ नाम है ॥ १. ...... किन्चुलुकः......' इति मा० दी०, क्षी० स्वा० पाठः॥
२. 'अलोरगौ जलोका तु जौका च जलौकसि' इति संसारार्णबोकेरत्र बहुपचनस्य प्रायिकत्वम् ।
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डे१ मुक्तास्फोटः स्त्रियां शुक्तिः २ शङ्खः स्यात्कम्बुरस्त्रियो। ३ क्षुद्रशङ्खाः 'शङ्खननाः ४ शम्बूका जलशुक्तयः ॥२३॥ ५ भेके मण्डूकवर्षाभूशालूरप्लवदर्दुराः। ६ शिली गण्डूपदी ७ भेकी वर्षाम्वी ८ कमठी 'डुलिः ।। २४ ।। ९ मद्गुरस्य प्रिया की
१ मुक्कास्फोटः (पु), शुक्तिः (स्त्री), 'सितुही, सीप' के २ नाम हैं । ('गजराज, मेघ, सूकर, शङ्ख, मछली, साँप, सी और बॉस' इनसे मोती निकलती है, किन्तु अधिकतर सीप से ही निकलती है')॥
२ शंखः, कम्बुः ( २ पु न ), 'श' के २ नाम हैं।
३ पुद्रशङ्खः, शङ्खनखः ( + शङ्खनकः । २ पु) 'छोटे शल' के २ नाम हैं।
४ शम्बूकः (पु। + शम्बुकः, शाम्बुकः ), जलशुक्तिः ( स्त्री। भा० दी० म०), 'घोंघा, दोहना या पानी में होनेवाली हर तरहकी सीप' के २ नाम है ॥
५ भेकः, मण्डूकः, वर्षाभूः, शालूरः ( + सालूरः ), प्लवः, बदुरः (पु), 'मेढक' के ६ नाम हैं ।
६ शिली, गण्डपदी (२ वी), 'केंचुएकी स्त्री या केंचुएके भेदकी छोटी जाति-विशेष' के २ नाम हैं।
७ भेकी, वर्षाम्वी ( २ स्त्री ), 'गुची, मेंढककी स्त्री या मेंढकके भेदकी छोटी जाति-विशेष' के २ नाम हैं ॥
८ कमठी, दुलिः ( + दुलिः । स्त्री) 'कछुई' के २ नाम हैं । ९ शृङ्गी (स्त्री। + मद्गुरी ), 'मगरकी स्त्री' का । नाम है ॥ १. ......."शनकाः......' इति पाठान्तरम् ।। २. ........"दुलिः इति पाठान्तरम् ।। ३. तदुक्तम्-'करीन्द्रजीमूतवराहशंखमरस्याहिशुक्स्युद्भववेणुजानि।
मुक्ताफलानि प्रथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि' ॥ १॥ इति ।।
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६७
पारिवर्गः १० मणिप्रभाब्याख्यासहितः।
-१ दुर्नामा दीर्धकोशिका । २ जलाशयो जलाधार३स्तत्रागाध जलो हदः ॥ २५ ॥ ४ माहावस्तु निपानं स्थादुपकराजलाशये। ५ पुस्येवान्धुः प्रहिः कूर उदासानं तु पुंसि घा॥ २६ ॥ ६ नेमिस्त्रिकाऽस्य ७ वीनाहो मुखबन्धनमाय गत् । ८ पुष्करिण्यां तु खातं स्यारदखातं देवनातकम् ।। २७॥ १. पप्राकरस्तडागाऽखी ११ कासार: सरसी सरः।
. दुर्नामा (= दुर्नामन् , पु । + दुर्नाम्नी, स्त्र), दीर्घकोशिका (स्त्री। + वीर्घकोषिका), 'जोकके समान एक प्रकारके जलचर-विशेष के २ नाम हैं॥
२ जलाशयः, जलाधारः (२ पु), 'तालाव, पोखरा, बावली मादि' के २ नाम हैं। __३ हृदः (पु), 'अथाह जलपाले तालाब आदि' का । नाम है ॥
४ माहावः (पु), निपानम् (न), "सुखपूर्वक गौ आदिके जल पीनेके लिये कूप के पास बनाये हुए हौज' के २ नाम हैं ॥
५ अन्धुः, प्रहिः, कूपः (३ पु), उदपानम् (न पु), 'कूआं, इनारा' के नाम हैं ॥
६ नेमिः ( भा. दी० म० ) त्रिका (२ स्त्री) 'धुरई, गद्दारी' के नाम हैं। ७ वीनाहः (पु। + विनाहः ), 'कुंएके जगत्' का १ नाम है।
८ पुष्करिणी (स्त्री), खातम् (न) 'पोखरी, छोटी तलैया' के २ नाम हैं।
९ अखातम, देवखातकम् ( २ न ), 'अकृत्रिम या देवमन्दिरके आगे. वाले पोखरा, तालाब आदि के २ नाम हैं ।
१. पद्माकरः, तडागः ( + तदाका, तटागः, तटागः । २ पु), 'कमल उत्पन्न होनेवाले अथाह तालाब आदि' के २ नाम हैं ॥
" कासारः (पु), सरसी (स्त्री), सरः ( = सरस् न ), 'कृत्रिम (किसी
७अ०
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ἐξ
"
अमरकोषः
१ वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरो २ वापो तु दीर्घिका ॥ २८ ॥ ३ खेयं तु परिखारम्भसां यत्र धारणम् । ५ स्यादालवालमावालमावापोऽ६ध नदी सरित् ।। २९ ।। तरङ्गिणी शैवलिनी तटिनी 'हादिनी घुनी ।
2
'स्रोतस्वती द्वीपवती स्त्रवन्ती निम्नगाऽऽपगा ॥ ३० ॥ ७ 'कूलङ्कषा निर्झरिणी धावका सरस्वती' (५८) ८ गङ्गा विष्णुपदी जहतनया सुरनिम्नगा ।
भागीरथी त्रिपथगा त्रिस्राता भोग्नसूरपि ॥ ३१ ॥
के खुदवाये हुए कपल उत्पन्न होनेवाले तालाब आदि' के मा० दो० मत से) ३ नाम हैं । ('पद्माकरः' 'सरः' 'कमल उत्पन्न होनेवाले जलाशय
मात्र' के नाम हैं, यह महे० का मत है' ) ॥
वेशन्तः (पु), पल्वलम् अश्वनरः (
=
[ प्रथमकाण्डे
1
छोटे छोटे गढे' के ३ नाम हैं ॥
२ वापी (+ वापिः ), दर्घिका ( २ स्त्रो ), 'बावलो' के १ नाम हैं ॥ ३ खेमू (न), परिखा (स्त्री), 'कित्ते मादिके चारो आरको खाई' के २ नाम हैं |
४ आधारः (पु), 'पानोके बाँध' का १ नाम है ॥
G
५ आलवालम् ( + अलवालम् ), आवालम् ( १ न ), आवापः ( पु ), 'थाला' अर्थात् 'गांड़ी या पौधे को सींचने के लिये उनके जड़ में मिट्टी आदिले बनाये हुए घेरे' के ३ नाम हैं ॥
६ नदो, सरित्, तरङ्गिणी, शैइलिनी, तटिनी, हादिनो ( + ह्रदिनी ), धुनी, स्रातस्वती ( + स्रोतस्विनी), द्वीपवती, स्रवन्तो, निम्नगा, आपगा ( + अपगा । १२ स्त्री ), 'नदी' के १२ नाम हैं ॥
७ [ कूलकुवा, निर्झरिणी, रोधोवका, सरस्वती ४ स्त्री ), 'नदी' के ४ नाम हैं ] ॥
८ गङ्गा, विष्णुपदी, जहुतनया ( + जाह्नत्री ), सुरनिम्नगा, भागोस्थी,
'इदिनी
......." इति पाठान्तरम् ॥
अश्रसरस् । २ न ), 'पानीके
......
" इति पाठान्तरम् ॥ २. 'स्रोतस्विनी'
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वारिवर्गः १०] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ कालिन्दी सूर्यतनया यमुना शमनस्वसा । २ रेवा तु नर्मदा सोमोद्भवा मेकलकन्यका ॥ ३२॥ ३ करतोया सदानीरा ४ बाहुदा सैतवाहिनी । ५ 'शतद्रुस्तु शुतुद्रिः स्यादद्विपाशा तु विपाट् स्त्रियाम् ॥३३॥ ७ शोणो 'हिरण्यवाहः स्यात्
त्रिपथगा, त्रिस्नाताः (=त्रिस्रोतस्), भोमसूः ( ८ स्त्रो), 'गा नदो' के ८ नाम हैं।
१ कालिन्दी, सूर्यतन या, यमुना, शमनवपा ( शमनवम् । + यन. स्वसा, यमस्वसू । ४ स्त्री), 'यमुना नदो के ४ नाम हैं ।
२ रेवा, नर्मदा, सोमोद्भवा, मेकल कन्यका (४ स्त्रो), 'नर्मदा नदी के ४ नाम हैं॥
३ करतोया, सदानीरा ( २ खो), 'पार्वतीके विवाह-कालमें कन्यादान के जलसे निकली हुई नदो-विशेष' के २ नाम हैं।
४ थाहुदा, सैतवाहिनी (२ स्त्रो), 'कार्तवीर्यद्वारा निकाली हुई एक नदी-विशेष' के २ नाम हैं ।
५ शतद्रुः (+ शितदुः), शुदिः (२ स्त्री) 'सतलज नदी' के २ नाम हैं। ६ विपाशा, विपाट (= विपाश् । २ स्त्रो), 'विपाशा नदो के २ नाम हैं।
७ शोणः ( + शोणभदः), हिरण्यवाहः (+ हिरण्यवाहुः । २ पु), 'सोन नामक नद' के २ नाम हैं ॥
१. 'शुतुद्रिस्तु शतद्रुः स्यात्" इति क्षो० स्वा० सम्मते पाठभेरेऽपि भूलोक मा० दो, महे० संमतपाठान्न नाम्नि भेदः' उभयथापि 'शतदुः, शुतुद्रिः' इत्यनयोरेवामिधानयोलामादि. स्यवधेयम् ॥
२......"हिरण्यबाहुः' इति पाठान्तरम् ॥
३. इयं 'करतोया' नदो पूर्वदेशस्था ब्रह्मपुत्रेग सङ्गता पुलस्यतीर्थयात्रायां तथैवोक्तेः । प्रथमं कर्कटे देवी चहं गङ्गा रजस्वला । सर्वा रक्तवहा नद्यः करतोयाऽम्बुवादिनी ॥१॥
इति याशवस्क्यस्मृतीयबालम्मट्टीयटोकायां करतोयाऽम्बुवाहिनीत्युक्त्या 'सदानीरा' इत्यन्वर्थ नामेत्यवधेयम् ॥
४. वसिष्ठशापादियं शतथा द्रुतेति पौराणिकोकथाऽनुसन्धानादस्याः 'शतः इति नाम जातमिति शेयम् ॥
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अमरकोषः।
[प्रथमकाण्डे-१ कुल्याऽल्पा कृत्रिमा सरित् । २ शरावती वेत्रवती चन्द्रभागा' सरस्वती ॥ ३४ ॥
कावेरी सरितोऽन्याश्च ३ सम्भेदः सिन्धुसनमः । द्वयोः प्रणाली पयसः पदन्यां ५ त्रिषु तूत्तरौ।। ३५ ।।
देखिकायां सरय्वां च भवे दाधिकसारखी। ६ सौगन्धिकं तु कलारं ७ हल्लक रक्तसन्ध्यकम् ।। ३६ ।। ८ स्यादुत्पलं कुवलयरमथ नीलाम्बुजन्म च ।
इन्दीवरं च नीलेऽस्मिन् ११ सिते कुमुदकैरवे ।। ३७॥ १ कुख्या (स्त्री), 'नहर' का । नाम है ॥
२ शरावती, वेत्रवती, चन्द्रभागा ( + चान्द्रभागी, चन्द्रभागी, चान्द्रभागा, चन्द्रिका ), सरस्वती, कावेरी (५ स्त्री), 'शरावती आदि प्रत्येक नदियों' का १-१ नाम है। अन्य भी 'कौशिकी, गण्डकी, गोदा, वेणी, चर्मण्वती, सिन्धु' आदि नदियाँ हैं ॥ . ३ सम्भेदः, सिन्धुसङ्गमः (पु), 'नदियोंके संगम' के २ नाम हैं ॥
प्रणाली (पु स्त्री। अन्यमतमें स्त्री न), 'पनारे या नाले' का १ नाम है।
५ दाविका, सारवः ( २ त्रि), 'देविका और सरयू नदीमें होने घाले पदार्थ का क्रमशः १-१ नाम है ॥
६ सौगन्धिकम् , कहारम् (न), 'सायंकाल में फूलनेवाले श्वेतकमल' के २ नाम हैं।
७ हलकम् , रक्तसमध्यकम् (२ न ) 'लाल कहार या त्रिकालमें फूलनेवाले रक्तपुष्प-विशेष' के २ नाम हैं ।
८ उत्पलम् , कुवलयम् (+ कुवम्, कुचलम् । २ न), 'श्वेत कमल या सामान्यतः कमल और कुमुदमात्र' के २ नाम हैं ।।
९ नीलाम्बुजन्म (= नीलाम्बुजन्मन् । + नीलाम्बुजम् ), इन्दीवरम् (+इन्दीवारम् । २ न ), 'नील कमल' के २ नाम हैं ॥
१० कुमुदम, कैरवम् (२ न) 'श्वेत कमल, कुमुद या कोई' के नाम हैं। १. '...चान्द्रमागी...' इति ,...चन्द्रमागी...' इति च पाठान्तरम्।।
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वारिवर्गः १० ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ शालूकमेषां कन्दः स्या२द्वारिपर्णी तु कुम्भिका । ३ जलनीली तु 'शेवालं शैवालो४ऽथ कुमुद्वती ॥ ३८ ॥ कुमुदिन्यां ५ नलिन्यांत बिसिनी पद्मिनीमुखाः । ६ वा पुंसि पद्मं नलिनमरविन्दं महोत्पलम् ॥ ३९ ॥ सहस्रपत्त्रं कमलं शतपत्त्रं कुशेशयम् । पङ्केरुहं तामरसं सारसं सरसीरुद्दम् ॥ ४० ॥ बिलप्रसूनराजीवपुष्कराम्भोरुहाणि
७ पुण्डरीकं सिताम्भोज८मथ रक्तसरोरुहे ॥ ४१ ॥ रक्तोत्पलं कोकनदं ९ नालो नालम् -
१ शालूक्रम् ( न ), 'कमलमात्र के कन्द (जड़)' का १ नाम है ॥ २ वारिपर्णी, कुम्भिका ( २ स्त्री । + वारिपर्णः कुम्भिकः, २ पु ), 'पुरइन' या जलकुम्भी' के २ नाम हैं |
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च ।
३ जलनीली (स्त्री), शेवालम् ( न । + शेवाल:, पु ) शैवालः ( पु । शेवलः, शैवलः ), 'सेवाल' के ३ नाम हैं ॥
४ कुमुद्वती, कुमुदिनी ( २ स्त्री ), 'कोई' के २ नाम हैं ॥
५ नलिनी ( + नडिनी ), बिसिनी, पद्मिनी ( ३ स्त्री ), आदि ( ' आदिले 'सरोजिनी, कमलिनी, उत्पलिनी (३ स्त्री), ' का संग्रह है '), 'कमलिनी
या कमल समूह' के ३ नाम हैं ॥
"
६ पद्मम्, नलिनम्, अरविन्दम् महोत्पलम्, सहस्रपत्रम्, कमलम्, शतपत्त्रम् कुशेशयम्, पङ्केरुहम्, तामरसम्, सारसम्, सरसीरुहम्, बिसप्रसूनम्, राजीवम्, पुष्करम्, अम्भोरुहम् ( १६ पु न ), 'कमल' के १६ नाम हैं ॥ ७ पुण्डरीकम्, सिताम्भोजम् ( २ न ), 'श्वेत कमल' के २ नाम हैं ॥ ८ रक्तोत्पलम्, कोकनदम् ( २ न ), 'लाल कमल' के २ नाम हैं ॥ ९ नालः (पु), नालम् ( न । + नाली, नाला, २ स्त्री ), डण्ठल' के २ नाम हैं ॥
'कमलके
१.
"शेवलं शेवालोऽय इति पाठान्तरम् ॥ "नाका नालमथास्त्रियाम्' इति पाठान्तरम् ॥
२.
३. 'कुम्भको वारिपर्णः स्यादित्ये के' इति क्षी० स्वा० वचनात् ॥
१०१
0.9
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१०२
-१ अथास्त्रियाम् |
मृणालं बिसमब्जादिकदम्बे २ षण्डमस्त्रियाम् ॥ ४२ ॥ ३ करहाट : ' शिफाकन्दः ४ किञ्जल्कः केसरोऽस्त्रियाम् । ५ संगतिका नवदलं बीजकोशो वराटकः ॥ ४३ ॥ इति वारिवर्गः ॥ १० ॥
अमरकोषः ।
१ मृणालम्, बिसम्, (+ विसम्, बिशम् । २ पुन ), 'कमल आदिके डंटल' के २ नाम हैं ॥
२ षण्डम् ( न पु ) 'कमल के फूल, पत्ती, डण्ठल, जड़ आदि सब अवयवमात्र' का १ नाम है ॥
३ करहाट, शिफाकन्दः (+ शिफा, स्त्री; कन्दः, पु न । २ पु), 'कमलकी जड़' के दो नाम हैं ।
४ किरकः, केसरः (+ केशरः । २ पु न ), 'कमलके 'केसर' (पराग) के २ नाम है ॥
"शिफा कन्दं
५ संवर्तिका (स्त्री), नवदलम् (न), 'कमलके नये पत्ते' के २ नाम हैं ॥ ६ बीजकोशः ( + बीजकोषः, वीजकोशः, वीजकोषः ), वराटकः (२५), 'कमलगट्टे' के २ नाम हैं ॥
१. .....
[ प्रथमकाण्डे
इति वारिवर्गः ॥ १० ॥
......
-Sa
इति पाठान्तरम् ॥
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१०३
पारिवर्ग: ..] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
अथ वर्गोपसंहारः काण्डसमाप्तिश्च । ३ उक्तं स्वयोमदिक्कालधीशब्दादि सनाट्यकम् ।
पातालभोगि नरकं वारि चैषां च सङ्गतम् ॥ १॥ 'इत्यमरसिंहकृती नामलिङ्गानुशासने ।
अथ वर्गोपसंहारः काण्डसमाप्तिश्च । , मैंने ( अमर सिंह ने ) 'स्वर् 5, व्योम ३, दिक् ३, काल ४, धी ५, शम्दादि ६, नाट्य ७, पातालभोगि ८, नरक ९ और वारि १०' इन दस धर्गों तथा इन के प्रसङ्गसे प्राप्त देवता, राक्षस, मेघ, विद्युत्' आदिको कहा है। ('शब्दादि' के 'आदि' शब्दसे रस, गन्ध,..' का संग्रह है')॥
२ श्रीअमरसिह के बनाये हुए, नाम (स्वर, स्वर्ग, नाक,..) और लिङ्ग ('पुंलिङ्ग, नीलिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग और अव्ययादि' ) को बतलानेवाले 'नामलिलानुशासन' अर्थात् 'अमरकोष' नामक इस ग्रन्थमें 'स्वर' आदि ('मादि शब्दसे 'व्योम, दिक् , काल,......१० वर्गोका और मु० मतसे
१. 'इत्यमरसिंहकृती...."समर्थितः' इत्ययं चरमः लोकः काण्डप्रयेऽपि क्षी० स्वा. मूलपुस्तके नोपलभ्यते, किन्तु तस्कुते 'अमरकोषोद्धाटन' नामके व्याख्याने प्रथमचरमाध्या. पयोरव्याख्यातो मूल मात्रमेवोपलभ्यते, मा० दी० अव्याख्यातोऽप्ययं प्रथमकाण्डमात्रे महे. व्याख्यात इत्यतो ग्रन्यकृता रचितो न वेति स्वयमनुसंधेयम् ॥
२. 'भत्र गणनया दशानामेव वर्गाणामुपलब्धेः 'उक्तमिति प्रतीकमादाय 'अत्रैकादश वर्गा: इति भा० दी. व्याख्यानं चिन्त्यम् । यदा मङ्गलाचरण-प्रतिशा परिभाषीयाणां श्लोकानामेकं पृथग्वर्गमुररीकृत्य 'अत्रैकादश वर्गा' इति तदुक्तेः सामजस्थमित्यवधेयम् । 'पुण्यपत्तन'- मुद्रिते क्षीरस्वामिकृतामरकोषोद्धाटनाख्यव्याख्याने तु व्योमदिग्वर्गावकीकृत्यास्मिन् काण्डे नव वर्गाः प्रदर्शिताः।
३. प्राधान्यादस्मिन् काण्डे स्वर्गीयसाधारणवस्तुनिरूपणाद स्वरादि नाब्यवान्तं 'स्वर्गवर्गः ततश्च पातासम्बन्धिषदार्थानिरूपणापातालादि वारियर्गान्तं 'पाताळवर्ग इत्येतो बायेव वर्गों मुकुटेनोररोकतावित्यवधेयम् ॥
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अमरकोषः ।
[ प्रथमकाण्डे
स्वरादिकाण्डः प्रथमः साङ्ग एव समर्थितः ॥ २ ॥ इत्यमरसिंहविरचिते 'नामलिङ्गानुशासना' परपर्याय के 'अमरकोषे' प्रथमः स्वरादिकाण्डः समाप्तः ।
१०४
'पातालवर्ग' का संग्रह है' ) का यह प्रथम काण्ड ( भाग ) श्रङ्ग ( भेद और अपभेद ) के सहित समर्थित होकर सम्पूर्ण हुआ ॥
इति पण्डितप्रवरश्रीरामस्वार्थमिश्रत नुजश्री हरगोविन्द मिश्र - विरचितायां मणिप्रभाख्यामरकोषव्याख्यायां प्रथमः स्वरादिकाण्डः समाप्तः ॥
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अथ द्वितीयकाण्डम्
वर्गभेदान् कथयति-- १ वर्गाः पृथ्वीपुरस्माभृद्वनौषधिमृगादिभिः । नृब्रह्मक्षत्त्रविशुदैः साझापाङ्गरिहोदिताः ॥ १॥
१. अथ भूमिवर्गः। २ भूर्भूमिरचलाऽनन्ता रसा विश्वम्भरा स्थिरा ।
. धरा धरित्रीधरणिःक्षोणिा काश्यपी क्षितिः ॥२॥ । इस द्वितीय काण्डमें अङ्गों और उपाङ्गोके सहित 'पृथ्वी, पुर, पर्वत, वनौषधि, मृगादि ('आदि' शब्दसे 'पक्षी, की' आदिका संग्रह हैं अथवा 'मृगादि' शब्द 'सिंहवाचक है ), मनुष्य, ब्रह्म, क्षत्रिय, वैश्य और शूदः ये.. वर्ग अर्थात् 'भूमिवर्ग १, पुरवर्ग २, शैलवर्ग ३, वनौषधिवर्ग ४,......कहे गये हैं। ('भूमिके मन-'मृत्, शाखा और नगर आदि तथा उपाङ्ग 'मृस्सा आदि पुरके अन-'आपण' आदि तथा उपाल 'विपणी' आदि पर्वत के अङ्ग-'शिला' आदि तथा उपाङ्ग 'मैनसिल, गेरु' भादि धातु, वनौषधि के अङ्ग-वृक्ष' आदि तथा उपाय 'फूल, फल' आदि; मृगके अङ्ग-हरु' आदि, तथा उपाङ्ग 'लोम' आदि एवं 'मृगादि'के आदि पदसे संगृहीत पक्षीके अङ्ग-'कीट, फतीङ्गा' आदि तथा उपाङ्ग 'चन्चु, पङ्ख' आदि हैं। इसी तरह अन्यान्य वर्गों का भी अङ्गोपाङ्ग समक्षना चाहिये)॥ .
१. अथ भूमिवर्गः। २ भूः(= भू। + भूः, = भूर् , अ०), भूमिः (+भूमी), अचला, अनन्ता, रसा, विश्वम्भरा, स्थिरा, धरा, धरित्री, धरणिः (+धरणी), होणिः ( + क्षोणी,
१. 'मृगादि शम्दस्यायमेवार्थः समुचितः, मृगान् पशूनत्तीति मृगादिरिति व्युत्पत्या 'मृगादि' शब्दस्य सिंहपर्यायलामसामञ्जस्यात् । अत एवाग्रे 'सिंहादिवर्ग'कथनं संगच्छरोडन्यथा मृगादिवर्गकथनस्यौचित्यात ॥
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१०६
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डेसर्वसहा वसुमती वसुधोर्षी वसुन्धरा । गोत्रा कुः पृथिवी पृथ्वी क्षमाऽधनिमेदिनी मही ॥३॥ 'विपुला गहरी धात्री गौरिला कुम्भिनी क्षमा (१)
भूतधात्री रत्नगर्भा जगती सागराम्बरा' (२) २ मृन्मृत्तिका३प्रशस्ता तु मृत्सा मृत्वा च मृत्तिका । ४ उर्वरा सर्वसस्याख्या ५ स्यादुषः क्षारमृत्तिका ॥४॥
६ ऊषवानूषरो द्वावप्यन्यसिसौ ७ स्थलं स्थली । क्षौणिः, चौणी), ज्या ( + इज्या'), काश्यपी, क्षितिः' सबंसहा, वसुमती, वसुधा, उर्वी, वसुन्धरा, गोत्रा, कुः, पृथिती ( + पृथवी ), पृथ्वी, चमा, भवनिः (+अवनी), मेदिनी मही ( + महि: । २७ स्त्रो), 'पृथ्वी, के २. नाम हैं।
[विपुला, गह्वरी, छात्री, गौः ( = गो), इला, कुम्भिनी, क्षमा, भूतधात्री, रत्नगर्भा (+ स्नवती), जगती, सागराम्बरा (११ स्त्री)'पृथ्वी, के नाम हैं ]॥
२ मृत् (= मृद् ), मृत्तिका ( २ स्त्री), 'मिट्टी के नाम हैं । ३ मृत्सा, मृत्स्ना (२ स्त्री), 'अच्छी मिट्टी' के २ नाम हैं ॥ ४ उर्वरा ( + ऊर्वरा । स्त्री), उपजाऊ मिट्टो' का १ नाम है ॥
५ ऊषः (पु), क्षारमृत्तिका (मी,) 'खारी मिट्टी' अर्थात् 'सादी मिट्टी, रेह' के नाम हैं।
६ अषवान् ( = अश्वत् ), ऊपरः (२ त्रि ), 'स्वारी मिट्टीवाले स्थान, अर्थात् 'ऊसर या रेहघट जमीन' के २ नाम हैं ।।
७ स्थलम् (न), स्थली (स्त्री), 'स्थल' के नाम हैं । ('अकृत्रिम भूमि' का 'स्थली' (स्त्री) यह १ नाम है, 'कृत्रिम भूमि' का 'स्थला' (बी) यह । नाम है और 'भूमिसामान्य' अर्थात् 'भूमिमात्र' का 'स्थलम्' (न) यह नाम है)।
१. 'इज्या इति मूर्खव्याख्या, 'ज्या भौर्वी 'ज्या वसुन्धरा' इति शाश्वतविरोधात' इति सौ.स्वा.॥
२. वोचिः पतिमहिः केलिरिस्याचा हस्वदीर्धयोः' इति वाचस्पत्युक्तेः ।।
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भूमिवर्गः ॥] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
१०७ १ समानी मरुधधानी २ वे खिलाप्रहते समे ॥ ५॥
त्रिघ३थो जगती लोको विष्टपं भुवनं जयत् । ४ लोकोऽयं भारतं वर्षे
१ मरु, धन्वा ( = धन्वन् । २ पु), 'मरुस्थल' अर्थात् 'मारवाद देश पा राजपूतानेकी जमीन' के १ नाम है।
२ खिरम् , अप्रहतम् (२ त्रि), 'विना जुति हुई जमीन' के २ नाम हैं।
५ जगती (बी), लोकः (पु)विष्टपम ( + पु, + पिष्टपम् ), भवनम्, 'जगत् ( ३ न ), 'भूतल जगत् के ५ नाम हैं ॥
४ भारतम् ( + भारतवर्षम् , मारतवर्षः, पु न । न ) 'हिन्दुस्तान' का १ नाम है। ('यह हिन्दुस्तान' जम्बूद्वीपका नवमांश है। वर्ष ९ हैंभारत :, किं पुरुष, २ हरिचर्ष ३ सम्म ४, हिरण्मय ५, कुरु ६, भद्राश्व ७, केतुमाल ८ और इलावृत्त ९ । इनमें क्रमशः ३ हिमालय के दक्षिण, ३ उत्तर, १-१ पूर्व तथा पश्चिम और १ मध्य भाग में है')॥
१. एक महाभूतं 'पृथवी' पञ्चमहाभूतविषयेन्द्रियात्मकं 'जगत्' इति 'पृथवीजगत्यो दः॥
२. 'उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्षे तद्भारतं नाम भारती पत्र सन्ततिः ॥ १॥ इति ।
वर्ष स्थानं विदुः प्राचाः इमं लोकं च भारतम् ॥इति मारविश्च । ३. तदुक्तम् । बम्बूद्वीपस्थान नववर्षाणां नामानि -
'स्याद्भारतं किम्पुरुषं हरिवर्षे च दक्षिणाः। रम्यं हिरण्मयकुरू हिमाद्ररुत्तरास्त्रयः ॥१॥ मद्राश्वकेतुमालौ तु दो वर्षों पूर्वपश्चिमौ । इलावृत्तं तु मध्यस्थं सुमेरुयंत्र तिष्ठति ॥ २ ॥
इति वाचस्पतिः । एषां सीमां ब्रुवन् क्षी० स्वा० स्वाहावेव वर्षाग्बाह । तद्यथा
'हिमवान् हेमकूटश्च निषषो मेरुरन्तरे। नीकः श्वेतश्च शृङ्गीवान् गन्धमादनमष्टमम् ॥ १॥
पति सीमाविच्छिवान्यष्टो मर्माणि ॥ इति ।
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१०८ अमरकोषः।
[प्रथमकारे-१ शरावत्यास्तु योऽवधेः॥६॥ देशः प्राग्यक्षिणः प्राच्य २ उदीच्यः पश्चिमोत्तरः। ३ प्रत्यन्तोम्लेच्छदेशः स्यात् ४ मध्यदेशस्तु मध्यमः॥७॥ ५ मार्यावर्तः पुण्यभूमिमध्यं 'बिन्ध्यहिमालयोः ।
maaamanane
'प्राच्यः (पु), 'शरावती नदोके पूर्व और दक्षिण वाले देश का नाम है ॥
दीच्यः (पु), 'शरावती नदीके पश्चिम और उत्तर वाले देश का नाम है ॥
३ प्रत्यन्तः, ग्लेच्छदेशः (२ पु), म्लेच्छ देश' अर्थात् 'कामरूप आदि' के २ नाम हैं। ___४ मध्यदेशः मध्यमः (पु), 'मध्यदेश के २ नाम हैं ॥
५ भार्यावर्तः (पु), पुण्यभूमिः (स्त्रो), 'विन्ध्याचल और हिमालय पहाड़ के बीचवाले देश के २ नाम हैं ।
१. 'विष्यहिमागयोः इति पाठान्तरम् । २, ३. उक्तञ्च काशिकायाम्
'प्रागुदलौ विमजते हंसः क्षीरोदके यथा ।
विदुषां शब्दसिद्धयर्थे सा नः पातु शरावतो ॥१॥ इति ॥ ४. तदुक्तं-चातुर्वण्र्यव्यवस्थानं यस्मिन्देशे न विद्यते ।
तं म्लेच्छविषयं प्राहुरायविर्तमतः परम्' ।। इति ।। विषयो देशः। ५. तदुक्तं मानुना--'हिमवदिन्ध्योर्मध्यं यत्प्राग्विनशनादपि ।
प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ॥ १॥ (२।२९)। अत्र विनशनं तीर्थविशेषः, परे प्रसिद्धाः ॥ ६. तदुक्तं मनुना-'आसमुद्राच्च वै पूर्वादासमुद्राच्च पश्चिमाव ।
तयोरेवान्तरं गिर्यारार्यावर्त विदुषाः१॥ इति ( २।२२ )॥ तयोहिमवदिन्थ्यपर्वतयोरित्यर्थः ।।
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भूमिवाः १] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१०६ १ नोवृज्जनपदो २ देशविषयौ तूपवर्तनम् ॥८॥ ३ भिष्वागोष्ठान्नडप्राये नड्वान्नड्वल इत्यपि । ५ कुमुद्वान् कुमुदपाये ६ वेतस्वान् बहु वेतसे ॥९॥ ७ शाबलः शादहरिते ८सजम्बाले तु पडिला । ६ जलप्रायमनूपं स्यात् १० पुंसि कच्छस्तथाविधः ॥ १०॥
१ नीवृत्, जनपदः ( +जानपदः । २ पु), 'मनुष्योंके ठहरनेकी जगह-ग्राम, नगर' के २ नाम हैं । ___२ देशः, विषयः (२ पु), उपवर्तनम् (न), देश' अर्थात् 'ग्राम सा. दाय' के ३ नाम हैं ॥
३ यहाँसे लेकर 'गोष्ठं गोस्थान...' (२०१२) के पहलेतक 'निषु'का अधिकार होने से सब शब्द त्रिलिज हैं।
४ नड्वान् ( नड्वत् ), नड्वलः (२ त्रि), 'नरसल या नरकट जिस देशमें अधिक हो, उस देश के २ नाम हैं ॥
५ कुमुद्वान् (= कुमुद्वत् , त्रि), "जिस देशमें कुमुद अधिक हो, उस देश' का १ नाम है ॥
६ वेत्तस्वान् ( = वेतस्वत् , त्रि), 'जिस देशमे बेत अधिक हों, उस देश' का १ नाम है।
शाला (+ शाड्वलः । त्रि), 'नई घासोसे हरा भरा स्थान या देश का नाम है।
८ पङ्किलः (त्रि), 'कीचड़वाले देश या स्थान' का । नाम है ॥
९ जलप्रायम् , 'अनूपम् (२ त्रि), 'बहुत जलवाले स्थान या अनेक प्रकारके पेड़ लता और झरनेवाले जङ्गलसे युक्त सब तरहके अन्न पैदा होनेवाले देश के २ नाम हैं।
१० कच्छः (पु । + न ), 'बहुत पानीवाले स्थानके समान नदी आदिके पासवाले बगीचा इत्यादि' का । नाम है। (भा० दी० मतसे 'जलप्रायम्' आदि २ नाम उक्तार्थक है) १. तदुकम्-'नानाद्रुमलतावीरूनिझरप्रान्तशीतलैः।
वनाप्तमनूपं स्यात्सस्यैव्रीहिववादिमिः ॥ १॥ इति ।
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अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डे१ स्त्री शर्करा शरिलः २ शार्करः शर्करावति ।
देश एवादिमा३वेवमुन्नेयाः सिकतावति ॥ ११ ॥ ४ देशो नद्यम्बुवृष्टयम्दुसम्पन्नवीहिपालितः ।
स्यान्नदीमातृको देवमातृकश्च यथाक्रमम् ॥१२॥ ५ राशि देशे राजन्वान् स्यात्ततोऽन्यत्र राजवान् । ७ गोष्ठं गोस्थानकं ८ तत्त गोष्ठीनं भूतपूर्वकम् ॥१३॥ ९ पर्यन्तभूः परिसर :
१ शर्करा (नि. स्त्री), शर्करिलः (नि), 'अधिक बालूवाले या छोटे छोटे ककड़वाले या रेतीले देश' के २ नाम हैं ।
२ शार्करः, शर्करावान् (= शर्करावत् । २ त्रि), 'बालवाले देश इत्यादि। ('मादि शब्दसे बालूवाले पदार्थ आदिका संग्रह है') के नाम हैं । ___३ इसी तरह 'सिकता' आदि शब्दसे भी तर्ककर समझना चाहिये । (यथा-'सिकता: (नि. स्त्री। + नि. प.व.), सैकतिला (त्रि), 'बालू वाले देश' के नाम हैं। सैकतः, सिकतावान् ( = सिकतावत् । २ त्रि) बालू वाले देश आदि' के दो नाम हैं)॥
४ नदीमातृका, देवमातृकः (२ त्रि), 'नदी और नहर आदिके पीनीसे खेत सिंचनेपर अन्न पैदा होनेवाले देश' का तथा वर्षाके पानीसे स्खेत सोचनेएर अन्न पैदा होनेवाले देश' का क्रमश: १-१ नाम है ॥ __५ राजन्यान् ( राजन्वात् , त्रि), 'धर्मात्मा, शीलवान् और सदाचारी राजासे पालित देश' का । नाम है।
६ राजवान् ( = राजवत् , त्रि), 'सामान्य राजासे पालित देश' का नाम है।
७ गोष्ठम् , गोस्थानकम् (२ न ) गौमोंके रहने के स्थान-गोशाला आदि' के २ नाम हैं।
८ गौष्ठीनम् (न),'जहाँ पहले गौ रहती हो, उस स्थान का नाम है।
९ पर्यन्तभूः (स्त्री), परिसरः (पु) नदी और पहाड़ आदिके पासकी भूमि' के २ नाम हैं ।
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भूमिवर्गः ॥] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १११
-सेतुराती स्त्रियां पुमान् । २ वामलूरश्च नाकुश्च वल्मीकं पुनपुंसकम् ।। १४ ।। ३ अयनं वर्त्म मार्याध्वपन्थानः एदवी सृतिः।
मरणिः पद्धतिः पद्या वर्तन्येकपदीति च ॥ १५ ॥ ४ अतिपन्थाः सुपन्थाश्च सत्पथश्चार्धितेऽध्वनि। ५ व्यध्वो दुरध्वो विषयः कद्ध्वा कापथः समाः ॥ १६ ॥ ६ अपन्यास्त्वपथं ७ तुल्ये झाटकचतुष्पथे। ८ प्रान्तरं दूरशून्याऽध्दारकान्तारं वर्त्म दुर्गमम् ॥ १७॥ १ सेतुः (पु), मालिः ( + माली । स्नी), 'पुल' के २ नाम हैं ।
२ वामलुरः, नाकुः (२ पु), वल्मीकम् (+वाल्मीकम् । पुन), 'बामी, बम्घौट, दिमकाण' अर्थात् 'दीमकों द्वारा इकट्टी की हुई मिट्टीके हेर' के ३ नाम हैं ॥ __ ३ अयनम्, वर्म ( = वर्मन् । २ न), मार्गः, अध्वा ( = अध्वन् ), पन्थाः ( = पथिन् । + पयः । ३ पु), पदवी ( + पदविः), मृतिः, सरणिः (+ शरणिः ), पद्धतिः (+ पद्धती), पद्या, वर्तनी, (+ वर्तनि:, वर्मनिः), एकपदी (+एकपात् = एकपाद् । ७ स्त्रो), 'मार्ग, रास्ते के १२ नाम हैं ।
४ अतिपन्था: ( = अतिपथिन् ), सुपन्थाः ( = सुपथिन् ), सरपथः (३ पु), अच्छे मार्ग' के नाम हैं। __ ५ व्यध्ना, दुरध्वः, विषयः, कध्धा (= कदध्वन्), कापथः (+कुपथः । ५ पु'), खराब मार्ग' के ५ नाम हैं । . इ अपन्थाः (= अपथिन् , पु), अपथम् (न), 'कुमार्ग खराब रास्ते' के २ नाम हैं ।
७ शृङ्गाटकम्, चतुष्पथम् (२ न), 'चौरास्ता या चौक' के २ नाम हैं ।
८ प्रान्तरम् (न), जिसमें बहुत दूरतक छाया और पानी नहीं मिले, उस रास्ते' का । नाम है।
९ कान्तारम् (षु न ), चोर, कण्टक और झाड़ो इत्यादिसे दुर्गम रास्ते' का नाम है ॥
१. 'विपथं-कापथं च क्लोरमाहुः, यद्वामनः-( 'पथः संख्याव्ययादेः' ) 'सङ्खथाम्बवपू. कस्य पथः क्लोवता' इति क्षी० स्वा. 'विप्रथकापथ' शम्दयोनपुंसकत्वमप्युक्तवान् ।।
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अमरकोषः । [द्वितीयकाण्डे१ गम्यूतिः स्त्री क्रोशयुगं २ नल्वः 'किकुचतुःशतम् । ३ घण्टापथः सरणं सत्पुरम्योपनिष्करम् ॥१८१ ५ द्यावापृथिव्यों रोषस्यौ धावाभूमी व रोदसी (३ दिवस्पृथिव्यौ ६ गान रूम स्थालवणाकरः' ()
शशि भूमियतः ।। १ ।।
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म्यूतिः (मः । +५:ोन, भोपनम्, २ म), 'दो कोश लम्बे रास्ते या स्थानका १ नाम:॥
२ नवः (पु । +ब), 'चार हजाग हाथ लम्बे रास्ते या रस्सी आदि' का नाम है।
३ घण्टापथः (पु), संसरणम् (न) 'राजमार्ग के २ नाम है ॥ ४ 'उपनिटकरम (न) गांवके राजमार्ग' का नाम है ॥
५ [थावापृथिव्यो, रोदस्यो, थावाभूगी, रोदसी, दिवस्पृधिच्यौ ( ५ स्त्री नि. द्विव०), 'आकाश और पृथ्वीके समुदाय' के ५ नाम हैं ] ॥
६ [गा, रुमा (२ स्त्री), लवणाकरः (पु), 'वारा समुद्र' के ३ नाम हैं ] ॥
इति भूमिवर्गः ॥१॥
२. 'किकुचतुःशती' इति काचित्कः पाठः।
२. अर्थ क्षेपकः क्षी. स्वा. व्याख्यायामुपलभ्यते, तत्र 'दिवसपृथियौ गजा तु' इत्यस्य स्थाने 'दिवसपृथिव्याः संज्ञेयम्' इति पाठभेदश्चोक्त इति शेयम् ।
३. 'अङ्गोपाङ्गापेक्षया भूमेः प्राधान्यादाह-'इति भूमिवर्ग' इतीत्यवधेयम् ॥
४. तथा च बृहस्पतिः'धन्वन्तरसहसं तु क्रोशं, कोशद्वयं पुनः गज्यूतं स्त्री तु गम्यूतिर्गोरुतंगोमतं च तत्' ॥१॥इतिः
'धनुईस्तचतुष्टयम्' इति । 'द्वाभ्यां धनुःसहस्राभ्यां गव्यूतिः पुंसि भाषितः ।। इति शब्दार्णवः' इति ।।
एवम्च-४ हस्ताः = १ धनुः । १०००धनूषि = १ कोशः । २ क्रोशौ वा २००० धषि१ गव्यूतिः।
५. 'नत्वं हस्तशतम्' इति भा० दी। किकुइस्तस्तेषां चतुःशती 'नल्वम्' इति माला। कात्यस्तु-'नल्वं [विज्ञ ] हस्तशतम्' इति क्षी० स्वा० । 'नत्वं विश इस्तशतम इति मुकुटः॥
६. 'दशधन्वन्तरो राजमार्गों घण्टापथः स्मृतः' इति चाणक्य इति ॥
७. 'बुधैः संसरणं वर्म गजादीनामसंकलम् । पुरोपनिष्करं चोकम्' इति क्षी० स्वा० ॥
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पुरवर्गः २] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
२. अथ पुरवर्गः। १ पूः स्त्री पुरीनगयौं वा पत्तनं पुटभेदनम् ।
स्थानीयं निगमो२ऽन्यत्त यन्मूलनगरात्पुरम् ॥१॥
तच्छाखानगरं ३ वेशो वेश्याजनसमाश्रयः । ४ आपणस्तु निषद्यायां ५ विपणिः पण्यवीथिका ॥२॥ ६ रथ्या प्रतोली विशिवा ७ स्याच्चयो वप्रमस्त्रियाम् ।
२. अथ पुरवर्गः । पू: (= पुर्, स्त्री ), पुरी, नगरी ( २ स्त्री न ), पत्तनम् ( + पट्टनम् ), पुटभेदनम् , स्थानीयम् ( ३ न), निगमः (पु), 'नगर' के ७ नाम हैं। ('जहाँ अनेक तरह के कारीगर व्यापारी आदि वसते हैं उसके 'पू:, पुरी, नगरी' ये ३ नाम हैं, 'जहां राजाके नौकर आदि वसते हैं उसके पत्तनम्, पुटभेदनम्' ये २ नाम हैं और खाई या चहारदीवारी आदिसे घिरे हुए नगरके 'स्थानीयम्, निगमः' ये २ नाम हैं। यह भी किसी २ का मत है।)॥
२ शाखानगरम (न), 'राजधानोके समीपवर्ती छोटे-छोटे नगर' का १ नाम है ।
३ वेशः, वेश्याजनसमाश्रयः (भा. दो० । २ पु), 'वेश्यामोंके घाल. स्थान' के २ नाम हैं।
४ आपणः (पु), निषद्या (स्त्री) 'बाजार, हाट या या प्राहकोके खरी. दने योग्य वस्तु (सौदा ) के रखनके स्थान' अर्थात् 'गोदाम' के २ नाम हैं।
५ विपणिः (+ विपणी), पण्यवीथिका ( + पण्यवीथी । २ स्त्री), 'दूका. नोकी पति या बाजार का रास्ता या बाजारसे भिन्न सौदा बेचनेके किसी भी स्थान' के २ नाम हैं । ( 'आपण' आदि ४ नाम 'बाजार' के हैं, यह भी मत है)।
६ रथ्या, प्रतोली, विशिखा (३ स्त्री), 'गली' के ३ नाम हैं। (विपणिः भादि ५ नाम एकार्थक हैं, यह भी मत है)॥
७ चषः (पु), वप्रम् ( न पु), 'धूस' अर्थात् 'किलेके चारों तरफ ऊँचे किये हुये मिट्टोके ढेर' के २ नाम हैं ।। Jain EdF 3Tointernational
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अमरकोषः। द्वितीयकाण्डे१ प्राकारो घरण 'सान्नः २ प्राचीन प्रान्ततो वृतिः ॥ ३॥ ३ भित्तिः स्त्री कुड्यहमेडूक यदन्तय॑स्तकीकलम् । ५ गृहं गेहोदवसितं वेश्म सद्म निकेतनम् ॥४॥
निशान्तवस्त्यसदनं भवनागारमन्दिरम् ।
गृहाः पुंसि च भूम्न्येव . निकाय्यनिलयालयाः ॥ ५॥ ६ वासः कुटी द्वयोः शाला सभा ७ संजवनं त्विदम् ।
चतुःशालं ८ मुनीनां तु पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम् ॥ ६ ॥
प्राकारः, वरणः, साल: { + शालः । ३ पु), बाँस या काँटा आदि. के घेरे में ३ नाम हैं ।
२ प्राचीनम् ( + प्राचीरम् । न ), 'काँटा आदिसे घिरे हुए नगरके समीपवाले स्थान' का १ नाम है ॥
३ भित्तिः (स्त्री), कु.डयम् (न), 'दीवाल' के २ नाम हैं।
४ एडूकम् ( + पहुकम्, एडोकम् । न ), 'मजबूतीके लिये भीतरमें हड्डी, लोहा. लकड़ी या टीन आदि देकर बनाई हुई दीवाल' का १ नाम है॥
५ गृहम, गेहम् , उतारितम्, वेश्म ( = वेश्मन् ), सद्म ( = सन् ) निकेतनम्, निशान्तम्, वस्त्यम् (+ पस्त्यम्, बस्त्यम् ) सदनम् (+ सादनम) भवनम, अगारम्, मन्दिरम् (१२ ), गृहाः (पु नि. ब. व.), निकारयः ( + निकायः ), निलयः, आलयः ( ३ पु), 'मकान' के १६ नाम हैं ।
६ वासः (पु), कुटी (कुटिः। पु स्त्री), शाला, सभा (२ स्त्री), 'सभाभवन या बैठकखाना' के ४ नाम हैं। ('गृहम..........' २० नाम 'मकान' ही के हैं, यह भी मत है')॥
७ संजवनम्, चतुःशालम् ( + चतुःशाला, स्त्री। २१), चौतरफा घर. वाले स्थान' के २ नाम हैं ।
८ पर्णशाला (स्त्री ।+न), उटजः (पु न), 'पत्तोंसे बनाई हुई साधुओंकी कुटी' के २ नाम हैं । १. 'सालः प्राचीरं' इति पाठान्तरम् ।।
२. 'कुलोदवसितं पस्त्यम्' इति वाचस्पत्यनुरोधात्-'निशान्तपस्स्यसदनम्' इत्यपीति क्षी० स्वा० माह॥
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पुरवर्गः २] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ चैत्यमायतनं तुल्ये २ वाजिशाला तु मन्दुरा । ३ आवेशनं 'शिल्पिशाला ४ प्रपा पानीयशालिका ।। ७ ॥ ५ मठश्छात्रादिनिलयो ६ गजा तु मदिरागृहम् । ६ गर्भागारं वासगृहसमरिष्टं सूतिकागृहम् ॥८॥ ९ "कुट्टिमोऽस्त्री निबद्धा भू१०श्चन्द्रशाला शिरोगृहम्'(५) ११ वातायनं गवाक्षो१२ऽथ मण्डपोऽस्त्री जनाश्रयः ।
१ चैत्यम्, आयतनम् (२ न), 'यज्ञस्थान-विशेष' के २ नाम है ॥ २ वाजिशाला, मन्दुरा ( २ स्त्री), 'अस्तबल' के २ नाम हैं ॥
३ आवेशनम् (न), शिल्पिशाला (+ शिल्पशाला । स्त्री+न), 'कारोगरोंके घर' के नाम हैं ॥
४ प्रपा, पानीय शालिका (+पानीयशाला । २ स्त्री), 'पौसरा, प्याऊं, या पानी रखनेकी जगह' के २ नाम हैं ।
५ मठः (पु), 'मठ' अर्थात् 'विद्यार्थियों या संन्यासियों के रहने की जगह' के २ नाम हैं।
६ गा (स्त्री), मदिरागृहम् (न), कलवरिया या मदिराके घर' के २ नाम हैं ।
७ गर्भागारम , वासगृहम् (२ न), 'घरके बीचके हिस्से' अर्थात् 'तहखाने के २ नाम हैं।
८ अरिष्टम, सूतिकागृहम् ( + सूतकागृहम् । २ न), 'सौरीके घर' अर्थात् 'जिसमें लड़का पैदा हुआ हो उस घर' के २ नाम हैं । ('किसीके मतसे 'गर्भागारम्,.......... ४ शब्द एकार्थक हैं)॥
९ [ कुट्टिमः (पु न ), 'पत्थर या संगमर्मर आदिके बने हुए फर्श का । नाम है] ॥
१० { चन्द्रशाला (स्त्री), शिरोगृहम (न), 'अटारी या घरके ऊपरी छत' के २ नाम हैं ] ॥
" वातायनम् (न), गवासः (पु), 'झरोखे' के नाम हैं। १२ मण्डपः (पुन), जनाश्रयः (पु), 'मण्डपके २ नाम है। १. 'शिल्पिशालम्' इति पाठान्तरम् । 'शिरूपशाला' इति सभ्यःपाठ तिबी.सा.. २. भयं धो. स्वा. व्याख्यानां समुपकन्यते ॥
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अमरकोषः
( द्वितीयकाण्डे१ 'हादि धनिनां वासः २ प्रासादो देवभूभुजाम् ॥९॥ ३ सोधोऽ गजसदन४मुपकार्योपकारिका। ५ स्वस्तिकः सर्वतोभद्रो नन्द्यावर्तादयोऽपि च ॥ १० ॥
विच्छन्दका प्रभेदा हि अवन्तीश्वरसद्मनाम् । ६ म्यारं भुजामन्तःपुरं स्यादवरोधनम् ॥ ११ ॥
शुद्धान्तश्चावरोध ७ स्यावहः क्षोममस्त्रियाम् । ८ प्रघाण प्रघणालिन्दा वहिरिप्रकोष्ठके ॥१२॥
१ हर्चम (न), आदि ( 'आदि शब्दसे 'स्वस्तिकम्, अट्टालिकम्, वास. गृहम ( ३ न ),..... धनियोके रहने के स्थान' का १ नाम है ।।
२ प्रासादः (पु), 'देवताओं और राजाओंके निवासस्थान या कोठे' का नाम है ॥
३ सोधः (पु न ), राजसदनम (न), 'राजाके घर' के २ नाम हैं ।
४ उपकार्या, सारिका (२ स्त्री) 'तम्बू , कनात, सामियाना' के २ नाम हैं । ( 'सौधम्,... . . .' ४ शब्द 'राजगृह' के नाम हैं)॥
५ स्वस्तिकः, सनोभद्रः, नन्द्यावर्तः, आदि ('आदि' शब्दसे 'रूपका, वर्द्धमानः,.....' ), विच्छन्दकः ( + विच्छर्दकः । ४ पु), 'धनियोंके गृहों' के 1-1 नाम हैं । ('चारों तरफसे दरवाजा और तोरणवाले घरको 'स्वस्तिक', अनेक मंजिले घरको 'सर्वतोभद्र', गोलाकार घरको 'नन्द्यावर्त' और बड़े तथा सुन्दर घरको 'विच्छन्दक' कहते हैं')॥
६ अन्तःपुरम् , अवरोधनम् (२ न), शुद्धासः, अवरोधः (२ पु), 'रनिवास' के ४ नाम हैं ॥
७ भट्टः (पु), क्षोमम् ( + क्षौमम् । न पु), 'अटारी' के २ नाम हैं ।
८ प्रघाणः, प्रघणः, अलिन्दः ( + आलिन्दः । ३ पु), 'पटडेहर' अर्थात् 'चौखटकी बाहरी जगह' के ३ नाम हैं ॥
१. एतत्पूर्व 'मत्ताकम्बोऽपाश्रयः स्यात्यग्रीवो मत्तवारणः' इति क्षेपकः क्षी. स्वा० व्याख्याने उपलभ्यते॥ २. 'विच्छर्दकप्रभेदा हि' इति पाठान्तरम् ॥
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माण
पुरवर्गः २] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ गृहावग्रहणी 'देहल्यरङ्गणं चत्वराजिरे। ३ अधस्तादारुणि शिला ४ नासा दारूपरि स्थितम् ॥ १३ ॥ ५ प्रच्छन्नमन्तारं स्यात् ६ पक्षद्वारं तु पक्षकम् । ७ वलीकनीधे पटलप्रान्तेऽथ पटलं उदः ।। १४ ॥
, गृहावग्रहणी, देहली ( २ स्रो), 'डेहरी था इवाजे के नीचेवाले भाग' के २ नाम हैं।
२ अङ्गणम ( महे• I + अङ्गनम्, भा० दो० १० १०। + प्राङ्गणम्, प्राङ्गनम् ), चत्वरम् , अजिरम् ( ३ न ) 'आँगन चबूतरे' ३ नाम हैं । ____३ शिला ( + शिली : स्त्री), 'दरबाजेके दोनों के नीचेवाले काठ लोहे या पत्थर' का १ नाम है ।।
४ नामा ( स्त्रो), 'दरवाजेके दोनों स्वम्भोंके ऊपरवाले काष्ठ, लोहे या पत्थर' का १ नाम है।
५ प्रच्छन्नम्, अन्तरिम ( २ न ), 'खिड़की' १२ नाम हैं ॥
६ पक्षद्वारम, पत्रकम् ( + पु, क्षी० स्था. भा. दी० २ न ), 'मुख्य द्वारके बगलवाले द्वार' के २ नाम हैं । ___वलीकम् ( + पु), नीध्रम् , पटलप्रान्तम् ( ३ न ), 'छान्ह ओरी, या घोड़मुंहा' के ३ नाम हैं ।
८ पटलम् (न), छदिः (= छदिस , स्त्री "क्षी. २३०, नपुं० भा० दी., महे. ): 'छावना, छाजन' के २ नाम हैं।
१. 'देहल्यङ्गनम्' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'पक्षकः' इति पाठान्तरम् ।
३. णान्तस्याङ्गणशम्दस्य पृषोदरादित्वात्सिद्धिः। ङ्गनं प्राङ्गणे याने कामिन्यामङ्गना मता' इति विश्वमेदिन्युक्तेः, 'अङ्गनं प्राङ्गणे यानेऽप्यङ्गना तु नितम्बिनी' इति अनेकार्थसंग्रहे हेमचन्द्राचार्योक्तेश्च नान्तोऽपि 'अङ्गन' शब्द इत्यवधेयम् । अधिकं व्याख्यासुधाटिप्पणे द्रष्टव्यम् ।
४. 'प्रच्छन्नमन्तारं स्यात्पक्षद्वारं तदुच्यते' इति कात्यात 'पक्षद्वार' शब्दः पूर्वान्वयीत्यन्ये' इति मा० दी० । तन्न शोमनम् , 'त्वन्ताथादि न पूर्वमाक' (१२११४) इति ग्रन्थकारप्रतिशाविरोधात् । 'तो'स्थाने 'च' पाठमाश्रित्याविरोधोऽपीत्यवधेयम् ॥
५. 'छदिः स्त्रियामेव (लि० सू० १३५) इत्यत्र 'इयं छदिः' इत्यादिना 'छदिः शब्दसाधु स्वमुक्खा 'पटलं छदिः इत्यमरकोषे 'पटल'साहचर्यात् 'छदिषः' कीवतां वदन्तोऽमरव्याख्या
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११८ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ गोपानसी तु बलभी छादने वक्रदारुणि । २ कपोतपालि कायां तु विटङ्गं पुन्नपुंसकम् ।। १५ ॥ ३ स्त्री द्वारिं प्रतीहारः ४ स्याद्वितदिस्तु वेदिका ।
। गोपानसी, बलभा ( + वलमिः, 'वडमी । २ स्त्री) 'धरन, कैंची या छानेके लिये दिये हुए टेड़े काष्ठ' के २ नाम हैं ॥ ___२ कपोतपालिक! (स्त्री), विटङ्कम (न पु ), 'कबूनर आदि पक्षियों के लिये लकड़ी आदिके बनाए हुए घर' के २ नाम हैं ॥
३ द्वाः ( = द्वार स्त्री), द्वारम् (न), प्रतीहारः ( + प्रतिहारः । पु), 'दरवाजे के ३ नाम हैं ॥
वितदिः ( + वितर्दी), वेदिका ( २ स्त्री), 'वेदी चौतरा' के २ नाम हैं । तार उपेक्ष्या' इति भट्टोजीदीक्षितः । 'छदिः स्त्रियामेव' (लि० सू० १३५ ) इत्यत्र एवपदमा न्तराऽपि सूत्रोक्त्या छदिषः स्त्रीत्वे लब्धे 'पटलं छदिः (अमर २१२।१४) इत्यत्र पटलसाहचर्यास्लीबस्वसन्देह इति तन्निवारणाय सूत्रे 'एव'कारस्तदुच्यते'ऽमरव्याख्यातार उपेच्या' इति' इति सुबोधिनीकारः। 'पटलच्छदिषी समे' ( अमि० चिन्तामणौ ४.७६ ) इत्यस्य 'पटयति स्थगयति पटलं त्रिलिङ्गः 'मदिकन्दि- ( उणा० स० ४६५) इत्यलः, पटं लातीति वा ॥१॥ छाबतेऽनेनच्छदिः क्लीवलिङ्गः' 'अचिंशुचि-' (उ० स० २६५) इति इस' 'छदेरिस्मन्-' (पा० सू० ४।२।३२ ) इति हस्वः' इति व्याख्यानं कृतम् । वाचस्पत्यभिधाने च 'छदिए खो, छद-कि, 'छदिषि पटले' ( चाल ), अमरः, 'छदिः स्त्रियाम्' (लि० सू० १३६ ) पा० उक्तेरिदन्तताऽस्य' इति, 'छदिष , न०, छद् इसि 'पटले सान्तं क्ली' रायमुकुटः । 'इन्द्रस्य छदिसि' यजु० ५।२८।२ गृहे निघण्टुः, इति चोक्तत्वात् इकारान्तः 'छदि' शब्दः स्त्रीलिङ्गः, सकारान्तश्च 'छदिस' शब्दः क्लीवलिङ्गः, इस्यायातम् । क्षी० स्वा० मु० क्लीवत्वम् महे० मा० दी. स्त्रीत्वमामनन्ति, तथा व्याख्यासुधाटिप्पणीकाराः पं. शिवदत्ता अपि स्त्रीत्वे अन्यकारप्रतिशामङ्गापत्त्या लिङ्गस्य लोकाश्रयत्वाङ्गीकारात 'दिः स्त्रियाम् (लि. सू० १३५) इत्यस्याकिनिकरत्वेन तस्य क्लीवस्वमेवाङ्गीकृतवन्तः । वस्तुतस्तु वाचस्पत्युक्तयुक्त्या इकारा. त'च्छदि'शब्दस्य स्त्रीत्वाङ्गीकारे सकारान्तच्छदिः' शब्दस्य क्लीवत्वाङ्गीकारे च दीक्षिता. दिविरोधेऽपि नैव ग्रन्थकारप्रतिशामङ्गः, नापि क्षी० स्वा० मुकुटयोविरोध इत्यवधेयम् ॥
१. मुकुटेनास्य पर्यायता नाङ्गीकृता॥ २. 'ओको गृहं पिटं चालों वडभी चन्द्रशालिका' इति त्रिकाण्डशेषाद, 'शुशान्ते वडभी चन्द्रशाले सौषोर्ध्ववेश्मनि' इति रभसाच्च ।
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पुरवर्गः २) मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ तोरणोऽस्त्री बहिर २ पुरद्वारं तु गोपुरम् ।। १६ ॥ ३ कूटं पूर्वारि यद्धस्तिनखस्तस्मिन्नथ त्रिषु ।
कपाटमररं तुल्ये ५ तद्विग्कम्भोऽर्गलं न ना ॥१७॥ ६ आरोहणं स्यात्सोपानं ७ निश्रेणिस्त्वधिरोहिणी। ८ संमार्जनी शोधनी स्यात् ९ संकरोऽवकरस्तया ॥ १८ ॥
क्षिप्ते १० मुखं निःसरणं ११ सन्निवेशो निकर्षणम् ।
, तोरणः (पु न ), बहिरम (न), 'तोरण, बाहरी फाटक' के २ नाम हैं।
२ पुरद्वारम्, गोपुरम ( २ न ), 'नगरके बड़े फाटक' के २ नाम हैं ।
३ हस्तिनखः (पु), 'सुखपूर्वक चढ़नेके लिये राजद्वार या नगर. द्वारपर बनाई हुई ढालू जमीन का १ नाम है ।
४ कपाटम ( + कवाटम् ), अररम् (अररी (स्त्री), अररिः (पु)। २ त्रि), 'किवाड़ के २ नाम हैं ।
५ अर्गलम् (न स्त्रो), 'किल्ली ' के २ नाम हैं ॥ ६ भारोहणम् सोपानम्, (२ न ), 'सीढा' के २ नाम हैं।
७ निश्रेणिः ( + निश्रेणी), अधिरोहिणी ( + अधिरोहणी । २ स्त्री) 'काठकी सीढी' के २ नाम हैं।
८ संमार्जनी, शोधनी ( १ स्त्री ), 'झाड़' के २ नाम हैं ॥
९ संकर ( + संकारः) अवकाः (२ पु), 'कतवार, बहारन' के २ नाम हैं।
१० मुखम, निःसरणम् (२ न), 'घर आदिके प्रधान द्वार' के २ नाम हैं।
" सचिवेशः (पु), निकर्षणम् (न), 'ठहरने योग्य स्थान' के २ नाम हैं।
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१. 'तद्विष्कम्भ्यर्गलम्' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'निश्रेणिस्त्वधिरोहणी' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'संकारोऽवकरात्यपि पाठान्तरम् ॥
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अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे१ समौ संवसथग्रामी २ वेश्मभूर्वास्तुरस्त्रियाम् ॥ १९ ॥ ३ 'ग्रामान्तमुपशल्यं स्यात् ४ सीमसीमे स्त्रियामुभे । ५ घोष आभीरपल्ली स्यात् ६ पक्कणः शबरालयः ॥२०॥
इति पुरवर्गः ॥२॥
३. अथ शैलवर्गः। ७ महीधे शिस्त्ररिक्ष्माभृदहार्यधरपर्वताः ।
अद्रिगोत्रगिरिग्रावाचलशैलशिलोचयाः॥१॥
१ संवसथः, प्रामः (२ पु), ग्राम के २ नाम हैं । २ वेश्मभूः (ब), वास्तुः (पुन), 'घरकी जमीन' के २ नाम हैं।
३ प्रामान्तम् (+पु), उपशल्यम् (न), 'गाँवके पासवाली जमीन' के २ नाम हैं ॥
४ सीमा ( = सीमन् ), सीमा (२ स्त्री ), 'सिवान, सीमा, सरहद' के २ नाम हैं।
५ घोषः (पु), भाभीरपल्लो: (+ भाभीरपछि । स्त्री), 'अहीरोके झोपड़े या गाँव' के २ नाम हैं ।
६ पक्कणः, शबरालयः (२ पु), 'कोल, भील, किरात आदि म्लेच्छ जातियोंके घर' के नाम हैं।
इति पुरवर्गः ॥२॥
३. अथ शैलवर्गः। ___ महीध्रा, शिखरी ( = शिखरिन् ), माभृत् (+ भूभृत् ), अहार्यः,घरम, पर्वता, मदिः, गोत्रः, गिरिः, ग्रावा ( = ग्रावन् ), अचलः, शैका, शिलोच्चयः, ( पु), 'पहाड़' के १३ नाम हैं ॥
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१. 'प्रामान्त उपशल्यं स्याव' इति पाठान्तरम् ॥
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शैलवर्गः:३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ लोकालोकश्चक्रवालरस्त्रिकूटस्त्रिककुत्समौ ३ अस्तस्तु चरमक्ष्माभृदुदयः पूर्वपर्वतः ॥२॥ ५ हिमवानिषधो विन्ध्यो 'माल्यवान् पारियाप्रकः।
गन्धमादनमन्ये च हेमकूटादयो नगाः ॥३॥ ६ पाषाणप्रस्तरमावापलाश्मानः शिला उषत् । ७ कूटोऽस्त्री शिखरं ८ प्रपातस्त्वतटो भृगुः॥४॥ ९ कटकोऽस्त्री नितम्बोऽद्रेः १० स्नुः प्रस्थः सानुरस्त्रियाम् ।
१ लोकालोकः, चक्रवाल (+ चक्रवाढः । २ पु), 'सात द्वीपवाली पृथ्वीको घेरे हुए पहाड़' के २ नाम हैं ।
२ त्रिकूटः, त्रिककुत् (=त्रिककुद् ।.२ पु), 'त्रिकूट पहाड़ के २ नाम हैं । ३ अस्तः, चमचमाभृत् (२ पु), 'अस्ताचल' के २ नाम हैं ॥ ४ उदयः, पूर्वपर्वतः (२ पु), 'उदयाचल' के २ नाम हैं।
५.हिमवान् (%3D हिमवत् ), निषधः, विन्ध्या, माल्यवान् (माल्यवत्), पारियानका (+ पारियात्रि कः), गन्धमादनम् (न । +पु), हेमकूटः (शेष पु), 'हिमालय, निषध आदि पहाड़ों' का क्रमशः १-१ नाम है। ('अन्य शब्दसे 'मन्दस, मलयः, सह्यः, चित्रकूटः, मनाकः (५ पु),......का संग्रह है।)
६ पाषाणा, प्रस्तः , प्रावा ( = प्रावन् ), उपलः, अश्मा ( = अश्मन् । ५ पु), शिला, दृषत् ( = दृषद् । १ स्त्री ), 'पत्थर' के ७ नाम हैं।
७ कूटः (पुन ), शिखरम, शृङ्गम् (२न । + ३ पु न ), 'पहाड़की चोटी' के ३ नाम हैं ।
८ प्रपातः, अतरः ( + तटः), भृगुः (१ पु), 'पहाड़से गिरने योग्य स्थान' के ३ नाम हैं।
९ कटकः (पु न), 'पहाड़ के मध्यभाग' का १ नाम है ॥ १० स्नुः, प्रस्थः, सानुः (१३ पु न ), पहाड़के समतल भूमिके १. 'माल्यवान् पारियात्रिकः' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'प्रपातस्तु तटो भृगुः' इति पाठान्तरम् । तत्र 'प्रपत्यते यस्मात्तटात्स भृगुरिति विग्रहो शेयः । मूलपाठे च 'प्रपतत्यस्मादिति प्रपातः, न तटमोस्यतट इत्ये विग्रहो शेयः ।।
१. 'सानुरस्त्रियो' इति पाठान्तरम् ॥ ४. क्षीरस्वामिमानुनिदीक्षितौ तु 'स्नुः प्रस्थः सानुरखियो' इति पठित्वा 'द्वित्वात्प्रस्थोड
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१२२
अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डे१ उत्सः प्रस्रवणं २ वारिप्रवाहो निझरो झरः ॥५॥ ३ दरी तु कन्दरो वा स्त्री ४ देवस्त्रातषिले गुहा ।
गहरं ५ गण्डशैलास्तु व्युताः स्थूलोपता गिरेः ॥६॥ ६ "दन्तकास्तु बहिस्तिर्यक्प्रदेशानिर्गता गिरेः' (६) ७ खनिः स्त्रियामाकरः स्यात् ८ पादाः प्रत्यन्तपर्वताः॥
किसी एक भाग' के ३ नाम हैं ।
। उत्सः (पु), प्रस्रवणम् (न) 'पहाड़से गिरे हुए अधिक जल के इकट्ठा होनेवाले स्थान के २ नाम हैं ।
२ वारिप्रवाहः ( अन्य मतसे), निझरः, क्षः (३ पु), 'झरना' के ३ नाम हैं। ('अन्य आचार्यों के मत से 'उस्सा,......५ नाम 'झरना'
३ दरी (स्त्री), कन्दरः (पुत्री), 'पहाडकी कन्दरा' के २ नाम हैं ।
४ देवखात बिलम् (भा० दी । 'देवखातम्, बिलम्' महे०), गुहा (स्त्री), गह्वरम् (शेष न), 'स्वभाव ही से बने हुए बिल या गुफा' के ३ नाम हैं। ("किसी २ के मतसे 'गुहा, गह्वरम्' ये दो ही नाम हैं' )॥
५ गण्डशैलः (पु), 'पहाड़से गिरी हुई बड़ी २ चट्टान' का । नाम है ।
६ [ इन्तकः (पु), 'पहाड़के टेढ़े स्थानसे बाहर निकली हुई बड़ी चट्टान' का नाम है ] ॥
७ खनिः ( + खानिः उखनी । स्त्री ), भाकरः (पु। + गजा स्वी' ), 'खान' अर्थात् 'रत्न, धातु और कोयला आदिके निकलने के स्थानके २ नाम हैं ।
८ पादः, प्रत्यन्तपर्वतः (२ पु), 'आसपासकी छोटी पहाड़ी' के २ नाम हैं।
प्यत्री' इत्यातुः महेश्वरस्तु प्रयाणामपि स्त्रीत्वामावमुक्त्वा 'स्नुः पुंलिङ्ग इति सर्वधर' इत्याह ।
१. अयं क्षेपकः क्षी० स्वा०व्याख्यानेऽभिधानचिन्तामणौ ( ४११००) च समुपलभ्यते ।
२. यस्कास्यः -'देवखाते बिले गुहा' इति, शाश्वतोऽप्याह-'गह्वरं बिलदम्मयोः' (को० ६५६ ) इति, भमिधानचिन्तामणौ-'दरी स्यास्कन्दरोऽखाबिले तु गहरे गुहा' ( ४१९९) इति प्रामाण्यादिति विमावनीयम् ॥
३.४. 'स्यादाकरः खनिः खानिर्गा-' इति ( अभि. चिन्ता ४११०२) उक्तः ॥
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शैलवर्गः३] मणिप्रभाध्याख्यासहितः। १ उपत्यकानेरासन्ना भूमिररूर्वमधित्यका ।। ७॥ ३ धातुमनःशिलाद्यद्रेर्गेरिकं तु विशेषतः। ५ निकुञ्जकुचो वा क्लीबे लतादिपिहितोदरे ॥ ८॥
इति शैलवर्गः ॥ ३॥
१ उपत्यका (स्त्री), 'पहाड़के पासवाली जमीनके नीचेवाले हिस्से का नाम है ॥
अधिस्यका (स्त्री), 'पहाड़के ऊपरवाले स्थान का नाम है ॥ ३ धातुः (पु), 'धातु' अर्थात् 'पहादसे निकले हुए धातु' का नाम है। ('सोना, चाँदी, तांबा, हरिताल, मैनसिल, गेरु, अञ्जन, कसीस, सीसा, लोहा, हिङ्गुल (सिंगरफ), गन्धक और अभ्रक आदि धातु पहाइसे निकलते हैं")।
४ गैरिकम् (न), 'गेरु' अर्थात् 'पहाइसे निकले हुए लाल रंग के एक धातु विशेष' का नाम है ॥
५ निकुजा, कुक्षः (. पुन), 'कुञ्ज' अर्थात् 'लता या झाड़ी भादिसे आपछादित स्थान-विशेष' के २ नाम हैं ।
इति शैलवर्गः ॥३॥
१. तदुक्तम्-'सुवर्णरूप्यताम्राणि हरितालं मनःशिला ।
गैरिकाजनकासीसलोहसीसाः सहिङ्गुलाः ॥ १॥
गन्धकोऽभ्रकताम्राद्या धातवो गिरिसम्भवाः ॥ इति ॥ कचित्तु-'स्वर्ण रूप्यं च तानं च र यसदमेव च ।
सीसं कोहं च सप्तते धातवो गिरिसम्भवाः॥१॥ इति सप्त धातव उक्ताः । तत्रैव
'सप्तोपधातवः स्वर्णमाक्षिकं तारमाक्षिकम् ।
तुस्थं कांस्य च रोतिश्च सिन्दुरश्च शिलाजतु' ॥१॥
इति सप्तोपषातवश्च उक्ताः । सविस्तरमेतद्विवरणं चरकादिग्रन्थेषु द्रव्यम् ॥
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अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे
४ अथ वनौषधिवर्गः। १ अटव्यरण्यं विपिनं गहनं काननं वनम् । २ महारण्यमरण्यानी ३गृहारामास्तु निष्कुटाः ॥ १ ॥ ४ आरामः स्यादुपवनं कृत्रिमं वनमेव यत् । ५ अमात्यगणिकागेहोपवने वृक्षवाटिका ॥२॥ ६ पुमानाकीड उद्यानं राक्षः साधारणं धनम् । ७ स्यादेतदेव प्रमदवनमन्तःपुरोचितम् ॥३॥ ८ घीध्यालिरावलिः पंक्तिः श्रेणी ९ लेखास्तु राजयः ।
४. अथ वनौषधिवर्गः। १ अटवी (+ अटविः । स्त्री), अरण्यम्, विपिनम्, गहनम्, काननम्, उनम्, (+वनी, स्त्री। ५ न ), 'वन, जङ्गल' के ६ नाम हैं ।
२ महारण्यम् (न), अरण्यानी (स्त्री), 'बड़े जङ्गल' के २ नाम हैं ॥
३ गृहारामः, निष्कुटः (२ पु), 'घरके पासमें लगाये हुए जङ्गल' के २ नाम हैं।
४ आरामः (पु), उपवनम् (न), 'किसीके लगाये हुए उद्यान या बगीचे के २ नाम हैं ।
५ वृक्षवाटिका (स्त्री), 'मन्त्रियों या वेश्याओके उपवन' का १ नाम है।
६ आक्रीडः (पु। + न ), सन्यानम् (न), 'प्रमदाओं या मित्रोंके साथ क्रीडा करने के लिये लगाये हुए साधारण वन या बगीचे के २ नाम हैं।
७ प्रमदवनम् (न ), 'रानियोंके क्रीडाके लिये लगाये हुए वन या फुलवाड़ी' का १ नाम है।
८ वीथी (+ वीथिः), आलिः ( + अलिः ), अावलिः ( आवली), पतिः (+पती), श्रेणी (+श्रेणिः । ५ स्त्री), 'कतार, पडि' के ५ नाम हैं ॥
९ लेखा । (+ रेखा), राजिः (२ स्त्री), 'रेखा, लकीर' के २ नाम हैं।
१. या सान्तरा सा पति या च निरन्तरा सा 'रेखा' कथ्यते । यथा-क्षत्रियपति, ब्राह्मणपति,........."। मसोमस्मादिखचिता रेखा । यथा-भस्मरेखा,"....॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।।
१२५ १ वन्या वनसमूहे स्यादरङ्कुरोऽभिनवोद्भिदि ॥४॥ ३ वक्षो महीरुहः शास्त्री विटपी पादपस्तरुः ।
"अनोकहः कुटः सालः पलाशी द्रुद्रुमागमाः ॥५॥ ४ वानस्पत्यः फलैः पुष्पा५त्तरपुष्पाद्वनस्पतिः । ६ 'ओषध्यः फलपाकान्ताः ७ स्युरबन्ध्यः फलेग्रहिः॥ ६ ॥ ७ बन्ध्योऽफलोऽवकेशी च, वन्या (स्त्री), 'चन के समूह' का १ नाम है ॥
२ अङ्कुरः (+ अङ्क । पु), अभिनवोदित् (= अभिनवोद्भिज स्त्री, भा० दी। +प्ररोहः), 'अङ्कर' के २ नाम हैं ।
३ वृक्षः, महीरुहः, शाखी ( = शाखिन् ), विटपी (- विटपिन् ), पादपः ( + अधिपः, चरणपः,..... ), तरुः, अनोकहः, कुटः, साल: (+शालः), पलाशी ( = पलाशिन् ), दुः, द्रुमः, अगमः, (+ अगच्छ:,.....। १३ पु) 'पेड़ के १३ नाम हैं ।
४ वानस्पत्यः (पु) 'फलकर फलनेवाले पेड़' का । नाम है । जैसेभाम, लीची, अमड़ा .........)॥
५ वनस्पतिः, (पु), 'विना फूले फलनेवाले पेड़' का । नाम है। (जैसे-गूलर, कटहल, पीपल, बद ............। किसी के मतसे उक्त दोनों शब्द 'वृक्षमात्र' के वाचक हैं,)॥
६ ओषधी (औषधीः । स्त्री), फलकर पकनेके बाद नष्ट होनेवाले उद्भिद्' का । नाम है। (जैसे-'धान, चना, जौ, गेहूँ ......")॥
७ अबन्ध्यः (अवध्यः) फलेग्रहिः (२ त्रि), 'अपने २ समयमें फलनेवाले पेड़ आदि' के २ नाम हैं।
८ बन्ध्यः ( + वध्यः ), अफलः, अवकेशी ( = अवकशिन् । ३ त्रि), १. 'अनोकाहः कुटः शाल' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'मोषधिः फरूपाकान्ता स्यादवन्ध्यः' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'अडकूरश्वाङ्करः प्रोक्तः' इति इलायुधः' (अमिधानरत्नमालायां २।३०) इति अमरवि. वेकपुस्तके 'बारश्चाङ्करः प्रोक्तः' इति हलायुध' इति व्याख्यासुधापुस्तके लिखितन्तु तत्र तथाऽनुपलब्धेश्चिन्स्यम्।
४. 'वनस्पतिः' इत्येकं नाम 'आम्रादिवृक्षस्येति मा० दी चिन्त्यः । भाम्रादिवृक्षस्य पुष्पा. जातफलोपलक्षितवृक्षवात 'तैरपुष्पादनस्पतिः' इति मूलोक्तिविरोधादित्यवधेयम् ।
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अमरकोषः ।
[ द्वितीय काण्डे
-१ फलवान्फलिनः फली ।
२ प्रफुल्लोत्फुल्लसंफुलव्याकोशविकचस्फुटाः फुलुश्चैते विकसिते ३ स्युरबध्यादयस्त्रिषु ४ स्थाणुर्वा ना ध्रुवः शङ्कु५ र्हस्वशाखाशिकः क्षुपः ॥ ८ ॥ ६ अप्रकाण्डे स्तम्बगुल्मौ ७ वल्ली तु लता प्रतानिनी वीरुद्गुल्मिन्युतप ९ नगाद्यारोह उच्छ्राय उत्सेधश्वोच्छ्रयश्च
व्रततिर्लता । इत्यपि ॥ ९ ॥
८
सः ।
11 99 11
नहीं फलनेवाले पेड़ आदि' के ३ नाम हैं ॥
१ फलवान् ( = फलवत् ), फहिनः फली ( = फलिन् । ३ त्र ), फले हुए पेड़ आदि' के ३ नाम हैं ।
२ प्रफुल्लः ( + प्रफुल्तः ), उत्फुल्लः, संफुल्लः, व्याकोशः ( + व्याकोषः ), विकचः, स्फुटा, फुलः, विकसितः ( ८ त्रि), 'फूले हुए पेड़, लता आदि' के ८ नाम हैं ॥
३ 'अबन्ध्य' से 'विकसितः' शब्द तक सब शब्द त्रिलिङ्ग हैं |
४ स्थाणुः ( पु न ), ध्रुवः, शङ्कुः ( २ पु ), 'खुत्थ, ठूंठे पेड़' के ३ नाम हैं ॥
५ सुपः (पु), गांछी, या जिसकी डाल आदि छोटी हो, उस पेड़ आदि' का नाम है ॥
६ स्तम्बः, गुल्मः ( २ पु ), 'विना डालवाले पेड़, आदि' नाम हैं ॥
७ वली ( + वल्लि, वेलिः), व्रततिः ( + बनती, प्रततिः), लता (३ स्त्री), 'लता, लत्तर' के ३ नाम हैं । ( जैसे - अंगूर, मालती, कद्दू, खीरा, १) ॥ ८ वीरुल (= वीरुधू ), गुल्मिनी (२ स्त्री), उलप: (पु), 'बहुत डालोसे युक्त लता' के ३ नाम हैं ॥
९ उच्छ्रायः, उत्सेधः, उच्छ्रयः (३ पु ) 'पेड़ आदिकी ऊँचाई' के नाम हैं ॥
२
१. 'प्रफुल्तोत्फुल" ..." इति पाठान्तरम् ॥ २. 'स्थाणुरखी' इति पाठान्तरम् ॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१२७ १ अस्त्री प्रकाण्डः स्कन्धः 'स्यान्मूलाच्छाखावधिस्तरोः ॥ १० ॥ २ समे शाखालते ३ स्कन्धशाखाशाले ४ शिफाजटे । ५ शास्त्राशिफावरोहः स्यान्मूलाञ्चायं गता लता ॥ ११ ॥ ६ शिरोऽग्रं शिखरं वा ना ७ मूलं बुध्नोऽध्रिनामकः । ८ सारो मजा नरि ९ त्वक्त्री वल्कं वल्कलमस्त्रियाम् ॥ १२ ॥
१ प्रकाण्डः (पु न ), स्कन्धः (पु), 'कन्धा, पेड़ आदिकी शाखाको जड़' के २ नाम हैं।
२ शाखा ( + शिखा ), लता (२ वी ), 'डाल' के २ नाम हैं ।
३ स्कन्धशाखा, शाला ( २ स्त्री), 'सबसे पहले फूटनेवाली डाल' के २ नाम हैं।
४ शिफा, जटा ( २ स्त्री), 'सोर' अर्थात् 'जमीन के भीतर फैली हुई पेड़की जड़' के २ नाम हैं । ___ ५ अवरोहः (पु), 'पेड़की जड़ या पेड़ आदिपर चढ़ी हुई गुडूची आदि लता' का नाम है। ('यह महे. और मुकुटका मत है । भा० दी. मतसे 'अवरोहः' (पु), 'डालकी जड़' का १ नाम है तथा 'लता' (स्त्री), 'वृक्षके ऊपर चढ़नेवाली लता' का १ नाम है')॥
६ शिरः (= शिरस), अग्रम् (२ नाम ही. स्वा. महे. मतसे); शिखरम (३ न ), 'फुनगी' अर्थात् 'पेड़ भादिके सबसे ऊपर के हिस्से' के ३ नाम हैं।
७ मूलम् (न), बुधनः ( + नः ), अघ्रिनामकः ('पैर के वाचक सब शब्द । २ पु), 'पेड़ आदिकी जड़' के ३ नाम हैं ।
८ सारः, मजा ( = मजन् । + मजा = मजा, स्त्री। +२ पु.), 'लकड़ीके बीचका हीर' अर्थात् 'मारिल लकड़ी के २ नाम हैं।
९ स्वक् ( = स्वच्, स्त्री), वल्कम्, वक्षकलम ( २ पु न ), 'पेड़ आदिके छिलके के ३ नाम है ॥
१. 'स्यान्मूलाच्छाखावधेस्तरोः' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'सारो मज्जा समौ' इति पाठान्तरम् ।।।
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अमरकोषः
[द्वितीयकाण्डे१ काष्ठं दारविन्धनं स्वेध इध्ममेधः समिस्त्रियाम् । ३ निकुहः कोटरं वा ना ४ पल्लरिर्मक्षरिः स्त्रियौ ॥ १३ ॥ ५ पत्त्रं पलाशं छदनं दलं पर्ण छदः पुमान् | ६ पल्लवोऽस्त्री किसलयं ७ विस्तारो विटपोऽस्त्रियाम् ॥ १४ ॥ ८ 'वृक्षादीनां फलं सस्यं ९ वृन्तं प्रसवबन्धनम् । १ काष्ठम्, दारु ( + दारुः, पु । २ न ), 'लकड़ी' के २ नाम हैं ।
२ इन्धनम, एधः (= एधस् ), इमम् (३ न ), एधः (पु), समित् ( = समिध् । स्त्री ), 'जलावन, इंधन' के ५ नाम हैं। ('भा. दी० मतसे 'धनम्,............'३ नाम 'जलावन' के और 'एषः, समित' ये २ नाम 'हवनकी लकड़ी' के हैं')॥ ___३ निष्कुहः ( + निष्कुटः । पु), कोटरम् (पु न ), 'पेड़के स्त्रोंढरा' के २ नाम हैं।
४ वल्लरिः ( + वल्लरी), मञ्जरिः ( + मञ्जरी । २ स्त्री), 'मञ्जरी, बोर, मोजर' के २ नाम हैं।
५ पस्त्रम्, पलाशम, छदनम्, दलम, पर्णम् (५ न), छः (पु), 'पत्ता' के ६ नाम हैं।
६ पलवः ( + पु), किसलयम् (१ पु न), 'नये पल्लव' के २ नाम हैं ।
७ विस्तारः (पु, भा. दी.), विटपः (पुन, महे. श्री. स्वा०), 'पेडके फैलाके २ नाम हैं। ('पत्रका, ....... ४ नाम एकार्थक हैं यह भी किसी-किसी का मत है,)।
८ फलम् (भा. दी.), सस्यम् ( + शस्यम् । २ न), 'फल' के २ नाम हैं।
९ वृन्तम्, प्रसवबन्धनम् (भा. दी० । २ न ), 'भेटी' अर्थात् 'पेड़ आदिके फल या फूलकी जब' के नाम हैं ।
१. 'वृक्षादीनां फलं शस्यम्' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'विटपो न लियां साम्ये शाखाविस्तारपल्लवे' इति ( मेदि० पृ० १०९ श्लो० २२) पान्तवर्ग मेदिनीवचनात, 'शाखायां पल्लवे साम्ये विस्तारो विटपेऽस्त्रियाम्' इति रमसात , 'स्कन्मादूर्व तरोः शाखा कटप्रो(पो) विटपो मतः' इति कास्याच्चेत्यवधेयम् ।।
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वनौषधिः ४] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
१२६ १ आमे फले शलाटुः स्या २ च्छुके वानमुभे त्रिषु ॥१५॥ ३ क्षारको जालकं क्लीबे ४ कलिका कोरकः पुमान् । ५ 'स्याद् गुच्छकस्तु स्तबकः ६ कुडयलो मुकुलोऽस्त्रियाम् ॥१६॥
७ स्त्रियः सुमनरः पुष्पं प्रसून 'कुसुमं सुमम् । - मकरन्दः पुष्पारसः ९ परामः सुमनोरजः । १७ ।। १० द्विहीनं प्रसवे सर्व१ शलाटुः ( त्रि), 'कच्चे फर' ! १ नाम है ॥ २ आनम् (त्रि), 'सूखे फल' का । नाम है ॥
३ क्षारक (पु), जालकम् (न), 'नई कली या कलियोंके समूह' के २ नाम हैं।
४ कलिका( स्त्री), कोरकः (पु), 'कोंढ़ी' अर्थात् 'विना खिले हुए फूल' के २ नाम हैं ।
५ गुच्छकः ( + गुच्छः, गुटपकः, गुरलः), स्तबकः ( २ पु), महे० मतसे 'कलियोसे छिपी हुई गांठ' और भा० दी० मतसे शीघ्र खिलनेवाली कली' के और अन्य मतसे 'फूल या फल आदिके गुच्छे' के २ नाम हैं ।
६ कुड्मलः ( + कुटमलः ), मुकुलः (२ पु न ), 'अधखिली कली' के १ नाम हैं॥
७ सुमनसः ( = सुमनल , नि० स्त्री ब० व० । + ए० व०३), पुष्पम्, प्रसूनम्, कुसुमम्, सुमम् (४ न), 'फल' के ५ नाम हैं।
८ मकरन्दः, पुष्परसः (२ पु), 'फलके रस' के २ नाम हैं।
९ परागः (पु), सुमनोरजः ( = सुमनोरजस्, न ) 'फूलके पराग' के २ नाम हैं।
१. पहले कहे हुए शब्दों का सामान्यतः लिङ्गनिर्देश करने के उपरान्त 'द्वि१. 'स्याद्गुत्सकस्तु स्तवकः कुट मलो' इति पाठान्तरम् ॥ २. कुसुमं समम्' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'सुमनाः पुष्पमालत्योः' ( मेदि० पृ० १९० श्लो० ६७) इति सान्तवर्गे मेदिन्युक्त, 'पुष्पं समनाः कुसुमम्' इति नाममालोक्तः, "सुमनाः प्राचदेवयोः। जात्याः पुष्पे....." (अने० सं० ३१७६०) इति हैमोक्तेश्चैत्यवधेयम् ।। ६ अ०
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१३०
अमरकोषः । [द्वितीयकाण्डे -
-१ हरीतक्यादयः स्त्रियाम् । २ आश्वत्थवैणवालाक्षनयनोधैगुदं फले ॥१८॥
बार्हतं च ३ फले जम्वा जम्बूः स्त्री जम्वु जाम्बवम् । ४ पुरु जातीप्रभृतयः स्वलिका ५ वीहयः फले ॥ १९ ॥ हीन' इस शब्द से अब विशेषतया लिङ्गनिर्देश करते हैं। भागे कहे जानेवाले पेद, लता और औषधके वाचक शब्द यदि फूल, फल, जड़ और पत्तेके वाचक हों तो वे नपुंसकलिङ्गमें प्रयुक्त होते हैं । ( 'जैसे-'चम्पकम्, आनम्, सूरणम्' ये तीन शब्द क्रमशः 'चम्पा फूल, आमके फल और सूरनकी जड़' इन अर्थो में प्रयुक्त होनेसे नपुंसकलिङ्ग हुए हैं)॥
('हरीतक्यादयः' इस शब्दसे उक्त लिङ्गका बाधक वचन कह रहे हैं। ) फल मादि अर्थमें प्रयुक्त होनेपर भी 'हरीतकी, कर्कटी' आदि शब्द स्त्रीलिङ्ग ही रह जाते हैं अर्थात् नपुंसकलिङ्ग नहीं होते। ('जैसे-'हरीतकी, कर्कटी, द्राक्षा, बदरी' आदि शब्द क्रमशः 'हरे, ककड़ी, दाख और बैरके फल' इस अर्थमें प्रयुक्त होने पर भी पूर्ववत् स्त्रीलिङ्ग ही हैं, नपुंसकलिङ्ग नहीं हुए हैं। )
२ आश्वस्थम्, वैणवम्, प्लाक्षम्, नैयग्रोधम, ऐङ्गुदम्, वाहतम् (न), 'पीपल, बाँस, पाकड़, वट, रङ्गदी और भटकटैयाके फल' के क्रमशः 1-1 नाम हैं।
३ जम्बूः (सी), जम्बु, जाम्बवम् (२ न), 'जामुनके फल' के ३ नाम हैं।
४ जाती (स्त्री)प्रभृति ( 'प्रभृति' शब्दसे 'यूथिका, मलिका, .....' , शब्दके पुष्प अर्थमें प्रयुक्त होनेपर पूर्ववत् लिङ्ग रहते हैं अर्थात् उनका नपुंसकलिङ्ग नहीं होता। जैसे-'जातो, यूथिका, मल्लिका, ....... ( ३ स्त्री), शब्द पहले लतार्थक रहनेपर स्त्रीलिङ्ग होनेसे पुष्पार्थक होने पर भी स्त्रीलिङ्ग ही रहते हैं)॥
५व्रीहिः (पु), आदि ('आदि' शब्दमे 'यवः, मुद्गः, माषः, प्रियङ्गुः, गोधूमः, चणका, ....... ) शब्दके फल अर्थ में प्रयुक्त होने पर पूर्ववत् लिङ्ग रहता है अर्थात् नपुंसकलिज नहीं होता। ('जैसे-'व्रीहिः, यवः, मुगः, माषः, प्रियुल .... (५ पु), शब्द पहले पोषध्यर्थक रहने पर पुखिक होनेसे अब फलार्थक होनेपर भी पुंलिज ही रह गये हैं, नपुंसकलिङ्ग नहीं हुए हैं')॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ विदार्याधास्तु मूलेऽपि २ पुष्पे क्लीवेऽपि पाटला। ३ खोधिद्मश्चलदलः पिप्पलः कुञ्जराशनः ॥२०॥
अश्वत्थेस्थ करिस्थे स्युर्दधित्थग्राहिमसायाः ।
नगिन्द्रधिफलः पुष्पफलादन्तशठावपि ॥२९॥ ५ उदुबरो जन्तफलो यक्षालो हेमदुग्धकः । ६ कोविदारे चमरिकः कुद्दालो युगपत्रकः ॥ २२ ॥ ७ सप्तपर्णो 'विशालत्वशारदो विषमच्छदः ।
१ विदारी (स्त्री), आदि ( 'आदि' शब्दसे 'शालपणी, अंशुमती, गम्भारी, .......) शब्द 'मल, फल और फल' अर्थ में प्रयुक्त होनेपर भी पूर्ववत् लिङ्ग रहता है अर्थात् नपुंसकलिङ्ग नहीं हाता । (जैसे-विदारी, शाल. पर्णी, अंशुमती, गम्भारी (४ स्त्री, ......" ) 'मूल फल और फूल' अर्थमें प्रयुक्त होनेपर भी पहलेवाला स्त्रीलिङ्ग ही रह गया है, नपुंसकलिङ्ग नहीं हुआ है)।
२ पाटला (स्त्री न ), 'पाटलाके फल' अर्थ में यह स्त्रीलिङ्ग और नपुंसक लिङ्ग होता है।
३ बोधिद्रुमः (+ बोधिः ), चलदलः, पिप्पलः, कुञ्जराशनः (+ गजाशनः), अश्वस्थः (५ पु) 'पीपलके पेड़ के ५ नाम हैं ।
४ कपित्थः (+कबित्य, कविस्थः), दधिया, माही (=ग्राहिन्) मन्मथा, दधिफल:, पुष्पफलः, दन्तशठः (७ पु) 'कैंथ' के ७ नाम हैं। __ ५ उदुम्बरः ( उदुम्बरः) जन्तुफलः, यज्ञाङ्गः, हेमदुग्धकः ( पु) 'गूलर' के ४ नाम हैं।
६ कोविदारः, चमरिकः, कुद्दालः, युगपरत्रकः (४पु), 'कचनार' के ४ नाम हैं ।
७ सप्तपर्णः, विशालस्वक ( = विशालस्वच्) शारदः ( + शारदी), विषम१. 'विशालत्वक् शारदी' इति पाठान्तरम् ।। २. "विहीने प्रसवं सर्वम्' (२।४।१८) इति स्त्रीत्वबाधनायेमानीत्यवधेयम् ॥
३. यत्तु मा० दी० 'पाटलः कुसुमे वर्णेऽप्याशुत्रोहिश्च पाटला' इति शाश्वतोक्त्या 'पाटला' शब्दस्य पुंस्त्वमप्युक्तम् , तत्तु 'पाटला पाटलौ स्त्री स्यादस्य पुष्पे पुनने ना' (मेदि० पृ० १६६ श्लो० १०९ ) इति मेदिन्या पुंस्त्वनिषेधाद्-पाटलन्तु कुङ्कुमश्वेतरक्तयोः। पाटलः स्यादाशु बीहिः पाटला पाटलिट्ठ में' (अने० सं० ३६६६४) इति हेमोकेश्च चिन्त्यमेवेति विमावनीयम् ॥
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१३२
अमरकोषः । [द्वितीयकाण्डे१ आरग्वधे 'राजवृक्षशंपाकचतुरडलाः ॥ २३ ॥
आरेवतव्याधिघातकृतमालसुवर्णकाः । २ स्युर्जम्बीरे दन्तशउजम्भजम्भीरजम्भालाः ॥२४॥ ३ वरुणो वरणः सेतुस्तिक्तशाः कुमारकः । ४ पुन्नागे सुरुषस्तुङ्गः केसरो देववल्लभः : २५ ॥ ५ पारिभद्रे निम्बतरुमन्दारः पारिजातकः। ६ तिनिशे स्यन्दनो नेमी रथद्रतिमुक्तकः ।। २६ ।। वजुलश्चित्रकृचाथ द्वौ पीतनकपीतनौ ।
आम्रातके ८ मधूके तु गुडपुष्पमधुद्रुमौ ॥ २७॥ छदः ( ४ पु) 'सतवना, छितवन' अर्थात् 'सात पत्तेवाले वृत-विशेष, सप्तपर्ण के ४ नाम हैं।
भारग्वधः (+ आग्र्वधः, अरग्वधः), राजावृक्षः, शंपाकः (+शम्याकः, संपाकः) चतुरङ्गुलः, आरेवतः, व्याधिधातः, कृतमालः, सुवर्णकः ( + सुपर्णकः, सुवर्णः, सुपर्णः, । ८ पु ), 'अमलतास' के ८ नाम हैं ॥
२ जम्बीरः, दन्तशठः, जम्मः, जम्भीरः, जम्भलः (+जम्मरः । ५ पु), 'जंबोरी नीबू के ५ नाम हैं।
३ वरुणः, वरणः, सेतुः, तिक्तशाकः, कुमारकः ( ५ पु) 'वारुण' के ५
४ पुलागः, पुरुषः, तुङ्गः, केसरः ( + केशरः), देववल्लभः (५ पु) नागकेशर वृक्ष' के ५ नाम हैं ।
५ पारिभद्रः, निम्बतरु, मन्दारः, परिजातकः (४ पु) 'बकायन' के १ नाम हैं।
तिनिशः, स्यन्दनः, नेमिः (+नेमी = नेमिन् ), रथद्ः अतिमुक्तकः, वालः, चित्रकृत् ( ७ पु) 'वजुल, तिनिश' के ७ नाम हैं।
पीतनः, कपीतनेः, आम्रातकः ( + अम्रातकः । ३ पु), 'अमड़ा' के ३ नाम है।
८ मधूकः (मधुका, मधूला, मधुला), गुडपुष्पा, मधुगुमा, वानप्रस्था, १, 'राजवृक्षशम्याकचतुरङ्गुलाः' इति पाठान्तरमिति सभूत्यादय इति मा० दी०॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१३३ वानप्रस्थमधुष्ठोलो १ 'जलजेऽत्र मधूलकः । २ पीली गुडफल: संखी ३ तस्मिस्तु गिरिसम्भवे ॥ २८ ॥
'पक्षोटकन्दरालो बाटोटे तु निकोचकः । ५ पताशे किंशुकः पर्षी वातपोधोऽथ वेतले ।। २६ ॥
रथा-पुष्पविदुरशांतवानरिझुलाः ७ द्वौ पारे साधावलो नादेयी बाम्बुवेतसे ॥३०॥ ८ शोभाजने शग्रुतीगन्धकाक्षीवमोचकाः।
मधुष्ठीलः (+ छोलः । ५ पु), 'महुआ' के ५. नाम हैं।
१ मधूल : (+मधूलः । पु), 'पानी या पहाड़पर होनेवाले महुए' का एक नाम है । ( इसके पने बहुत बड़े २ होते हैं')॥ ___पीलुः, गुलफलः, संनी ( = सिन् । ३ ५), 'पीलुनामक वृक्षविशेष' के ३ नाम हैं। ___३ अनोटः, कन्दरालः ( + कर्परालः । २ पु), 'पहाड़ी पीलु' के २ नाम हैं।
४ अङ्कोटः ( + अङ्खोटः, अकोला ), निकोचकः ( + निकोटकः । २ पु), देलानामक वृक्ष-विशेष' के २ नाम हैं ।
५ पलाशः, किंशुकः, पर्णः, वातपोथः ( ४ पु), 'पलाश के ४ नाम हैं।
६ वेतसः, रथः, अभ्रपुष्पः ( + स्थाभ्रपुष्पः ), बिदुरः, शीतः (+न), वानीरः, वझुल ( ७ पु), 'बेत' के ७ नाम हैं ।
७ परिव्याधः, विदुला, नादेयी (स्त्री), अम्बुवेतसः ( + जलवेतसः । शेष पु), 'जलबेत' के ४ नाम हैं।
शोभाअनः ( + शौभाजनः, सोभाजनः, सौभाजनः) शिमः, तीपण. गन्धकः, अक्षीवः ( + आक्षोवः, भावोस, मु.), मोचकः (+मोचः । ५५), 'सहिजन' के ५ नाम हैं ।
१. गिरिजेऽन्न मधूलकः, इति पाठान्तरम् ॥ २. 'अक्षोटकपराको' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'शिग्रुतीक्ष्णगन्धकाझीरमोचकाः इति पाठान्तरम् ॥
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१३४ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ रक्तोऽली मधुशिः म्यारदरिष्टः फेनिलः सनौ ॥३१॥ ३ बिल्वे शाशिडल्यशैलूषो मालूरश्रीफलागि । ४ प्लक्षी जटी पर्कटी स्थापन्यग्रोधो बहुपावटः॥ ३१ ॥ ६ मालवः शाबरो लोध्राम्तरीटस्तित्वमार्जनौ । ७ आम्रचूतो रसालोऽसौ ८ सहकारोऽतिलौरभः ॥ ३३ ॥ ९ 'कामाङ्गो मधुदूतश्च माकन्दः पिकवल्लभः' (७) १० कुम्भोलुस्नलकं क्लीबे कौशिको गुग्गुलुः पुरः । १ मधुशिग्रुः (पु), 'लाल फूलवाले सहिजन' का १ नाम है ॥ २ अरिष्टः (+रिष्टः) फेनिलः (२ पु), 'रीठा' के २ नाम हैं॥
३ बिल्वः, शाण्डिल्यः, शैलूपः, मालूरः, श्रीफलः (५ पु), 'वेल' के ५ नाम हैं ॥ ___ ४ प्लक्षः, जटी (= जटिन् । + जटि, स्त्री। २ पु ), पर्कटी (स्त्री), 'पाकड़' के ३ नाम हैं ॥
५ न्यग्रोधः, बहुपात् (= बहुपाद् ), वटः ( ३ पु), 'वट बरगद' के ३ नाम हैं।
६ गालवः शाबस (+साबरः), लोध्रः (+रोधः), दिरीटः (+तरः), तिरुवः, मार्जनः ( ६ पु ), 'लोध' के ६ नाम हैं । ( गालवः, आदि २ नाम 'सफेद लोध' के और 'लोध्रः' आदि ४ नाम 'लोध' के हैं, यह क्षी० स्वा० का मत है')॥
७ भाम्रः, चूतः, रसालः (३ पु), 'आम' के ३ नाम हैं ॥
८ सहकारः, अतिसौरभः ( महे० । २ पु०), 'सुगन्धियुक्त आम' के २ नाम हैं। ____९ ! कामाङ्गः, मधुदूतः, माकन्दः, पिकवल्लभः (४ पु), 'आम' के ४ नाम हैं ] ॥ ७ ॥
१. कुम्भम् , उलूम्बल कम् (+उदूखलकम् , कुम्भोलूखलकम् । २ न), कौशिकः, गुग्गुलुः, पुरः (३ पु), 'गुग्गुलु' के ५ नाम हैं ।
१. 'कामाङ्ग..... वल्लमः' अयमंशः क्षी० स्वा० पुस्तके मूल एवेत्यवधेयम् ॥ २. 'कुम्मं चोलूखलकं'इति पाठान्तरम् । तत्र नामदयस्वीकारे मूलपाठ एव समीचीन इति।
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वनौषधिवर्गः ४ ]
मणिप्रभा व्याख्यासहितः ।
१३५
१ शेलुः श्लेष्मातकः शीत उद्दालो बहुवारकः ।। ३४ ।। २ राजादनं प्रियालः स्यात्सन्नकद्रुधेनुः पटः । ३ गम्भारी सर्वतोभद्रा काश्मरी मधुपर्णिका ॥ ३५ ॥ श्रीपर्णी भद्रपर्णी व काश्मर्यश्वा४प्यथ द्वयोः । 'कर्कन्धूर्वदरी कोलिः ५ कोलं कुषलफेनिले ॥ ३६ ॥
१ शेलुः ( + सेलुः ), श्लेष्मातकः, शीतः ( + न ), उद्दालः, बहुवारकः (५ पु ), 'लसोड़ा' के ५ नाम हैं ॥
२ राजादनम् ( + राजातनम् । + पु। न ), प्रियालः ( + पियाल: ), सन्नकदुः (सन्नः, कदुः, यह सोमनन्दी के मत से ), धनुः पटः, ( + धनुष्पटः, धनुः = धनुस्, पटः | ३ पु ), 'चिरौंजी, पियार' के ४ नाम हैं ॥
३ गम्भारी ( + कम्भारी ), सर्वतोभद्रा, काश्मरी ( + काश्मरी ), मधुपणिका, श्रीपर्णी, भद्रपर्णी ( ६ स्त्री), काश्मयः (पु), 'गंभार' के ७ नाम हैं ॥ ४ कर्कन्धूः ( + कर्कन्धुः । पु स्त्री ), बदरी ( +२ पु स्त्री मुकु० ), कोलि: ( + कोली, कोला । स्त्री ), 'बेर' के ३ नाम हैं ॥
४
५ कोलम्, कुलम्, फेनिलम्, सौवीरम् ( + सौवीर्यम् ), बदरम् ( ५
......
१. कर्कन्धु (न्धू ) बंदरी कोलिघण्टा कुवलफेनिले । सौवारं बदरं कोलमथ " इति क्षी० स्वा० पाठः ॥ २. सङ्ख्यागणनायामुक्तोऽप्ययं शब्दो मा० दी० व्याख्यातृत्यक्तो वेति बुधैर्मृग्यम् ॥
३. कर्क कण्टकं दधातीति विगृह्य ' अन्दूदृम्भू जम्बूक फेलू कर्कन्धूदिधिषू:' ( उ० सू० ११३) इति कूप्रत्ययेऽस्य सिद्धिरिति० भा० दी० । क्षी० स्वा० तु 'कर्को लोहितोऽन्धुः कर्कन्धुः शकन्ध्वादित्वात्पररूपमित्याह । तच्चिन्त्यम्, सिद्धान्तकौमुद्यां 'शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्' (वार्ति० ३६३२) त वार्तिकोदाहरणत्वेनोक्तस्य 'कर्कन्धु' शब्दस्य 'कर्काणां राजविशेषाणामन्धुः कूपः कर्कन्धुः' इति तत्रैव तत्त्वबोधिन्यां दण्डयुक्तः 'अन्दूदृम्भू – ' ( उ० सू० १/९३ ) इति पाणिनिसूत्रस्य च विरोधात हस्व 'कर्कन्धु' शब्दस्यान्यार्थकस्वादिश्यवधेयम् ॥
अब्याख्यातत्संशोधकप्रमादात्त्रुटितो
४. 'अथ द्वयोः' इत्युक्त्या ग्रन्थकारप्रतिज्ञाविरोधात 'कर्कन्धूबदरी' त्युभौ शब्दौ पुंखीलिङ्गाविति मुकुटोक्तिश्चिन्त्या । तथा सति 'बदरी कोलाकार्पास्योवंदरन्तु फळे तयो:' ( अने० संग्र० ३।५८३ ) इति हेमचन्द्राचार्योक्तेः 'बदरी कोले, क्लीबं तु तत्फले' ( मैदि० पृ० १४९ लो० २७ ) इति मेदिन्युक्तेश्च विरोधस्य दुर्वारत्वादित्यवधेयम् ||
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१३६
अमरकोषः।
[द्वितीयकाहेसौवीरं बदरं घोण्टारप्यथ स्यात्स्वादुकण्टकः । विकङ्कतः अवाक्षो प्रस्थानी व्याघ्रपादपि ॥ ३७ ।। २ ऐरावती मगरको मादयी भूमिजम्बुका। ३ तिन्दुकः स्फर्जकः कासन्धश्च शिलिस्तारके: ३८।। ४ काकेन्दुः कुलकः कातिकः सकपीलुके। ५ गोलीढो झाटलो घण्टापाटालोक्षनुष्कको ।। ३२ ।।
६ तिलकः क्षुरका श्रीमान्-- न), घोण्टा (+ घुण्टा । स्त्री), 'वैर के फल या धनबैर" के ६ नाम हैं ।
स्वादुकष्टकः (+ गोपकण्यः), वित: (+वैकङ्कतः), सुनावृक्षा, ग्रन्धिरा, व्याघ्रपात् ( = व्यानपाद् । + व्याघ्रपादः, व्याघ्रपाइरः। ५ पु), 'कटाय' के ५ नाम हैं ।
२ ऐरावतः, नागरणः (२ पु), नादयी, भूमिजम्बुका ( + भूमिम्बूः । २ स्त्री), 'नारङ्गी वृक्ष' के ४ नाम हैं। (प्रथम २ नाम 'नारङ्गी वृक्ष' के और अन्तवाले २ नाम 'भूमिजबू' अर्थात् 'एक प्रकारके कन्द के हैं, यह भी अन्याचार्यों ( गौड़) का मत है')॥
३ तिन्दुकः (+ तिन्दुकी), स्फूर्जकः, कालस्कन्धः, शितिसारकः (+ नील. सारः ४ पु), 'तेंदुआनमक वृक्ष' के ४ नाम हैं ॥
४ काकेन्दुः कुलकः, काकतिन्दुकः, काक पीलुकः ( ४ पु), 'कुचिला' के ४ नाम हैं।
५ गोलोढः ( + गोलिहा ), झाटलः, घण्टापाटलिः ( + घण्टा, पाटलिः, दी. स्वा.), मोक्षः, मुष्ककः ( + मूषकः । ५ पु), काला पाढर या लोध विशेष' के ५ नाम हैं।
६ तिलकः, चरकः, श्रीमान् (=श्रीमत् । ३ पु) 'तिलक वृक्ष' के ३ नाम हैं।
१. 'गोलीहा झाटलो' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'बदरीसदृशाकारो वृक्षःसूक्ष्मफलो भवेत् । अटण्यामेव सा घोण्टा गोपघोण्टेति चोच्यते ॥१॥
इत्युक्तेबदरीसदृक्षाकारस्य वन्यफलस्येति केचिन्मतेनेदम् ।।
३. ककन्ध्वादित्रयं वृक्षार्थकम्, अन्ये फलार्थकाः, घोण्टा इत्युमयस्पृक-अर्थादुमयसम्बन्धी' रति० बी० स्वा०॥
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वनौषधिवः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः
१३७. -१ समौ पिचुलझावुको । २ श्रीपर्णिका कुमुदिका कुम्भी' कैडर्यकटफलौ ॥४॥ ३ क्रमुकः पट्टिकाख्यः स्यात्पट्टी लाक्षाप्रसादनः । ४ 'तूदस्तु यूपः कनुको ब्रह्मण्यो ब्रह्मदारु च ।।४।। तूलं च ५ नीपप्रियककदम्बास्तु हलिप्रियः। ६ धीरवृक्षोऽहकरोऽग्निमुखो भल्लातकी तृषु ।। ४२ ॥ ७ गर्दभाण्डे कन्दरालकपोतनसुपार्श्वका प्लक्षच ८ तिन्तिडी विञ्चाम्लिकारऽथो पीतसारके ।। ४३ ॥ सर्जकासनबन्धूकपुष्पप्रियकजीवकाः
१ पिचुल:. झावुक (२ पु), 'भाऊ वृक्ष' के २ नाम हैं ।।
२ श्रीपर्णिका ( + श्रीपर्णी ), कुमुदिका: कुम्भी (३ खी), केडयः (+ केंदर्यः, कैटयः), कटफलः (२ पु), कायफर' के ५ नाम हैं ।
३ क्रमुः , पट्टिकाख्या, पट्टी (= पट्टिन् । + पट्टी = पट्टी, स्त्री), लाक्षाप्र. सादनः (४ पु), 'पठानीलोध' क ४ नाम हैं ।
४ तूदः (+नूदः), यूपः (+ यूपः, मुक.), क्रमुकः, ब्रह्मण्यः ( पु), ब्रह्मादारु (+ ब्रह्मकाष्ठम् ), तूलम् (+ तूली, गोड मतसे । २ न) सहतत या तूत के ६ नाम हैं।
नीपः, प्रियकः, कदम्बा, हलिप्रियः ( + हरिप्रियः। ४ पु), कर्दय वृक्ष' के ४ नाम हैं ।
- वीरवृक्षः, अरुष्करः (२ पु), अग्निमुखी (स्त्री), भल्लातकी (त्रि), 'भिलावा' के ४ नाम हैं। __७ गर्दभाण्डा, कन्दरालः, कपीतनः, सुपावकः, प्लक्षः (५ पु), 'लाही पीपल' के ५ नाम हैं।
८ तिन्तिडी (+तिन्तिली), चिच्चा, अम्लिका (+ माम्लिका, आम्लीका, अग्लीका। ३ स्त्री) 'इमली' के ३ नाम हैं ॥
९ पीतसारकः (+पीतसालकः), सर्जकः, असन: (+ आसनः), बन्धूकपुष्पः, प्रियकः, जीवकः ( ६ पु), 'विजयसार' के ६ नाम हैं ।
१. 'केटर्यकटफलौ' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'नूदस्तु यूषः' इति पाठान्तरम् ।।
१. 'पीतसाल' इति पाठान्तरम् ॥
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१३८
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे१ 'साले तु सर्जकार्याश्वकर्णकाः सस्यसंवरः ॥ ४४ ! २ नदीसों वीरतरुरिन्द्रद्रुः ककुभोऽर्जुनः । ३ राजादनः फलाध्यक्षः क्षारिकायामथ द्वयोः ॥४५॥
इङ्गदी तापसतरु५ जे चमिमृदुत्वची। ६ पिच्छिला पूरणी मोचा स्थिरायुः शाल्मलिईयोः॥४६॥ ७ पिच्छा तु शाल्मलीवेष्टे ८ रोचनः कूटशाल्मलिः । ९ चिरबिल्वो नक्तमालः करजश्व करके ।। ४७॥
१ सालः (+ शालः, श्यालः), सर्जः (+सर्जकः), कार्यः (+ कायः), अश्वकर्णकः, सस्यसंवरः (+ सस्यशंबरः। ५ पु) 'शाल या सखुआ' के ५ नाम हैं ।
२ नदीसजः, वीरतरुः, इन्द्रदुः, ककुभः, अर्जुनः, (५ पु), 'अर्जुन वृक्ष' के ५ नाम हैं।
३ राजादनः ( + न ), फलाध्यक्षः ( २ पु ), क्षीरिका (स्त्री), 'खिरिनीके पेड़ के ३ नाम हैं ।
४ इङ्गुदी (स्त्री पु), तापसतरुः (पु), 'इङ्गुदी इड-आके पेड़ के २ नाम हैं।
५ भूर्जः (+भृजः), चर्मी ( = चर्मिन् ), मृदुवक ( = मृदुस्वच । + मृदुच्छदः । ३ पु ), भोजपत्रके पेड़ के ३ नाम हैं ।।
६ पिच्छिला, पूरणी, मोचा (+ मोचनी। ३ स्त्री ), स्थिरायुः ( = स्थिरायुस, पु), शाल्मलिः (+ शाल्मली, शाल्मलः। स्त्री पु), 'सेमल के पेड़ के ५ नाम हैं |
७ पिच्छा (स्त्री), शाल्मलीवेष्टः (भा० दो० पु), 'मोचरस के २ नाम हैं ।
८ रोचनः, कूटशाएमलिः ( + कुशाल्मलिः । २ पु ), 'काला सेभर'के २ नाम हैं।
९ चिरबिरुवः (+चिरिबिरुवः ), नक्तमालः (+ रक्तमालः, क्षी० स्वा०), करजः, करजकः (४ पु), 'करञ्ज' के ४ नाम हैं ।
१. 'शाले तु सर्जकाश्विकर्णकाः सस्यशंबरः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'चिरिबिल्वो रक्तमालः' इति पाठान्तरम् ।।
३. षष्टिवर्षसहस्राणि वने जीवति शाल्मलिः' इत्युक्तेरस्य स्थिरायुष्ट्वमित्यन्वर्थे नामेत्यवधेयम् ॥
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वनौषधिवर्गः ४ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ प्रकीर्यः पूतिकरजः 'पूतिकः कलिमारकः । २ करञ्जभेदाः षडग्रन्थो मर्कट्यङ्गारवल्लारी ॥ ४८ ॥ रोहितकः प्लीहशत्रुर्दाडिमपुष्पकः ।
३ रोही
४ गायत्री बालतनयः खदिरो दन्तधावनः ॥ ४९ ॥ ५ अरिमेदो विट्खदिरे ६ कदरः खदिरे सिते ।
सोमवल्कोऽप्यज्थ उरुबूकश्च
व्याघ्रपुच्छगन्धर्वहस्तकौ ॥ ५० ॥ रुचकश्चित्रकश्च
सः ।
१ प्रकीर्यः पूतिकरजः ( + पूतीकरजः, पूतीकरञ्जः ) पूतिकः ( + पूतीकः), कलिमारकः ( + कलिकारकः । ४ पु), 'काँटेदार करञ्जके पेड़' के ४ नाम हैं ॥
परण्ड
१३६
२ षड्प्रन्थः (पु), मर्कटी, अङ्गारवल्लरी ( २ स्त्री ) 'करञ्जके भेद' का १- १ नाम है ॥
३ रोही ( = रोहिन ), रोहितकः ( रोहितः ) प्लीहशत्रुः, दाडिमपुष्पकः ( + रक्तपुष्पकः । ४ पु ) 'गुलनार या लाल करञ्ज' के ४ नाम हैं ॥
४ गायत्री ( स्त्री । गायत्री = गायत्रिन्, पु ), बालतनयः ( + बालपत्त्रः ) खदिरः दन्तधावनः ( ४ पु ) 'कत्था, खैर' के ४ नाम हैं ॥
५ अश्मेिदः ( + परिमेदः, अहिमेदः, अहिमार :), विट्खदिरः ( २ पु ) 'बदबू करनेवाले कत्थे' के २ नाम हैं ॥
६ कदरः सोमवल्कः ( २ पु ), 'सफेद कत्थे' के २ नाम हैं ॥
७ व्याघ्रपुच्छः ( + व्याघ्रदल: ) गन्धर्वहस्तकः, एरण्डः, उरुवूकः (+रुवुः, रुवुः, रुवूकः रुबुकः उरुबूकः उरुवुकः, ) रुचकः, चित्रकः, चचुः, पञ्चा
:
१. 'पूति ( ती ) कः कलिकारकः' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'खदिरो रक्तसारश्च गायत्री दन्तधावनः । कण्टकी बालपत्त्रश्च जिह्मशल्यः क्षितिक्षमः ' ॥ १ ॥ इत्युक्त्वा 'बालपरत्र' शब्दस्य 'खदिरयवासे' त्यर्थयोरभिमतत्वेन 'बालपुत्र' भ्रान्त्या ग्रन्थकारोऽतत्र 'बालतनय' शब्दमुक्तवान् । तस्मादत्र 'बालपत्त्रश्च खदिरों' इति पाठः समीचीन इति ।
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१४०
१
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डेचञ्चः पञ्चाङ्गुलो 'मण्डवर्धमानन्यडम्बकाः ॥ ५१ ॥ अल्पा शमी शमीरः स्या२च्छमी सक्तफला शिवा । 'पिण्डीतको मरुषकः श्वसनः करहाटकः ॥ ५२ ।। शल्यश्च मदने ४ शक्रपादपः पारिभद्कः । भद्रदारु किलिमं पीतदारु च दारु च: ५३ ॥ पूतिकाष्ठं च सप्त स्युदेवदारुण्य५थ द्वयोः । पाटलिः पाटला मांघा काचस्थाली फलेरुहा ! ५४ ॥ कृष्णवृन्ता कुबेराक्षी ६ श्यामा तु महिलाह्वया । लता गोवन्दनी गुन्द्रा प्रियङ्गुः फलिनी फली ।। ५५॥ विष्वक्सेना गन्धफली कारम्भा प्रियकश्च सा।
गुलः मण्डः ( आमण्डः, अमण्डः आदण्डः ), वर्द्धमानः, व्यडम्बकः ( + व्य. डम्बरः। + व्यडम्बनः स्वा० । ११ पु), 'परण्ड, रेड' के नाम हैं ।
१ शमीरः (पु)'छोटी शमी' का १ नाम है ॥ २ शमी, सक्तफला (+ शक्तफली), शिवा (३ स्त्री)'शमी' के ३ नाम हैं ॥
३ पिण्डीतकः मरुषकः (+मरुवकः), श्वसना, करहाटकः (+ करहाट:), शक्यः, मदनः (६ पु) 'मयनफल' के ६ नाम हैं ॥
४ शक्रपादपः, पारिभद्रकः (+पारिभद्रः । २ पु) भद्दारु (+ पु) दुकिलिमम् , पीतदारु, दारु (+ २ पु) पूतिकाष्ठम् , देवदारु (६ न) 'देवदारु' के ८ नाम हैं ।
४ पाटलिः ( + पाटली । स्त्री पु) पाटला, मोघा ( + अमोघा ), काचस्थाली (+ काकस्थाली, + काला, स्थायी, २ जी. स्वा०), फलेरुहा, कृष्णवृन्ता, कुबेराक्षी (६ स्त्री), 'पाढर' के ७ नाम हैं ॥
६ श्यामा, महिलाह्वया, लता, गोवन्दनी (+गौः = गौः, वन्दनी), गुन्द्रा, प्रियः, फलिनी, फली, विज्वक्सेना, गन्ध फली, कारम्भा (११ स्त्री), प्रियकः (पु), 'ककुनी, टाँगुन' के १२ नाम हैं । १. 'मण्डवर्धमानन्यडम्पराः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'पिण्डीतको मरुवकः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. काला स्थाली फलेरुहा' इति पाठान्तरम् ॥ ४. 'वन्दनी पुष्पशोमना । गन्धप्रियङ्गुः कारम्मा लता गौवर्णभेदिनी' इतीन्दूक्तेः ।।
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१४१ १ मण्डूकपर्णपत्रोर्णनटकट्वङ्गटुण्टुकाः
स्योनाकशुकनासर्क्षदीघंवृन्तकुटनटाः शोणकश्वारलौ २ तिष्यफला त्वामलकी त्रिषु ॥ ५७॥ अमृता च वयस्था च ३ त्रिलिङ्गस्तु बिभीतकः। नाक्षम्तुषः कर्षफलो भूतावासः कलिद्रुमः ॥ ५८ ॥ अभया त्वव्यथा पथ्या कायस्था पूतनाऽमृता। हरीतकी हैमवति चेतकी श्रेयसी . शिवा । ५६ ॥ ५ पीतः सरलः पूतिकाष्ठं चाऽथ ६ दुमोत्पलः ।
कर्णिकारः परिव्याधो ७ लकुचो लिकुचो बहुः ॥६०॥
१ मण्डूकपर्णः, परत्रोर्णः, नटः, कट्वङ्गः, टुण्टुकः ( + दुन्दुक), स्योनाकः, (+श्योनाकः), शुकनासः, ऋक्षा दीर्घवृन्तः, कुटनटः, शोणकः ( + शोनका, पी० स्वा) अरलुः ( + भरटुः । १२ पु ), 'सोनापाठा' के ११ नाम हैं ।
२ तिष्यफला, आमलकी (+ आमला । त्रि) • अमृता, वयस्था ( + कायस्था ही. स्वा० । शेष स्त्री) 'माँवले के ४ नाम हैं ।
३ विभीतकः (त्रि), अक्षः (बिभीतकाक्षः) तुषः, कर्षफलः, भूता. वासः (भूतवासः), कलिद्रुमः (५ पु), 'बहेड़ा' के ६ नाम हैं ।
४ अभया, अन्यथा, पथ्या, कायस्था ( + वयस्था), पूतना, अमृता, हरीतकी हैमवती, चेतकी, श्रेयसी शिवा (११ स्त्री) 'हर' के ११ नाम हैं।
५ पीतनुः, सरलः (२ पु) पूति काष्ठम् (न), 'सरलनामक काष्ठ (वृक्ष)-विशेष' के ३ नाम हैं ।
६ दुमोस्पलः कर्णिकारः, परिव्याधः (३ पु) कठचम्पा' के ३ नाम हैं। ७ लकुचः लिकुचः सहुः (+बहुः । ३ पु), 'बड़हर' के ३ नाम हैं।
१. 'मण्डूकपर्णपत्रोणनटकट्वङ्गदुन्दुकाः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'श्योनाकशुकनास......" इति पाठान्तरम् ।।३.'श्योनकश्चारलौ' इति पाठान्तरम् ।।
४.तिष्य मङ्गल्यं फलं यस्याः सा तिष्यफला । तत्त्वश्चास्याः'नित्यमामलके लक्ष्मीनित्यं हरितगोमये। नित्यं शंखे च पद्धे च नित्यं शुक्ले च वाससि ॥
श्त्युक्तरित्यवधेयम् ॥
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१४२
अमरकोषः ।
१ 'पनसः कण्टकिफलो २ निचुलो हिजलोऽम्बुजः ।
३ काकोदुम्बरिका ४ अरिष्टः
2
' फल्गुर्मल यूर्जघनेफला ॥ ६१ ॥ सर्वतोभद्रहिङ्गुनियलमालकाः ।
'पिचुमन्दश्च निम्बे ५ऽथ पिच्छिलाऽगुरुशिशपा ॥ ६२ ॥
६ कपिला भस्मगर्भा सा
-
[ द्वितीयकाण्डे
१ पनसः ( + पणसः, दुर्ग मतसे; + फलसः ) कण्टकिफलः ( + कण्टकफलः । २ पु ), 'कटहल' के २ नाम हैं ॥
२ निचुलः ( + निचोडः ), हिजलः ( + इज्जल ), अम्बुजः ( ३ पु ), भा० दी० मतसे 'स्थलवेत' के ती० स्वा० तथा महे० मत 'जलबेंत' के और अन्य मतसे 'समुद्रफल' के ३ नाम हैं ॥
३ काकोदुम्बरिका, फक्गुः, मलयूः ( + मलपूः मलापू:-) जघने फला ( ४ स्त्री ), 'कठूमर कालागूलर' के 8 नाम हैं ॥
४ अरिष्टः, सर्वतोभद्रः, हिङ्गुनिर्यासः, मालकः, पिक्षुमन्दः ( + पिचुमर्दः क्षी० स्वा० ) निम्ब: ( ६ पु ) 'नीम' के ६ नाम हैं ॥
५ पिच्छिला, "अगुरु ( न ), शिंशपा ( + अगुरुशिंशपा, क्षी० स्वा० । शेष स्त्री ), भा० दी० मतसे 'शीशम' के ३ नाम हैं ॥
६ कपिला ( भा० दी० ने इसे विशेषण माना है, पर्याय नहीं ) भस्मगर्भा ( २ स्त्री ), 'कपितवर्णवाले शोशम' के २ नाम हैं । ( महे० ने पिच्छिला, अगुरुशिंशपा, कपिला, महमगर्भा । ४ स्त्री ), इन चारोंको पर्यायवाचक कहा है' ) ||
"
१. 'पणसः कण्टकिफलः निचुल हज्जलोऽम्बुजः' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'फल्गुलपूर्जघने फला' इति पाठन्तरम् ॥ ३. 'पिचुमर्दश्च' इति पाठान्तरम् ॥
४. 'अगुरु, शिंशपा' इति नामद्वयम् ' गुरु क्लीबेशिशपायां जोङ्गके लघुनि त्रिषु' इति रुद्रः । अगुरुसारा शिशपा इत्येकमैव नामेति क्षी० स्वा० महे० च । अत्र रुद्र मा० दी० 'अगुरु क्लीबं जोनकशिशपयोर्वाच्यत्र लघुनि ( मैदि० पृ० १४१ इलो० १४१ ) इति रान्तवर्गे मैदिन्युक्तेः - अगुरुस्त्वगुरौ लघौ शिशपायां-' (अने० सं० ३।५२० ) इति हेमचन्द्राचार्योक्तेश्च विरोधेऽपि स्त्रीलिङ्गयोः पिच्छल शिशपा' शब्दयोर्मध्ये क्लीबस्य 'अगुरु' शब्दस्य मा० दी० मतेऽङ्गीकारेण 'भेदाख्यानाय - ( ११११४ ) इति ग्रन्थकारप्रतिज्ञाविरोध त्ययधेयम् ॥
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वनौषधिवर्गः ४ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ शिरीषस्तु कपीतनः । भण्डिलोऽप्यस्थ चाम्पेयश्चम्पको हेमपुष्पकः ॥ ६३ ॥ ३ एतस्य कलिका गन्धफली स्या४दथ केसरे । 'बकुलो ५ वञ्जुलोऽशोके ६ समौ करकदाडिमौ ॥ ६४ ॥ ७ चाम्पेयः केसरो नागकेसरः कानाह्वयः । ८ जया जयन्ती तर्कारी नादेयी वैजयन्तिका ॥ ६५ ॥ ९ श्रीपर्णमग्निमन्थः स्यात्कणिका गणिकारिका ।
जयो
१ शिरीषः, कपीतनः, भण्डिलः ( + भण्डिरः भण्डील:, भण्डी = भण्डिन् । ३ ), 'सिरस' के ३ नाम हैं ॥
२ चाम्पेयः, चम्पकः, हेमपुष्पकः ( ३ पु ) 'चम्पा' के ३ नाम हैं ॥ ३ गन्धफली ( स्त्री ), 'चम्पाकी कली' का १ नाम है ॥
१४३
४ केसरः (+ केशरः), बकुल : ( + वकुलः । २ पु), 'मौलसरी' के २ नाम हैं ॥
५ बजुलः, अशोकः ( २ ), 'अशोक' के २ नाम हैं ॥
६ करकः, दाडिम: ( + दाडिम्बः, दालिमः, डालिमः । २), 'अनार' के २ नाम हैं ।
७ चाम्पेय:, केसरः, नागकेसरः, काञ्चनाह्वयः ( + 'सोनेके वाचक सब नाम' । ४ पु ), 'नागचम्पा पुष्पवृक्ष' के ४ नाम हैं ॥
८ जया, जयन्ती, तर्कारी, नादेयी, वैजयन्तिका ( ५ स्त्री ), 'जाही, अरणी या गनियार' के ५ नाम हैं ॥
९ श्रीपर्णम् (न), अग्निमन्थः, कणिका, गणिकारिका ( २ स्त्री ), जयः ( शेष षु ), भा० दी० 'जयपर्ण' के ५ नाम हैं । ( 'जया' 'अरणी' के हैं, यह बी० स्वा० का मत है" ) ॥
१० नाम
१. ' वकुलो वज्जलोऽशोके' इति पाठान्तरम् ॥
२. एतन्मते 'जयादि वैजयन्तिका' वघि स्त्रीलिङ्गशब्दानुक्त्या मध्ये क्लीन 'श्रीपर्ण' शब्दस्य पुंलिङ्ग 'अभिमन्ध' शब्दस्य च कथनान्तरं स्त्रीलिङ्गस्य 'कणिका 'दिशब्दद्वयस्य ततश्च भूयो - ऽपि पुंलिङ्ग 'जय' शब्द स्योक्तत्वेन लिङ्गसाङ्कर्यात् 'भेदाख्यानाय - (११११४ ) ' इत्यादिग्रन्थकार - प्रतिशाभङ्गापत्तिवारणाय मानुनीदीक्षितः पञ्च नामानि पृथक्चकार । क्षीरस्वामी तु वनौषधिवर्गे
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अमरकोषः
[ द्वितीय काण्डे
-१ ऽथ कुटजः शक्रो वत्सकी गिरिमल्लिका ॥ ६६ ॥ २ एतस्यैव कलिङ्गेन्द्रयवभद्रयवं ३ कृष्णपाकफलाविग्नसुषेणा:
४
१४४
फले ।
करमर्दके ॥ ६७ ॥
कालस्कन्धस्तमालःस्यात्तापिच्छोऽप्य५थ सिन्दुके । सिन्दुवारेन्द्र सुरसौ निर्गुण्डीन्द्राणि केत्यपि ॥ ६८ ॥
१ कुटजः, शक्रः, वरसकः ( ३ पु ), गिरिमल्लिका (स्त्री) 'कौरेया' के ४ नाम हैं ॥
३ कलिङ्गम् ( + पु स्त्री ) इन्द्रयवम् ( + g ), भद्रयवम् ( + : । ३ न ), 'इन्द्रयत्र' के ३ नाम हैं ॥
३ कृष्णपाकफलः, अविद्मः ( + आविनः ), सुषेणः, करमर्दक: ( ४ पु ), 'करौंदा, करवन' के ४ नाम हैं ।
४ कालस्कन्धः, तमालः, तापिच्छः ( + तापिञ्जः, तापिन्छः | ३ पु ), 'सूत' के ३ नाम हैं ॥
५ सिन्दुकः ( + सिन्धुकः ), सिन्दुवारः, इन्द्रसुरसः ( + इन्द्रसुरिसः । ३) निर्गुण्डी ( + निर्गुण्ठी ), इन्द्राणिका (२ स्त्री) 'सिंधुआर' के ५
नाम हैं ॥
लिङ्गसार्यदोषस्यानादृतत्वेम दशानामपि नाम्नामेकपर्यायतामाह, तत्र प्रमापकवचनानि चोपन्यस्तानि । तद्यथा
यदिन्दुः- 'अग्निमन्थोऽग्निमथनस्त कार्यरणिको जयः । अरणिः कणिका सैव तपनो वैजयन्तिकः ॥ १ ॥ इति ॥
चन्द्रनन्दनश्चाह
-47
'अग्निमन्योऽग्निमथनस्तर्कारी वैजयन्तिका । वह्निमन्थोऽरणिः केतुर्जयः पावकमन्थनः ॥ तर्कारी वैजयन्ती च वह्निनिर्मन्थनी जया ॥' इति च । errer- 'अग्निमन्यो जयः स स्याछ्रीपर्णी गणिकारिका । जया जयन्ती सर्कारी नादेयी वैजयन्तिका' ।। १ ॥ इति वचनसंगतिः' इत्यवधेयम् ॥
१. 'सिन्दुवारेन्द्रसुरिसौ' इति पाठान्तरम् ॥
२-२. इन्द्रयवं कुटनफलम् भद्रयवं कुटजबीजम् । यदाहफलानि तस्येन्द्रयवं बीजं भङ्ग्यवास्तथा' इति की० स्वा० ॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१४५ १ वेणी 'अरा गरी देवताडो जीमूत इत्यपि । २ श्रीहस्तिनी तु भूरुण्डी ३ 'तृणशून्यं तु मल्लिका ॥ ६९ ॥
भूपदी शीतभीरुश्च ४ सैवास्फोटा वनदया। ५ शेफालिका तु सुबहा निर्गुण्डी नीलिका जसा ॥ ७० ॥ ६ सिताऽसौ श्वेतसुरसा भूतवेश्य ७ थ भागधी।
गणिका युधिकाऽम्बष्ठा ८ सा पीता हेमपुष्पिका ।। ७१ ।। ९ अतिमुक्तः पुण्डकः स्याद्वासन्ती माधवी लता।
१ वेणी, खरा, गरी (+रागरो, गरा, अगरी, गरागरी। ३ स्त्री), देवताडः ( + देवतालः), जीमूतः (२ पु), 'देवताल' अर्थात् 'बन्दाली, एक तरह के गुजराती वृक्ष' के ५ नाम हैं ॥
२ श्रीहस्तिनी, भूरुण्डी ( २ स्त्री), 'एक तरह के शाक-विशेष' के २ नाम हैं । ('उसके पत्ते हाथीके कान-जैसे बड़े २ होते हैं')॥
३ तृणशून्यम् (+तृणशूल्यम् । न), मल्लिका, भूपदी, शीतभीरुः ( + शतभीरुः । स्त्री), 'छोटी बेला' के ४ नाम हैं ॥
४ भास्फोटा ( + आस्फोता। स्त्री), 'जाली बेला' का । नाम है ॥
५ शेफालिका ( + शीफालिका ), सुवहा, निर्गुण्डी, नीलिका, (४ स्त्री), 'काली नेवारी ४ नाम हैं ।
६ श्वेतसुरसा, भूतवेशी ( २ स्त्री) 'सफेद फूलवाली नेवारी' के २ नाम हैं।
७ मागधी, गणिका, यूथिका, अम्बष्ठा ( ४ स्त्री ), 'जही' के ४ नाम हैं। ८ हेमपुष्पिका (स्त्री), 'पीले फलवाली जूही' का १ नाम है ॥
९ अतिमुक्ता, पुण्डकः ( + मण्डकः । २ पु), वासन्ती, माधवी, लता, (+माधवीलता । २ स्त्री ), 'बसन्त ऋतुमें फूलनेवाले कुन्द विशेष, या माधवी' के ४ नाम हैं । ('अतिमुक्तः, पुण्डकः' ये दो 'मल्लिकाके भेद हैं। यह भी किसी २ का मत है')॥
१. 'खरागरी, गरागरी' इति पाठान्तरे ।। २. 'तृणशूल्यम्' इति पठान्तरम् ।। ३. 'भूपदी शतमीरुश्च सैवास्फोता वनोद्भवा' इति पाठान्तरम् ॥
०अ०
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१४६
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डेसुमना मालतीः जातिः २ सप्तला नवमालिका ।। ७२ ॥ ३ माघ्यं कुन्दं ४ रक्तकस्तु बन्धूको बन्धुजीवकः ।
सहा कुमारी तरणि ६ रम्लानस्तु महासहा ॥ ७३ ॥ ७ तत्र शोणे कुरबक ८ स्तत्र पीते कुरण्टकः । ९ 'नीली झिण्टी द्वयोर्बाणा दासी चार्तगलश्च सा ॥७४ ॥ १० 'सैरेयकस्तु झिण्टी स्यात्
। सुमनाः ( = सुमनस । + सुमना = सुमना), मालती, जातिः (३ सी), 'चमेली' के ३ नाम हैं ॥
२ सप्तला, नवमालिका ( + नवमल्लिका । २ स्त्री), 'वसन्ती नेवारी' के । नाम हैं।
३ माम्यम् , कुन्दम् (पु। + २ पु न ), 'कुन्द' के २ नाम हैं ।
४ रकका, बन्धूकः ( + बन्धुकः ), बन्धुजीवकः ( ३ पु), 'दुपहरिया. नामक पुष्पवृक्ष' के ३ नाम हैं । ५ सहा, कुमारी, तरणिः ( ३ स्त्री ), 'घीकुमार' के ३ नाम हैं ॥
अम्लानः (पु), महासहा (स्त्री), 'कटसरैया' के २ नाम हैं। ('यह कोटेदार होती है)।
करबकः ( + कुरवकः, कुरुवकः, कुरुखकः । पु), 'लाल फूलपाती कटसरेया' का नाम है ॥
करण्टकः (+ कुरण्डकः,कुरुण्डकः । पु), पीले फलवाली कटसरैया' का नाम है॥
९ वाणा (+ वाणा। पु स्त्री), दासी (स्त्री), आर्तगलः। (+अन्तर्गलः । पु), 'काली कटसरैया' के ३ नाम हैं ॥
१. सैरेयकः(+सैरीयकः । पु), झिण्टी (सी), कटसरैया के २ नाम हैं। १. 'नीला झिण्टीदयोर्वाणा' इति पाठान्तरम् । अत्र सामान्यतः झिण्टया विवरणम नुक्ता विशेषनीस्यादेर्भेदकथनस्य सकलसरणिविरुद्धत्वात्पूर्व 'सैरेयकस्तु...""रुणे' इत्यस्य सतम बोली झिण्टी'"सा' इत्यस्य पाठस्यौचित्यं प्रतिमातीस्यवधेयम् ॥
२. 'सैरीयकस्तु' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'सैरीयकः सहचरः सैरेयस सहाचरः॥
पोतो रकोऽय नीलम कुममेस्तं विमाक्येव ॥ १॥
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वनौषधिवर्गः४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ तस्मिन्कुरबकोऽरुणे। २ पीता कुरण्टको झिण्टी तस्मिन्सहचरी द्वयोः ॥ ७५॥ ३ ओडपुष्पं' जपापुष्पं ४ वज्रपुष्पं तिलस्य यत् ।
प्रतिहासशतप्रासचण्डातहयमारकाः ॥७६ ॥
करवीरे ६ करीरे तु क्रकरग्रन्थिलावुभौ। ७ उन्मत्तः कितवो धू? धत्तुरः कनकाइयः ॥ ७७ ।।
मातुलो मदनचा ८ स्य फले मातुलपुत्रकः । १ फलपूरो बीजपूरो रुचको मातुलुङ्गके ॥ ७८ ॥ १० समीरणो मरुबकः प्रस्थपुष्पः फणिज्जकः ।
कुरषक: (+कुरवकः । पु), 'लाल कटसरैया' का नाम है। २ कुरण्टकः (कुरुण्डकः । पु), सहचरी (स्त्री पु), 'पीली कटसरैया' के २ नाम हैं।
३ ओड्पुष्पम् , जपापुष्पम् (+ जवापुष्पम् । २ न), 'मोदउल, गुड़हल' के २ नाम हैं।
४ वज्रपुष्पम् (न), 'तिलके फूल' का । नाम है।
५ प्रतिहासः ( + प्रतीहासः), शतप्रासः, चण्डाता, हयमारका, करवीरः (५ पु), 'कनहल, कनेर पुष्प-वृक्ष' के ५ नाम हैं।
६ करीरः, ऋकरः, प्रन्थिलः (३५), 'करील' के ३ नाम हैं। (इनमें पत्ता नहीं होता है )॥
७ सन्मत्ता, कितवः धूर्तः, धत्तरः, (+धुस्तूरः धुस्तुरः, धूस्तूरः, धुतूर), कनकाइयः ( स्वर्णके वाचक सब शब्द), मातुलः, मदनः ( ७ पु), 'घतरे के नाम हैं॥
८ मातुपुत्रका (पु), 'धतूरेके फल' का । नाम है । ९ फलपूर:, बीजपूरः, रुचकः, मातुलुककः (पु); 'विजौरा नीबू' के नाम हैं। ('फलपूरः, बीजपूर: ये दो नाम उकार्थक तथा 'हचकः,मावलम:' दो नाम 'मातलाक' के है, यह भा० दी. का मत है)।
पीतः कुरण्टको शेयो रक्तः कुरबकः स्मृतः।
नील मातंगो दासी वाण भोदनपास्यपि ॥२॥ इत्युक्तेरिस्पवयम् ॥ १. 'मवापुष्पम्' इति पाठान्तरम् ॥ २. बत्तरः कामनारायः' इति पाठान्तरम् ॥ १. 'मरवकः' इति पाठान्तरम् ॥ ४. तया च भक्ष्यम् -'पत्रं नैव यदा करीरविटपे...... इति ॥
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१४८
अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डेजम्बीरोऽप्य १ थ पर्णासे कठिञ्जरकुठेरकौ ॥ ७९ ॥ २ सितेऽर्जकोऽत्र ३ पाठी तु चित्रको वह्निसंबकः । ४ सविसुकाऽऽस्फोटगणरूपविकीरणाः ॥८०॥
मन्दारश्चार्कपर्णो ५ शुक्लेऽलर्कप्रतापसी। ६ शिवमल्ली पाशुपत एकाष्ठीलो 'वुको वसुः ॥ ८१ ॥
बन्दा अक्षादनी वृक्षरहा जीवन्तिकेत्यपि । ८ धत्सादनी छिन्नरहा गुनी तन्त्रिकाऽमृता ।। ८२ ।।
जीवन्तिका सोमवल्ली विशल्या मधुपर्ण्यपि । ( + जम्भीरः ! ५ पु), 'मरुवा' के ५ नाम हैं ॥
१ वर्णासः, कटिञ्जरः, कुठेरकः (३ पु), 'पर्णास, या बवई' के ३ नाम हैं। २ अक: (पु), 'सफेद बवई' का । नाम है ॥
३ पाठी (= पाठिन् ), चित्रका, वतिसज्ञकः (अग्निके वाचक सब नाम । ३ पु), 'चीत' के ३ नाम हैं ॥
४ अाह्वः ( सूर्यके वाचक सब नाम ), वसुकः ( + वसूकः), आस्फोट: ( + आस्फोतः), गणरूपः, विकीरणः ( + विकिरणः), मन्दारः, अर्कपर्णः ( ७ पु), 'एकवन, आक, मन्दार' के ७ नाम हैं । ____५ अलर्कः, प्रतापसः (२ पु), 'सफेद फलवाले एकवन' के २ नाम हैं।
६ शिवमली (= शिवमरिकन् ), पाशुपतः, एकाष्ठीलः, वुकः (+बुकः), वसुः (५ पु), 'गुम्मा' के ५ नाम हैं ॥
७ वन्दा, वृक्षादनी, वृक्षरुहा (+ वृक्षरोहा ), जीवन्तिका ( + जीवन्ती । ४ स्त्री ), 'बन्दा, बाँदा' के ४ नाम हैं ।
८ वरसादना, छिन्नरुहा, गुदूची (+ गुदुची), तन्त्रिका, अमृता, जीवन्ति. का ( + जीवन्ती), सोमवल्ली, विशल्या, मधुपर्गी (९ सी), 'गिलोय, गुड़च' ९ नाम है ॥
१. अाह्ववसुकास्फोतगणरूपविकीरणाः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'वुको वसुः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. वुकं बिल्वं सत्तरं सुमना पाटला तया । पद्ममुस्पलगोसूर्यमष्टौ पुष्पाणि शङ्करे ॥१॥ इत्युक्तत्वाच्छिवप्रिया मल्ली 'शिवमल्ली' इति नामेत्यवधेयम् ॥
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१४४
वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ मूर्वा देवी मधुरसा मोरटा तेजनी सुवा ।। ८३ ॥
मधूलिका मधुश्रेणी गोकर्णी पीलुपर्ण्यपि ! २ पाठाऽम्बष्ठा विद्धकर्णी स्थापनी श्रेयसी रसा ।। ८४॥
एकाष्ठीला पापचेली प्राचीना वनतिक्तिका । कटुः 'कटम्भराऽशोकरोहिणी कटुरोहिणी ॥ ८५॥
मत्स्यपित्ता कृष्णभेदी चक्राती शकुलादिनी। ४ आत्मगुप्ताजहान्यण्डा कण्डुरा प्रावृषायणी ।। ८६ ॥
ऋष्यप्रोक्ता शूकशिम्बिः कपिकच्छुश्च मर्कटी। ५ चित्रीपचित्रा न्यग्रोधी द्रवन्ती शंवरी वृषा ॥ ८७॥
प्रत्यक्श्रेणी सुतश्रेणी रण्डा मूषिकपर्ण्यपि ।
मूर्वा ( + मूर्वी), देवी, मधुरसा, मोरटा, तेजनी, सुवा (+ववा) मधूलिका, मधुश्रेणी, गोकर्णी, पीलुपर्णी (१० स्त्री) 'मूर्वा' अर्थात् 'चिनार, चुरनहार, धनुषके लिये उपयोगी लताविशेष' के १० नाम हैं।
२ पाठा, अम्बष्ठा, विकर्णी ( + भविदकर्णी ), स्थापनी, श्रेयसी, रसा, एकाष्ठीला, पापचेको, प्राचीना, वनतिक्तिका (१० स्त्री) 'पाठा या पादर' के १० नाम हैं। ___३ कटुः, कटम्भरा ( + कटंवरा, कटम्बरा ), अशोकरोहिणी ( + अशोकः, रोहिणी), कटुरोहिणी, मत्स्यपित्ता, कृष्णभेदी ( + कृष्णभेदा), चक्राङ्गी, शकुलादनी (“ स्त्री), 'कुटकी' के ८ नाम हैं। __४ आत्मगुप्ता ( + स्वयंगुष्ठा), अजहा (क्षी. स्वा०, महे । + जडा मा० दी.), अव्यण्डा, कण्डरा (+ कण्डूरा), प्रावृषायणी, ऋष्यमोचा, शूकशि. म्बिः, कपिकच्छुः (+कपिकच्छूः) मर्कटी (१ खी), 'केषाँच' के ९ नाम हैं। __५ चित्रा, उपचित्रा, न्पप्रोधी, द्रवन्ती, शंवरी (+ शम्बरी), वृषा, प्रत्य. क्श्रेणी, सुतश्रेणी, रण्डा (+ चण्डा ), मूषिकपर्णी (+ मूषिकाह्वया । १० स्त्री) 'मूसाकर्णी' के १० नाम हैं।
१. कटम्ब(टंव राशोकरोहिणी' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'आस्मगुप्ताबडाव्यण्डा' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'चित्रोपचित्रा""शम्बरी वृषा' इति पाठान्तरम् । अत्र दन्त्यो द्रवन्तीभ्रमाद् अन्यकारः 'उपचित्रा'माह इति क्षी० स्वा०॥ ४. 'चण्डा' इति पाठान्तरम् ।।
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अमरकोषः
[द्वितीयकाण्डे१ अपामार्गः शैखरिको धामार्गधमयूरको ॥ ८८ ॥
प्रत्यकपर्णी' केशपर्णी किणिही सरमधरी। २ हजिका ब्राह्मणी पद्मा भार्गी ब्राह्मणयष्टिका ।। ८९ ॥
अङ्गारवल्ली बालेयशाकघर्षरवर्धकाः। ३ मञ्जिष्ठा विकसा जिकी समझा कालमेषिका ॥२०॥
मण्डकपर्णी भण्डीरी भण्डी योजनवल्ल्यपि । ४ यासो यवासो दुःस्पर्शो धन्वयासः कुनाशकः ॥ ९१ ।।
रोदनी कच्छुराऽनन्ता समुद्रान्ता दुपलमा। ५ पृश्निपर्णी पृथक्पर्णी "चित्रपर्ण्यध्रिवल्लिका ॥ १२ ॥
, अपामार्गः, शैचारिकः (+शिखरी ), पामार्गवः (+अधामार्गवः ), मयूरका (४ पु), प्रत्यकपर्णी ( + प्रत्यक्पुष्पी), केशपर्णी ( + कीशपर्णी), किणिही, स्वरमारी (४ सो), 'चिचिढा' के ८ नाम हैं ।
१ हलिका ( + फक्षिका), ब्राह्मणी, पना, भार्गी (+भृगुणा ), माणपष्टिका, अनारवही (स्त्री), बालेयशाकः, वर्वरः, वर्धकः (३ पु), 'ब्रह्मनेटी, भारती के ९ नाम हैं।
३ मजिठा, विकसा ( +विकषा), निङ्गी, समगा, कालमेषिका (+काकमेशिका), मण्डूकपर्णी, मण्डोरी ( + मण्डीरी), भण्डी, पोजनवडी (+पोजनपर्णी । ९ सी), 'मजीठ' के ९ नाम हैं।
४ यासा, यवासः, दुःस्पर्शः, धन्वयासः (+धनुर्यासः), कुनाशकः (५), रोहनी ( + चोदनी), कछुरा, अनन्ता, समुद्रान्ता, दुरालभा (+दुरालम्मा । ५ वी), 'जवासा' के १० नाम हैं।
५पस्निपर्णी, पृषपर्णी, चित्रपर्णी, अधिवल्लिका (+ अतिपर्णिका मुकु०),
१. 'काशपणी' इति पाठान्तरम् । २. 'फजिका' इति मुकुटसंमतं पाठान्तरम् ।। ३. काठमेशिका' इति पाठान्तरम् । ४. मण्डीरी भण्डी योजनपण्यपि' इति पाठान्तरम् ॥ ५. चित्रपण्यधिपर्णिका' ति पाठान्तरम् ॥
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वनौषधिवर्गः ४ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
कोष्टविना सिंहपुच्छी 'कलशिर्घावनिर्गुद्दा |
१ निदिग्धिका स्पृशी व्याघ्री बृहती कण्टकारिका ।। ९३ ।। प्रचोदनी कुली क्षुद्रा दुःस्पर्शा राष्ट्रिकेत्यपि ।
२ नीली काला क्लीतकिका ग्रामीणा मधुपर्णिका ॥ ९४ ॥ रञ्जनी श्रीफली तुत्था द्रोणी दोला च नोखिनी ।
।
३ अवल्गुजः सोमराजी सुवलिः सोमवलिका ।। ९५ ।। कालमेषी कृष्णफला बाकुची पूतिफल्यपि । ४ कृष्णोपकुल्या वैदेही मागधी चपला कणा ॥ ९६ ॥ उषणा पिप्पली शौण्डी कोला५थ करिपिप्पली । कपिवल्ली कोलवल्ली श्रेयसो वशिरः पुमान् ॥ ९७ ॥ कोटुविना, सिंहपुच्छी ( + सिंहपुच्छकः, पु ), कलशिः ( + कळशी ), चावनिः ( + धावनी ), गुहा ( ९ स्त्री), 'पिठिवन' के ९ नाम हैं ॥
१ निदिग्धिका, स्पृशी, व्यात्री, बृहती, कण्टकारिका ( + कण्टकारी ), प्रचोदनी, कुली, खुद्रा, दुःस्पर्शा, राष्ट्रिका (१० स्त्री ), 'भटकटैया, रेगनी' के १० नाम हैं ॥
१५१
२ नीली, काला, क्लीतकिका, ग्रामीणा, मधुपर्णिका ( + मधुपर्णी ), रक्षनी ( + रजनी ), श्रीफली, तुस्था, द्रोणी ( + तूणी ), दोहा ( + मेढा ), नीलिनी ( ११ स्त्री ), 'नील' के ११ नाम हैं ॥
३ अवल्गुजः ( पु ), सोमराजी, सुवखिलः, सोमवल्लिका (+ सोमवरकी ), काळमेषी ( + कालमेशी), कृष्णफला, बाकुची ( + वागुची, मुकु० ), पूतिफली (६ स्त्री), 'बाकुची, बकुची' के ८ नाम हैं ॥
४ कृष्णा, उपकुल्या, वैदेही, मागधी, चपला, कणा, उषणा ( + ऊपणा ), पिप्पली ( + पिप्पलि: ), शौण्डी, कोला ( १० स्त्री), 'पीपरि' के १० नाम है ॥
५ करिपिप्पली ( + करिपिप्यतिः ), कपिवल्ली, कोलवल्ली, श्रेयसी ( ४ स्त्री ), वशिरः ( + वसिरः । पु ), 'गजपीपरि' के ५ बाम हैं ॥
१. 'कळशी धावनी गुहा' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'बृहती तु निदिग्धिका' इति मागुरिवाक्यादत्र ग्रन्थकृद्भ्रान्तः, यपोऽनयोर्महान् भेद' इति क्षी० स्वा० ॥
३. 'ऊपणा पिप्पली' इति पाठान्तरम् ॥
४. 'वसिरः पुमान्' इति पाठान्तरम् ॥
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१५२ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ 'चन्यं तु चविका २ काकचिशीगुजे तु कृष्णला । ३ पलङ्कमा स्विक्षुगन्धा श्वदंष्टा स्वादुकण्टकः ॥ ९८ ॥
गोकण्टको गोक्षुरको वनबाट इत्यपि । विश्वा विषा प्रतिविषाऽतिविषोपविषाऽरुणा ।। ९९ ॥
मी 'महौषधं चा ५ थ सीरावी दुग्धिका समे। ६ शतमूली बहुमुताऽभीरुरिन्दीवरी वरी ॥१००।। ऋष्यमोकाऽभीरुपत्त्रीनारायण्यः शतावरी । महेरु
चव्यम् (न । + स्त्री), चविका ( स्त्री। +न, पु,) 'चाभ, चब्य' के २ नाम हैं। ('ये दो नाम भी पूर्वार्थक हैं, यह भी किली २ का मत
__ . काकचिची ( + काकचिनिः, काकञ्चिञ्चा), गुजा, कृष्णला (+र. तिका । ३ स्त्री), 'गुंजा, लाल घुघुची, करेजनी' के ३ नाम हैं ।
३ पटकषा, इगन्धा, श्वदंष्ट्रा (३ स्त्री), स्वादुकण्टकः, गोकण्टका, गोपुरका, वनमाटः ( ४ पु), 'गोजरू' के • नाम हैं ॥
. विश्वा, विषा, प्रतिविषा, अतिविषा, उपविषा, अरुणा, शृङ्गी ( ७ स्त्री), महौषधम् ( न ), 'मतीस' के ८ नाम हैं । ५ बोरावी, दुग्धिका (२ स्त्री), 'दुधिया घास' के २ नाम हैं ।
सतमूली, बहुसुता, अभीरुः, इन्दीवरी, वरी (+वरा), ऋष्यप्रोता, ममीहपस्त्री, नारायणी, शतावरी, अहेरुः (१० स्त्रो), 'शतावर'के १० नाम हैं।
१. 'चव्यं तु चविकं काकचिश्चागु तु कृष्णला' इति पाठभेदः । चन्द्रनन्दनस्तु सामा. न्वेनाइ, करिपिप्पल्या एव पर्यायतामाहेत्यर्थस्तथा हि
'चम्या कोलाऽथ चविका श्रेयसौ गजपिप्पली ।
च्यवना कोलवल्ली तु चव्यं कुञ्चरपिप्पली' ॥१॥इति एतन्मते स्वन्तस्य पूर्वान्वयित्वप्रसक्त्या 'चव्यं च' इति पाठः समीचीन इस्यवधेयम् ॥ २. 'महौषधं तु विषं नातिविषा । व्यर्थे तु हि महौषधं (विषं) शुण्ठी शुनं चेति विषा(प)वन्दं युवा भ्रान्तोऽयम्' इति क्षी० स्वा० ।। १. 'बरा' इति पाठान्तरम् । ४. 'चव्यं च' इति पठता मतेनेदमित्यवधेयम् ।।
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः
१५३ - रथ 'पीतद्रुकालीयकहरिद्रवः ।। १०१ ॥ दार्वी पचम्पचा दारु हरिद्रा पर्जनीत्यपि । २ वचोग्रन्धा षडग्रन्या गोलोमी शतपर्विका ॥ १०२॥ ३ शुक्ला हैमवती ४ वैद्यमातृसिंधौ तु वाशिका ।
वृषोऽटरूषः सिंहास्यो वासको वाजिदन्तकः ।। १०३ ।। ५ आस्फोटा गिरिकर्णी स्याद्विष्णुकान्ताऽपराजिता। ६ इक्षुगन्धा तु काण्डेक्षुकोकिलाक्षेक्षुरक्षुराः ॥ १०४।। ७ शालेयः स्याच्छीतशिवश्छन्ना मधुरिका मिसिः।
अमिश्रेयाऽप्य ८थ सीहुण्डोवज्रास्नुकत्रीस्नुही गुडा॥१०५॥
पीतद्दुः, कालीयकः ( + कालेयकः), हरिगुः (३ पु) दार्छ, पचम्पचा (+पचम्बचा ) दारुहरिद्रा, पर्जनी ( ४ स्त्री), 'दारुहल्दी' के ७ नाम हैं ।
२ वचा, उग्रगन्धा, षड्मन्था, गोलोमी, शतपर्विका (५ स्त्री), 'घुड़वच या बच' के ५ नाम हैं ॥
३ हैमवती (स्त्री), 'खुरासानी बच' का । नाम है ॥
४ वैद्यमाता (= वैद्य मातृ), सिंही, वाशिका (+वासिका । ३ स्त्री), वृषः, अटरूषः ( + अटरुषः), सिंहास्या, वासका, वाजिदन्तकः (५ पु), 'अडूसा, वासक' के ८ नाम हैं।
५ भास्फोटा ( + भास्फोता), गिरिकर्णी, विष्णुकान्ता, अपराजिता (४ स्त्री) 'अपराजिता' के ४ नाम हैं ।।
६ इन्चुगन्धा (स्त्री), काण्डेतुः, कोकिलापः, इहरः, तुरः, (४ पु), 'तालमखाना' के ५ नाम हैं ।
७ शालेयः, शीतशिवः ( ६ पु), छस्त्रा, मधुरिका, मिसिः, ( + मिसी, मिशिः, मिशी), मिश्रेया ( + मिश्रेयः, पु । ४ स्त्री), 'सोमा या वनसौंफ' के ६ नाम हैं।
८ सीहुण्डः ( + सिहुण्डः, शीहुण्डा), वज्रः ( + वज्रदुः। पु), स्नुक् ( = स्नुह् ), स्नुही ( + स्नुहा ) गुटा, समन्तदुग्धा ( ४ खी) 'सेंहुई' के
१. 'पीतद्रुकालेयकहरिद्रवः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'अस्फोता' इति पाठान्तरम् ।। ३. 'मिश्रेयोऽप्यथ सीहुण्डो वज्रगुः स्नुक स्नुही गुडा' इति पाठान्तरम् ॥
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१५४
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डेसमन्तदुग्धा१ऽथो वेल्लममोघा चित्रतण्डुला ।
तण्डुलब्ध कृमिघ्नश्च विडङ्गं पुन्नपुंसकम् ॥ १०६ ॥ २ 'बला वाट्यालका ३ घण्टारवा तु शणपुष्पिका। ४ मृद्धीका गोस्तनी द्राक्षा स्वाद्वी मधुरसेति च ॥ १०७ ॥
सर्वानुभूतिः 'सरला त्रिपुटा त्रिवृता त्रिवृत् । त्रिमण्डी रोचनी ६श्यामापालिन्द्यौ तु सुषेणिका ।। १०८॥
काला मसूरविदलाऽर्द्धचन्द्रा कालमेषिका । ७ मधुकं क्लीतकं यष्टिमधुकं मधुयष्टिका ॥ १०९ ॥ नाम हैं।
वेबम् (न), अमोघा ( + मोघा), चित्रतण्डला ( २ खी), तण्डुलः (+तन्तूलः, मुकु.), कृमिनः (+ कृमिनी, स्त्री । २ पु) विडङ्गम् (पुन), 'बायविडा' के ६ नाम हैं ।
२ बल: (+वला) वाट्यालका (+वाट्यालका, । २ स्त्री), 'परियारा' (औषधविशेष) के २ नाम हैं।
३ घण्टारवा, शणपुरिपका (२ स्त्री), 'सन, सनई' के २ नाम हैं ।
४मृद्धीका, गोस्तनी (+गोस्तना), द्राक्षा, स्वाद्वी, मधुरसा (५ स्त्री) 'दास, मुनक्का' के ५ नाम हैं । ___ ५ सर्वानुभूतिः, सरला ( + सरणा, सरडा) त्रिपुरा (त्रिपुटी, स्ना) त्रिवृत्ता, त्रिवृत् , त्रिभण्डी, रोचनी (+रेचनी । ७ स्त्री), 'सफेद निशोथ' के ७ नाम हैं।
६ श्यामा, पालिन्दी ( + पालिन्धी), सुषेणिका, काला, मसूर विदला, अर्द्धचन्द्रा, कालमेषिका ( ७ स्त्री) 'काला निशोथ' के नाम हैं।
७ मधुकम् , क्लीतकम् , यष्टिमधुकम् (+ यष्टीमधुकम् । ३ न) मधुयष्टिका (बी), 'मुलहठी, जेठीमधु' के ४ नाम हैं ॥
१. 'वका वाट्यालको घण्टारवा' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'सरणा' इति पाठान्तरम् ॥ ३. रेचनी' इति पाठान्तरम् ॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
१ विदारी क्षीरशुक्लेक्षुगन्धा कोष्ट्री व या सिता। २ अन्या क्षीरविदारी स्यान्महाश्वेतर्भगन्धिका ॥ ११०।। ३ लाजली शारदी तोयपिप्पली शकुलादनी । ४ मराभ्वा कारवी दीप्यो मयूरो लोचमस्तकः ॥ १११ ॥
१ विदारी, क्षीरशुक्ला, इसुगन्धा, क्रोष्ट्री (४ स्त्री), भा. दी. मतसे 'कृष्ण भूमिकूष्माण्ड' के और महे० मतसे 'शुक्ल भूमिकूष्माण्ड' के ४ नाम हैं।
२ क्षीरविदारी, महाश्वेता, ऋक्षगन्धिका (+ऋष्यगन्धिका। ३ स्त्री), मा० दी० मतसे 'शुक्ल भूमिकूष्माण्ड' के और महे० मतसे 'कृष्ण भूमिकूष्माण्ड' के ३ नाम हैं । ____३ लागली, शारदी, तोयपिप्पली, शकुलादनी (स्त्री), 'जलपीपरि' के
४ खरावा, कारवी ( २ स्त्री), दीप्या, मयूरः, लोचमस्तकः ( + लोच. मर्कटः । ३ पु), 'अजमोदा' के ५ नाम हैं।
१. 'क्रोष्ट्री तु या सिता' इति 'याऽसिता' इति च पाठान्तरे ॥ २. 'स्यान्महाश्वेतयंगन्धिका' इति पाठान्तरम् ।।
३. या असिता = कृष्णा इविच्छेदं कृत्वा 'विदारी,..' ४ 'कृष्णभूकृण्माण्डस्य, अन्या सिता= शुक्ला क्षौरविदारी,.." ३ शुक्लभूकूष्माण्डस्य' इत्युक्त्वा-'या सिता- गला 'विदारी,." ४ 'शुभकूष्माण्डस्य' तथा 'अन्या या भसिता = कृष्णा क्षीरविदारी,"" ३ 'कृष्णभूकूष्माण्डस्य' इति मुकुटोक्तं चिन्त्यमिति मा० दी। क्षी० स्वा०तु 'विदारी' ३ 'कृष्णभूकूष्माण्डं प्राग्देशेषु विख्यातम्', ततः 'क्रोष्ट्री तु या सिता' इति पाठमुररीकृत्य 'या सिता-शुक्ला साक्रोष्ट्री इत्युक्त्वा अन्या या असिता- कृष्णा 'क्षीरविदारी,..' ३'कृष्णभूफूष्माण्डस्य' इत्येवं विमागत्रयं कृतम् । तत्रेदमवधेयम्-'वीरमिव शुक्ले ति स्वयं प्रद. शिंतस्य 'चीरशुक्ला' शब्दविग्रहस्य, 'क्रोष्ट्रो शृगालिकाक्षीरविदारीलागलीषु च' ( मेदि. पृ० १३४ श्लो० २०) इति मेदिन्युक्त' 'क्रोष्ट्री क्षीरविदारिका' (अने० संग्र० २।४०६) इति हेमचन्द्राचार्योक्तश्च विरोधात मुकुटोक्तिरेव समीचीना। अत्र च क्षी० स्वा० सम्मत: 'क्रोष्ट्री तु याऽसिता' इति पाठः मा० दी० सम्मतः 'याऽसिता' इति च्छेदश्च समीचीनः प्रतिमाति । एवं सति 'विदारी,'' 'शुक्लभूकूष्माण्डस्य', 'क्रोष्ट्री' ४'कृष्णभूकूमाण्डस्य' इत्याषातम् । अषिकन्वन्यत्र द्रष्टव्यम् ।।
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१५६ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ गोपी श्यामा शारिवा स्यादनन्तोत्पलशारिवा । २ योग्यमृद्धिः सिद्धिलक्ष्म्यौ ३युद्धेरप्यावयाइमे ॥ ११२ ।। ४ कदनी धारणबुसा रम्भा मोचांऽशुमत्फला ।
काष्ठीला ५ मुद्रपर्णी तु काकमुद्रा सत्यपि ॥ ११३।। ६ घार्ताकी हिङ्गुली सिंही भण्टाकी दुष्प्रधर्षिणी। ७ नाकुली 'सुरसा राना सुगन्धा गन्धनाकुली ॥ ११४ ।।
नकुतेश भुजङ्गाक्षी छत्त्राकी सुवहा च सा । . गोपी (+गोपा), श्यामा, शारिवा ( + सारिवा), अनन्ता (+ चन्दना), सरपळशारिवा (५ स्त्री)'शारिवा, ग्वार' के ५ नाम हैं।
२ योग्यम् (न), ऋद्धिः, सिद्धिः, लक्ष्मीः (३ स्त्री), 'सिद्धिनामक औषध-विशेष के नाम हैं।
३ वृद्धिः (सी), पूर्वोक्त ( योग्यम्, ऋद्धिः, सिद्धिः, लचमीः) चार शब्द 'वृद्धिनामक औषध-विशेष' के ५ नाम हैं। ('किसीके मतमें 'योग्यम्,.. वृद्धि पाँची शब्द एक ही पर्याय हैं)॥
४ कदली ( + कदला, खी, कदलः, पु), वारणबुसा (+ वारणवुसा), रम्भा, मोचा, अंशुमत्फला (+भानुफला), काठीला ( ६ स्त्री), 'केला' के ६ नाम हैं। ___ ५ मुद्रपर्णी, काकमुद्रा, सहा (३ स्त्री), 'मूंगपर्णी, मुंगौनी, वनमूंग' के ३ नाम हैं।
६ वार्ताकी (+वार्ताकुः, वार्ता, वार्ताकः), हिङ्गुली, सिंही, भण्टाकी दुष्प्रधर्षिणी (+दुष्प्रधर्षिणी । ५ स्त्री), 'धनभंटा' के ५ नाम हैं ।।
७ नाकुली, सुरसा, राखा, सुगन्धा ( + नागसुगन्धा), गन्धनाकुली, नकुलेष्टा, भुजङ्गाक्षी, छत्राकी, सुवहा (९ स्त्री) 'राखा, रासना' के ९ नाम हैं ।
१. 'मुरसा नागमुगन्धा' इति पाठान्तरम् ॥ २. वैद्यास्तु 'नाकुलीगन्धनाकुस्यो'मेंदमुररीकुर्वन्ति । तद्यथा'नाकुली सर्पगन्धा च सुगन्धा मोगगन्धिका । सैव सर्पसुगन्धेति" इति ।
भन्या महामुगन्धा च सुवहा गन्धनाकुली। साक्षी नकुलेष्टा च छरत्राकी विषमर्दिनी' ॥१॥ इति चेति ।।
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वनौषधिवर्गः ४ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१५७
१ विदारिगन्धांऽशुमती 'सालपर्णी स्थिरा ध्रुवा ॥ ११५ ॥ २ तुण्डिकेरी समुद्रान्ता कार्पासी बदरेति च ।
३ भारद्वाजी तु सा धन्या ४ शृङ्गी तु ऋषभो वृषः ॥ ११६ ॥ ५ गाङ्गेरुकी नागबला झषा हस्वगवेधुका |
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६ धामार्गवो घोषकः स्याद् ७ महाजाली स पीतकः ॥ ११७ ॥ ८ ग्योस्त्री पटोलिका जाली ९ नादेयी भूमिजम्बुका । १० स्याल्लाङ्गलिक्यग्निशिखा
१ विदारिगन्धा ( + विदारीगन्धा ), अंशुमती, सालपर्णी ( + शालपर्णी ), स्थिरा, ध्रुवा ( ५ स्त्री ), 'सरिवन' के ५ नाम हैं ॥
२ तुण्डिकेरी, समुद्रान्ता, कार्पासी ( + कर्पासी ), बदरा ( + वदरा । ४ स्त्री ), 'कपास' के ४ नाम हैं ॥
३ भारद्वाजी ( + भद्रा । खो), 'बनकपास या नर्मा' का १ नाम है ॥ ४ शृङ्गी (स्त्री), ऋषभः ( + वृषमः ), वृषः ( २ पु ), काकरासिंगी' के ३ नाम हैं ॥
५ गाङ्गेरुकी, नागबला, झषा, हस्वगवेधुका ( ४ स्त्री ), 'गँगेरन' ४ नाम हैं ॥
६ धामार्गवः, घोषकः (२ पु), 'सफेद फूलवाली तरोई' के २ नाम हैं ॥ ७ महाजाळी (स्त्री), 'पीले फूलवाली तरोई' का १ नाम है ॥
पटोलिका, जाली ( ३ स्त्री ),
८ ज्योत्स्नी ( + ज्योस्नी, नोस्त्री ), 'चिचिदानामक तरकारी' के ३ नाम हैं ॥
९ नादेयी, भूमिजम्बुका ( २ स्त्री ), 'भुंह जामुन' के २ नाम हैं ॥ १० लाङ्गलिकी, अग्निशिखा ( + अग्निमुखा, अग्निज्वाला | २ स्त्री ), 'करिहारो' के २ नाम हैं ॥
१. 'शालपर्णी' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'कर्पासी वदरेति च' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'वृषभो वृषः' इति पाठान्तरम् ॥
४. 'ज्योत्स्नी पटलिका बाली नादेयी भूमिजम्बुका' इति पाठान्तरम् । अत्र 'नादेयी भूमि जम्बुके' स्युक्वाऽपि भ्रान्त्या पुनरत्रोकेति क्षी० स्वा० ॥
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अमरकोषः ।
[ द्वितीय काण्डे -
-१ काकाङ्गी काकनासिका ।। ११८ ।।
२ गोधापदी तु सुवहा ३ मुसली तालमूलिका । ४ अजभ्टङ्गो विषाणी स्यात् ५ 'गोजिह्वादार्विके समे ॥ ११९ ॥ ६ ताम्बूलवल्ली ताम्बूली नागवल्ल्यप्य ७ थ द्विजा । हरेणू रेणुका कौन्ती कपिला भस्मगन्धिनी ॥ १२० ॥ ८ पलावालुकमैलेयं सुगन्धि हरिवालुकम्
१५८
वालुकं चा ९थ पालङ्कयां मुकुन्दः कुन्दकुन्दुरु ।। १२१ ।। १० बालं हीबेर बर्द्धिष्ठोदीच्यं केशाम्बुनाम
च ।
१ काकाङ्गी (+ काकमङ्घा ), काकनासिका ( २ स्त्री), 'कौवाठोठी' २ नाम हैं ॥
२ गोधापदी ( + हंसपदी ), सुबहा (२ स्त्री ), 'लजालू' के २ नाम हैं | ६ मुसली, तालमूलिका ( २ स्त्री ) 'मुसलीकन्द' के २ नाम हैं ॥ ४ अशृङ्गी, विषाणी ( २ स्त्री), 'मेढासीङ्गी' के २ नाम हैं ॥
५ गोजिह्वा, दार्विका ( + दर्विका । २ स्त्री ), 'गोभी' के २ नाम हैं ॥ ६ ताम्बूलवली, ताम्बूली, नागवली ( ३ स्त्री ), 'नागबेल, पान' के ३ नाम हैं ॥
७ द्विजा, हरेणुः, रेणुका, कौन्ती, कपिला, भस्मगन्धिनी ( + भस्मगन्धा, भस्मगर्भा । ६ स्त्री ), रेणुकाबीज' के ६ नाम हैं ॥
८ एकावालुकम् ( + एलवालुकम् ), ऐलेयम्, सुगन्धि (= सुगन्धिन् ) हरिवालुकभू, वालुकम् ( ५ न ), 'पलुआ' के ५ नाम हैं । ( यह सीतलचीनी की तरह होता है और इसमें कूट-सा गन्ध होता है ) ॥
९] पालङ्की (स्त्री), मुकुग्दः, कुन्दः ( + कुन्दु ), कुन्दुरुः (+ कुन्दरः । ३ ), 'पालक' के ४ नाम हैं ॥
१० बाह्रम् (+ वालम् । +न पु), होबेरम् ( + होवेरम् ), बहिंडम, उदीच्यम्, केशाम्बुनाम ( = केशाम्बुनामन् । 'केश और जल के पर्यायवाचक सब 'शब्द' । ५ न ), नेत्रवाला' के ५ नाम है ।
१. 'गोबिहार्विके समे' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'एलवा (बा) लुकमैयम्' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'बार्क डीबेर वहिंष्ठोदीच्यम्' इति पाठान्तरम् ॥
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वनौषषिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१५६ १ कालानुसार्यवृद्धाश्मपुष्पशीतशिवानि तु ॥ १२२॥
शैलेयं २ तालपर्णी तु दैत्या गन्धकुटी मुरा। गन्धिनी ३ गजभक्ष्या तु सुवहा सुरभी रसा ॥ १२३ ।।
महेरणा कुन्दुरुको सल्लकी हादिनीति च । . अग्निज्वालासुभिक्षे तु 'वातकी धातृपुष्पिका ।। १२४ ।। ५ पृथ्वीका चन्द्रबालेला निष्कुटिर्बहुला६ऽथ सा।
सूक्ष्मोपकुशिका तुस्था कोरङ्गी त्रिपुटा ध्रुटिः ॥ १२५ ।। ७ व्याधिः कुष्ठं पारिभाष्यं वाप्यं पाकलमुत्पलम् ।
१ कालानुसार्यम्, वृद्धम, अश्मपुष्पम्, शीतशिवम्, शैलेयम् (५ न), 'लिलाजीत' के ५ नाम हैं ।
२ तालपर्णी, दैया, गन्धकुटी, मुरा, गन्धिनी (५ स्त्री ), 'मुरा, ममो. रफली' के ५ नाम हैं॥
३ गजभच्या (+ गजभक्षा), सुवहा (+सुनवा), सुरभी (+सुरभिः); रसा (+सुरभीरसा), महेरणा (+ महेरुणा), कुन्दुरुकी, सहकी (+ शसकी, सिद्धकी), हादिनी (+हादा । ८ स्त्री), 'सलाई के ८ नाम हैं।
४ अग्निज्वाला, सुभिक्षा, धातकी (+ धातुकी), धातृपुरिपका (+धातु. पुरिपका । ४ सी), 'धव' के नाम हैं।
५ पृथ्वीका, चन्द्र बाला (+ चन्द्रवाला), एका, निष्कुटिः (+निष्कुटी), बहुला (५ स्त्री), 'बड़ी इलायची के ५ नाम हैं ।
उपशिका, तुस्था, कोरणी, त्रिपुटा, त्रुटिः (+ त्रुटी । ५ सी), 'छोटी इलायची के ५ नाम हैं।
७ व्याधिः (पु), कुष्ठम्, पारिभाग्यम् (+पारिमभ्यम् ), वाप्यम् (ज्याप्यम्, आप्यम् ), पाकलम, उत्पलम्, (५न), 'कूठ' (औषधि. विशेष) के नाम हैं।
१. 'हादिनीति च' इति पाठान्तरम् ।। २. धातुको 'धातुपुष्पिका' इति पाठान्तरम् ।।
३. 'चन्द्रवालका' इत्यसमीचीनः पाठः । श्री. स्वा० मा० दी. व्यास्थानोक्तस्य चन्द्र नावेति विग्रहस्यैवोचिस्यात् ॥
४'पारिमभ्यं भ्याप्यं पाकमुस्पकम्' इति पाठान्तरम् ।।
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१६० अमरकोषः।
[ द्वितीयकाण्डे१ शखिनी चोरपुष्पी स्यात्केशिन्य २ थ वितुम्नकः ।। १२६ ॥
झटामलाज्झटा ताली शिवा तामलकीति च । ३ प्रपौण्डरीक पौण्डर्य ४ मथ तुन्नः कुवेरकः ॥ १२७॥
कुणिः कच्छः कान्तलको नन्दिवृक्षो५ऽथ राक्षसी। चण्डा धनहरी क्षेमदुष्पत्त्रगणहासकाः ।। १२८ ॥
ध्याडायुधं प्याघ्रनखं करजं चक्रकारकम् । ७ सुषिरा विद्रुमलता कपोताघ्रिन्टी नली ।। १२९ ।। ८ धमन्यजनकेशी च हनुहट्टविलासिनी ।
१ शङ्खिनी, चोरपुष्पी, केशिनी ( ३ स्त्री), 'शंखाहुलीनामक लतावि. शेष के ३ नाम हैं॥
२ वितुचकः (पु), झटामला (+झटा, अमला), अज्झटा ( +अमला. ज्झटा ), ताली, शिवा, तामलकी (५ स्त्रो), 'भुइँ आँवरा, छोटा आँवरा' के ६ नाम हैं।
३ प्रपौण्डरीकम्, पौण्डर्यम् ( + पुण्डर्यम् । २ न ), 'पुण्डरीय वृक्ष' के २ नाम हैं।
४ तुन्नः, कुबेरकः, कुणिः ( + तुणिः), कच्छः, कान्तलकः, नन्दिवृतः (+नान्दिवृक्षः । ६ पु), 'तून, तूणी' के ६ नाम हैं ।
५ राक्षसी, चण्टा, धनहरी (३ स्त्री), क्षेमः, दुष्परत्रः (+दुपुत्रः), गणहासकः (+ गणः,हासकः। ३ पु), 'चोरानामक गन्धद्रव्य के ६ नाम हैं।
६ व्याढायुधम् (+व्यालायुधम् ), व्याघ्रनखम, करजम, चक्रकारकम् (४), 'व्याघ्रनानामक गन्धद्रव्य, बघनत्रा' के ४ नाम हैं ॥
७ सुषिरा (+ शुषिरा), विद्रुमलता, कपोताङ्घ्रिः , नटी, नली (५ स्त्री), भा० दी० मतसे 'मालकाँगनी' के ५ नाम हैं।
८ धमनी, अञ्जनकेशी, हनुः, हविलासिनी ( ४ स्त्री), भा० दी० मतसे 'अञ्जनकेशी' के ४ नाम हैं।
१. 'तुणिः कच्छः' इति पाठानरम् ।। २. 'क्षेमदुष्पुत्रगगहासकाः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'व्यालायुधम्' इति पाठान्तरम् ॥ ४ 'शुषिरा' इति पाठान्तरम् ॥
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३
वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१६१ १ शुक्तिः शङ्खः खुरः कोलदलं नस्त्र २ मथाढकी ॥ १३० ॥
काक्षी मृत्स्ना तुवरिका मृत्तालकसुराष्ट्रजे। कुटनटं 'दाशपुरं वानेयं परिपेलवम् ।। १३१ ।।
प्लवगोपुरगोनर्दकैवर्तीमुस्तकानि च। ४ प्रन्धिपणे 'शुकं बह पुष्पं स्थौणेयकुक्कुरे ।। ३३२ ॥ ५ मरुन्माला तु पिशुना स्पृक्का देवी लता लघुः।
१ शुक्तिः ( स्वा), शङ्खः, खुरः ( २ पु), कोलदलम् , मखम् ( + नखी २ न), भा० दी० लत लखनामक गन्धद्रव्य' के ५ नाम हैं। (महे. मतसे 'सुषिरा......' ७ नाम 'मालकाङ्कनी' के और 'हनुः....' ७ नाम 'नखनामक गन्धद्रव्य' के हैं)॥
२ आठकी, काक्षी, मृत्स्ना ( + मृत्सा), तुषरिका ( + तूवरिका ।। स्त्री), मृत्तालकम् ( + मृतालकम् ), सुराष्ट्र जम् (२ न ), 'रहर, भरहर' (तूवर) के ६ नाम हैं ।
३ कुटखटम ( + पु न ), दाशपुरम ( + दशपुरम् , दशपूराम ), वानेयम् ( + वन्यम् ) परिपेलवम् , प्लवम् , गोपुरम् , गोनर्दम् , कैवर्तीमुस्तकम् (+कैवर्तिमुस्तकम् , कैवर्तमुस्तकम् । ८ न ), 'छोटा नागरमोथा, कैवर्तीमुस्तक, जलमोथा' के ८ नाम हैं ।
४ प्रन्धिपर्णम् , शुकम् , बहम् ( + बहिः। + शुकवहम् सी० स्वा०), पुष्पम् ( + बर्हपुष्पम् ), स्थौणेयम् , कुकुरम् (६ न) 'कुकरीन्हा या गठिवन' के ६ नाम हैं।
५ मरुन्माला, पिशुना, स्पृक्का (+पृक्का), देवी, लता, लघुः, समुद्रा. १. 'दशपुरम्' इति 'दाशपूरम्' इति च पाठान्तरे ॥ २. 'शुकं बहंपुष्पम् , शुकबहंपुष्पम् , शुकं बर्हिपुष्पम्' इति पाठान्तराणि ॥ ३. ये तु-'स्पृक्का तु ब्राह्मणी देवी मरुन्माला लता लघुः ।
समुद्रान्ता वधूः कोटिवर्षा लङ्कोपिका मरुत् ।। १॥
मुनिर्माल्यवती माला मोहना कुटिला मता'। इति वाचस्पत्युक्त्याऽत्रापि 'मरुत्, माला' इति पृथक् नामनी'त्याहुस्तचिन्त्यम् । तथा सति स्वन्तरवेन मरुच्छब्दस्यासंग्रहापत्तरित्यवधेयम् ॥
११ अ०
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१६२
अमरकोषः
समुद्रान्ता वधूः कोटिवर्षा कोटिवर्षा
१ तपस्विनी जटामांसी जटिला
[ द्वितीयकाण्डे
लङ्कोपिके त्यपि ॥ १३३ ॥ 'लोमशा मिसी ।
२ वकपत्रमुत्कटं भृङ्गं त्वचं चोचं वराङ्गकम् ।। १३४ ।। ३ करको द्राविडकः 'काल्पको वेधमुख्य कः । ४ ओषध्यो जातिमात्रे स्यु ५ रजातौ सर्वमौषधम् ॥ १३५ ॥ ६ शाकाख्यं पत्त्रपुष्पादि ७ तण्डुलीयोऽल्पमारिषः ।
मता, वधूः ( + बधूः ), कोटिवर्षा, लङ्कोषिका ( १० स्त्री ), 'असवरग, स्पृक्का, अस्यरक एक तरहका शाक-विशेष' के १० नाम हैं ॥
१ तपस्विनी, जटामांसी, जटिला, लोमशा, मिसी (+ मिसिः, मिषिः, मिषी, मसिः, मषिः, मषो, मसी, आमिषी । ५ स्त्री ), 'जटामांसी' के ५ नाम हैं ॥ २ स्वक्पत्रम् ( + स्वक् = खच् परनम् ), उत्कटम् भृङ्गम् खचम्,
,
"
चोचम्, वराङ्गकम् ( ६ न ), 'दालचीनी के ६ नाम हैं ॥
३ कर्पूरकः ( + कर्पूरक: ), द्वाविकः, मुख्यकः ( ४ पु ), 'कचूर' के ४ नाम है ॥
४ ओषधी (स्त्री), 'जातिमात्र' अर्थात् 'वोहि' ( धान्य ), यव, चना आदि' के अर्थ में प्रयुक्त होता है ॥
काल्पक : ( काव्यकः ), वेध -
५ औषधम् (न ) ' जातिसे भिन्न' अर्थात् 'दवा आदि' के अर्थ में प्रयुक्त होता है ॥
1
६ शाकम् ( न ), 'साग' अर्थात् 'जिससे फल, फूल आदि ( 'जड़, शाखा, कन्द..." ) का बोध हो, उसका १ नाम है। जड़ १, पत्ता २, अङ्कुर ३, अग्रभाग ४, फल ५, शाखा ६, अधिरूढ ७, छाल ८, फूल ९ और कवक १० ये 'दस प्रकार के 'शाक' होते हैं ।
४.
७ तण्डुलीयः, अपमारिषः ( २ ), चौराईके शाक' के २ नाम हैं ॥
१. 'लोमशा मिषों, लोमशा मिशी' इति पाठान्तरे ।।
२. 'कायको वेधमुख्यकः' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'पत्त्रमूलादि' इति पाठान्तरम् ॥
४. तदुक्तम्---
'मूलपत्त्रक रायफलकाण्डाधिरूढकम् ।
स्वक्पुष्पं कवकं चैव 'शाकं दशविधं' स्मृतम्' ॥ १ ॥ इति ॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१६३ १ विशल्याग्निशिस्नानन्ता फलिनी शक्रपुष्पिका ।। १३६ ॥ २ 'स्यादृक्षगन्धा छगलान्यावेगी वृद्धवारकः।
जुङ्गो ३ ब्राह्मी तु मत्स्यामी वयस्या सोमवल्लरी ।। १३७ ॥ ४ पटुपी हैमवती स्वर्णक्षीरी हिमावती । ५ हयपुच्छो तु काम्बोजी माषपर्णी महासह ॥ १३८ ।। ६ 'तुण्डिकेरी रक्तफला घिम्बिका पीलुपर्ण्यपि ।
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१ विशल्या, अग्निशिखा, अनन्ता, फलिनी, शक्रपुष्पिका (५ स्त्री), 'अग्निशिखा, इन्द्रपुष्पी' के ५ नाम हैं ॥
२ ऋक्षगन्धा (+ वृक्षगन्धा, ऋष्यगन्धा ), छगलान्त्री ( + छगलानो, छगलाण्डी, छगलाघ्रो. छगला, अन्त्री, ), आवेगी ( ३ स्त्री), वृद्धदारका, जुङ्गः (२ पु), 'विधारा' के ५ नाम हैं ।
३ ब्राह्मो, मत्स्वावा, वयस्था, सोमवल्लरी ( + सोमवतरिः। ४ सी), 'ब्राह्मी' के ४ नाम हैं ।
४ पटुपर्णी, हैमवती, स्वर्णक्षीरी (+ स्वर्णवती), हिमावती (४ स्रो), मकोय' के ४ नाम हैं ।
५ हयपुच्छी, काम्बोजी, माषपर्णी, महासहा (४ स्त्रो ), 'माषपर्णी वनउड़द' के ४ नाम हैं ।
६ तुण्डिकेरी ( + तुण्डकेरी, तुण्डिकेशी), रक्तफला, बिम्बिका, पोलुपर्णी (४ स्त्री), 'कुनुरुन, कुन्दरु' के ४ नाम हैं ।
तत्र १ मूलम्-मूलक विषादेः, २ पस्त्रम्-वास्तूकनिम्बादेः, करीरम-वंशानुरादेः, ४ अग्रम-वेत्रादेः, ५ फलम्-कूष्माण्डवार्ताक्यादेः ६ काण्डम-कमलादेन लम् , ७ अधिरूढकम्-'तालास्थिमज्जेति, गौडः' क्षेत्रोद्ग(द्धृ) तस्य फलमूलादेः सेकानवोद्भिन्नाङ्करा अधिरूढम्' इति क्षी० स्वा०, ८ स्वक-मातुलुङ्गादेः, ९ पुष्पम्-तिन्तिडीकोविदारादे, कवकम्-छत्त्राकम् इति । केचित्तु-- 'पत्वं पुष्पं फलं नालं कन्दं संस्वेदजं तथा । शाकं षड्विधमुद्दिष्टं गुरु विद्यायथोत्तरम् ॥१॥
इत्युक्तेः षडविध शाकमामनन्ति । तत्र संस्वेदजं भूमिच्छत्वम् , अन्ये प्रागुक्ता बोष्याः ॥ १. स्याद् वृक्षगन्धा, स्यादृष्यगन्धा' इति तत्रैव 'छागलाण्ड्यावेगी' इति च पाठान्तराणि ॥ २. 'तुण्डकेरी' इति 'तुण्डकेशी' इति च पाठान्तरे ।
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१६४
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे१ 'वर्बरा कघरी तुझी खरपुग्पाजगन्धिका ।। १३९ ।। २ एलापर्णी तु सुवहा रास्ना युक्तरसा च सा । ३ चारी चुक्रिका दन्तशठाऽम्बष्ठाम्ब्ललोणिका ॥ १४ ॥ ४ सहस्रवेधी 'चुकोऽलवेतसः शतवेध्यपि । ५ नमस्कारी गण्डकारी समझा खदिरेत्यपि ॥ १४१ ।। ६ जीवन्ती जीवनी जीवा जीवनीया "मधुनवा। ७ कूर्चशीर्षो मधुरकः शृङ्गहस्वाङ्गजीवकाः ॥ १४२ ।।
१ वर्षरा (+ बर्बरा, धर्वरा), कवरी (+ कबरी), तुङ्गी, खरपुष्पा, अजगन्धिका ( ५ स्त्री), 'पवई, बवईनामक शाकविशेष' के ५ नाम हैं ।
१ पलापर्णी, सुवहा, रास्ना, युक्तरसा ( ४ ), एलापर्णी के ४ नाम है।
३ चाङ्गेरी, चुक्रिका, दन्तशठा, अम्बष्ठा, अम्ब्ललोणिका ( + अम्ललोणिका, अम्ललोलिका । ५ स्त्री), 'नोनी, चूक' (शाकविशेष) के ५ नाम हैं।
१ सहस्रवेधी ( = सहस्रवेधिन् ), चुक्रः, अम्ब्लवेतमः ( + अग्लवेतसः), शतवेधी ( = शतवेधिन् । ४ पु), 'अमलबेत' के ४ नाम हैं। ('चाङ्गेरी, मादि ९ शब्द एक पर्याय हैं, यह भी किसी किसी का मत है)। __५ नमस्कारी, गण्डकारी (+गण्डकाली), समङ्गा, खदिरा (+ खदिरी । ४ सी), 'लजालू, छुईमुई' के ४ नाम हैं ।।
जीवन्ती, जीवनी, जीवा, जीवनीया, मधुसवा (+ मधुः, स्त्रवा। ५ स्त्री), 'जीवन्ती' के ५ नाम हैं ।
कूर्चशीर्षः, मधुरकः, शृङ्गः, हस्वाङ्गः, जीवकः (५ पु), 'जीवक' के ५ नाम है। ('जीवन्नी आदि १० शब्द एक पर्यायवाचक हैं, यह भी किसी-किसी का मत है)॥
१. 'परा कबरी इति पाठान्तरम् ॥ २. 'दन्तशठाम्बछाम्ललोणिका' इति पाठान्तरम् ।। १. 'चुकोऽम्कवेतसः' इति पाठान्तरम् ।। ४. 'गण्डकाली समझा खदिरीत्यपि इति पाठान्तरम्।। ५. 'मानवा' इति पाठान्तरम् ॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१६५ १ किराततिको भूनिम्बोऽनार्यतिक्तो २ ऽथ सप्तला।
विमला सातला भूरिफेना चर्मकरेत्यपि ॥ १४३ ॥ ३ वायसोजी स्वादुरसा वयस्था ४ऽथ मकूलका।
निकुम्भो दन्तिका प्रत्यक्श्रेण्युदुम्बरपर्यपि ॥ १४ ॥ ५ अजमोदा तूपगन्धा ब्रह्मदर्भा 'यवानिका । ६ भूले पुष्करकाश्मीरपद्मपत्राणि पौष्करे ॥ १५ ॥ ७ अव्यथाऽतिसरा पद्मा चारटी पद्मचारिणी।
१ किराततिक्तः (+विरात्तिकः, चिरतिक्तः, चिरातिक्तः, किरातः, कैरातः), भूनिम्बः, अनार्यतिक्तः ( ३ पु) 'चिगयता' के ३ नाम हैं।
२ सप्तला, विमला, सातला (+शातला ), भूरिफेना, चर्मकषा (५ सी), 'सेहुड़, थूहर' के ५ नाम हैं ॥
३ वायसोली, स्वादुरसा, वयस्था (३ स्त्री), 'काकोली' के ३ नाम हैं।
४ मफूल कः ( + मुकूलकः ), निकुम्भः (२ पु), दन्तिका (+ दन्तिमा), प्रत्यकश्रेणी, उदुम्बरपर्णी (+ उदुम्बरपर्णी, ऊहुम्बरपर्णी । ३ मी), 'दन्तिनामक औषध' के ५ नाम हैं ।
५ अजमोदा, उग्राधा, ब्रह्मदर्भा, यानिका ( + समानिका । ४ स्त्री), 'अजमोदा अजवाइन' के ४ नाम हैं। ('यद्यपि 'यवानिका' को पहले कह चुके हैं, तथापि शाभेदमें यहाँ पुनः कहते हैं)॥
६ पुष्करम् , काश्मीरम, पद्मपरत्रम् (+ पद्मवर्णम् । ३ न), 'पुष्करमूल' के ३ नाम हैं॥
७ अन्यथा, अतिचरा, पद्मा, चास्टी, पाचारिणी (५ स्त्री), 'पप्रचारिणी, स्थलकमलिनी' के ५ नान हैं ।
१. 'विमला शातला' इति पाठान्तरम् ।। २. मुकूलकः' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'यमानिका' इपि पाठान्तरम् , त्र 'यवानिका' पुनरुक्ताऽपि, शाकभेदारपुनरका, यवानीति मत्वा अन्यकृद् भ्रान्तो वा' इति क्षी० स्वा० ।।
४. 'पुष्करकाश्मीरपद्मपत्राणि' अत्र 'पद्मवर्णे'त्यत्र 'पद्मपर्णेति किपिभ्रान्स्था ग्रन्थकार: 'पद्मपत्रे'स्या' इति क्षी० स्वा०॥
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अमरकोषः। द्वितीयकाण्डे१ कास्मिल्यः कर्कशश्चन्द्रो रक्ताही रोच्नीत्यपि ॥ १४६ ।। २ अनाडस्त्धेडगजो दद्रुनश्चक्रमकः ।
पद्माट उरणाख्यश्च ३ पलाण्डुस्तु, सन्दकः ।। ३४७ ।। ४ लतार्कदुमौ त हरित ५ऽथ महौषधम् । लशु
गृञ्जनारि महाकन्दरसोनकाः ।। १५८ ॥ ६ पुनर्नवा तु शोथनी ७ वितुन्न सुनिषण्णकम् ।
१ काम्पिल्यः (+ काम्पिन्नः ), कर्कशः, चन्द्रः, रक्ताङ्गः (४ पु), रोचनी (+रेचनी । स्त्री), 'कवीला' के ५ नाम हैं।
२ प्रपुनाडः (+प्रपुन्नालः, प्रपुनालः, प्रपुनाढा, प्रपुन्नड), एउगजः (+ एलागः), दद्रुतः (+ दद्र्धना, दद्रुहरः), चक्रमर्दकः, पद्माटः, उरणाख्यः ('उरण' अर्थात् मेषक वाचक सब नाम i + उरणानः । ६), 'चकवढ़' के ६ नाम हैं॥
३ पलाण्डः, सुकन्दकः ( २ पु), 'प्याज' के २ नाम हैं।
५ लतार्कः, दुद्रुमः (२३), 'हरे प्याज' के १ नाम हैं । ('धन्वन्तरि ने इन दोनों को पलाण्ड (प्याज) से अभिन्न' माना है' )।
५ महौषधम् , लशुनम् ( + Cशूनम् । + पु । २ न), गृञ्जनः, अरिष्टः, महाकन्दः, रसोनकः ( ४ पु ), 'लहसुन' के ६ नाम हैं । ('सुश्रुतकारने इन्हें भी पलाण्ड (प्याज) की जाति मानी है')॥
६ पुनर्नवा, शोथनी ( २ स्त्री) गदहपुनर्ना' के २ नाम हैं । ७ वितुन्नम् , सुनिषण्णकम् (२ न), 'विस खपरिया' के २ नाम हैं ।
१. काम्पिल्लः कर्कशश्चन्द्रो रक्ताङ्गो रेचनीयरि' इति पाठान्तरम् २. 'ठरणाक्ष' इति पाठान्तरम् ॥ ३. तथा चोक्तं धन्वन्तरिणा
'पाण्डुभयोवनेष्टश्च मुकुन्दो मुखदूषकः।
हरिणोऽन्यपलाण्डुस्तु लताको दुद्रुमश्च सः ॥ १ ॥ इति क्षी० स्वा० ।। ४. तदाह सुश्रुते'कानो दीपस्त्रश्च पिच्छगन्धो महौषधम् । फरणश्च पलाण्डुश्च लवतकोऽपराजितः ॥ १ ॥
गृजनं यवनेष्टश्च पलाण्डोर्दश जातयः । इति क्षी० स्वा० ॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१६७ १ स्याद्वातकः शीतलोऽपराजिता शणपयपि ॥ १४९ ॥ २ पारावताद्धिः कटमी पण्या ज्योतिष्मती लता। ३ वार्षिकं त्रायमाणा स्यात्रायन्ती बलभाद्रिका ॥ १५० ॥ ४ विष्वक्सेनप्रिया गृष्टिाराही बदरेत्यपि । ५ मार्कवो भृङ्गराजः स्यात् ६ काकमाची तु वायसी ॥ १५१ ॥ ७ शतपुष्पा सितच्छन्त्राऽतिच्छत्ता मधुरा मिसिः ।
अवाक्पुप्पी कारवी च ८ सरणा तु प्रसारिणी ॥ १५२ ।।
तस्यां कटम्भरा राजबला भद्रबलेत्यपि । १ वातकः, शीतलः (+ शोतळवारका, । धन्व० २ पु), अपराजिता, शणपर्णी ( + सनपर्णी, असनपर्जी, आसनपर्णी । २ स्त्रो), 'पटुआ, पटसन' के ४ नाम हैं।
२ पारावताघ्रिः (+पारावता ो ), कटमी, पण्या, ज्योतिष्मती (+ज्योतिषका ), लता, (५ स्त्री), 'मालकांगनी' के ५ नाम हैं ।
३ वार्षिकम् (न ) ब्रायमाणा, बायन्ती, बलभद्रिका ( ३ स्त्री), 'प्रायमाणा' के ४ नाम हैं ॥
४ विष्वक्सेन प्रिया, गृष्टिः ( + घृष्टिः ) वाराही, बदरा (४ स्त्री), 'बाराही कन्द' के ४ नाम हैं ।।
५ मार्कवा, भृङ्गराजा (+भृङ्गरजाः = भृरङ्गजस ; भृङ्गरजः = भृङ्गरज । २ पु), 'भेगराज' के २ नाम हैं।
६ काकमाची ( + काचमाची ) वायसी ( २ स्त्री ), 'मकोय, काकप्रिया' के २ नाम हैं। ___७ शतपुष्पा, सितच्छत्रा, अतिच्छत्रा, मधुरा, मिसिः ( + मिसी), अवाक्पुष्पी, कारवी ( ७ स्त्री), 'सौंफ' के ७ नाम हैं । ('अन्तवाले २ नाम 'ऊँधावली' के हैं, यह भी किसी किसी का मत है')॥
८ सरणा ( + सरणी), प्रसारिणी, कटम्भरा ( + कटम्बरा), राजवला, भद्रबला, (५ स्त्री) 'आकाशबेल' (बंवर) के ५ नाम हैं। १. शीतलोऽपराजिताशनपण्यपि' इति पाठान्तरम् ॥
'घृष्टिबाराही वदरेत्यपि' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'सरणी' इति तु युक्तः पाठः' इति क्षी० स्वा० ॥
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१६८
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे
१ जनी जतूका रजनी जतुकृञ्चक्रवर्तिनी ॥ १५३ ।।
संस्पर्शा२ऽथ शटी गन्धमूली षडग्रन्थिकेत्यपि । कर्चुरोऽपि पलाशो ऽथ कारवेल्ल कठिल्लकः ॥ १५४॥
सुषती चा ४थ कुलदं पटोलस्तिक्तकः पटुः । ५ कूष्माण्डकस्त कर्कारू ६ रुर्वाहः कर्कटी स्त्रिायो ।। १५५ ॥ ७ इक्ष्वाकुः कटुतुम्बी स्यात् ८ तुम्व्यलाबूरुभे समे।
१ जनी (+जनिः), जतूका (+जतुका), रजनी (जननीः), जतकृत् , चक्रवर्तिनी, संस्पर्शा ( ६ बो) 'चक्रवत' के ६ नाम हैं।
२ शटी, गन्धमूली ( + गन्धमूला), षडग्रन्थिका (३ स्त्री), कचूर: ( + कर्बुरः, कर्बरः ), पलाशः ( २ पु ), 'आमाहल्दी' के ५ नाम हैं ।
३ कारवेलः, कठिल्लक ( +कोटलकः । २ पु), सुषवी (सुसवी, सुशदी। स्त्री), 'करैला' के ३ नाम हैं ।
४ कुलकम् (न), पटोलः, तितकः, पटः (३ पु), 'परपल' के ४ नाम हैं। __ ५ कूष्माण्डकः (+ कुष्माण्डकः, कूष्माण्डा, कुष्माण्डः) करुः (२ पु) 'कदीमा, तरकारीवाले कोहड़ा' के २ नाम हैं ॥
६ उर्वारुः ( + ईनारुः, इर्वारुः, ईवालुः, एरिः,), कर्कटी ( + कर्कटिः । २ स्त्री), 'ककड़ी, कांकर' के २ नाम हैं ॥
७ इच्वाकुः, कटुतुम्बा (२ स्त्री) तितलीकी, तीता कद्दू' के ३ नाम हैं।
८ तुम्बी (+तुषिः, तुम्बा, तुम्बा), बलाबूः, (+आलाबूः, आलाबुः, अलाम्बुः, लावुः, लावूः, लायुका । २ स्त्री), 'कद, लौकी के नाम हैं।
१. 'जननी' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'करिल्लकः' इति पाठान्तरम् ।।
३. 'काररेवाः" इति 'काहरीर्वारुः' इति च पाठान्तरे । 'एरि:' कटुचिर्भटी, 'उवारुकमिव बन्धनाव-' इति श्रुतेः 'उर्वारुक स्वादुचिर्भटीमाः' इति क्षी० स्वा० ॥ ४. तद्भेदानाह बृहस्पतिः
'अलावूः स्त्री पिण्डफला तुम्बिस्तुम्बी महाफला । तुम्बा तु वर्तुलाऽलाबूनिम्बे तुम्बी तु काबुका' ॥१॥ इति ।।
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१६६ १ चित्रा गवाक्षी गोडुम्बा २ विशाला विन्द्रवारुणी ॥ १५६॥ ३ अर्शीघ्नः 'सूरणः कन्दो ४ गण्डीरस्तु समष्ठिला। ५ कलमन्युपोदिकाऽस्त्री तु मूलकं हिलमोचिका ।। १५७ ।।
वास्तुकं शाकभेदाः स्यु ६ दूंर्षा तु शताविका । सहस्रवीर्याभार्गव्यौ रुहाऽनन्ता ७ऽथ सा सिता ॥ १५८॥
गोलोमी शतवीर्या च गण्डाली "शकुलामका । १ चित्रा, गवाक्षी, गोदुम्बा ( ३ स्त्री), 'जेठुई काँकर' के ३ नाम हैं । २ विशाला, इन्द्रवारुणी ( २ स्त्री), 'इनारुन' के २ नाम हैं ॥
३ अर्शीघ्नः, सूरणः ( + शूरणः ), कन्दः ( ३ पु), 'ओल, सूरन' के के नाम हैं।
४ गण्डीरः (पु), समष्ठिला (स्त्री), 'गांडरनामक शाक-विशेष' के २ नाम हैं।
५ कलम्बी, उपोदिका ( + सपोदका, अपोदका), मूल कम, ( न पु), हिलमोचिका, वास्तुकम् ( + वास्तूकम् । न । शेष स्त्री), 'करमी या करेमुभाँ, पोई, मूली या मुरई, हिल साल और बथुआके साग' का क्रमश: १-१ नाम है । ( 'यहाँतक शाक-भेदका वर्णन है')॥
६ दूर्वा, शतपर्विका, सहस्रवीर्या, भार्गवी, रुहा, अनन्ता ( ६ स्त्री), 'दूब' के ६ नाम हैं।
७ गोलोमी, शतवीर्या, गण्डाली, शकुलातका ( +पु। ४ स्त्री), 'सफेद दूब' के ४ नाम हैं, यह भा० दी० का मत है । ( प्रथम दो नाम उकार्थक और अन्तवाले दो नाम 'दबके भेद-विशेष के हैं, यह सी० स्वा० का मत है)।
१. 'शूरणः' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'कलमन्युपोदका' इति मा० दी० पाठः, 'कलम्ब्यपोदका' इति क्षी० स्वा० पाठः, मूलस्थस्तु महे० सम्मत इत्यवधेयम् ।।
३. 'वास्तूकम्' इति पाठान्तरम् । अत्र निर्णयसागरीय व्या० सु० पुस्तके वास्तुकम्' इति मूलपाठश्चिन्त्यस्तत्र 'उलूकादयश्च' (उ० सू० ४।४१ इति 'वास्तूक' शब्दस्य सिद्ध्युक्तः, पुनस्वमध्यस्य 'वास्तुक' शब्दस्य प्रकारान्तरेण सिद्ध्युक्तेश्च स्वोक्तिविरोधात् ।।
४. 'शकुलाक्षकः' इति पाठान्तरम् ॥
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१७०
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे . १ कुरुविन्दो मेघनामा मुस्ता मुस्तकमस्त्रियाम् ॥ १५९ ।। २ स्याद्भद्रमुस्तको गुन्द्रा ३ चूडाला चक्रलोचटा। ४ वंशे स्वक्लारकर्मारत्वचिसारतृणध्वजाः ॥ १६० ।।
शतपर्वा यवफलो वेणुमस्करतेजनाः। ५ वेणवः कीचकान्ते स्युयें स्वनम्त्यनिलोद्धताः॥ १६१ ॥ ६ ग्रन्थिर्ना पर्वपरुषी ७ गुन्द्रस्तेजनकः शरः । ८ नडस्तु धमनः पोटगलो ९ ऽथो काशमस्त्रियाम् ॥ १६२ ॥
इक्षुगन्धा पोटगल:१ कुरुविन्दा, मेघनामा ( = मेघनामन् । + मेघ के वाचक सब नाम । २ पु), मुस्ता (स्त्री), मुस्तकम् (न पु), 'मोथा' के ४ नाम हैं ॥
२ भद्रमुस्तकः (पु। भद्रम् , मुस्तकम् ; २ न), गुन्द्रा (स्त्री), 'नागरमोथा' के २ नाम हैं। (“धन्वन्तरिने 'गुन्द्रा और भद्रमुस्तक' में अभेद' माना है')
३ चूडाला, चक्रला, उच्चटा (३ स्त्री), 'चूडाला, एक प्रकारके मोथा घास' के ३ नाम हैं।
४ वंशः, स्वक्सारः, कारः, स्वचिसारः, तृणध्वजः, शतपर्वा (= शतपर्वन). यवफला, वेणुः, मस्करा, तेजनः (१० पु), 'बाँस' के १० नाम हैं।
५ कीचकः (पु), 'छिद्र में हवाके प्रवेश करनेपर बजनेवाले बाँस' का नाम है ॥
६ प्रन्थिः (पु), पर्व (= पर्वन् ), परुः (= परुप्त । +परु = परुः । २ स्त्री न ), 'बाँस आदिके गाँठ या पोर' के ३ नाम हैं ॥
७ गुन्द्रः, तेजनकः, शरः (+ सरः। ३ पु), 'सरकण्डा , सरई'के ३ नाम हैं ।
८ नडः (+ नलः), धमनः, पोटगलः (३ पु), 'नरसल, नरकट, नरई के ३ नाम हैं।
९ काशः (+कासः । पुन), इचुगन्धा (स्त्री), पोटगलः (पु), 'काशनामक तृण-विशेष' के ३ नाम हैं ॥ १. धन्वन्तरिरभेदमाह-'मुस्तमम्बुधरो मेघो धनो राजकशेरुकः । मद्रमुस्तो वराहोऽब्दो गानेयः कुरुविन्दकः ॥ १ ॥
इति क्षी० स्वा० ॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
-१ पुंलि भूनि तु बल्बजाः । २ रसाल इक्षु ३ स्तद्देवाः पुण्ड्रकान्तारकादयः ।। १६३ ।। ४ स्याद्वीरणं वीरतरं ५ मूलेऽस्योशीरमस्त्रियाम् ।
अभयं नलदं सेव्यममृणालं जलाशयम् ॥ १६ ॥
लामजकं 'लघुलयमवदाहेष्टकापथे। ६ नडादयस्तृणं गर्मुच्छयामाकप्रमुखा अपि ॥ १६५ ।।
बल्वजाः (षु निस्य ब० व० + ए० व२) 'बगई' का १ नाम है। ('काशः,...' ४ नाम एकार्थक हैं, यह भी किसी का मत है')॥
२ रसालः, इक्षुः (२ पु), 'ईख, गन्ना, ऊख' के २ नाम हैं ।
३ पुण्ड्रः ( + पौण्ड्रः), कान्तारकः (२ पु), आदि ('आदि शब्दसे 'रसालः, कर्कटकः ( २ पु ) का संग्रह है' ) ये 'ऊखके भेद-विशेष' हैं ।
४ वीरणम्, वीरतरम् (२ न ), 'गाँडर घास' के २ नाम हैं। ('इसीके जड़को 'खश' कहते हैं।)
५ उशीरम् (न पु), अभयम्, नलदम्, सेव्यम्, अमृणालम् ( + मृगालम् ), जलाशयम, लामजकम्, लघुल यम् ( + लघु, लयम् ) अवदाहम, इष्टकापथम् ( + अवदहेष्टम्, । ९ न) खश' के १० नाम हैं ।
३ 'नई' आदि और 'गर्मुत् , श्यामाकः ( + श्यामकः । २ पु), अर्थात् क्रमशः 'एक तृण-विशेष और साँवा' और 'प्रमुख' शब्दसे नीवारः, कोद्रवः (२ पु), अर्थात् क्रमशः 'तेनी या तीनी और कोदो' ये 'तृणधान्य' हैं ।
१. 'लघु लयमवदाहेष्टकापथे' इति । इष्टकापथेत्यत्र 'ग्रन्थकृत्तु सेव्यामृणामृणालयोनलदोशी. रैकार्थत्वाद् भ्रान्तः' इति क्षी. स्वा. ॥ २. 'एको बत्वज' इति पातञ्जलमहाभाष्योत्तरित्यवधेयम् ।। ३. इक्षुभेदा यथा-क्षुः ककटको वंशः कान्तारो वेणुनिःसृतः ।
क्षुरन्यः पौण्डकश्च रसालः सुकुमारकः ॥ १ ॥ अन्यः करकशालिः स्यादिक्षुयोनीक्षुबालिका ।
तथान्य क्षुगन्धा स्यादिक्षुलः कोकिलाक्षकः ॥२ ।। इति । निघण्टौ वन्य एवेक्षुभेदा उक्तास्ते यथापौण्डूको भीरुकश्चापि वंशकः शतपोरकः। कान्तारस्तापसेक्षुश्च काण्डेक्षुः सूचिपत्रकः ॥ १ ॥ नैपालो दीर्घपत्तश्च नीलपोरोऽथ कोशकः । इत्येता जातयस्तेषां कथयामि गुणानपि ॥२॥इति!!
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१७२
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ अस्त्री कुशं कुथो दर्भः पवित्र २ मथ कत्तणम् ।
पौरसौगन्धिकभ्यामदेवजग्धकरौहिषम् ॥१६६ ।। ३ छन्त्राऽतिच्छत्रपालघ्नौ ४ मालातृणकभूस्तृणे । ५ शष्पं बालतृणं ६ घासो यवसं ७ तृणमर्जुनम् ।। १६७ ।। ८ तृणानां संहतिस्तृण्या ९ नड्या तु नडसंहतिः । १० तृणराजाह्वयस्तालो ११ नालिकेरस्तु लागली ॥ १६८॥ १२ घोण्टा तु पूगः कमुको गुवाकः वपुरो १३ ऽस्य तु ।
__फलमद्वेगम्कुशम(पु न), कुथः, दर्भः (२ पु), पवित्रम् (न), 'कुशा' के ४ नाम हैं।
२ कत्तणम् , पौरम् , सौगन्धिकम् , ध्यामम् , देवजग्धकम् , रौहिषम (६ न ), 'रोहिषनामक सुगन्धित घास' के ६ नाम हैं ॥
३ छस्त्रा (स्त्री), भतिच्छस्त्रः, पालनः (२ पु ), 'पानी में होनेवाले तृण-विशेष' के ६ नाम हैं।
४ मालातृणकम् , भूस्तृणकम् (२ न), 'बचके समान रूप तथा पानीमें होनेवाले तृण-विशेष' के २ नाम हैं । ( 'यह भा० दी० का मत है । महे० और क्षी० स्वा० के मतसे 'छस्त्रा, भूस्तृण' ५ शब्द एकार्थक हैं)॥
५ शष्पम् (+शस्यम् ), बाल तृगम् (२ न), नई और कोमल घास के २ नाम हैं।
६ घासः (पु), यवसम् (न), 'गवत' अर्थात् 'बैल, घोड़ा, आदि पशुओंके खाने योग्य भूसा-घास' के २ नाम हैं ॥
७ तृणम् , अर्जुनम् (२ न ), 'तृणमात्र' के २ नाम हैं । ८ तृण्या (स्त्री), 'घासकी देरी' का । नाम है । ९ नड्या (स्त्री), 'नड-समूह' का १ नाम है ॥ १० तृणराजा, तालः ( + तलः । २ पु ), 'ताड़' के २ नाम हैं ।
११ नालिकः ( + नारिकेरः, नारिकेलः, नाडिकेरः, नारी केलः, ४ पु०; नारिकेलिः, नारीकेली; २ स्त्री), लागली ( = लागलिन्। + लाङ्गली - लागली, स्त्री। २ पु), 'नारियल' के २ नाम हैं ।
घोण्टा (स्त्री), पूगः, क्रमुकः, गुवाकः ( + गूवाकः ), खपुरः (४ पु), 'सुपारी, कसैलीके पेड़ के ५ नाम हैं।
१३ उद्वेगम (न), 'सुपारीके फल' का । नाम है।
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१७३ -१ एते च हिन्तालसाहितास्त्रयः ॥ १६९ ॥ वर्जूरः केतकी ताली बर्जूरी च तृणद्रमाः।
इति वनौषधिवर्गः ॥ ४॥
५. अथ सिंहादिवर्गः। २ सिंहो मृगेन्द्रः पञ्चास्यो हर्यक्षः केसरी हरिः। ३ 'कण्ठीरवो मृगरिपुर्मुगदृष्टिमगाशनः' (८)
पुण्डरीकः पञ्चनखचित्रकायमृद्विषः' (९) ४ शादूलद्वीपिनो व्याने ५ तरक्षुस्तु मृगादनः ॥१॥ ६ वराहः सूकरो घृष्टिः कोलः पोत्री 'किरिः किटिः ।
हिन्तालः (पु) के सहित पूर्वोक्त तीन शब्द (नारिकेल, ताल, घोण्टा) और खजूरः (पु), केतकी, ताली, खजूरी (३ स्त्री) को तृणद्रुमः (पु) अर्थात् 'तृणद्रुम' कहते हैं ।
इति वनौषधिवर्गः ॥ ४ ॥
५. अथ सिंहादिवर्गः। २ सिंहः, मृगेन्द्रः, पञ्चास्यः, हर्यक्षः, केसरी ( = केसरिन् । + केशरी = केशरिन् ), हरिः (६ पु), 'सिंह' के ६ नाम हैं ।
३ [ कण्ठीरवः मृगरिपुः, मृगदृष्टिः, मृगाशनः, पुण्डरीका, पञ्चनखः, चित्र कायः, मृगद्विषु । ८ पु ), 'सिंह' के ८ नाम हैं ] ॥
४ शार्दूलः, द्वीपी (= द्वीपिन् ), व्याघ्रः ( ३ पु.), 'बाघ' के ३ नाम हैं ।
५ तरतुः ( + तरक्षः) मृगादनः (२ पु) 'चिता या तेंदुआ बाघ' के २ नाम हैं ( 'मुकु०.मतसे 'वृक' अर्थात् 'हुँडार भेड़िया' ये २ नाम हैं)।
६ वराहा, सूकरः ( + शूकरः), दृष्टिः (+ गृष्टिः), कोलः, पोत्री (=पो. निन् ), किरिः, (+किरः) किटिः, दंष्ट्री ( = दंष्ट्रिन् ), घोणी (घोणिन्)
१. 'किरः, किटिः' इति पाठान्तरम् ॥
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१७४
अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डेदंष्ट्री घोणी स्तब्धरोमा क्रोडो भूदार इत्यपि ॥ २॥ १ कपिप्लवनप्लवगशाखामृगवलीनुखाः ।
मर्कटो वानरः कीशो धनौका २ अय भालके ॥ ३ ॥
ऋक्षाच्छभल्लभल्लूका ३ गण्डके बगलगिनी । ४ लुलायो महिषो वाहद्विषत्कालरसैरिभाः ॥ ४ ।। ५ स्त्रियां शिवा भूरिमायगोमायुमृगधूर्तकाः।
शृगालवञ्चकक्रोष्टफेरुफेरवजम्बुकाः ६ ओतुविडालो मार्जारो वृषदंशक पाखुभुक् ।
७ त्रयो गौधारगौधेरगौधेया गोधिकात्मजे ! ६॥ स्तब्धरोमा ( स्तब्धरोमन् ), क्रोडः, भूदारः (१२), 'सूअर' के १२ नाम हैं।
, कपिः, प्लवङ्गः (+ प्लवङ्गमः), प्लवगः, शाखामृगा, वलीमुखः (बलो. मुखः, बलिमुखः) मर्कटः, वानरः, कीशः, वनौकाः ( = वनौकस् । ९ पु), 'बन्दर' के ९ नाम हैं ।
२ भल्लुकः, ऋक्षा, भच्छमल्लः (+ अच्छः, भलः ), भल्लूकः (+भालूका, भालुकः, भालूकः । ४ पु), 'भालू' के ४ नाम हैं।
३ गण्डकः, खड्गः, खड्गी ( = वगन् । ३ पु) 'गेंडा' के ३ नाम हैं ।
४ लुलाय: (+ लुलापः), महिषः, वाह द्विषन् (= वाह द्विषत् । + वाहद्विट्= वाह द्विष ), कासरः, सैरिभः (५३), 'भैंसा' के १२ नाम हैं ॥
५ शिवा (नि. स्त्री), भूरिमायः, गोमायुः, मृगधूर्तकः, शृगालः ( + सृगालः), वञ्चकः (+ वञ्चकः), कोष्टा ( = क्रोष्टु), फेरु, फेरवः ( + फेरण्डः), जम्बुकः ( + जम्बूकः । ९ पु) 'स्यार, शृगाल' के १० नाम हैं।
६ ओतुः, विडाल: (+ बिडालः, विलाल: ), मार्जारः, वृषदंशकः, आलुभुक ( = आखुभुज । ५ पु ), "बिलाव' के ५ नाम हैं।
७ गौधारः, गौधेरः, गौधेयः ( ३ पु), 'गोहरा, चन्दनगोह' अर्थात् 'काले साँप से गोह में पैदा होनेवाला जीवविशेष' 'विसबपरा' के ३ नाम हैं।
१. 'ऋक्षाच्छभल्लमालूका' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'लुलापो महिषः' इति पाठान्तरम् ।। ३. 'सृगालो वनकः क्रोष्ट' इति पाठान्तरम् ॥
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वनौषधिवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः
१ श्वावित्तु शल्य २ स्तल्लोस्नि शलली शललं शलम् । ३ घातप्रमीर्वातमृगः ४'कोकस्त्वीहामृगो वृकः ॥ ७॥ ५ मृगे कुरङ्गवातायुहरिणाजिनयोनयः । ६ ऐणेयमेण्याश्चर्माद्य ७ मेणस्यैणसुभे त्रिषु ॥ ८॥ ८ कदली कन्दली चीनश्चमरुपियकावपि ।
समूरुश्चेति ९ हरिणा अमी अजिनयोनयः॥९॥ १ श्वावित् (श्वाविध ), शल्यः (२ पु), 'साही' के २ नाम हैं ।
२ शलली (स्त्री), शललम् , शलम् (२ न ), 'साही के काँटे' के ३ नाम हैं।
३ वातप्रमीः ( + स्त्री ), वातमृगः (२ पु), 'बहुत तेज दौड़नेवाले मृग-विशेष' के २ नाम हैं।
४ कोकः, ईहामृगः, वृकः ( ३ पु), 'भडिया, हुंडार' के ३ नाम हैं ।
५ मृगः, कुरङ्गः, वातायुः (वानायुः; क्षी० स्वा०; बनायुः), हरिणः, अजिन योनिः (५ पु), 'मृग, हरिण' के ५ नाम हैं ।
६ ऐणेयम् (वि), 'मृगी के चमड़े, सींग आदि' का १ नाम है । ७ ऐणम् (त्रि), 'मृगके चमड़े सींग आदि' का नाम है ॥
८ कदली, कन्दली (२ स्त्री। क्षी. स्वा० मतसे कदली = कदलिन् , कन्दली = कन्दलिन् ; २ पुर), चीनः, चमूरुः, प्रियकः, समूहः- (४ पु), 'मृगविशेष' के ६ नाम हैं ।
९ कदली, आदि ६ शब्द और आगे कहे जानेवाले 'कृष्णसार' आदिको अजिन योनिः (पु) 'अजिनयोनि' कहते हैं । (इनके चमड़े का उपयोग होता है॥
१. 'कोक हामृगो वृकः' इति पाठान्तरम् ॥ २. कदली हरिणान्तरे। रम्मायां वैजयन्त्यां च-' ( अने० सं० ३६७० इति, 'शिरोऽस्थनि कन्दलन्तु नवाकुरे करध्वनौ । उपरागे मृगभेदे कलाये कन्दलीद्रुमे ॥ १ ॥ ( अने० सं० ३६६८)
इति च त्रिस्वरलान्तवर्गे हेमचन्द्रोक्तः, कन्दलं त्रिषु कपालेऽप्युपरागे नवाकुरे । कलध्वनौ कन्दली तु मृगगुल्मप्रभेदयोः ॥ १॥ कदला कदलौ पृश्न्यां कदली कदलौ पुनः । रम्मावृक्षेऽय कदली पताकामृगभेदयोः ॥ २॥ - (मे० श्लो० ६९-७१) इति लान्तवर्ग मेदिन्युक्तेश्च विरुवमेतत् ।।
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१७६
अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डे१ 'कृष्णसाररुरुन्यङ्कुरङ्कुशम्बररोहिषाः ।
गोकर्णपृषतैणयरोहिताश्चमरो मृगाः ॥१०॥ २ गन्धर्वः शरभो रामः समरो गवयः शशः । ३ इत्यादयो मृगेन्द्राद्याः गवाद्याः पशुजातयः ॥ ११ ॥ ४ 'अधोगन्ता तु खनको वृकः पुं-धज उन्दुरः' (१०) ५ उन्दुरुर्मूषकोऽप्याखु ६ गिरिका बालमूषिका ।। ७ "छुछुन्दीगन्धमुखी दीर्घतुण्डी दिवाधिका' (११)
१ कृष्णसार: ( + कृष्णशारः ), रुरुः, न्यखः, रङ्कुः, सम्बर: ( + संवर, शंवरा), रोहिषः ( + रोहिषः), गोकर्णः, पृषतः, एणः, ऋश्यः (+ऋष्या), रोहितः ( + लोहितः), चमः (१२ पु), ये १२ 'मृगके भेद' हैं ।
२ गन्धर्वः ( + गन्धर्वः), शरमः, रामः, समरः, गवयः, शशः (६ पु), क्रमशः 'गन्धयुक्त मृगविशेष, लड़ीसरा या एक प्रकारका बन्दर विशेष, सुन्दरजातीय मृग-विशेष, बहुत भागनेवाला मृग विशेष, नीलगाय या खरहा' का 1-1 नाम है ॥
३ ये छ (पूर्वोक्त 'मृगेन्द्र' आदि ) और वषयमाण (आगे कहे जानेवाले) 'गो, महिष' आदि पशुजातिः (स्त्री), 'पशुजाति' हैं अर्थात् इनकी पशुजाति में गणना होती है ।
४ [ अधोगन्ता ( = अधोगन्त), खनकः, घृका, पुंध्वजा, उन्दुः (५ पु), 'चूहा, मूस' के ५ नाम हैं ] ॥
५ उन्दुरुः, मूषकः ( + मुषकः ), पाखुः (३ पु), 'चूहा मूस' के ३ नाम है।
६ गिरिका, बालमूषिका (स्त्री) 'मुलरी छोटी चूहिया' के २ नाम हैं।
७ [ छुछुन्दरी, गन्धमुखी, दीर्घतुण्डी, दिवान्धिका (३ वी ), 'छुछुन्दर' के नाम हैं ॥
१. कृष्णशाररुरुन्यङ्करसंवररौहिषाः' इति पाठान्तरम् ॥ २. छुछुन्दरीदिवाधिका' इत्यंशः क्षी० स्व • व्याख्यायां समुपलभ्यते ॥
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सहादिवर्ग:५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१७७ १ सरटः कृकलासः स्यात् २ मुसली 'गृहगोधिका ॥ १२॥ ३ लूता स्त्री तन्तुवायोर्णनाभमटकाः समाः। ४ नीलगुस्तु कृमिः ५ कर्णजलोकाः शतमे ॥ १३ ॥ ६ वृश्चिकः शुक्रकीटः स्याऽदाजगुणों तु धके। ८ पारावतः कलरवः कपोतोऽथ शशादनः ॥ १४ ।।
पत्त्री श्येनःपसरट,कृकलापः (+ कृकलाशा, कृकुलाप्सः। २) 'गिरगिट' के २ नाम हैं।
२ मुसली (+मुशली), गृहगोधिका (+ गृहगोलिका । २ स्त्री), 'बिछतिआ, छिपकिली' के २ नाम हैं।
३ लूना (स्त्री), तन्तुवायः (+तन्त्रवायः), ऊर्णनाभः, मर्कटकः (३), 'मकड़ी' के ४ नाम हैं।
४ नीलङ्गुः (+नीलपङ्गु), कृमिः (+ क्रिमिः । १ पु), 'छोटे २ कीड़ों' के नाम हैं।
५ कर्णजलौकाः ( = कर्णजलौकस् । + कर्णजलौका = कर्णजलौका ), शतपदी ( २ स्त्री), 'गोजर, कनखजुरा' के २ नाम हैं। ('यह वृषिकका भेद है।)
६ वृश्चिकः, शूककीटः (२५), 'ऊनी वस्त्रको काटनेवाले कीड़े के नाम हैं।
७ अलिः ( + मालिः, पाली), द्रुणः ( + द्रोणा), वृश्चिकः (३३), 'बिच्छ' के ३ नाम हैं।
पारावता (+ पारापतः ), कलरवः, कपोतः (३ पु), 'कबूतर' के ३ नाम हैं । ('सी० स्वा० मतसे 'प्रथम नाम 'घरेलू कबूतर' के और अन्य २ नाम 'जङ्गली कबूतर' के हैं')॥ ___९ शशादनः, पस्त्री ( = पस्त्रिन् ), श्येनः (३ पु), 'बाज पक्षी' के ३ नाम हैं।
१. 'गृहगोलिका इति सभ्यः पाठ' इति क्षी० स्वा० ॥ २. 'तन्त्रवायोर्णनाममर्कटकाः' इति पाठान्तरम् ।। ३. 'नीलागुस्तु क्रिमिः कर्णवकोका शतपयुभे' इति पाठान्तरम् ॥ ४. 'पारापतः' इति पाठान्तरम् ॥ १२ अ०
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१७८
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे
-१ उलूकस्त वायसारातिपेचको। २ 'दिवान्धः कौशिको घको दिवाभीतो निशाटनः' (१२) ३ व्याघ्राटः स्थान्दरद्वाजः ४ खरीदस्तु खञ्जनः ॥ १५ ॥ ५ लाहपृष्ठस्तु का स्याउथ चापः किकीदिविः।
कलिङ्गकृतधूम्शाटा ८ अथ स्थाच्छतपत्रकः ॥ १६ ॥
दाळघाटो९ऽथ 'सारतः स्तोककथावकः समाः । १० कृकयाकुस्ताम्रचूडः कुक्कुटश्चरणायुधः ॥ १७ ॥ ११ चटकः कलविङ्क: स्यात् १२ तस्य स्त्रा चटका १३ तयोः।
पूमपत्ये चाटकैरः१ उलूकः, वायसारातिः, पेचकः (३ पु), 'उल्लू' के ३ नाम हैं।
२ [ दिवान्धः, कौशिका, चूकः, दिवाभीतः, निशाटनः ( ५ पु), 'उल्लू' के ५ नाम हैं ।
३ व्याघ्राटः, भरद्वाजः (२ पु), 'भर्दूल, भारद्वाज पक्षो' के २ नाम हैं । ४ खञ्जरीटः, खञ्जनः (२ पु ), 'खड़रिच पक्षो' के २ नाम हैं।
५ लोहपृष्ठः, कङ्कः (२ पु), 'सफेद चील' अर्थात् 'कंकड़ा पची, जिसके पंख को बाण में लगाते हैं, उसके २ नाम हैं ।
६ चापः (+ चासः), किकीदिन्:ि(+किकादीविः, किकिदिविः, किकिदिवा, किकीदिवी:, किकी दिवः, किकिः, दिवः । २ पु), 'चास (नीलकण्ठ) पक्षो' के २ नाम हैं।
७ कलिङ्गः, भृङ्गः, धूम्याटः ( ३ पु), 'भुवेना पक्षी' के ३ नाम हैं ॥
८ शतपत्रका, दार्वाघाटः (२ पु), 'कठस्नोलवा, कठफोरवा पक्षी' के २ नाम हैं।
९ सारङ्गः (+ शारगः), स्तोककः (+ तोककः), चातकः (३ पु) 'चातक पक्षी के ३ नाम हैं।
१. कृकवाकुः, ताम्रचूडः, कुक्कुटः, चरणायुधः (४ पु), 'मुर्गा' के ४ नाम हैं।
" चटका, कलविङ्कः (२ पु), 'गवरा, चटक पक्षी' के २ नाम हैं। ('यह नर होता है।)॥
१२ चटका (स्त्री), 'गवरैया, चटका पक्षी' का । नाम है। ('यह मादा होती है')॥
१३ चाटकैरः (पु) 'गवरा और गवरैयाके पुत्र' का । नाम है। १. 'शारजस्तोककश्चातकः' इति पाठान्तरम् ॥
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सिंहादिवर्गः ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः
१७६ -१ च्यपत्ये चटकैव सा ॥१८॥ २ कर्करेष्टुः करेटुः स्यात् ३ कणकरी समौ । ४ वननियः परभृतः कोकिलः पिक इत्यपि ॥ १९ ॥ ५ काके तु करटारियलि पुरवत्प्रजाः।
ध्वाट्टानमा घोषपरद्वलि भुदायसा अपि ।। २० ॥ ६ स एव च शिरीदी कष्टिश्च मौलिः' (१३) ७ द्रोणकाकस्तु बाकालो दात्यूहः कालकण्ठकः । ९ आताथिचिल्लौ१०दाक्षाय्यगृध्रौ १शीरशुको समौ ॥२१॥ १ चटका ( स्त्री), 'गवरा और गवरैया की पुत्री' का १ नाम है ॥
२ कर्करेटुः ( + कराटुः ), कोटुः ( + टुः । २ पु), "अशुभ बोल. नेवाले पक्षि-विशेष, या टिटिहिरी' के २ नाम हैं ।
३ कृकणः, ककरः, ( २ पु ), ये २ 'अशुभ बोलनेवाली पक्षीके भेद. विशेष' हैं ।
४ वनप्रियः, परभृतः, कोकिलः, पिकः, (४ पु), 'कोयल' के ४ नाम हैं।
५ काकः, करटः, अरिष्टः, बलिपुष्टः, समजा, भाङ्कः आरमघोषः, परभृत, बलि भुक् ( - बलिभुज ), वायसः (१० पु), 'कौआ के १० नाम हैं ।
६ [ चिरञ्जीवी ( = चिरक्षोविन् ), एकदृष्टिः, मौकुलिः (३ पु), 'कोमा' के ३ नाम है ॥
७ द्रोणकाकः ( + दग्ध काकः, वृद्धकाकः ), काकोलः (२३), 'डोम. कौमार के २ नाम हैं।
८ दास्यहः ( + दात्यौहः ), कालकण्ठकः (२ पु), जलकोमा, धूपसा रंगवाला कौमा' के १ नाम हैं ॥
९ भातायी ( = आतायिन् । + आतापी = मातापिन् ), विद्यः (१), चील' के १ नाम हैं। १. दाक्षारयः, गृधः ( +गृद्धः । २ पु), 'गीध' के २ नाम है॥
" की, शुकः (२ पु), 'तोता, सुग्गा' के २ नाम हैं। १. 'स एव.मौकुतिः' इत्यंशः क्षी० स्वा० व्याख्यायां वर्तते ।। २. 'मातापिचिल्लो' इति पाठान्तरम् ॥
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१८०
अमरकोषः ।
[ द्वितीयकाण्डे
१ कुछ 'कोशोऽथ बकः कदः ३ पुष्कराद्वस्तु सारसः ! ४ कोकश्चक्रश्चक्रवाको रथाङ्गायनामकः ॥२२ ।। ५ कादम्बः कलहंसः स्यादुरकोशकुररी समौ । ७ हंसास्तु श्तवेगरुतश्चक्राङ्गा मानसौकसः ॥२३॥ ८ राजहंसास्तु ते चञ्चचरणोहितैः सिताः। १ मलिनमल्लिकाक्षास्ते १० धार्तराष्ट्राः सितेतरैः ॥२४॥ ११ शरारिराटिराडिव
क्रुङ् ( = ञ्च ), क्रौञ्चः ( + क्रुञ्चः । २ पु), 'क्रौञ्च, कराकुल पक्षी' के २ नाम हैं।
२ बकः, कहः ( + कङ्कः २ पु), 'बगुला' के २ नाम हैं।
३ पुष्करातः ('कमलके पर्यायवाचक सब शब्द'), सारसः (२ पु), 'सारस' के २ नाम हैं।
४ कोकः (+कुकः), चक्रः, चक्रवाकः, रथानः ('रथाङ्ग अर्थात् पहिये के वाचक सब शब्द' । ४ पु), 'चकवा' के ४ नाम हैं।
५ कादम्बा, कलहंसः (२ पु), 'बत्तख पक्षी' के २ नाम हैं। ६ सस्क्रोशः, कुरस ( पु), 'कुरर पक्षी' के २ नाम हैं ।
.हंसा, श्वेतगरत, चक्राङ्गः, मानसोकाः ( = मानसौकस् । ५ पु), 'हंस' के ४ नाम हैं।
राजहंसः (पु), 'सफेद शरीर और लाल रंगके बीच-पैरवाले सका नाम है।
९ मलिकासः ( + मल्लिकाख्यः । पु), 'सफेद शरीर और धुएँ के समान धुमिल रंगके चोंच-पैरवाले इंस' का । नाम है।
.. वार्तराष्ट्रः (), 'सफेद शरीर और काले रंगके चोंच-पैरवाले इसका नाम है ॥ - शरार(+रातिः, शरालिः, शराली, शराटिः, शरादिः), भाटिः (+जाति, भाटी) आरित(+ माडी । ३ स्त्री), 'आडी पक्षी' के नाम हैं।
१. 'कुमोऽय बक' इति फान्तरम् ॥ २. 'महिनमल्लिकाख्यास्ते' इति पाठान्तरम् ॥ १.शरारिराविरारिश्चति पाठान्तरम् ॥
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१८१
सिंहादिवर्ग: ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
-१ बलाका बिसकण्ठिका । २ हंसस्य योषिद्वरटा ३ सारसस्य तु लक्ष्मणा ॥२५॥ ४ जनुकाऽजिनपत्ता स्वाद ५ पोषणी तैलपारिका । ६ वर्षणा मक्षिका नीला ७ बरघा मधुमक्षिका ॥ २६ ॥ ८ पतङ्गिका पुतिका स्मारदंशस्तु बनमक्षिका । १० बंशी जातिरल्पाम्याद २१ गन्धोली वरटा द्वयोः ॥२७॥
१ बलाका, निमकण्ठिका ( + विपकटिका, क्षी. स्वा० । २ स्त्री), 'बगुला-विशेष' २ नाम हैं ।
२ वरसा (+वरला । स्त्री), 'हंसकी स्त्री' अर्थात् 'हंसिनी'का नाम है। ३ लचमणा ( + लक्षणा । स्त्री), 'सारसी' अर्थात् 'सारसकी स्त्री' का
४ जतुका ( + जतूका), अजिनपरत्रा ( २ स्त्रो), 'चमगादड़, बादुर' के २ नाम हैं।
६ परोष्णी ( + परोष्टी), तैलपायिका (२ स्त्री), 'चपड़ानामक कीटविशेष तेलचटा' के २ नाम हैं।
६ वर्वणा ( + बर्बणा), मक्षिका ( + मक्षीका), नीला ( ३ स्त्री), 'नीले रंग की मक्खी ' के ३ नाम हैं। (भा. दी० के मतसे प्रथम शब्द उक्तार्थक है और अन्तवाले दो शब्द विशेषग हैं')
७ सरघा, मधुमक्षिका ( २ स्त्री), 'मधुमक्खी ' के २ नाम हैं।
८ पतङ्गिका, पुत्तिका (२ स्त्री), 'एक तरहकी 'मधुमक्खी ' के २ नाम हैं।
९ दंशः (पु), वनमक्षिका (स्त्री), 'दंश, डॅस, बड़े मच्छड़' के १ नाम हैं ।
१० दंशी (स्त्री), 'मस, छोटे मच्छड़' का १ नाम है ॥
" गन्धोली (स्त्री), वस्टा ( + वरटी । पु स्त्री) 'बरे, भिर, बिहिनो, गन्धयुक्त मक्खी -विशेष' के २ नाम हैं । १. यथैतेषां नामभेदपूर्वकं मदुवर्णमाह निमिः
'माक्षिकं तैकवर्ण स्याघृतवणे तु पैत्तिकम् । भ्रामरन्तु भवेच्छुक्लं क्षौद्रं तु कपिलं मवेद' ॥ १॥ इति ।।
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१८२
अमरकोषः ।
[ द्वितीयकाण्डे
१ भृङ्गारी' भोदका चीरी झिल्लिका च समा इमाः । २ समौ पतङ्गशलभौ ३ खद्योतो ज्योतिरिङ्गणः ॥ २८ ॥ ४ मधुव्रतो मधुकरो मधुलि मधुपालिनः द्विरेफपुष्पलिड भृङ्गषटपदभ्रमरालयः
५ मयूरो बद्दिणो बद्द नीलकण्ठो भुजङ्गभुक शिखाबलः शिखी केकी मेघनादानुलास्यपि ॥ ३० ॥ ६ केका वाणी मयूरस्य ७ समौ चन्द्रकमेचकौ । ८ शिखा चूडा ९ शिखण्डस्तु पिच्छव है नपुंसके ॥ ३१ ॥
॥ २९ ॥
१ भृङ्गारी, झोरुका ( + झीरिका, झिरुका, झिरिका, झिरीका, चीरुका ), चीरी, झिल्लिका ( + झिल्लीका, झिल्लका, चिलिका, चिल्लका । ४ स्त्री) 'झींगुर' ४ नाम है ॥
२ पतङ्गः, शलभः ( २ पु ), 'फलिंगा, पतंग' के २ नाम हैं ॥
३ खद्योतः ज्योतिरिङ्गणः ( २ ), 'जुगनू' के २ नाम हैं ॥
४ मधुवतः मधुकरः, मधुलिट् ( = मधुलिह ), मधुपः, अली ( = अष्टिन् ), द्विरेफः, पुष्प टिट् (= पुष्प लिह् ), भृङ्गः, षट्पदः, भ्रमरः, अलिः ( ११ पु ), 'भौंरा, भ्रमर' के ११ नाम हैं ॥
५ मयूरः ( + मयुर ), बर्हिणः, बहीं (= बर्हिन् ), नीलकण्ठः, भुजङ्गभुक् (= भुजङ्गभुज् ), शिखावला, शिखो ( = शिखिन् ), केकी ( = के किन् ), मेघनादानुलासी ( = मेघनादानुलासिन् । ९ पु ), 'मोर' के ९ नाम हैं ॥
६ केका (स्त्री), 'मोरकी बोली' का १ नाम "
७ चन्द्रकः, मेचक्र: ( २ पु )), 'मोरकी पूँछमें स्थित नेत्राकार चमकदार चिह्न' २ नाम हैं ॥
८ शिखा, चूडा ( २ स्त्री ), 'मोरके शिरकी कलंगी या मुकुट' के २ नाम हैं ॥
९ शिखण्डः (पु), पिच्छम, बर्हम् (१ न ), 'मोर के पंख' के ३ नाम हैं ॥
१. 'चीरुका' इति पाठान्तरम् ॥
२. ' - मयूरो मयुरो मतः' इति ( इलो० ५) शब्दभेदप्रकाशोः ||
३. 'वद्दिकण्ठसमं वर्ण मेचकं ब्रुवते बुधाः' इति कात्यः ॥
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सिंहादिवर्गः ५] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
१८३ १ बगे विहङ्गविहगविहङ्गमविहायसः ।
शकुन्तिपक्षिशकुनिशकुन्तशकुनद्विजाः ॥३२॥ 'पतत्रिपत्रिपतगपतत्पत्ररथाण्डजाः । नगोकोवाजिविकिरविविकिरपतत्रयः ॥३३॥
नीडोद्भवा गरुत्मन्तः पित्लन्तो नभसङ्गमाः। २ तेषां विशेषा हारीतो मद्गुः कारण्डवः प्लवः॥ ३४।।
तित्तिरिः कुक्कुभो लावो जीवञ्जीवश्चकोरकः ।
, खगः, विहङ्गः, विहगः, विहङ्गमः, विहायाः (= विहायस), शकुन्तिः, पत्नी (= पक्षिन् ), शकुनि:, शकुन्तः, शकुन:, द्विजा, पतनी (= पतस्त्रिन्), पस्त्री (= पस्त्रिन् ), पतगः, पतन् (= पतत् ), पस्त्ररथः, अण्डजः, नगौकाः (= नगौकस ), वाजी (=वाजिन् ), विकिरः, विः, विष्किरः, पतस्त्रिः, नीडोद्भवा, गरुरमान् (= गरुत्मत् ), पिरसन् (= पिरसत्), 'नभसङ्गमः ( २७ पु), 'पक्षी, चिड़िया' के २७ नाम हैं।
२ हारीतः (+ हरितः), मद्गुः, कारण्डवः, प्लवः, तित्तिरिः (+ तित्तिरः), कुकुभः, लावा, जीवजीवः (+ जीतजीवा, जीवाजीवः), चकोरकः, कोयष्टिकः (+ कोष्टिः, क्षी. स्वा० पाठ), टिटिभकः (+टिटिभकः, टिटिभः । +टिटिभः, कोकः; क्षी० स्वा० पाठ), वर्तकः (+करः; क्षी० स्वा० पाठ) वर्तिकः (+वर्तकः; क्षी० स्वा० पाठ । १३ पु), आदि ('आदि शब्दसे 'शारिका' कपिललः,...), ये 'पक्षि-विशेष' हैं । (उन में क्रमशः 'हारिल, जलमुर्गा, करडुआ (कौवे के समान काले रङ्ग के बड़े २ पैर वाला बत्तखविशेष), जलकौवा,
१. पतत्रिपत्रिपतगपतत्पत्त्ररथाण्डजाः' इति पाठान्तरम् । अत्र 'पतेरविः' ( उ० सू० ) इति भ्रान्त्या ग्रन्थकृदिदन्तमिर्म मन्यत इति क्षी० स्वा० ॥
२. नमसमाकाश गच्छतीति विग्रहे 'गमश्च' (पा० सू० ३४.४७ ) इति डप्रत्यये 'नमसङ्गमः' शम्दस्य सिद्धिः । 'नमसं खं मेघवमं विहायसम्' इति निगमात् 'अत्यविचमिनमिरमिलमिनभितपिपतिपनिपणिमहिन्योऽसच' ( उ० सू० ३९७), इत्यनेन सिद्धोऽदन्तोऽपि 'नमस' शब्दोऽस्तीत्यवधेयम् । सान्तः 'नमः' शब्दपक्षे तु नमसा गच्छतीति विग्रहे 'गमेः मुपि वाच्यः' (वार्तिकः २०११ ) इति खचि 'वाचंयमपुरन्दरौ च' (पा० सू० ६।३।६९) इति चकारादमागमे 'नभसङ्गम' शब्दसिद्धियोध्या ॥
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१८४
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डेकोयष्टिष्टिट्टिभको वर्तको वर्तिकादयः ॥ ३५ ॥ १ ग च्छदाः पत्रं एतत्त्रं च तनूरुहम् । २ स्त्री पात: क्षमूलं ३ चञ्चनोटिरुभे स्त्रियो ।। ३६ ।। ४ प्रडीनोदीनसंडोनान्येताः खगगतिकियाः। ५ 'पेशी काशो द्विद्दीनेऽण्ड ६ कुल्लायोनीडमस्त्रियाम् ।। ३७ ।।
७ पातः पाकोऽर्भको डिम्भः पृथुकः शावकः शिशुः। तीतर. वनमुर्गा, लावा या लया, मारके तुल्य पंख वाला पक्षि-विशेष, चोर, पक्षी-विशेष, टिटिहरी और वत्तन' का -१ नाम तथा 'बटेर' के २ नाम है । 'प्राचीनों के मतसे 'वर्तकः (पु), वर्तिका (स्त्री), खानकर 'बटेर और बटेरकी रखी' का क्रमशः 1-1 नाम हे')॥
गरुत् , पक्षः, छदः (+न। ३ पु), पस्त्रम्, पतस्त्रम् , तनूरुहम् (३ न), 'पंख' के ६ नाम हैं।
२१क्षतिः (+पक्षती। स्त्री), पक्षमूलम् (न), 'पंखकी जड़ के २ नाम हैं।
३ चम्चुः (+ चञ्चः), त्राटि: (+तुण्डम् । २ स्त्री), 'चोंच' टोर' के २ नाम हैं।
४ प्रडीनम् , रड्डीनम् , संडीनम् (३ न ), ये ३ 'पक्षियोंको चाले हैं। इनमें 'तिरछा या अत्यन्त उड़नेका, ऊपर उड़नेका, मिलकर उड़ने' का क्रमशः 1-1 नाम है।
५ पेशी (पेशिन् , पु + पेशी = पेशी, स्त्री ), कोशः (+ कोषः पु न । +पेशीकोशः ,पेशीकोषः; सी. स्वा० ), अण्डम् (न), 'अण्डा' के ३ नाम हैं।
६ कुलायः (पु), नोडम् (न पु), 'स्त्रोता, घोसला' के २ नाम हैं ।
७ पोतः, पाकः, अर्भकः, डिम्भा, पृथुकः, शावकः, शिशुः ( ७ पु), 'बच' के नाम हैं।
१. 'कोयष्टिष्टिट्टिमः कोकः करो वतकादयः' इति क्षी० स्वा० सम्मतः पाठः। अत्र मूलोक्तपाठं मत्वा 'उदीचां तु स्त्रियामित्वम् , प्राचा न (वा० ७।३।४५) इति स्त्रियां रूपदयप्रदर्शनाय 'वर्तिका' ग्रहणम्' इति प्राक्षः। वस्तुतस्तु 'वृतेस्तिकन्' (७० सू० ३३१४१) इति तिकनन्तस्य मूषिकवरपुंस्यपि वर्तिकः' इति रूपकथनमिदम्' इति मा० दो०। पूर्वोक्त क्षी० स्वा० सम्मते पाठे तु नैव रूपदयप्रदर्शनमित्यवधेयम् ॥
२. 'पेशीकोशो' इति 'कोपो' इति च पाठान्तरम् ॥
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सिंहादिवर्गः ५ ]
मणिप्रभा व्याख्या सहितः ।
१८५
१ स्त्रीपुंसौ मिथुनं द्वन्द्वं २ युग्मं तु युगलं युगम् ॥ ३८ ॥ ३ समूहो निवहन्यूसंदोहविसरवजाः ।
॥ ३९ ॥
स्तोमौघनिकरवातवार संघातसञ्चयाः
TOT:
1
समुदायः समुदयः समवायश्चयो स्त्रियां तु संहितर्वृन्दं निकुरम्बं कदम्बकम् ।। ४० ।। ४ वृन्दभेदाः ५ सर्गः ६ संघसार्थौ तु जन्तुभिः ।
७ सजातीयैः कुलं ८ यूथं तिरश्चां पुन्नपुंसकम् ॥ ४१ ॥
३ नाम हैं ॥ कहा है' )
१ स्त्रीपुंसो (भा० दी० अतसे । नित्य द्विव० पु), मिथुनम्, द्वन्द्वम् (२ न), 'स्त्री और पुरुषकी जोड़ी' के ३ नाम हैं ॥ २ युग्मम्, युगलम् युगम् ( ३ ), ( 'मुकुटने 'द्वन्द्व' शब्दको भी इसीका पर्याय ३ समूहः, निवहः, व्यूहः, संदोहः, विसरः, व्रजः, ata:, ala:, fast, व्रातः, वारः, संघातः, सञ्चयः, समुदायः, समुदयः, समवायः, चयः, गणः, ( १८ पु ), संहितः (स्त्री), वृन्दम्, निकुरम्बम्, कदम्बकम् ( ३ न ), 'समूह' के २२ नाम हैं ॥
'जोड़ा, सम' के मानकर ४ नाम'
४ अब समूहों के भेद-विशेष कहते हैं ।
५ वर्गः ( पु ), 'एकजातीय प्राणियों या अप्राणियों के समूह' का १ नाम है। (जैसे - मनुष्यवर्गः, ब्राह्मणवर्गः, शैलवर्गः ... ) ॥
६ संघ सार्थ ( २ पु ), एकजातीय या भिन्नजातीय प्राणिमात्र के समूह' के २ नाम हैं। (जैसे -- पशुसङ्घः, पक्षिसङ्घः, वाक्सिङ्घ) ॥ ७ कुलम् ( न ), एकजातीय केवल प्राणियों के समूह' का , नाम है । (जैसे- 'ब्राह्मण कुलम्, ऋषिकुलम्, गोकुलम्, ) ॥
८. यूथम् (न पु), 'एक जातिके तिर्यग्जातीय' (पशुपक्षी आदिके) समूह '
......9
१. 'द्वन्द्व' शब्दस्य 'युग्म' पर्यायत्वमनुचितम् । तथा सति - इन्द्रमाहवे । रहस्ये मिथुने युग्मे -' ( अने० सं० ३।५२३-५२४) ६ति हैमात् 'द्वन्द्वं रहस्ये कलहे तथा मिथुनयुग्मयो:' ( मेदिनी पृ० १७२ लो० १० ) इति मेदिन्याश्चाविरोधेऽपि 'स्वन्ताथादि न... ( १ १ ४ ) इत्यादिग्रन्थकारप्रतिज्ञाविरोधात् । 'द्वन्द्वयुग्मे तु' इति पाठे तु ग्रन्थकारप्रतिञ्चाऽविशेषान्मुकुटमतस्य सामञ्जस्यमपश्यवधेयम् ॥
२-३-४. सङ्घसङ्घातपुऔषसार्थयूथकदम्बकाः' इति ।
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१८६ अमरकोषः।
[ द्वितीयकाण्डे१ पशूनां समजो२ऽन्येषां समाजो३ऽथ सर्मिणाम् ।
स्यानिकायः ४ पुखराशी तूत्करः कूटमस्त्रियाम् ॥ ४२ ॥ ५ कापोतशोकमायूरतैत्तिरादीनि
तद्गणे । ६ गृहासक्ताः पक्षिमृगाश्छेकास्ते गृह्यकाश्च ते ॥४३॥
इति सिंहादिवर्गः ॥५॥
का १ नाम है। जैसे-मृगयूथम् , गजयूथम , बर्हियूथम् ,.....' ॥
१ समजः (पु), 'केवल पशुओं के समूह' का १ नाम है। (जैसेगोसमजा,.....')॥
२ समाजः (पु) पशुसे भिन्न जातिवालोंके समूह' का । नाम है। (जैसे-'श्रोत्रियसमाजः, ब्राह्मणसमाजः,.......' ) ॥
. ३ निकायः (पु), 'पक जातिवालों के समूह' का , नाम है। (जैसे-ब्राह्मणनिकायः, गोनिकायः, श्रमणनिकायः,.......' )॥
४ पुनः ( + पिञ्जः), राशिः तरकर (३ पु) कूटम् (न पु), 'अन्न इत्यादिकी ढेरी' के ४ नाम हैं । ('जैसे-धान्यराशिः, तृणराशिः,.....)॥
५ कापोतम् , शौकम् , मायूरम , तैत्तिरम् ( ४ न ), आदि ('आदिसेकौक्कुटम् , काकम् ,......" ), 'कबूतर, सुग्गा, मोर और तीतर' आदि (धादिसे-मुर्गा और कौआ,......' ) के समूह' का क्रमशः १-१ नाम है ॥
छेकः, गृह्यकः ( २ पु), 'पालतू पशु-पक्षी' अर्थात् 'जल में पाले हुए तोता, मोर, मैना आदि पक्षी और मृग आदि पशुओं के २ नाम हैं ।
इति सिंहादिवर्गः ॥५॥
'निकरनिकायविसरव्रजपुञ्जसमूहसञ्चयाः समुदयसार्थयूथनिकुरम्बकदम्मकपूगराशयः । चयसमवायवृन्दसन्दोहसमाजवितानसंहतिप्रकरधनौघसंघसंघातवातकुलोत्कराः स्मृताः ॥ (अमि० रन० ४११) इति चोक्त्वा मागुरिहलायुधौ सङ्घसार्थयूथपुजाना पर्यायतामाइतुः' इत्यवधेयम् ॥
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मनुष्यवर्ग:६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः
१८७ ६. अथ मनुष्यवर्गः। १ मनुष्या मानुषा मा मनुजा मानवा नराः । २ स्युः पुमांसः पञ्चजनाः पुरुषाः पूरुषा नरः ॥ १॥ ३ 'स्त्री योषिदबला योषा नारी सीमन्तिनी वधूः।
प्रतीपदशिनी वामा घनिता महिला तथा ॥२॥ विशेषास्वङ्गना भीरुः कामिनी वामलोचना। प्रमदा मानिनी कान्ता ललना च नितम्बिनी ॥ ३॥
सुन्दरी रमणी रामा ५ कोपना सैव भामिनी । ६ वरारोहा मत्तकाशिन्युत्तमा घरवणिनी ॥ ४॥
६. अथ मनुष्यवर्गः । १ मनुष्यः, मानुषः, मयः, मनुजः मानवः, नरः (६ पु) भा. दी० मतसे 'मनुष्यमात्र' के नाम हैं । ____२ पुमान् ( = पुंस), पञ्चजना, पुरुषः, पुरुषः, ना ( = नृ । ५ पु), भा० दी० मतसे 'पुरुष' अर्थात् 'मर्द' के ५ नाम है । ( 'महे ० मतसे मनुष्यः,..." 'ना' ये " नाम 'मनुष्य' के हैं)॥
३ स्त्री, योषित् ( + जोषित् , योषिता, जोषिता ), अबला (+ अवला), योषा ( +ोषा), नारी, सीमन्तिनी, वधूः प्रतिपक्षशिनी, वामा, वनिता, महिला (महेला, महला।"खी), 'औरत, जनाना' के , नाम हैं ।।
४ अङ्गना, भीरुः ( + मीरुः भीलुः भीलूः) कामिनी, वामलोचना, प्रमदा, मानिनी, कान्ता, ललना, नितम्बिनी, सुन्दरी (+सुन्दरा), रमणी (+रमणा), रामा (१२ स्त्री) ये १२ 'स्त्रियोंके भेद-विशेष' हैं॥
५ कोपना, भामिनी ( २ स्त्री), 'क्रोध करनेवाली स्त्री' के २ नाम हैं।
६ वरारोहा, मत्तकाशिनी ( + मत्तकासिनी), उत्तमा, वरवनिनी (स्त्री), 'गुणवती स्त्री के ४ नाम हैं ।
१. 'सी योषिदवका बोषा' इति पाठान्तरम् ।। २. वरवर्णिनीलक्षणं यथा
'शीते सुखोष्णसर्वाङ्गी ग्रीष्मे या मुखशीतला । मतमका च या नारी विज्ञेया वरवर्णिनी॥१॥ इति ॥
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१८८
अमरकोषः
[द्वितीयकाण्डे१ कृताभिषेका महिषी २ भोगिन्योऽन्या नृपस्त्रियः। ३ पत्न' पाणिगृहीती च द्वितीया सहधर्मिणी ॥५॥ भार्याजायाऽथ'भूमिनदारा४स्यात्तु कुटुम्बिनी ।
पुरन्ध्री ५ उवरित्रा तु सती साध्वी पतिवता ॥६॥ ६ 'कृतसापत्नि काऽध्यूढाऽधिविनाथ स्वयंवरा ।
पतिवरा च वर्याsथ कुलस्त्री कुलपालिका ।। ७ ।। ९ कन्या कुमारी
१ महिषी (स्त्री), 'पटरानी' का । नाम है । ("जैसे वासवदत्ता,...)॥
१ भोगिनी (स्त्री), 'पटरानियोंसे भिन्न रानियो' का १ नाम है । ('जैसे-पद्मावती, ......")
३. पती, पाणिगृहीती, द्वितीया, महधर्मिणी ( + सधर्मिणी, सहचरी), भार्या, 'जाया ( ६ स्त्री), दाराः ( = दार, पु नि० ब० व०। + दारा - श्री ), न्याही हुई स्त्री' के ७ नाम हैं । ____४ कुटुम्बिनी, पुरन्ध्री ( + पुरन्ध्रिः, मु.), 'पति-पुत्रवाली स्त्री' के २ नाम हैं।
५ सुचरित्रा, सती, साध्वी, पतिव्रता (४ सो) 'पतिव्रता स्त्री' के ४ नाम हैं।
६ कृतसापत्रिका ( + कृतसापनका), अध्यूढा, अधिविधा ( ३ स्त्रो) अनेक विवाह किये हुए पुरुषकी पहली स्त्री' के ३ नाम हैं । ___स्वयंवरा, पतिवरा, वर्या ( ३ स्त्री) 'जिसके लिये स्वयंवर किया गया हो उस कन्या के ३ नाम हैं।
८ कुलसी, कुलपालिका ( २ स्त्री) 'कुलीन स्त्री' के २ नाम हैं ।
९ कन्या, कुमारी (२ स्त्री)'प्रथम अवस्थाबाली या काँरी लड़की' के २ नाम हैं।
१. कृतसापत्नकाऽध्यूढा-' इति पाठान्तरम् ॥ २. जायायास्तद्धि जायात्वं यदस्यां जायते पुनः' इति मनुः ॥ ३. क्रोडा दारा तथा दारा त्रय एते यथाक्रमम् । कोडे दारे च दारेषु शम्दाः प्रोक्ता मनीषिभिः ॥१॥ युक्तः ।
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१८६
मनुष्यवर्ग: ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ गौरी तु नग्निकाऽनागतार्तवा । २ स्यान्मध्यमा इष्टरजास्तरुणी युवतिः समे ॥ ८॥ ४ 'समाः स्नुषाजनीवश्व५श्चिरिण्टी तु स्ववासिनी।
गौरी, नग्निका ( + लग्निका) अनागतार्तवा ( ३ स्त्री), 'जिसे रजोधर्म नहीं हुआ हो उस स्त्री' के ३ नाम हैं ।
२ मध्यमा, दृष्टरजाः (= इष्टरजस । २ स्त्री), 'जिसे पहली बार रजोधर्म हुआ हो उस स्त्री' २ नाम हैं ।
३ तरुणी ( + तलुनी ), युवतिः ( + युवती । ३ स्त्री) 'जवान स्त्री' के २ नाम हैं। (स्त्री १६ वर्षकी अवस्थातक 'बाला' १७ से ३० वर्षकी अवस्था तक 'तरुणी', ३१ से ५५ वर्ष की अवस्थातक 'प्रौढा' और उसके बाद 'वृद्धा' कहलाती है। यह वृद्धा रतिमें त्याज्य है। यह अवस्थाकथन जब मनुष्य स्वस्थ एवं पूर्णायु होते थे, उस समय के अनुसार उचित प्रतीत होता है)।
४ स्नुषा, जनी (+जनिः) वधूः (३ सी), 'पतोहू' अर्थात् 'पुत्र, भतीजा या शिष्य आदिकी खी' के ३ नाम हैं।
५ चिरिण्टी (+ चिरण्टी, चरण्टी, चरिण्टी), स्ववासिनी (+ सुवासिनी । २स्त्री), जिसे जवानीके चिह्न कुछ-कुछ मालूम पड़ रहे हो ऐसी विवाहितास्त्री के २ नाम हैं ।
१. 'समाः स्नुषाज नौवध्वश्चिरण्टी तु सुवासिनी' इति पाठान्तरम् ।। २-३. अथ प्रसङ्गास्त्रीणां संचाविशेषा उच्यन्ते
'बालेति गीयते नारी यावर्षाणि षोडश । गौरी स्वसंजातरजाः श्यामा षोडशवार्षिकी' ॥ १॥ इति ।। 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी नववर्षा च रोहिणी। दशवर्षा भवेत्कन्या मत सर्व रजस्वला' ॥१॥
इति संवर्तस्मृति ११६६ ।। पत्र 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी नवमे ननिका भवेत्' इति स्मातों विशेषो नाइत इति क्षी० स्वा०॥ ४. भवस्थाभेदेन स्त्रीणां संशा माह
'यावत्योशसंख्यमन्दमुदिता. बाला ततत्रिंशतं तावत्स्यातरुणीति वाणविशिखः संख्या तु तावद्भवेत् । सा प्रौढेत्यभिधीयते कविवरशा सर्वं स्मृता निन्या कामकाजाविधिषु स्यान्या सदा कामिभिः ॥१॥इति ॥
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१६०
अमरकोषः
[ द्वितीयकाण्डे
१ इच्छावती कामुका स्याद् २ वृषस्यन्ती तु कामुकी ॥ ९ ॥ ३ कान्तार्थिनी तु या याति संकेतं साऽभिसारिका । ४ पुंश्चली 'धर्षिणी बन्धक्यतो कुलटेवरी ॥ १० ॥ स्वैरिणी पांशुला च स्या५दशिश्वी शिशुना विना । ६ अधीरा निष्पतिसुता ७ विश्वस्ताविधवे समे ।। १९ ॥ आतिः सखी वयस्याऽथ ९ पतिवत्नी सभर्तृका ।
८
१ इच्छावती, कामुका (२ख), 'किसी पदार्थको चाहने वाली स्त्री' के २ नाम हैं ॥
२ वृषस्यम्ती, कामुकी (२ख) 'बैल घोड़े की तरह अधिक मैथुनको इच्छा करनेवाली स्त्री' के २ नाम हैं ॥
३ अभिसारिका (स्त्री), 'रतिके लिये अपने पति या जारके संकेत किये हुए स्थानपर जानेवाली या जार वा पतिको संकेत - स्थानपर बुलानेवाली स्त्री' का १ नाम
"
v gæst, afdoit ( +adnì, vqnì:, adfù:) arusì, xađî, कुलटा, इश्वरी, स्वैरिणी, पांशुला ( + व्यभिचारिणी । < al ), 'sufharरिणी स्त्री' के ८ नाम है ॥
५ अशिश्वी (स्त्री) 'वंशहीन स्त्री' का १ नाम है ॥
६ अवीरा ( स्त्रो) 'पति और पुत्रसे दीन स्त्रो' का १ नाम है ॥
७ विश्वस्ता, विधवा ( २ ) 'विधवा स्त्री' के २ नाम हैं ॥
८ आलिः, सखी, वयस्या ( ३ स्त्री ) 'सहेली' के ३ नाम हैं | ९ पतिवन', सभर्तृका ( ३ स्रो) 'सधवा स्त्री' के २ नाम हैं ॥
१. 'चर्षणी' इति धर्षणी' इति च पाठान्तरम् ॥ २. अभिसारिकाया लक्षणान्याहुः । तद्यथा -
'हित्वा लज्जामये श्रिष्टा मदनेन मदेन च ।
अभिसारयते कान्तं सा भवेदभिसारिका ॥ १ ॥ इति भरतः ॥
'कामार्ताऽभिसरे स्कान्तं सारयेद्वाऽभिसारिका' | दशरूपक २।३७ इति ॥ अभिसारयते कान्तं या मन्मथवशंवदा ।
स्वयं वाऽमिसरस्येषा धीरैरुक्ताऽभिसारिका' ॥ १ ॥ सा० द० ३।११८ इति ॥
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मनुष्यवर्गः ६ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१६१
१ वृद्धा पलिक्नी २ प्राज्ञी तु प्राज्ञा ३ प्राज्ञा तु धीमती ॥ १२ ॥ ४ शुद्री शूद्रस्य भार्या स्याच्छूद्रा तज्ज्ञातिरेव च । ६ आभीरी तु महाशुद्री जातिपुंयोगयोः समा ॥ १३ ॥ ७ अर्याणी स्वय्र्या स्यात् ८ क्षस्त्रिया क्षत्रियाण्यपि । ९ उपाध्यायाऽप्युपाध्यायी १० स्यादाचार्यापि च स्वतः ॥ १४ ॥ ११ आचार्यानी तु पुंयोगे १२ स्यादर्यो
१ वृद्धा, पलिक्नी ( स्त्री ), 'वृद्ध या पके हुए बालवाली स्त्री' के २ नाम हैं ॥
?
२ प्राज्ञी प्रज्ञा ( २ ख ), 'किसी विषय को अच्छी तरह स्वयं जाननेवाली स्त्री' के २ नाम हैं ॥
३ प्राज्ञः, धीमती ( + बुद्धिमती | स्त्री ), चतुर स्त्री' के २ नाम हैं ॥ ४ शुद्री (स्त्री), किसी भी वर्णमें उत्पन्न हुई शूद्रकी स्त्री' का १ नाम है ॥
५ शूद्रा ( स्त्री ), 'शूद्र वर्ण में उत्पन्न हुई शूद्रकी या अन्य किसी जातिकी स्त्री' का १ नाम है ॥
६ आभीरी, महाशूद्री ( २ स्त्री ), 'ग्वालिन या गोपकी स्त्री, महाशूद्रकुलमें उत्पन्न किसी भी जाति की स्त्री, अन्य वर्णमें उत्पन्न महाशूद्रकी स्त्री, के २ नाम हैं ॥
७ अर्याणी, अर्या ( २ स्त्री ), वैश्य कुलमें उत्पन्न स्त्री' के २ नाम हैं । ८ स्त्रिया, क्षत्रियाणी ( २ स्त्री ), 'क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न स्त्री' के २ नाम हैं ॥
९ उपाध्याया, उपाध्यायी ( २ स्त्री ), 'स्वयं पढ़ानेवाली स्त्री' का २ नाम है ॥
१०
आचार्या (स्त्री), 'मन्त्रोंकी स्वयं व्याख्या करनेवाली स्त्री' का १ नाम है ॥
११ आचार्यानी ( + आचार्याणी । स्त्री), 'आचार्यकी स्त्री' का १ नाम है ॥ १२ अर्थी (स्त्री), 'किसी भी जाति में पैदा हुई वैश्यकी स्त्री' का १ नाम है ॥
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१६२
अमरकोषः। द्वितीयकाण्डे
-१ क्षत्रियी तथा । २ उपाध्यायान्युपाध्यायी ३ पोटा स्त्रीपुसलक्षणा ।। १५॥ ४ वीरपत्नी वीरभार्या ५ वीरमाता तु वीरसूः। ६ जातापत्या प्रजाता च प्रसूता च प्रसूतिका ॥१६॥ ७ स्त्री नग्निका 'कोटवी स्याद् ८ दूतीसंचारिके समे। ९ कात्यायन्यर्द्धवृद्धा या काषायवसनाऽधवा ।। १७ ।। १० सैरन्ध्री परवेश्मस्था स्वशा शिल्पकारिका ।
१ स्त्रियी (स्त्री), किसी भी जातिम उत्पन्न हुई क्षत्रियकी स्त्री' का नाम है ॥
२ उपाध्यायानी, उपाध्याया (२ स्त्री), 'पढ़ानेवालेकी स्त्री' के २ नाम हैं ।
३ पोटा (स्त्री), 'स्तन और दाढ़ी (स्त्री-पुरुष के इन दो लक्षणों ) से युक्त स्त्री या नपुंसक स्त्री' का १ नाम है।
४ वीरपत्नी, वीरभार्या (२ स्वी), शूरवीरकी पत्नी' के २ नाम हैं । ५ वीरमाता (= वीरमातृ), वीरसूः (२ स्त्री), 'शूरवीरकी माता' २ नाम हैं।
६ जातापस्या, प्रजाता, प्रसूता, प्रसूतिका ( ४ स्त्री) 'प्रसूति' अर्थात् "जिसे सन्तान पैदा किये थोड़े दिन बीते हो' उस 'जच्चा' स्त्री के ३ नाम हैं।
. नग्निका ( भा० दी.), कोटवी ( + कोहवी, कौटवी । २ स्त्री)'नंगी स्त्री के नाम हैं।
दूती, संचारिका (२ स्त्री), 'दूती' के २ नाम हैं। ९ कात्यायनी (स्त्री), 'अधबूढ़, गेरुआ कपड़ा पहनी हुई विधषा स्त्री'का १ नाम है॥
१. ४ सैरन्ध्री ( + सैरिन्ध्री । स्त्री) 'जो दूसरेके घर रहे, स्वतन्त्र १. 'कोट्टवी' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'कषायवसनाऽधवा' इति पाठान्तरम् ॥ १ 'सेरिन्ध्री' इति पाठान्तरम् ॥ ४ सैरन्ध्रीलक्षणं यथा
चतुःषष्टिकलाभिशा शीलरूपादिसेविनी।
प्रसाधनोपचारशा सैरन्ध्रि परिकीर्तिता ॥१॥ इति कास्यः। श्री. स्वा० तु 'परिकीर्तिता' इत्यत्र 'स्वक्शेति च' इति पाठमा॥
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मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१६३ १ असिफ्नी स्यादवृद्धा या प्रेष्याऽन्तःपुरचारिणी ॥ १८ ॥ २ वारस्त्रीगणिका 'वेश्या रूपाजीवा३ऽथ साजनैः ।
सत्कृता वारमुख्या स्यात् ४ कुट्टनी शम्भलीसमे ॥ १९ ॥ विप्रश्निका स्वीक्षणिका दैवाऽथ रजस्वला।
स्त्रीधर्मिण्यविरात्रेयी मलिनी पुष्पवत्यपि ॥२०॥
ऋतुमत्यप्युदक्यापि ७ स्याद्रजः पुष्पमार्तवम् । हो और केश झाड़ना-गुथना आदि शिल्पकार्य करती हो उस स्त्री का १ नाम है । (जैले-राजा विराट के यहां अज्ञातवास करती हुई द्रौपदी सरन्ध्री का कार्य करती थी)।
असिवनी (स्त्री) 'जो वृद्धा नहीं हो, आज्ञा पाकर कहीं आया जाया करे और रनिवासमें रहे उस स्त्री का नाम है ॥
२ वारस्त्री, गणिका, वेश्या ( + वेष्या), रूपाजीवा ( + एण्यखी, पणत्री। ४ स्त्रो), 'वेश्या' के ४ नाम हैं।
३ वारमुख्या (स्त्री), 'सौन्दर्य और गान आदि से बड़े लोगोंके द्वारा प्रतिष्ठा पानेवाली वेश्या' का नाम है ॥
४ कुट्टनी, शम्भली ( + सम्भली । २ स्त्री), 'कुटिनी' के २ नाम हैं।
५ विप्रश्निका, ईवणिका, दैवज्ञा (३ स्त्री), 'हाथ-पैर आदिकी रेखाओं को देखकर शुभाशुभ लक्षणों को जानने या कहनेवाली स्त्री' के नाम हैं।
६ रजस्वला, स्त्रीधर्मिणी, अविः ( + अवी ), प्रात्रेयी, मलिनी, पुष्पवती (+पुष्पिता), ऋतुमती, क्या (८ स्त्री) 'रजस्वला स्त्री' के ८ नाम हैं।
७ रजः (= र जस), पुष्पम् , आर्तवम् (३ न), 'स्त्रियोंके रज' के नाम हैं। १. 'वेण्या' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'स्त्रीधर्मिण्यपि चात्रेयी मलिनी पुष्पवस्यपि' इति स्वा० पाठः। 'अवितस्ततन्त्रिभ्य ई' ( उ० सू० ३३१५८ ) इति ईप्रत्ययेन सिद्धयुक्तस्तदग्रे च 'अविं स्त्रीधर्मिणी विद्यात्' इति कास्यात् 'सर्वधातुभ्य इन्' ( उ० सू० ४.११८ ) इति इन्प्रत्यये हस्वान्ताऽपि अविः इति मानुजितीक्षितेन स्वयमुक्तत्वान्मूले 'स्त्रोधर्मिण्यविरात्रेयी' इति हस्वान्त 'अवि' शब्दपाठ: संशोधकप्रमादज एव । व्याख्यातुदीर्वान्तस्यैव 'अवि' शब्दस्य प्रथमं साधिरवेन तत्रैव स्वास्थाप्रदर्शनात् ॥
३. असिक्नी स्यादवृद्धा या प्रेष्याऽन्तःपुरयोषिता' इति मुनिः॥
१३ अ०
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१६४ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ श्रद्धालुर्दोहदवती २ निष्कला विगतार्तवा ॥ २१ ॥ ३ आपन्नसत्त्वा स्याद्गुर्विण्यन्तर्वत्नी च गर्भिणी। ४ गणिकादेस्तु गाणिक्यं गार्मिणं यौवतं गणे ॥ २२ ॥ ५ पुनर्भूर्दीधिषूरूढा द्विस्तस्या' दिधिषुः पतिः । ७ स तु द्विजोऽग्रेदिधिषूः सैव यस्य कुटुम्बिनी ॥ २३ ॥
१ श्रदालुः, दोहदवती ( २ स्त्री), 'गर्भ रहनेपर किसी वस्तु या कार्य को चाहनेवाली स्त्री' के २ नाम हैं ॥ __ २ निकला ( + निष्कली ), विगतार्तवा ( २ स्त्री), 'रजोधर्मसे हीन (जिसे रजोधर्म कभी भ होता हो या वृद्धावस्था के कारण समाप्त हो गया हो) स्त्री' के २ नाम हैं। ___ आपन्न पत्ता, गुर्विणी ( + गुर्वी ) अन्तर्वन, गर्भिणी (गर्भवती।
४ स्त्री ), 'गर्भवती स्त्रो' के ४ नाम हैं । ___ ४ गाणिक्यम् , गाभिणम् , यौवनम् (३ न ), 'वेश्याओं युवतियों और गर्भिणियोंके समूह' का क्रमशः १-१ नाम है।
५ 'पुनर्भूः, दोधिषूः ( + दिधीपूः, दिधिषुः, अदिधिषुः । २ स्त्रो), 'दो बार व्याही हुई स्त्री' के २ नाम हैं ॥
६ दिधिषुः ( + विधिपूः, स्वा० म०। पु. ), "दो बार व्याही स्त्रीके पति का नाम है।
७ अग्रेदिधिषूः । ( + अग्रेदिधिषुः । पु), 'दो बार व्याही हुई स्त्रीके द्विजाति (ब्राह्मण, क्षस्त्रिय और वैश्य ) वर्णवाले पति' का । नाम है ॥
१. 'दिधिषूः पतिः' इति पाठान्तरम् ॥ २. तदुक्तं याज्ञवल्क्ये
'भक्षता च क्षता चैव पुनर्भूदिधिषूः पुनः' इति याज्ञ० १॥ ६७ ।। 'ज्येष्ठायां यद्यनूढायां कन्यायामुयतेऽनुजा । सा चाग्रेदिधिषुर्शया पूर्वा तु दिधिषुमंता' ॥१॥ इति । 'दिधिषूस्तत्पुन_दिरूढा स्यादिधिषुः पतिः । स तु द्विजोऽग्रेदिधिषूर्यस्य स्यात्सैव गेहिनी' ॥ १॥
- अमि० चिन्ता० ३११८९ इति ॥
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मनुष्यवर्गः ६ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ कानीनः कन्यकाजातः सुतोऽथ सुभगासुतः । सौभागिनेयः स्यात् ३ पारस्त्रैणेयस्तु परस्त्रियाः ॥ २४ ॥ ४ पैतृष्वसेयः स्यात्पैतृष्वस्त्रीयश्च पितृष्वसुः । सुतो ५ मातृष्वसुश्चैवं ६ वैमात्रेयो विमातृजः ॥ २५ ॥ अथ वान्धकिनेयः स्यादन्धुलवासतीसुतः । कौलटेरः कौलटेयो ८ भिक्षुकी तु सती यदि ॥ २६ ॥ तदा कौलटिनेयोऽस्याः कौलटेयोऽपि चात्मजः । आत्मजस्तनयः सूनुः सुतः पुत्रः १० स्त्रियां त्वमी ॥ २७ ॥ आहुर्दुहितरं सर्व
5
१
१६५
१ कानीनः ( पु ), 'क्कांरी स्त्रीके पुत्र' का १ नाम है ( 'जैसे - व्यास, कर्ण, ) ॥
२ सुभगासुतः, सौभागिनेयः (पु), 'सौभाग्यवती स्त्रीके पुत्र के २ नाम हैं ॥
३ पारस्त्रैणेयः ( पु ), 'परस्त्रीके पुत्र' का १ नाम है ॥
४ पैतृष्वसेयः, पैतृष्वस्त्रीयः ( २ पु ), 'फूआका पुत्र अर्थात् फुफेरे भाई' के २ नाम हैं ॥
५ इसी प्रकार 'मौसीका लड़का अर्थात् मौसेरे भाई' के मातृष्वसेयः, मातृष्वस्रीयः ( २ ), २ नाम हैं ॥
६ वैमात्रेत्रः ( + वैमात्रः ), विमातृजः (२ पु), सौतेली माँका लड़का ' अर्थात् 'मैभावत भाई' के २ नाम हैं ।
७ बान्धकिनेयः, बन्धुलः, असतीसुतः, कौलटेरः, कौलटेयः ( ५ पु ), 'व्यभिचारिणी स्त्रीके पुत्र' के ४ नाम हैं ॥
८ कौलटिनेयः, कौलटेयः, ( २ पु ), 'भीख मांगने के लिये घर २ घूमनेवाली सदाचारिणी स्त्री के पुत्र' के २ नाम हैं ॥
९ आत्मजः, तनयः, सूनुः, सुतः, पुत्रः (५ पु ), 'पुत्र' के ५ नाम हैं ॥ १० दुहिता ( = दुहितृ । स्त्री)' और 'आत्मज' आदि ५ शब्द स्रीलिङ्ग होने पर (आत्मजा, तनया, सूनुः, सुता, पुत्री । ५ स्त्री), 'लड़की, पुत्री' के ६ नाम है ॥
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१६६
अमरकोषः।
[ द्वितीयकाण्डे
-१ऽपत्यं तोकं तयोः समे । २ स्वजाते त्वौरसोरस्यौ ३ तातस्तु जनकः पिता ॥ २८ ।। ४ जनयित्री प्रसूर्माता जननी ५ भगिनी स्वसा। ६ ननान्दा तु स्वसा पत्युउर्नप्त्री पौत्री सुतात्मजा ।। २९ ॥ ८ भार्यास्तु भ्रातृवर्गस्य यातरः स्युः परस्परम् । ६ प्रजावती भ्रातृजाया १० मातुलानी तु मातुली ॥ ३०॥
१ अपत्यम् , तोकम् (२ न ), 'सन्तान' अर्थात् 'लड़के या लड़की के २ नाम हैं ॥
२ औरसः, । उरस्यः ( + औरस्यः । २ पु), 'अपने खास लड़के के २ नाम हैं।
३ तातः, जनकः, पिता ( = पितृ । ३ पु), 'पिता' के ३ नाम हैं ॥
४ जनयित्री (+ जनित्री), प्रसूः, माता (= मातृ), जननी (+ जननिः । ५ खी), 'माता' के ४ नाम हैं ॥
५ भगिनी, स्वसा ( = स्वस । २ स्त्री), 'बहन' के २ नाम हैं।
६ न नान्दा ( = न नान्ह ।+ ननन्दा = ननन्ह, नन्दिनी । स्त्री), 'ननद' अर्थात् 'पतिकी बहन' का नाम है ।।
७ नप्त्री, पौत्री, सुतात्मजा (भा. दी० । ३ स्त्री), 'मातिन' अर्थात् 'पुत्रकी या पुत्रीकी लड़की के ३ नाम हैं।
८ याता ( = यातृ, स्त्री), 'गोतिनी' अर्थात् 'पतिके भाइयोंकी स्त्री' का नाम है।
९ प्रजावती, भ्रातृजाया (२स्त्री), 'भाईकी स्त्री भौजाई' के २ नाम हैं ।
१. मातुलानी, मातुली ( + मातुला । २ स्त्री), 'मामी' अर्थात् 'मामा (पिताका साला) की स्त्री' के २ नाम हैं ।
१. 'स्वक्षेत्रे संस्कृतायां तु स्वयमुत्पादयेद्धि यम् । तमौरसं विजानीयात्पुत्रं प्रथमकस्पितम् ॥
मनुः ९।१६६॥ इति वचनास्परमार्यायामपि स्वस्माज्जाते पुत्रे नातिव्याप्तिः शङ्कथा । 'औरस १ क्षेत्रज २ दत्तक ३ कृत्रिम ४ गूढोत्पन्न ५ अपविद्ध ६ कानीन ७ सहोढ ८ क्रीत ९ पौन व १० स्वयंदत्त ११ शौद्र (पाराशव) १२' इति दायादादावादबान्धवरूपदावविधपुत्रलक्षणं मनुस्मृती ( ९।१६६-१७८) द्रष्टव्यम् ।
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मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ पतिपत्न्योः प्रसूः श्वः २ श्वशुरस्तु पिता तयोः । ३ पितुर्धाता पितृव्यः स्यात् ४ मातु ता तु मातुलः ।। ३१ ।। ५ श्यालाः स्युतिरः पल्याः ६ स्वामिनो देवृदेवरौ। ७ स्वस्नीयो भागिनेयः स्यात् ८ जामाता दुहितुः पतिः ॥ ३२ ॥ ९ पितामहः पितृपिता १० तत्पिता प्रपितामहः। ११ मातुर्मातामहाघेवं १२ . सपिण्डास्तु सनाभयः ॥ ३३ ॥
१ श्वश्रः (स्त्री), 'साल' अर्थात् 'पति या धोकी माता का नाम है। २ श्वशुरः (पु), 'ससुर' अर्थात् 'पति या स्वाके पिता का नाम है। ३ पितृव्यः (पु), 'चाचा' अर्थात् 'पिताके भाई' का , नाम है ॥ ४ मातुल: (पु), 'मामा' अर्थात् 'माताके भाई' का १ नाम है ॥ ५ श्यालः (+ स्याला । पु), 'साला' अर्थात् 'स्त्रीके भाई का । नाम है।
६ देवा (= देव), देवरः (२ पु ), 'देवर' अर्थात् 'पतिके 'छोटे भाई के २ नाम हैं।
७ स्वस्त्रीयः ( + स्वस्त्रियः, स्वस्रेयः), भागिनेयः (२ पु), 'भांजा' अर्थात् 'बहनके लाके' के नाम हैं ॥
८ जामाता ( = जामातृ, पु), 'दामाद, जमाई' का १ नाम है ॥
९ रितामहः, पितृपिता ( = पितृपितृ । २ पु ), 'पिताके पिता, दादा, बाबा' के २ नाम हैं ॥
१० प्रपितामहः (पु), 'परदादा' अर्थात् पितामह के पिता का नाम है।
"मातामहः (पु), 'नाना' अर्थात् 'माताके पिता' का । नाम है। ("इसी तरह 'प्रमातामहः (पु), 'परनाना' अर्थात् 'नानाके पिता का , नाम है" )॥
१२ सपिण्डः, सनाभिः (२ पु) सात पुस्त (पीढ़ी) के भीतरवाले परिवार के २ नाम हैं ।
१. युक्तमिद क्षी० स्वा० महे० मतम् । ग्रंथकारमते तु 'परयुद्घतमात्रस्ये'मे नामनी । 'पत्युज्येष्ठो भ्राता श्वशुर एवेति मुभूत्यादयः इति मा० दी० मा ।।
२. तदुक्तं मनुना-"सपिण्डता पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते" इति, मनुः ५।३०॥
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१६८
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे - १ समानोदर्यसोदर्यसगर्यसहजाः
समाः । २ सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः
समाः ॥३४॥ ३ ज्ञातेयं ४ बन्धुता तेषां क्रमाद्भावसमूहयोः । ५ धवः प्रियः पतिर्भर्ता ६ जारस्तूपपतिः समौ ॥ ३५ ॥ ७ अमृते जारजः कुण्डो ८ मृते भर्तरि गोलकः । ९ भ्रात्रीयो भ्रातृजो १० भ्रातृभगिन्यौ भ्रातरावुभौ ।। ३६ ॥
१ समानोदर्यः, सौदर्यः ( + सोदरः, सहोदरः ), सगऱ्याः, सहजः (४ पु), 'सहोदर भाई' अर्थात् 'एक मानाचे उत्पन्न भाई' के ४ नाम हैं।
२ सगोत्रः, बान्धवः, ज्ञातिः, बन्धुः, स्वः (यह सर्वनाम:संज्ञक है), स्वजनः ( ६ ), 'सगोत्र, अपने खास स्वान्दान' के ६ नाम हैं ॥
३ ज्ञानेयम् ( न ), 'जातियोंके धर्म या भाव' का । नाम है ॥ ४ बन्धुना (स्त्री), 'बाधुओंके समूह' का , नाम है ॥ ५ धवः, प्रियः, पतिा, भर्ता ( = भई । ४ पु), 'पति' के ४ नाम हैं।
६ जारः, उपपतिः (२ पु), 'जार' अर्थात् 'अप्रधान पनि' के २ नाम हैं । ___ 'कुण्डः (पु), 'पतिके जीते रहनेपर जारसे पैदा हुए लड़के' का १ नाम है।
८ गोलकः (पु), 'पति के मरनंपर जारसे पैदा हुए लड़के' का , नाम है ॥
९ भ्रात्रीय: ( + भ्रातृष्यः), भ्रातः ( २ पु ), 'भतीजा अर्थात् भाई के लड़के का नाम है ॥
१० भ्रातृभगिन्या ( भा. दी• मन ), भ्रातरी ( = भार, । २ पु नि. द्विव० ), 'भाई-बहन' के २ नाम हैं। ("जब भाई और बहन को एक साथ कहना हो तश्व इसका प्रयोग होता है । इसी तरह "भार्यावती च तौ" (२ । ६ । ३८) तक जानना चाहिये")॥
१-२. तदुतम् - "परदारेषु जायते दो मुतौ कुण्डगोलको ।।
पत्यो जीववि : स्वाम्मृते मर्तरि गोलकः" ॥१॥ इति मनुः ३२१७४
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मनुष्यवर्गः६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।।
१ मातापितरौ पितरौ मातरपितरौ प्रसूजनयितारौ। २ श्वश्रश्वशुरी श्वशुरौ ३ पुत्रौ पुत्रश्च दुहिता च ॥ ३७॥ ४ दम्पती जम्पती जायापती भार्यापतो च तो। ५ गर्भाशयो जरायुः स्यादुल्वं च ६ कललोऽस्त्रियाम् ।। ३८ ।। ७ सूतिमासो वैजननो ८ गर्भो भ्रण इमो समौ । ९ तृतीयाप्रकृतिः शण्ढः क्लीवः पण्डो 'नपुंसके ॥ ३९॥ .
मातापितरौ ( = मातापित), पितरौ ( = पितृ ), मातरपितरौ (= मातरपितृ), प्रसूजन यिनारी (प्रसूजयितु । ४ पु, नि. द्विव.), 'माता और पिताके समुदाय' के ४ नाम हैं ।
२ श्वश्रूश्वशुरौ, श्वशुरौ ( २ पु, नि० द्विव०), 'सास और ससुरके समुदाय' के २ नाम हैं ।
३ पुत्रौ (पु. नि. द्विव० ) लड़का और लड़कीके समुदाय का १ नाम है।
४ दम्पती, जम्पती ( + २ स्त्री ), जायापती, भार्यापती ( ४ पु, नि. द्विव०), 'पति और पत्नी के समुदाय' के ४ नाम हैं ।
५ गर्भाशयः, जरायुः, (२ पु ), उल्धम् ( + उल्वम् । न ), 'गर्भाशय' अर्थात् 'जिप्त में गर्भ लिपटा रहता है, उप चर्म' के २ नाम हैं ।
६ कललः (पु न ), 'वीर्य और शोणितके समुदाय' का १ नाम है। ('किसीके मतसे 'गर्भाशय' आदि २-२ नाम उन अर्थों में हैं, और किसी के मतसे ४ नाम एकार्थक हैं)॥ ___ ७ सूतिमासः, वैजननः (२ पु ), 'सन्तान पैदा होनेवाले (नवे या दश) महीने के २ नाम हैं ॥
८ गर्भः भ्रम : (२ पु ), 'गर्भ या गर्भस्थ जीव' के २ नाम है ॥ ९ तृतीयाप्रकृतिः (+तृतीयप्रकृतः । स्त्री), शण्ढा (+पण्डः, शण्डः, १. 'नपुंसकम्' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'शाल्मली माथिली मैत्री दम्पती जम्मती च सा इत्युक्तेरिति बोध्यम् ।। ३. तदुक्तं महर्षिणा याज्ञवल्क्येन
'नवमै दशमे वापि प्रबलैः सूतिमारुतैः ।
निःसार्यते वाण इव यन्त्रच्छिद्रेण सज्वरः ॥१॥ याज्ञः स्मृ० ३८३ इति । मा० दी० तु अस्य तुरीयपादं 'जन्तुश्छिद्रेण सत्वरः' इत्येवमाह ॥
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२००
अमरकोषः ।
[ द्वितीय काण्डे
१ शिशुत्वं शैशवं बाल्यं २ तारुण्यं यौवनं समे । ३ स्यात्स्थाविरं तु वृद्धत्वं ४ वृद्धसंघेऽपि वार्धकम् ॥ ४० ॥ ५ पलितं जरसा शौक्ल्यं केशादौ ६ विस्रसा जरा । ७ स्यादुत्तानशया 'डिम्भा स्तनपा च स्तनन्धयी ॥ ४२ ॥ ८ बालस्तु स्यान्माणवको
qoz:') gìa:, qoz: (2 g), agaza (a +9), 'नपुंसक, हिजड़ा' के ५ नाम हैं ॥
१ शिशुत्वम्, शैशवम्, बालम (३ न ), 'लड़कपन, बाल्यावस्या' ३ नाम हैं ॥
२ तारुण्यम्, यौवनम् ( २ न ), 'जवानी, युवावस्था' के २ नाम हैं | ३ स्थाविरम्, वृद्धश्वम् ( + वार्द्धक, वार्द्धक्यम् । २ न ), 'बुढ़ापा ' २ नाम हैं ॥
४ वृद्धसंघः ( भा० दी० मनसे । पु) वार्द्धकम् ( + वार्द्धक्यम् । न ), 'वृद्धसमूह' के २ नाम हैं ॥
५ पलितम् ( न ), 'बाल पकने' अर्थात् 'बुढ़ापा आदिले दादी-मूंछ आदिके बालके सफेद होने' का १ नाम हैं ॥
६ विस्रसा, जरा ( २ स्त्री ), 'बुढ़ौती' के २ नाम हैं ॥
७ उत्तानशया, डिम्भा, स्तनपा, स्तनन्धयी ( ४ त्रि) दूध पीनेवाली लड़की' के ४ नाम हैं । ( 'स्त्रीलिङ्गमे रूपप्रदर्शन के लिये स्त्रीत्वको कहा गया है, स्त्रीव विवक्षित नहीं है । अतः पुलिङ्ग में उत्तानशयः, डिम्भः स्तनपः, स्तनन्धयः, ( ४ पु ), 'दूध पीनेवाले लड़के' के ४ नाम हैं; नपुंसकलिङ्गमें 'उत्तानशयम्, " होता है । इसी तरह आगे जानना चाहिये' ) ॥ ८ बालः, माणवकः ( + माजत्रः । २त्रि ), 'छोटे बच्चे' के ? नाम हैं ॥
....."
१. 'डिम्म' शब्दः प्राक् ( २/५/३८ ) पक्षिक गोक्तोऽप्यत्र मानुषक्रमेण पुनरुक्तः ॥
२. 'पण्डः शण्डे–' (अने० सं० २ १२२ ) इति षण्डः कानन इड्वरे' (अने० सं० २०१२९) इति ' - षण्ढौ तु सौविदौ । बन्ध्य पुंसीडवरे कोबे -' ( अने० सं० २।१३० - १३१ ) इति च हेमचन्द्राचार्योक्तेरित्यवधेयम् ॥
३. 'अपत्ये कुत्सिते मूढे मनोरौत्सर्गिकः स्मृतः । नकारस्य च मूर्द्धन्यस्तेन सिद्ध्यति माणवः ॥ १ ॥ एवमुक्तरीत्या निष्पन्नान्मानव शब्दात्स्वार्थे कनि 'माणवक' शब्दसिद्धिर्ज्ञेया ॥
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मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
मनुष्यवर्गः ६ ]
– १ वयस्थस्तरुणो युवा ।
२ प्रवयाः स्थविरो वृद्धो जीनो जीर्णो जरन्नपि ॥ ४२ ॥ ३ वर्षीयान् दशमी ज्यायान् ४ 'पूर्वजस्त्वप्रियोऽग्रजः । ५ जघन्यजे स्युः कनिष्ठयवीयो५वरजानुजाः ॥ ४३ ॥ ६ अमांसो दुर्बलश्छातो ७ बलवान्मांसलोऽसलः । ८ तुन्दिलस्तुन्दिमस्तुन्दी बृहत्कुक्षिः पिचण्डिलः ॥ ४४ ॥
१ वयस्थः, तरुणः, युवा ( = युवन् । + युत्रकः । ३ त्रि ), 'नौजवान युवा' के ३ नाम हैं ।
२ प्रजयाः (
प्रवयस् ), स्थविरः, वृद्धः, जीनः, जीर्ण:' जरन् ( =जरत | ६ त्र ), 'बूढ़े' के ६ नाम हैं ॥
३ वर्षीयान् (= वर्षीयस्), दशमी (= दशमिन्), उपायान् (= ज्यायस् । ३ त्रि ), 'बहुत बूढे' के ३ नाम हैं ॥
४ पूर्वजः, अप्रियः (अग्रोयः, अग्रथः, अग्रीमः, अग्रिमः) अग्रजः (३ त्रि), 'बड़े भाई या अपने से पहले जन्म हुए' के ३ नाम हैं ॥
६ जघन्यजः, कनिष्ठः ( + कनीयान् = कनीयस् ), यवीयान् ( = यवीयस् । + यविष्ठः ), अवरजः, अनुजः ( ५ त्र ), 'छोटे भाई या अपने से पीछे जन्म हुए ' के ५ नाम हैं 11
२०१
६ अमांस, दुर्बलः, छातः ( = शानः । ६त्रि ), 'दुर्बल, कमजोर' के ३ नाम हैं ॥
७ बलवान् ( = बलवत् ), मांसल, अंसल : ( ३ त्रि), 'बलवान्, मजबून या मोटे' के ३ नाम हैं ॥
८ तुन्दिलः (= तुण्डिलः, तुन्दिनः ण्डितः, तुन्दिकः, उदरिलः), तुन्दिभः ( = तुण्डिभः ), तुन्दी (= तुन्दिन् । = तुण्डी = तुण्डिन् ), बृहत्कुक्षिः, पिचण्डिलः (= पिचिण्डिलः । ५ त्रि), ' तोंदवाले, बड़े पेटवाले' के ५ नाम हैं |
१. 'पूर्वजस्त्वग्रीयोऽग्रजः' इति पाठभेदः । किन्त्वत्र छन्दोमङ्गोऽपि वर्त्तते ॥ २. 'दुर्बलश्शातः' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'तुन्दिस्तुन्दिक स्तुन्दी बृहत् कुक्षिः पिचिण्डिलः' इति पाठान्तरम् ॥
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२०२ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ अवटीटोऽवनाटश्चावभ्रटो नत नासिके । २ केशवः केशिकः केशी ३ वलिनो वलिभः समौ ॥१५॥ ४ विकलाङ्गस्त्वपोगण्डः ५ खो हस्वश्च वामनः । ६ वरणाः स्यात्वरणसो ७विग्रस्तु गतनासिकः ॥ ४६॥ ८ खुरगाः स्यात्खुरणसः ९ प्रक्षुः प्रगतजानुकः।
अवटीटः, अव नाटः, अवभ्रटः, नतनासिका (४ त्रि), महे• मतसे 'नकचिपटा' अर्थात 'चिपटी नाकवाले' के ३ नाम हैं। 'भा० दी. मतसे 'नत नासिक' शब्दका पर्याय नहीं होने से ३ ही नाम हैं')॥
२ केशवः (= केशवान् - केशवत्), केशिका, केशी ( केशिन् । ३ त्रि), 'सुन्दर केशवाले' के ३ नाम हैं ॥
३ बलिनः, वलिभः (२ त्रि), 'जिसका चमड़ा सिकुड़ गया हो उस' के २ नाम हैं।
४ विकलाङ्गः, अपोगण्डः ( = पोगण्डः ! २ त्रि), 'कम या अधिक अङ्गघाले' के २ नाम है ॥
४ खर्वः ( = खर्बः, निखर्वः ), हस्वः, वामनः (३ त्रि), 'बौना, वामन' के ३ नाम हैं।
६ खरणाः ( खरणस् ), खरणसः ( २ त्रि) 'नुकीली नाकवाले' के नाम हैं।
७ विप्रः ( + विखुः, विखः, विख्यः, विग्वः, विखुः ), गतनासिक (= विनाप्तिकः । २ त्रि), 'नकटा' के २ नाम हैं ॥
८ खुरणाः (=खुरणस), खुरणसः (२ त्रि), 'पशुके खुरके समान नाकवाले' के २ नाम हैं।
९ प्रजः ( + प्रज्ञा ), प्रगत आनुकः (२ त्रि) 'रोगसे या स्वभा. वतः विरल जबावाले' के २ नाम हैं ।
१. 'विकलाङ्गस्तु पोगण्डः खर्बो' इति पाठान्तरम् ॥ २. तदुक्तं मानुजिदीक्षितेन--
'प्रजुः संहतजानुः स्यात्प्रज्ञोऽन्यत्रैव दृश्यते ॥ इति साइसाङ्कः, इति ॥
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मनुष्यवर्ग:६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः
२०३ १ ऊर्ध्वक्षुरूर्वजानुः स्यात् २ संज्ञः संहतजानुकः ॥४७॥ ३ स्यादेडे बधिरः ४ कुम्जे गडुलः ५ कुकरे कुणिः। ६ पृश्निरल्पतनौ७ श्रोणः पलो ८ मुण्डस्तु मुण्डिते ॥ ४८ ।। ९ वलिरः केकरे १० स्खोडे खञ्ज११स्त्रिषु जराऽघराः । १२ जडुलः कालकः पिप्लुः
१ ऊर्ध्वजुः ( + ऊध्वज्ञः' ), उर्ध्वजानुः (२ त्रि), 'बैठनेपर जिसकी जङ्घा ऊपरको उठी रहती हो उस' के २ नाम हैं ॥
२ संजुः ( + संज्ञः२), संहतजानुकः ( २ त्रि), 'सटे हुए जङ्घा वाले' के २ नाम हैं।
३ एडः, बधिरः ( २ त्रि), 'बहरा' के २ नाम हैं।
४ कुब्जः ( + न्युजः ), गहुल: ( + गहुः । २ त्रि), 'कृबड़ा' के २ नाम हैं।
५ कुकरः, कुणिः ( + कूणिः । २ त्रि), 'टेढ़े हाथवाले' के २ नाम हैं ,
६ पृश्निः ( + पृणिः ), अरूपतनुः (२ त्रि) छोटे शरीरवाले, नाटा' के २ नाम हैं ॥
७ श्रोणः, पङ्गुः (२ त्रि), 'पङ्ग' के २ नाम है ॥ ८ मुण्डः, मुण्डितः (२ त्रि), 'मुण्डन कराये हुये के २ नाम हैं ।
९ वलिः (+ बलिः ), कंकरः ( + काचरः, कावरः। २ त्रि), 'पंचकर देखनेवाले' अर्थात् 'एक भौंको ऊचा और एक भौं को नीचाकर देखनेवाले' के १ नाम हैं॥
१. खोडः (+खोला, खोरः), खाः (२ त्रि), 'लँगड़ा' के २ नाम हैं।
११ 'जरा' (२।६।४) शब्दके बाद से यहाँतक सब शब्द त्रिलिङ्ग हैं। ('उन में ग्रन्धकार के कथनानुसार सब शब्दोंको प्रायः पुंल्लिङ्ग में देकर लिङ्गनिर्देश में त्रिलिङ्ग लिखा गया है, अतः स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्गके रूपको स्वयं समझ लेना चाहिये')॥
१२ जडुलः (+ जटुलः ), कालकः, पिप्लुः ( ३ पु), 'लहसन' अर्थात् 'जन्म-काल से ही उत्पन्न शरीरके चित-विशेष' के ३ नाम हैं। १-२. अत्र मा० दो०--
'संजुः संहतजानौ च भवेत्संञ्चोऽपि तत्र हि । अवंजुरूवंजानुः स्यादूर्वज्ञोऽप्यूर्वजानुके' ॥ १ ॥ इति साहसाङ्कः, इति ।।
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२०४ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे
-१ तिलकस्तिलकालकः ॥ ४९ ।। २ अनामयं स्यादारोग्यं ३ चिकित्सा रुक्प्रतिक्रिया। ४ भेषजौषधभैषज्यान्यगदो जायुरित्यपि ।। ५० ॥ ५ स्त्री रुग्रुजा चोपतापरोगव्याधिगदामयाः । ६ क्षयः शोषश्च यक्ष्मा च ७ प्रतिश्यायस्तु पीनसः ॥५१॥ ८ स्त्री क्षुक्षुतं क्षवः पुंसि ९ 'कासस्तु क्षवथुः पुमान् । १० शोफस्तु श्वयथुः शोथः ११ पादस्फोटो विपादिका ।। ५२ ।। १२ किलाससिध्मे
१ तिलकः, तिलकालकः ( २ पु), 'तिल' अर्थात् 'काली तिल के समान देहके चिह-विशेष' के २ नाम हैं।
२ अनामयम् , आरोग्यम् (२ न), 'नीरोग' के २ नाम हैं।
३ चिकित्सा, रुक्प्रतिक्रिया (२ स्त्री), 'चिकित्सा' अर्थात् 'रोगको दूर करने के लिये दवा मादिके सेवन करने के २ नाम हैं।
४ भेषजम् , औषधम् , भैषज्यम् ( ३ न ), अगदः, जायुः (२ पु), 'दवा' के ५ नाम हैं। ___ ५ रुक (= रुज ), रुना (२ स्त्री), पतापः, रोगः, व्याधिः, गदः, भामयः (+आमः । ५ पु), 'रोग' के ७ नाम हैं ॥
६ क्षयः, शोषः, यवमा (= यवमन् । + राजयचमा = राजयचमन् । ३ पु), 'राजयक्ष्मा ( T. B.) रोग' के ३ नाम हैं ।
७ प्रतिश्यायः (+ प्रतिश्या), पीनसः (+ आपीनसः । २ पु.), 'पीनस रोग' के २ नाम हैं॥
८ सुत् (स्त्री), शुतम् (न), चवः (पु), 'छीक' के ३ नाम हैं । ९. कासः (काशः), क्षक्थुः (२ पु), 'खाँली' के २ नाम हैं । १० शोफा, श्वयथुः, शोथः ( ३ ), 'शोथ, सूजन' के ३ नाम हैं ।
"पादस्फोटः (पु), विपादिका (ना), 'बिवाय' अर्थात् 'पैर के तलवे में फटनेवाले रोग-विशेष' के २ नाम हैं ॥
१३ किलासम् , सिध्मम् ( + सिधमली । ३ न ), सेहुँआ, सिहुला' के २ नाम हैं।
१. 'काशस्तु क्षवथुः पुमान्' इति पाठान्तरम् ॥
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मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२०५ -१ कच्छां तु पामा पामा विचर्चिका । २ कण्डूः बर्जुश्च कण्डूया ३ विस्फोटः 'पिटकः स्त्रियाम् ॥ ५३ ॥ ४ वणोऽस्त्रियामीर्ममा क्लीबे ५ नाडीवणः पुमान् । ६ कोठो मण्डलकं ७ कुष्ठश्वित्रे ८ दुर्नामकार्शसी ॥५४॥ ९ आनाहस्तु विबन्धः स्याद् १० ग्रहणी रुक्प्रवाहिका । ११ प्रच्छर्दिका वमिश्च स्त्री पुमांस्तु वमथुः समाः ।। ५५ ॥
कक्छुःपामा (= पामन् , ' न ), पामा, विचर्चिका (४ स्त्री), 'गीली खुजली या खसरा' के ४ नाम हैं ।
२ कण्डः (+ कण्डः ), खजू, कण्डूया ( ३ स्त्री), 'खाज या खुजलाहट' के ३ नाम हैं।
३ विस्फोटः, पिटकः ( २ पु स्त्री । स्त्री० में 'विस्फोटा. पिटिका। + विटिका । + २ त्रि), 'फोड़ा' के २ नाम हैं ।
४ वणः(न), ईर्मम्, अरु: ( अरुस ।२ न), 'घाव या वण' के नाम हैं।
५ नाडीव्रणः (पु), 'सइन' अर्थात् 'सर्वदा पीब बहानेवाले बण-विशेष' का , नाम है।
६ कोठः (पु), मण्डलकम् (न) भा. दो० मतसे 'गजकर्ण रोग' 'अर्थात् 'जिससे शरीरमें गोले २ चकत्ते पड़ जायें उस रोग के २ नाम हैं।
७ कुष्ठम्, श्वित्रम् (२ न), भा. दी० मतसे 'सफेद कोट' अर्थात् 'चरक फूटने के २ नाम हैं । ("महे० मतसे 'कोठा,..." ४ नाम 'सफेद कोढ़'
८ दुर्नामकम्, अर्शः ( = भर्शस् । + अर्श । २ न), 'बवासीर' के २ नाम हैं। ___९ आनाहः, विबन्धः ( + विबन्धः। २ पु), 'जिसमें मल और मूत्र रुक जायं उस रोग' के २ नाम हैं ।
.१० ग्रहणी ( + ग्रहणिः, ग्रहणीरुक , = ग्रहणीरुज ) प्रवाहिका (२ सी), 'संग्रहणी' के २ नाम हैं।
" प्रच्छर्दिका, वमिः ( + वमी, स्त्री; वमः, पु। २ स्त्री), वमथुः (पु), 'धमन या उल्टी' के ३ नाम हैं ।
१. "पिटकलिषु" इति मा० दी० बी० स्वा० सम्मतं पाठान्तरम् ॥
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अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डे१ व्याधिभेदा विद्रधिः स्त्री ज्वरमेहभगन्दराः। २ "श्लीपदं पादवल्मीकं ३ केशधनस्त्विन्द्रलुप्तकः' (१५) ४ अश्मरी मूत्रकृच्छ्रे स्यात् ५ पूर्वे शुकावधेत्रिषु ।। ५६ ॥ ६ रोगहार्यगवङ्कारो भिषग्वैद्यौ चिकित्सके । ७ वार्तो निरामयः कल्य ८ उल्लाघो निर्गतो गदात् ।। ५७ ॥
विद्रधिः (स्त्री), ज्वरः, मेहः (+ प्रमेहः), भगन्दरः (३ पु), 'पेट आदि कोमल स्थानमें होनेवाला फोड़ा, ज्वर, प्रमेह और भगन्दर' (गुदाके बगल में होने वाला व्रण विशेष) का क्रमशः - नाम है। ये सब 'न्याधि भेद' हैं।
२ [ श्लोपदम्, पादवल्मीकम् ( २ न ), 'पीलपांव' अर्थात् 'जिसमें पैरके घुटने के नीचेका हिस्सा फूलकर बहुल मोटा हो जाय, उस रोग' के २ नाम हैं ] ॥
३ [ के शमः, इन्द्रलुप्तकः (२ न ), 'टुनकी लगना' अर्थात् 'जिसमें 'शिर आदिके बाल झड़कर गिर जाय, उस रोग' के २ नाम हैं ] ॥
४ अश्मरी (स्त्री), मूत्रकृच्छ्रम् (न), 'मूत्रकृच्छु' अर्थात् 'जिससे पेशाब करने में अत्यन्त कष्ट हो, उस रोग' के २ नाम हैं।
५ यहांसे आगे 'शुकम्' (२१६६१) के पहलेवाले सब शब्द त्रिलिङ्ग हैं ।
६ रोगहारी ( = रोगहारिन् ), अगदङ्कारः, भिषक (= भिषज), वैद्यः, चिकित्सकः ( ५ पु), 'वैद्य डाक्टर, कविराज, हकीम आदि दवा करने वाले के ५ नाम हैं । ( "ती. स्वा० मतसे 'रोगहारी, अगदङ्कारः' ये २ नाम 'औषध' के भी हैं")॥ ____७ वार्तः ( + वान्तः ), निरामयः, कल्यः (+ नीरोगः । ३ त्रि), महे. मतसे 'नीरोग' के ३ नाम हैं ॥
८ उल्लाघः (त्रि), महे• मतसे 'रोगसे शीघ्र ही छुटे हए' का , नाम हैं । ("भा० दो० मनसे 'वार्तः,......' ४ नाम 'नीरोग' के हो हैं")॥
१. अयं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यायामुपलभ्यत इत्यवधेयम् ॥
२. 'वान्तो निरामयः' इति पाठान्तरम् । अत्र मूलपाठ एव युक्तः, अग्रे ( नानार्थवर्गे) 'वात फरगुन्यरोगे च त्रिषु' ( ३१३१७६ ) इति स्वयं वक्ष्यमाणस्वात , '-वातै खारोग्यारोग. फल्गुषु' (अने० संग्र० २११९४ ) इति ईमोक्तश्चेत्यवधेयम् ॥
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मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२०७ १ ग्लानग्लास्नू २ आमयावी विकृतो व्याधितोऽपटुः ।
आतुरोऽभ्यमितोऽभ्यान्तः ३ समौ पामनकच्छुरी॥५८ ॥ ४ दगुणो दद्ररोगी स्या५दर्शोरोगयुतोऽर्शसः । ६ वातकी घातरोगी स्यात् ७ सातिसारोऽतिसारकी ।। ५९ ॥ ८ स्युः क्लिन्नाक्षे'चुल्लुचिल्लपिल्लाः क्लिन्नेऽधिश चाप्यमी। ९ उन्मत्त उन्मादवति १० श्लेष्मलः श्लेष्मणः कफी ॥ ६०॥ १ ग्लानः, ग्लास्नुः (२ त्रि), 'रोगसे खिन्न' के २ नाम हैं॥
२ आमयावी ( आमयाविन् ), विकृतः, व्याधितः, अपटुः, आतुरः, अभ्यमितः, अभ्यान्तः (+ रोगी = रोगिन् । ७ त्रि), 'रोगी' के ७ नाम हैं ॥
३ पामनः ( + पामरः), कच्छुरः (२ त्रि), 'गीली खुजलीवाले या खसरा रोगवाले' के २ नाम हैं। ... ४ बगुणः ( + द्रुणः, दर्गुणः, दगः ), दद्रुरोगी ( = दगुरोगिन् । + दगुरोगी = दद्भुरोगिन् । २ त्रि), 'दाद रोगवाले' के २ नाम हैं ॥
५ भरोगयुतः (भा० दी०), अर्शसः (२ त्रि), 'बवासीर रोगवाले' के २ नाम हैं।
६ वातकी (+ वातकिन्), वातरोगी ( = वातरोगिन् । २ त्रि), 'वात रोगवाले' के २ नाम हैं।
७ सातिसारः, अतिसारकी ( = अतिमारकिन् । + प्रतीसारकी अती. साकिन् । २ त्रि), 'अतिसार रोपवाले' के २ नाम हैं ।
८ क्लिनाक्षः ( महे), चुना, जिल्लः, पिल्लः, (४ त्रि), 'कोचरसे युक्त आँखवाले, ४ नाम हैं। प्रथम 'किलनाच' शब्दको 'छोड़कर शेष ३ नाम (चुखम् , चिल्लम् , पिल्लम् ; ३ न), 'कीचरसे युक्त आँख' के हैं। ('चुल्लः, चिल्लः, पिल्लः, ३ त्रि), 'आँस्त्रसे कीचर निकलनेवाले रोगविशेष' के भी ३ नाम हैं)॥
९ उन्मत्तः, उन्मादवान् ( = उन्मादवत् । + उन्मादी = उन्मादिन् । २ त्रि), 'पागल, उन्मादके रोगी' के २ नाम हैं ॥
१० श्लेष्मलः, श्लेष्मणः, कफी (= कफिन् । ३ त्रि), 'कफवाले रोगी' के ३ नाम हैं ।
१. 'चुलः चक्षुरोगविशेषः, तद्योगाचुलं चक्षुः। चुलचक्षुष्वाचुल: पुरुषोऽपीत्यवधेयम् ॥
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२०८
अमरकोषः
[द्वितीयकाण्डे१ न्युजो भुग्ने रुजा २ वृद्धनाभौ 'तुण्डिलतुण्डिभौ । ३किलासी सिमलोधोऽस५मूर्छाले मूर्तमूञ्छितौ॥ ६१ ॥ ६ शुक्र तेजोरेतली च बीजवीर्येन्द्रियाणि च । ७ मायुः पित्तं ८ कफः श्लेष्मा ९ स्त्रियां तु त्वगसृग्धरा ॥२॥ १० पिशितं तरसं मांसं पललं कव्यमामिषन् । ११ उत्तप्तं शुष्कमांसं स्यात्तद्वल्लूरं त्रिलिकम् ।। १३॥ १ न्युब्जः (त्रि), 'रोगसे कुबड़ा' का नाम है ॥
२ वृद्ध नामिः, तुण्डिलः ( +तुन्दिलः), तुण्डिभः (+तुभिः । ३ त्रि), ढोढर' अर्थात् 'कब्ज आदिके कारण बढ़े हुए नाभिवाले' के ३ म हैं ।
३ किलासी ( = किलासिन् ), सिध्मल: (२ त्रि), 'मिहुला, सेंहुआ या पपड़ीवाले रोगी' के २ नाम हैं।
४ अन्धः, बहक ( = महश । २ त्रि), 'अन्धा, सूर' के २ नाम हैं । ५ मूर्छालः, मूर्तः, मुछितः (३ त्रि), '
मूर्छा या मृगो रोगवाले' के ३ नाम है॥
६ शुकम्, तेजः (= तेजस), रेतः ( = रेतस्), बीजम् (+वीजम् ), वीर्यम् , इन्द्रियम् (६ न ), 'वीर्य' अर्थात् 'मनुष्य के शरीरस्थ स्निग्ध तथा श्वेतवर्ण धातु' के ६ नाम हैं।
७ मायुः (पु), पित्तम (न), 'पित्त' के २ नाम हैं ॥ ८ कफः, श्लेष्मा (= श्लेष्मन् । २ पु), 'कफ' के २ नाम है ॥
९ स्वक् ( 3 स्वच् । + स्वचा, पुः + स्वचा, स्त्री), अमृग्धरा ( + अस्. ग्धारा । २ स्त्री), 'चमड़ा' के २ नाम हैं ।
१० पिशितम तरसम्, मांसम् , पललम्, ऋव्यम् आमिषम् (६ न), 'माल' के ६ नाम हैं।
11 उत्तम, शुष्कमासम् (२ न), यल्लूरम् (+ वल्लुरम् । त्रि), 'सूखे मांस' के ३ नाम हैं।
१. 'तुन्दिलतुन्दिमौ' इति पाठान्तरम् । अत्र मूलपाठ एव समोचीनः, यतः 'तुण्डिरुन्नतनाभिस्तुन्दिस्तु जठरः इति क्षी० स्वा० उक्त्या वृद्धनाभियुक्तस्यैव पर्यायतौचित्यप्रतीतेः ।। २. अत्र नैरुक्ताः-'मां स मक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसस्व निरुतं मुनिरब्रवीत् ॥ १॥ इति क्षी० स्वा ।।
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मणिप्रभा व्याख्या सहितः
१ रुधिरेऽसृग्लोद्दितास्ररक्तक्षत जशोणितम् ।
२ बुक्काऽग्रमांसं ३ हृदयं हृद् ४ मेदस्तु वपा वसा ॥ ६४ ॥ ५ पश्चाद् ग्रीवाशिरा मन्या ६ नाडी तु धमनिः 'शिरा । ७ तिलकं क्लोम ८ मस्तिष्कं गो९ अलोऽम् ॥ ६५ ॥
मनुष्यवर्गः ६ ]
१ रुधिरम् असृक् ( = असृज् ), लोहिनम् अस्त्रम रसू, क्षतजम्, शोणितम्. ( ७ न ), 'रक्त, खून' के ७ नाम हैं ॥
२ बुक्का ( स्त्री । + बुक्का = बुक्कन्, पु । + बुक्का, वृक्का; २ स्त्री ), अग्रमांसम् (न। + बुक्काग्रमांम, न ) 'कलेजा' अर्थात् 'हृदय के भीतरवाले कमल के समानाकार मांस पिण्ट-विशेष' के २ नाम हैं ॥
६ नाम हैं ॥
13
३ 'हृदयम, हृत् ( = हृद् । २ न ), 'हृदय' के १ नाम हैं । "बुका ४ नाम 'हृदय' के हैं, किसीका यह भी मत है" ) ॥ = मेदस् । + मेदः । न ) वपा, वसा ( २ स्त्री ), 'चर्बी'
४ मेदः (
,
५ मन्या (स्त्री), 'गर्दन के पीछेवाली नस' का १ नाम है ॥
६ नाडी, धमनिः ( = धमनी ), शिरा ( + सिरा । ३ स्त्री ), 'नस के ३ नाम है ॥
७ तिलकम, क्लोम ( = क्लोमन् । २ न ), 'पेट में जल रहनेके स्थान' के २ नाम हैं ॥
२०६
८ मस्तिष्कम् ( + मस्तिकम् ), गोर्दम् ( + गोदः, पु । २ न ), 'दिमाग, मस्तिष्क, माइण्ड' के २ नाम हैं ॥
९ किट्टम ( न ), मलम् ( पु न ), 'नाक, कान आदिके बारह मल' के २ नाम हैं ॥
१. "सिरा" इति पाठान्तरम् ॥
२. तदुक्तम् - "पद्मकोशप्रतीकाशं रुचिरं चाप्यधोमुखम् ।
हृदयं तद्विजानीयाद्विश्वस्यायतनं महत्" ॥ १ ॥ इति ॥ ३. 'पद्मकोशप्रतीकाशम् इत्यनुरोधादिदमेव समीचीनं प्रतिभाति ॥ ४. तदुक्तं मनुना - ' वसा शुक्रमसूक्ष्मज्जा मूत्रविड् घ्राणकर्णविट् । इलेष्माश्रु दूषिका स्वेदो द्वादशैते नृणां मलाः ॥ १ ॥ इति मनुः ५/१३५
१४ अ०
...$
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अमरकोषः :
[ द्वितीय काण्डे
१ अन्त्रं पुरीतद् २ गुल्मस्तु प्लीहा पुंस्य ३थ वस्नसा । स्नायुः स्त्रियां ४ कालखण्ड्यकृती तु समे इमे ॥ ६६ ॥ ५ सृणिका स्पन्दिनी लाला ६ दूषिका नेत्रयोर्मलम् । ७ ' नासामलं तु सिङ्घाणं ८ पिकंजूषः कर्णयोर्मलम् ' (१५) ९ मूत्रं प्रस्राव १० उच्चारावस्करी शपलं शकृत् ॥ ६७ ॥ 'पुरीषं गूथवर्चस्कमस्त्री विठाविशौ स्त्रियौ ।
१ अन्त्रम् ( + आन्त्रम् ), पुरातत् ( २ न ), "आँत' के २ नाम हैं ॥ • gan:, czîzi ( = cáigą | + caigi = caigi, zat ia g), 'गुल्म रोग' अर्थात् 'हृदय को दायाँ कोख में होनेवाले मांस-पिण्ड विशेष' के २ नाम हैं ॥
३ वस्त्रता, स्नायुः ( २ खी ), 'प्रत्येक अङ्ग उपालके जोड़की नस' के २ नाम हैं ॥
४ कालखण्डम् ( + कालखञ्जम् ), यकृत् ( २ न ), 'यकुत्' अर्थात् 'हृदयकी दाहिनी कोख में होनेवाले मांसपिण्ड विशेष' के २ नाम हैं ॥
५ सृणिका ( + सृणीका ), स्यन्दिनी, लाखा ( ३ स्त्री), 'लार' के ६ नाम हैं ॥
६ दूषिका ( + दूषीका । स्त्री ), 'कीचर' का १ नाम है ॥
19
[ नासामलम्, सिङ्घाणम् ( २ न ), 'नकटी, नेटा' अर्थात् 'नाक की मै' के नाम हैं ] ॥
८ [ पिम्जूषम् ( न ), 'खोट' अर्थात् 'कानकी मैल' का १ नाम है ॥ ] ९ सूत्रम् (न), प्रस्तावः (पु), 'पेशाब' के २ नाम हैं ॥
१० उच्चारः, अवस्करः ( २ ), शमलम, शहृत्, पुरीषम् ( ३ न ),
मत्र मा० दी ० तु 'कर्णविण्मूत्रविण्नखाः' इत्येवं तद्भिन्नमेव द्वितीयचरणमाहेश्य वधेयम् ॥ प्रसङ्गादेतेषां निर्गमस्थानानि गरुडपुराणोक्तानि लिख्यन्ते -
"द्वारैर्द्वादशभिभिन्न किट्टू देहाद्वहिः स्रवेत् । कर्णाक्षिनासिका बिहा दन्ता नाभिनंखा गुदम् ॥
शिरा वपुकम मलस्थानानि चक्षते ॥ इति ग० पु० १५ । ६०-६१ ॥ १. "पुरीषं गूथं वर्चस्कमस्त्री विष्ठाविषौ खियो” इति "गूयं पुरीषं वर्चस्कमस्त्री विधाविषौ थियो” इति च क्रमशः श्री० स्वा० मा० दी० सम्मते पाठान्तरे ॥
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मनुष्यवर्गः ६ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२११
१ स्यात्कर्परः कपालोऽस्त्री २ कीकसं कुल्यमस्थि च ॥ ६८ ॥ ३ स्याच्छरीरास्थिन कङ्कालः ४ पृष्ठास्थिन तु कशेरुका । ५ शिरोऽस्थनि करोटिः स्त्री ६ पार्श्वास्थिनि तु पर्शुका ॥ ६९ ॥ ७ अङ्कं प्रतीकोऽवयवोऽप ८ ऽथ कलेवरम् ।
मात्र वपुः संहननं शरीरं नर्म fane: !! Go || कायो देदः क्लीवपुंसोः स्त्रियां सूरितुस्तनूः । ९ पादाग्रं प्रपदं १० रदः पदरिणोऽस्त्रियाम् ॥ ७१ ॥ गूथम्, वर्चस्कम् ( २ पु न ), विष्ठा, विट् (= विशू । + विट् विष् । २ स्त्री ), 'विष्ठा, पाखाना' के ९ नाम हैं ॥
१ कर्पूरः ( पु ), कपालः ( पु न ) 'कपाल' के २ नाम हैं ॥
२ कीकसम, कुल्यम्, अस्थि ( ६ न ), 'हड्डी' के ३ नाम हैं ॥
३ ( + शरीरास्थि न ), कङ्कालः ( + करङ्कः । पु), 'कङ्काल' ठठरी' का १ नाम है ॥
४ ( + पृष्ठास्थिन ), 'पीठके बोचकी हड्डी' का १
कशेरुका ( + कशारुका । स्त्री ), 'रीढ़' अर्थात् नाम है ॥
करोटि ( + करोटी । स्त्री), 'खोपड़ी' का
५ ( + शिरोऽस्थि न ), १ नाम है ॥
६ ( + पार्श्वास्थि, न), पर्शु का ( + पशूंः । ख), 'पंजड़ो' का १ नाम है ॥ ७ अङ्गम् ( न ), प्रतीकः, अवयवः, अपघनः ( ३ पु ), 'शरीर के मन' ४ नाम हैं । ( 'जैसे - हाथ, पैर, शिर, मुख, " ') "
.......
८ कलेवरम्, गात्रम्, वपुः (= वपुष् ), संहननम्, शरीरम्, वर्म ( = वर्त्मन् । ६ म ), विग्रहः कायः ( २ पु ), देहः ( पु न ), मूर्ति, तनुः ( + तनुः = तनुस् ), तनूः (३ त्री), 'शरीर, देह' के १२ नाम हैं ॥
"
९ पादाग्रम् प्रपदम् ( १ न ), 'पैरका चौवा' अर्थात् 'पैर के आगे वाले हिस्से' के २ नाम हैं ॥
१० पादः, पत् ( = पद् + पदः ) अङ्घ्रिः ( ३ पु ), चरण: ( पु न ), 'पैर' के ४ नाम हैं ॥
१. 'पोऽश्विरोऽखियाम्' इति श्री० स्वा० व्याख्यानुसारि पाठान्तरम् ॥
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२१२ अमरकोषः ।
[ द्वितीयकाण्डे१ तद्ग्रन्थी घुटिके गुल्फो २ पुमान्पाणिस्तयोरथः । ३ जङ्घा तु प्रसृता ४ जानूरुपर्वाऽष्ठीवदस्त्रियाम् ।। ७२ ॥ ५ सक्थि क्लीबे पुमानूरु ६ स्तत्मन्धिः पुंसि वक्षणः । ७ गुदं स्वपानं पायुर्ना ८ वस्ति भेरधो द्वयोः ॥ ७३ ।। ९ कटी मा श्रोणिफलक १० कोटः श्रोणिः ककुभती। ११ पश्चानितम्बः स्त्रीकट्याः १२ क्लीवे तु जधनं पुरः ।। ७४ ।। १३ कूपको तु नितम्बस्थौ द्वयहीने कुकुन्दरे ।
, घुटिका (स्त्री), गुरुफः (पु), 'पैरकी घुट्टी' के २ नाम हैं ॥ २ पाणिः (पु), 'पैरकी घुट्टीके नीचेवाले हिस्से' का १ नाम है ॥ ३ जङ्घा, प्रसृता (२ स्त्री), 'जंघा' के २ नाम हैं ॥
४ जानु, ऊरुपर्वा (= उरुपर्वन् । २ न), अष्ठीवत् (पु न । भा० दी. मतसे ३ पु न ), 'घुटना, ठेहुन' के ३ नाम हैं ।
५ सविथ ( = सक्थिन् न ), ऊरुः (पु), 'घुटनेके ऊपरवालो हिस्से' के २ नाम हैं।
६ वङ्खणः (पु), 'घुटना तथा उसके ऊपरके जोड़' का १ नाम है ॥
७ गुदम् , अपानम् (२ न), पायुः (पु), 'पाखानाके रास्ता' के २ नाम हैं॥
८ वस्तिः (पु स्त्री) 'मूत्राशय' का । नाम है ॥
९ कटः (पु), श्रोणिफलकम् ( न, मा. दी०), कमरके दोनों बगल' के २ नाम हैं ॥
१. कटिः (+ कटी), श्रोणि: (+ श्रोणी ), ककुद्मती ( ३ स्त्री), 'कमर' के ३ नाम हैं। ( 'अन्याचार्यों मतसे 'कटः,.......५ नाम 'कमर' के हैं')॥
११ निलम्यः (पु) स्त्रियों के चूतड़' का । नाम है ॥ १२ जघाम ( न ), 'स्त्रियोंकी जंघा' का १ नाम है ॥
१३ + कूपकः (पु), कुकुन्दरम् ( + ककुन्दरम् । न) 'चूतड़पर पृष्ठ-वंशके नीचेवाले गः' के १ नाम हैं ।
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मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
२१३ १. स्त्रियां स्फिचौ 'कटिमोथाऽवुपस्थो वक्ष्यमाणयोः ॥ ७ ॥ ३ भगं योनियोः ४ शिश्नो मेढो 'मेहनशेफसी। ५ मुष्कोऽण्डकीयो वृषणः ६ पृष्ठवंशाधरे त्रिकम् ।। ७६ ॥ ७ पिचण्डकुक्षी जठरोदरं तुन्दं . स्तनौ कुची। ९ चूचुकं तु कुचाग्रं स्याद् १० न ना कोडं भुजान्तरम् ।। ७७ ॥
स्फिक् ( = स्फिच , स्त्री ) कटिप्रायः ( + कटाधा, कारः ) प्रोथः, प्रोहः । पु), 'कुल्हा' अर्थात् 'कमरमें होने वाले मांस-पिण्ड के २ नाम हैं ।
२ उपस्थः (पु न ) 'भग और लिंग' अर्थात् 'स्त्री या पुरुषके पेशाब करनेके रास्ता' का । नाम है ॥
३ भाम् ( न ), योनिः ( पु स्त्री) 'स्त्रीके पेशाब करनेके रास्ता' के २ नाम हैं।
४ शिश्न:, मेढ़ः (२ पु ), मेहनम् , शेफः ( = शेफस। शेषः = शेपस् , शेफः = शेफ, शेषः = शेष । २ न), 'शिश्न, पुरुषके पेशाब करनेके रास्ता' के ४ नाम हैं ॥
५ मुष्कः, अण्डकोशः ( + अण्डकोषः ), वृषणः (३ पु), 'अण्डकोश, फोता' के ३ नाम हैं ॥
६ त्रिकम् ( न ), 'पीठकी रीढके आधारपर तीन हड्डियोंके जोड़वाले स्थान-विशेष' का । नाम है ॥
७ पिचण्डः ( + पिचिण्डः ), कुदिः (२ पु), जठरम् ( + पु), उदरम् , तुन्दम् ( ३ न ), 'पेट' के ५ नाम हैं।
८ स्तना, कुचः ( + पयोधरः वक्षोजः । २ पु), 'स्तन' के २ नाम हैं॥
९ चूचुकम् ( + चुचुकम् । +पु ), कुनामम् (२ न) 'स्तनके ऊपर वाले काले भाग' के २ नाम हैं ॥
१. क्रोडम् (न स्त्री), भुजान्तरम् (+ अङ्कम् । न), 'गोदी' के २ नाम हैं। १. 'कटीप्रोथावुरस्थो' इति पाठान्तरम् । पृथङ नामदयमिति मते तु 'कटी प्रोथावुपस्यो' इति पाठान्तरम् ।।
२. नेहनशेपसी' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'पिचिण्डिकुक्षी' इति पाठान्तरम् । ४. चुचुकं तु' इति पाठान्तरम् ॥
५. 'शेफशेष' शब्दयोरदन्तत्वादेव 'शेपपुच्छलाङगुलेषु शुनः' (वा० ३९०१) इति वातिकसङ्गतिरन्यथा सान्तत्वे मध्ये विसर्गस्यापि वक्तुमौचित्यम् ।।
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२१४
अमरकोषः।
[हितीयका१ उरो वत्सं च वक्षश्च २ पृष्ठं तु चरमं तनोः । ३ कन्धो भुजशिरोऽसोऽस्त्री ४ सन्धी तस्यैव जत्रुणी ।। ७८॥ ५ बाहुमूले उभे कक्षौ ६ पार्श्वमस्त्री तयोरधः ।
मध्यमं चावलग्नं च मध्योऽस्त्री ८ हो परौद्रयोः॥ ७९ ॥ भुजयाहू प्रवेधी दोः स्यात् ९ कफोणिस्तु कर्परः।
, उरः ( = उम्स), वरसम् , वक्षः ( = वक्षस् । ३ न ), 'छाती' के ३ नाम हैं। ('कोडम ,.....' ५ नाम 'छाती' के हैं, यह अन्य आचार्यों का मत है)
२ पृष्ठम् (न), 'पीठ' का । नाम है।
३ स्कन्धः (पु), भुजशिरः ( = भुजशिरस् , न), अंस: (पु न), 'कन्धे के ३ नाम हैं।
. लत्रु (न) 'कन्धे के जोड़' का नाम है ॥ ५ बाहुमूलम् (न), कक्षः (+कपः । पु), 'काँख के नाम हैं।
पार्थम् (न पु), 'कोख' अर्थात् 'कॉखके नीचेवाले भाग' का १ नाम है॥
७ मध्यमम् , अवलमम् ( + विलमम् । २ न), मध्यः (पुन । +३ पु न' ) 'शरीरके मध्य भाग' के ३ नाम हैं।
८ भुजः, बाहुः (+वाहः । २ पु स्त्री), प्रवेष्टः, दोः (= दोस् । + दोषा, सी भागु । २ पु), 'बाँह' के नाम हैं।
९ कफोगिः ( +'कफणिः, कपोणिः । पु स्त्री) कूपरा ( + कर्परः। पु) 'केहुनी' + २ नाम हैं।
१. स्यात्कयोणिस्तुति पाठान्तरम् ।।
२. --मध्यमो मध्यजेड-पवन । पुमान् स्वरे मध्यदेशेऽप्यवलग्ने तु न खियाम्' (मेदि. पृ० ११८ को० ४९-५०) इति 'अवनोऽखियां मध्ये त्रिषु स्थालममात्रके' (मेदि०१० १०० श्लो० ५०.) इति मेदिन्युक्तः 'अखी' त्यस्य त्रिमिः सम्बन्धः समीचीनः प्रतिमातीत्यवयम् ।।
३.'कफोणिः कफणिर्दयोः' इति शब्दार्णवात 'कफणिः कूपरः स्मृतः (अमि० रत्न० २ ३७८) इति हलायुधाच्चेस्यवधेयम् ॥
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मनुष्यवर्ग:५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२१५ १ अस्योपरि प्रगण्डः स्यात् २ प्रकोष्ठस्तस्य चाप्यधः ।। ८०।। ३ मणिबन्धादाकनिष्ठं करस्य करभो बहिः। ४ पञ्चशाखः 'शयः पाणि ५ स्तर्जनी स्यात्पदेशिनी ।। ८१ ॥ ६ अगुल्यः करशालाः स्युः ७ पुंस्यङ्गुष्ठः प्रदेशिनी ।
मध्यमाऽनामिका चापि कनिष्ठा चेति ताः क्रमात् ॥ ८२ ॥ ८ पुनर्भवः कररुहो नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रियाम् । ९ प्रादेश
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१ प्रगण्डः (पु) केहुनीके ऊपरवाले भाग' का । नाम है ॥ २ प्रकोष्टः (पु। + न), 'केहुनीके नीचेवाले भाग' का १ नाम है ॥
३ करमः (पु), 'हाथकी कलाईसे कनिष्ठातकवाले बाहरी मांसल भाग' का नाम है।
४ पञ्चशाखः, शयः (+ शमः, शवः), पागिः (३ पु), 'हाथ' के ३ नाम हैं।
५ तर्जनी, प्रदेशिनी ( + प्रदेशनी । २ स्त्री), 'तर्जनी' अर्थात् 'अँगूठेके पासवाली अंगुली' के २ नाम हैं ॥
६ अङ्गुली ( + अङ्गुलिः, अङ्गुरिः, २ सी; अङ्गुल।, पु), करशाखा (२ सी), 'अङ्गुली' के २ नाम हैं ॥
७ अङ्गुष्टः (पु), प्रदेशिनी ( + प्रदेशनी), मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा ( ४ स्त्री), अंगूठेसे लेकर कनिष्ठा तकवाली प्रत्येक अङ्गुली' का क्रमशः १- नाम है।
८ पुनर्भवः ( + पुनर्नवः ), कररुहः ( २ पु ), नखः, न स्वरः ( + त्रि। २ पु न ), 'नाखून' नह' के ४ नाम हैं।
९ प्रादेशः (पु), 'फैलाये हुए तर्जनी और अंगूटे बीच के प्रमाणविशेष' का नाम है॥
. १. 'शमः पाणिस्तजनो स्यात्प्रदेशनी' इति पाठान्तरम् । नाममाला तु 'पाणिः शयः शमी इस्वः' इत्युमयं पपाठ' इति क्षो० स्वी.॥
२. 'पुनर्नवः' इति पाठान्तरम् ॥
३. मनया ब्रह्मणश्शिरश्छेदनादपवित्रवेन नामग्रहणायोग्यतया 'अनामिका' इति नाम: प्रसिद्धिः । अत एव यशाबवसरेऽस्यां दर्भमयं पवित्र धार्यत इत्यवधेयम् ॥
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२१६
अमरकोषः। [द्वितीयकाणे-- -१ तालरगोकर्णास्तर्जन्यादियुते तते ।। ८३ ॥ ३ अङ्गुठे सकनिरे स्थाद्वितस्ति-दशाङ्गुलः । ४ पाणी चोटमतलहस्ता विस्तृताङ्गुलौ ॥ ८४ ॥ ५ 'द्वौ संहतो सिंहतलप्रतली वामदक्षिणी । ६ पाणिनिकुजः प्रसूति ७ स्तौ युनावञ्जलिः पुमान् ॥ ८५ ।। ८ प्रकोष्ठे विस्तृतको हस्तो ९ मुष्टया तु बद्धया।
सरनिः स्या १० दरनिस्तु निष्कनिष्ठेन भुष्टिना ।। ८६ ॥ १ ताला (), 'फेलाये हुए मध्यमा मोर अंगूठे के बोचके प्रमाणविशेष' का । नाम है ॥
५ गोकर्णः (पु), 'फैलाये हुए अनामिका और अंगूठेके बीचके प्रमाण-विशेष' का १ नाम है ॥
३ वितस्तिः (पु स्त्री), द्वादशाङ्गुलः ( भा. दो०, पु ), 'वित्ता' अर्थात् फैलाये हुए कनिष्ठा और अँगूठेके वाचके प्रमाण-विशेष' के २ नाम हैं ।
४ चपेटः (+ चर्पटः, पु, + चपेटा, चपेटिका; २ स्त्री ), प्रनलः ( + तला, तालः), प्रहस्तः ( ३ पु). 'थप्पड़, चटकन, के ३ नाम हैं ॥
५ सिंहतलः (+ संहतलः, सिंहतालः), प्रतलः ( २ पु) अङ्गनी फैजाये हुए दोनों हाथों को सटाने के २ नाम हैं।
६ प्रसूतिः (स्त्री। + मृतः, पु ), 'टेड़े किये ( समेटे ) हुए हाथ' का नाम है ॥
७ अङ्गालः (पु), 'अञ्जलि' का नाम है ॥
८ हस्तः (पु) 'एक हाथ' अर्थात् 'दा वित्ता या चाबी अङ्गुल के प्रमाण-विशेष' का नाम है।
९ रनिः ( + सानिः । पुम्नी), 'निमूट ( मुईको बाँधकर ) हायसे नापे हुए प्रमाण-विशेष' का नाम है ॥
१० अररिनः (स्त्रो पु), 'कनिष्ठा अङ्गुलोको फेलाये हुए मुट्ठो बांध. का हाथले नापे हुए प्रमाण-विशेष' का । नाम है ॥
१. द्वौ संहती सिंहतलः प्रतलौ' इति मुकु० सम्मतं पाठान्तरम् । 'दो संहतो संहतला. तलो' इति च पाठान्तरम् ॥ २. 'पाणिनिकुञ्जः' इत्यपपाः ' इति शी० स्वा० ॥
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मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ व्यामो बाह्रोः सकरयोस्ततयोस्तिर्यगन्तरम् । २ ऊर्ध्वविस्तृतदोप्पाणिनृमाने पौरुषं त्रिषु ।। ८७ ।। ३ कण्ठो गलो ४ऽथ ग्रीवायां शिरोधिः कन्धरेत्यपि । ५ कम्बुग्रीवा त्रिरेखा सा ६ ऽवटुर्घाटा काटिका ।। ८८॥ ७ वक्त्रास्ये वदनं तुण्डमाननं लपनं मुखम् । ८ क्लीबे घ्राणं गन्धवहा घोणा नाला च नासिका ।। ८९ ॥ ९ ओटाधरौ तु रदनच्छदौ दशनवाससी।
। व्यामः (पु), 'दोनों तरफ दानों हाथोको फैलाकर नापे हुए प्रमाण-विशेष' का नाम है।
२ पौरुषम् (त्रि), 'पोरसासे नापे हुए प्रमाण-विशेष' का । नाम है । ( 'खड़े होकर हाथको ऊपर उठाने पर जो प्रमाण होता है, असे 'पोरसा' कहते हैं, यह ४३ हाथका होता है)
३ कण्ठः, गलः, (२ पु), 'कण्ठ' के २ नाम हैं । ४ ग्रीवा, शिरोधिः, कन्धरा ( ३ स्त्री), 'गर्दन' के ३ नाम हैं ।
५ कम्वुग्रीवा (स्त्री), 'शङ्ख के समान तीन रेखावाली गर्दन' का ' नाम है।
६ भवटुः, घाटा, कृकाटिका ( ३ स्त्री ), 'घाँटो' के ३ नाम हैं । ('भा० दी. मतसे 'गर्दनके ऊपरवाले भाम' के और स्वा० मु० मतसे 'गर्दनके पीछेवाले भाग' के ये ३ नाम हैं)॥
७ वक्त्रम्, आस्यम्, वदनम्, तुण्डम्, आननम्, लपनम्,' सुखम् (७ न), 'मुखके बिल' के और उपचारसे 'मुखमात्र' के ७ नाम हैं ॥
८ घ्राणम् (न), गन्यवाहा, घोणा, नासा ( +सा, नस्या), नासिका ( + कुरषा, सिद्धाणी । ४ स्त्रो). 'नाक' ५ नाम हैं ।
९ ओष्ठः, अधरस, रदनच्छ.. ( ३ गु), दशनवासः (= दशनवासस्, न), 'ओठ' के ४ नाम हैं॥
१. मुम्बशब्दस्थ माधुत्वप्रकारो निरुक्त प्रोक्तस्तथा दि
'प्राक्खनो मुडदात्तश्च ततोऽच्च प्रत्ययो भवेत् । प्रजासजा यतः खातं तस्मादाहुभुखं बुधाः ॥ १॥ इति ।
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२१८ अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डे१ अधस्ताशिबुकं २ गण्डौ कपोलौ ३ ततारा हनुः ॥९०॥ ४ रदना दशना दन्ता रक्षा ५ स्तालु तु काकुदम् । ६ रसमा रसना जिह्वा ७ प्रान्तावोष्ठस्य' सृविती ।। ६२ ८ ललाटमलिकं गोधि ९ का अग्न्यां वो स्त्रियो। १० कूर्चमस्त्री भ्रवामध्यं ११ तारकाऽक्ष्मः कनीनिका ।। ९२ ।। १२ लोचनं नयनं नेत्रमीक्षणं चक्षुरक्षिणी।
इग्दृष्टी. चिबुकम् (न), 'आंठ और ठुड्ढीके नीचेवाले भाग' का । नाम है। २ गण्डः , कपोल: (+कटः । २ पु), 'गाल' के २ नाम हैं । ३ हनुः (स्त्री), 'दाढी, लुडढी' का नाम है ।
४ रदनः, दशनः, दन्तः (+दंष्ट्रा, स्त्रो), रदः ( ४ पु ), 'दाँत' के ४ नाम हैं।
५ तालु, काकुदम, (२न), 'तालु' के २ लाम हैं ।
६ रसज्ञा, रसन्ना ( + रशना । +न'), जिह्वा ( + लोला। ३ स्त्री) 'जीभ'के ३ नाम हैं।
७ सृक्विणी ( = सृविती स्त्री । + सृकिणी = मुकिणी स्त्री; मृति - मृछिन् , - सृक्ति; सृक = सृक्छन् ; सूकम-सृक, सृक्ति-मकन् , = सृक्कि; सृक 3 सकन् ; सूकम् = सूक्क ८ न ), 'मोठझे दानों किनारों' का १ नाम है ॥
८ ललाटम, अलिकम् ( = लीकम्, भलम । २ न ), गोभिः (पु), 'बलाट' के ३ नाम हैं।
९ भ्रः (स्त्री), 'मोह' का नाम है ॥ १.कूर्चम् (न पु), 'दोनों भौहर बीचवाले भाग' का १ नाम है ।
" तारका, कनीनिका (भा. दो०,ही. स्वा० । २ स्त्री) 'आँखकी पुतली' के नाम हैं।
१९ोचनम् (+विलोचनम् ), नयनम्, नेत्रम्, ईक्षणम्, चतुः (=चनुस्, अलि(६न), हक (%D श), दृष्टिः (२ स्त्री), 'आँख' के ८ नाम हैं ।
१. सकिणी" इति पाठान्तरम् ॥ २. या श्रीहर्ष:-"पित्तेन दूने रसने..." इति नैषधः ॥ ३१९४ ॥
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मनुष्यवर्गः ६ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ चानु नेत्राम्बु रोदनं चात्रमधु च ॥ ९३ ॥ २ अपाङ्गी नेत्रयोरन्ती ३ कटाक्षोऽपाङ्गदर्शने । ४ कर्णशब्दग्रहौ श्रोत्रं श्रुतिः स्त्री श्रवणं श्रवः ॥ ९४ ॥ ५ उत्तमाङ्गं शिरः शीर्ष मूर्धा ना मस्तकोऽस्त्रियाम् ।
६ चिकुरः कुन्तलो वालः कचः केशः शिरोरुहः ।। ९५ ।। ७ तदूवृन्दे कैशिकं कैश्य ८ मलकाश्चर्ण कुन्तलाः ।
९ ते लताटे भ्रमरकाः १० काकपक्षः शिखण्डकः ॥ ९६ ॥
.
१ असु, नेत्राम्बु, रोदनम्, अस्रम् अश्रु ( + बाष्पम् । ५ न ), 'आँसू' के ५ नाम हैं ॥
२१६
२ अपाङ्गः ( पु ), 'आँखों के किनारेवाले भाग' का १ नाम है ॥
३ कटाक्षः ( पु ), ( + अपाङ्गदर्शनम्र, न ), 'कटाक्ष' का नाम है ॥ ४ वर्णः, शब्दग्रहः ( २ पु ), श्रोत्रम्, श्रुतिः (स्त्री)
श्रवणम्, श्रवः
( = श्रवस् । शेष ३ न ), 'कान' के ६ नाम हैं ॥
५ उत्तमाङ्गम् ( + वराङ्गम् ), शिरः ( = शिरस् । + शिरः = शिर, ' पु), शीर्षम् ( ३ न ), मूर्धा (= मूर्धन्, पु ); मस्तकः ( पुन ), 'सिर' मस्तक' के ५ नाम हैं ॥
६ चिकुरः ( + चिकूरः, चिहुरः ), कुन्तलः, बाळ ( + बालः ), कचः, देशः, शिरोरुहः ( + शिरसिजः, मूर्ध्वजः । ६ पु ), 'केश, बाल' के ६ नाम हैं ॥ ७ कैशिकम्, कैश्यम् ( १ न ), 'केशके समूद' का १ नाम है ॥ ८ अलकः, चूर्णकुन्तलः ( २ पु ), अंगूठिया बाल' के २ नाम हैं |
९ भ्रमरकः ( पु ), 'काकुल' अर्थात् 'बुलबुली यानी ललाटपर लटके हुए बाल' का नाम है ।
१०] काकपक्षः, शिखण्डकः ( + शिखाण्टकः । २ पु ), 'काकपक्ष' अर्थात् 'लड़कों का जूड़ा, जुलुफी, शिखा सामान्य के २ नाम हैं ।
१. "शिरोवाची शिरोऽदन्तो रजोवाची रजस्तथा' इत्युक्तेरिति बोध्यम् ॥
२. 'कुन्तला मूर्धजाः शस्ताश्चिकुराधिहुरास्तथा' इति दुर्गोक्तेः । किन्तु 'चिहुर' शब्दस्य प्राकृत एव बाहुल्येन प्रयोग उपलभ्यते न तु संस्कृत इत्यवधेयम् ॥
३. "क्षत्रियाणां चूडा 'काकपच' इति गौडः इति श्री० स्वा० ॥
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२२०
अमरकोषः। [द्वितीयका१ 'कबरी केशवेशोऽ २५ धम्मिलुः संयताः कचाः। ३ शिखा चूडा केशपाशी४ वतिनस्तु जटा सटा ।। ९७ ।। ५ वेणिः प्रवेणी ६ शीर्षण्यशिरस्यो विशदे कचे। ७ पाशः पक्षश्च हस्तश्च कलापार्याः कचात्परे ॥ ९८ ॥ ८ तनूरुहं रोम लोम ९ तवृद्धौ श्मश्र पुंमुखे । १० आकल्पवेषौ नेपथ्यं
१ कबरी (+ कवरी। स्त्री), केशवेशः ( + केशवेषः । पु), 'बालके रचना-विशेष' के २ नाम है ॥
२ धम्मिल्लः (पु), 'पटिया, जूड़ा' अर्थात् 'बाँधे हुए स्त्रियों के बालके रचना-विशेष' का , नाम है ॥
३ शिखा, चूडा, केशपाशी (३ स्त्री), 'शिखा, चुटिया, चुन्नी' के नाम हैं।
४ जटा, सटा ( २ स्त्री ), 'जटा' अर्थात 'मापसमें सटे हुए बाल या ऋषियोंकी जटा या जटामात्र' के २ नाम हैं।
५ वेणिः ( + वेणी), प्रवेणी ( +प्रवेणिः । २ स्त्री), 'बाल की गुधी हुइ चोटी' के २ नाम हैं ॥
६ शीषण्यः, शिरस्यः (२ पु), 'निर्मल बात' के १ नाम हैं। __७ पाशा, पक्षः, हस्तः (३ पु), ये तीन शब्द 'कच' शब्दसे परे रहने पर अर्थात् 'कचपाशः, कचपक्षः, कचहस्तः, (३ पु), या कच ( केश) के पर्याप. वाचक शब्दसे परे रहने पर अर्थात् केशपाशः, केशपक्षः, केशहस्तः, वालणशः, वालपतः, वालहस्तः (६ पु ), इत्यादि नाम 'केश-समूह' के हैं ।
८ तनूरुहम् . रोम ( = रोमन् ), लोम ( = लोमन् । ३ न), 'रोएं' के ३ नाम हैं।
२ श्मश्रु ( + स्मश्रु । न ), 'दाढ़ीके बढ़े हुए बाल' का । नाम है ।
१. आकल्पः, वेषः ( + वेशः । पु), नेपथ्यम् (न । +पु), 'बाभूषण आदिसे उत्पन्न शोभा' के ३ नाम हैं ।
१. "कवरी केशवेषोऽथ" इति पाठान्तरम् ॥ २. "व्रतिनः प्ता जटा सटा' इति पाठान्तरम् । अत्र 'ता' शम्दः केशार्थकः । ३. "स्मश्रु पुंमुखे" इति पाठान्तरम् ॥
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मनुष्य वर्ग:4] मणिप्रमाव्याख्यासहितः।
२२१ -१ प्रतिकर्म प्रसाधनम् ॥ ९९ ।। २ दशैते त्रिष्व ३ लङ्काऽलङ्कुरिष्णुश्च ४ मण्डितः।
प्रसाधितोऽलङ्कृतश्च भूषितश्च परिष्कृतः ॥१०॥ ५ विभ्राइभ्राजिष्णुरोचिष्णू ६भूषणं स्यादलकिया। ७ अलङ्कारस्वाभरणं परिष्कारो विभूषणम् ॥१०१॥
मण्डनं चा ८थ 'मुकुटं किरीटं पुनपुंसकम् । ९ चूडामणिः शिरोरत्नं
१ प्रतिकर्म ( + प्रतिकर्मन् ), प्रसाधनम् (२ न), तिलक, फूल आदिसे सँवारने के २ नाम हैं। माकपः......५ नाम एकार्थक हैं, यह भी कई एक प्राचार्यों का मत है)।
२ यहाँ से लेकर भागेवाले दश शब्द त्रिलिज हैं।
३ अलङ्कर्ता ( + अल), अलङ्करिष्णुः ( + मण्डनः । १ त्रि), 'अलडकृत (सुशोभित ) करनेवाले के २ नाम हैं ।
४ मण्डितः, प्रसाधितः, अलकृतः, भूषितः, परिष्कृतः ( + परिस्कृतः । ५ त्रि), 'आभूषण इत्यादिसे सुशोभित के ५ नाम हैं ॥
५ विभ्राट (+ विभ्राज), प्राजिष्णुः, रोचिष्णुः (२ त्रि), 'भाभूषण इत्यादिसे अधिक शोभनेवाले' के नाम हैं।
६ भूषणम् (न । + भूषा, स्त्री), अल किया (स्त्री), 'आभूषण इत्यादिसे सुशोभित करने के २ नाम हैं ।
७ अलङ्कारः, भाभरणम् , परिष्कारः (+परिस्कारः । । ला और ३ रा पु), विभूषणम ( + भूषणम् ), मण्डनम् (शेष ३ न), 'आभूषण, गहना, के ५ नाम हैं ।
८ मुकुटम् ( + मकुटम् । न), किरीटम (पुन), 'मुकुट' के नाम हैं। ९ चूडामणिः ( + शिरोमणिः । पु), शिरोरत्नम् (न), 'शिरोमणि' के २ नाम हैं। १. मकुटं किरीट' इति पाठान्तरम् ॥
२. इदमसत्-वेषो हि वलासपुरणप्रसाधनैरङ्गशोभा । प्रसाधनं तु समाजम्मनं तिलकपस्त्रमादिना (मङ्गशोमा) इति क्षी० स्वा०॥
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२२२
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे
__ -१ तरलो हारमध्यगः ॥१०२।। २ वालपाश्या पारितथ्या ३ पत्नपाश्या ललाटिका। ४ कर्णिका तालपत्नं स्यात् ५ कुण्डलं कर्णवेष्टनम् ॥ १०३ ।। ६ अवेयकं कण्ठभूषा ७ लम्बनं स्याललन्तिका । ८ स्वर्णैः भालम्बिका ९ ऽथोरसूत्रिका मौक्तिकैः कृता ॥ १४ ॥ १० हारो मुक्तावलो ११ देवच्छन्दोऽसौ शतयष्टिका ।
१ सरल: ( + नायकः । पु) 'हारका सुमेरु' अर्थात् 'हार या माला के जीचमाले बड़े दाने' का । नाम है ॥
२ वालपाश्या ( + बालपाश्या), पारितथ्या (२ स्त्री), 'त्रियोंकी चोटी या जूड़ामें लगानेके लिये सोने आदिको पट्टी' (भूषण-विशेष ) के २ नाम हे ॥
३ पत्नपाश्या, ललाटिका (स्त्री), 'बन्दी, बेना आदि ललाटके भूषण' के २ नाम हैं ॥
४ कर्णिका (स्त्री), तालपस्त्रम् (+ ताइपस्त्रम् । न), 'कनफूल, ऐरन, तरकी, झूमक आदि कानके भूषण के नाम हैं।
५ कुण्डलम्, कर्णवेष्टनम् (२न), 'कुण्डल' के नाम हैं। ('कुण्डल' और 'कणीि में यह भेद है कि 'कुण्डल' को खो-पुरुष दोनों पहनते हैं और 'कर्णिका' को केवल मियाँ ही पहनती हैं)।
६ प्रैवेयकम् ( + प्रैवेयम्, अवम्, । न ), कण्ठभूषा (स्त्री), 'हसुली, कण्ठा, टीक आदि गलेके आभूषण' के २ नाम हैं। ___७ लम्बनम् (न), ललन्तिका (स्त्री), 'गलेले थोड़ा नीचे लटकनेवाले भूषण' के २ नाम हैं। __८ प्रालम्बिका (स्त्री), 'गलेसे थोड़ा नीचे लटकनेवाले सुवर्णके भूषण ( सोनेकी हलकी सिकड़ी आदि) का नाम है ।
९ उरसूत्रिका (स्त्री), 'मोतीके हार का । नाम है ॥ १० हारः (पु), मुक्तावली (बी), 'हार' के नाम हैं।
" देवच्छन्दः (पु), शतपटिका (खो। भा. दो०) 'सी लड़ोवाले हार के नाम है।
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मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः। १ हारभेदा' यष्टिभेदाद् गुच्छगुच्छार्द्धगोस्तनाः ॥ १०५॥
अर्द्धहारो माणवक एकावल्येकयष्टिका । २ सैव नक्षत्रमाला स्यात्सप्तशितिमौक्तिकैः॥ १०६॥ ३ आवापकः पारिहायः फटको बलयोऽस्त्रियाम।
गुच्छः ( +गुरमः, गुस्स्यः ), गुच्छार्द्धः ( + गुस्सा : गुस्स्थाद्ध), गोस्तनः, अर्द्धारः, माणवकः (५ पु), एकावली, एकष्टिका, (२ स्त्री), ये . 'हारों के भेदविशेष' हैं । ('इन में बत्ताव लड़ी के हार का गुच्छ, चौबीस लोके हारका गुच्छाद्धं, चार लसीके हारका गोस्तन, घारह लडीके हारका अर्द्धहार, थीस लहाक हारका माणवक और एक लड़ा, हारकाएकावलो, एकयष्टिका नाम है)॥
२ नक्षत्रमाला (स्त्री), 'सत्ताइस मोतियो के हार' का नाम है।
३ स्थावापका, पारिहार्यः (२ पु), कटकः, वलयः (२ पु न), 'पहुँची, कड़ा आदि हाथके भूषण' के ४ नाम हैं ॥
१. 'यष्टिभेदाद् गुत्सगुस्सा नीस्तनाः' इति पाठान्तरम् ।।
२. अत्र क्षो. स्वा० -'अन्ये स्वाख्यन्–'द्वात्रिंशलतो गुच्छो गुह्याच्छादकवाद । चत्वारिंशलतो गोस्तनो लम्बमानत्वात् , गोपुच्छोऽपि । चतुःपञ्चाशलतोऽर्द्धहारो देवच्छ. दार्द्धवाद् । विंशलतो माणवकोऽस्यत्वात्' इति' इत्याह ॥ अभिधानचिन्तामणी हेमचन्द्राचार्यपादै-रक्ता हारभेदाः प्रसङ्गादुच्यन्ते
"देवच्छन्दः शतं साष्टं रिवन्द्रच्छन्दः सहस्रकम् । तदर्दू विजयच्छन्दो हारस्त्वष्टोत्तरं शतम् ॥ १॥ भई रश्मिः कलापोऽस्य द्वादश वर्द्धमाणवः । द्विादशार्द्धगुच्छः स्थापन हारफलं लताः॥२॥ अर्द्धहारश्चतुःषष्टिगुच्छमाणवमन्दराः। मपि गोस्तनगोपुच्छावद्धमछु यथोत्तरम् ॥ ३ ॥ इति हारयष्टिर्भेदादेकावल्येकयष्टिका। कण्ठिकाऽप्यथ नक्षत्रमाला तत्संख्यमौक्तिकः ॥ ४ ॥
इति अमि० चिन्ता० ३६३२२-३२६ अन्ये त्वेवमाहुः-'चतुःषष्टिलतो हारोऽथाष्टहीना यथोत्तरम् ।
रश्मिः कलापो माणवकोऽर्द्धहारोऽर्द्धगुच्छकः ॥१॥
कलापच्छन्दो मन्दरः स्याद् गुग्छः सप्ततियष्टिकः' । इति । अत्र केचित् रश्मिकलापो' इति वा पठित्वैकं नामेस्याहुः। मुकमतबाऽजगमाय चर्क
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२२४
अमरकोषः
[द्वितीयकाण्डे
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..
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-
-
विविधमतेन हाराणां संज्ञाया यष्टिसंख्यायाश्च बोधकचक्रम्
क्रमागतसंख्या
हारसंशाः
हैमोनाष्टि
संख्या:
मा०दो उत्ता
। यष्टिसंख्याः
अन्योला यष्टिसंख्याः
देवच्छन्दः
१००
इन्द्रच्छन्दः
१००८
विजयच्छन्दः
महे० उत्ताः यष्टिसंख्याः क्षी० स्वा० मते
संख्या: 888888 अन्यांजा यहि
हारः
१०८
६४
रश्मिकपाक:
अर्द्धमाणवः
२४
२४
अगुच्छः शरफलम्
१२
अद्धहारः गुच्छः
३२
३२
माणव:
२०
मन्दर:
गोस्तन:
गोपुच्छः
एकावली
१६
नक्षत्रमाला
'मो.
१७
रश्मिः
।
१८
कलापः १९ । कलापच्छन्दः
४८
१६
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~
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मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाध्यापासहितः ।
२२५ १ केयूरमजदं तुल्ये २ अङ्गुलीयक मूर्षिका ॥ १०७ ।। ३ साक्षराऽङ्गुलिमुद्रा स्यात् ४ कङ्कणं करभूषणम् । ५ स्त्रीकट्या मेखला काची सप्तकी रशना तथा ॥ १०८ ॥
क्लीबे सारसनं चा६ऽथ पुंस्कटयां शृङ्खलं धु। ७ पादाङ्ग तुलाकोटिमजारी नूपुरोऽस्त्रियाम् ॥ १०९ ॥
इंसकः पादकटकः ८ 'किङ्किणी क्षुद्रघण्टिका । ९ त्वक्फलक्रिमिरोमाणि वस्त्रयोनि:
१ केयूरम , भनन्दम् (२न), 'बिजायठ, बाजूबन्द, बहरबूटा' के नाम हैं॥
२ अङ्गुलीयकम् ( + अगुरीयकम् । न। +पु), उर्मिका (श्री), 'अँगूठी' के २ नाम हैं।
३ अङ्गुलिमुद्रा (स्त्री,), 'नाम खुदी हुई अँगूठी' का नाम हैं। ४ कट्टणम् ,करभूषणम् (२न), कङ्कण, ककना' के २ नाम हैं।
५ मेखला, काम्ची, सप्तकी, रशना ( + रसना, सिम्जनी । स्त्री), सारसनम् (न), "त्रियोंकी करधनी' के ५ नाम हैं। (यपि दीवाली करधनीकी 'कामची', लबीवालीको 'मेखला', १६ लडीवालीकी रसना' और २५ लड़ीवालीको 'कलाप' संज्ञा अन्य प्रन्यों में कही गयी है, तथापि यहां एक मेदविशेषका आश्रय नहीं किया गया है)।
६ शृङ्गलम् (बि), 'पुरुषोंकीकरधनी' का नाम है।
७ पादाङ्गदम् (न) तुलाकोटिः ( + तुलाकोटी । की), मम्मीरः (+मम्जीला), नूपुरः (पुन), हंसकः, पादकटकः (२ पु), 'पायजेब
८ किङ्किणी ( + किष्क्षिणि, कहिणी), बुद्रघण्टिका (बी), 'घर'
९ वयोनिः (स्त्री), 'जिनके कपड़े बनते हो उन अम, फल, कृमि और रोएं' का नाम है। ('तीसी, केला आदि के बारसे, कपास
१. कङ्किणी' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'मयं मैथिस्यमिशानं राघवस्यागुरीयक ( मट्टि ८११८) युक्तरिति मुकुटः॥ ३. 'एकयष्टिर्भवेत्काची मेखका त्वष्टयष्टिका।।
रशना षोडश शेया कलापः पन्चविंशक: ॥१॥ इत्युक्ता भेदारिवहनाभिता हत्पवयम् ॥
१५०
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२२६
अमरकोषः ।
१
२ वाल्कं शौमादि ३ फलं तु कार्यासं वादरं च तत् । ४ कौशेयं कृमिकाशात्थं ५ राङ्कवं मृगरोमजम् ॥
[ द्वितीय काण्डे
दश त्रिषु ॥ ११० ॥
आदि फलसे, रेशमवाले कृमि ( कीड़े ) के कोएसे और भेंड़, दुम्मा भैड़ा, मृग आदिके रोएंसे कपड़े बनते हैं; अतः 'ऊन छाल, फल, कृमि और रोएँ' का 'वस्त्रयोनिः ( स्त्री है, यह १ नाम है" ) ॥
१११ ॥
१ यहांसे दश शब्द त्रिलिङ्ग हैं। ("बालकम, सौनन्, फालम्, कार्पासन, वादरम्, कौशेयम्, राङ्कम्, अनाहतम्, निष्यवाणि, तन्त्रकम्' श्री० स्वा० भा० दी० मत से ये १० शब्द त्रिलिङ्ग हैं | वाहक्रम् दौमम् (न' ) फालम्, कार्पासम्, वादरम्, कौशेपम् कृामे कोशोत्थम्, राङ्कवम्, मृगरोमजम्, अना. हतम्, निष्प्रवाणि तन्त्रकम् ( 'व' शब्द से इसका संग्रह हुआ है ), सुभूनि और महेश्वरके मत से शेष ११ शब्द त्रिलिङ्ग हैं" ) ॥
,
२ वातकम्, क्षौमम् ( + न । २ त्र ), 'तिसीवट या केले आदि के छाल से बने हुए कपड़े' के २ नाम हैं ।
३ फालम्, कार्पासम् वादरम् ( + बादरम् । ३ त्रि), 'कपास इत्यादिके फलसे बने हुए कपड़े' अर्थात् 'सूती कपड़े' के ३ नाम हैं ॥
"
४ कौशेयम्, कृमिकोशोध्धम् (भा० दी० सी० स्वा० + कृमिकोषोत्थम् । २ त्र ), 'पीताम्बर आदि रेशमी कपड़ा' अर्थात् 'रेशमवाले की 6 कोएके बने सूत से बुने हुए कपड़े' के २ नाम हैं ॥
"
५ राङ्कवम्, मृगरोमजम् ( भा० दी० सी० स्वा० | २त्रि ), 'दुशाला, शाल, अलवान, कम्बल आदि ऊनी कपड़ा' अर्थात् 'मृग ( भेंड़ा आदि पशु ) के रोएंडे बने सूतसे चुने हुए कपड़े के या 'रङ्कनामक मृग-विशेष के रोके बने सूतसे चुने हुए कपड़े' के २ नाम हैं
ዘ
१. 'क्षौमं दुकूलं स्याद् द्वेतु' ( २६ । ११३ ) इत्यत्र 'दुकूल' शब्द साहचर्यात् 'चौमं' क्लोनमेवेत्याशयः । मत एव 'कृमिकोशोत्थ- मृगरोम ज ' शब्द पारपि पर्यायता, 'तत्रोक्त' शब्दस्यैकादशसङ्ख्यकता च सिध्यति । स्वा० मा० दो० मते तु 'कृमिकोशोत्थ- मृगरोमन 'शब्दयो पयोयता, 'क्षौम' शब्दश्च त्रिलिङ्ग एव, भत एत्र 'दश त्रिषु' इति ग्रन्यकारोक्तिः संगच्छते इति बोध्यम् ॥
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मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२२७ १ अनाहतं निष्प्रवाणि तन्त्रकं च नवाम्बरम्। २ तस्यादुद्रमनीयं
यद्धौतयोर्वस्त्रयोर्युगम् । ११२॥ ३ पत्त्रोर्ण धौतकौशेयं ४ बहुमूल्यं महाधनम् । ५ क्षौमं दुकूलं स्याद् ६ द्वे तु निवीतं प्रावृतं त्रिषु ॥११३॥ ७ स्त्रियां बहुत्वे वस्त्रस्थ 'दशाः स्युर्वस्तयो द्वयोः । ८ देय॑मायाम 'आरोहः
। अनाहतम् (+ अहतम् ), निष्प्रवाणि, तन्त्रकम् ( भा. दी, क्षो. स्वा० । ३ त्रि), नवाम्बरम् (न), भा० दी. क्षी० स्वा० के मतसे 'जो पहना, धुलाया या फटा हुआ नहीं हो उस कपड़े' के और महेश्वरके मतसे 'कोरे कपड़े के ४ नाम हैं। ___ र उद्गमनीयम् ( न ), 'धुलाये हुए कपड़े का नाम है। ('धौतयोर्व. स्वयोर्युगम्' यहाँ पर 'युग' शब्द अविवक्षित है')॥
३ पात्रोर्णम् (न), धौतकौशेयम् ( मा० दो० । २ न ), 'धुलाये हुए रेशमी कपड़े' के २ नाम हैं ॥
४ बहुमूल्यम्, महाधनम् ( भा० दी । २ न ), 'वेशकोमती वस्तु' के २ नाम हैं।
५ क्षीमम् (त्रि । +न), दुकूलम् ( न ), 'पीताम्बर' के २ नाम हैं ।
६ निवीतम् ( + निवृत्तम् ), प्रावृतम् (२ न ), 'ढके हुए वस्त्र' के २ नाम हैं।
७ दशाः (स्त्री नि० ब० व०), वस्तयः (भा. दी। स्त्री पु नि... व० । +वर्तयः ; २ एक व. २भी हैं ), 'कपड़ेको किनारो, धारी, दस्लो' के २ नाम हैं ॥
८ देयम् (न,) आयामः, अारोहः (+ भानाः । २ पु), 'कपड़े आदिको १. दशाः स्युर्वस्तयोर्द्वयोः' इति पाठान्तरम् ।। २. 'आनाहः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. युगशब्दस्याविवक्षायां लक्ष्यं यथा__'गृहीतपत्युद्गमनीयवस्त्रा' । कुमारसम्भव ७११ इति ।
'धौतुमुद्रगमनीयं च -' इति इलायुधश्च ( अमि० रन० २१३९६ )। 'वर्तिवास्ति'शम्दयोरेकवचनस्वचापि । तथा हि हलायुधः - 'वतिर्वस्तिदंशाः सिवः' (अमि० रत्न० २।३९६ ) इति ॥
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२२८
अमरकोषः ।
[ द्वितीयकाण्डे
- १ परिणाहो विशालता ॥ ११४ ॥ 'नक्तककर्पटी |
पटच्चरं जीर्णवस्त्रं ३ समौ
४ वस्त्रमाच्छादन वासश्चैलं
५
सुत्रेला 'पटोsस्त्री स्वादूवराशिः स्थूलशाटकः ।
वसनमंशुकम् ॥ ११५ ॥
लम्बाई' के ३ नाम 害 ॥
१ परिणाहः ( पु ), विशालता ( स्त्री ), 'कपड़े आदिकी चौड़ाई' के २ नाम हैं ॥
२ पटच्चरम्, जीर्णवस्त्रम् (२ न ), 'पुराने कपड़े' के २ नाम हैं |
३ नक्ककः ( + लक्तकः ), कर्पटः (२ पु ), मुकु० महे० मतसे 'पुराने कपड़े टुकड़े' के, भा० दी० मतसे 'रुमाल' अर्थात् 'पसीना आदिको दौड़नेवाले छोटे वस्त्र' के और श्री० स्वा० मतसे 'दूध, पानी आदिको छाननेवाले कपड़े' के २ नाम हैं ॥
४ वस्त्रम्, आच्छादनम्, वासः (= वासस् ), चैलम् (+ चेलम् ), वसनम्, अंशुकम् (+ चीरम् प्रोतः । ६ न ), कपड़ामात्र' के ६ नाम हैं ॥
५ सुचेलकः ( पु ), पटः ( पु न । + पु स्त्री श्री० स्वा० १), 'अच्छे कपड़े' के २ नाम हैं ॥
६ वराशिः ( + वरासिः । + पु), स्थूलशाटक: ( २ त्रि ), 'मोटे कपड़े के २ नाम हैं । ( 'सुचेलकः, ' ४ शब्द एकार्थक हैं, यह भी आचार्यों का मत है' ) ॥
.......
१. 'कक्तककपेटी' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'पटोsस्त्री ना वराशिः' इति । ३. 'पटोऽस्त्री ना वरासिः' इति च काचित्कं पाठान्तरम् ॥ ४. पटोsस्त्री कटः शाटः सिचयप्रोतलक्तका:' इति रभसोक्तेः, 'पटश्चित्रपटे वस्त्रेऽस्त्री, प्रियालद्रुमे पुमान्' (मेदि० पृ० ३६ श्लो० १९ ) इति मेदिन्युक्तेश्च 'स्त्रीति चिन्त्यम्, द्वयोरदर्शनाव' इति क्षी० स्वा० वचसश्चिन्त्यत्वमुक्तम् मा० दी० । क्षी० स्वा० तु 'अस्त्रीति चिन्त्यम्, द्वयोर्दर्शनात्' इत्येवोक्तत्वात् 'अपटीक्षेपेण' इति लक्ष्याच्च मा० दी० उक्तेरेब चिन्त्यत्वम् । 'अम्बर मंशुकमुक्तं वस्त्रं सिचयः पटः पोट:' ( अभि० रत्न० २।३९३ ) इति कायुषो कथा तु 'पट' शब्दस्य पुंस्स्वमात्र मेवा यातीत्यवधेयम् ॥
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२२६
मनुष्यवर्गः ६] मणिप्रभाव्याख्यासहितः
१ निचोलः प्रच्छद पटः २ लमो रल्लकको ॥ ११६ ।। ३ अन्तरीयोपसंव्यानपरिधानामघोऽशुके । ४ बौ प्रावारोत्तरासगी समो बुद्धांतका सधा ॥ ११७ ।।
संन्यानमुत्तरीयं च ५ बोलः कूपालकोऽस्त्रियाम् । ६ नीशारः स्यात्यावरणे हिमानिलनिवारणे ॥ १२८ ।। ७ अोरुकं परस्त्रीणा स्याश्चण्डातकमस्त्रियाम् । ८ स्यात्रिचाप्रपदीनं तत्प्राप्नोत्याघ्रपदं हि यत् ।। ११९ ।। ९ अस्त्री वितानमुल्लोचो
निचालः (+ निचुलः । त्रि), प्रच्छदटः (२ पु), महे. भा. दो. मतपे पालकी आदिके ओहार या सारङ्गी, सितार आदिके गिलाफ' (खोली ) के, क्षो० स्वा० मत से रजाई, नोसक, तकिया आदिको खोली' के और अन्याचार्यों के मतसे 'बुर्का' अर्थात् 'यवन आदिकी स्त्रियां पर्दे के वास्ते जिसको ओढ़कर पूरे शरीरको छिपाकर बाहर निकलती हैं उस वस्त्र-विशेष'-के २ नाम है।
२ रल्लकः, कम्बलः (२ पु), 'कस्बल' के २ नाम हैं।
३ अन्तरीयम्, उपसंख्यानम्, परिधानम्, अधोऽशुकम् (४ न), 'कमरसे नीचे पहने जानेवाले धोती, पायजामा, साड़ी आदि कपड़ों के ४ नाम हैं।
४ प्रावास ( + प्रावरः), उत्तरासङ्गः (२), बृहतिका (स्त्री), संख्यानम् , उत्तरीयम् (२ न), 'कमरसे ऊपर धारण करने योग्य दुपट्टा, चादर, पगड़ी आदि कपड़ो' के ५ नाम है ॥
५ चोलः ( + चोली, स्त्री), कूर्मासकः (पु न ), 'स्त्रियोंकी चोली, कुर्ती आदि' के २ नाम हैं।
नीशारः (पु), 'रजाई, दुलाई या शीतसे बचनेके लिये मोदे जानेवाले वस्त्रमात्र' का । नाम है ॥
७ अर्घोतकम् (न), चण्डातकम् (न पु), 'लहँगा' के २ नाम हैं। ८ आप्रपदीनम् (त्रि), 'पैरतक लटकनेवाले कपड़े का । नाम है ।। ९ विलानम् (म पु), होचा (पु), 'चँदवा' के २ नाम है।
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२३० अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डे -
१ दृश्याचं वस्त्रवेश्मनि । २ प्रतिसीरा 'जवनिका स्यात्तिरस्करिणी च सा ॥ १२० ।। ३ परिकाङ्गसंस्कारः स्यान्माटिसर्जना मृजा। ५ उद्वर्तनोत्सादने द्वे समे ६ आप्लाव आप्लवः ।। १२१ ।।
सानं ७ चर्चा तु चार्चिक्यं स्थासकोटऽथ प्रबोधनम् ।
अनुबोधः ९ पत्त्रलेखा पत्राङ्गुलिरिमे समे ॥ १२२ !: १दूष्यम् ( + दृश्यम् । न ), मादि ('आदि' शब्द से 'पटकुटी' (स्त्री), पटवासः ( = पटवासस् ), पटगृहम्, पटकुड्यम् (३ न), इत्यादिका संग्रह है), 'कपडे के घर, डेरा, रावटी, तम्बु आदि' का नाम है ।
२ प्रतिसीरा, जवनिका ( + यमनिका ), तिरस्करिणी ( + तिरस्कारिणी, तिरस्करणी । ३ स्त्री), 'कनात, पर्दा के ३ नाम हैं।
३ परिकर्म ( = परिवर्मन् । + प्रतिकर्म = प्रतिकर्मन् । न ), अङ्गसंस्कारः (पु), 'कुङ्कम आदिसे शरीरके संस्कार करने के २ नाम हैं ।
४ मार्टिः, मार्जना, मृजा ( ३ स्त्री) 'झाड़ पोछकर शरीरको साफ करने के ३ नाम हैं।
५ उद्वर्तनम् , उत्सादनम् ( + उच्छादनम् । २ न), उबटन, वेशन, साबुन आदिसे शरीरको मलने' के २ नाम हैं ।
६ भाप्लावा, आप्लवः (२ पु), स्नानम् (न), 'स्नान करने के ३ नाम हैं।
७ चर्चा (सी), चार्चिक्यम् (न), स्थासकः (पु), शरीरमें चन्दन मादि लगाने के ३ नाम हैं ॥
८ प्रबोधनम् (न), अनुबोधः (पु), 'निकले हुए गन्धको फिरसे साने' के २ नाम है । ('जैसे-'कस्तूरी के गन्ध के निकल जानेपर मदिरा छोरनेसे उसका गन्ध फिर आ जाता है)।
९ पस्त्रलेखा, पस्त्राङ्गुलिः (२ स्त्री), 'कस्तूरी, केसर, मेंहदी या पन्दन आदिसे गाल या स्तनादिपर पत्ते, फूल आदिकी चित्रकारी करने के २ नाम हैं।
१. 'यमनिका' इति पाठान्तरम् । २. प्रतिकाङ्गसंस्कारः" इति पाठान्तरम् ।। १. पचाइनिरम लियो र पाठान्तरम् ॥
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मनुष्यवर्गः ६ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ तमालपत्र सिलऋचित्रकाणि
विशेषकम्
द्वितीयं च तुरीयं च न स्त्रियारमथ कुङ्कुमम् ॥ १२३ ॥ काश्मीरजन्माग्निशिखं वरं बाह्रीकपीतने । रक्तसंकोच पिशुनं 'धीरं लोहितचन्दनम् ।। १२४ ।। ३ लाक्षा राक्षा जतु क्लीवे यावोऽलक्ती दुमामयः 1 ४ लवङ्गं देवकुसुमं श्रीसंज्ञ५पथ जायकम् ।। १२५ ।। 'कालायकं च कालानुसार्य चादथ समार्थकम् । वंशिका गुरुराजाईलाहक (कृ) मिजजोक ॥। १२६ ।।
१ तमालपत्त्रम्, तिलकम, चित्रक्रम, विशेषकम् ( २ रा ४ था पु न । शेष न), 'कस्तूरी, चन्दन, भम्म आदिसे टीका (तिलक) लगाने' के नाम हैं ॥
२ कुङ्कुमम्, काश्मीरजन्म ( = काश्मीरजन्मन् ), अग्निशिखम्, वरम, बाह्रक्रम ( + बाह्निकम, बह्रोकम, बह्निकम् ), पीतनस्, रक्तम् ( + अस् क्संशम् ; खून के पर्यायवाचक नाम ), संकोचम्, पिशुनम्, धीरम् ( + वीरम् ) लोहितचन्दनम् ( ११ न ) 'केसर, कुङ्कुम' के ११ नाम हैं ॥
३ लाक्षा, राक्षा ( + रखा । २ स्त्री ), जतु (न), यावः, अलकः, द्रुमामयः ( ३ पु ), लाही, लाक्षा, लाख, महावर' के ६ नाम हैं ॥
२३१
४ कवङ्गम्, देवकुसुमम्, श्रीसंज्ञम् ( श्री अर्थात् लक्ष्मीके पर्यायवाले सब नाम | ३ न ), 'लौंग' के ३ नाम हैं ॥
५ जायकम्, कालीयकम् ( + कालेयकम् ), कालानुसार्यम् ( ३ न ), 'पीला चन्दन, जायकनामक गन्धद्रव्य' के ३ नाम हैं ॥
?
६ वंशिकम् ( + वंशिकम् ), अगुरु ( + पु । + अगरु ), राजाईम लोहम् (+ पु), क्रि (कृ) मित्रम्, जोङ्ककम (६ न ), भा० दी० मतसे 'अगर ' के छ नाम हैं ।
१. 'वी (धी) र लोहितचन्दनम्' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'कालेयकं च' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'वंशका गरुराजाई को हक्रि (कृ) मिजजो अनकम्' इति पाठान्तरम् ॥
४. धन्वन्तरिरखेवमाइ
'छा पलङ्कषा राम्रा दीक्षिश्च कृमिजं जतु । कृतघ्नानङ्गमाता च द्रुमम्याधिरकक्तकः ॥ १ ॥ इति ॥
'छ
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२३२
अमरकोषः ।
१ 'कालागुर्वगुरु २ स्यात्तु मङ्गल्या मल्लिगन्धि यत् । सर्जरसो रावेरसावपि १२७ ॥
३ यक्षधूपः
9
बहुरूपोऽप्यथ वृकधूप कृत्रिमधूप कौ ।
५ तुरुष्कः पिण्डकः सिद्धो यावनोऽप्यथ पायसः ॥ १२८ ॥ श्रीवासो वृकधूपोऽपि ७ मृगनाभिर्मृगमदः कस्तूरी - च
'श्रीवेष्टसरल दवौ ।
| द्वितीयकाण्डे
+
१ कालागुरु, अगुरु ( + अगरु । २ न ), भा० दी० मतसे 'काला अगर' के २ नाम हैं ('महे० मतसे 'वशिकम्, ७ नाम 'अगर' के हैं') ॥ २ अङ्गस्या (खी ), 'बेला के फूलके समान सुगन्ध देनेवाले अगर ' का १ नाम हैं ।
३ यक्षधूपः ( + धूपः ), सर्जरसा, राल: ( + राला, स्त्री, अरालः ), सर्वरसः, बहुरूपः (५१) 'राल. धूप' के ५ नाम हैं ॥
सुगन्धित पदार्थोंको
४ वृकधूपः कृत्रिमधूपः ( २ पु ) ' अनेक मिलाकर बनाये हुए धूप' के नाम हैं ॥
५ तुरुकः, पिण्डकः, सिह्नः (सिल्हः), यावनः (४५), 'लोहबान' के नाम हैं॥ ६ पायस, श्रीवासः ( श्रीः ), वृकधूपः ( + वृकः ), श्रीवेष्टः ( + श्रीपिष्टः सरलः (५ पु ). 'सरल देवदारुके गोंद से बने हुए सुगन्धित द्रव्य विशेष' के ५ नाम हैं ॥
• quaifa: ( + aifa: *), gnng: ( +gn:“, aq: &; g), कस्तूरी (स्त्री), 'कस्तूरी' के ३ नाम हैं ।
१. 'कालागुर्वगुरु स्यात्तन्मङ्गल्या' इति पाठान्तरम् । अत्र पक्षे यन्मलगन्धि अगुरु तत्तु 'मया' स्यादित्येव सम्बन्धो शेयः, तत्र मूलपाठ एवं समीचीन इत्यवधेयम् ॥
२. 'सिरहो यावनोऽप्यथ' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'श्रीपिष्टसरलद्रवौ' इति पाठान्तरम् ॥ ४. 'मुख्य राक्षत्रियये नाभिः पुंसि प्राण्यङ्गके द्वयोः ।
चक्रमध्ये प्रधाने च खियां कस्तूरिकामदे' ॥ १॥
इति रमसोतः नामिशब्दस्यापि पर्यायत्वमित्यवधेयम् ॥
५. 'मृगनाभिर्मृगमदः मृगः कस्तूरिकापि च' इत्युक्तेर्मृग शब्दस्यापि पर्यायत्वमित्यवधेयम् ॥ ६. 'मदो रेतसि कस्तूय गर्ने हर्षेमदानयो:' ( मेदिनी पृ० ७९ इको० १२ ) इश्युक्तेः मदशब्दस्यापि पर्यायतेत्यवधेयम् ॥
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२३३
मनुष्यवर्गः ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१-अथ कोलकम् ॥ १२९ ॥ कक्कोलक कोशफलरमथ कर्पूरमस्त्रियाम् ।
घनसारश्चन्द्रसंज्ञः सिताभ्रो हिमवालुका ॥ १३०॥ ३ गन्धलारो मलयजो भद्रशीचन्दनोऽस्त्रियाम् । ४ तेलपर्णिकगोशी हरिचन्दनमस्त्रियाम् ॥१३१ ॥ ५ तिलपर्णी तु पत्राझं रजनं रक्तचन्दनम् ।
कुचन्दनं चाथि जातीकापजातीफले समे ।। १३२ ।।
शोमलम ( + कोरकम् ), कोलकम्, होशफलम् ( + कोषफलम् । ३ न) कोल' के ३ नाम हैं ।
२ कर्पूरम (पुन), घनसार, चन्द्रज्ञः ( चन्द्रमा पर्यायवाचक सब शब्द), पिताभ्रः ( + सिताभः । ३ पु), डिमवालुका (खो), 'कपूर' के ५ नाम हैं।
३ गन्धलारः, मलयजः (२ पु), भद्रश्रीः (बी), चन्दनः (पुन), 'मलयागिरि चन्दन' के ४ नाम है ॥
४ तेलपनिकम्, गोशीर्षम्, (न); हरिश्चन्दलम (पु न), 'सफेद ठण्डा चन्दन, कमलके समान गन्धवाले चन्दन और कपिल या पीले वर्णवाले चन्दन' का क्रमशः १-१ नाम है ॥
५ तिलपर्णी (स्त्री), पस्त्राङ्गम् रजनम्, रक्तचन्दनम्, कुचन्दनम् (न), 'लाल चन्दन' ५ नाम हैं ॥
६ जातीकोषम् ( + जातिकोशम् , जातीकोषा, कोष' ), जातीफलम् ( + फलम् । २ न) 'जायफल' के २ नाम हैं।
१. 'सिताभो हिमवालुका' इति पाठान्तरम् ।।
२. '-कोशः कोष हवाण्डजे कुडमले चषके दिव्येऽर्थचये यंनिशिम्बयोः । जातीकोशेऽसिपिधाने-' (अने. संग्र. २१५४६ -- ५४७), इति. '-अप जनिषु जातिः सामान्यगात्रयोः ।। मालत्यामामलक्यां च चुल्ल्यां कम्पिल्ल जन्मनोः । जातीफले छन्दसि च' (अने० संग्र० २११६८-१६९) इति हेमचन्द्राचार्योक्तेः जाति कोष-कोशशम्दाना पर्यायतेत्यवधेयम् ॥
३. 'फलं हेतुफ जातीफले फलकसस्ययोः (अमि० चिन्ता० २४९९) इति हेमचन्द्राचार्योक्त्या 'फल' शब्दस्यापि पर्यायत्वमित्यवधेयम् ॥
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२३४ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ कर्पूरागुरुकस्तूरीककोलैर्यक्षकर्दमः २ गात्रानुलेपनी वर्तिवर्णकं स्याविलेपनम् ॥ १३३ ॥ ३ चूर्णानि बासयोगाः स्युटर्भावितं वालितं त्रिषु । ५ संस्कारो गन्धमाल्याधैर्यः स्यात्तदधिवासमम् ।। १३४ ॥ ६ माल्यं मालास्रजो मूनि
1 'यकर्दमः (पु), 'कपूर, अगर, कस्तूरी और कङ्कोल, इन चारोको बराबर-बराबर देकर बनाये हुए लेप-विशेष' का नाम है ॥
२ गानानुलेपनी, वतिः (२ स्त्री), धर्णकम् , विलेपनम् (२न), 'लेप करने के लिये पीसे या घिस्से हुए गन्धद्रव्य विशेष' के ४ नाम हैं। (सी. स्वा. मत से दो-दो शब्द एकार्थक हैं। _____३ चूर्णम् (न), वासयोगः (पु), 'कपड़े आदिको सुवासित करनेके योग्य चूर्ण किये हुए गन्धद्रव्य-विशेष' के २ नाम हैं ॥
४ भावितम, दायितम (२ त्रि ), 'सुवासित कपड़ा आदि' के २ नाम हैं। ('क्षी० स्वा० मतसे गन्ध द्रव्य अर्थात् इतर आदिसे सुगन्धित किये हुए कपड़े आदिको 'भावित' और केतकी, वेवड़ा या गुलाब आदि से सुगन्धित किये हुए कपड़े आदिको 'चालित' कहते हैं')॥
५ अधिवासनम् (न), 'गुलाबजल या सुगन्धित फूल आदिसे पान, तिल आदिका सुवासित करने का नाम है ॥
६ माल्थम (न), माला, स्त्रक ( = स्रज् । २ स्त्री), 'शिरसे धारण की हुई माला' के ३ नाम हैं। ( 'यहाँ 'मूनि' शब्दके अविवक्षित होनेसे १. तदुक्तं व्याडिना
'कर्पूरागुरुकरतूरीककोलघुसूणानि च ।
एकीकृतमिदं सर्व यक्षकदम इष्यते ॥ १॥ इती॥ धन्वन्तरिस्तु मिन्नमेवाह । तद्यथा
'कुङ्कमागुरुकस्तूरीकपरं चन्दनं तथा। मासुगन्धमित्युक्तं नामतो यक्षकर्दमः ॥ १॥ इति । २. गात्रानुलेपनी वर्तिविंगन्ध्यथ विलेपनम् ।
वर्णकञ्चाथ विच्छित्तिः स्त्री कषायोऽङ्करागके ॥१॥ इति रमसोक्तिमनुसत्येदमित्यवधेयम् ।।
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मनुष्यवर्गः ६ ]
-१ केशमध्ये तु गर्भकः ।
२ प्रभ्रष्टकं शिखालम्वि ३ पुरोभ्यस्तं ललामकम् ॥ १३५ ॥ ४ प्रालम्बमृजुतम्बि स्यात् ५ कण्ठाद्वैकक्षिकं तु तत् । यतिर्यक्क्षप्त मुरसि ६ शिखास्वापीडशेखरौ ॥ १३६ ॥ रचना 'स्यात्परिस्यन्द ८ आभोगः परिपूर्णता । उपधानं तूपबर्हः १० शय्यायां शयनीयवत् ॥ १३७ ॥ शयनं ११ मञ्च पर्यङ्कपल्यङ्काः खट्वया समाः ।
७
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
'मालामात्र' के भी ये ३ नाम हैं' ) ॥
१ गर्भकः (पु), 'केशके बीच में लगायी हुई माला' का १ नाम है ॥ २ भ्रष्टकम् ( न ), 'शिखा या चोटीसे लटकती हुई माला' का १ नाम है ॥
२३५
३ ललामकम् ( न ), 'ललाटपर धारण की हुई माला, मुण्डमाला' का १ नाम है ॥
"
४ प्राम्बम् (न), 'गले में सीधे लटकती हुई माला' का १ नाम है ५ वैकचिकम् ( न ), 'जनेऊकी तरह तिर्डी पहनी हुई माला' का ● नाम है ॥
६ आपीडः, शेखरः (१ पु), 'शिखा में रखी हुई माला' के २ नाम हैं ॥ ७ रचना (स्त्री), परिस्यन्दः ( + परिस्पन्दः । पु ), 'माता आदि को बनाने ( गूथने ) के २ नाम हैं
८ आभोगः (पु), परिपूर्णता (स्त्री), 'सेवा-शुश्रूषा आदि सब प्रकारके उपचारोंसे परिपूर्ण होने' के २ नाम हैं ॥
९ उपधानम् (न), उपबर्हः (पु), 'तकिया' के २ नाम हैं ॥
१० शय्या स्त्री ), शयनीयम्, शयनम् (२ न ), के १ नाम हैं । ( 'भा० दी० मतसे 'तोसक आदि' के ये
' शय्या, बिछौना ' ३ नाम है' ) ॥
११ मनः, पर्यङ्कः, पश्यङ्कः ( ३ पु ), खट्वा (स्त्री), पलंग, खटिआ आदि' के ४ नाम हैं । ( किसी २ के मत से 'भञ्च' यह १ नाम ' मचान या
१. 'स्यारपरिस्पन्दः' इति पाठान्तरम् ॥
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२३६
अमरकोषः ।
[ द्वितीयकाण्डे
१ गेन्दुकः कन्दुको २ दीपः प्रदीपः ३ पीठमासनम् ॥ १३८ ॥ ४ समुद्रकः संपुटकः ५ प्रतिग्राहः पतदुग्रहः । ६ प्रसाधनी कङ्कतिका ७ पिटातः पटवासकः ॥ १३९ ॥ ८ दर्पणे 'मुकुरादर्शो ९ व्यजनं तालवृन्तकम् । इति मनुष्यवर्गः ॥ ६ ॥
ऊंचे सिंहासन आदि' का और 'पर्यङ्कः, पश्यङ्कः' ये २ नाम 'पलंग, मसहरी आदि' के तथा 'खट्वा' यह एक नाम 'बटिया' का है ) ॥
• Arga: (+ fags:, Hogs:, nogs: ), ##ga: (2 g ), 'ñg'
के २ नाम है ॥
२ दीपः, प्रदीप ( + स्नेहाशः, कज्जलध्वजः, दशेन्धनः, गृहमणिः, दोषातिलकः शिखातरुः, दीपवृक्षः, उयोत्स्नावृतः ८ २ पु ) 'चिराग' के २ नाम हैं ।।
३ पीठम्, शासनम् (२ न ), 'आसन' के २ नाम हैं ॥
४ समुद्रकः, संपुटकः ( २ पु ), 'डब्बा सम्पुट' के २ नाम हैं ॥
५ प्रतिग्राहकः ( चै० प्रतिग्रहः ), पतद्ग्रहः ( २ पु ), 'उगलवान, पिकदान' के २ नाम है ॥
६ प्रसाधनी, कङ्कतिका ( २ स्त्री), 'कवी' के २ नाम हैं ॥
७ पिष्टाः पटवासकः ( २ पु ), 'बुक्का' के २ नाम हैं ॥
८ दर्पण:, मुकुरः ( + कुरः, मक्कुरः ), आदर्शः ( + आमदर्शः । ३ पु ), 'शीशा - आइना' के ३ नाम हैं ।
९. डबजनम्, तालवृन्तकम् । ( + तालवृन्तम् । २ न), 'पंखा' के नाम हैं ॥ इति मनुष्यवर्गः ॥ ६ ॥
१. 'मकुरादश' इति पाठान्तरम् ॥
२. तदुक्तं त्रिकाण्डशेषे - ' - दीपस्तु स्नेहाचः कब्जलध्वजः ।
दशेन्धनो गृहमणिः दोषातिलक इत्यपि ॥ १ ॥ शिखातरुदीपवृक्षो ज्योत्स्नावृक्षोऽय' इति ॥
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ब्रह्मवर्ग:0] मणिप्रमाव्याख्यासहितः ।
२३० ७ अथ ब्रह्मवर्गः। १ सन्ततिगोत्रजननकुलान्यभिजनान्वयौ
वंशोऽषवायः सन्तानो २ वर्णाः स्युर्ब्राह्मणादयः ॥१॥ ३ विप्रक्षत्रियविटशूद्राश्चातुर्षयमिति स्मृतम् । ४ 'राजबीजी राजवंश्यो ५ बीज्यस्तु कुलसंभवः ॥२॥ ६ 'महाकुलकुलोनार्यसभ्यसजनसाधवः ७ ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्चतुष्टये ॥३॥ आश्रमोऽस्त्री
७. अथ ब्रह्मवर्गः। , सन्ततिः (स्त्री), गोत्रम् , मननम् , कुलम् (३ न), अभिजना, भन्वयः, वंशः, अन्वधाया, सन्तानः (५५), 'वंश, कुल, खान्दान' के ९नाम हैं॥
२ वर्णः (पु), 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये ४ "वर्ण' हैं।
३ चातुर्वर्ण्यम (न), 'ब्राह्मण मादि पूर्वोक्त चार वर्गों के समुदाय' का । नाम है॥
४ राजबीजी (= राजबी जिन् ), राजवंश्यः (२ पु), 'राजकुल में उत्पन्न व्यक्ति के नाम है।
५ बीज्यः, कुलसंभवः (२३), 'कुखमें उत्पन्न व्यक्ति के नाम हैं।
महाकुलः ( + माहाकुलः), कुलीना( +कुख्यः, कौलेयकः), आयः, सभ्यः, सजनः, साधुः (पु), 'सजन, उत्तम कुलमें उत्पन्न व्यक्ति के ६ नाम हैं॥ __ ७ ब्रह्मचारी ( = ब्रह्मचारिन् ), गृही( = गृहिन् ), वानप्रस्था, मिनुः (४ पु), ये चार 'बाश्रम' काम्दवाब है गत माश्रमः (पु.), 'ब्रह्मचर्याश्रमः, गृहस्थाश्रमः, वामप्रस्थानमः, संन्यासाश्रमः (पुन), ये ४ 'माश्रमं ।
१. राजवीजी राजवंश्यो पोज्यस्तु' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'माहाकुडकुकीनार्य-शति पाठान्तरम् ॥ ३. तदुक्तं यावश्येन'ब्रह्मक्षत्रियविट्यदा वर्णास्वायसनो दिवा । रति वाय. ॥१०॥
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२३८ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे--१ द्विजात्यनजन्मभूदेववाडवाः। विप्रश्च ब्राह्मणोऽसौ षटकर्मा यागादिभिर्वृतः ।। ४ ।। ३ विद्वान् विपश्चिद्दोषः सन् सुधीः कोविदो बुधः ।
धीरो मनीषी 'ज्ञःप्रानःसंख्यावान् पण्डितः कविः ।। ५॥ धीमान् सूरिः कृती कपिलब्धयों विचक्षणः। दूरदर्शी दीर्घदर्शी
. द्विजातिः ( + द्विषः), प्रजन्मा ( = अग्रजन्मन् ), भूदेव (+महोसुरः, भूसुरः,...), वाडवः, विमा, ब्राह्मणः ( ६ पु), 'ब्राह्मण' के
२ षटकर्मा ( = षट्कर्मन्, पु), 'यज्ञ करना, पढ़ना, दान देना, यज्ञ कराना, पढ़ाना और दान लेना; इन ६ कमौसे युक्त ब्राह्मण' का १ नाम है ।।
३ विद्वान् (= विद्वस्), विपक्षित , दोषज्ञः, सन् ( = सत् ); सुधीः, कोविदः, बुधः, धीरः, मनीषी ( = मनीषिन् ), ज्ञः, प्राज्ञः ( + प्रज्ञः ), संख्यावान् ( = संख्यावत् ), पण्डिता, कविः, श्रीमान् ( = धीमत् ), सूरिः (+ सूरी = सूरिन् ), कृती ( = कृतिन् ), कष्टः, लन्धवर्णः, विचक्षणः, दूरदर्शी ( = दूरदर्शिन् । + दूराक = दूरदृश), दीर्घदी ( + दीर्घदर्शिन् । २२ पु), 'विद्वान्' के २२ नाम हैं ।
१. 'शः प्रशः' इति पाठान्तरम् ॥ २. ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्' इति श्रुतेरित्यवधेयम् ।। ३. तदुक्तम्-'इज्याऽध्ययनदानानि याजनाध्यापनं तया।
प्रतिग्रहश्च तैयुंकः षटकर्मा विप्र उच्यते ॥१॥इति ॥ ५ ब्राह्मणानां षट् कर्माण्याह मनुः
'अध्यापनमध्ययनं यबनं याननं तषा। दानं प्रतिमाञ्चैव ब्राह्मणावामकसय ॥ इति मनुः १३८८
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मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२३६
- १ श्रोत्रियच्छान्दसौ समौ ॥ ६ ॥ २ "मीमांसको जैमिनीये ३ वेदान्ती ब्रह्मवादिनि (१६) ४ वैशेषिके स्यादौलूक्यः ५ सौगतः शून्यवादिनि (१७) ६ नैयायिकस्त्वक्षपादः
ब्रह्मवर्गः ७ ]
१ श्रोत्रियः छान्दसः ( २ पु ), 'वेद पढ़नेवाले ब्राह्मण' * २ नाम हैं ॥
२ [ मीमांसका, जैमिनीयः (२ पु), 'मीमांसक' अर्थात् 'मीमांसा शास्त्र को जाननेवाले' के २ नाम है ] ॥
३ [ वेदान्ती ( = वेदान्तिन् ), ब्रह्मवाषी ( ब्रह्मवादिनू । २ पु ), 'वेदान्ती' अर्थात् 'वेदान्न शास्त्र जाननेवाले' के २ नाम हैं ] ॥
४ [ वैशेषिकः, औलुक्यः ( २ पु ), 'कणादिसम्मत द्रव्य आदि ('द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव') "सात पदार्थों का माननेवाले' के २ नाम हैं ] ॥
1
५ [ सौगतः शून्यवाद ( शून्यवादिन् । २), 'संसारका कारण शून्य ( कोई नहीं ) है, इस सिद्धान्तको माननेवाले नास्तिक' २ नाम हैं ] ॥
[ नैयायिकः, अक्षपादः ( + अक्षपादः । a g), 'गौतमसम्मत प्रमाण आदि ('प्रमेय, संशय, प्रयाजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, 'सायकापिली' इत्येष क्षेपकांशः श्री० स्वा० व्याख्याने
१. 'मोमांसको...
समुपलभ्यत इत्यवधेयम् ॥
२. 'नैयाचिकस्त्वाक्षपादः' इति पाठ' क्षी० स्वा० व्याख्योक्तः ॥ ३. तदुक्तं हेमाद्रिण। चतुर्वर्ग चिन्तामणौ दान खण्डस्य तृतीयप्रकरणे 'एकां शाखां सकल्पां वा षद्भिरङ्गैरपीत्य वा । षटकर्मनिरतो विप्रः श्रोत्रियो नाम धर्मवित् ॥ १ ॥
४. तथा चाह विश्वनाथ:
'द्रव्यं गुणस्तथा कर्म सामान्यं च विशेषकम् । समवायस्तथाऽभावः पदार्थाः सप्त कीर्तिताः ॥ १ ॥
इति च० चिन्ता० पृ० २७ ॥
-
इति सिद्धा० मुक्का० १११ ॥
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२४०
अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डे-१ स्यात्स्याद्वदिक आईकः ( १८) २ चार्वाकलोकायतिको ३ 'सत्कायें साडयकापिलो ( १९) ४ उपाध्यायोऽध्यापको५ऽथ स्यान्निषेकादिकृद् गुरुः ।
पाद, जप, वितण्या, हेवाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान') 'सोलह पदार्थीको माननेधा नैयायिक' के २ नाम हैं ।
[स्याहादिका, माईकः ( + आईतः । २ पु), 'मोक्ष है तो हो और नहीं है तो न हो इस सिद्धान्तको माननेवाले' के २ नाम है ] ॥
२ [चार्वाकः, लोकायतिका (२ पु), 'बौद्ध' अर्थात् 'बुद्धदेवके मतानुयायी' के नाम हैं।
[सालयः, कापिलः (२३), 'कपिलमुनिसम्मत सांख्यशास्त्रके सिद्धान्तको माननेवाले' के नाम हैं ] ॥
उपाध्यायः, अध्यापकः (२), 'उपाध्याय' अर्थात् 'वेद के एकदेशको बाबेदागोको वृत्ति के लिये पढ़ानेवाले' के २ नाम हैं ।
५ 'गुरुः (पु), 'गुरु' अर्थात् 'निषेकादि संस्कारको सविधि करके अधादिसे पालन करते हुए पढ़ाने वाले का । नाम है ।
१. 'सत्कार्यो' इति पाठः क्षी० स्वा० व्याख्योक्तः॥
२. तदुक्तम्-'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डा हेवामासानातिनिग्रहस्थानानां तत्वशनानिःश्रेयसाधिगमः' इति न्या०६० १।। ।। १. पाण्यायकक्षणमुक्तं मनुना
'एकदेशं तु वेदस्य वेदानान्यपि वा पुनः ।
योऽध्यापयति वृत्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते ॥ १॥ इति मनुः ॥१४॥ गुरुन्धणमुक्त मनुना
'निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि । सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुध्यते ॥ १॥इति मनुः २।१४२ ॥
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ब्रह्मवर्गः ७ ]
मणिप्रभा व्याख्यासहितः ।
२४१
यष्टश च
१ मन्त्रव्याख्याकृदाचार्य २ 'आदेश त्वध्वरे व्रती ॥ ७ ॥ यजमानश्च ३ स सोमवति दीक्षितः । ४ इज्याशीली यायजूको ५ यक्ष्वा तु विधिनेष्टवान् ॥ ८ ॥ स गीर्पतीच्या स्थपतिः ७ सोमपीथी तु सोमपाः । ८ सर्ववेदाः स येनेष्टो यागः सर्वस्वदक्षिणः ॥ ९॥
'' आचार्यः (पु), 'आचार्य' अर्थात् 'मन्त्रोंकी व्याख्या करनेवाले या शिष्यका यज्ञोपवीत संस्कारकर करूप और रहस्यके सहित वेदको पढ़ानेवाले ब्राह्मण' का नाम है ॥
२ व्रती ( = वतिनू ), यष्टा ( यष्टु ), यजमानः (पु), 'यजमान' अर्थात् 'यज्ञ करनेवाले' के ३ नाम हैं ।
३ दीक्षितः (पु), 'सोमवत्' ( अनिष्टोमादि ) यक्षमें ऋत्विजों को मादेश देनेवाले यजमान' का १ नाम है ॥
यायजूकः ( २ ), 'बारबार यज्ञ करनेवाले' के
४ इज्याशीलः
२ नाम हैं ॥
५ यज्वा ( = यज्वन् पु ), 'विधिपूर्वक यश किये हुए' का १ नाम है ॥ ६ स्थपतिः (पु), 'बृहस्पतिके मन्त्रसे यश करनेवाले' का १ नाम है ॥ ७ सोमपीथी ( सोमपीथिन् । + सोमपीती = सोमपीतिन् ), सोमपाः ( + सोमपः । २ पु ), 'सोमयज्ञ करनेवाले' के २ नाम हैं ॥
८ सर्ववेदाः (= सर्ववेदस पु), 'यश में सर्वस्व दक्षिणा देनेवाले' का
१ नाम है । ( 'विश्वजित् आदि यज्ञों में सर्वश्व दक्षिणा दी जाती है, जैसे
"
१. 'आदिष्टो इति पाठान्तरम् ।।
२. स तु गोष्पतीष्टया स्थपतिः सोमपीती तु सोमपाः' इति पाठान्तरम् ॥
आचार्यलक्षणमुक्तं मनुना
'उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विषः ।
सकर सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते' ॥ १ ॥ इति मनुः २।१४० ॥
१६ अ०
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२४२
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्ड१ अनूचानः प्रवचने साङ्गेऽधीती २ गुरोस्तु यः ।
लब्धानुसः समावृत्तः ३ सुत्वा स्वभिषवे कृते ॥१०॥ ४ छात्रान्तेवासिनो शिष्ये ५ शैक्षाः प्राथमकल्पिकाः। ६ एकब्रह्मवताचारा मिथः सब्रह्मचारिणः ॥ ११ ॥ ७ सतीर्थ्यास्त्वेकगुरवश्चितवानग्निमग्निचित् रघुने विश्वजित् यज्ञकर सर्वस्व दक्षिणा दी थी। विश्वजित् आदि यज्ञका यह नाम है, यह भा. दी० का मत चिश्य है')॥
मनूचानः (पु), 'व्याकरण आदि ६ अङ्गोंके सहित वेदको पढ़नेवाले' का नाम है ॥
२ समावृत्तः (पु), 'गुरुकी आक्षा पाकर गृहस्थाश्रममें रहने के लिये गुरुकुलसे लौटे हुए ब्रह्मचारी का नाम है ॥
२ सुस्वा (सुस्वन् पु), 'यक्षके अन्तमें अवभृथनामक स्नान किये हुए' का । नाम है। - छात्रः, अन्तेवासी ( = अन्तेवासिन् ), शिष्यः (३ पु), 'शिष्य, छात्र के ३ नाम हैं।
५ शैक्षाः, प्राथमकल्पिकाः (२ पु । बहुवचन अविवक्षित होनेसे एकवचन भी होता है।) 'अध्ययनको प्रथम भारम्भ किये हुए ब्रह्मचारी आदि' के नाम हैं।
सब्रह्मचारिणः ( = सब्रह्मचारिन् , पु) आपसमें समान वेद, समान वत और समान आचारपाले ब्रह्मचारियों का नाम है।
७ सतीयः, एकगुरुः (मा० दी । २), 'सहपाठी, एक गुरुसे पढ़नेवाले' के नाम हैं।
८ अप्रिथित (पु), 'अग्निहोत्री' का । नाम है ॥ १. यथाऽ रघुवंशे कविकुलकमलदिवाकरः कालिदासः
__ 'स विश्वजितमाठे यशं सर्वस्वदक्षिणम्' इति रघुवंशः ४६ ८६ ॥ २. तदुक्कं हेमाद्रिणा चतुर्वर्गचिन्तामणो दानबण्डस्य परिभाषाख्ये तृतीयप्रकरणे
'वेदवेदाङ्गतत्वहः शुद्धास्मा पापवर्जितः। शेष मोत्रियवसाय खोऽनूचान इति स्मृतः ॥१॥
इति चतु चिन्ता.दा. खं०१० २८॥
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२४३
ब्रह्मवर्गः ७] मणिप्रभाध्याख्यासहितः। १ पारम्पर्योपदेशे स्यादेतिमितिहाव्ययम् ॥ १२ ॥ २ उपमा शानमाधं स्यात् ३ ज्ञात्वारम्भ उपक्रमः। ४ यज्ञः सोऽज्वरो यागः सततन्तुर्मखः क्रतुः॥१३॥ ५ पाठो होमश्वातिथीनां सपर्या तर्पणं बलिः। ६ पते पञ्च महायशा ब्रह्मयज्ञादिनामकाः ॥१५॥
। ऐतिह्यम् (न), इतिह (अन्य ), 'परम्परागत उपदेश' के । नाम हैं।
२ उपज्ञा (स्त्री), 'गुरूपदेशके विना उत्पन्न सर्वप्रथम शान' का १ नाम है। ('जैसे-वाल्मीकिकी उपज्ञा 'रामायण' है और पणिनि की उपज्ञा 'अष्टाध्यायी सूत्रपाठ' है')॥
३ उपक्रमः (पु), 'गुरु आदिसे ज्ञान प्राप्तकर आरम्भ करने का नाम है॥
४ यज्ञः, सवः, अध्वरः, यागः, सप्ततन्तुः, मखः, क्रतुः (पु), 'यज्ञ' के ७ नाम हैं।
५ पाठः (पु), 'वेदादिपाठ करने'को 'ब्रह्मयः ' (पु) होमः (पु), 'हवन करने'को 'देवयशः' (पु); अतिथीनां सपर्या, (सी), 'भक्ष, जलपान, शययादि देकर अतिथियों के सत्कार करने' को 'नृयक्षः' (पु); तर्पणम् (न), 'अन्न, जल, पिण्डदान, श्राद्ध, आदिसे पितरों को सन्तुष्ट करने'को 'पित्या ' (पु); बलिः (पु), 'बलि वैश्वदेव अर्थात् काकादिको वलि देने या बलिदान करने को 'भूतयः ' (पु), कहते हैं ।
ये (ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, अतिथियज्ञ, पितृयज्ञ और भूतयज्ञ)५ महायज्ञः (पु), अर्थात् "पशमहायज्ञ' हैं ।
१. तदुक्तं मनुना-मध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।
होमो देवो मलिमीतो नृषज्ञोऽतिथिपूषनम् ॥ १॥ पढतान्यो महायज्ञान- इति मनुः ॥७०-॥
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२४४
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्हे१ समज्या परिषद्गोष्ठी सभासमितिसंसदः ।
आस्थानी क्लीबमास्थानं स्त्रीनपुंसकयोः सदः ।। १५ ॥ २ प्राग्वंशः प्राग्यविर्गेहाद ३ सदस्या विधिदर्शिनः । .४ सभासदः सभासमारा:सस्या: सामाजिकाश्च ते ।। १६ ।।
५ मध्वयूद्रातहोतारो यजुःसामग्विदः क्रमात् ।
, समस्या, परिषत् ( = परिषद् । + पत् = पर्षद् ), गोष्ठी, सभा, समितिः, संसत् ( = संसद् ), आस्थानी ( ७ स्त्री), भास्थानम् (न), सदः ( = सदस् न स्त्री), "सभा' के नाम हैं। ('सम्प्रति सभा शब्दका सामान्यतः व्यवहार किया जाता है')॥
प्राग्वंशः (पु), 'हवनशालाके पूर्व तरफ यजमानको बैठने के लिये बनाये हुए स्थान या गृह-विशेष'का १ नाम है ॥ .
३ सदस्यः (पु), 'यज्ञमें न्यूनाधिक विधिको देखनेवाले ऋत्विगः विशेष' का नाम है ॥
४ सभामत् ( = सभासद् ), सभास्तारः, सभ्यः, सामाजिकः ( ४ पु), 'सभासद' के नाम हैं । __ ५ अश्वयुः, उद्गाता ( = उद्गातृ ), होता ( = होत् । ३ पु), 'यजुर्वेद, सामवेद और ऋग्वेद जाननेवाले' का क्रमशः 1-1 नाम है ॥
महर्षियाचवस्स्येनाप्युक्तन्'बलिकर्मस्ववाहोमस्वाध्यायातिथिसरिक्रयाः। भूतपित्रमरब्रह्ममनुष्याणां महामखा॥१॥
इति याश० स्मृतिः ॥१०२ ॥ यथा वा-पाठो होमश्वातिथीनां सपर्या तर्पणं बलिः।
पते पत्र महायज्ञा ब्रह्मयज्ञादिनामकाः ॥ १॥ इति ॥ १. यथा समाक्षणं मनु:
'यरिमन्देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदखयः। रामवाधिकृतो विद्वान् बामणस्वासमा विदुः ॥१॥ इति मनुः ॥१२॥
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२५५
ब्रह्मवर्गः ७] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ आग्नीध्राद्या धनैर्वार्या ऋत्विजो याजकाश्च ते ॥ १७ ॥ २ वेदिः परिष्कृता भूमिः ३ समे स्थण्डिलचघरे । ४ अषालो यूपकटका ५ कुम्वा सुगहना वृतिः॥१८॥ ६ यूपा तम ७ निमन्थ्यदालणि स्वाणियोः। ८ 'दक्षिणाग्निर्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः ॥ १९॥
। २ भाग्नीध्र, ऋविक (= ऋत्विज ), याजकः (३ पु), यश करनेवाला यजमान धन आदिसे जिसका वरण करे उन माग्नीध्र मादि (ब्रह्मा, उद्गाता, होता, अध्वर्यु,...१७३) या करानेवाले ब्राह्मणों के ५ नाम हैं ।
२ वेदिः (+वेदी । स्त्री), 'यज्ञके लिये डमरू-तुल्याकार बनाई हुई या साफ की हुई भूमि' का १ नाम है ॥
२ स्थण्डिकम, पत्थरम् (२ न), 'यसके लिये साफ किये गये स्थान-विशेष' के २ नाम हैं । ('सम्प्रति चत्वर शब्दको चबूतरा के अर्थ में भी प्रयुक्त किया जाता है।
४ चषालः, यूपकटकः ( भा. दी० । २), 'यास्तम्भके ऊपर बलयाकार (गोल) बनाये हुए काष्ठ-विशेष' के २ नाम हैं।
५ कुम्था (स्त्री), 'वण्डाल, अन्त्यज आदि यक्षको न देख सके, इस निमित्तसे यज्ञभूमिके चारों तरफ बनाये हुए घेरेका नाम है।
६ यूपाग्रम् , तर्म ( = तमंन् । २ न)'यश-स्तम्भके ऊपरी भाग के २ नाम हैं॥
७ अरणिः (पु स्त्री) 'जिसको परस्परमें रगड़कर यहार्थ अनि निकाली जाय, उस काष्ठ-विशेष' का १ नाम है ।
८ दक्षिणाग्निः, गार्हपत्यः, आहवनीयः (३ पु), ये ३ "अग्निके भेद हैं। १. 'कचित्तु प्रयाणां द्वन्दः पठयत' इति भा० दो० ॥ २. तथा हि कात्यः-'धृताः कुर्वन्ति ये यशमृरिवजस्ते-' इति ॥
३. 'आधशब्दात् 'पोतृतप्रशास्तृब्राह्मणाच्छंस्यच्छावाग्ग्रावस्तुद्ब्रह्ममैत्रावरुणप्रतिप्रस्थात. प्रतिहन्तनेष्टनेतृसुब्रह्मण्याः' इत्थं सप्तदशस्विनः' इति क्षी० स्वा०॥ ४. ब्राह्मणसर्वस्वे हलायुधेन पनामय उकास्तथा हि
'बावसथ्याहवनीयौ दक्षिणामिस्तथैव च । अन्वाहार्यों गाईपत्य इत्येते पञ्च वहयः॥१॥इति ॥
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अमरकोषः
[ द्वितीय काण्डे
१ अग्नित्रयमिदं त्रेता २ प्रणीतः
संस्कृतोऽनलः । परिचाय्योपचाय्यावग्नौ प्रयोगिणः ॥ २० ॥
३ समूह्यः
यो गार्हपत्यादानीय दक्षिणाग्निः प्रणीयते । तस्मिन्नानाय्यो ५ प्रथाग्नायो स्वाहा च हुतभुप्रिया ॥ २१ ॥ ६ ऋक्सामिधेनी धाय्या च या स्यादग्निसमिन्धने । ७ गायत्रीप्रमुखं छन्दो
२४६
१ त्रेता (स्त्री), 'दक्षिणाग्नि, गाईपत्याग्नि और आहवनीयाग्नि इन तीन अग्नियोंके समुदाय' का १ नाम है ॥
२ प्रणीतः (पु), 'मन्त्र से संस्कृत अग्नि' का १ नाम है ॥
३ समूहः परिचाय्यः उपचाय्यः ( ३ पु ), 'यज्ञ - सम्बन्धी अग्निका स्थान- विशेष, या स्थान विशेषकी अग्नि' के ३ नाम हैं ॥
● आमाच्यः (पु), 'गाईपत्यनामक अग्निसे लाकर मन्त्र से संस्कृत दक्षिणाग्नि' का १ नाम है ॥
५ अभायी, स्वाहा, हुतभुप्रिया ( + अग्निप्रिया । ३ स्त्री ), 'अग्नि की स्त्री, स्वाहा' के मैं नाम हैं ॥
सामिधेनी, धाय्या ( २ स्त्री ), 'अग्निमें समिधा (लकड़ी) छोड़कर अग्निको जलानेमें प्रयोग किये जानेवाले मन्त्र' के २ नाम हैं ॥
•
७ छन्दः (= इन्दस्, न ), 'गायत्री आदि छन्द' का १ नाम है सक्का १, अत्युक्ता २, मध्या ३, प्रतिष्ठा ४, सुप्रतिष्ठा ५, गायत्री, उष्णिक् ७, अनुष्टुप् ८, बृहती ९, पक्ति १०, त्रिष्टुप् ११, जगती १२, अतिजगती १३, करी १४, अतिशकरी १५, अष्टि १६, अत्यष्टि १७, धृति १८ अतिष्टति १९, कृति २०, प्रकृति २१, आकृति २२, विकृति २३, संस्कृति २४, अतिकृति २५, रकृति १६, ये कुब्बीस 'छन्द होते हैं। किसी २ ने 'गायत्री उस्कृति तक २१ ही छन्द माने हैं' ) ॥
१. वृत्तरत्नाकरे केदारेण छन्दोलक्षणमुक्तम् । तथा हि'आरभ्येकाक्षरारपादादेकै काक्षर वर्द्धितैः ।
पृथक् छन्दो भवेत्पादैर्यावत्वविंशतिं गतम् ॥ १ ॥ इति वृ० १० १|१७
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ब्राह्मवर्गः ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
२४७ १ हव्यपाके चरुः पुमान् ॥२२॥ २ आमिक्षा सा तोणे या क्षीरे स्यादधियोगता। ३ 'धुवित्रं व्यजनं तद्यद्रचितं मृगचर्मणा ॥२३॥ ४ पृषदाज्यं सदध्याज्ये ५ परमान्नं तु पायसम् । ६ हव्य ७ कन्ये देवपित्र्ये अन्ने~~~.................~~~~~~..........mx
१ वरुः (पु), 'अग्निमें हवन किये जानेवाले अन्न' का १ नाम है।
२ आमिक्षा ( + आमीक्षा मु० । स्त्री), 'औटे हुए गर्म दूध दही छोड़नेपर उत्पन्न विकार विशेष या डाँछ' का १ नाम है ॥
३ शुवित्रम् ( + धविनम् । न ), 'यज्ञ में आग सुलगाने के वास्ते मृगचर्सके बने हुए पंखे' का १ नाम है ॥
४ पृषदाज्यम् (+ पृषातकम् । न) 'दही मिले हुए घी' का । नाम है ॥ ५ परमानम , पायपम् (२ न ), 'स्वीर, हविष्य' के २ नाम हैं ।
६ हव्यम् (न), 'देवान्न' अर्थात् 'हवनके द्वारा देवताओंके उद्देश्यसे दिये जानेवाले भन्न-विशेष' का १ नाम है ॥
७ कव्यम् (न), "पित्र्यान' अर्थात् 'ब्राह्मण भोजनादिके द्वारा पितरों के उद्देश्यसे दिये जानेवाले लम-विशेष' का नाम है।
तेषां नामानि च तेनैवोक्तानि । तथा हि
'उक्ताऽत्युक्ता तथा मध्या प्रतिष्ठाऽन्या सुपूर्विका। गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पक्तिरेव ॥१॥ विष्प च जगती चैव तथाऽतिजगती मता। शक्करी सातिपूर्वा स्यादष्टयस्यष्टी ततः स्मृते ॥ २॥ धृतिश्चातिधृतिश्चैव कृतिः प्रकृतिरास्कृतिः। विकृतिःसंस्कृतिश्चापि तथाऽतिकृतिरुत्कृतिः ॥३॥
इति वृत्तरत्नाकरः ११९-२१॥ गङ्गादासश्छन्दोमअान्तु 'उक्ता-अस्युक्ता-शकरीणां स्थाने 'उक्था' अत्युक्या, शकरी' इत्येवं नामान्याह ।।
१. 'पवित्रं-' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'देवपित्र' इति पागन्तरम् ।
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२४८
अमरकोषः
[द्वितीयकाण्डे
-१ पात्रं नुवाधिकम् ॥ २४ ॥ २ भुवोपभृज्जुहू ३ र्ना तु सुवो भेदाः 'सुचः स्त्रियः। ४ उपाकृतः पशुरसौ योऽभिमन्य तौ हतः ॥२५॥ ५ परम्पराक 'शमनं प्रोक्षणं च वधार्थकम् । ६ वाच्यलिकाः प्रमीतोपसंपन्नप्रोक्षिता हते ॥ २६ ॥ ७ सान्नाय्यं हवि ८ रग्नौ तु हुतं त्रिषु वषट्कृतम् । ९ दीक्षान्तोऽवभृथो यज्ञे १० तत्कर्माहं तु यक्षियम् ।। २७ ॥
, पात्रम् (न), 'जुवा आदि ( चमस, मोक्षणी, प्रणीता, सूर्प, व्यजन, उलूखल, मुसल, ग्रह, ......) बर्तन' का । नाम है ॥
२ ध्रुवा, उपभृत् , जुहूः (३ सी), ये ३ 'सुवाके भेद' हैं ।
३ + नुवः (पु), जुक (= त्रुच । +ः । स्त्री), 'वा' अर्थात् 'अग्निमें घी सकनेवाले काष्ठनिर्मित यज्ञ-पात्र विशेष के २ नाम हैं। . ४ सपाकृतः (पु), 'वेदमन्त्रसे अभिमन्त्रित कर यज्ञमें मारे हुए पशु' का । नाम है। __ ५ परम्पराकम् , शमनम ( + शसनम्, ससनम् ), प्रोक्षणम् (३ न), 'यसमें पशुको मारने के ३ नाम हैं ।
६ प्रमीतः, उपसंपन्नः, प्रोषितः (३ त्रि), 'यक्षमें मारे हुए पशु' के ३ नाम हैं॥
• साचारपम् , हविः (= हविष , भा० दी० । २ न ), 'हवन करने योग्य हविष्य आदि पदार्थ' के २ नाम हैं । .. हुतम् ( भा० दी०), वषट्कृतम् (२ त्रि), 'अग्निमें हवन किये हुए हविष्य आदि पदार्थ के १ नाम है ।
९ अवभृथः (), 'यक्षके अन्त में किये जानेवाले यक्ष-समाप्तिसूचक मान-विशेष' का । नाम हैं।
• यज्ञियम् (त्रि.), 'यक्षके योग्य पदार्थ का । नाम है । ('जैसे'माक्षण, हविष्यादि मन, स्थान....')॥
१. 'नुव इति पाठान्तरम् ॥ १. 'शसनस्पति एका पाठविली. स्वा० । 'ससनम् इत्यन्य प्रति मा. दी।
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ब्रह्मवर्ग: ७] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
२४६ त्रिवपथ कतुकमेष्टं २ पूर्त वातादि कर्म यत् । ३ अमृतं ४ विघसो यनशेषभोजनशेषयोः ।। २८ ।। ५ त्यागो विहापितं दानमुत्सर्जनविसर्जने । विश्राणनं वितरणं स्पर्शनं प्रतिपादनम् ।। २९ !! प्रादेशनं निर्वपण-अपवर्जनमंहतिः ।
, 'इष्टम् (न), 'यज्ञ कार्य, दान देने का १ नाम है ॥
२ 'पूर्तम् (न). बावली, कुआँ, तालाब आदि खुदवाने तथा औषधालय, देवालय आदि बनवाने' का नाम है ॥
३ अमृतम् (न), 'यज्ञसे बचे हुए हविष्य' का । नाम है।
४ "विधसः (1), 'ब्राह्मण, अतिथि आदिके भोजनके बाद बचे हुए अन्न' का १ नाम है।
५ स्यागः (पु), विहापितम्, दानम्, उत्सर्जनम् ( + उत्सर्गः, पु), विसर्जनम्, विश्राणनम्, वितरणम्, स्पर्शनम्, प्रतिपादनम्,प्रादेशनम्, निर्वपणम्, अपवर्जनम् (११ न) अंहतिः (स्नो), 'दान देने के १३ नाम हैं।
१. हेमाद्रौ दानखण्डे शलोकमिष्टलक्षणं यथा--- 'अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानां चैव पालनम् । भातिथ्यं वैषदेवं च इष्टमित्यभिधीयते ॥ १॥ एकाग्निकादौ यस्कम त्रेतायां यच्च हूयते । अन्तर्वेद्यां च यदानमिष्टं तदमिधीयते ॥ २ ॥
हति हेमा० दा० खं० पृ० २१ ॥ २. हेमाद्रौ दानखण्डे शसोक्तं पूतलक्षणम्
__ 'रोगिणां परिचर्या च पृतमित्यभिधीयते । इति ब्यासोक्तम्-'पुष्करिण्यस्तथा वाप्यो देवतायतनानि च ।
अन्नदानमधारामाः पूर्तमित्यभिधीयते ॥१॥इति । नारदोकम् -
'ग्रहोपरागे यद्दानं सूर्यसंक्रमणेषु च ।
दादश्यादौ तु यहानं तदेतत्पूर्वमुच्यते' ॥१॥ इति हेमा० दा० खं० पृ० २१ ॥ ३-४. अमृतविषसयोलक्षणं मनुराह । तद्यथा
'विघसाशी भवेनित्यं नित्यं चामृतमोजनः। विषसो भुक्तशेषं तु यशशेषं तथाऽमृतम्' ॥१॥ति मनुः ३ । २८५ ॥
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२५०
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे१ मृतार्थ 'तदहे दानं ग्रिषु स्यादौ देहिकम् ॥ ३०॥ २ पितृदानं निवापः स्यात् ३ श्राद्धं तत्कर्म शास्त्रतः। ४ अन्वाहार्यमासिक ५ ऽशोऽष्टमोऽह्नः कुतपोऽस्त्रियाम्॥३१॥ ६ पर्येषणा परीष्टिश्चा ७न्वेषणा च गवेषणा।
१ौर्ध्वदेहिकम् ( + औदैहिकम् । न ) 'मरे हुएके उद्देश्यसे मरने के दिनसे एकादशाह तक दिये हुए पिण्ड दान आदि' का । नाम है ॥
२ पितृदानम् (न), निवापः (पु), 'सपिण्डीकरणके बाद पितरोके उद्देश्यसे दिये हुए पिण्ड दान' का १ नाम है ॥
३ श्राद्धम् (न), 'श्राद्ध' अर्थात् 'पितरों के उद्देश्यले शास्त्रानुपार किये जानेवाले पिण्डदान आदि कार्य का १ नाम है ।।
___४ अन्वाहार्यम् (न), मासिकः (पु, भा० दी०); 'अमावस्थाको किये जानेवाले मासिक श्राद्ध' के २ नाम हैं ।
५ कुतपः ( + कुतुपः। पुन), "दिनक्षा आठवाँ हिस्ला, सप्तम मुहूर्त (१४ घटी ) के उपरान्त तथा नवम मुहूर्त (१७-१८ घटी) के मध्यका श्राद्ध योग्य लमय विशेष' का । नाम है ॥
६ पर्येषणा, परीष्टिः ( २ स्त्री), महे० मतसे 'श्राद्धमें ब्राह्मणोंकी सेवा करने के २ नाम हैं।
७ अन्वेषणा, गवेषणा ( २ स्त्री), महे• मनम्मे 'धर्मान्वेषण करने के २ नाम हैं। ('भा० दी० मत पर्येषमा.........' ४ नाम 'धर्मादिके खोज करने' के हैं')।
१. 'तदहनं त्रिषु स्यादौध्वदैहिकम्' इति पाठान्तरम् ।। २. तदाह मनुः-'पितृयशं तु निर्वयं विप्रश्चन्दुक्षयेऽग्निमान् ।
पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं कुर्यान्मासानुमासिकम् ।। १॥ पितणां मासिकं श्राद्धमन्वाहार्य विदुर्बुधाः ।
तच्चामिषेण कर्तव्यं प्रशस्तेन प्रयत्नतः ॥२॥ इति मनुः २।१२२-१२३।। ३. कुतपलक्षणं यथा'मुहूर्तात्सप्तमादूर्वं मुहूर्तानवमादधः। स कालः कुतपो ज्ञेयः......." इति ।।
'दिवसस्याष्टमे मागे मन्दीमवति भास्करे । स कालः कुतपो यत्र पितृभ्यो दत्तमक्षयम् ॥१॥इति स्मृतिरिति । क्षी० स्वा०।।
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२५१
ब्रह्मवर्गः ७] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ सनिस्त्वज्येषणा २ 'यात्राऽभिशस्तिर्याचनाऽर्थना ॥ ३२॥ ३ षट् तु त्रिष्व ४ य॑मर्थाथै ५ पाद्यं पादाय वारिणि । ६ क्रमादातिथ्यातिथेये अतिथ्यर्थेऽत्र साधुनि ।। ३३॥ ८ स्युरावेशिक आगन्तुरतिथिर्ना गृहागते । ९ "प्राघूर्णिकः प्राघुणकश्च
सनिः, अध्येषणा ( २ स्त्री), 'गुरु' पिता, माता मादि श्रेष्ठ जनोंकी सेवा करने और प्रार्थनापूर्वक गुरु आदि श्रेष्ठ जनों को किसी काममें प्रवृत्त करने के २ नाम हैं ॥
२ याा, अभिशस्तिः ( + अभिषस्तिः ), याचना, अर्थना ( ४ स्त्री), 'याचना करने, माँगने के ४ नाम हैं ।
३ यहां से ६ शब्द त्रिलिङ्ग हैं । ४ अयम् (त्रि), 'अर्घ ( अर्घ देने ) के लिये जल' का १ नाम है । ५ पाद्यम् (त्रि), "पाद्य (पैर धोने) के लिये जल' का नाम है। ६ आतिथ्यम् (नि), 'अतिथियों के निमित्त वस्तु' का १ नाम है ॥
७ भातिथेयम (त्रि), 'अतिथियों के विषयमें सजन ( अच्छा व्यवहार करनेवाले ), का १ नाम है ॥
८ आवेशिकः, आगन्तुः ( २ त्रि), अतिथिः ( + अतिथिः पु; अतिथी स्त्री), 'अतिथि के ३ नाम हैं।
२ [प्राधूर्णिकः, प्राघुणकः ( + श्रावेशिकः । २ पु), 'अभ्यागत' के २ नाम हैं ] ॥
१. 'याञाऽमिषस्ति-' इति पाठान्तरम् ।। २. प्राधूणिकः ........."गौरवम्' इत्यंशः क्षी० स्वा० व्याख्यायामुपलभ्यत इत्यवधेयम् ।। ३. अतिथिलक्षणान्युच्यन्ते
तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे श्यक्ता येन महात्मना।
सोऽतिथिः सर्वभतानां शेषानभ्यागतान्विदुः ॥ १॥ इति यमः ।। कचित्तु -'शेषः प्राधुणिकः स्मृतः' इति तुरीयपादः ॥
'दूराच्चोपगतं आन्तं वैश्वदेव उपस्थितम् ।। अतिथिं तं विजानीयानातिथिः पूर्वमागतः ॥१॥ इति व्यासश्च ।। 'अध्वनीनोऽतिथिर्शयः श्रोत्रियो वेदपारगः' इति याश० १११११ ।।
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अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डे-१ अभ्युत्थानं तु गौरवम्' (२०) २ पूजा नमस्याऽपचितिः सपर्याऽर्चाहणाः समाः ॥ ३४॥ ३ वरिवस्था तु शुश्रूषा 'परिचर्याप्युपासना । ४ व्रज्याऽटाट्या पर्यटनं ५ चर्या त्वीर्यापथे स्थितिः ॥ ३५॥ ६ उपस्पर्शस्त्वाचमन ७ मथ - मौनमभाषणम् । ८ "प्राचेतसचादिकविः स्याम्मैत्रावणिश्च सः ( २१ )
वाल्मीकचा ९थ पाधेयो विश्वामित्रश्च कौशिकः (२२)
[अग्युस्थानम् , गौरवम् (२ न), 'अभ्युत्थान' अर्थात् 'बड़े लोगों के आनेपर उठकर भगवानी करने के २ नाम हैं ] ॥
१ पूजा, नमस्या, अपचितिः, सपर्या, अर्चा, अर्हणा (स्त्री), 'पूजा' के ६ नाम हैं।
६ वरिवस्या, शुश्रूषा, परिचर्या (+ उपचर्या, परेष्टिः), उपासना ( + न । ४ खी), 'शुश्रुषा करने के ४ नाम हैं ।
४ व्रज्या, अटाट्या ( + अटा, अध्या, महे० । २ स्त्री), पर्यटनम् (+भ्र. मणम् । न ), 'घूमने के ३ नाम हैं ।
५ चर्या ( + ईर्या मुनिः । स्त्री ), 'ध्यान' मौन इत्यादि योगमार्गामें स्थित होने का १ नाम है ॥
६ उपस्पर्शः (पु), आचमनम् (न), 'आचमन करने के २ नाम हैं । ७ मौनम् , अभाषणम् (२ न), मौन या चुप रहने के २ नाम हैं ।
- [पाचेतसः, आदिकविः, मैत्रावरुणिः ( मैत्रावरुणः), वाल्मीकः (+ वाल्मीकिः, वक्ष्मीका, वल्मिकः । ४ पु), 'वाल्मीकि मुनि' के ४ नाम हैं ] ॥
९ [गाधेयः, विश्वामित्रः, कौशिकः ( + कौषिकः । ३ पु), 'विश्वामित्र मुनि' के ३ नाम हैं ] ॥
१. परिचर्याप्युपासनम्' इति पाठान्तरम् । २. 'प्राचेतसः............."मुतः' अयं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्याने समुपलभ्यते ॥
३. 'वाल्मीकिश्चाय' इति पाठान्तरम् ।।
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२५३
ब्रह्मवर्ग:0] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ व्यासो द्वैपायनः पाराशर्यः सत्यवतीसुतः' (२३) २ मानुपूर्वी स्त्रियां 'वावृत्परिपाटी अनुक्रमः ।। ३६ ॥
पर्यायश्चा ३ तिपातस्तु स्यात्पर्यय उपात्ययः । ४ नियमो व्रतमस्त्री ५ तश्चोपवासादि पुण्यकम् ॥ ३७॥ ६ औपवस्तं तूपवालो ७ विवेकः पृथगात्मता । ८ स्याद्ब्रह्मवर्चसं वृत्ताध्ययनधि ९ रथाजलिः ॥ ३८॥
पाठेब्रह्माजलि:
[व्यासः, द्वैपायनः, पाराशर्यः, सत्यवतीसुतः (४ पु), 'व्यास मुनि' के ४ नाम हैं।
र भानुपूर्वी (सी। + आनुपूर्यम् ), भावृत् , परिपारी (+परिपाटिः । २ स्त्री), अनुक्रमः, पर्यायः (२ पु) 'क्रम' अर्थात् 'सिलसिला' के ५ नाम हैं ।
३ अतिपातः, पर्ययः, उपास्ययः, (३ पु), 'विना क्रम' अर्थात् 'बेसिलसिला' के ३ नाम है॥
४ नियमः (पु), व्रतम् (न पु), 'नियम या वत' के नाम हैं।
५ पुण्यकम् (न), 'उपवासादि (सान्तपन, कृच्छ्, अतिकृच्छु, प्राजापस्य, चान्द्रायण आदि ) शास्त्र-विहित व्रत' का १ नाम है ॥
६ औपवस्तम् (+औपवस्त्रम् , उपवस्तम् । न), उपवासः (+उपो. पितम् , उपोषणम् । पु), 'उपवास, उपास' के २ नाम हैं ।
७ विवेकः (पु), पृथगात्मता (भा. दी०, स्त्री), 'प्रकृति और पुरुषके भेद-शान वा भावोंके पृथक स्वरूप-ज्ञान' के २ नाम हैं।
८ ब्रह्मवर्चसम् (न), वृत्ताध्ययनार्दः (भा. दी०, बी) 'ब्रह्मवर्चस' • अर्थात 'सदाचार और वेदाभ्यासकी वृद्धि या सम्पत्ति के २ नाम हैं ॥
९ ब्रह्माजलिः (पु), 'वेदादि पढ़नेके पहले और अन्तमें १. 'वावृत्परिपाटिरनुकमः' इति पाठान्तरम् ।। २. 'औपरस्त्रम्' इति पाठान्तरम् ।। ३. यथाऽऽह मनु:-'ब्रह्मारम्भेऽवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुरोः सदा ।
संहत्य इस्तावध्येयं स हि ब्रह्माजलिः स्मृतः ॥१॥ पत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः। सम्येन सम्यः स्पष्टन्यो दक्षिणेन च दक्षिणः' ॥२॥इति मनुः २१७१-७२
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अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे
-१ पाठे 'विप्रषो ब्रह्मबिन्दवः । २ ध्यानयोगासने ब्रह्मासनं ३ कल्पे विधिक्रमौ ॥ ३६ ।। ४ मुख्यः स्यात्प्रथमः कल्पो ५ ऽनुकल्पस्तु ततोऽधमः । २ संस्कारपूर्व ग्रहणं स्यादुपाकरणं श्रुतेः ॥ ४० ॥ ७ समे तु पादग्रहणमभिवादनमित्युभे ।
व्यस्त हाथसे (दहने हाथसे बहिना और षायें हायसे बायाँ) गुरुके पैरको छूकर प्रमाण करने का नाम है ।
। ब्रह्मबिन्दुः (पु), 'वेदादि पढ़नेके समय मुखसे निकले हुए जल-कण (थूकमिश्रित जल की छोटी २ बूंद ) का । नाम है ॥
२ ब्रह्मासनम् (न ) 'ध्यान और योगके आसन' का । नाम है ॥ ३ करूपा, विधिः, क्रमः (३ पु) 'शास्त्रोक्त विधि' के ३ नाम हैं। ४ 'मुण्यः (पु), 'शास्त्रोक्त प्रधान विधि' का । नाम है ॥
५ अनुकरपः (पु), 'शास्त्रोक गौण (अप्रधान, अभाव पक्षीय) विधि' का नाम है। ___ ५ उपाकरणम् ( न ), 'संस्कारके साथ २ वेदको ग्रहण करने का नाम है।
७ पादग्रहणम् , अभिवादनम् (२ न), "अपने नामको कहते हुए प्रणाम करने के २ नाम हैं॥
१. 'विप्लुषो ब्रह्मविन्दव' इति पाठान्तरम् ॥
२. यथा 'व्रीहिभिर्यजेत' इति श्रुतौ व्रीहिश्रवणात 'व्रीहिभिरेव यजेत नान्येन द्रव्येण' रति श्रुस्यर्थात् व्रीहिकरणमुपादानं प्रधानमतो व्रीहिभिर्यागकरणं मुख्यः कल्पः ॥
३. व्रीहिलामाभावे नित्यनैमित्तिकादिविधिक्षयो मा भदित्यतो . इति श्रुस्या नीवारेणापि यागो विधीयत इति नीवारकरणकमुपादानमप्रधानमतो नीवारेण यागकरणमनुकल्पः ॥ ४. तदाह मनु:
'अभिवादात्परं विप्रो ज्यायांसमभिवादयेत् । मसौ नामाइमस्मीति स्वं नाम परिकीर्तयेत् ॥१॥इति मनु २२१२२ ।।
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ब्रह्मवर्गः ७ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ भिक्षुः परिवाट् कर्मन्दी पाराशर्येपि मस्करी ॥ ४१ ॥ २ तपस्वी तापसः पारिकाङ्क्षी ३ वाचंयमो मुनिः । ४ तपः क्लेशसहो दान्तो ५ वणिनो ब्रह्मचारिणः ॥ ४२ ॥
६
ऋषयः सत्यवचसः
१ भिक्षुः परिव्राट् ( = परिवाज् । + परिव्राजकः ), कर्मन्दी (= कर्मदिन् ), पाराशरी ( = पाराशरिन् ), मस्करी ( = मस्करिन् । ५ पु ), 'संन्यासी' के ५ नाम हैं ॥
२ तपस्वी ( = तपस्विन् ), तापसः, पारिकाङ्क्षी ( = पारिकाङ्क्षिन् । ३ ), 'तपस्वी' के ३ नाम हैं ॥
२५५
३ वाचंयमः, मुनिः ( २ पु ), 'मुनि' के २ नाम हैं। ( 'किसी किसी के मतसे ये २ नाम भी 'संन्यासी' के ही पर्याय हैं ) ॥
४ तपःक्लेश सहः ( भा० दी० ), दान्तः ( २ पु ), 'तपस्या के क्लेशको सहनेवाले' के २ नाम हैं ॥
५ वर्णी ( = वर्णिन् ), 'ब्रह्मचारी ( २ नाम हैं ॥
ब्रह्मचारिन् ), 'ब्रह्मचारी' के
६ ऋषिः, सत्यवचाः ( = सत्यवचस् । २ पु ), 'ऋषि - सामान्य ' २ नाम हैं । ( श्रुतर्षि १, काण्डर्षि २, परमर्षि ३, महर्षि ४, राजर्षि ५, ब्रह्मर्षि ६ और देवर्षि ७; ये सात 'ऋषियोंके भेद' हैं ) ॥
'आत्मनाम गुरोर्नाम नामातिकृपणस्य च । श्रेयस्कामो न गृह्णीयाज्ज्येष्ठापत्य ककत्रयोः ॥ १ ॥ इति वचनेन यद्यपि श्रेयस्कामुकस्यारमनामग्रहणं निषिद्धन्तथापि जन्मद्वादशे दिने तत्पित्रादिकृतनाक्षत्रनामपरम् । विस्तरतस्तु वैयाकरणलघुमञ्जूषायां स्मृत्यन्तरे वा प्रपश्वितमंत्र विस्तरभयान्न लिखितमिति तत एवावधार्यम् ॥
१. तदुक्तम् – 'कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा । सर्वथा मैथुनस्यागः ब्रह्मचर्य तदुच्यते ॥ १ ॥
पतरकर्मसम्पन्नो 'ब्रह्मचारी' भवति ।
२. ऋषयः सप्तविधाः । ते यथा - श्रुतर्षिः पवित्रकथादिश्रवणकर्ता २, काण्डर्षिः वेदानां प्रधानकाण्डस्योपदेष्टा २, परमर्षिः मुनिभेकप्रभूतयः ३, महर्षिः व्यासादयः ४, राजर्षिः विश्वामित्रादयः ५, ब्रह्मर्षिः वसिष्ठादयः ६, देवर्षिः नारदादयः ७ इति ॥
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२५६
अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्ड-१ 'स्नातकस्वाप्लुतो घती। २ ये निर्जितेन्द्रियग्रामा यतिनो यतयश्च ते ॥१३॥ ३ यः स्थण्डिले व्रतवशाच्छेते स्थण्डिस्लशाययली ।
स्थाण्डिलचा ४ थ विरजस्तमसः स्युद्धयातिगाः ॥ ४४ ॥ ५ पवित्रः प्रयतः पूतः ६ 'पाखण्डाः सर्वलिङ्गिनः ।
स्नातकः, आप्लुता, ( + आप्लवव्रती = आप्लवव्रतिन् , आप्लुतप्रती - भाप्लुतव्रतिन् । पु), 'स्नातक' अर्थात् 'वेदवतको समाप्त होने पर गुरुकी आज्ञासे समाप्ति-सूचक स्नान-विशेष (समावर्तन) किये हुए ब्रह्मचारी' के २ नाम हैं। ('स्नातकके ३ भेद हैं-वेदको समाप्तकर और व्रतको विना समाप्त किये समावर्तन संस्कारवाला विद्यास्नातक १, व्रतको समाप्तकर और वेदको विना समाप्त किये समावर्तन संस्कारवाला व्रतस्नातक २, तथा वेद और विद्या दोनों को समाप्तकर समावर्तन संस्कारवाला विद्यावतस्नातक ३ ३)॥
२ निर्जितेन्द्रियग्रामः ( भा० दी.), यती (= यतिन् ), यतिः (३ पु), 'जितेन्द्रिय के ३ नाम हैं।
३ स्थण्डिलशायी ( = स्थण्डिलशायिन् ), स्थाण्डिल: (२३), 'स्थण्डिल ( विना साफ सुथरा की हुई अकृत्रिम भूमि )पर सोनेवाले व्रती' के २ नाम हैं।
विरजस्तमाः ( = विरजस्तमस् ), द्वयातिगः (२ पु ), 'सत्त्वगुणी के २ नाम हैं।
५ पवित्रः, प्रयतः, पूतः (३ पु), 'पवित्र' के ३ नाम हैं ।
६ पाखण्डः (+ पाषण्डा), सर्वलिङ्गी ( = सर्वलिङ्गिन् । २ पु), 'पाखण्डी' अर्थात् 'दुष्ट शास्त्र में स्थित बौद्ध आदि क्षपणक (संन्यासी) के २ नाम हैं।
१. 'स्नातकस्वाप्लवव्रती' इति 'स्नातकस्वाप्लुतव्रतो' इति च पाठान्तरे ॥ २. 'पाषण्डाः इति पाठान्तरम् ।। १. एतत्सर्वं याशवल्क्यस्मृतावाचाराध्याये ( ११११०) मिताक्षरायां सुस्पष्टम् ।। ४. तदुक्तम्-'पालनाच प्रयोधर्मः पाशब्देन निगद्यते।
तं खण्डयन्ति ते यस्मात्पाखण्डास्तेन हेतुना ॥१॥ इति ।।
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ब्रह्मवर्ग:.] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
२५० १ पालाशी दण्ड आषाढो वते २ गम्भम्तु वेगवः ॥ ४५ ॥ ३ अस्त्री कमण्डलुः कुण्डो तिलामासनं 'वृषी। ५ अजिनं चर्म कृत्तिः स्त्री ६ भैक्षं भिक्षाकदम्बकम् .. ४६॥ ७ स्वाध्यायः स्थाजपः
, आषाढः (भाषाढका, आषाढः । पु), 'ब्रह्मचर्यावस्थामें ब्राह्मणसे धारण किये हुए पल शके दण्ड' का नाम है ॥
२ राम्मा (पु), 'ब्रह्मचर्यावस्थामें धारण किये हुए बाँसके दण्ड' का नाम है ॥
३ कमण्डलुः (पु न ), कुण्डी (स्त्री), 'कमण्डलु' के १ नाम हैं।
४ घृषी (+ वृसी। स्त्री), 'ब्रह्मचारी आदि व्रतियोंके पासन' का नाम है ॥
५ अजिनम्, चर्म ( = चर्मन् । २ न), कृत्तिः (स्त्री), 'मृगादिके चमड़े के नाम हैं।
६ भैतम् (त्रि ), 'भिक्षामें मिले हुए पदार्थ' का । नाम है ॥
७ स्वाध्यायः, जपः (२ पु ), 'नियमसे वेदादिके अभ्यास करने के २ नाम हैं । 'जप ३ प्रकारका होता है-वाचिक 1, उपांश और मानस । इनको उत्तरोत्तर श्रेष्ठ कहा गया है')॥
१. 'सी' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'ब्राह्मणो बैल्वपालाशौ क्षत्रियो वटखादिरौ। पैलवौदुम्बरौ वैश्या दण्डानईन्ति धर्मतः ॥१॥
इति मनुः २॥४५॥ ३.दारीतोक्ता जपभेदास्तेषां बक्षणानि चात्र प्रदयन्ते
.......त्रिविधो जपयज्ञः स्यात्तस्य तत्त्वं नियोधत ॥ बाचिकश्चाप्युपांशुश्च मानसश्च निषाऽकृतिः । त्रयाणामपि यहाना श्रेष्ठः स्यादुत्तरोत्तरः॥ बदुचनीचोच्चरितैः शब्दैः स्पष्टपदाक्षरैः । मन्त्रमुच्चारयेदाचा अपयवस्तु वापिक..
१७५०
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२५८
अमरकोषः। [द्वितीयकारे
-१ सुत्याऽभिषवः सवनं च सा । २ सनसामपध्वलि जप्यं त्रिध्वघमर्षणम् ॥४७॥ ३ दर्शश्च पौर्णमालश्च यागौ पक्षान्तयोः पृथक् । ४ शरीरसाधनापेक्षं नित्यं यत् कर्म तथमः ॥४८॥ ५ मियवस्तु स तत् कर्म नित्यमागन्तुसाधनम् ।
" सुन्या ( सो), अभिषदः (पु), सवनम् ( न ), 'सोमलता ( यज्ञो. षधि) को ऋटने' के ३ नाम हैं ।
२ अघमर्षणम् (त्र), 'सव पापोको नाश करनेवाले जप' (ऋचा आदि) का १ नाम हैं।
३ दर्शः, पौर्णमासः ( २ पु), 'अमावास्या और पूर्णिमाको होने. घाले यज्ञ' का क्रमश: १-१ नाम है ॥ ___४ यमः (पु), जीवनभर शरीरसे करने योग्य संयम' का । नाम है। ('अहिंसा १, सस्य २, अस्तेय (किसी की कोई वस्तु विना दिये या पूछे न लेना) ३, ब्रह्मचर्य (आठ प्रकार के मैथुनका त्याग) ४ और अपरिग्रह (हिंसादि अनेक दोषों को देखकर दान नहीं लेना ५) ये पाँच यम हैं)॥
५ नियमः (पु), 'नियम' अर्थात 'जो कार्य जीवन पर्यन्त नहीं हो सके किन्तु विशेष २ समय पर किया जाय उस कार्य का नाम है। ('शौच अर्थात्
शनैरुच्चारयेन्मन्त्रं किलो प्रचालयेत् । किञ्चिन्छु। गयोग्यः स्यात्स उपांशुर्जरः स्मृतः ॥ घिया पदावर श्रेण्या अवर्णमपदाक्षरम् । शब्दार्थचिन्तनाभ्यां तु तदुक्तं मानसं स्मृतम्' ।
इति हारीतस्मृतिः ४।४०.४४ १. अष्टाङ्गमैथुनलक्षणं यथा--
'स्मर को न केलिः प्रेक्षगं गुह्यमापणम् । संकणेऽध्य३सायश्च क्रियानिवृत्तिरेव च ॥ १ ॥
एतन्मैथुनमष्टाङ्ग प्रवदन्ति मनीषिणः' । इति ॥ २. 'तदुक्तं भगवत्पतमिलना-'तत्राहिंसासस्यास्तेयब्रह्मवर्यापरिग्रहा यमा' इति यो० सू० २॥३०॥
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ब्रह्मवर्गः ७ ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ 'क्षौरं तु भद्राकरणं मुण्डनं वपनं त्रिषु' (२४) । २ उपवीतं ब्रह्मसूत्रं प्रोदधृते दक्षिणे करे ॥४९॥ ३ प्राचीनावीतमन्दस्मिन् ४ निवीतं कण्ठलम्बितम् ।
मिट्टी जल सादिसे बाहरी और पञ्चगव्य पान आदिसे भीतरी पवित्रता , सन्तोष २, ला चान्द्रायण, छ, सान्तान आदि व्रत) ३, स्वाध्याय (वेदादिका अध्ययन ) १, ईश्वरमणिमात (परमेश्वरको पूजा आदि) ५, 'ये पाँच नियम है)।
३ [ौरम् , भद्राकरणम् , मुण्डनम् ( ३ न), वपनम् (त्रि), 'मुण्डन कराने के ४ नाम हैं॥
२ उपवीतम् , ब्रह्मसूत्रम् (भा० दी. | x यज्ञसूत्रम् २ न) बाये कन्धेके ऊपरसे दाहिने तरफ नीचेकी और लटकते हुए जनेऊ' के २ नाम हैं। ( 'उपवीत जनेऊको धारण करनेवालेका २ उपती ( = उपवीतिन् पु), यह । नाम है')॥
३ प्राचीनावांतम् (न), 'दाहिने धेके ऊपर वायों तरफ नीचेको लटकते हुए जनेऊ' का १ नाम है। ('प्राचीनावात जनेऊ को धारण करने वालेका प्राची नापीती ( = प्राचीमानोतिन् पु) यह ! नाम है)।
४ निवीतम् (न) 'मालाकी तरह गर्दनसे सीधे नीचे की ओर लटकते हुए जनेऊ' का नाम है। ('निीत जनेऊ को धारण करनेवाले का निवीती ( = निवीतिन् पु) यह । नाम है')॥
१. तदुक्तं भगवत्पतञ्जलिना-'शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा' इति यो० सू० २। ३२ ॥ २-३-४. उपवीति-प्राचीनावीति-निवीतिनां लक्षणमाद मनुस्तद्यथा
'उद्धृते दक्षिणे पाणावुपवीत्युच्यते द्विजः ।
सव्ये प्राचीन आवीती निवीती कण्ठसजने' ॥ १॥ मनुः ॥१५॥ छन्दोगपरिशिष्टे च
'ब्रह्मसूत्रेऽत्र सर्येऽसे स्थिते यज्ञोपवीतिता। प्राचीनावीतिताऽसम्ये कठस्थे तु निवीतिता' ॥१॥इति।
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२६०
अमरकोषः ।
[ द्वितीयकाण्डे
१ अङ्गुल्य तीर्थ देवं २ स्वल्पाङ्गस्योर्मूले कायम् ॥ ५० ॥ ३ मध्येऽङ्गुष्ठाङ्गुल्योः 'पित्र्यं ४ मूले त्वङ्गुष्ठस्य ब्राह्मम् । ५ म्याद ब्रह्मभूयं ब्रह्मत्वं ब्रह्मसायुज्यमित्यपि ।। ५१ ।। ६ देवसूयादिकं तद्वत् ७ कृच्छ्रं सान्तपनादिकम् । ८ सत्यासत्यनशने पुमान् प्रायोऽश्थ वीरहा ।। ५० ।।
नष्टाग्निः-
१ दैवम (न), देवतीर्थ' अर्थात् 'हाथकी अङ्गुलियोंके आगेवाले 'भाग' का नाम है ॥
२ कायम (न) "कायतीर्थ' अर्थात् 'हाथ की कनिष्ठा अङ्गुली के नीचे. वाले भाग' ' नाम है ॥
३ पित्र्यम् ( + ध्यम्, चैत्रम् । न ) और तर्जनी के बीचवाले भाग' का १ नाम है ॥
४ ब्राहम् ( न ), "ब्रह्मतीर्थ' अर्थात 'हाथके अँगूठ मूहभाग' का
१ नाम है ॥
}
५ ब्रह्मभुवम् लीन हो जाने के ३ नाम हैं ॥
पितृतीर्थ' अर्थात् 'हायके अँगूठे
ब्रह्मन्दम्र, ब्रहसायुज्यम् ( न ), 'मोक्ष' अर्थात् ब्रह्ममें
६ देवभूम (न) आदि ( देवश्वम्, देवखायुज्यम्; २ न ), 'देवता में लीन हो जाने' के ३ नाम हैं 1
E
७ कृच्छ्रम (न ) ' सान्नपन आदि ( चान्द्रायण, पराक और प्राजापत्य आदि ) व्रत' का १ नाम है ॥
८ प्राय: (पु), 'संन्यास- पूर्वक भोजनको छोड़ने' का १ नाम है ॥ ९ वहा ( alegą! + fargı=farga ), aeıfta: (z g ), ‘galदसे जिस अग्निहोत्रीकी आग बुझ गयी हो उस अग्निहोत्री के २ नाम हैं
=
१. 'पैन्यम्' इति पाठान्तरम् ॥
२- ३-४-५. ब्राह्म काय देव-पित्र्य-तीर्थानां लक्षणान्याह मनुः । तथा हि
'अङ्गुष्ठमूलस्य तले ब्राह्म-तीर्थ प्रचक्षते ।
कायमङ्गुलिग्रेदेवं पित्र्यं तयोरधः ॥ १ ॥ इति मनुः २५९ ॥
६. भेवपुरःसर कृच्छ्रभेदास्तद्विविश्व याज्ञवल्क्यस्मृतौ ( ३।३१५ - ३२५ ), मनुस्मृती १२/२११ - २२५ ) च द्रष्टव्याः ।
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ब्रह्मवर्गः ७ ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२६१ -१ कुहना लाभान्मिथ्येर्यापथकल्पना । २ व्रात्यः संस्कारहीगः स्या३दस्वाध्यायो निराकृतिः ।। ५३ ॥ ४ धर्मध्वजी लिङ्गवृत्ति५रवकीर्णी क्षतव्रतः । ६ सुप्ते यत्पिन्नस्तमति नुप्ते यस्मिन्नुदेति च ।। ५४ ॥
अंशुमानभिनिर्मुक्ताभ्युदितौ च यथाक्रमम् । ७ परिवेत्ताऽनुतोऽनूढे ज्येष्ठे दारपरिग्रहात् ।। ५५ ।।
. कुहा (at), 'दम्भसे ध्यान मौनादि धारण करने, धनलाभसे मिथ्या धर्माचरण करने का : नाम है ॥
२ 'माया, संस्कारहीनः । भा० दी० । २ धु), 'यथोचित समयपर यज्ञोपवीत संस्कारसे होन द्विजाति (ब्रह्मा, क्षत्रिय और वैश्य) के २ नास हैं ॥ ब्राह्मण क्षत्रा तश वैश्वका गधामसे क्रमशः १६, १२ और २४ वर्षको अवस्थातक यज्ञोपवीत नहीं होने पर उन्हें 'वात्य' कहते हैं)॥
३ अस्वाध्यायः (भा. दी.), निराकृतिः (२ पु), 'वेदको नहीं पढ़नेशले' के २ नाम हैं । ( 'व्रात्यः,....... ४ नाम एकार्थक हैं, यह भी कई एक आचानका मत है)।
४ धर्मध्वजी ( = धर्मध्वजिन ), लिङ्गवृत्तिः (२ पु), 'भिक्षा आदि मिलनेके लिये जटा भस्मादि धारणकर झूठा साधु बनने के नाम हैं ।
५ अक्कीई ( = अवकोणिन् ), क्षतवतः(भा० दो० । २ पु), 'नियमसे चलनेवाला ब्रह्मचर्यादि व्रत जिसका बोच ही में भग्न हो गया हो उस ब्रह्मचारी आदि ब्रती' के २ भाम हैं । .६ अभिनिर्मुक्तः, अभ्युदितः (पु), 'जिसके सोते रहनेपर सूर्योदय हो और जिसके सोते रहने पर सूर्यास्त हो उसका क्रमशः १-१ नाम है ॥
७ परिवेत्ता (% परिवेत्त, पु), 'बड़े भाई के अविवाहित (बिना ब्याह किये हुए) रहनेपर विवाहित (व्याह किये हुए ) छोटे भाई' का नाम है।
१. व्रात्यलक्षणमाइ मनुस्तद्यथा---
'भाषोडशाबाह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते । भावाविंशात्क्षत्रबन्धोराचतुर्विशतेविंशः॥१॥ अत अवं प्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः। सावित्रीपतितावास्या भवन्त्यायविहिताः ॥२॥ इति मनुः ११३८-१९
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२६२
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे१ परिवित्तिस्तु तज्ज्यायान् २ विवाहोपयमौ समौ ।
तथा परिणयोद्वाहोपयामाः पाणिपीडनम् ॥ ५६ ॥ ३ 'न्यवायो ग्राम्यधर्मो मैथुनं निधुवनं रतम् । ४ त्रिवर्गो धर्मकामार्थ५श्चतुर्वर्गः समोक्षकैः ॥ ५७ ।। ६ सबलैस्तैश्चतुर्भद्रं ७ जन्याः स्निग्धा वरस्य ये।
इति ब्रह्मवर्गः ॥ ७॥
परिवित्तिः (पु), "जिसका छोटा भाई विवाहित हो उस मविवाहित बड़े भाई' का । नाम है ।।
विवाहः, उपयमः, परिणयः, हद्वाहः, उपयामः (५ पु), पणिपीडनम् (+पाणिग्रहणम्, करपीडनम,.....' । न ) 'विवाह' के ६ नाम हैं ।
३ व्यवाया, प्राग्यधर्मः (२ पु), मैथुनम्, निधुवनम्, रतम् (३ न), 'मैथुन' अर्थात् 'स्त्री के साथ सम्भोग करने के ५ नाम हैं !!
४ निवर्गः (पु), 'अर्थ, धर्म और काम के समुदाय का । नाम है।
५ चतुर्वर्गः (पु), 'अर्थ, धर्म और काम और मोक्षके समुदाय' का। नाम है॥
६ चतुर्भद्रम् (न), 'सुदृढ़ अर्थ, धर्म, काम और मोक्षके समुदाय' का नाम है ॥
७ जन्यः (पु), 'समान अबस्थापाले वर ( दुल्हा) के प्रेमी या वधूकी पालकी ढोनेवाले' का 1 नाम है ॥
इति ब्रह्मवर्गः ॥ ७ ॥
१. 'व्यवायो ग्राम्यधर्मश्च रतं निधुवनं च सा' इति केचिस्पठन्ति' इति महेश्वरः ।।
२. परिवेत्तुपरिवियोलक्षणं यथायेऽप्रजेप्वकलत्रेषु कुर्वते दारसंग्रहम् । ज्ञेयास्ते परिवेसारः परिवित्तिस्तु पूर्वजः ॥१॥ इति ।।
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२६३
पत्रियवर्गः ८] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
८. अथ क्षत्रियवर्गः। १ मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो शाहुमा क्षत्रियो विराट ! २ राजा गट पार्थिवक्षमा नपभूपमहीक्षितः ॥ १॥ ३ राजा तु प्रणताशेष सामन्त स्मादधीश्वरः । ३ चक्रवर्ती सार्वभौमी तपः
८ अथ क्षत्रियवर्णः। मूर्धाभिषिक्तः ( + मूर्धषिक्तः ), राजन्यः, 'बाहुजा, क्षस्त्रियः, विराट ( = विराज् । ५ पु), 'क्षत्रिय' के ५ नाम है ॥
२ राजा ( = राजन् ), राट् ( = राज ), पार्थिवः चमाभृत् ( + चमा. भुक् = ६माभुज, महीभुक् = महीभुत,..."), नृपः, भूगा(+महीपः, भूपतिः, भूपाला, महीपतिः, महीपाल:. . . . . . ), महीक्षित ( + अधिपः, नराधिपः, नरेशः...... । ७ पु ), 'राजा' के ७ नाम हैं ॥
३ अधीश्वरः ( = अप्रतिरथः । पु), 'सब तरफके राजाओको वशमें करनेवाले राजा' का ? नाम ॥
४ चक्रवर्ती ( = धवलिन् ), सार्वभौमः (२ पु), चक्रवर्ती राजा' अर्थात 'समुद्र-पर्यन्त पृथ्वीकी रक्षा करनेवाले राजा' के २ नाम हैं। (१ भरत २ सगर, ३ मघना, ४ सनत्कुमार, ५ शान्ति, ६ कुन्थु, ७ अर ( ये तीनों जिन थे), ८ कार्तवीर्य, ९ पद्म, 1. हरिषेण, ११ जय और १२ ब्रह्मदत्त, ये बारह राजा भारतवर्ष में चनारी हुए हैं, ये सब इक्ष्वाकु वंशमें उत्रन थे)॥
१. 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः-' इति श्रुतेः ।। २. तदुक्तं हेमचन्द्राचार्य:
'चक्रवर्ती सार्वभौमस्ते तु दादश मारते ॥ भार्षभिर्भरतस्तत्र सगरस्तु सुमित्रभूः। मघवा वैजयिरथाश्वसेननृपनन्दनः॥ सनत्कुमारोऽथ शान्तिः कुन्थुररो जिना अपि । सुभूमस्तु कार्तवीर्यः पद्मः पद्मोत्तरात्मनः॥ हरिषेणो हरिसुतो जयो विजयनन्दनः। ब्रह्मसूनुर्ब्रह्मदत्तः सर्वेपीक्ष्वाकुवंशजाः' ।
[ अमि० चिन्ता० ॥३५५-३५८ ।।
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२३४
अमरकोषः। [द्वितीयका
-१ अन्यो मण्डलेश्वरः ॥२॥ २ येनेष्टं राजसूयेन मण्डलस्येश्वरश्च यः।
शास्ति यश्चाक्षया राक्षः स सम्राड३थ राजकम् ॥३॥ ४ राजन्य नृपतिक्षत्रियाणां गणे क्रमात् । ५ मन्त्री धीसवियोऽमात्योऽन्ये कर्मसचिवास्ततः॥४॥
१ मण्डलेश्वरः (पु), 'मण्डल (इसके बारह प्रकृति अर्थात् भेद होते हैं) या देशको शासन करनेवाले राजा' का । नाम है ॥
. सम्राट् ( = सम्राज् , पु) भा० वी० मतसे 'जिसने राजसूय यज्ञ किया हो, मण्डल ( इसकी बारह प्रकृतियां होती हैं ) का स्वामी हो और सब राजाओको जीतकर अपने वश कर लिया हो उस राजा' का और किसी के मससे पूर्वोक १-१ गुणोंसे भी युक्त राजा' का । नाम है ।
३ राजकम् (न), 'राजसमूह' का । नाम है। ४ राजन्यकम् (न), 'क्षत्रियों के समुदाय' का नाम है ॥ ५ मन्त्री ( = मनिन् ), धासचिवः अमात्या (+ सामवायिकः । ३ पु) 'मन्त्री' अर्थात् 'बुद्धिविषयक सहायता देनेवाले मन्त्री के ३ नाम हैं ।
कर्मसचिवः (पु) 'प्रत्येक काममें सहायता देनेवाले मन्त्री' का
१. मण्डलस्य द्वादाश प्रकृतयो भवन्ति । ता यथा-१ विजेतुमभ्युद्यतो विजिगीषुः २ सहन कृत्रिम-स्वभूम्यनन्तरत्रिविधोऽरिः, ३ असंहतयोररिविजिगीष्वोनिग्रहे समथों मध्यमा, ४ परिविजिगीषुमध्यमानामसंहतानां निग्रहे समर्थ उदासीना, ५विजिगीषुमित्रम् , ६ अरि. मित्रम , ७ विजिगीषुमित्रमित्रम्, ८ अरिमित्रमित्रम्, ९ पाणिग्राहः, १० आक्रन्दः, ११ पार्णिमाहासारः,१२ आक्रन्दासारश्चेति सविस्तर मेतद्विवरणं वीरमित्रोदयस्पराजनीतिप्रकाशे दादशराजमण्डलप्रकरणस्य ३२० तमे पृष्ठे द्रष्टव्यम् ।। एत एव द्वादश राजमहन्भेदाः क्षीरस्वामिभिरुक्तास्तथा हि
'मरिमित्रमरेमित्रं मित्रमित्रमतः परम् । तथाऽरिमित्रमित्रच विजिगीषोः पुरः स्मृताः॥१॥ पाणिग्राहस्तयाऽऽकन्द आसारश्च तयोः पृथक । मध्यमोऽवाप्युदासीन इति द्वादश राजकम् ॥ २॥ इति ।।
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त्रिवर्गः ८ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ महामात्रा: प्रधानानि २ पुरोधास्तु पुरोहितः । ३ द्रष्टरि व्यवहाराणां प्राविपाकाक्षदर्शकौ ॥ ५ ॥
१ महामात्र: (पु), प्रधानम् ( न । +5 ) प्रधान मन्त्री, राजाके खास सलाहकार' के २ नाम हैं । ( 'किसी २ के मत से 'कर्मसचिवः' आदि ३ नाम 'काममें सहायता देनेवाले मन्त्रि' के ही हैं' ) ॥
२ पुरोधाः (= पुरोधस् ), पुरोहितः ( + सौवस्तिकः २) 'पुरोहित' के २ नाम हैं ॥
३ ' प्राविपाकः, अक्षदर्शक: ( + आदर्शतः, अक्षपटलिकः । २५ ), 'व्यवहार (मुकदमे ) को देखनेवाले' अर्थात् 'न्यायाधीश' के २ नाम हैं । ( 'व्यवहार के प्रधान अट्ठारह भेद होते हैं' )
प्रयत्नतः ।
१. नानामतेन प्राविपाकलक्षणाच्युते'विवादानुगतं पृष्ट्वा पूर्ववाक्यं विचारयति येनासौ प्राविपाकस्ततः स्मृतः ॥ १ ॥ इति ॥ कचित् -- ससभ्यस्तत्प्रयत्नतः' इत्येवं द्वियीयः पादः ॥
अन्यच्च -- 'विवादे पृच्छति प्रश्नं प्रतिप्रश्नं तथैव च । नयपूर्वं प्राग्वदति प्राङ्क्षिपाकस्ततः स्मृतः ' ॥ १ ॥ इति ॥
१. मनुरष्टादश व्यवहारानाह-'तेषामाद्यमृणादानं निक्षेपोsस्वामिविक्रयः । सम्भूय च समुत्थानं दत्तस्थानपकर्म च ॥ १ ॥ वेतनचैव चादानं संविव व्यतिक्रमः । क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः ॥ २ ॥ सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके । स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणमेव च ॥ ३ ॥ स्त्रीधर्मो विभागश्च द्यूतमाह्वय एव च । पादान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविद्द' ॥ ४ ॥
२६५
'एषामैव प्रभेदोऽन्यः शतमष्टोत्तरं भवेत् । क्रियाभेदान्मुष्याणां शतशाखं निगद्यते ' ॥ १ ॥ इति नारदोक्त्याऽस्यानेकधा भेदास्ते इह विस्तरमयान्नोच्यन्ते ॥
इति मनुः ८ ४-७ ॥
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२६६
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्ड१ 'प्रतीहारो द्वारपालद्वास्थद्वास्थितदर्शकाः। २ रक्षिधर्गस्त्वनीकस्थोऽशाध्यक्षाधिकृतौ समौ ॥ ६॥ ४ स्थायुकोऽधिकृतो ग्रामे ५ गोपो ग्रामेषु भूरिषु । ६ 'भौरिकः कनकाध्यक्षो ७ रूप्याध्यक्षस्तु नैष्किकः ॥ ७॥ ८ अन्तःपुरे त्वधिकृतः स्यादन्तर्वशिको जनः। ६ सोविदल्लाः कचुकिनः स्थापत्याः सीविदाश्च ते ॥ ८॥ १० शण्ढो वर्षवरस्तुल्यो
प्रतीहारः ( + प्रतिहारः), द्वारपालः, द्वास्थः ( + द्वा:स्था ), द्वास्थितः (+हास्थितः ), दर्शकः (+ द्वास्थितदर्शकः द्वास्थोपस्थितदर्शकः, दौवारिका ५ पु), 'द्वारपाल, ड्योढ़ीदार' के ५ नाम हैं ।
२ रहिवर्गः, अनीक स्थः (२ पु), 'राज आदिके अङ्गरक्षक' के २ नाम हैं।
३ अध्यक्षः, अधिकृतः (२), 'अध्यक्ष के २ नाम हैं । ४ स्थायुक्तः (पु), 'एक ग्रामके अध्यक्ष का नाम है ॥ ५ गोपः (पु), 'बहुत नामोंके अध्यक्ष' का १ नाम है ।
६ भौरिकः ( + ईरिका ) कनकाध्यतः (२ पु), 'सुवर्णके अध्यक्ष के २ नाम हैं।
७ रूप्याध्यक्षः नैदिककः ( २ पु), 'टकसाल' ( रुपया आदि सिक्का ढालने के कारखाने ) के अध्यक्ष के २ नाम हैं ।
८ अन्तर्वशिकः ( + अन्तर्चशिका ! पु), 'रतिकाल में नियुक्त पुरुष' का । नाम है ॥
९ सौविदल्ल, कचकी ( + कञ्चुकिन् ), थारयः, सोविदः (४ पु), 'कच्चुकी' अर्थात् 'राजाओं हार में शा निकाय, हाहरी रक्षा के लिये बेतकी पतली छड़ी लिथे हुए माने जानेसायन पुरू' के ४ नाम हैं ॥
१. शण्ढः ( + घण्टः ), वर्ग:(१ पु), 'नपुंसक, जनस्वा' के २ नाम हैं।
१. प्रतिहारो द्वारपालो द्वास्थोपस्थित दर्शकः इति पाठान्तरम् ।। २. 'हेरिकः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. षण्ढो' इति पाठान्तरम् ।। ४. वर्षवरलक्षणं यथा
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स्त्रियवर्गः ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ सेवकार्थ्यनुजीविनः । २ विषयानन्तरो राजा शत्रुमित्रमतः परम् ।।९।। ५ उदासीनः परतरः ५पाणिग्राहस्तु पृष्ठतः । ६ रिपो परिसपत्नारिद्विषद्वेषणदुर्हदः ॥ १० ॥ द्विधिपक्षाहितामित्रवस्युशात्रवशत्रवः ।
अभिघातिपरारातिप्रत्यर्थिपरिपन्थिनः ॥११॥ ७ षयस्यः स्निग्धः सवया ८ अथ मित्नंसखा सुहृत् ।
१ सेवकः, अर्थी ( = अर्थिन् ), अनुजीवी (= अनुजीविन् । + अनुचरः ३ पु), 'सेवक, नौकर' के ३ नाम हैं ।
२ शत्रुः (पु), 'अपने देश (राज्य) के समीपवाले देशके राजा का नाम है।
३ मिस्त्रम् (न), 'पूर्वोक्तसे भिन्न राजा' का नाम है ॥
४ उदासीनः (पु), 'उदासीन' अर्थात् 'पूर्वोक्त शत्रु और मित्रके लक्षण भिम राजा' का नाम है ॥ __५ पाणिग्राहः (पु), 'राजाके युद्धादि-यान्नामें पीछेसे किलेपर चढाई करनेवाले या योद्धाक पीछेसे रक्षा करनेवाले राजा' का नाम है । __५ रिपुः, वैरी (= वैरिन् सपनः, भरिः, द्वषन् (= द्विषत् ), द्वेषणः, दुहृद्, द्विट ( = द्विष), विपक्षः, हितः, अभित्रः, दस्युः, शाबला, शत्रुः, अभिघाती ( = अभिघातिन् । + अभियातिः), परः, अरागि, प्रत्यी ( = प्रत्यर्थिन् ), (परिपन्य (= परिपन्थिन् । १९ पु), 'वैरी' के १९ नाम है।
७ वयस्या, स्निग्धः, सवयाः (= स्वयम् । ३ पु), 'समान अवस्था. वाले मित्र के ३ नाम हैं ।
मिस्त्रम् (न), 'सखा (= सखि), सुहा ( = सुहृद् ! +सा सपदीनः । २ पु), 'मित्र, दोस्त' के नाम हैं ।
'ये स्वरूपसत्त्वाः प्रथमाः कोबाश्च स्त्रीस्वभाविनः ।
जात्या न दुष्टाः कार्येषु ते वै वर्षवराः स्मृताः ॥ १॥ इति ॥ १-२-३. स्यागसहनो बन्धुः सदेवानुगतः सुहृत् ।।
एकक्रियं भवेन्मित्रं समप्राणः सखा स्मृतः ॥१॥ इति ।
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२६८ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ सख्यं सातपदीनं स्याऽदनुरोधोऽनुवर्तनम् ॥ १२ ॥ ३ यथार्हवर्णः 'प्रणिधिरपसर्पश्चरः स्पशः ।
चारश्च गूढपुरुषश्चातप्रत्ययिती समौ ॥ १३ ॥ ५ सांबारी ज्योतिषिको दैवक्षगणकावपि ।
स्युर्मीहर्तिकमौहलक्षानिकाान्तिका पि ॥१४॥ ६ तान्त्रिकी मातांसद्धान्तः ७ सन्त्री गृहपतिः समी। ८ लिधिकारोऽक्षरचणोऽक्षरचुवश्च लेखके ॥ १५ ॥ ६ लिखिताक्षरविन्याले लिपिति बिरुमे स्त्रियो।
सख्यम् , साइपनीनम् ( + सौहृदम् , सौहार्दम् , सौहृदोयम , आजयम् , मैत्री । २ न), 'दास्ती, मित्रता' के २ नाम हैं ।
२ अनुरोधः (पु), अनुवर्तनम् (न), 'अनुकूल रहने के नाम हैं।
३ यथावर्णः, प्रनिधिः, अपसर्पः (+ अवसर्पः), चरः, स्पशः, चारस, गूढपुरुषः (पु), 'गुतचर, खोफिया' के नाम हैं ।
४ आप्तः, प्रत्यापितः (२ त्रि), 'विश्वासपात्र पुरुषादि के २ नाम हैं ।
५ सांवत्सरः, ज्योतिपिकः ( + ज्योतिषिकः ), दैवज्ञः, गणक, मौहूर्तिका, मौहत्तः, ज्ञानी (= ज्ञानिन् ), काान्तिका (८ पु), 'ज्योतिषि' के ८ नाम हैं ।
तान्त्रिक, ज्ञातलिद्धान्तः (२ पु), 'सिद्धान्तको ठीक २ जाननेवाले' के २ नाम हैं।
सनी ( = सन्निन् ), गृहपतिः (२), 'अन्नादिको सर्वदा दान. करनेवाले गृहस्थ' के २ नाम हैं।
८ लिपिकारः (+ लिपिकरः, लिविकरः, लिपिङ्करः, लिविकर), अक्षरचणः, अपरचुचः, लेराः , (४), 'नक, कातिब' के ४ नाम हैं।
९लिपिः ( + लिही), लिविः (खो), 'लिखे हुए अक्षर चित्रादि' के २ नाम है। ('मह के मतसं लिखितम् , अक्षरसंस्थानम् ( + लिखितातरसंस्थानम् , अरविन्यासः। २ न), इन शब्दों भी पर्याय होने से ४ नाम उतार्थ हैं')॥ १. 'प्रणिधिरवसर्पश्चरः इति पाठान्तरम् ।। २. 'लिपिकरः' इविकिपिङ्करः' इति पाठान्तरे । ३. 'लिखिताक्षरसंस्थाने इति पाठान्तरम् ॥
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NAAM
ANA
पत्रियवर्ग: 6] मणिप्रभाब्याख्यासहितः।। १ स्यात्संदेशहरो दूतो २ दूत्यं तद्भावकर्मणी ॥ १६॥ ३ अध्वनीनोऽध्वगोऽधन्यः पाग्यः पथिक इत्यपि । ४ 'स्वाम्यमात्यमुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गपलानि च ॥ १७॥
राज्यानानि प्रकृतयः५ पौराणां थणयोऽपि च । ६ सन्धिर्ना विग्रहो यानमासनं द्वैधमाश्रयः ॥१८॥
षड्गुणा:
१ संदेशहरः, दूतः (२ पु), 'दूत, सदेश पहुंचानेवाले' के २ नाम हैं।
२ दूरयम् (+दौत्यम् । न), 'दूतके काम या भाव' का नाम है।
३ भध्वनीना, अगः, अध्वन्या, पान्धः, पथिकः (५ पु), 'पथिक' राही, मुसाफिर' के ५ नाम हैं।
स्वामी (स्वामिन् ), अमास्यः, सुहृत् (-सुहृद्), कोशः ( + कोपः। ४ पु), राष्ट्रम, दुर्गम, बलम् (३०), राजा,मन्त्री, मित्र, खजाना, राज्य, किला और सेना का वाचक क्रमशः 1-1 शब्द है, इन सातों के 'राज्यातम् (न), प्रकृतिः (सी)। ये नाम हैं अर्थात् राजा मादि,....२ 'राज्यान और प्रकृति' कहलाते हैं।
५ पौराणां श्रेणयः (सी), अर्थात् 'नगरवासियों को भी राज्यान और प्रकृति' कहते है। इस तरह 'राज्यात या प्रकृति' के ८ भेद हैं।
६ सन्धिः , विग्रहः, यानम् , आसनम् , द्वैधम् (३ न), आश्रयः (शेष ३ पु), ये ६ 'नीति जाननेवालोंके गुण' हैं। ('प्रसङ्गवश इनके
१. भयमेव श्लोको हेमचन्द्राचायाचितेऽभिधानचिन्तामणौ ( ३३३७८) समुपलभ्यते ॥ २. राज्याङ्गस्य सप्तार कामन्दक उत्तम् । तथा हि
'स्वाम्यमात्यश्च राष्ट्रश्च दुर्ग कोषो बलं महत् ।
परस्परोपकारीदं समाङ्गं राज्यमुच्यते ॥ १॥ इति ।। ३. 'भमास्याचाश्च पौराश्च सद्भिः प्रकृतयः स्मृताः। इति कास्यात राज्यस्याष्टाङ्गत्यमपि सिद्धथति ॥ ४. षड्गुणा मनुना उकास्तथा हि
'सन्धि च विग्रहं चैव वानमासनमेव च । देवीमा संभयं चपडगुणबिन्तयेस्सदा ॥१॥ इति मनुः ७.१०।।
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२७०
अमरकोषः।
[हितीयकाण्डे'लक्षण कहते हैं-सुवर्णादि, धन, हाथी, घोड़ा आदि देकर वैरीसे मेल करने को सन्धि १, शत्रुके राज्यादिको लूटने या अग्नि आदि लगाकर वैर या युद्ध करने. को विग्रह २, जीतनेत्री इच्छासे चढ़ाई या युद्धयात्रा करने को यान ३, अपने पक्ष दुर्बल होनेसे किला सादिको पुष्ट तथा सुरचित कर चुप-चाप बैठ जाने को आसन ४, बलवान् के साथ मित्रता और दुर्बल के साथ वर करने को या आधी सेना स्नाथ चढ़ाई करने को द्वैध ५, तथा शत्रु पीड़ित होकर अपनी रझाके लिये उदासीन या मध्यम सना शरण में जाने को आश्रय ६ कहते हैं। इनके भी अनेक भेद होते हैं')॥ १. एतेषां लक्षणानि वीरमियोदयस्य राजनीतिप्रकाश उक्तानि । तथा हि
'पणबन्धः स्मृतः' सन्धिरपकारस्तु विग्रहः । जिगीषोः शत्रुविषये यानं यात्राऽभिधीयते ॥ १॥ विग्रदेऽपि स्वके देशे स्थितिरासनमुच्यते । बलार्द्धन प्रयापं तु द्वैधीभावः स उच्यते ॥ २ ॥ उदासीने मध्यमे वा संश्रयात्संश्रयः स्मृतः ।
इति वीरमित्रोदयः पृ ३२४ । २. सन्ध्यादीनां भेदानाह मनुस्तथा हि
'सन्धि तु द्विविधं विद्याद्राजा विग्रहमेव च ।। उभे यानासने चैव द्विविधः संश्रयः स्मृतः ॥१॥ समानयानकर्मा च विपरीतस्तथैव च । तदावायतिसंयुक्तः सन्धियो दिलक्षणः ॥२॥ स्वयंकृतश्च कार्यार्थमकाले काल एव वा । मित्रस्य चैवापकृते द्विविधो विग्रहः स्मृतः ।। ३ ।। एकाकिनश्चात्ययिके कार्य प्राप्ते यदृच्छया । संहतस्य च मित्रेण दिविधं यानमुच्यते ॥४॥ क्षीणस्य चैव कमन्यो दैवात्पूर्वकृतेन वा । . मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम् ॥५॥ बलस्य स्वामिनश्चैव स्थितिः कार्यार्थसिद्धये । द्विविधं कीर्त्यते द्वधं पाडगुण्यगुणवेदिमिः ॥६॥ मर्थसम्पादनार्थ च पीड्यमानस्य शत्रुमिः । साधुषु व्यपदेशार्थ द्विविधः संश्रयः स्मृतः ॥७॥
७१६२-१६८॥ विस्तरमियाऽन्यत्रोक्ता एतेषां भेदोपभेा नोच्यन्त इति तेऽन्यतो द्रष्टम्याः॥
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पप्रियवर्गः ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
२७१ १-शक्तयस्तिनः प्रभावोत्साहमन्त्रजाः । २ क्षयः स्थानं च वृद्धिश्च त्रिवर्गो नीतिवेदिनाम् ॥ १९ ॥ ३ स प्रतापः प्रभावश्च यत्तेजः कोषदण्डजम् । ४ भेदो दण्डः साम दानमित्युपायचतुष्टयम् ॥२०॥
१ शक्तिः (स्त्री), 'शक्ति' अर्थात् 'सामर्थ्य' 'प्रभात्र, उत्साह और मन्त्र (गुप्त सलाह से होती है अर्थात् प्रभावज, उत्साहज और मन्त्रज' थे। शकिया हैं। (कोष और दण्ड बल प्रभावज शक्ति १, विक्रम बल उत्साहज शक्ति २, और सन्धि आदि पड्गुण तथा सामादि उपायका यथावत् प्रयोग मन्त्रज शक्ति ३, है')। . २ क्षयः (पु), स्थानम् (न), वृद्धि (लो), क्रमशः कृषि आदि
अष्टवर्गकी कमी होने को क्षय, सामान्य रहने (कमी-बेपी नहीं होने) को स्थान और बढ़ने को वृद्धि कहते हैं । ये ही तीनों (यः, स्थानम् , वृद्धिः), नीति जाननेवालोंका त्रिवर्ग है; त्रिवर्गः (पु), है ॥
३ प्रभावजा, प्रतापः (२ पु), 'प्रताप' अर्थात् 'खजाने तथा शासनसे उत्पन्न तेज' के १ नाम हैं ।
४ भेदः, दण्डः (पु), साम ( = सामन् ), दानम् (२ न), क्रमशः वैरी मन्त्री आदिको गुरुचर आदिके द्वारा फोड़कर अपने पक्ष में लाकर शत्रुको वशमें करनेको भेद १, अपराधियों शासन करने को दण्ड २, मोठे वचन या अन्यान्य उपायोंसे क्रोध दूर करनेको साम ३ और किसी वस्तु के देनेको दान कहते हैं। ये ही चारो (भेदः, दण्डः, साम दानम्), नीति जाननेवालों के उपाय, उपायः (पु) है। (१ भेदके तीन, २दण्डके दो चार, १. अष्टवगों यथा-कृषिर्वणिक्पथो दुर्गः सेतुः कुञ्जरबन्धनम् ।
खन्याक र बलादानं शून्यानां च विवेचनम् ॥ १॥ इति ।। २. तदुक्तं याशवल्क्येन
_ 'उपायाः साम दानं च भेदो दण्डस्तथैव च ।। इति याश० स्मृ० ११३४६ । मनुं प्रति मत्स्येनोपायस्य सप्तविधवमुक्तं तथा हि
'साम भेदस्तथा दानं दण्डश्च मनुजेश्वर । उपेक्षा च तथा माया इन्द्रजालंच पार्थिव ॥१॥ प्रयोगाः कथिताः सप्त तन्मे निगदतः शृणु' वीर० राज० प्रक० पृ० २८० ।।
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२७२
अमरकोषः
[द्वितीयकापड१ साहसं तु दमो दण्डः २ साम सान्त्व३मथो समौ ।
भेदोपजापावुपधा धर्माधैर्यत्परीक्षणम् ।। २१ ॥
३साम के चार और ४ दानके पाँव भेद होते हैं ")
साहरूम् (न) दण्डा, नमः (२ पु) 'दण्ड के नाम हैं ।
साम ( = सामन् ), लाम् (२न), 'लाम शान्त करने के २ नाम है।
३ भेदः, उपजापः ( २ पु), 'भेद' के १ नाम हैं ॥
४ उपधा (सी), 'मन्त्री आश्केि धर्म, धन काम और भयादिको खाननेके लिये उनकी राजाद्वारा परीक्षा करने का नाम है ॥
१. मेदविधा तथा हि
स्नेहरागापनयनं संहर्षोत्पादनं तथा ।
संतर्जनं च भेदभेदस्तु त्रिविधी मतः॥१॥ इति । नारदेन दण्डस्य दैविध्यं मनुना च चतुविधवमुक्तम् । तत् क्रमशःप्रदर्यते
'शारीरश्चार्थदण्डश्च दण्ड द्विविधो मतः। शारीरस्ताडनादिस्तु मरणान्तः प्रकीर्तितः ॥१॥ काकिन्यादिस्स्वर्थदण्डः सर्वस्वान्तस्तथैव च । इति नारदोक्तम् । 'वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्धिग्दण्डं तदनन्तरम् ।
तृतीयं धनदण्डं तु वदण्डमतः परम् ॥ १॥ इति मनुः ८।१२९ ।। अग्निपुराणे साम्नश्चतुर्विधस्वमुतन्तथा हि
'चतुर्विधं स्मृतं साम उपकारानुकीर्तनम् । मिथः सम्पन्धकथनं मृदुपूर्व च भाषणम् ॥१॥
मायतेर्दर्शनं वाचा तत्रा (वा) हमिति चार्पणम् । इति ।। दानस्य पञ्चविधमुक्तमग्नि पुराणे, तथा हि
'यः संप्राप्तधनोत्सर्ग उत्तमाधममध्यमः। प्रतिदानं तदा तस्य गृहीतस्यानुमोदनम् ॥१॥ द्रव्यदानमपूर्व च तथैवेष्टप्रवर्तनम् ।
देयं च प्रतिमोक्षश्च दानं पञ्चविधं स्मृतम् ॥ २॥ एतेषामुपायान प्रयोगकाकादिकं विविधसम्मतभेदप्रकाराश्चात्र ग्रन्थविस्तरमिया नोछि बिवावीरमित्रोदयस्य राजनीतिप्रकाशे पु० २७८ तमे द्रष्टव्याः ।।
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स्त्रियवर्गः ८], मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२७३ १ पचत्रिध्व २ षडक्षीणो यस्तृतीयाद्यगोचरः। ३ विविक्तविजनच्छन्ननि शलाकास्तथा रहः ॥ २२॥
रहश्योपांशु चालिङ्गे ४ रहम्यं तद्भवे विषु । ५ समो विस्तम्भविश्वासी ६ भ्रषी भ्रंशा पथोचितात् ॥२३॥ ७ सप्रेषन्यायशास्तु देशरूपं समताम् । ८ युक्तमोपायक भजमानामनीतधत ॥ २४ ॥ ___ न्यायसं च त्रिपुष्ट ९ संप्रधारा तु समर्थनम् । १० अववादस्तु निर्देशो निदेशः शासन म सः ॥ २५ ॥
शिपिशाज्ञा च
१ यहाँसे ५ शब्द निलम हैं।
२ अषडक्षोग (नि), 'केवल दो आदमियोपी की हुई गुप्त सलाह' का नाम है ॥
३ विविक्तः, विजन:, Eनः, निशाला (४ ) बहः ( = रहस् न), रहः ( = रहः ), उपांशु ( २ अन्य०), 'एकान्त' के ७ नाम हैं ।
४ रहस्यम् (त्रि), 'रहस्य, छिपाने योग्य, सलाह आदि' का . नाम है।
५ विखम्भः ( + विश्रामः ), विश्वासः (२९), 'विश्वास' के २ नाम हैं।
६ श्रेषः (पु), 'अनुचित' का । नाम ॥
७ श्रेषः, न्याय, कल्पः (पु), देशरूर , साम् (२ न ), 'न्याय' ५ नाम हैं।
८ शुक्तरऔपरिषम. लभ्यम्, भजमानम् अनीम , न्यायम (३ त्रि) 'न्याययुक्त कार्य या द्रव्यादि' के ६ नाम हैं ।
९ संप्रधारणा (श्री), समर्थनम् (न). 'रक्षिा और अनुचितका विचारकर निश्चय करने २ नाम है ॥
१. अववादा, निदेशः निर्देश , (३ पु), शासनम (न), शिष्टिः, माज्ञा (२ स्त्री), 'आशा, हुक्म' के ६ नाम हैं ।
१. 'समौ विश्रम्मविश्वासौ' इति पाठान्तरम् ॥
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२७४
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे-१ संस्था तु मर्यादा धारणा स्थितिः । १ आगोऽपराधो मन्तुश्च ३ समे तूदानबन्धने ।। २६ ॥
द्विपाधो द्विगुणो दण्डो ५ भागधेयः करो बलिः । ६ घट्टादिदेयं शुल्कोऽस्त्री ७ प्राभृतं तु प्रदेशनम् ॥ २७॥ ८ उपायनमुपग्राह्यमुपहारस्तथोपदा । ९ 'योतकादि तु यद्देयं सुदायो हरणं च तत् ।। २८॥ १० तत्कालस्तु तदात्वं स्यार१दुत्तरः काल आयतिः। । संस्था, मर्यादा, धारणा, स्थितिः ( ४ स्त्री ), 'उचित मार्गपर रहने'
२ आगः ( = भागस न ), अपराधः, मन्तुः (२ पु ), 'अपराध, कसूर' के ३ नाम हैं।
३ सदानम् , बन्धनम् ( २ न ), 'बाँधने या कैद करने के २ नाम हैं । ४ द्विपाधः (पु), 'दुगुने दण्ड' का १ नाम है ॥ ५ भागधेयः, करः, बोलः ( ३ पु ) 'कर मालगुजारी' के २ नाम हैं ।
६ शुल्कः (पुन ), 'घाट जाल और नदी आदिकी आमदनीसे दिये जानेवाले राज-भाग (टेकम)' का । नाम है ॥
- ७ प्राभृतम् , प्रदेश नम् (२ न ), 'मित्रादिको खुश करने के लिये दिये जानेवाले पदार्थ' के २ नाम है ॥
८ उपाय नम , उपग्राह्यम् (२ न), उपहारः (पु), उपदा (स्त्री), भा० दी० मतसे 'गजाको दिये जानेवाले भेट, नजराना' के ४ नाम हैं। प्राभृतम् ,........ 'देवता, राजा, मित्रादिको खुश करने के लिये दिये जानेवाले भेट' के ६ नाम हैं ॥
९ यौतकम् ( + यौतुदम् । न ), सुदायः (पु) हरणम् ( न ), 'यत्रो. पवीत आदिमें दी हुई भिक्षा या दामादको दिये जानेवाले दहेज' के ३ नाम हैं।
१. तरकालः (पु), तदावम् (न), 'वर्तमान काल, वीतते हुए समय' के २ नाम है ॥
"आयति: (). 'आनेवाले समय, भविष्यत्काल' का । नाम है । १. 'यौत कादि' इति पाठान्तरम् ।।
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स्त्रियवर्गः ८] मणिप्रभाब्याख्यासहितः । १ सांष्टिकं फलं सघ २ उदः फलमुत्तरम् ।। २९ ॥ ३ अष्टं वह्नितोयादि ४ दृष्टं स्वपरचक्रजम् । ५ महीभुजामहिमयं स्वपक्षप्रभवं भयम् ॥ ३०॥ ६ प्रक्रिया त्वधिकारः स्या ७ चामरं तु प्रकीर्णकम् । ८ नृपासनं यत्तद्भद्रासनं ६ सिंहासनं तु तत् ॥ ३१ ॥
हैमं १० छत्रं त्वातपत्रं
। सांदृष्टिकम् ( न ), 'व्याशार आदिके बाद शीघ्र मिलनेवाले फल' का १ नाम है ।
२ उदः (पु), 'भविष्य में होनेवाले फल' का । नाम है ।
३ अष्टम् (न), 'आगसे जलने, पानीसे बह जाने आदि' (आदि दसे 'व्याधि, दुर्भिक्ष, मरण, बहुत वर्षा, सूखा, मृग, मूषक' का संग्रह है) के भय' का १ नाम है।
४ टम् (न), 'अपने राज्यमें चोर, जङ्गल आदिका भय तथा दूसरे राज्यसे दाह और चढ़ाई आदिके भय' का । नाम है। ___ ५ अहिभएम् (न), 'अपने पक्ष ( मन्त्री आदि ) से होनेवाले राजा आदिके भय' का १ नाम है ! (' 'पक्ष के ७ भेद हैं')॥
६ प्रक्रिया (स्त्री), अधिकारः (पु), 'व्यवस्थाको ठीक करने के २ नाम हैं ।
. ७ चामरम् (+ चमरम् ; चमरः पु, चा परा स्त्री), प्रकीर्णकम् (न), 'चवर' के २ नाम हैं ।
८ नृपासनम् , भद्रासनम् ( २ न ), 'मणि आदिके बने हुए राजाके आसन' के २ नाम हैं।
९ सिंहासनम् ( न ), 'सुवर्ण के बने हुए राजाके सिंहासन' का , नाम है ॥
१. छत्रम् , भातपत्रम् (२ न ), 'छाता' के २ नाम हैं ।
१. पक्षः सप्तधा, तथा हि
'निजोऽय मैत्रश्च समाभितश्च सम्बन्धतः कार्यसमुद्भवश्च । भृत्या गृहीतो विविधोपचारैः पक्षं बुधाः सप्तविधं वदन्ति' ॥ १॥ इति ॥
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२७६
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे
-१ राज्ञस्तु नृपलक्ष्म तत् । २ भद्रकुम्भः पूर्णकुम्भो ३ भृङ्गारः कनकालुका ।। ३२ ॥ ४ निवेशः शिवि पण्ढे ५ सज्जनं तूपरक्षणम् । ६ हत्यश्वरपादातं सेनाझं स्थाच्चतुत्यम् ॥ ३३॥ ६ बन्ती दन्तावलो हस्ती द्विरदोऽनेको विष्टः।
मतगाजो गजओ नागः दुःअरे वारणा करी ॥३४ इभः स्तम्बरमः पद्मी ८ यूथ नाथस्तु यूधपः ।
१ नृपयम ( = नृचमन , न), 'राजा छात' का । नाम है ॥
२ भद्रकुम्मा, पूर्णकुम्भः ( २ ), 'मङ्गल के लिये जल से भरे हुए घड़े के २ नाम हैं।
३ भृङ्गार (पु), कनकालुका ( स्त्री), 'भारी, हथहर ( स्वर्णके पात्र विशेष ), के २ नाम हैं ।
४ निदेशः (इ), शिविरम् ( = शिविरम् । न ), 'सेनाके ठहरनेकी जगह' के २ नाम हैं।
५ सज्जनम् , उपरक्षणम् (२ न), 'सेनाकी रक्षाके वास्ते नियम किये हुए पहरे' के २ नाम हैं।
६ सेनाङ्गम (न), 'हाथी, रथ, घोड़ा और पैदल ये ४ सेनाके' या' हैं। ( 'ना, जहाज आदिका रथमें, किरात, मशाह आदिका पैदल में और या मादिका हाथी में अन्तर्भाव होने से उनका पृथक प्रहण नहीं किया गया है)
७ दन्ती ( - दन्तिन् ), दन्तावलः, हस्ती ( = हस्तिन् ), द्विरदः, अनेकपः, द्विपः, मनङ्गजा, गजः, नारः, कुञ्जरः, दारुणः, करी ( = करिन् ), हभा, स्तम्बरमा, पन ( = पद्मिन् । + सामना, सिन्धुरः, कुम्भी = कुम्भिन् । ३५ पु), 'हाशी' के १५ नाम है। ('यहांने श्लो. ४३ नक गजप्रकरण है' )॥ ___८ माथः, यूबषः (२ ), 'झुण्ड के स्वामी' के २ नाम हैं ॥ १. तदुत्तं हेमचन्द्राचार्यः'गजो वाजी रथः पत्तिः सेनानं स्याचतुर्विधम् ॥
इति अमि० चिन्ता० ३।४१५ ॥
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क्षस्त्रियवर्गः ८] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ मदोत्कटो मदकलः २ कलभः करिशावकः ॥ ३५ ॥ ३ प्रभिन्नो गर्जितो मत्तः ४ समावुद्वान्तनिर्मदो।
"राजवाह्यस्त्वोपवाह्यः ६ सन्नाहः समरोचितः' (२५) ७ हास्तिकं गजता वृन्दे ८ करिणी धेनुका क्शा ॥ ६ ॥ • गण्डः कटो १०मदोदानं ११ वमथुः करशीकरः । ११ कुम्भौ तु पिण्डौ शिरस:
1 मदोत्कटा, मदकलः (२ पु), 'मतवाले हाथी' के २ नाम हैं ।
२ कलभः (+करमा), करिशावकः (पु), 'तीस वर्षसे कम उम्रपाले हाथीके बच्चे के २ नाम हैं ।
३ प्रमिनः, गर्जितः, मत्तः (३ पु), 'जिसका मद गिर रहा हो उस हाथी' के ३ नाम हैं।
४ उद्वान्तः, निर्मदः (२ पु), "जिसका मद गिरकर समाप्त हो गया हो उस हाथी' के २ नाम हैं ।
५ [ राजवाह्यः, औपवाह्यः ( + उपवाह्यः । २ पु), 'राजाके चढ़ने योग्य हाथी' के नाम हैं ] ॥
[ समाह्यः, समरोचितः (२ पु), 'लड़ाईके योग्य हाथो' के १ नाम है॥
७ हास्तिकम् (न), गजता (स्त्री), 'हाथियोंके झुण्ड' के २ नाम हैं।
करिणी, धेनुका, वशा ( ३ स्त्री), 'हथिनी' के ३ नाम हैं ।
९ गण्डः (भादी०), कटः (१ पु), 'हाथीके गाल' के २ नाम हैं। ('उपलक्षण होनेसे प्राणिमात्र के गाल के भी ये दो नाम हैं)॥
१. मदः (पु), दानम् (न), 'हाथोके मद' के २ नाम हैं।
११ वमधुः, करशीकरः (२ पु), 'हाथीके सूंडसे निकले हुए पानीके छोटे' के नाम हैं।
१२ कुम्भः (पु), हाथोके मस्तकके ऊपरवाले दोनों मांस-पिण्डों का नाम है ॥
१. अयं क्षेपकांश क्षीरस्वामिब्याख्याने दृश्यते ॥
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अमरकोषः
[द्वितीयकाडे
-१ तयोर्मध्ये विदुः पुमान् ॥ ३७॥ २ अवग्रहो ललाट' स्या३दीषिका त्वक्षिकूटकम् । ५ अपाङ्गदेशो निर्याणं ५ कर्णमूलं तु चूलिका ।। ३८॥ ६ अधः कुम्भस्य वाहित्थं ७ प्रतिमानमयोऽस्य यत् । ८ मासनं स्कन्धदेशः स्यात् ९ पद्मकं बिन्दुजालकम् ॥ ३९ ॥
-
-
, विदुः (पु), 'हाथीके मस्तकके ऊपरवाले दोनों मांसपिण्डोके बीचवाले भाग' का । नाम है ॥
२ अवग्रहः ( + अवग्राहः । पु), हाथीके ललाट' का । नाम है ।
३ ईषिका ( + ईषीका, इषिका, इषीका । स्त्री), अतिकूटकम् (न) 'हाथीकी आँखके गोलाकार भाग' के २ नाम हैं ॥
४ निर्याणम् (न), 'हाथीकी आँस्त्र के किनारेषाले भाग' का , नाम है॥
५ चूलिका (स्त्री), 'हाथीकी कनपट्टी' ( कानकी जपवाले भाग) का नाम है ॥
६ वाहिस्थम् (न ), 'हाथीके शिरके ऊपरवाले दोनों मांस-पिण्डके नीचेवाले भाग' का १ नाम है ॥
• प्रतिमानम् (न), हाथीके दोनों दाँतोंके बीचधाले भाग' का नाम है।
८ आसनम् (न), 'हाथीका कन्धा' अर्थात् 'हाथीवान के बैठने की जगह' का नाम है।
९ पद्मकम् , बिन्दुजालकम् (भा० दी। + विन्दुजालकम् । १ न), 'हाथियोंके मुख में कमलाकारछोटे २लाल चिह्न विशेष के २ नाम हैं ।
१. 'स्यादिषीकाः' इति पाठान्तरम् ।। २. यदा पालकाप्यः
'तत्र रक्षाविताने द्वे विदू दो प्रवणे गतौ ।
प्राक्च पश्चाच तिर्यक्च षड्भेदाइकुशवारणा ॥१॥ 'तबारक्षविताने रस्येवं पाठभेदः ममि.चिन्ता०(४१२९२) पाल्पाने समुपलभ्यते ॥
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२७५
स्त्रियवर्ग:0 मणिप्रभाव्याख्यासहितः। १ पक्षभागः पार्श्वभागो २ दन्तभागस्तु योऽग्रतः। ३ द्वौ पूर्वपश्चाजवादिदेशी गात्रावरे क्रमात् ॥ ४०॥ ४ 'तोत्रं वेणुक ५ मालानं बन्धस्तम्भे ६ ऽथ शृङ्खले।
अन्दुको निगडोऽस्त्रीस्याऽदशोऽस्त्रीसृणिःस्त्रियाम्॥११॥ ८ दृष्या कक्ष्या वरत्रा स्यात् १ कल्पना सजना समे। १२ प्रवेण्यास्तरणं वर्णः परिस्तोमः कुथो द्वयोः॥४२॥
. पक्षमागः, पावभागः (भा० दी० । २ पु), 'हाथीके पावभाग' (बगल) के २ नाम हैं।
२ दन्तभागः (पु), 'हाथीके आगेवाले भाग' का १ नाम है ॥
३ गात्रम् , अवरम , (+ अबरम् , अपरम् । २ न), 'हाथीके आगेवाले जवा भादि पूर्वार्द्ध शरीर और पीछेवाले जङ्घा आदि परार्द्ध शरीर के - नाम हैं।
५ तोत्रम् , वेणुकम् ( + वैणुकम् । २ न ), 'हाथीको मारनेवाले डण्डे या चाबुक आदि' के नाम हैं ।
५ भालानम् (न), 'हाथीको बाँधनेवाले खूटे' का । नाम है।
६ शृङ्खलम (त्रि'), भन्दुकः ( + भन्दूः सी। पु), निगः (पुन), 'हाथीकी बेड़ी' (बाँधनेवाली सिकड़ो) के ३ नाम हैं ।
७ अङ्कुशः (पुन), सृणिः (+शृणिः । स्त्री), 'अङ्कश' के २ नाम हैं ।
८ दृष्या ( + चूष्या, चूषा मुकु० ), कचषा, वरना (३ सी), 'हाथीके कसनेवाले रस्से' के ३ नाम हैं ॥
९ कल्पना, सजना (स्त्री), 'गेरू आदिसे हाथीकी सजावट करने के नाम हैं।
१. प्रवेणी ( + प्रवेणः । सी), भास्तरणम (न), वर्णः, परिस्तोमः (+वर्णपरिस्तोमः । २ पु), कुथः (पु स्त्री), 'हाथीके झूले के ५ नाम हैं ।
१. 'तोत्रं वैणुकमालानं बन्धस्तम्भेऽय गृक्षला' इति पाठान्तरम् ॥ २. तथा च मेदिनी-'शृङ्खला पुंस्कटीसमधे च निगडे त्रिषु' इति मे० पृ० १६८ ॥
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२८०
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे१ बीतं त्वसारं हस्त्यश्वं २ वारी तु गजबन्धनी । ३ घोटके 'वीतितुरगतुरङ्गाश्वतुरामाः ॥ ४३ ।।
वाजिवादाचेंगन्धहयसैन्धवसप्तयः । ४ आजानेयाः कुलीनाः स्यु ५विनीताः साधुवाहिनः ॥४४॥ ६ 'धनायुजाः पारसीकाः काम्बोजा वालिका हयाः।
७ ययुरश्वोऽश्वमेधीयो ८जवनस्तु जवाधिकः ॥ ४५ ॥ ~~~~~~~~
वीतम् (न) 'लड़नेमें असमर्थ हाथी-घोड़े' का । नाम है ॥
२ वारी, गजबन्धनी (भा० दी० । २ स्त्री), 'हाथीखाना' अर्थात् 'हाथी बाँधने की जगह' के २ नाम हैं ।
३ घोटकः ( + घोटः), वीतिः ( + पीतिः), तुरगः, तरङ्गः, अवा, तुरङ्गमः, वाजी ( = वाजिन् ), वाह, अर्वा ( = अर्धन् ), गन्धर्वः, हयः, सैन्धवः, सतिः (१३ पु ), 'घोडे के १३ नाम हैं। (यहाँसे श्ला. ५० तक अश्वप्रकरण है)।
४ आजानेयः (पु), 'अच्छे घोड़े का । नाम है।
५ विनीतः, साधुवाही ( + साधुवाहिन् भा. दी० । २ पु); 'अच्छी २ चालसे शिक्षित घोड़े के २ नाम हैं ।
६ वनायुजः (+वानायुजः), पारसीकः, काम्बोजः, बाह्निकः (+ वाहिका, वाहोकः, बाहोकः । ४ पु) 'धनायु, पारस, काम्बोज और वाहिक देशोंमें पैदा होनेवाले घोड़े के क्रमशः १-१ नाम हैं । (किसी-किपी के मतसे प्रथम दो नाम 'पारली घोड़े के और अन्तवाले दो नाम उक्तार्थक हैं)॥
७ ययुः, अश्वमेधीयः ( भा. दी० । २ पु), 'अश्वमेध यज्ञमें छोड़े जानेवाले घोड़े के २ नाम हैं।
८ पवनः ( +प्रजवी = प्रजविन् ), जनाधिकः ( भा. दी०।२ पु), 'बहुत तेज चलनेवाले घोड़े के २ नाम है ॥
१. पीवितुरग-' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'वानायुनः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. अश्वशास्त्र भाजानेयकक्षणमुक्तन्तथा हि
'शक्तिमिमित्रहरयाः स्खलन्तश्च पदे पदे। . भाजानन्ति यतः संघामाजानेयास्तता स्मृताः॥१॥इति ॥
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२८१
स्त्रियवर्गः ८] मणिप्रभाध्याख्यासहितः । १ पृष्टयः स्थौरी २ सितः कर्को ३ रथ्यो वोढा रथस्य यः। ४ बालः किशोरो ५ वायवा वदवा ६ चाडवं गणे ॥ ४६॥ ७ विघ्यावीनं यदश्वेन दिननैकेन गम्यते । ८ कश्यं तु मध्यमश्वानां ९ हेषा हेषा च निस्वनः ।। ४७॥ १० निगालस्तु गलोहशो ११ वृन्दे त्वश्वीयमाश्ववत् । १२ आस्कन्दितं 'धौस्तिकं रेचितं वल्गितं प्लुतम् ॥४८॥
१ पृष्टयः, स्थौरी (= स्थौरिन् । १ पु), 'अन्न बादि जिसपर लादा जाय उस घोड़े के २ नाम हैं ।
२ कः (पु), 'सफेद घोड़े का १ नाम है ॥ २ रथ्यः (पु), 'रथमें चलनेवाले घोड़े का । नाम है ॥
४ किशोरः (पु), 'बछेड़ा' अर्थात् 'बच्चे घोड़े' का १ नाम है। ('उपलक्षणतया 'किशोर' शब्द मनुष्यादिक बालकका भी वाचक है')॥
५ वामी, अश्वा, वडवा (३ स्त्री), 'घोड़ी' के ३ नाम हैं । ६ वाहवम् (न), 'घोड़ियों के झुण्ड' का । नाम है ॥
७ आश्वीनम् (त्रि), 'एक दिनमें घोड़ेसे चलने योग्य रास्ता या देशादि' का । नाम है।
८ कश्यम् (न), घोड़ेके मध्य भाग' का । नाम है ॥ ९ हेषा, हेषा (२ स्त्री), 'हिनहिनाहट, घोड़की बोली' के २ नाम है।
१० 'निगालः, गलोद्देशः (भा० दी । २ पु), 'घोड़े की गर्दन के पोछेवाले भाग' के २ नाम हैं ।
"अश्वीयम् (+ आश्वीयम्), आश्चम(न), घोड़ोंके झुण्ड'के २ नाम ।
१२ मारकन्दितम् (+ उत्तेरितम् , उपकण्ठम् ), धीरितकम् (+धोरितकम , धोरितम् , धौर्यम् , धारणम् ), रेचितम् (+ उत्तेजितम् ) वरिगतम् ,
१. धोरितकं ति पाठान्तरम् ॥ २. अश्वशाने निगालक्षणमुक्तन्तद्यथा
घण्टाबन्धसमीपस्थो निगालः कथ्यते पुषैः' इति ।
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अमरकोषः ।
[ द्वितीयकाण्डे
गतयोऽमः पञ्च धारा १ घोणा तु प्रोथमस्त्रियाम् । २ कविका तु खलीनोऽस्त्री ३ शफं क्लीबे खुरः पुमान् ॥ ४९ ॥ ४ पुच्छोऽस्त्री लूमलाङ्गूले ५ वालहस्तश्च वालधिः । ६ त्रिषूपावृत्तलुठितौ परावृत्ते
मुहुर्भुवि ॥ ५० ॥ प्लुतम् (५ न ), घोड़ों के सरपट दौड़ने, दुलकी चलने, पोइया चलने, उछाल मारकर चलने और चौकड़ी मारकर चलने' का क्रमशः १ - १ नाम है । 'धारा' (स्त्री) 'घोड़ोंके पूर्वोक्त पांच 'चालों' का नाम है ॥
१ घोणा (स्त्री), प्रोथम् (पुन), भा० दी० मतसे 'घोड़े के चक्कर लगाने ' के २ नाम हैं और महे० मतसे 'घोड़ेकी नाक' का 'प्रोथम्' यह १ नाम है ॥ २ कविका ( + कवी, कवियम् न । स्त्री ), खलीनः ( पु न ), 'घोड़ेकी लगाम' के २ नाम हैं ॥
३ शफम् (न), खुरः (+ दुरः । पु), 'घोड़े की सूम' (खुर)' के २ नाम हैं ॥
२८२
४ पुच्छः ( पु न ), लूमम्, लाङ्गूलम् (+ लाङ्गुलम् । २ न ), 'घोड़ेकी दुम (पूंछ ) के ३ नाम हैं ॥
५ बालहस्तः, वालधिः ( २ पु ), 'घोड़े की पूंछ के बालवाले अगले भाग' के २ नाम हैं । ( यद्यपि 'शफ आदि शब्द अश्वप्रकरण में कथित है, तथापि इन ( शफम्, वालधिः ) शब्दों का प्रयोग गौ आदि पशुओं के भी खुर आदि अर्थत्रयमें होता है ) ॥
६ उपावृत्तः, लुठितः ( १ त्रि), 'थकावट दूर करने के लिए जमीनपर लोटे हुए घोड़े' के २ नाम हैं ॥
१. अत्र क्षी० स्वा० क्रमस्वन्यथा । यथाहुः
'वारितं वस्तिं धारा प्लुतमुत्तेजितं क्रमात् । उत्तेरितं चेति षञ्च शिक्षयेत्तुरगं गतम् ॥ १ ॥ घोरितं गतिमात्रे यथोनितं वस्मितं पुरः । अग्रकायसमुल्लासात्कुचितास्यं नतत्रिकम् ॥ २ ॥ पूर्वापरोन्नमनतः क्रमादारोपणं प्लुतम् । उत्तेजितं मध्यवेगं योजनं श्लथवल्गया ॥ ३ ॥ उत्तेरितेति वेगान्धो न शृणोति न पश्यति' इति ॥
इत्याह 'हेमचन्द्राचाय्यैरप्यन्यथैव क्रमो लिखितः सोऽभिधानचिन्तामणी ( ४३११३१५ ) द्रष्टव्यः ॥
'गतिः पुका चतुष्का च तद्वन्मध्वजवा परा । एकेका त्रिविधा धारा इयशिक्षाविधौ मता । क्रमात् ' इति । 'अव्याकुलं' – (५/६०) श्लोकस्य व्याख्यानेऽश्वगतीनां भिन्नानि नामानि ।
'शिशुपालवध'स्य "याख्यायां 'सर्वङ्कषा' यां मल्लिनाथेन - 'अश्वशास्त्रे तु संज्ञान्तरेणोक्ताःपूर्णवेगा तथा चान्या पच धाराः प्रकीर्तिताः' लध्वी मध्या तथा दीर्घा शास्ता योजयेत
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स्त्रिषवर्ग:.] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२८३ १ याने चक्रिणि युद्धार्थ शताङ्गः स्यन्दनो रथः। २ असो 'पुण्यरथश्चक्रयानं न समराय यत् ॥५१॥ ३ कीरथः प्रवहणं डयनं च समं त्रयम् । ४ क्लीबेऽनः शकटोऽस्त्री स्याद् ५ गन्त्री कम्बलिवाह्यकम् ।। ५२ ।। ६ शिविका याम्ययानं स्याद् ७ दोला प्रेवादिका स्त्रियाम् । ८ उभौ तु द्वैपर्वयाघ्रौ द्वीपिचर्मावृते रथे ॥ ५३॥ ९ पाण्डुकम्बलसंवीतः स्यन्दनः पाण्डुकम्बली। १० रथे काम्बलवास्त्राद्याः कम्बलादिभिरावृते ॥५४॥
१ शताङ्गः, स्यन्दनः, ग्यः (३ पु), 'लड़ाईके रथ' के ३ नाम हैं। ('यहाँसे आगे श्लोक ६तक 'रथ-प्रकरण' है')॥
२ पुष्यस्था ( + पुष्परथः। ), 'यात्रा, उत्सव आदि में चढ़नेके लिये बनाये हुए रथ' का । नाम है।
३ करिथः (पु), प्रवहणम , डयनम् (+हयनम् । २ न ), 'स्त्रियोंके चढ़नेके लिये पर्दा आदिसे आड़ किये हुए रथ' के ३ नाम हैं ।
४ अनः (= अनस , न), शकटः (पु न ), 'गाड़ी' के २ नाम हैं ।
५ गन्त्री (स्त्री), कम्बलिवाचकम् (मा. दी। + गन्त्रीकम , बलिवाहा कम् । न ), 'छोटी गाड़ी के २ नाम है ॥
६ शिबिका(+ शीविका।बी), याप्ययानम् (न), 'पालकी' के २ नाम हैं।
७ दोल्ला (+ दोली), प्रेङ्खा, आदि ('शय नखट्वा,......" । २ स्त्री), 'झूला, हिंडोला' के २ नाम हैं ।
८ द्वैपः, वैयाघ्रः (१ त्रि), 'बाघके चमड़ेसे मढ़े हुए रथ' के २ नाम हैं।
पाण्डकम्बली (+पाण्दुकम्बलिन् , त्रि), 'पाण्डु (धूसर ) कम्बल. से मढ़े या ढके हुए रथ' का । नाम है ॥
१० काम्बलः, वासः (१ त्रि), आदि 'कम्बल और कपड़े आदिले ढके हुए रथ' का क्रमश: 1-1 नाम है।
१. 'पुष्परपश्चक्रयानं पति पाठान्तरम् ॥
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१८४
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे१ त्रिषु द्वैपादयो २ रथ्या रथकट्या रथवजे । ३ धूः स्त्री क्लीवे यानमुखं ४ स्थाद्रथानमपस्करः ।। ५५ ।। ५ चक्र स्थानं ६ तस्यान्ते नेमिःस्त्रीस्यात्प्रधिः पुमान् । ७ पिण्डिका नाभि ८ रक्षाग्रकीखके तु द्वयारणिः ॥ ५६ ।। ९ रथगुप्तिर्वस्थो ना १० कूबरस्तु युगन्धरः। ११ अनुकर्षो दार्वध स्थं
१ 'द्वप' (२१४५३) आदि शब्द विलिन हैं ।
२ रथ्या, रथकट्या ( . स्त्री), रथवज्रम् (भा. दो०, पुन), 'रोके समूह' के ३ नाम हैं।
३ धूः (= धुर् , स्त्री), यानमुखम् (न), 'पथके धूरा' के २ नाम हैं । ४ रवाङ्गम् (न), अपस्कर (पु), 'रथके 'अवयव' के नाम हैं। ५ चक्रम् , रथाङ्गम् ,(२ न), 'रथ,गाड़ी मादिके पहिये' के २ नाम हैं।
६ नेमिः (+नेमी । स्त्री), प्रधिः (पु), 'हाल, रथके पहिये के ऊपर वाले परिधि' के २ नाम हैं।
- पिण्डिका (+ पिण्टी), नामिः(+ नाभी । २ स्त्री), 'पहियेके बीचवाले भाग ( जिसमें चारों तरफ से काठ जुड़े रहते हैं) के २ नाम हैं । ____८ मणिः (पु स्त्री ), 'धूरामें लगानेवाली किल्ली' का । नाम है ॥
९ स्थगुप्तिः (स्त्री), वरूपः (पु ), 'लड़ाई में शत्रुके प्रहारसे बचनेके लिये रथमें लगाये हुए लोहा आदिक पर्दे के २ नाम हैं।
१. कूबरः, युगन्धरः (२ पु), 'जुमा, फड़, रथमें घोड़ा आदि जोते जानेवाले काष्ठ या जुपके काठको बांधे जानेवाले स्थान' के २ नाम हैं ।
अनुकर्षः (+ अनुकर्षा = अनुकर्षन् । पु), 'रथके नीचेवाले काष्ठ' के २ नाम हैं।
१. इयं महेश्वरोक्तिमुकुटानुरोधेन । सामान्येन स्थानस्वाक्षयुगचक्रादिकमपस्करः, इति । अग्रे रथाङ्गत्वेन गतार्थस्यापि 'चक्रम्' इति विशेषतो नामान्तरप्रतिपादनाय 'तस्यान्ते नेमिः' इत्युक्तये च रथाङ्गस्यानुवादः' इति चोक्तवान् । मानुजिदीक्षितस्तु 'रथारम्मकं चक्रादन्यत्' पति क्षीरस्वामिग्रन्थानुरोधात् 'चक्रमिन्नस्य रथारम्मकपक्रस्य' इमे दे नामनोयुकवान् ॥
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क्षत्रियवर्ग: ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
२८५ -१ प्रासङ्गो ना 'युगाधुगः ॥ ५७ ।। २ सर्व स्याद्वाहनं यानं युग्यं पत्त्रं च धारणम् । ३ परम्परावाहनं यत्तद्वैनीतकमस्त्रियाम् । ५८ ॥ ४ आधोरणा हस्तिपका हत्यारोहा निपादिनः । ५ नियन्ता प्राजिता यन्ता सूतः क्षत्ता च सामशिः। ५९ ।।
मध्येष्ठदक्षिणस्थौ च संवा रथकुटुम्विनः । ६ रधिनः स्यन्दनारोहा---
१ प्रासः (प्रसङ्गायः पु), महे० मतसे 'रथ आदिके जुआठ, फड़' का और भा. दी० मतसे 'नये बच्चाको पहले पहल शिक्षा देनेके लिये उसके कन्धेपर रखे जानेवाले काष्ठ' का १ नाम है।
२ वाहनम् , मानम , युग्यम् , पस्त्रम् , धोरणम् (५) वाहनमात्र' अर्थात् 'हाथी, घोड़ा, इत्यादि (श्लो०३३) से लेकर देला (श्लो ५३) तक सब' के थे ५ नाम हैं ॥
३ वैनीतकम् ( + प्राबन्धिकम् । न पु), 'परम्परावाली सवारी, कहाँर आदि के द्वारा पारी २ से ढोई जानेवाली पालकी, डोली आदि' का नाम है ॥
४ आधोरणः, हस्तिपकः, हत्यारोहः, निषादी ( = निषादिन् । ४ पु) 'हाथीवान' के ४ नाम हैं । (किसी के मत से २-२ शब्द एकार्थक है)।
५ नियन्ता (=नियन्त), प्राजिता (प्राजित ), यन्ता ( = यन्त), सूतः, ता ( = क्षत), साथिः, सम्येछुः (सव्येष्ठ! = सव्येष्ठ ), दक्षिणस्थः (८ पु ), 'रथके परिवार' अर्थात् रथ हाँकने वाला ड्राइवर, काधवान, गाड़ीवान, वग्गीवान, एक्कावान और पीछे चदनेवाले जो दौड़कर आगेकी भीड़को हटा कर फि• पीछे चढ़ जाते हैं, इत्यादि के ८ नाम है ॥
६ रथी ( = रथिन् ) स्यन्दनारोहः (२ पु) 'स्थपर चढ़कर लड़नेवाले' के २ नाम हैं।
१. 'युगान्तरम्' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'सज्येष्ठदक्षिणस्थौ' इति पाठान्तरम् ।। ३. इ मा नुजिदीक्षितोक्तिः 'युगान्तरम्' इति पाठमङ्गीकृत्येत्यवधेयम् ॥
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२८६
अमरकोषः।
[हितीवकान्डे-१ अश्वारोहास्तु सादिनः ॥ ६० ।। २ अटा योधाश्च योद्धारः ३ सेनारक्षास्तु सैनिकाः । ४ सेनायां समवेता ये सैन्यास्ते सैनिकाच ते ॥ ६१ ॥ ५ बलिनो ये सहनेण साहघ्रास्ते सहनिमः। ६ परिधिस्थः परिचरः ७ सेनानीर्वाहिनीपतिः ।। ६२ ।। ८ कञ्चको वारबाणोऽस्त्री ९ यत्तु मध्ये सकञ्चुकाः ।
बानन्ति तत्सारसनमधिकाझ१०ऽथ शीर्षकम् ।। ६३ ॥ शीर्षण्यं च शिरस्त्रे
१ अश्वारोहः, सादी ( = सादिन् । २ पु), 'घुड़सवार' के २ नाम हैं । २ मटा, योधः, योद्धा (= योद्ध । ३ पु), 'लड़नेवाले वीर' के ३ नाम है। ३ सेनारपः, सैनिकः (२ पु), 'सेनाके पहरेदार के २ नाम हैं ॥
४ सैन्यः, सैनिकः (२ पु), 'सैनिक' अर्थात् 'सेनामें रहनेवाले' के . नाम हैं।
५ साहस्त्रः, सहस्री ( = सहस्निन् । २ पु ), 'एक हजार योद्धाओवाले सूबेदार आदि' के २ नाम हैं ॥
६ परिधिस्थः, परिचरः (२ त्रि), 'अपराधी सैनिकोको दण्ड देनेके लिये राजा से नियुक्त पुरुष' के २ नाम हैं ।
७ सेनानी:, वाहिनीपतिः (२ पु ), 'सेनापति' के २ नाम हैं।
८ कन्चुकः (पु), वारबागः (पु न ), 'शत्रुके प्रहारसे बचनेके लिये लोहे आदिके बनाये हुए सन्नाह, झूल' के दो नाम हैं ॥
९ सारसनम् (न), अधिकाङ्गः (+ अधिपाः , विपाङ्गः । पु), 'झूल ( कवच ) को स्थिर रहनेके लिये कमर कसनेकी पट्टी आदि' के २ नाम हैं।
.. शीर्षकम् , शीर्षण्यम् , शिरस्त्रम् (३), 'लड़ाई के समय पहने जानेवाले टोप, या टोपीमात्र' के ३ नाम हैं ॥
१. 'तत्सारसनमधिपागोऽय' इति पाठान्तरम् ॥
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क्ष स्त्रियवर्ग: ८] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
-१ अथ तनु धर्म देशनम् । उरश्छदः कङ्कटको जगरः कवचोऽखियाम् ॥ ६४ ॥ २ आमुक्ता प्रतिमुक्तश्च पिनद्धश्चापिनद्धवत् । ३ सन्नद्धो धर्मितः सजो दंशितो व्यूढ कङ्कटः ।। ६५ ॥ ४ त्रिप्वामुक्कादयो ५ वर्मभृतां कार्वाचक गणे। ६ 'पदातिपत्तिपदगपादातिकपदाजयः ॥६६ ॥
पदश्च पदिकश्चाथ पादातं पत्तिसंहतिः । ८ शस्त्राजीवे काण्डपृष्ठायुधीयायुधिकाः समाः ।। ६७ ।।
१ तनुत्रम्, वर्म (= वर्मन् ), दंशनम् (३ न), उरश्छ, कङ्कटका, नगरः (+ जागरः । ३ पु), कवचः (सुन), 'कवच' के ७ नाम हैं ।
२ भामुक्तः, प्रतिमुक्तः, पिनद्धः, अपिनद्धः, (४ त्रि), भा० दी० महे. आदिक मतसे 'पहने हुए कवच' और मु० मतसे 'पहनेहुए वस्त्रादि के ४ नाम हैं।
६ सनद्धः, वर्मितः, सजः, दंशिता, व्यूहककटः (५ त्रि), 'कवच आदिको पहनकर लड़ाई के लिये तैयार मनुष्य के ५ नाम हैं ।
४ 'आमुक्त' आदि शब्द त्रिलिङ्ग हैं ।।
५ कावचिकम् (न), 'कवच पहने हुए पुरुषादिके झुण्ड' का । जाम है ॥
६ पदातिः ( + पदात:, पादातिः, पादातः), पत्तिः, पदगः, पादातिका (+पादातिगः, पादाविकः), पदाजिः, पद्ः, पदिकः ( पु), "पैदल' के ७ नाम हैं ।
७ पादातम् (न), पत्तिसंहतिः (भा. दी०, स्त्री), 'पैदलके झुण्ड' के नाम हैं।
८ शबाजीवः, फाण्डपृष्ठः ( + काण्डस्पृष्टः मु०), आयुधीयः, आयुधिक: (४ त्रि), 'हथियारकी नौकरीसे जीविका चलानेवाले' के ४ नाम हैं।
१. पदातिपत्तिपदगपादाविपदाजयः' इति पाठान्तरम् ।।
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२८८
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे
१ कृतहस्तः सुप्रयोगविशिखः कृत्तपुचत् । २ अपराद्धपृषत्कोऽसोक्ष्याधश्च्युतलायकः । ६८ ॥ ३ धन्वी धनुमानानुको निषायनी धतुधर । ४ स्यात्काण्डवांस्ड काण्डोस ५ शालीकः भक्तितिका १ ६९ ।। ६ याष्टीकधारी विचार
नैस्त्रिशिकोहोल. स्वान्त ८ समा मालिककौन्तिकौ ।। ७ ।। ९ चर्मी फल पाणिः स्यात्
कृतहस्तः, एप्रयोगविशि, कृपया १३ त्र), बाण चलाने में निपुण' के ३ नगर हैं।
२ अपराद्धपृषरः (वि), 'निशाना चुके हुप' का १ नाम है ॥
३ धन्धी (= शन्विन् ), अनुष्माञ्। - धनुष्मत् ), धानुरु, निषङ्गी (= निषङ्गिन् ), अत्री ( =अचिन् ! + शास्त्री = शसिन् ), धनुर्धरः ( ६ त्रि), 'धनुष धारण करनेवाले' के ६ नाम
४ काण्डवान् ( =काण्डवत् ), काण्डी ( २ ), 'बाण धारण करने वाले के २ नाल है ॥
५ शाक्तीका, शक्तिहेतियः (त्रि), 'शक्तिनामक शस्त्र धारण करनेवाले' के २ नाम हैं ॥
६ याष्टीकः, सारश्वधिकः (२ त्रि), 'लाठी और फरसा धारण करने पाले' का क्रमशः १-१ नाम है।
७ नैम्रिशिकः, असिहेतिः (भा. दी। २५), 'तलवार धारण करनेवाले २ नाम हैं।
८ प्रापिकः, कौन्तिकः (२ त्रि) 'प्रास और हन्त (भाला) धारण करनेवाले' । क्रमशः - नाम है । (ो मत से दोनों शब्द एकार्थक हैं)॥
९ चौ ( = चर्मिन् ), फल कपाति: (२ त्रि), 'धर्मनामक हथियार (ढाल) धारण करनेवाले' के २ नाम है ॥
१. 'पश्वधः परशौ न दृष्टः, अतः 'यष्टिम्वधितिहेतिको' इति काश्मीराः पठन्ति' इति क्षी० स्वा० । किन्तु --कुठारस्तु परशुः पशुपवधौ । परश्वधः स्वधितिश्च ( अमि० चिन्ता० ३ ४५.) इति हेमचन्द्राचार्योक्तरुक्तहेतुदानमविधिकरम् ॥
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पजियवर्ग: ८ मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
-१ पताकी वैजयन्तिकः । २ अनुप्लव 'सहायश्चानुचरोऽभिसरः समाः ॥ ७१ ॥ ३ पुरेगाग्रेसर-प्रष्ठा-प्रतःसर-पुरःसराः
पुरोगमः पुरोगामी ४ मन्दगामी तु मन्थरः ॥ ७२ ॥ ५ जङ्घालोऽतिजवस्तुल्यौ ६ जङ्घाकरिकजाडिको । ७ तरस्वी त्वरितो वेगी प्रजवी जवनो जवः ।। ७३ ।। ८ जय्यो यः शक्यते जेतुं जेयो जेतव्यमात्रके।
, पताकी ( = पताकिन् ), बैजयन्तिकः ( त्रि), 'पताका धारण करनेवाले के २ नाम ॥
३ अनुप्लवा, सहायः, अनुचरः, अभिसरः (+ अभिचरः। ४ त्रि), 'मनुचर के ४ नाम हैं।
३ पुरोगः, अग्रेसर:( + अप्रसरः), प्रष्ठः, अग्रतःसरः, पुरासस, पुरोगमः, पुरोगामी ( = पुरोगामिन् । ७ त्रि), 'आगे चलनेवाले' के नाम हैं ।
४ मन्दगामी ( = मन्दगामिन् ), मन्थः (२ त्रि) 'धीरे २ चलने पाले' के नाम हैं। __ ५ अवाल: ( + अलि ), भतिजवः ( + अतिबलः । १ त्रि), 'बहुत तेज चलनेवाले के नाम हैं॥
जहाकरिका, मालिका (२ त्रि), 'दौडाहा, डाँक ढोनेवाले के २ नाम हैं।
• सरस्वी ( = तस्विन् ), स्वरिता, वेगी ( = वेगिन् ), प्रजवी (= प्रजविन्), नवना, जया (त्रि), 'शीघ्रता करनेवाले के नाम हैं।
८ अरया (त्रि) 'जीते जा सकनेवाले' का । नाम है। (जैसेहामेण रावणो जय्य' अर्थात् 'राम रावणको जीत सकते हैं। इस वायमें रामका रावण जय्य हुमा, .....")
९ जेयः (वि), 'जीतने योग्य' का । नाम है। (जैसे-'जेयं मनः इन्द्रियं वा' अर्थात् 'मन पा इन्द्रिम बीतने योग्य है। इस वाक्यमें मम और इन्द्रिय जेयो ........)
१. सहायश्चानुचरोऽमिचरः' इति पाठान्तरम् । १६ अ०
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अमरको
[द्वितीयकाण्डे१ जैस्तु जेता २ यो गच्छत्थतं विद्विषतः प्रति ।। ७४ ।।
सोऽभ्यमियोऽभ्यमित्रीयोऽप्यभ्यमित्रीण इत्यपि । ३ ऊर्जस्वतः स्यादुर्जस्वी य 'ऊर्जातिशयान्वितः ।। ७५ ॥ ४ स्यादुरस्थानुरसिला ५ 'रथिका रथिरी स्थी। ६ काममा म्पनुकामीनो ७ हत्यन्तीनस्तथा भृशम् ।। ७६ ॥ ८ शूरी चार विकात ९ जेला जिष्णुश्च जित्वरः।
१ जनः, जेलः (=जेतृ । २ त्रि), विशाल, आनेवाले' के नाम हैं ।
२ अभियः, अभ्यमित्रीयः, अभ्यमित्रोणः (६ त्रि), 'अपने पराक्रमसे शत्रुका सामना करनेवाले' के ३ नाम हैं ॥
३ उर्जम्बलः, ऊर्जस्वी ( = अजस्विन् । २ त्रि), 'बहुत बलवान्' के २ नाम हैं ॥
४ उरस्वान् ( = उरस्वत् ), उरसिलः (२ त्रि), 'चौड़ी छातीवाले' के २ नाम हैं।
५ रथिकः ( + रथिनः ), रथिरः, रथी ( = रथिन् । ३ त्रि), 'रथके स्वामी' के ३ नाम हैं ।
६ कामगामी ( = कामजास्मिन् । + कामगामी = कामगामिन् ), अनुकामीन: (१ त्रि), मतलव भर (यथेष्ट) चलने वाले के नाम हैं। (महे. मत से पहले शब्दका पर्यायवाचक न हो हाने से १ हो नाम है )॥
७ अस्यन्तीनः (त्रि ), 'अत्यन्त चलनेवाले' का । नाम है। ८ शूरः, वीरः, विक्रान्तः (३ त्रि), 'पहलवान, बहादुर' के ३ नाम है।
९ जेता (= जेतृ), जिष्णुः, जिस्वरः (३ त्रि), 'सर्वदा विजय करने. वाले' के ३ नाम हैं। ('जैसे-रामचन्द्र, इन्द्र और अर्जुन आदि)।
१. 'कोंऽतिशयान्वितः' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'रथिनो रथिको रथी' इति मा० दो० महे० सम्मतः पाठः। मूलस्थः क्षो. पा. मुकु० सम्मतः । 'रथिन इत्यपपाठ' इति च क्षो. स्वा० आहुः ॥
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स्त्रियां: ८] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
२६१ १ सांयुगीनो रणे लाधुः २ शास्त्राजीवादयन्त्रिषु ।। ७७॥ ३ ध्वजिनी वाहिली सेना नानीकिनी चमूः ।
वरूथिनी पलं सैन्धं . हामीकमस्त्रियान् ।। ७८॥ ५ व्यूहस्तु बलविन्यासो ५ मेवा दण्डादयो अधि । ६ प्रत्याहारी व्यूहारिणः ७ पृष्ट नाहः ॥ ७९ ॥
सांयुगीनः (त्रि ), 'लड़ाई में तुर' का नाम है ॥ २ 'शस्त्राजाब' शब्द (ला. ६७)से यहाँतह सब शब्द त्रिलिज हैं। ३ ध्वजिनी, वाहिनी, सेना, पृतना, मनोकिनी, चमूः, वरूथिनी (स्त्री), बम् , सैन्यम् , चक्रम् (३ न ), अनकन् (नपु), 'सेना, पल्टन' के " माम हैं।
४ स्युहः (१), 'व्यूह' अर्थात् आदि लड़ाई में सेनाको रखने के कायदे, मोचों बन्दी का नाम है।
५द (पु) आदि ('भोग, मण्डल, असंहत, उत्सन, अचल, रड, चक्रव्यूह, मकर, पताका, सर्वतोभद्र, ... .. २ का संग्रह है'), 'व्यूह' अर्थात् 'लड़ाई में सेनाको रखने के कायदे मोर्चाबन्दी' के पृषक :-, नाम है ॥
६ प्रत्यासारः ( + प्रत्यासरः), न्यूह पाणिः (२ पु), 'व्यूहके पीछे. वाले सेना-भाग' के नाम हैं ।
७ सैन्यपृष्ठः (महे. ), प्रतिग्रहः (+ररिग्रहः, पतद्गृहः। पु), 'सेनाके पीछेवाले भाग' के २ नाम है ॥
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१. व्यूह लक्षणं यथा
'मुखे रथा हयाः पृष्ठे तत्पृष्ठे च पदातयः ।
पार्श्वयोश्च गजाः कार्या व्यूहोऽयं परिकीर्तितः ।। १ ।। इति ।। २. व्यूहस्य कतिचिद्भेदान् सलक्षणमाह कामन्दकिस्तथा हि
'तिर्यग्वृत्तिस्तु दण्डः स्यानोगोऽन्यावृत्तिरेव च ।
मण्डलः सर्वतो वृत्तिः पृथावृत्तिरसंहतः ॥ १॥ इति । शी० स्वा० ज्यूहनामान्याह । तथा हि-यदाहु:
'दण्डो मण्डल भोगो चाप्युत्सन्नश्चापलो दृढः। व्यूहास्तेषां विशेषाः स्युश्चक्रव्यूहरादयोऽपि च ॥१॥इति इति ।
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२६२ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ एकेभैकरथा व्यश्वा पत्तिः पञ्चपदातिका। २ पस्यौस्त्रिगुणैः सर्वैः क्रमादाख्या यथोत्तरम् ।। ८० ।।
सेनामुख गुल्मगणी वाहिनी पृतना चमूः। अनीकिनी ३ दशानीकिन्यक्षौहिणी
, 'पत्तिः (स्त्री), 'पत्ति' अर्थात् जिसमें एक हाथी, एक रथ, तीन घोड़े और पाँच पैदल हो इस सेना-विशेष' का । नाम है ॥
२ सेनामुखम् (न), गुरुमः, गणः (२ पु), वाहिनी, पृतना, चमूः, अनीकिनी (४ स्त्री), 'पत्ति आदि (सेनामुखं, गुल्मः,......... ) के तिगुना करनेपर सेनामुख आदि (गुल्मः, गणः,...... अनीकिनी)संहासेनाविशेषकी होती है' अर्थात् ३ पत्ति (३ हाथी, ३ रथ, ९घोड़े और १५ पैदल), को सेनामुख ३ सेनामुख (९ हाथी, ९ रथ, २७ घोड़े और ४५ पैदल ) को गुल्म; ३ गुल्म (२७ हाथी, २७ रथ, ८) घोड़े और १३५ पैदल) को 'गण' कहते हैं । इसी प्रकार 'वाहिनी, पृतना, चमू और अनीकिनी में भी तिगुना समझना चाहिये।
३ चौहिणी (स्त्री), भा. दी० बी० स्वा० आदिके मतसे 'दस मनी
१. मारतो पत्तिलक्षणं यथा'एको गजो रथश्चैको नराः पञ्च पदासयः। अयश्च तुरगारतज्ज्ञैः पतिरित्यभिधीयते ॥१॥इति ।।
यदा-एको हस्ती एकश्च रथवरलय एव च तुरङ्गाः।
पञ्चैव च पदातय एषा पत्तितिव्या ॥१॥ इति ॥ २. अक्षौहिणीप्रमाणं यथा
'अक्षौहिण्यामित्यधिकः सप्तस्या अष्टमिः शतैः । संयुक्तानि सहस्राणि गजानामेकविंशतिः ॥१॥ (२१८७० गजाः) एवमेव तु संख्यानं रथानां कीर्तितं बुधैः । (२१८७० रथाः) पश्चषष्टिसहस्राणि षट् शतानि दशैव तु ।। २ ।। संख्यातास्तुरगास्तन्शेविना रथतुरङ्गमैः । (६५६१० अश्वा रथाश्वान् विना) नृणां शतसहस्राणि सहस्राणि तथा नव ॥३॥ शतानि त्रीणि चान्यानि पञ्चाशच पदालयः (१०९३५० पदातयः) इति ॥
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शस्त्रियवर्गः ८]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
२६३
किनी ( २१८७० हाथी, २१८७० रथ, ६५६१० घोड़े और १०९३५० पैदल ) संख्यावाले सेना-विशेष' का १ नाम है। ('महे• ने तो. दशानीकिनी' (स्त्री), तीन मनीकिनी ( ६५६१ हाथी, ६५६१ रथ, १९६८३ घोड़े और ३२८०५ पैदल) संख्यावाले सेना-विशेष'का । नाम और 'भौहिणी' (बी) 'तीन दशानीकिनी (१९६८३ हाथी, १९६८३ स्थ, ५९०४९ घोड़े और ९८४१५ पैदल) संख्यावाले सेना विशेष' का १ नाम है, ऐसा कहा है। किन्तु टिप्पणीमें लिखे हुए भरतादिवाक्यप्रमाण-विरुद्ध होनेसे महे० का मत' ठीक नहीं है।' 'महापौहिणी' (स्त्री), 'हाथी, रथ, घोड़े और पैदलको मिलाकर १३२१२४९०० संख्यावाली सेना विशेष का एक नाम है। पत्तिसे लेकर महाक्षौहिणीतक सबके अलग २ प्रमाण स्पष्टतया चक्र में देखिये')॥ भारतेऽक्षौहिणीमानं यथा
'अक्षौहिण्याः प्रमाणन्तु खाङ्गाष्टकदिकगंजैः ॥
स्थैरतहये स्त्रिघ्नः पत्रनैश्च पदातिमिः ॥ १॥इति ॥ 'अङ्काना वामतो गतिः' इत्यभियुक्तोक्तेः २१८७० गजाः, श्यन्मिता एव रथाश्व, एत. त्रिगुणिताः ( २१८७० x ३ = ६५६१०) अश्वाः, गजसंख्यापश्चगुणिताः ( २१८७०४५ = १०९३५० ) पदातय' इति भारताशयः। हेमचन्द्राचारप्यक्षौहिणीमानं पूर्वोक्तसंख्याकमे. वाङ्गीकृतम् , किन्तु पत्त्यादिक्रमो मिन्नस्तद्यथा“एकैभैकरथा पश्चा-पत्तिः पनपदातिका । सेना सेनामुखं गुल्मो वाहिनी पृतना चमूः ॥ १ ॥ अनीकिनी च पत्तेः स्यादिभायैत्रिगुणैः क्रमात् ॥ दशानीकिन्यक्षौहिणी-॥२॥
इति अमि० चिन्ता ३ । ४१२-४१३ ।। १. मानुजिदीक्षितमतमेवात्र समीचीनम्, 'अक्षौहिण्या....."पदातयः' इति स्वटोकायां प्रमाणत्वेनोपन्यस्तसार्द्धत्रयश्लोकविरोधेन व्याघातात, भरतहेमचन्द्राचार्योक्तिविरोधाच्च । २. महाक्षौहिणीप्रमाणं यथा
'खदयं निधिवेदाक्षिचन्द्राक्ष्यग्निहिमांशुभिः ।
महाक्षौहिणिका प्रोक्ता संख्यागणितकोविदः ॥ १॥ इति । ३. सकलनिष्कर्षोऽत्र चक्रे द्रष्टव्यः
चम्पूरामायणे 'अलक्षत स......" (युद्धकाण्डे श्लो० ७९) इत्यस्यानन्तरं तरक्षण...... यातुधानपतिः' इति गद्यस्य टीकायां लिखितमक्षौहिगीप्रमाणमन्यदेव, तद्यथा'प्रयुतं नवसाहस्रं पञ्चाशत्त्रिशतं भटाः । पादातं षष्टिसाहस्रं षट्छती दश वाजिनः ॥ एकविंशतिसाहस्र-शतानामेकसप्ततिः । द्विरदाः स्यन्दना यत्र साक्षौहिण्युच्यते बुधैः ।। ति ।।
मङ्गलकोषे श्वेवमुक्तम्'नवनागसहस्राणि नागे नागे शतं रथाः । रथे रथे शतं चाचा भवे-अवे शत नराः॥ इति।
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२६४
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे
-१ अथ संपदि ॥ ८१ ॥
संपत्तिः श्रीश्च लक्ष्मीश्च
संपत् ( = संपद् । + सम्पदा), सम्पत्तिः, श्रीः, लचमी: ( ४ स्त्री), 'सम्पत्ति' के ४ नाम हैं।
पत्यादिसेनाविशेषे गजरथादिसंख्याबोधक चक्रम् ।
-
- क्रमिकसंख्या
हैमोक्तसेना
(रथाश्वान् ।
विशेषसंज्ञाः
अमरोक्तसेना विशेषसंशाः
अश्वसंख्या गजसंख्या रथसंख्या विहाय) पदातिसंख्या सर्वसङ्कलन
im
1
८१
२१८७
पत्तिः पत्तिः
ऐना सेनामुखम् । ३ सेनामुखम् गुल्मः गुल्मः गणः
१३५ ५ वाहिनी वाहिनी
८70 पृतना पृतना २४३ २४३ ७२९ १२१५ २४३० चमूः चमू: ७२९ ७२९ ।
७२९० अनीकिनी अनोकिनी
कनी २१८७२१८७६५६१ १०९३५ २१८७० दशानीकि (महेश्वरमा ६५६१ ६५६१ १९६८३ ३२८०५ ६५६१०
तेनेदम् ) | अक्षौहिणी (महेश्वरम- १९६८३ । १९६८३ । ५९०४९ ९८४१५ ५ १९६८३० तेनेदम्)
अक्षौहिणी १३/ अक्षौहिणी (मानुजिदी. २१८७० २१८७० ६५६१० १०९३५०२१८७००
क्षितमतेनेदं) महाक्षौहिणी
१२२१२४१०३९६३७४७०EOE२४५० । १२२१४९०० (महेश्वरः व्याख्योका)
१३२१२४९०
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स्त्रियवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ विपत्त्यां विपदापदौ । २ आयुधं तु प्रहरणं शस्त्रास्त्र३मथास्त्रियौ ।। ८२ ॥
धनुश्चापौ धन्वनारासनकोदण्डकार्मुकम् । इष्वासो४ऽष्यथ कर्णस्य कालपृष्ठं शरासनम् ।। ८३ ॥ ५ कपिध्वजस्य गाण्डीवगाण्डिवौं पुनपुंसकौ । ६ कोटिरस्याटनी ७ गोधे तले ज्याघातवारणे ॥२४॥ ६ लस्तवस्तु धनुर्मध्यं ९ मौर्वी ज्या शिञ्जिनी गुणः । १० स्यात्प्रत्यालीढमालीढमित्यादि स्थानपञ्चकम् ।। ८५॥
विपत्तिः, विपत् ( = विपत् । + विपदा), भापत् ( = आपद् । + आपत्तिः, आपदा । ३ स्त्री), 'आपत्ति' के ३ नाम हैं ।
२ आयुधम् , प्रहरणम् , शस्त्रम्, अस्त्रम् ( न), 'हथियार' के ४
३ धनुः ( = धनुस। + धनुः पु, अनूः स्त्री ), चापः (२ पु न ), धन्व (= धन्वन् । + धन्दम् ), शरासनम, कोदण्डम् , कार्मुकम् (४ न ), इत्रासः ( + भासः । पु), 'धनुष' के ७ नाम हैं ।
४ काल पृष्टम् (न), 'कर्णले धनुष' का १ नाम है ॥ ५ गाण्डीवा, गाण्डिवः (२ पु न ), 'अर्जुनके धनुष' के २ नाम हैं।
६ कोटिः ( + कोटी), अरनी ( + अनिः । १ स्त्री), 'धनुषके दोनों छोर (किनारे ), के २ नाम है।
गोधा (स्त्री), तलम् (न), 'दस्ताना' अर्थात् 'धनुषकी तांतके चोटसे बचने के लिये हायमें पहनने के लिए जो चमड़े भादि का बनाया जाता है उसके १ नाम हैं।
स्तकः (पु), धनुर्मध्यम (भा. दी. न), 'धनुषके बीचवाले भाग' के २ नाम हैं।
९ मौर्वी, ज्या, शिञ्जिनी (३ सी), गुणः (पु), 'धनुषकी डोरी, या तांत' के नाम हैं।
१.प्रत्यालीठम् , पालीहम् (२न), आदि (बादिसे 'समपादम् ,
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२३६
अमरकोषः ।
१ लक्षं लक्ष्यं शरव्यं च २ शराभ्यास उपासनम् । ३ पृषत्कबाणविशिखा अजिह्मगखगाशुगाः ॥ ८६ ॥ 'कलम्बमार्गणशराः पत्रो रोप इषुर्द्वयोः ।
४ प्रक्ष्वेडनास्तु नाराचाः ५ पक्षो वाजस्त्रिषूसरे ॥ ८७ ॥ ६ निरस्तः प्रहिते बाणे
[ द्वितीयकाण्डे
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विशाखम्, मण्डलम् (३ न) का संग्रह है ') 'धनुषधारियोंके बैठने के पांच आसन विशेष (तरीके), हैं । ( 'इनमें - बांये जङ्केको आगे बढ़ाकर उठाने और दाहिनी को पीछे खींचकर समेटने को प्रत्यालीढ १, दहने जङ्के को आगे बढ़ाकर उठाने और बांये जङ्घेको पीछे खींचकर समेटने का आलीढ २, दोनों पर्रोको बराबर रखने को समपाद ३, दोनों पैरोंको फैलाने को वैशाख ४ और दोनों पैरोंको गोलाई के समान रखनेको मण्डल ५, कहते हैं' ) ॥
१ लक्षम, लक्ष्यम्, शरव्यम् (३ न ), 'निशाने' के ३ नाम हैं ॥ २ शराभ्यासः (पु), उपासनम् ( न ), 'बाण चलानेका अभ्यास करने' के २ नाम हैं ॥
३ पृषत्कः, बाणः, विशिखः, अजिह्मगः, खगः, भशुगः, कलम्बः, मार्गणः, चारः ( + सरः), पत्री ( = पत्त्रिन्), रोपः ( ११ पु ), इषुः ( पु स्त्री ), 'बाण' के १२ नाम हैं ॥
४ प्रचवेदन: ( + प्रवेदन: ), नाराच: ( १ पु ), 'लोहेके बाण' के २ नाम हैं ॥
५ पचः, वाजः, ( २ पु ), 'बाण में लगे हुए पहु ( कङ्कपत्र ), के २ नाम हैं ॥
६ निरस्तः (त्रि ), 'धनुष से छोड़े हुए बाण' का १ नाम है ॥
१. 'कलम्बमार्गण सराः' इति पाठान्तरम् ॥
२. मरते ( रभसे ) न तु धनुर्धराणां षट् स्थितिप्रकारा उक्तास्तथा हि'वैष्णवं समपादं च वैशाखं मण्डलं तथा ।
प्रस्थाकोढमथालीढं स्थानान्येतानि पण्नृणाम् ' ॥ १ ॥ इति ॥
३. पृथक पटकमस्येति विग्रहः । ते च षड् धनुर्वेद उक्तास्तथा हि'पुङ्खः शरस्तथा शक्ष्यं पक्ष स्नायु बतूनि च' । इति ॥
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चस्त्रियवर्गः ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । २७
-१ विषाक्त दिग्धलिप्तको। २ तूणोपासातूणीर-निषमा इषुधियोः ॥८८॥
तूण्यां ३मझेतु निस्त्रिंशबन्द्रहासासिरिष्टयः। कौशेयको मण्डलामः 'करवालः कृपाणवत् ।। ८९॥ ४ त्सा महादिमुथै स्याद् ५ मेखलातन्निवन्धनम् । ५ फलकोऽस्त्री फलं चर्म ७ संग्राहो मुष्टिरस्य यः ॥१०॥ ८ द्रुघणो मुद्रघनौ ९ 'स्यादीली करवालिका ।
विषाक दिग्धा, लिप्तका (३ त्रि), 'विषमें बुझाये हुए बाणके ३ नाम हैं।
२ तूणः, उपासना, तूणीर, निषाः (३ पु), इषुधिः (पु सो), तूणी (बी), 'तरकस' अर्थात् 'चमड़े भादिके बने हुएधनुषधारियों के पीठपर बधि. जानेवाले, बाण रखनेके थैले' के ६ नाम हैं।
४ खगः, निविंशः, चन्द्रहासा, असिः, रिष्टिः ( +ऋष्टिः), कौश्यकः, मण्डलामः, करवाल: (+ करपालः), कृपाण: (९), 'तलवार' के ९ नाम है।
४ सरु (पु), 'तलवार आदिकी मुठ' का १ नाम है ।।
५ मेखला (स्त्री), 'तलवारको लटकानेके लिये चमड़े आदिको बनी हुई कमरमें कसी जानेवाली पेटी, लड़ाई में तलवार हाथसे छूट न जाय इस वास्ते कलाई पर बाँधे हुए चमड़े आदि या तलवार के म्यान' का नाम है ॥
६ फलक: (पु न), फलम् , चर्म (= चर्मन् । २ न), 'ढाल' के २ नाम हैं। संग्राहः (पु) 'ढालकी मूठ' का १ नाम है ॥ ८ द्रुधणः ( + द्रुधनः), मुद्गरः, घनः (३ पु), 'मुद्गर' के ३ नाम है।
९ ईली (+ इलिः, ईलिः, इली ), करपालिका (+ करपालिका । १ स्त्री), एक तरफ धारवाली छोटी तलवार या गुप्ती' के २ नाम हैं।
१. 'करपालः' इति पाठान्तरम् ।। २. 'स्यादिलिः करवालिका' इति करपालिका' इति च पाठान्तरे ॥
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२१८
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे१ भिन्दिपालः सृगस्तुल्यौ परिधः परिघातनः ।। ९१ ॥ ३ द्वयोः कुठारः स्वर्धाितः परशुश्च 'परश्वधः। ४ स्थाच्छस्त्री चासिपुत्री च च्छुरिका वासिधेनुका ।। ९२ ।। ५ वा पुंसि शल्यं ६ शङ्कुर्ना लवला तोमरोऽस्त्रियाम् । ७ प्रालस्तु कुन्तः कोणस्तु स्त्रियः पाल्यधिकारयः ।। ९३ ।। १ सर्वाभिसारः सर्बोधः सर्वसनहनार्थकः ।
भिन्दिपालः ( + भिडिपाला), सृगः (२३), 'नलिका नामक हथियार और गुलेल' अर्थात् 'छोटे २ पत्थर या कंकड़ फेंकने के वास्ते रबड़ या चमड़े के बने हुए साधन विशेष, या ढेलबांस' के २ नाम हैं।
२ परिधः, परिधातनः ( २ पु), 'लोहा मढ़ी हुई लाठी' के २ नाम हैं ।।
३ कुटारः (पु स्त्री), स्वधितिः, परशुः, परश्वधः ( + परस्वधः, पर्वधः । ३ पु) 'फड़सा, कुल्हाड़ी' के ४ नाम हैं।
शस्त्री, अलिपुत्री, छुरिका ( + चुदि का ), असिधेनुका ( ४ स्त्री), 'छी' के नाम हैं॥
५ शल्यम् (न पु), शङ्खः (पु), 'बाण के क (अगले भाग) के २ नाम हैं।
६ सर्वला ( +शला । स्त्री), तोमर: (पु न ) 'तोमर, गुर्ज या गड़ासे के २ नाम हैं। ___ . प्रासः ( + प्राशः ), कुन्तः ( २ पु ), 'भाला' के २ नाम हैं ।
८ कोणः (पु), पालिः ( + पाली), अश्रिः ( + अश्री ), कोटिः ( + कोटी। ३ स्त्र), 'तलवार आदि हथियारोंके किनारे या नोक' के माम हैं।
९ सर्वाभिसारः, सधः (२ पु), सर्वसनहनम् (न), 'चतुरङ्गिणी सेना को तैयार करने के ३ जाम हैं ।
१. परस्वधः' इति पाठान्तरम् ।। २. 'शवला' इति पाठान्तरम् ॥
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२६६
पश्चियवर्गः .] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ 'लोहाभिसारोऽस्त्रभृतः राज्ञां नीराजनाविधिः ॥ ९४ ॥ २ यत्सेनयाऽभिगमनमरी तदभिषेणनम् । ३ यात्रा ज्याऽभिनिर्याणं प्रस्थानं गमनं गमः ॥ ९५॥ ४ स्यादासारः 'प्रसरणं५प्रचक्रं चलितार्थकम् । ६ अहितान्प्रत्यभीतस्य रणे यानमभिक्रमः ॥९६ ॥
लोहामिसारः ( + लोहामिहारः। पु), 'लड़ाईके लिये तैयार शस्त्रधारियों या राजाओंकी आरती या आरतीके बादवाले कृत्य. विशेष या युद्धयात्राके पहले की जानेवाली हथियारोकी पूजा' का १ नाम है।
१ अभिषेणनम् (न), 'वैरीके सामने सेना-सहित जाने' का नाम है ॥
३ यात्रा, ज्या (२ स्त्री), अभिनिर्याणम् , प्रस्थानम् , गमनम् (३ न), गमः (पु), 'यात्रा, प्रस्थान, जाने के नाम हैं ।
४ भासा (पु), प्रसरणम् ( + प्रसरणी, प्रसरणिः । न) 'सेनाके सब तरफ फैल जाने के २ नाम हैं। (किसी २ के मत से पीछे से आने. वाली सेना' को आसारः और 'घास, भूसा, जल, अन्न और इन्धन भादि इकट्ठा करने के लिये सेनासे बाहर फैलने को प्रसरणम् कहते हैं ।
५ प्रचक्रम् , चलितम् (न), 'यात्रा की हुई सेना' के २ नाम हैं।
६ अभिक्रमः ( + अतिक्रमः । पु), 'निडर होकर वैरीके सामने यो. खाके गमन करने का । नाम है ॥
१. 'लोहामिहारो' इति 'नीराजनो विधिः' इति 'नीराजनादिभिः' इति च पाठान्तरराणि । २. 'प्रसरणी' इति पाठान्तरम् ।।
३. विधिोहाभिसारस्तु राशी नीराजनोत्तरः' इत्युक्तेनीरा ननादनन्तरं कमलोहामिसारः, इति मुनिः। 'लोहाभिसारस्तु विधिः परो नीराजनान्नृपैः' इति दर्गोऽपि तथैव । मत एव 'नीराजनादिधिः' इत्येके पठन्ति' इति सौ. स्वा०॥ ४. अनयोमिंन्त्रार्थत्वादेव'निरुद्धवीवषासारवासाराव गा पम्' इति माधः (२०६४) इति क्षी० स्वा० ।।
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अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे१ वैतालिका 'बोधकरारश्चाक्रिका घाण्टिकार्थकाः। ३ स्युर्मागधास्तु 'मगधा ४ बन्दिनः स्तुतिपाठकाः ॥ ९७ ।। ५ संशप्तकास्तु समयसंग्रामादनिवर्तिनः । ६ रेणुईयोः स्त्रियां धूलिः पाशुर्ना नयो रजः ॥ ९८ ।। ७ चूर्ण क्षोदः ८ समुत्पिखपिखलो भृशमाकुले ।
. वैतालिका, बोधकरः (पु), 'राजाको जगानेके लिये प्रातः काल या विशिष्ट अवसरों पर राजाके स्तुतिपाठ करनेवाले बन्दी, भाट' के नाम हैं।
२ चाक्रिकः ( + चक्रिका), 'पाण्टिका (+घटिकः । २ पु), 'घण्टा बजानेवाले या घड़ियारी नामक बाजाको बजानेवाले बन्दी विशेष' के २ नाम है।
३ मागधः, मगधः (+मधुका मु.। ११), 'राजाकी वंशावलीको वर्णन करनेवाले बन्दी' के नाम हैं।
५ बन्दी ( = बन्दिन् ), स्तुतिपाठक (पु), 'राजाकी स्तुति कर नेवाले बन्दी' के २ नाम हैं। (जी.स्वा.के मतसे 'मागधः,.......' नाम एकार्थक अर्थात् 'बन्दीमात्र' के हैं।
५ संशप्तकः (पु), 'शपथ देने या स्वयं प्रतिक्षा करनेके कारण लड़ाईसे नहीं लौटनेवाले योद्धा' का । नाम है ॥
६ रेणुः (पु स्त्री), धूलिः ( +धूली । स्त्री), पांशुः ( + पांसुः । पु), रजः ( = रजस् न ), 'धूल' के ४ नाम हैं।
७ चूर्णम् (न। + पु), चोदा (पु), 'महीन धूल' के २ नाम हैं। ('किसी २ के मससे 'रेणुः,........ ६ नाम 'धूलमात्र के हैं')॥
८ समुस्पिनः, पिञ्जलः (२ पु), 'अधिकप्याकुल सेना' के २ नाम हैं । १. 'पापकराश्चक्रिका परिकार्थकाइति पाठान्तरम् ।। २. 'मधुका' इति मुकुटसम्मतं पाठान्तरम् ॥ ३-४. तदुक्तम्
'वैतालिकाश्च कथ्यन्ते कविमिः सौखशायिकाः। रामः प्रबोधसमये घण्टाशियास्तु पाण्टिका ॥१॥ इति ॥
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३०१
पस्त्रियवर्ग: ] मणिप्रमाव्याख्यासहितः ।
१ पताका घजयन्ती स्यास्केतनं ध्वजमस्त्रियाम् ॥ ९९ ॥ २ सा वीराशंसनं युद्धभूमिर्याऽतिभयप्रदा। ३ अहं पूर्वमहं पूर्वमित्यहपूर्विका स्त्रियाम् ।। १००॥ ५ आहोपुरुषिका दर्पाद्या स्यात्सम्भावनाऽऽत्मनि । ५ अहमहमिका तु सा स्यात्परस्परं यो भवत्यहङ्कारः ॥ १०१ ।। ६ द्रविणं तरः सहोबलशौर्याणि स्थाम शुष्मं च ।
शक्तिः पराक्रमः प्राणो ७ विक्रमस्त्वतिशक्तिता ॥ १०२॥ ८ वीरपानं तु यत्पानं वृत्ते भाविनि पा रणे। ९ युद्धमायोधनं जन्यं प्रधनं प्रविदारणम् ।। १०३ ।।
। पताका, वैजयन्ती (२ सी), तनम् (न), ध्वजम् (न पु), 'पताका, झण्डे के ४ नाम हैं। (किसीके मससे प्रथम दो नाम उतार्थक और अन्तवाले दो नाम 'पताकाके दण्ड' के हैं)।
२ वीराशंसमम् (), 'लड़ाई के मत्यन्त भयङ्कर मैदाम' का नाम है।
३ अहंपूर्विका (बी), 'मैं पहले पहुंचा-मैं पहले पहुंचा ऐसे कहते हुए स्पर्खासे योद्धामोके दौड़ने का नाम है।
४ आहोपुरुषिका (सी), 'अमिमानपूर्वक अपने सामर्थ्यका प्रकट करने का नाम है. ५ अहमहमिका (सी), 'मापसमें महङ्कार करने का । नाम है।
द्रविणम् , तरः ( = सरस्), सहः ( = सहस् । + महः = सह पु, सहासी), बलम् , शौयम, स्थाम(= सामन्), शुष्मम् (+शुष्मा - शुष्मन्, पुन । न), शतिः (बी), पराकमा, प्राण: (+ भोजः = भोजस, मर्जी ऊर्जस् । ३३), 'पराक्रम, बस' के नाम है।
• विक्रमा (I), अविजिता (सी), 'अधिक बल २ नाम हैं।
८ वीरपानम् (+वीरपाणम् । न), 'लड़ाई में जानेके समय या सड़ाई से लौटनेपर उत्साह को बढ़ाने के लिये मदिरादि-पान करने का नाम है।
९ युबम, बाबोधनम् , बम्बम, प्रथमम् , प्रविदारणम् , मषम् ,
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अमरकोषः। [हितीयकाण्डे. मृधमाकन्दनं संख्यं समीकं 'सापरायिकम् । अस्त्रियों समरानीकरणाः कलहविग्रहौ ॥१०॥ संग्रहारराभिसंपातकलिसंस्फोटसंयुगाः अभ्यामर्द समाधातसंग्रामाभ्यागमाहवाः ॥१०५॥ समुतायः स्त्रियः संयत्समित्याजिसमिद्यधः । १ नियुद्धं पाहुयुद्ध२ऽथ तुमुलं रणसंकुले ॥ १०६ ॥ ३ वडा तु सिंहनादः स्यात् ४करिणां घटना घटा । ५ कन्दनं योधसंरावो ६ बृहितं करिगर्जितम् ॥१७॥
भास्कन्दनम् , संख्यम, समीकम , सांपरायिकम (+संपरायकम् । १० न), समरः, अनीका, रणः (३ पुन), कलह, विग्रहः, संप्रहार, अभिसंपाता, कलिः, संस्फोटः ( + संस्फेटः, संफेटः), संयुगः, मस्यामदः ( + अमिमदः), समाघाता, संग्रामः, माहवा, समुदायः (१३ पु), संयत् (+पु), समितिः, आजिा, समित् , युत् ( = युध । ५ नो), 'लड़ाई, युद्ध' के ३१ नाम हैं ।
१ नियुद्धम् , बाहुयुद्धम् (१ न ), 'कुस्ती, दङ्गल' के २ नाम हैं ।
२ तुमुलम् , रणसंकुलम् (भा० दो० । २ न), 'खूब जमकर लड़ाई होने या व्याकुल होने क२ नाम हैं ।
३ वेडा (+चवेला । स्त्री), सिंहनादः (पु), 'लड़ाईमें सिंहके समान गर्जने के २ नाम हैं।
४ घटना (भा० दी०), घटा (२ सो), 'हाथियों के झुण्ड' के २ नाम हैं ।
५ क्रन्दनम् (न), योधसंरावः (भा० दी०, पु), 'स्प से प्रतिपक्ष धाले योद्धाओको ललकारने या बुलाने के २ नाम हैं।
५ बृंहितम्, करिगर्जितम् (न), 'हाथियोंके गर्जने के २ नाम हैं।
१. 'संपरायकम्' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'सप्रहारामिसंपातकलिसंस्फेटसंयुगाः' इति युक्तः पाठः' इति क्षो. स्वा० । 'संकेर इति तु मरत' इति ॥
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हास्त्रि प्रवर्गः ८] मणिप्रभायालयासहितः ।
१ विस्फा धनुषा स्थानः २ पहाडम्बरी समौ । ३ प्रमभंतु बरकारो हठोऽयमनलतं छलम् । १०८॥ ५ अजय क पाल : नवम्। ६. मूछा .मल मोहोऽप्यनार्दन्तु पीडनम् ।। १०९।। ८. यवस्कम्पने स्वादावादनं ९ बिलको जयः। १० शुद्धि. प्रतीकारी वेरनिर्यातनं च सा ।। ११०॥ १६ प्रदादावापसंदाधा विद्रवो द्रवः ।
अपकमोऽपयानं च
५ विस्फारः (पु), 'धनुषके टङ्कार' का । नाम है ॥ २ पटहः, बाडम्बरः (२ पु), 'नमाड़ा या दमदमा' के २ नाम हैं। ३ प्रसमम् (न), बलात्कार, हठः (२) 'जबर्दस्ती करने के नाम है।
४ स्खलितम, छलम (२२), 'कपट करने' अर्थात् युद्ध के नियमको तोड़कर' छल करने के २ नाम हैं ॥
५ अजन्यम् (न), उत्पाना, उपसर्गः (२ पु), उत्पात' के ३ नाम हैं।
मूर्छा (स्त्री), कश्मलम् (न), मोहः (पु), 'बेहोशी, मुच्छों के ३ नाम हैं।
अवमर्दः (पु), पीडनम (न), 'अन्नादिसे परिपूर्ण देशको राजाके शत्रु द्वारा पीड़ित करने के २ नाम हैं।
८ अभ्यवस्कन्दनम् ( + अवस्कन्दनम् ), अभ्यासादनम् (+ धाशि, घाटी । २ न) भा० दी. के मत से 'मारकर शक्तिहीन' करने के और महे. के मतो 'छापा मारने' अर्थात् कपटसे एकाएक आक्रमण करने के २ नाम है। ('+ लौष्टिकम् (न)'रातमें छापा मारने का । नाम है)
९ विनमः, जयः (२ पु), 'जीतने के २ नाम हैं ।
१० वैरशुद्धिः (स्त्री), प्रतीकारः (पु) वैरनिर्यातनम् (न), शत्रुताको दूर करने के ३ नाम हैं।
११ प्रद्रावः, उदावः, संद्रावा, संदावा, विद्रवः, द्रक, अपकमा (पु), अपमानम् (न), लड़ाई में पोठ दिखजाने (भागने ) के नाम हैं।
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३०४
अमरकोषः
[द्वितीयका-१रणे भक्तः पराजयः॥१११ ॥ २ पराजितपराभूतौ त्रिषु ३ नष्टतिरोहितो। ४ प्रमापणं निबर्हणं निकारणं विशारणम् ॥ ११ ॥
प्रवासनं परासनं निषूदनं निहिंसनम् । निर्वासनं । संचपनं निर्ग्रन्थनमपासनम् ॥ ११३॥ निस्तहणं निहननं क्षणनं परिवर्जनम् । निर्वापणं विशसनं मारणं प्रतिघातनम् ॥ ११४॥ उद्वासनप्रमथनक्रथनोजासनानि च ।
'आलम्भपिञ्जविशरघातोन्माथवधा अपि ॥ ११५ ॥ ५ "व्यापादनं विशमनं कदनं च निशुम्भनम्' (२६)
, भङ्गः (मा. दी०,) पराजयः (२ पु), हारने के २ नाम हैं।
२ पराजितः (+ जितः), पराभूतः ( + परिभूतः, अभिभूतः । त्रि), 'लड़ाई में हारे हुए' के २ नाम हैं ।
३ नष्टः, तिरोहितः (१ त्रि), 'लड़ाईसे भागकर छिपे हुए' के नाम हैं।
४ प्रमापणम् , निवहंणम् ( + निर्वहणम् ), निकारणम् , विशारणम (+विशरणम्,निशारणम् ), प्रवासनम् , परासनम्, निषूदनम (+निसूदनम्), निहिंसनम् , निर्वासनम्, संज्ञपनम्, निर्ग्रन्थनम् (+निर्गन्धनम् ), अपासनम्, निस्वहंगम, निहननम्, सनम, परिवर्जनम्, निर्वापणम्, विशसनम् , मारणम्, प्रतिधातमम (+प्रविघातनम् ), उद्वासनम् , प्रमथनम् , क्रयनम्, उज्बासनम (२४), आलम्मा, पिजा, विशम, घातः, उन्माय: ( + उन्मया), वा ( पु), 'मारने के ३. नाम हैं।
५[व्यापादनम, विशसनम, कदनम् , निशुम्भनम् (१) 'मारने' के नाम हैं ।
१. 'मासम्मपिजविशरघातोन्मयवधा' इति पाठान्तरम् ॥ २. जयमंशः क्षी० स्वा० व्याख्याने समुपलभ्यते इति क्षेपकरूपेणार निदितः । ३. 'माशब्दस्य रणेऽन्वयित्वादिदमसत् ॥
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वर्ग: ८ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ स्यात्पञ्चता कालधर्मो दिष्टान्तः प्रलयोऽत्ययः । अन्तो नाशो द्वयोर्मृत्युर्मरणं निधनोऽस्त्रियाम् ॥ ११६ ॥ २ " प्रमयोऽस्त्री दीर्घनिद्रा हिंसा संस्था प्रमीलनम् ' (२७) ३ परासुप्राप्त पञ्चत्वरेतप्रेतसंस्थिताः ।
११७ ॥
मृतप्रमीती त्रिष्वेते ४ चिता चित्या चितिः स्त्रियाम् ॥ ५ कबन्धोऽस्त्री क्रियायुक्तमपमूर्ध कलेवरम् । ६ श्मशानं स्यात्पितृवनं ७ कुणपः शवम स्त्रियाम् ॥ ११८ ॥ ८ प्रग्रहोपग्रहौ द्यां -
१ पञ्चता ( + पञ्चस्वम् न । स्त्री ), कालधर्मः ( + कालः ), दिष्टान्तः, प्रलयः, अध्ययः, अन्तः, नाशः ( ६ पु ), मृत्युः ( पु स्त्री ), मरणम् ( न ), निधनः (पुन), 'मृत्यु' के १० नाम हैं ॥
२ ( प्रमयः (पुन), दीर्घनिद्रा, हिंसा, संस्था ( ३ स्त्री ), प्रमीलनम् ( न ), 'मरने' के ५ नाम हैं ] ॥
३ परासुः प्राप्तपञ्चस्वः, परेतः, प्रेतः, संस्थितः मृतः, प्रमीतः (. ७ न्त्रि ), 'मरे हुए' के ७ नाम हैं ॥
४ चिता, चित्या, चितिः ( ३ स्त्री ), 'चिता' के ३ नाम हैं ।
,
३०५
५२ कबन्धः ( + रुण्डः । पुन ), 'घड़, विना शिरके शरीर' का १ नाम है ॥
६ श्मशानम्, पितृवनम् ( + पितृकाननम्, प्रेतचनम्, करवीरम् । २ न ), 'श्मशान' के २ नाम हैं ॥
७ कुणपः (पु), शवः ( पु न ), 'मुर्दे' के २ नाम हैं ॥
८ प्रग्रह, उपग्रहः ( २ पु ), बन्दी ( + वन्दी । स्त्री ), महे० मतसे 'कैदी, बँधुआ, गिरफ्तार' के और भा० दी० मतले 'बन्दीगृह ( कोत, हवाहात ), ३ नाम हैं। ( यहाँ महे० का मत ठीक प्रतीत होता है' ॥
2. अयमंशः क्षी० स्वा० व्याख्याने समुपलभ्यते इति क्षेपकरूपेणात्र निहितः ॥ २. कबन्धलक्षणं यथा
'युद्धे योद्धृषु शुरेषु सहस्रं कृत्तमृद्धंसु ।
तदावेशास्कबन्धः स्यादेको मूर्द्धा क्रियान्वितः ॥ १ ॥ इति ॥ उपचारात्सामान्यतः शिरोद्दीन कलेवरेऽपि कवन्यशब्दव्यवहार इत्यवधेयम् ॥
२० अ०
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अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्ड
---१ हारा स्थाबन्धनालये। २ पुंसि भूम्य सदः प्राणाय ३ जीबोडसुधारणम् ।। ११९ ॥ ४ आजीवितशाली ना ५ 'जीरादुर्जी वनौषधम् ।
इति क्षत्रियदर्गः ॥ ८॥
९. अथ वैश्यवर्गः। ६ ऊरख्या ऊरुजा अर्या वश्या भूनिस्पृशा शिः। ७ आजीवो जीविका वार्ता 'वृत्तिर्वर्तनजीवने ॥ १ ॥
१ कारा (स्त्री), बन्धनालयम् (भा. दी०, न), 'जेल' के नाम हैं ।
२ असवः (= असु), प्राणाः (१ पु निस्य ब. व.)'प्राण' के २ नाम हैं।
३ जीवः (पु), असुधारणम् (भा० दो०, न ), 'जीने, प्राणको धारण करने' के २ नाम हैं ॥ ___४ आयुः (= आयुस् न ), जीवितकालः (भा० दी०, पु), 'उन्न, आयु' के २ नाम हैं।
५ जीवातुः (पु न), जीवनौषधम् (भा० दी०, न ), 'जिलानेवाली दवा' के २ नाम हैं। (जैसे-लघमजी के लिये संजीवनी बूरी...")॥
___इति क्षत्र स्वर्गः ॥ ८॥
९. अथ वैश्यवर्गः। ६ अरव्यः, 'जरुजः, अर्यः, वैश्यः, भूमिस्पृक् ( = भूमिस्पृश्), विक ( = विश् । ६ पु), 'वेश्य' के ६ नाम हैं ।
७ आजीवः (पु), जीविका, वार्ता, वृत्तिः (३ स्त्री), वर्तनम् (+ वेतनम्), जीवनम् (२ न), 'जीविका वेतन' के ६ नाम हैं ॥
१. 'जीवातु विनौषधम्' इत्युपाध्यायः' इति क्षो० स्वा० ॥ २. 'वृत्तिवेतनजीवने' इति पाठान्तरम् ॥ ३ ब्रह्मणोऽस्य मुखमासीवाहू राजन्यः कृत अरू तदस्य याश्या' इति श्रुत्युक्तः ॥
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रियवर्गः ९] मणिप्रभाज्याख्यासहितः।
३०७ १ स्त्रियां कृषिः पाशुगल्यं वाणिज्य बेति वृत्तयः । २ 'मेशा श्ववृत्तिरि कृषि सम्छशि स्वृतम् ॥ २॥ ५ द्वे याचितायाचितयोर्यालयं तामृते । ६ सानृतं वणिरमारः स्यात्
कृषिः (सी), पाशुपाल्यम्, वाणिज्यम् (नणिज्यम्, वणिज्पा, पीदम् । न), 'खेती, पशुपालन और यापार' ये ३ 'वृत्तिः' (स्त्री) 'वैश्योंकी वृत्तियाँ' हैं ।
२ सेवा ( भा० दी०), 'श्ववृत्तिः ( २ रो), 'सेस' के २ नाम हैं ।
३ अनृतम् ( + प्रमृतम् । भा० दी, न ) "कृषिः (स्त्री), 'खेती' के १ नाम हैं।
४६उशिलम् ( + उन्छः, शिलम, शिको लम् ), ऋतम् (२२), 'गृहस्थके स्खलिहान या खेतसे सब अन्न उठाकर ले जानेके बाद १-१ पाना चूंगने (बीनने ), के २ नाम हैं। . ५ मृतम्, अमृतम् (१ न ), 'याचना करनेपर और बिना याचना किये मिली हुई वस्तु' का क्रमशः -१ नाम है ॥
'सस्यानृतम्, वणिभावः ( भा. दी० न । + वाणिज्यम्, वणिज्यमा पणिज्या। पु), व्यापार के २ नाम है॥
१. 'ऋतामृताभ्यां नौवेत्तु मृतेन अमृतेन वा । तत्पादनासामी वा न धवृत्या कदाचन ॥१॥
इति मनूक्ताः (४।४ ) षड् वृत्तीरुपान्याइ-सेवेति । २. 'प्रमृतम्' इति सभ्यः पाठ' इति क्षी० स्वा०। ३. तदुक्तं भगवता श्रीकृष्णेन
'कृषिगोरक्ष्यवाणिज्य वैश्यकर्म स्वभाव जम्' इति गीता १८०४४ ।। ४. तदुक्तम्-'शुनो वृत्तिः स्मृता सेवा गर्हितं तद् द्विजन्मनाम् ।
हिंसादोषप्रधानत्वादनृतं कृषिच्यते ॥ १॥ इति ।
'सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्ता परिवर्जयेत्' इति मनुः ४।६॥ ५-६-७. तदुक्तं मनुना
ऋतमुम्छशिलं शेयममृतं स्यादयाचितम् ।
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३०८
अमरकोषः। [द्वितीयका
-१ ऋण पर्युदञ्चनम् ॥३॥ उद्धारोऽर्थप्रयोगस्तु कुसीदं वृद्धिजीविका । ३ यात्रयाऽऽप्तं यांचतकं ४ नियमादापमित्यकम् ॥ ४॥ ५ उत्तमधिमकी द्वौ प्रयोक्तृग्राहको क्रमात् । ६ कुसीदिको वाधुषिको वृद्धयाजीवश्च वाधुषिः॥५॥ ७ क्षेत्राजीवः कर्षकश्च कृषिकश्च कृषीवलः। ८ क्षेत्रं हेयश लेयं 'बीहिशायुद्भवो हि रत् ॥ ६ ॥
व्यं यवश्यं त्रिषयं यवादिभवन हि तत् । ! ऋणम, पर्युदञ्चनम् (२), उद्धारः (पु), 'कर्ज' के ३ नाम हैं।
२ प्रयोगः (पु), कुसीदम् ( + कुदिम , कुशीदम् । न), वृद्धिजीविका (स्त्री), 'व्याज, सूद' के ३ नाम हैं ।
३ याचितकम् (न), 'याचना करनेसे मिले हुए पदार्थ का नाम है ॥ ४ भापमित्यकम (न), 'बदले में मिले हुए' का । नाम है ॥
५ उत्तमणः, अधम: (२ त्रि), 'कर्ज देनेवाले और लेनेवाले' का क्रमशः -1 नाम है॥
कुसीदिकः (+ कुशीदिका, कुदिकः) वाधुषिका, वृद्धयाजीवः, वा पिः (+ वार्द्धषी = वार्द्धषिन् । ४ नि ), 'कर्ज देकर सूबसे जीविका चलाने वाले के ४ नाम हैं ॥
७ क्षेत्राजीवः, कर्षकः ( + कार्यकः), कृषिकः, कृषीवल: (४ त्रि), 'किसान गृहस्थ' के ४ नाम हैं।
८ चैहेयम् , शालेयम् , यध्यम् , यवक्यम , पष्टिक्यम् (५ त्रि), 'बीही, शालि (एक प्रकारका उत्तम धान ), हूंडवाला जी, विना टूंडवाला जो
और साठी ( साठ दिन में तैयार होने वाला धान-विशेष) के पैदा होने योग्य खेतों' का क्रमशः १-१ नाम है ॥
मृणं तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कषणं स्मृतम् ॥ ९ ॥ सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि बीच्यते ।। इति मनुः ४ । ५-६ ॥ १. 'व्रीहिशाल्युद्भवक्षमम्' इति पाठान्तरम् ।। २, हितम्' इत्युपाध्यायः इति क्षी० स्वा० ॥
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वैश्यवर्गः ९ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ तिल्यं तैलीनवरन्माषोमाणुभङ्गा द्विरूपता ॥ ७ ॥ ३ मौद्गीनकौद्रवीणादि शेषधान्योद्भषक्षमम् ।
४ 'शाकक्षेत्रादिके शाकशाकटं शाकशाकिनम् ' ( २८ ) ५ बीजाकृतं 'तूतकृष्टे ६ सीत्यं हृष्टं च इल्यवत् ॥ ८ ॥ ७ त्रिगुणाकृतं तृतीयाकृतं त्रिहल्यं त्रिसीत्यमपि तस्मिन् । ८ द्विगुणाकृते तु सर्व पूर्व शम्बाकृतमपीह ॥ ९ ॥
१ तिक्ष्यम्, तेलीनम् (२ त्रि), 'तिल पैदा होने योग्य खेत' के २ नाम हैं
२ + माध्यम् + माषोणम् ; + ठम्यम् + औमोनम् + अणग्यम्,
,
*
+ आणवीनम्; + भङ्गयम् + भङ्गीनम् (८ त्रि), 'उड़द, तीसी' ( अलसी ), 'चीना और सनई पैदा होने योग्य खेत' के क्रमशः २-२ नाम हैं ॥
"
#
"
३ मौनम् कौद्रवीणम् (२ त्रि), आदि ( + गोधूमीनम् काकावीनम्र, कौलस्थीनम् प्रयङ्गवीणम्, चाणक्रीनम् (५ त्र ), मूंग और कोदो आदि ( गहू, मटर, कुक्ष्यों, चीना और चना, ) पेदा होने योग्य खेत' का क्रमशः १ - १ नाम है !
४ [ शाकशाकटम्, शाकशाकिनम् ( २ त्रि ), 'साग पेदा होने योग्य खेत आदि ( देश, स्थान, समय आदि ) ' के २ नाम हैं ] ॥
५ बीजाकृतम्, उतकृष्टम् ( भा० दी ० । बाद जोते हुए खेत' के २ नाम हैं ॥
बोने के
३०६
खेत'
६ सोध्यम् ( + शीध्यम् ), कृष्टम्, हस्यम् ( ३ त्रि), 'जोते हुए के ३ नाम हैं ॥
+ उपकृष्टम् २ त्रि ), 'बोज
७ त्रिगुणाकृतम्, तृतीयाकृतम्, विल्यम्, त्रिसोत्यम् ( + त्रिशीत्यम् । * त्र ), 'तीन बार जोते हुए खेत' के ४ नाम हैं ॥
१. 'तूपकृष्टम्' इति पाठान्तरम् ।
८ द्विगुणाकृतम्, द्वितीयाकृतम्, द्विल्यम्, द्विसीत्यम् ( + द्विशीध्यम् ), शम्बाकृतम् (५ त्रि), 'दो बार जोते हुए खेत' के ५ नाम हैं । ( 'किसीके
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३१०
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ द्रोणाढकादिधामादौ द्रौगिकाइकिकादयः । २ खाशीवापस्तु नाराक ३ उत्तमर्णादयस्त्रिषु ॥ १० ॥ ५ पुन्नपुंसकयोर्वप्रः केदार क्षेत्रमस्य तु!
केदारक स्वात्कैवार्य क्षेत्र केदारिक गणे।॥ ११ ॥ ६ लोष्टानि लेवः पुंसि कोटिशो लोटभेदनः । ८ प्राजनं तोदनं तोत्नं ९ खनित्रमवदारणे ॥ १२ ॥ १० दाखवित्रम्-- मतसे 'शम्वाकृतम्' यह नाम 'अच्छी तरह सीधा जोतनके बाद तिी जोते हुए खेत' का नाम है' ) ॥
द्रौणिका, माढ कि कः (२ त्रि), आदि (प्रास्थिका, कौडविका, २ त्रि), 'एक द्रोण और एक आढक आदि (एक प्रस्थ ( सेर) एक कुडव (छटाक) मादि)बोने आदिके योग्य खेत आदि ( उतना पकाने या रखने योग्य वर्तन या उतना खाने योग्य मनुष्यादि,...')' का क्रमशः 1-1 नाम है ।
१ खारीकः (खारीवापः भा० दी.)(त्रि), 'पक बारी बोनेके योग्य खेत' का नाम है।
३ 'उत्तमर्ण' (श्लो०५) शब्दसे यहांतक सब शब्द त्रिलिङ्ग हैं। ५ वमः (पु न), केदारः (पु), क्षेत्रम् (न), 'खेत, क्यारी'के ३ नाम हैं ।
५ कैवारकम् (+केदारम ), केदार्यम् , क्षेत्रम् (भा. दी. + क्षेत्रम् महे०), कैदारिकम् (५न), 'खेतोंके समूह के ४ नाम हैं।
लोष्टम् (न । +s), लेष्टुः (पु), 'ढेला' के नाम हैं।
कोटिशः (+ कोटीशः), लोष्टभेदनः (२ पु), 'ढलोको फोड़ने. वाती मुंगरी के या हंगा' अर्थात् 'काष्ठ या दो बसोंसे बनाये गये पटेला' के नाम हैं।
“प्राजनम् ( + प्रवपणम् ), तोदनम्, तोत्रम् (३ न), 'चाबुकपेनाले नाम हैं।
बमित्रम् , अवदारणम् (२न), 'खन्ता' अर्थात् 'कुदाल, फरसा, रामा, नतामादि जमीन खोदनेवाले हथियार' के नाम हैं।
१. दानम् , अविनम् (१ म) 'हनुमा' के नाम हैं । १. क्षेत्रम्' इति महेयरसम्मतं पाठान्तरम् ॥
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३११
वैश्यवर्गः ९] मणिप्रभाव्याख्यासहितः। ___-१ आबन्धो योनं बोकमयो' फलम् |
निरीशं कुटकं फालः कृषको ३ लागलं हलम् ॥ १३ ॥ गोदारणांच सीरो ऽथ शम्या स्त्री युगकोका। ५ ईषा लागलण्डः स्यात् ६ सीता लागलपद्धतिः ।। १४॥ ७ पुंसि "मेधिः रूले दार न्यम्तं यत्पशुबन्धने । ८ आशुव्रीहिः पाटलः स्यात्
भाबन्धः (पु) योत्रम्, योक्त्रम् (२ न ), जोती, जोता' अर्थात् 'जुवामें बांधी जानेवाली रस्सी' के २ नाम हैं ।
२ फलम्, निरीशम (+ निरीषम् ), कुटकम् ( + कूटकम् । ३ न ), फाल:, कृषकः (+ कृषिकः पु, कृषिका स्त्री । २ पु), 'फार' के ५ नाम हैं । ( 'किसीके मतसे प्रथमवाले ३ नाम जिसमें फारको गाड़ा जाता है उस काष्टके और अन्तवाले २ नाम उक्तार्थक है')॥
३ लाङ्गष्टम् , हलम् ( + हालः), गोदारणम् ( ३ न), सीरः ( +शीस।पु), 'हल' के ४ नाम हैं।
४ शम्या (स्त्री), युगकील कः (पु), 'सहला, जुमआठकी कील' के २ नाम हैं ॥
५ ईषा (ईशा । स्त्री), लाङ्गल दण्डः (भा. दी०, पु), 'हरिश' के १ नाम हैं।
६ सीता (+शीता), लाङ्गल पद्धतिः (भा. दी. । सी), 'हराई अर्थात् 'हलके चलाने से पड़ी हुई लकीर' के २ नाम हैं ।
७ मेधिः ( + मेथिः। पु), खलेदारु (भा० दी. पुन) 'मेह' अर्थात् 'देवनी करने के समय बैलोंके रस्सी बांधे जानेवाले बड़े टे' के २ नाम हैं।
८ आशुः (+ न) व्रीहिः (+भाशुव्रीहिः पु), पाटलः (+पाहिः । १पु), 'साठी' अर्थात् 'साठ दिनमें तैयार होनेवाले धान' के नाम है।
१.अत्र 'लम्' इति पाठमुक्त्वा 'तोहरूप्रकरणमारम्बामस्यर्थः इति श्री. वा. मा: २. निरीशं कूटकं फालः कृषिकः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'मेथिः इति पालन्तरम् ॥
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३१२
अमरकोषः ।
[द्वितीयका -१ 'शितशूकयवौ समौ ॥ १५ ॥ २ तोक्मस्तु तत्र हरिते ३ कलायस्तु सतीनकः ।
हरेणुखण्डिको चास्मिन् ४ कोरदूषस्तु कोद्रवः ॥ १६ ॥ ५ माल्यको मसूरो६ऽथ मकुटकमयुष्टका।
वनमुद्गे ७ सर्षपे तु द्वौ तन्तुभकदम्बको ।। १७॥ ८ सिद्धार्थस्त्वेष धवली ९ गोधूमः सुमनः समौ । १० स्याद्यावकस्तु कुल्माष११श्चणको हरिमन्थकः ॥ १८॥
. शितशूरः ( + सितशूकः), यवः (२ पु ), 'जी' के नाम हैं। २ तोक्मः (पु), 'हरे जो' का । नाम है।
३ कलायः, सतीनकः (+ सातीनकः), हरेणुः, खण्डिकः (४ पु), 'मटर, कबिलि' के ४ नाम हैं।
४ कोरदूषः, कोद्रवः (+ काद्रवः । २ पु), "कोदो' के ३ नाम हैं।
५ मङ्गत्यकः, मसूरः (+ मसुरा, मसूरा, मसुरा २ स्त्री। २ पु), 'मसर' के २ नाम हैं।
६ मकुष्टकः (+ मष्टका, मकुष्ठः, मुकुष्ठः, मकूष्ठकः, मुकुष्टकः ), मयुष्टका (+मयुष्ठका, मयष्ठकः, मपष्ठका, मष्ठः, मपुष्का, मपुष्ठः) वनमुद्गः (३३), 'घनमूंग या मोठ नामक अन्न-विशेष' के २ नाम हैं ।
७ सर्षपः ( + सरिषपः), तन्तुभः ( + तुन्तुभः), कदम्बकः (३ पु), 'सरसों के ३ नाम हैं।
८ सिद्धार्थः (+ रक्षोनः, भूतनाशनः । पु), 'सफेद सरसों' का नाम है। ९ गोधूमः सुमनः ( २ पु), गेहूँ के २ नाम हैं।
१० यावकः कुलमाष: (+ कुल्मासः । २ पु ), 'अधसूखे जौ' के और रवितके मतसे 'विना ट्रॅडवाले जो' के २ नाम हैं ।
" चणका, हरिमन्थक: (+ हरिमन्यः, हरिमन्यजः । २ पु ), 'चना' के २ नाम हैं।
१ सितशूकयौ' इति पाठान्तरम् ॥ २. मकुष्ठकमयुष्ठको' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'तुन्तुमकदम्मको' इति पाठान्तरम् ॥ ४. 'कुरुमासश्चणकः' इति मुकुटपाठः' इति मा० दो० ॥
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वैश्यवर्गः ९ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ द्वौ तिले तिलपेजध तिलपिञ्जश्च निष्फले ।
२ क्षवः' क्षुताभिजननो राजिका कृष्णिकासुरी ॥ १९ ॥ ३ स्त्रियौ कङ्गप्रियङ्ग द्वे ४ अतसी स्यादुमा झुमा । ५ मातुलानी तु भङ्गायां ६ वीहिभेदस्त्वणुः पुमान् ॥ २० ॥ ७ किशारुः सस्यशूकं स्यात् ८ कणिशं सस्यमञ्जरी । धान्यं व्रीहिः स्तम्बकरिः
३
१ तिलपेजः, तिलपिञ्जः ( + जर्तिलः । २), 'बिना तेलवाली तिल के २ नाम हैं |
२ क्षवः, जुताभिजननः ( + तुषाभिजननः । २ पु ), राजिका, कृष्णिका ( + कृष्णका ), आसुरी ( + सुरी, असुरो । ३ स्त्री ), 'राई' काल। सरसो ' ५ नाम हैं ॥
३१३
३ कङ्गुः ( + छङ्गुः, क्रङ्गुः कयू ), प्रियङ्गुः ( २ स्त्री ), 'ककुनी' अर्थात् 'टांगुन' के २ नाम हैं ॥
४ अतली, उमा, तुमा ( ३ स्त्री ), 'तीसी, अलसी' के १ नाम हैं
५ मातुलानी, भङ्गा ( १ ख ), 'भांग' के २ नाम हैं ॥
६ अणुः (पु), 'चीना' का १ नाम हैं |
७ किशारुः (पु), सस्यशूक्रम् ( + शस्यशूक्रम् । भा० दी०, न । + पु मुकु० ), 'टूड' के २ नाम हैं ॥
८ कणिशम् ( + कणियम्। न + पु), सस्यमञ्जरी ( + शस्यमञ्जरी । भा० दी०, स्त्री, 'धान आदिके बाल' के २ नाम हैं ॥
९ धान्यम् ( न ), वहिः स्तम्बकरिः ( २ भा० द० । २ पु ), 'धान्यमात्र' के नाम हैं । ( 'धान्य सत्रह प्रकार के होते हैं' ) ॥
१. क्षुधाभिजननः' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'शस्यशूकं स्यात्कणिशं शस्यमञ्जरी' इति पाठान्तरम् ॥
३. क्षी० स्वा० व्याख्याने सप्तदश धान्यान्युक्तानि तथा हि'ब्रीहियवो मसूरो गोधूमो मुद्गमाषतिलचणकाः । अणवः प्रियङ्गुकोद्रवमयुष्टकाः शालिराढक्यः ॥ १॥ द्वौ च कुलायकुलत्थौ शणः सप्तदशानि धान्यानि ॥ इति ॥
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३१४
अमरकोषः । [द्वितीयकाण्हे
-१ स्तम्बो गुच्छस्तृणादिनः ॥ २१ ॥ २ नाडी नालश्च काण्डोऽस्य ३ पलामोऽस्त्री स निष्फलः । ५ 'कङ्गरो बुसं क्लीवे ५ धान्यस्यचि तुषः पुमान् ।। २२॥ ६ शूकोऽस्त्री लक्षातीक्ष्णाने ७ शमी शिम्या ८ त्रिपूत्तरे।
ऋद्धमावसितं धान्यं ९ पूतं तु बहलीकृतम् ॥ २३ ॥ , स्तम्बः, गुच्छ ( भा० दी० । २ पु ), 'तृण यवादिके गुच्छे' के १ नाम हैं।
२ नाडी ( स्वी), नालम् (न), 'यवादिके डण्ठल' के ३ नाम हैं । ३ पलालः (पुन), 'पुमाल' का ! नाम है ॥
कडङ्गरः(+ कडङ्करः। पु), बुसम (+ बुपम् । न), 'पुआले आदिके भूसे' के २ नाम है ॥
५ धान्यस्वक् ( = धान्यस्वच, भा० दी०, खो), तुषः (पु), 'धानके भूसे के २ नाम हैं।
६ शूकः (पुन), 'धान्य या तृण आदिके चिकने और नुकीले ढूंड आदि' का । नाम है । ('धान्य-तृणसे पृथक बिच्छू आदिके हङ्कका भी यह वाचक है, अत एव इसका किंशारु (श्लो० २। में उक्त ) शब्दसे अलग निर्देश है)
शमी .( + शमिः ), शिम्बा ( + शिम्बिा, शिम्बी, सिम्बा, सिम्बिः, सिम्खी । २ स्त्री), 'छीमी, फली' अर्थात् 'मटर, केराव आदिकी उदी' के २ नाम हैं।
ऋद्धम (+ रिद्धम् ), भावसितम् ( + अवसितम् । ३ त्रि), 'हवा. में मोसाकर इकट्ठा करने योग्य धान आदि अन्न' के २ नाम हैं ।
९ पूतम् , बहुलीकृतम् (२ त्रि), ओसाये हुए धान आदि अन्नकी राशि के नाम हैं।
१. 'कङ्करः" इति दरदत्तपाठः' इति महे. मा. दी० ॥ २. 'सिम्बा' इति पाठान्तरम् ।। ३. 'रिखमावसितं' इति पाठान्तरम् ।
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वैश्यवर्ग: ९] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ माषादयः शमीधान्ये २ शूकधान्ये यवादयः । ३ शालयः कलमाद्याध पष्टिकाद्याश्च पुंस्यमी ॥२४॥ ५ तृणधान्यानि नीवाराः ५ स्त्री ' गवेधुर्गवेधुका। . ६ अयोग्रं मुसलोऽस्त्री ७ स्यादुदुखलमुलूखलम् ।। १५ ॥ ८ प्रस्फोटनं शूर्पमस्त्री ९ चालनी तितः पुमान् ।' १. 'स्यूतप्रसेवी
, शमीधान्यम् (न), 'उरद आदि (मसूर, मूंग,......) अन्न' का नाम है ॥
२ शूकधान्यम् (न), 'हूँडवाले जौ आदि (गेंहू, धान,...), अन्न' का
___ शालिः (पु), 'कलम (जड़हन धान ), साठी आदि धान' का नाम है ॥
तृणधान्यम् (न), नीवारः (पु) 'तीनी, सांवा, कोदो आदि' का नाम है।
५ गवेधुः (+गवेदुः, मुकु०), गवेधुका (२ वी), 'मुनियों के अन्न विशेष' के नाम है ॥
६ अयोग्रम (+अयोनिः), मुसलः (. पुन) 'मुसल' के २ नाम हैं । ७ उदूखलम्, सलूखलम् (न), 'मोस्खली' के २ नाम हैं। ८ प्रस्फोटनम् न), शूर्पम् ( + सूर्पम् । पु न ), 'सूप' के १ नाम हैं।
९ चालनी (सी। +चालनम् न), तितः (पु। + न), 'चालनी' के नाम है।
१. स्यूतः (+ स्पोनः मुकु०), प्रसेवः (२ पु ), 'बोरा या कपड़े आदिके थैले के नाम हैं।
१. 'गवेडु-पति मुकुटः ॥२. 'अयोनिः इत्येके पेठःइति क्षी० स्वा० ॥ ३. 'स्पोनप्रसेवो' इति पाठान्तरम् ॥ ४. तथा च रखकोषः-'मापो मुद्गो राजमाषः कुजस्थश्वणकस्तिलः ।
काकाण्डबीवर इति शमीधान्यगणः स्मृतः ॥१॥इति ।
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३१६
अमरकोषः। द्वितीयकाक.
-१ 'कण्डोलपिटौ २ कटकिलिञ्जको ॥२६॥ समानी ३ रसवत्यां तु पाकस्थानमहानले। ४ पौरोगवस्तदध्यक्षः ५ सूपकारास्तु बल्लवाः ।। २७ ।। ६ आरालिका आन्धसिकाः सूदा औदनिका गुणाः। ७ आपूपिकः कान्दविको भक्ष्यकार ८ इमे विष ।। २८ ।। ९ 'अश्मन्तमुद्धानमधिश्रयणी चुल्लिरन्तिका। १९ अङ्गारधानिकारशकट्यपि हसन्त्यपि ॥ २९ ॥
हसन्यपि, कण्डोलः, पिटः (+पिटकः, पिण्डः क्षो० स्वा०१२पु), बाँस या बेत आदिके बने हुए दौरी, डालो, ओड़ा आदि' के २ नाम हैं । २ कटः, किलिजकः (२), 'बाँसको बनी हुई झाँपी आदि' के २ नाम हैं।
३ रसवती (स्त्री), पाकस्थानम्, महानसम् (२ न), 'रसोइया घर, पाकशाला' के ३ नाम हैं।
४ पौरोगवः (त्रि), 'पाकशालाके मालिक का नाम है ॥
५ सूपकास, बल्लका (१ त्रि), पी० स्वा० के मतसे 'व्यञ्जन' (तरकारी, की भादि) बनानेवाले रसोयादार के २ नाम हैं ॥
६ मरालिका, भान्धसिकः, सूदः, मौदनिकः, गुणः(५ त्रि), क्षो. स्वा० के मतसे 'रसोइयादार, पाचक' के ५ नाम हैं । भा. दो० महे० भादिके मतसे "सूपकार:' आदि ७ नाम 'रसोइयादर' के ही है ॥
७ भापूपिका, कान्दविकः, भषयकार: (+मय कारः, भक्ष्यकारः । ३ त्रि), "पुआ, पुड़ी, कचौड़ी आदि बनानेवाले, हलवाई के ३ नाम हैं।
८ 'पौरोगव' (श्लं० २७) शन्दसे यहाँ तक सब शब्द त्रिलिज हैं ॥
९ अश्मन्तम् (+ अस्वन्तः, पु), सद्धानम, (अध्मानम्, उद्वानम्, उदा. बम् । २ न), अधिश्रयणी, चुहिलः (+चुल्ली), अन्तिका ( + अन्दिका, अन्ती । ३ स्त्री), 'चुल्ही' के ५ नाम हैं ।
१० अङ्गारधानिका ( + अनारधानी, बनारपात्री), अनारशकटी, हसन्ती (+हसन्तिका), हसनी (४ सो), 'बोरसी, 'अँगीठी' के नाम हैं ।
१. 'कण्डोलपिण्डौ इति पाठान्तरम् ॥ २. 'मस्वन्त उध्मानं' इति 'अश्मम्तमुहान रति च पाठान्तरे।
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वैश्यवर्गः ९ ]
मणिप्रभा व्याख्यासहितः ।
-१ अथ न स्त्री स्यादङ्गारोऽलातमुल्मुकम् |
२ क्लोबेऽम्बरीषं भ्राष्ट्रो ३ ना कन्दुर्वा स्वेदनी स्त्रियाम् ॥ ३० ॥ ४ 'अलिञ्जरः स्यान्मणिकः ५ कर्कर्यालुर्गलन्तिका । ६ पिटर : स्थाल्युखा कुण्डं ७ कलशस्तु त्रिषु द्वयोः ॥ ३१ ॥ घटः कुटनिपा ८ वस्त्री 'शरावो वर्धमानकः ।
९ ऋजीषं पिष्टपचनं
१ अङ्गारः ( पु न ), अळातम्, उहमुषम् ( २ न ), भा० दी० के मत से 'अङ्गार' के ३ नाम हैं । तथा मुकु० और महे० के मत से पहला नाम 'अङ्गार' का और अन्तवाले दो नाम 'लुआठ' के हैं ॥
२ अम्बरीषम् ( न । + पु ), भ्रष्टः (पु), 'खापर' अर्थात् 'चना आदिको भूजने के वर्तन' या भाड़ 'भंसार' के २ नाम हैं ॥
३ कन्दुः ( + इन्दुः । पु स्त्री ), स्वेदनी (स्त्री), 'मदिरा बनाने के बर्तन या भट्टी' के २ नाम हैं ॥
४ अलिञ्जरः ( + अक्षरः ) मणिकः ( २ ), 'कुण्डा, भाँड़' ३ नाम हैं ॥
५ कर्करी, आलुः ( + बालू ), गलन्तिका ( + गलन्ती । ३ स्त्री ), 'गड़ना, हथहर या झंझरा' के ३ नाम हैं ॥
३१७
६ पिठरः ( पु + न ), स्थाकी, उखा ( + उषा १ स्त्री ), कुण्डम् (न), 'तसला ' बटुआ, बटलोही' के ४ नाम है ॥
७ कलशः ( + कञ्चसः । त्रि), घटः ( पु स्त्री ), कुटः, निप: ( १ पुन ) 'घड़े' के ४ नाम हैं |
८ शरावः ( + सरावः । पुन ), वर्द्धमानकः (पु), 'ढकना, कसोरा' के २ नाम हैं ।
९ ऋजीषम ( + ऋचीषम), विपणनम् (२ न), 'तावा' के २ नाम हैं ॥
१. 'अलञ्जरः स्यान्मणिकः कर्कर्यालुगंकन्तिका' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'स्थाभ्युषा कुण्डं ककसस्तु' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'सरावः' इति दन्नस्यादिरपि -' इति मुकुटः' इति भा० दी० ॥
४. 'ऋचीष' इति पाठान्तरम् ॥
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२१८
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे-१ कलोऽस्त्री पानभाजनम् ।। ३२ ॥ २ कुतूः कृतेः स्नेहपात्रं ३ सैवाल्या कुतुपा पुमान् । ४ सर्वमावपनं भाण्डं पात्रामत्रं च भाजनम् ॥ ३३ ॥ ५ दर्विः कम्बिः स्वजाका व ६ 'स्यात्तर्दू रहस्तकः । ७ अस्त्री शाकं हरितकं शिग्र ८ रस्य तु नालिका ।। ३४ ॥
कलम्बा कडम्बश्व
कंसः (पुन), पानभाजनम् ( + कोशिका, पारी, मशिका, चषकः । न), 'दूध आदि पीनेका प्याला, ग्लास आदि' के नाम हैं।
२ कुतुः (स्त्री), स्नेहपात्रम् (भा. दी०, न ), 'कुप्पा' अर्थात् 'तेल रखने के लिये चमड़े के बने हुए बड़े बर्तन' के २ नाम हैं। ___ ३ कुतुपः (पु), 'कुप्पी' अर्थात् 'तेज रखने के लिये चमड़े के बने हुए छोटे वर्तन' का नाम है ॥
४ आवपनम् , भाण्डम् , पात्रम् , अमत्रम्, भाजनम् (५ न), 'बर्तन' के ५ नाम हैं।
५ दर्विः ( + दर्वी), कम्बिः (+कम्पी), खाका ( खो), 'कला ' के ३ नाम हैं।
६ त+: (+ तन्दुः । स्त्रो), दारुहत (I), 'डब्बू' अर्थात् 'भात दाल आदि परोसने के उपयोगी बर्तन' के २ नाम हैं।
७ शाकम् ( न पु), हरितकम् (न), शिग्रः (पु) भाजी, साग' के ३ नाम हैं।
८ नालिका ( + नाटिका, नाली । मुक. स्त्री) कलम्बः, कडाय: (पु), 'सागके डंठल' के ३ नाम हैं ।
१. 'स्यात्तन्दरुहस्तकः' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'पञ्चापि (दादयो दारुस्तकान्ताः) पर्यायाः । उक्तहैमा ('दवों पणातो:' ) नुरो. वात्' इति मा. दो० । किन्तु हेम वन्द्रकृतेऽनेकार्थसंग्रह -दवी फगातोः ' (अने० संग्र० २२५२४) इत्युपकामात, तेनैव विरचितेऽभिधानचिन्तामणौ 'कम्बिः दविः खजाकाऽप स्याचरुस्तकः' ( अभि. चिन्ता० ४.८७ ) इत्युक्तेश्च तदसदिस्यवधेयम् ॥
३. 'नालं काण्डे मृगाले च नाहो शाके काम (अने. संग्र. २।४९४ ) हति
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वैश्यवर्गः ९ ]
मणिगाव्याख्यासहितः ।
- १ 'वेसवार उपस्करः ।
२ तिमी
चुकं व वृक्षाम्त३पथ वेल्लजम् ॥ ३५ ॥
मरीचं कोल कुलभूषणं धर्मपत्तनम् | ४ जीरको जरोऽजाजी कणा ५ कुष्णे तु जीरके ॥ ३६ ॥ सुपवी कारवी पृथ्वी पृथुः कालोपा | ६ आईक शृङ्गवेरंस्वा ७ दथ च्छत्रा वितुन्नकम् ॥ ३७ ॥
१ 'वेलव'रः ( + वेषवार), अपस्करः ( २ पु ), 'छौंक देनेके लिये जीरा आदि फोरन या मसाला' के २ नाम हैं ॥
२ तिन्तिडीकम्, चुलम्, वृद्धालम् ( + वृक्षालम् । ३ न ), 'चूक, अमचुर' के ३ नाम हैं ॥
·
३ वेल्लजम्, मरीचम् ( + मरिचम् ), कोलकम्, कृष्णम् ऊषणम्, ( + उपनम् ), धर्मपत्तनम् ( + धावनम् । ६ न )' 'मिर्च' के ६ नाम हैं ॥ ४ जीरकः, जरण: ( २ पु ), अजाजी, कणा ( २ स्त्री ), 'सफेद जीरा' के ४ नाम हैं ॥
३१६
५ सुपवी, कारवी, पृथ्वी ( + पृथ्वीका ), पृथुः, काला, ( + कालिका, उपकालिका ), उपकुचिका, ( + कुञ्चिका, कुञ्ची । ६ स्त्री ), 'काला जीरा' के ६ नाम हैं ॥
3
६ आर्द्रकम् शृङ्गवेरम, ( २ न ), 'अदरख, आदि' के २ नाम हैं ॥ ७ छत्रा (स्त्री), वितुन्नकम् कुस्तुम्बुरु ( + कुस्तुम्बुरी ), धान्याकम् हेमोक्तेः 'नाला न ना पद्मदण्डे च नाली शाककडम्बके' इति (मैदि० पृ० १५९ । लो० २८) मेदिन्युक्तेश्वेत्यवधेयम् ॥
१. 'वेषवारः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'कृष्णमुषणं धार्मपत्तनम्' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'कणा कृष्णा तु पिप्पली' इत्येके पेटुः' इति क्षी० स्वा० ॥ ४. तदुक्तमात्रेयसंहितायाम् -
>
'चित्रकं पिप्पलीमूलं पिप्पलीचव्यागम् । धान्याकं रजनीश्वेततण्डुलाश्च समांशकाः ॥ १ ॥
वेसवार इति ख्यातः शाकादिषु नियोजयेत्' । इति ॥
अथवा – '२० पला नि हरिद्रायाः १० पलानि धान्याकस्य ५ पलानि शुद्धबोरकस्य, २३ पलानि मेथिकायाः, एतच्चतुष्टयं मर्जितमेव ग्राह्यम् ; ३ पलानि मरीचस्य, ई पलं रामठस्य । एतत्सर्वमैकत्र संमर्दितं वेसवार इत्युच्यते' दश्यन्ये' इति मद्दे० मा० दी० ॥
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अमरकोषः
[द्वितीयकाण्डेकुस्तुम्बुरु च' धान्याकरमथ शुण्ठी महौषधम् ।
स्त्रीनपुंसकयोविश्वं नागरं विश्वभेषजम् ॥३८ ।। २ मारनालकसौवीरकुल्माषाभिपुतानि च।
अवन्तिसोमधान्याम्लकुञ्जलानि च' काञ्जिके ॥ ३९ । ३ सहस्रवेधि जतुकं बाह्रीकं हिङ्गु रामठम् । ५ तत्पत्री कारवी पृथ्वी बापिका कबरी पृथुः ।। ४०।। ५ निशाख्या काञ्चनी पीता हरिद्रा वरवणिनी। ६ सामुद्रं यत्तु लवणमक्षीवं शिरं च तत् ॥ ११ ॥ (+धन्याकम् , धान्यकम् , धन्यम् , धनीयकम् , धनेयकम् , धन्या ।३), 'घनियाँ' के नाम हैं।
शुण्ठी (+ शुण्ठिः । स्त्री ), महौषधम् , विश्वम् (न स्वी), नागरम् , विश्वमेषजम् (शेष न ), 'सो' के ५ नाम हैं ॥
२ मारनालकम् (+ भारनालम्) सोचीरम , कुक्माषम् , अभिषुतम् (+ कुमाषामिषुतम् ), भवन्तिसोमम् , धान्याम्लम् (+धान्याम्लम्), कुआलम , कालिकम (+ काश्चिकम् । ८ न ), 'कांजी' के ७ नाम हैं ।
१ सहस्रवेधि (= सहस्रवेधिन् ), जतुकम् , बाहीकम् (+ बह्निकम् ), हिह, रामठम् (५ न ), 'हीग' के ५ नाम हैं।
. + स्वपत्री, कारवी, पृथ्वी, बापिका (+वाष्पीका ), कवरी (+कचरी), पृथुः (स्त्री), 'हांगके पेड़के पत्ते के ६ नाम हैं।
५ निशाख्या (+ 'निशा' अर्थात् रातके वाचक सब नाम), कासनी, पीता, हरिद्रा, वरवर्गिनी (५ स्त्री), 'हल्दी के ५ नाम हैं ।
अचीवम (+ अक्षिवम् ), वशिरम् (+ वसिरम) 'समुद्री नमक' के १नाम हैं।
१. 'धान्यकम इति मा० दी. 'धन्यक' इति मुकु० सम्मते पाठान्तरे ॥ २. 'कात्रिके' इति पाठान्तरम् ।। ३. वपत्त्री कारवी पृथ्वी वाष्पीका करी इति पाठान्तरम् ।। ४. 'सिर' इति पाठान्तरम् ॥
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नार
वैश्यवर्गः ९] मणिप्रभाव्याख्यासहिताः ।
३२१ १ सन्धवोऽस्त्री शीतशिवं माणिमन्थं च सिन्धुजे । २ रोमकं सुकं ३ पास्यं विडं च कुनके द्वयम् ॥ ४२ ॥ ५ सौवर्चलेऽक्षरुप के ५ तिलकं तत्र मेत्रके। ६ मत्स्यण्डी फणितं ७ खण्ड विकार; सीना : १३॥ ८ कूचिका शीरविकृतिः स्याद्रलामा तु माजिता ।
सैन्धवः (पुन), शीनाशवम ( + वितशिवम् ), माणिमन्यम् (+माणिबन्धम् ), धुम् (३ न ), 'धा मक, या सिन्धुदेशमें पैदा होनेवाले नमक' * ४ नाम हैं ।
२ औषकम, बसुरुम (+ वस्तकम् । ३ न). 'साँभर नमक' के नाम हैं।
३ पाकम् , बिम् (+विडम् । १ न ), 'खारा नमक या खरिया नमक' के २ नाम हैं।
४ सौवर्चलम्, अक्षम, रुचकम् ( ३ न ), 'सोचर नमक के ३ नाम हैं। ५ तिलम् (न), 'काला नमक' का नाम है ॥ ६ मत्स्यण्डी (सी), फाणितम् (4), 'राब' के २ नाम हैं॥
स्वण्डविकारः (पु), शर्करा, सिता (२ स्त्री), 'मिश्री, चीनी, शकर' के ३ नाम हैं । ('भा. दी० मतसे 'मत्स्यण्डी,..." ३ नाम 'राव' के और शर्करा, सिता' ये २ नाम 'चीनी आदि' के हैं। अन्याचार्यों के मतमें 'मत्स्यण्डी,........' ५ नाम एकार्थक हैं)॥
८ कूर्चिका, क्षीरविकृतिः (भा. दी। + किलाटी । २ खी, 'मावा, खोवा' के २ नाम हैं।
९ साला, माजिता ( + शिखरिणी । २ सी), 'दही, खांड (चीनी), घी, मिर्च और सोठसे बनाई हुई चटनी' के २ नाम हैं, इसे गुजराती लोग सिखरन या सिकरन' कहते हैं)। १. सितशिवं माणिकन्ध' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'वस्तकं पाक्यं विडं' इति पाठान्तरम् ॥ ३. तथा च सूद (पाक) शास्त्रम्
'अर्धाढकः सुचिरपर्युषितस्य दनः खण्डस्य पोडश पलानि शशिप्रमस्य । सर्पिः पलं मधु पलं मरिचं दिकर्षे शुण्ठथाः पलार्द्धमपि चापलं चतुर्णाम् ॥१॥ सूक्ष्मे पटे खलनया मृदुपाणिघृष्टा कपूरधूलिसुरमीकृतपात्रसंस्था । एषा कोदरकृता सरसा रसाला यास्वादिता भगवता मधुसूदनेन' ॥ २॥इति॥
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३२२
अमरकोषः ।
[ द्वितीयका
१. स्यात्तेमनं तु निष्टानं २ त्रिलिङ्गा वासितावधेः ॥ ४४ ॥ ३ शूलाकृतं भदित्रं स्याच्छूल्य मुख्यं तु पेठरम् ।
'संस्कृतं सर्पिषा दध्ना सार्पिष्कं दधिकं क्रमात् ( २९ ) उलावणिक तत्स्याद्यत्सिद्धं लवणाम्भसा' (३० ) ७ प्रणीतलुपसम्पनं ८ प्रयस्तं स्यात्सुसंस्कृतम् ॥ ४५ ॥ ९ स्यास्थिच्छिलं तु विदितं १० संमृष्टं शोधितं समे ।
१ तेमनम्, निष्ठानम् ( २ न ), 'दही- बारा, कढ़ी आदि' के २ नाम है। २ यहाँ से आगे 'वासित' (श्लो० ४६) शब्द तक सब शब्द त्रिलिङ्ग हैं | ३ शूलाकृतम्, भटित्रम्, शूल्यम् (३ त्रि ), 'लोहे के छड़ से पकाये हुए मांस' के ३ नाम हैं ॥
४ उख्यम्, पैठरम ( २ त्रि), 'बहुप में पकाये हुए भात आदि' के २ नाम हैं ।
५ [ सर्पिष्कम, दाधिकम् (२ त्रि), घी और दही में बनाये हुए पदार्थ' का क्रमशः १ -१ नाम है ] ॥
६ [ उइलावणिकम् ( त्रि ), 'पानी और नमक में बनाये हुए पदार्थ ' का १ नाम है ] ॥
७ प्रणीतम्, उपसंपन्नम् ( २ ), 'रस आदिमें बनाये हुए रसिआव आदि पदार्थ या तैयार भोजनमात्र' के २ नाम हैं ॥
८ प्रवस्तम् सुसंस्कृतम्] ( २ ) परिश्रम से पकाये ( बनाये ) हुए उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थ' के १ नाम है ॥
९ पिच्छिलम्, विजिलम् ( + विज्जिलम्, विज्जलम्, विजिविलम्, विजिपिलम्, विज्जनम् । २ त्रि), 'रसदार तरकारी, पतली दही आदि' के २ नाम हैं ॥
१० संमृष्टम्, शोधितम् (१ त्रि), 'केश, कीड़ा आदि चुनकर साफ किये हुए अन्नादि के २ नाम हैं ॥
१. 'संस्कृतं ...... लवणाम्भसा' इत्ययमंशः क्षी० स्वा० व्याख्याने 'शूल्यो रूप' शब्दयोर्मध्ये एव पठ्यते इत्यतोऽस्य प्रकृतोपयोगितयाऽयं मया मूळे क्षेपकरूपेण स्थापितः ॥
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३२३
वश्यवर्ग: ९) मणिप्रभाव्याख्यासहितः।। १ चिकणं मसृणं स्निग्धं २ तुल्ये भावितवासिते ॥ ४६॥ ३ आएवं पौलिरभ्यूषो ४ लाजाः पुंभूस्नि 'चाक्षताः। ५ पृथुकः म्याञ्चिपिटको ६ धाना 'भ्रष्टयवे स्त्रियः॥४७॥ ७ पूपोऽपूपः पिष्टकः स्यात् ८ करम्पो दधिसक्तवः। ९ भिस्मास्त्री भक्तमन्धोऽन्नमादनोऽस्त्री सदोदिधिः॥४८॥ १० भिस्सटा दग्धिका--
धिक्कगम्, मसृणम्, स्निग्धम् (३ त्रि), 'चिकने पदार्थ के ३ नाम हैं। २ भावितम्, वासितम् (२ त्रि), हींग आदिसे सुवासित ज्यानादि' के २ नाम हैं ॥
३ भापक्वम् (न), पौलिः, अभ्यूषः ( + अभ्योषः, अभ्युषः । २ पु), 'होरहा, मुरमुरा, ऊमी, हाबुस आदि अधपके (तताये हुए) पदार्थ के ३ नाम हैं।
४ लाजाः ( + स्त्री), अक्षताः (२ पु नि. ब. २०), 'लावा, खोल' . अर्थात् 'भूजे हुए धान आदि' के २ नाम हैं। ('किसी २ के मतसे 'लाजा' यह । नाम उतार्थक है और 'अक्षता:' यह १ नाम 'देवताओं को चढ़ाने के योग्य चावल' का है')॥
५ पृथुका, चिपिटकः (+ चिपिटः । २ पु ), 'चिउड़ा' के २ नाम हैं।
६ धानाः (स्त्री नि. व. २०), 'भुने हुए जौ' अर्थात् 'फरुही या बहुरी' का । नाम है।
पूपः, अपूमः, पिष्टकः (३ पु), 'पूषा, मालपूआ मआदि के ३ नाम हैं॥
८ करम्भः ( + करम्बः । पु), दधिशक्तवः (भा. दो०, नि..ब. ब.), 'दहीसे युक्त सत्तू' के २ नाम हैं ॥
९ मिस्सा (स्त्रो), भकम् , अन्धः ( = अन्धस्), अन्नम् (३ न), ओदनः (पुन), दीदिविः (पु। +नो), 'भात' के ६ नाम हैं।
१. भिस्सटा, दग्धिका (२ सी), 'जले हुए भात मादि' के नाम है। १. 'चायतम्' इति मुकुटः' इति मा० दो० ॥ २. 'भृष्टयरे पति पागन्तरम् ॥
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३२४
अमरकोषः। [हितीयकाण्डे
-१ सरसाद मण्यमस्त्रियाम् । २ 'मासराजामनिसावा मण्डे भक्तसमुद्भवे ।। ४९॥ ३ यवागूणिका भाणा विलेपी तरखा च सा। ४ "म्रक्षणाभ्यञ्जने तैलं ५ कसरतु तिकीदन:' (३१) ६ गब्द त्रिषु गवां सर्घ ७ गोषिट् गोमयमखियाम् ॥ ५० ॥
तत्त शुपक करीषोऽस्त्री ९ दुग्ध क्षीरं पयः समम् । १० पयस्यमाज्यदध्यादि ११ द्रासं दधि घनेतरत् ॥ ५१ ।।
सर्वसाप्रम (104), मण्यम ( पु), 'माई' के नाम हैं। २मासरः, आचाम:, मित्राय: (+विनायः मुकु०। ३ पु), 'भातक मांड के नाम हैं।
वागा, उणिका, भाना, विलेपी, तरखा (५ सी), 'लपसी, लुआ' के ५ नाम हैं। (योहे गर्म पानी में पकाये गये चावल को 'अ', जोगुने पानी में 'विलेपी', चौगुने पानी में 'म', गुने पानी में 'यवागू', और महागुमे पानी में 'यूष रंज्ञाएँ 'भैषज्यरत्नावली' में कही गया; तथापि उक्त मेद यही विचित नहीं है)।
[म्राणम, सभ्यअनम, तैलम (३ ), 'तेल' के नाम है]
५ [FRH ( + कृशरः, निसरः २ पु । सी), + तिदन: (पु), तिलयुक्त मन्त्र या विषड़ी' नाम है ।
६गम्यम् (वि), 'गाय के दूध, दही, घी, गोबरमादि' का नाम है। • गोविट (= गोविष बी), गोमयम (मपु), 'गोवर' के नाम हैं।
८ करीषः (पुन), 'सूखे गोबर सर्थात् 'गोहरी, गोहग, गोइठा, उपला, कॅपरा धादि' का नाम है ॥
९ दुग्धम् , जीरम पयः (= पथस। + गोरस:, अपस्यम, सोमनम, स्मन्यम् । ३ न), 'दुद्ध' के नाम हैं।
१. पवस्यम् (वि) 'दूषसे बने हुए दही, बोवा, मकान, घी मादि पदार्थ का । नाम है।
"प्सम् (+प्सम, अप्सम, पनाम म), पतले दही का नाम है। १. मासराचामविनावाति मुकुटः' इति मा.दी.।। २. मयं क्षेपकांशः क्षी० स्वा. व्याख्याने मूलरूपेणोपाम्यते॥ ३. 'स्यम्' इति मुकुटः' इति मा.दी.॥
४. तदुक्तं भैषज्यरत्नावस्या समचत्वारिंशस्पृष्ठे चौ०सं० पुस्तकाव्यमुद्रिते भन्नं पत्रगुणे साध्यं विलेपी च चतुगुणे । मण्यश्चतुर्दशगुणे यवागू पड्गुणेऽम्मसि ॥ बटादशगुणे तोये यूषः शाहूपरेरितः ॥ इति ।।
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३२५
वैश्यवर्ग: ९] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ घृतमाज्यं हविः सपिरनवनीत गयोद्धतम् । ३ तत्त है यनवीनं यद्धयोगोदोहोघृतम् ।। ५२ ।। ४ दण्डानं कालगोगमारिष्टन कोरसः । ५ तश्विभथितं पाहामावर्धाग्दु निजलम् । ५३ ।। ६ भण्डं दधिभवं मस्तु पीयूषोऽभिनवं पयः ।
1 घृतम् , पाध्यम् , हविः ( = हविस । + हविष्यम् ), सर्पिः (= स. पिस् । ४ न), 'धी' के ४ नाम हैं ।
२ नवनीतम् , नवोद्धृतम् (२ न), 'मक्खन' के २ नाम हैं ।
३ हैयङ्गवीनम् (न), 'नैनू' अर्थात् 'एक दिन के बालो दूधसे निकाले हुए मक्खन' का १ नाम है।
४ दण्डाहतम् , कालशेयम् , अरिष्टम् ( ३ न), गोरसः (पु), 'मथनीले महे ( मथन किये) हुए गोरस' के ३ नाम हैं ।
५ तक्रम् , उदश्वित् ( + उदश्चितम्), मथितम् ( न), 'चौथाई पानी, आधा पानी और विना पानीवाले दही' के क्रमशः 1-1 नाम है। ('धन्वन्तरिने 'दुगुने पानीवाले दहीका 'श्वेतरसम्', माधे पानीवाले दहीका 'उदश्वितम्', तिहाई पानीवाले दहोका 'तक्रम्' और विना पानीवाले दहीका 'मथितम्' नाम है' ऐसा कहा है")॥
६ मस्पु (न), भा० दी. के मत से कपड़े में बांधकर निकाले हुए दहीके पानी' का और महे• के मतसे 'दहीकी छाल्ही' (जमे हुए दहीकी, मलाई, उपरी भाग) का । नाम है।
पीयूषः (+पेयूषम् । पु । +न), 'थोड़े दिनकी या सात दिन तककी व्याई हुई गायके दूध' अर्थात 'फेनुस' का नाम है। १. तदुक्तं धन्वन्तरिणा-'द्विगुणाम्बु श्वेतरसमझेदकमुश्वितम् ।
तक्रं त्रिमागमिन्नाम्बु केवलं मथितं स्मृतम् ॥ १॥ इति ॥ २. 'पीयूषं सप्तदिवसावधितीरे तथाऽमृते' (मेदि पृ० १८३ श्लो० ४१) इति मेदिन्युक्ते, तथैव विश्वकोषोकेश्च 'सप्त दिवसावधिप्रसूताया गोः पयसः 'पीयूष' संबा; अतःपरन्तु श्रीरादिसंशैव । इलायुषस्तु 'ऊपस्यं क्षीरं स्याद् दुग्धस्तन्यं पयश्च पीयूषम्' (अमि. रस्न०२।१९९) इति 'पीयूष शम्दस्य सामान्यतः क्षीरपर्यायतामेबाहेस्यवधेयम् ।।
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३२६
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे
१. अनशाया बुभुक्षा क्षुद्१ ग्रासस्तु कवलः पुमान् ॥ ५४॥ ३ सपीतिः स्त्री तुल्यानं ४ सन्धिः स्त्री सहभोजनम्। ५ उदन्या तु पिपासा तृट् त६ जग्धिस्तु भोजनम् ॥ ५५ ॥
जेमनं लेह आहारी निघालो म्याद इत्यपि । ७ सौहित्य तर्पणं तृतिः ८ फेला भुक्तसमुज्झितम् ॥ ५६ ।। ९ काम प्रकामं पर्याप्त निकामेष्टं यथेसितम् । १० गोपे गोपालगोसञ्जयगोधुमाभीरबल्लवाः ।। ५७ ।।
, अशनाया, बभुक्षा, हुत् ( = शुध् । + क्षुधा, पहा । ३ स्त्री), 'भूख के ३ नाम हैं।
२ प्रासः, कवला ( २ पु ), 'प्रास, कौर' के २ नाम हैं । ३ सपीतिः (स्त्री), तुख्यपानम् (न), 'साथ में पान करने के २ नाम हैं।
४ सन्धिः (स्त्री), सहभोजनम् (न), 'साथमें भोजन करने के २माम हैं।
५ उदन्या, पिपासा, तृट् (= तृष् । + तृषा, तृष्णा ।। स्त्री), तपः (१) 'प्यास' के ४ नाम हैं।
६ जग्धिः (स्त्री), भोजनम् , जेमनम् ( + जमनम् , जवनम् । २ न), लेहः ( + लेप.), माहास, निघासः ( + निघसः),न्यादः ( + अभ्यवहारः पु, प्रत्यवसानम् , खादनम्, अशनम् , भक्षणम् । ४ पु), भोजन के ७ नाम हैं।
७ सौहित्यम्, तर्पणम् (२ न), तृप्तिः (स्त्री,) तृप्ति, अघाने के ३ नाम हैं।
८ फेला (+फेली, पिण्डोलिः । स्त्री), भुक्समुग्मितम् (न), 'लाकर छोड़े हुए जूठे के २ नाम हैं।
९ कामम , प्रकामम , पर्याप्ठम् , निकामम् , इष्टम् , यथेप्सितम् (६ कि माविशेषण), 'इच्छानुसार, काफी, मतलबभर' के नाम हैं ।
१. गोपा, गोपाला, गोसंख्या, गोधुक (= गोदुह् । + गोदुहः ), भाभीर: (+ अभीए), बकवा (६३), 'महीर, गोप, ग्वाला' के नाम है ।
• माहारो निषसोप्रति पाठान्तरम् ।।
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वैश्यवर्ग: ९] मणिप्रभाव्यास्यासहितः।
३२७ १ गोमहिण्यादिकं पादबन्धनं २ द्वौ गवीश्चरे ।
गोमागोमी ३ गोकुलं तु गोधनं स्वादशं बजे ॥ ५८ ॥ ४ त्रिवाशितकवीनं तद् गाशे यत्राशिताः पुरा । ५ उक्षा भद्रो बलीवद ऋत्रमा वृषभ वृधः ॥ ५९ ॥
अनडवान्सौरभेयो गोदाणां संइनिरीक्षकम् । ७ गव्या गोत्रा गर्श ८ वत्सधेन्योल्सकके।। ६०॥ है 'वृषो महान्म होक्षास्याद् १० वृद्धोक्षस्तु जन्यः । ११ उत्पन्न उक्षा जातोक्षः १२ सद्यो जातस्तु तर्णकः ।। ६१॥
पाद बन्धनम् (न), गाय, भैंस, घोडे, गदहे, आद वांधे जाने घाले पशुओं का । नाम है ॥
२ गवीश्वरः, गोमान् ( = गोमत् ), गोमी गोमिन् । ३ पु), 'साँई' के नाम हैं ।
३ गोकुलम्, गोधनम् (२न), 'गौओक झुण्ड' के २ नाम हैं ।
४ आशिलङ्गवीनम् (त्रि), गौओंके चराने या खिलानेके पुराने स्थान' का नाम है।
५ अक्षा ( = उक्षान् ) भद्रः, बलीवदः (+बरीवर्दः, वलीयदः), ऋषभः, वृषभः, वृषः, अनड्वान् ( = अनाहुह ), सौरभेयः, गौः ( = गो। + शकरा, शाकरः, शाङ्करः, कमान् = ककुद्मत् । ९ पु), 'बैल' के ९ नाम हैं ।
६ औचकम् (न), 'बैलोके झुण्ड' का १ नाम है ॥ ७ गज्या, गोत्रा ( २ मी), 'गायोके झुण्ड' के २ नाम हैं ।
८ वारसकम् , धैनुकम् (२ न ), बछवों तथा धेनुओं (नई व्याई हुई गायों) के झुण्ड' का क्रमशः १-१ नाम है ॥
९ महोक्षः (पु), 'बड़े डीलवाले बैल' का । नाम है ॥ १० वृद्धोक्षः, जरद्वः, (२३), 'बूढ़े बैल' के २ नाम हैं।
" जातोक्षः (पु), 'बडवेकी अवस्थाको छोड़कर जवान हुए। बैत' का नाम है।
१ तर्णकः (पु), 'शीघ्र पैदा हुए बछवे' का १ नाम है। १. 'उक्षा महान्' इति पाठान्तरम् ।।
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३२८
अमरकोषः
[द्वितीयका१ शत्करिस्तु वत्सः स्यारहग्यवत्सतरौ समौ । ३ आर्षभ्यः षण्डतायोग्यः ४ षण्डो' गोपतिरिटवरः ।। ६२॥ ५ स्कन्धदेशे स्वस्थ वहः ६ सास्ना तु गलकम्बलः । ७ स्यान्नस्तितस्तु नस्योतः ८ प्रष्ठाह युगपाश्वंगः ॥ ६३॥ ९ युगादीनां तु बोढारो युग्यप्रासङ्गथशाकटाः । १० खनति तेन तद्वादास्येदं हालिकसैरिको ॥६॥ १ शकरित, वरसः (२ पु), 'छोटे बछवे के २ नाम हैं।
१ दग्या, वत्सतरः (२ पु), 'जोतने के योग्य तैयार हुए बछवे के २ नाम हैं।
३ आर्षभ्यः (पु) 'साँड़ बनाने योग्य बछवे' का नाम है।
४ षण्डः ( + शण्ढः ), गोपतिः, इटचरा ( +इस्वरः। ३ पु), 'स्व. च्छन्द घूमनेवाले साँड़ के ३ नाम हैं।
५ वहः (पु), 'बैलाके कन्धे का नाम है।
६ सास्ना (स्त्री), गलकम्बलः (पु), 'लार' अर्थात् गाय-बैलों के गले में लटकनेवाले चमड़े के २ नाम हैं ॥
७ मस्तितः, नस्योतः (+ नस्तोतः । २ पु), 'नाथे हुए गो आदि' के २ नाम हैं।
प्रष्ठवाड् (=प्रष्ठवाह । +पष्ट वाड् = पष्ठवाह ), युगपार्श्वगः (२ पु), 'पहले पहल बछवेको हलमें चलना सिखलाने के लिये जुभाठमें बाँधे हुए काठ' २ नाम हैं ॥
९ युग्यः, प्रासमयः, शाकटः (३ पु), 'जुमाठको ढोनेवाले बैल, दमन करने (हलमें चलना सिखलाने) के लिये पहले पहल कन्धे पर रक्खे हुये काठको ढोनेवाले बैल और गाडीको खींचनेगले बैल' का क्रमशः - नाम है ॥
१० हालिका, सैरिकः ( २ पु), 'हलसे खोदे जानेवाले, हलको ढोनेवाले, हलवाहा (हलको चलानेवाला) हलमें चलनेवाले बैल' के २ नाम हैं ।
१. 'गोपतिरित्वरः' इति पाठान्तरम् ।। २. 'स्कन्धप्रदेशस्तु' इति 'स्कन्धदेशस्त्वस्य' इति च पाठान्तरम् ।। ३. 'नस्तोतः पष्ठवाई' इति पाठान्तरम् ॥
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श्यवर्गः ९ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः । धुर्यधौरेय धुरीणाः
१ धूर्वदे २ उभावेकधुरीणैरुधुरावेकधुरावहे ३ स तु सर्वधुरीणः स्याद्यो वै ४ माहेयी सौरभेयी गोरुस्रा माता
सधुरन्धराः ।
सर्वधुरावहः ।
व शृङ्क्षिणो ॥ ६६ ॥
अर्जुन्यधन्या रोहिणी स्यापदुतमा गोषुनैचिको । ६ वर्णादिभेदात्संज्ञाः स्युः शबलीधवलादयः ॥ ६७ ॥ ७ द्विहायनी द्विवर्ण गौरकाव्दा त्येकहायनी ।
३२६
॥ ६५ ॥
१ धूर्वहः धुय्र्यः, धौरेयः, धुरीणः, धुरन्धरः ( ५ पु ), 'धुरा (भार) को होनेवाले बैल' के ५ नाम हैं ॥
२ एकधुरीणः, एकधुरः, एकधुरावहः ( ३ पु ), 'सिर्फ एक तरफ ( दहने या बायें ) 'चलनेवाले बैल' के ३ नाम है ॥
३ सर्वधुरीणः, सर्वधुरावहः ( भा० दी० । २ पु ), 'दहने और बायें दोनो तरफ चलनेवाले बैल' के २ नाम हैं ॥
'नीचिकी' इति पाठान्तरम् ॥
४ माहेयी ( + मही ), सौरभेयी ( + सुरभिः ), गौ: ( + गो ), उना, माता ( = मातृ ), शृङ्गिणी, अर्जुनी, अध्या, रोहिणी ( ९ स्त्री ), 'गाय' के ९ नाम हैं ॥
५ नैतिकी ( + नीचिकी । स्त्री ), 'उत्तम गाय' का १ नाम है ॥
६ शवली, धवला ( २ स्त्री ), आदि ( 'कृष्णा, कपिला, पाटला; ३ स्त्री, .......... ) 'वर्ण' ( रंग ) आदि ( प्रमाण और शरीर आदि ) के भेदसे 'चितकबरी, घावर, आदि ( काली, कपिल या कद्दल और पाटक या छाक, ) 'गायों' का क्रमशः १–१ नाम है । ( 'प्रमाण भेदसे जैसे - 'दीर्घा, इस्वा, खर्चा ( ३ स्त्री ), ..... । शरीर-भेदले जैसे- पिङ्गाची, लम्बकर्णी, तीचणशृङ्गी, (३ स्त्री ), ....... ) '
७ द्विहायनी, द्विर्षा ( भा० दी० ), एकान्छा ( भा० द० ), एकहायनी, चतुरदा ( भा० दी० ), चतुर्हायणी, व्यब्दा ( भा० दी०), त्रिहायणी (८ स्त्री),
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३३०
अमरकोषः।
[ द्वितीयकाण्ड
चतुरब्दा चतुर्हायण्येवं ज्यदा विहायणी ॥ ६८॥ घशा बया२ऽवतोका तु सावदर्भा३श सन्धिनी।
आकान्ता वृषभेणाऽथ बेहदोषघातिनी ! ६९।। ५ काल्यो सर्या प्रजने ६ प्रष्टोही बालगर्मिणी। ७ स्यादवण्डी तु सुकरा ८ बहुसूतिः परेष्टुका :॥ ७० ।
९ चिरप्रसूता बकायणी'दो वर्ष, एक वर्ष, चार वर्ष और तीन वर्ष की उम्रशाली गो' के क्रमशः २-१ नाम हैं ॥ (उपलक्षणसे मानवादि के लिए श्री इन शब्दों का प्रयोग होता है)।
१ वशा, बन्ध्या ( + वन्ध्या । १ स्त्री), 'बाँझ (बच्चा नहीं पैदा करने. वाली) गौ आदि' के २ नाम हैं।
२ अक्तोका ( + वतोका , स्रबद्र्भा (२ स्त्री ), "अकस्मात् जिसका गर्भ गिर गया हो उस गौ आदि' के २ नाम हैं।
३ सधिनी (स्त्री), बाही (साँइके साथ संगम की) हुई गाय' का नाम है।
४ वेहद् (= वेहत्), गोपधातिनी (भा दो० । + वृषोपगा। २ स्त्री), 'साँड़के साथ संयोगकर गर्भको नष्ट की हुई गाय' के २ नाम हैं ।
५ काल्या (अन्य मतसे ), उपसर्या (२ स्त्री), 'उठी हुई (साँड़ के साथ मैथुन करने की इच्छा करनेवाली) 'गाय' के २ नाम हैं ॥
प्रष्ठाही ( + पष्ठीही ), बालगर्भिणी (भा० दी । २ स्त्री), 'आँकर (पहले पहल गर्भ धारण की हुई ), 'गाय' के २ नाम हैं ।
७ सचण्डी, सुकरा (+ सुशधरी । २ स्त्री), सूधी गाय के २ नाम हैं ।
८ बहुसूतिः, परेष्टुका ( २ स्त्री), 'बहुत बच्चा पैदा की हुई गाय के २नाम हैं।
९ चिरप्रसूता, वष्कयिणी ( + वष्कयणी, कयणी । २ स्त्री) 'बकेना (बहुत दिनों की व्याई हुई) गाय' के नाम हैं।
•ष्ठीही' इति पाठान्तरम् ।।
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वैश्यवर्गः ९ ]
मणिप्रभाव्याख्या सहितः ।
- १ धेनुः स्यान्नवसूतिका । सुबसंदोह्या ३ पीनोनी पीवरस्तनी ॥ ७१ ॥
२ सुव्रता ४ द्रोणक्षीरा द्रोणदुग्धा ५ धेनुष्या बन्धके स्थिता । ६ समांसमीना सा यैव प्रतिवर्ष प्रसूयते ॥ ७२ ॥
७ ऊधस्तु क्लीबमापीनं ८ समां शिवककीलकौ ।
न पुंलि दाम संदानं १० पशुरज्जुस्तु' दामनी ॥ ७३ ॥
१ धेनुः, नवसूतिका ( + नवसूतिः । २ स्त्री ), 'थोड़े दिनोंकी व्याई हुई गाय' के २ नाम हैं ॥
३३१
२ सुवता, सुखसंदोह्या ( + सुखसंदुद्या । २ स्त्री), 'बिना झंझट किये दूही जानेवाली गाय' के २ नाम हैं । ( 'इसी तरह 'दुःखदोह्या, करटा (स्त्री), 'दुःख ( मुश्किल ) से दूद्द जानेवाली गाय' के २ नाम है' ) | ३ पीनोनी, पीवरस्तनी (२ स्त्री ), 'मोटे २ स्तनघाली गाय' २ नाम हैं ॥
४ द्रोणक्षीरा, द्रोणदुग्धा (२ स्त्री), 'एक द्रोण (२५६ पत्र = १०२४ भर करीब १३ सेर तथा आयुर्वेदिक तौल से १६ सेर ) दूध देनेवाली गाय के २ नाम है ॥
५ धेनुष्या ( + पीतदुग्धा । स्त्री), 'बंधक रक्खी हुई गाय' का १ नाम है ॥ ६ समसमीना ( स्त्री ), 'घनपुरही' (प्रतिवर्ष बच्चा देनेवाली ) गाय' का १ नाम है ॥
नाम हैं ॥
१
नाम
७ ऊधः (= ऊधस्), आपीनम् ( २ न ), 'गायके थन' के ८ शिवकः, कीलकः ( २ पु ), गौओोंको बांधने के खूंटे' के ९ दाम ( = दामन् न स्त्री ), संदानम् ( न ), भा० दी० के मत से 'नोय' अर्थात् 'दूहने के समय गायोंके पैरको बांधनेवाली रस्सी' के और महे० के मत से 'पगहा' के २ नाम हैं ॥
१० पशुरज्जुः, दामनी ( + बन्धनी । २ स्त्री ), भा० दी० के मत से 'पगहा' अर्थात् 'पशुको बांधनेको रस्सी के और महे० के मत से 'देवरी' अर्थात् 'धान आदिकी दवनीके समय अनेक पशुओंको बांधनेवाली रस्सी - जिसका एक छोर मेंह में लगे रहने से चारो ओर घूमा करता है'- के और अन्य आधायके मतसे 'पशुओंके छान' अर्थात् 'पैर बांधने की रस्सी' के २ नाम हैं ।
१. 'कधनी' इति पाठान्तरम् ॥
है ॥
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३३२ अमरकोषः।
[हितीयकाण्डे१ वैशास्त्रमन्थमन्थानमन्थानो मन्थदण्डके। २ 'कुठरो दण्डविष्कम्भो ३ मन्थनी गर्गरी समे ॥ ४ ॥ ४ उष्ट्रे क्रमेलकमयमहानाः ५ करमः शिशुः। ६ करमाः स्युः शृङ्खलका दारवैः पादबन्धनैः ॥ ७५ ॥ ७ अजा छागी ८ 'शुभच्छागबस्तच्छगलका अजे । ९ मेढोरधोरणोर्णायुमेषवष्णय परके ।। ७६ ॥ २० उष्टोरमाजवन्दे स्यादौष्ट्रकोरमकाजकम् ।
वैशाखः, मन्या, मन्धानः, मन्थाः ( = मधिन् ), मन्यनदण्डकः ( + वजका, क्षुब्धः । ५ पु), 'मथनीके डण्डे' के ५ नाम हैं ।
. कुठरः (+कुटर), दण्डविष्कम्भः (२), 'जिसमें मथनीके डण्डेको बांधकर दही महा जाता है उस खम्भे आदि' के नाम हैं ।
३ मन्थनी, गगरी ( + कलशी। २ स्त्री), 'कहतरी' अर्थात् जिसमें दहीको महा जाता है उस पात्र' के २ नाम है।
४ इष्टः, क्रमेलका, मयः, महाङ्गः (+दासेरका, दाशेरः, दीर्घनछः, दीर्घग्रीवः, रवणः, धूम्रकः, कण्टकाशनः । ४ पु), 'ऊँट' के ४ नाम हैं।
५ करमः (पु), 'ऊँटके तीन वर्षतको उम्रवाले बच्चे का । नाम है।
६ शृङ्खलकः (पु), लकड़ीकी बनी हुई सिकड़ीसे बांधे हुए ऊँटके बच्चे का । नाम है ॥
७ अजा, छागी ( २ स्त्री) 'बकरी, छेर' के २ नाम है ॥
८ शुभा ( + स्तमः, तुमः), छागः (छगः), बस्तः ( + वस्तः), छगलकः ( + छगलः), अजः ( ५ पु), 'बकरा, खस्ली ' के ५ नाम हैं।
९ मेढ़ः ( + मेण्डकः ), उरभ्र, उरणः, ऊर्णायुः, मेषा, वृष्णिः, एडका, (+मुहुः, हुडः । ७ पु) 'भेड़े के ७ नाम है।
१. भीष्टकम्, औरभ्रकम्, आजकम् (३), 'ऊँटो, भेड़ों और बकरों के झुण्ड' का क्रमशः 1-1 नाम है।
१. 'कुटरः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'शुमच्छागवस्तच्छगलका' इति स्तमनगवस्वच्छगळका' इति पाठाखरे ।
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घश्यवर्ग: ९] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
३३३ १ चक्रीवन्तस्तु बालेया रासभा गर्दभाः खराः॥ ७७ ॥ २ वैदेहकः सार्थवाहो नैगमो वाणिजो वणिक ।
पण्याजीवो ह्याणिक: क्रयविधायिक सः ॥ ७८ ।। ३ विक्रेता स्याद्विक्रायकः ४ क्रयविक्रायको मौ। ५ वाणिज्यं तु वणिज्यास्या६न्मूल्यं वस्नोऽप्यपक्रयः।। ७९ ॥ ७ नीवी परिपणो मूलधनं ८ लाभोऽधिक फलम् । ९ 'परिवान परीवर्तों नमेनिमयावपिन ८०।।
, चक्रीवान् ( = चक्रीवत् ), बालेयः (+ वालेयः), रासमः, गर्दभः, खरः (+करः, शङ्कुकर्णः, वैशाखनन्दनः । ५), 'गदहे' के ५ नाम हैं ।।
२ वैदेहका, सार्थवाहः, नैगमः ( +निगमः ), वाणिजः, वणिक ( = व. णिज), पण्याजीवः, भापणिकः, क्रयविक्रयिका (८), 'बनियाँ, व्यापारी के नाम हैं।
३ विक्रेता ( = विक्रेत ), विक्रयिका (२३), 'बेचनेवाले' के २ नाम हैं ।। ४ क्रायका, कयिका ( + क्रेता = क्रेत । पु), 'खरीददार' के नाम हैं। ५ वाणिज्यम् (न), वणिज्या (सी), 'व्यापार के २ नाम हैं । ६ मूल्यम (न), वस्नः, अवक्रयः (२ पु), 'कीमत, दाम' के नाम हैं।
७ नीवी ( + नीविः । स्त्री), परिपणः, मूलधनम् (न) 'ग्यापारमें लगाये हुए मूलधन' के ३ नाम हैं।
८ लामा (पु), अधिकम् , फलम् (२ मा० दी। २ न), 'मुनाफा, फायदा, लाभ' के नाम हैं।
९ परिदानम् ( +प्रतिदानम् । न), परीवत: (+परिवर्तः ) नैमेयः (+वैमेयः), निमयः (+विमयः । ३५), 'किसी पदार्थादिको अदलबदल करने के ४ नाम हैं।
१. 'प्रतिदानम्' इति पाठान्तरम् ॥
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३३४
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे - १ पुमानुपनिधिासः २ प्रतिदानं तदर्पणम् । ३ कये प्रसारितं क्रय्यं ४ क्रयं वेतन्यमात्रके ।। ८१ ॥ ५ विक्रेयं पणितव्यं च पण्यं ६ कय्यादयस्त्रिषु । ७ क्लीवे लत्याएनं सत्यङ्कारः सत्याकृतिः स्त्रियाम् ॥ ८२ ॥ ८ विपणो विक्रयः ९ संख्याः सङ्खयेये ह्यादश त्रिषु ।
उपनिधिः, न्याः ( + निक्षेपः । २ पु), 'थाती, धरोहर रखने के नाम हैं। __ २ प्रतिदानम् (न), 'धरोहर (थाती), को वापस करने का , नाम है ॥
३ क्रश्यम् (त्रि), 'सौदा' अर्थात् 'ग्राहकों को खरीदने के लिये दूकानपर फैलाई हुई वस्तु' का १ नाम है ॥
४ क्रेयम् (त्रि), 'खरीदने योग्य वस्तु' का १ नाम है ॥
५ विक्रेयम् , पणितव्यम् , पण्यम् (३ त्रि), 'बेचने योग्य वस्तु' के ३ नाम हैं।
६ 'क्रय्य आदि शब्द त्रिलिग हैं ॥
७ सत्यापनम् ( + सत्यापना स्त्री । न ), सत्यकारः (पु), सत्याकृतिः (स्त्री), 'साई, बयाना, एडशन्स, पेशगी' के ३ नाम हैं।
८ विपणः, विक्रयः (२ पु), 'बेचने के नाम हैं।
९ 'एकः, द्वौ, त्रयः,"नवदश' भा० दी० के मतसे 'एक, दो, तीन,.... नवदश ( उन्नीस) संख्या ' का, और एकः द्वौ, त्रयः,... अष्टादश' महे, मुकु०, क्षी. स्वा. आदिक मतसे 'पक दो, तीन,... ''अट्ठारहतक संख्या का वाचक क्रमशः १-१ शब्द है। ये (एक, दि.......) शब्द गिने जानेवाले वस्तुके वाचक रहने-पर त्रिलिज होते हैं। ('जैसे-'एको ब्राह्मगः, एका ब्राह्मणी, एक वस्त्रम् ; द्वौ ब्राह्मण्यो, द्वे ब्राह्मण्यो, द्वे वस्त्रे....", इन वाक्यों में ब्राह्मण, ब्राह्मणी और वस्त्र' शब्द क्रमशः 'शिर, स्त्रीलिङ्ग
और नपुंसक लिङ्ग' हैं। अत एव 'एक और द्वि' शब्दका भी क्रमशः 'पुंलिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग' में प्रयोग हुमा है । मूल में 'हि' शब्द के अवधारणार्थक होने से सामानाधिकरण्य (एको ब्राह्मणः, दो ब्राह्मणो, यो ब्राह्मणाः; एका ब्राह्मगी, वे ब्राह्मण्यो, तिम्रो ब्राह्मण्या,
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वैश्यवर्गः ९] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
३३५ १ विंशत्याद्याः सदैकत्वे सर्वाः सङ्घ येयसत्ययोः ।। ८३ ॥ एक वस्त्रम्, द्वे वस्त्रे, त्रीणि वस्त्राणि; ....") से ही व्यवहार होता है; वैयः धिकरण्य ('एक ब्राह्मणस्थ, द्वौ ब्राह्मणयोः, यो ब्राह्मणानाम् एका ब्राह्मग्या, द्वे ब्राह्मण्योः, तिस्रो ब्राह्मणीनामा एक वस्त्रस्य, द्वे वस्त्रयोः; त्रीणि वस्त्राणाम्,..") से व्यवहार नहीं होता है। इसमें भी एक द्वी, त्रयः, चरवार' अर्थात् 'एक, द्वि, त्रि और चतुर' (एक, दो, तीन और चार संख्या वाचक) शब्दोंके तीनों लिङ्गो भिन्न २ रूप होते है और 'पञ्च, घट,.. अष्टादश अर्थात 'पञ्चन्' षष,..."अष्टादशन्' (पांच, छुः... ''अठारह संख्या वाचक) शब्दके रूप तीनों लिङ्गों में एक समान होते हैं। ('क्रमशः उदाहरण। पहला (तीनों लिङ्गों में मिल रूपवाले शब्द)जैसे-'एको ब्राह्मणः, एका ब्राह्मणी, एक वस्त्रम्, द्वौ ब्राह्मणो, द्वे ब्राह्मण्यो, द्वे वस्त्रे त्रयो ब्राह्मणाः; तिस्रो ब्राह्मण्या, श्रीणि वस्राणि चत्वारो ब्राह्मणाः, चतस्रो ब्राह्मण्या, चत्वारि वस्त्राणि' इन वाक्यों में 'ब्राह्मण, ब्राह्मणी और वस्त्र' शब्दके क्रमशः 'पुंल्लिङ्ग, स्त्रोलिङ्ग और नपुंसक लिङ्ग' होनेसे 'पक, द्वि, त्रि और चतुर' शब्दों का क्रमशः 'पुंल्लिक, स्त्रीलिज
और नपुंसकलिङ्ग' में प्रयोग हुआ है। दूसरा (तीनों लिङ्गों में समान लिङ्गवाले शब्द) जैसे-'पञ्च ब्राह्मणाः, पञ्च ब्राह्मण्या, पञ्च वस्त्राणि,....इन वाक्यों में ब्राह्मण, ब्राह्मणी और वस्त्र' शब्द के क्रमशः 'पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग' होने पर भी 'पञ्चन्' शब्दका प्रयोग तीनों लिङ्गों में समान ही हुआ है, भिन्न २ नहीं; इसी तरह 'षट् , सप्तन् , अष्टादश' (छ, सात,..... अट्ठारह' संख्या वाचक ) शब्दोंके भी तीनों लिङ्गों में समान हो रूप होते हैं। विशेषः-ये सब लिग भेद केवल संस्कृत में ही होते हैं, हिन्दी आदिमें नहीं)।
१ एकोनविंशतिः, विंशतिः,....."पराईम' ('उन्नीस, बीस;.... पराई'
१. 'दशा (अष्टादशा)न्तसंख्यावाचिनः शब्दाः प्रायः संख्येयवचना एव, कचित्तेषां संख्यावाचकस्वमपि । यथा-'द्वयकयोर्दिवचनेकवचने' (पा० सू० १ । ४ । २२) इति 'बहुषु बहुवचनम् (पा० सू० १ । ४ । २१) इति च । 'कयोदयाः, केषां बहूनाम्' (पात. भाष्य १ । ४ । २१) इति पातअलमाष्याकचिदवृत्तावपि; किन्तु सत्यपि प्रयोगे तत्रापि (अवृत्तावपि) संख्येयगतदिवादि संख्यायामारोप्य संख्यावाचकेभ्योऽपि दिवचनायेव, उक्तमाण्यानुरोधादिति सर्वतन्त्र स्वतन्त्राः काशीनाथशास्त्रिचरणाः॥
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२३६
अमरकोषः
[द्वितीयकाण्डे१ सडधार्थे द्विबहुत्वे स्तरस्तासु चानवतेः स्त्रियः । ३ पङ्क्तेः शतसहस्त्रादि क्रमादशमुणोत्तरम् ।। ८४ ॥
संख्याक वाचक) शब्द संख्या (गिनती) और संख्येव (गिनी जानेवाली वस्तु) के अर्थ में प्रयुक्त होने पर एकवचन ही होते हैं। ('कमशः उदाहरणा । पहला (संख्या अर्थमें ) जैसे... ब्राह्मणानां शितिः, शाम, सहस्त्रं, ....वा' इस वाक्यमें 'ब्राह्मण' शब्दर बहुवचन बहने घर भी "विंशति, शत, सहस्र, ......." शब्दका एकवचन में ही प्रयोग हुआ है। दूसरा (संख्येय अर्थात् गिनने योग्य वस्तु अर्थम ) जैले- एकोनविंशतिः, शतं, सहलं, लसं वा ब्राह्मणाः, ......' इस वाक्य में ब्राह्मण' शब्द के बहुवचन होने पर भी 'एकोनविंशति, शत, सहस्र, लक्ष,.....' शब्दों का 'एकवचन' में ही प्रयोग हुआ है, बहु. वचन में नहीं')॥
, एकोनविंशतिा,... 'परार्द्धम्' ('उन्नीस..... परार्द्ध-तक संख्या वाचक ) शब्द संख्या अर्थमें 'द्विवचन और बहुवचन' भी होते हैं । ('जैसे
विशती, तिस्रो विंशतयः, एक शतम्, द्वे शते, बोणि शतानि...... इन वाक्यों में 'विशति और शत' शब्दका तीनों वचन ( एकवक्षन, द्विवचन और बहवचन ) में प्रयोग हुआ है। इसी तरह अन्यान्य ( एकविंशति, द्वाविंशति, ...त, सहस्र, परार्द्ध) शब्दोंके विषयमें भी जानना चाहिये')॥
. विंशतिः,.....'नवनवतिः' (बीस, निन्नानवे' तक संख्या-वाचक) शब्द निस्य त्रीलिङ्ग हैं। (जैसे-विंशस्या पुरुषैः कृतम, सप्ततिर्वस्त्राणि, नव. स्था नदीनां जलम्,......" इन वाक्यों में 'पुरुष, वस्त्र और नदी' शब्दके क्रमश: 'हिटङ्ग, नपुंसक और स्त्रीलिङ्ग' होने पर भी विंशति (बोस ), सप्तति (सत्तर), नवति, (नब्बे) शब्दोंका प्रयोग केवल 'स्वीलिया में ही हुआ है, अन्य लिङ्गो (नपुंसक और स्त्रीलिङ्ग) में नहीं ॥
३ पङ्क्तिः (स्त्री), शतम, सहस्रम् ( न). भादि ('भादि पदसे 'युत्तम (न पु), लक्षम् (न स्वी), प्रयुतम् (न पु), कोटिः (स्त्री), अर्बु. स्म (न पु), अजम् (+ वृन्दम् ), खर्वम, निखर्वम, महापशम (+ महा• म्बुजम् ), शङ्खः (पु स्त्री), जलधिः ( + वार्दिः, पारिधिः,.......... । पु),
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वैश्यवर्गः ९] मणिप्रभाब्याख्यासहितः। १ यौतवं द्रुवयं पाय्यमिति मानार्थकं त्रयम् ।
अन्त्यम , मध्यम् , पराईम ( शेप न ), का संग्रह है'), 'दहाई (दश), सैकड़ा और हजार आदि (आदिले 'दश हजार' टाव, दश सास, करोड़, दश करोड़, अरब, दश अरब, सर्द, दा सर्व, नील, दस मील, नम्र, दश पद्म, शङ्ख, दश शङ्ख') संख्या (गनती)' का क्रमशः 1-1 नाम है । ये क्रमशः उत्तरोत्तर (पहले की अपेक्षा दूसरे) दशगुने' होते हैं। (जैसे-दश पङ्कि= शतम् (सौ), दश शत = सहस्त्रम् (जार), इत्यादि समझना चाहिये')॥
१ यौतयम् ( + पौलवम् ), दुवयम्, पारयन, मानम् (भा. दी। ४ न ), 'नापना, तौलना, प्रमाण' के ४ नाम हैं । ('यह 'तुला (तराज), अङ्गुलि ( हाथ, फूट, गज, बॉस आदि), प्रस्थ (पौवा, सेर, पसेरी आदि) के भेदसे तीन प्रकार का होता है; उनमें से 1-1 का क्रमशः 'उन्मानम्, परिमाणम, प्रमाणम्, (३ न)' यह 1-, नाम है। 'हेमचन्द्राचार्य ने तो
१. तदुक्तं भास्करीयसीलवत्याम्
'एकदशशतसहस्त्रायुतलक्षप्रयुतकोटयः क्रमशः। अर्बुदमजं सर्वनिखर्वमहापद्मशङ्कवस्तस्मात ॥१॥ माधिश्चान्त्यं मध्यं पराद्धमिति दशगुणोत्तरं संशाः।
संख्यायाः स्थानानां व्यवहारार्थ कृताः पूर्वैः' ॥ २ ॥ क्षी० स्वा० तु स्वव्याख्यायां प्रयुत-लक्ष'शम्दयोः, 'अर्बुद-कोरि'शब्दयोश्व परस्पर पर्यायतां 'भन्स्यं मध्यं परार्द्धम्' इत्यत्र 'मध्यम् अन्यं परार्द्धम्, इति व्यत्यासं चाहुस्तद्यथा
'एकदशशतसहस्राण्ययुतं प्रयुताख्यलक्षमय नियुतम् । अर्बुदकोटिन्यर्बुद पद्म खर्व निखर्वमिति दशमिः ॥१॥ गुणनान्महानशकू समुद्रमध्यान्तमथ पराद्ध च ।
स्वहतं परार्द्धममितं तत्स्वहतं पूर्यते संख्या' ॥ २ ॥ इति ॥ एतद्विषये मतान्तरदिक्षुभिः चतुर्वर्गचिन्तामणे नखण्डस्य १२८ पृष्ठे हेमचन्द्राचार्यविर. चितेऽभिधानचिन्तामणौ । ३ । ५३७-५३८) च द्रष्टव्यम् ।। २. तदुक्तम्
ऊर्ध्वमानं किलोन्मानं परिमाणं तु सर्वतः।
मायामस्तु प्रमाणं स्यात्संख्या मिन्ना तु सर्वत' ॥१॥इति ॥ २२ अ०
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३३८
अमरकोषः । [हितीयका मानं तुलाङ्गुलिप्रस्थौरगुआः पञ्चायमाषकः ॥ ८५॥ २ ते षोडशाक्षः कर्षोऽस्त्री ३ पलं कर्षचतुष्टयम् । ४ सुवर्णविस्तौ हेम्रोऽक्षे ५ कुरुविस्तस्तु तत्पले ॥८६॥ ६ तुला स्त्रियां पलशतं ७ भारः स्थाद्विशतिस्तुलाः । ८ आचितो दश भाराः म्युः शाकटो भार आचितः ।। ८७ ॥
गौतवम्, द्रुवरम्, पाया, (३ न ) 'तराजूसे तौलने' का, 'सेर-पौवा, छटाक आदिसे तौलने' का, और 'हाथ, अङ्गुल, गज, फट आदिसे नापने का क्रमशः 1-1 लाम है। ऐसा कहा है") ॥
. आधमाषः (पु), पांच शुञ्जा ( रत्तो)' अर्थात् 'एक आना भर' .. का नाम है।
२ अक्षः (पु), कपः (पु न), 'सोलह आघमाषक (आनाभर) अर्थात् 'एक रुपया भर के २ नाम हैं ।
३ पलम् (म), 'चार वर्ष (लाया) भर' का । नाम है ।
४ सुवर्ण: (+ न) बिस्तः (२ पु), 'एक मोहर' अर्थात् 'अस्सी रत्तो भर या १६ थाने भर सु के २ नाम है।
५ कुरुविस्तः (पु), 'एक पल (चार मोहर भर या तीन सौ बोस रत्ती भर ) सुवर्ण' का । नाम है। ( उपचारसे सुवर्ण से भिन्न अर्थ में भी 'पल......"शब्दों का प्रयोग होता है)।
६ तुला (स्त्री), 'सौ पल' अर्थात् '४०० रुपया भा या नम्बरी एक पसेरी भर' का नाम है ।।
७ भारः (पु), 'बीस तुला' अर्थात् १० पसेरी या दाई मन' का १ नाम है। (यही एक आदमोका बोझ होता है)।
८ आचित्तः (पु। +न) 'दश भार अर्थात् '३५ मन' का नाम है। यह एक गादीका बोझ होता है ।
१. नदुक्तमभिधानचिन्तामणौ हेमचन्द्राचार्यपादैः'तुलाः पौतवं मानं द्रवयं कुडवादिमिः पाप्यं इस्लादिमि-' इति ११५४७ ।।
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वैश्यवर्ग: ९) मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ कार्षापणः कार्षिकः स्यात् २ कार्षिके ताम्रिके पणः । " अखियाठकद्रोणी खारी याहो निकुञ्चकः ।। ८८॥
'कुडवा प्रस्थ इत्याद्याः परिमाणार्थकाः पृथक । कार्षापणः, कार्षिक: (पु), 'रुपये के नाम हैं॥
२ पम: (पु) 'पैसे'का नाम है । ('श्लो० ८५ से यहातक 'तुलामान' कहा गया, पडले (२७६८३-८७ ) में 'अङ्कलिमान' कह चुके हैं; अब क्रमः प्राप्त 'प्रस्थमान' कह रहे हैं').
३ भादकः, कोणः (२ पुन ), सारी (+खारः पु। पा), वाहः, निकु. च का,कुदः ( + कुटपः मुकु. कुडपः), प्रस्थः (पु), इत्यादि (मानी, भविका, प्रवर्तः, सूर्यः,... ), 'माटक आदि तौल-विशेष' का क्रमश: 1-1 नाम है। ('इसका सविस्तर वर्णन टिपगी और चक्र में स्पष्ट है)।
१. 'कुरपः' इत्यपीति मुकुटः' इति मा. दी० ॥ २. शाहंधरसंहितायां तुलामानविवरगं विस्तरतो निष्टिना प्रदश्यते
'न मानेन विना युक्तिद्रव्याणां शायते कचिव ॥ अतः प्रयोगकार्यार्थ मानमत्रोच्यते मया। प्रसरेणुः दुषे प्रोक्तः त्रिशता परमाणुमिः॥१॥ प्रसरेणुस्तु पर्वायनाम्ना वंशी निगरते।। पाणन्तरगते मानो यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः ॥ १ ॥ तस्व विक्षचमो मागः परमाणुः स कथ्यते। बलान्तरगतः सूर्यकरवंशी विओक्पते ॥३॥ पशीमिर्मरीचि स्थासामिः पमिस्तु राजिका। तिसभी रामिकामा सर्षपः प्रोच्यते बुधैः॥४॥ यवोसाको गुजा स्यात्तचतुष्टयम् । पभिस्तु रचिकामिः स्वाम्माषको हेमधान्यको ॥५॥ मासैश्चतुषिःशाणः स्थावरणः स निगयते । टः स एप कषितस्तयं कोल उच्यते ॥६॥ क्षुदको बरकरणः स निगवते । कोलस्यं च कर्ष स्वास प्रोतः पाणिमानिका ॥७॥ अक्षः पिचुः पाणितलं किब्रिस्पाणिश्च तिन्दुकम् । पिसाळपदकं चैव तथा पोशिका मता ॥८॥
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३४०
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डेकरमध्यं हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहः। उदुम्बरं च पर्यायैः कर्ष एव निगयते ॥ ९ ॥ स्यात्कार्षाभ्यामद्धपलं शुक्तिरष्टमिका तथा। शुक्तिभ्यां च पलं ज्ञेयं मुष्टिरानं चतुर्थिका ॥१०॥ प्रकुन्नः षोडशो बित्वं पलमेवात्र कीर्त्यते । पलाभ्यां प्रसूतिर्शया प्रसृतश्च निगद्यते ॥ ११ ॥ प्रसृतिभ्यामञ्जलिः स्यात्कुडवोद्धशरावकः । अष्टमानं च स शेयः कुडवाभ्यां च मानिका ॥ १२ ॥ शरावोऽष्टपलं तदशेयमत्र विचक्षणः । शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थश्चतुष्प्रस्थैस्तथाढकम् ॥ १३ ॥ माजनं कंसपात्रं च चतुःषष्टिपलं च तत् । चतुर्मिरादकोणः कलशो नल्वणोर्मणः ॥१४॥ उन्मानश्च घटो राशिोणपर्यायसंशकाः। द्रोणाभ्यां शुर्पकुम्मौ च चतुष्पष्टिशरावकाः ॥१५॥ शूर्पाभ्यां च भवेद् द्रोणी वाही गोणी च सा स्मृता। द्रोणीचतुष्टयं खारी कथिता सूक्ष्मबुद्धिमिः ॥ १६ ॥ चतुःसहस्रपलिका पण्णवत्यधिका चमा। पलानां द्विसहस्रं च भारः एकः प्रकीर्तितः ॥१७॥
तुला पलशतं शेया सर्वत्र वैष निश्चयः। इति । माषादि खार्यन्तं मानं श्लोकेनैकेनोपसंहरति
माषटकाक्षबिल्बानि कुडवः प्रस्थमाढकम् ॥
राशिर्गोणी खारिकेति यथोत्तरचतुर्गुणा' । इति च शाश०सं०१।१।१४-३२ तेनैवोत्तरीत्या मागधमानमुक्त्वा कालिङ्गमानमुक्तम् । तद्यथा
'यवो द्वादशभिर्गारसर्षपः प्रोच्यते बुधैः।। यवदयेन गुमा स्थास्त्रिगुजो बल्ल उच्यते ॥१॥ मापो गुजामिरष्टामिः सप्तमिर्वा मवेक्वचित् । स्याच्चतुर्माषकैः शाणः स निष्कष्टक एव च ॥२॥ गद्याणो माषकैः षड्मिः कर्षः स्यादृशमाषकः। चतुष्कः फलं प्रोक्तं दशशाणमितं बुधैः ॥ ३ ॥
चतुष्पलैश्च कुडवं प्ररथाद्याः पूर्ववन्मताः ॥ इतिएतयोः (मागध-कलिङ्गमानयोः ) मागधमानस्य प्राशस्त्यं निर्दिशति
'कालिङ्गं मागधं चेति द्विविधं मानमुच्यते ।
कालिङ्गान्मागथं श्रेमानं मानविदो विदुः॥ इति च शा० सं० १११३९-४३
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परयवर्गः .]
.. मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
३४१
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अथ तुलामानबोधकचकम् ।
अश मागधमानम् । १५ परमाणुः त्रसरेणुः१३ २ सुक्ती | १ पलम् ( ४ भरी) २ ३० परमाणवः | १ सरेणुः १४ २ पले
१ प्रमृतिः ३६ प्रसरेणवः । १ मरीचिः१५ २ प्रसूती १ कुडवः (१ सेर) |४|६ मरीचयः १ राजिका(राई) १६ २ कुडवो १ मानिका (३ सेर) ५३ रालिकाः । १ सर्पपः(सरसो) १७ २ मानिके १ प्रस्थ: ( १ सेर) ६८ सर्षपाः १ यवः (जौ) १८२ स्थाः १ आढकः ७४ यवाः
१ गुजा (रती) १९/ ४ आदकाः १ द्रोणः ८६ गुञ्जाः १ माषः (मासा) २० २ द्रोणौ १ शूर्पः ९४ माषा:
१शाणः २२ | २ शूरों १ द्रोणी १. २ शाणी १ कोलः २२ / ४ द्रोण्यः
| १ खारी ११/२ कोलो
१ कर्षः (रुपया) २३ २००० पलानि | १ मारः (२३ मन) २२ २ कर्षों
४ १०० पलानि 1 १ तुळा(पसेरी-३५सेर)
अथ कलिङ्गमानम् । १ ११ श्वेतसर्षपाः | १ यवः
६ माषा: १ गवाणः (३ तोला) |२२ यवौ १ गुना
१० माषा: १कर्षः (१ भरी)
८४ कर्षाः | १ पलम् 1४८ वा ७ गुजाः १ माषः (मासा)! ९ ४ पलानि | १ कुडवः |५४ माषाः १शाण:
शेषं सर्व मागधमानवबोध्यम् । देशादिभेदेनेतन्मानस्य विविधा भेदाः सन्ति । ते चात्र विस्तारभयानोलिखितास्तवि क्षुभिः 'मनुस्मृतौ ( ८1१३१-१३७ ), याज्ञवल्क्यस्मृती ( १।३३२-३१४), चतुर्वर्गचिन्तामणी (हेमाद्रौ ) दानखण्डे (पृ. १२६-१३०), विष्णु-कात्यायन-नारर-प्रगस्ति-विष्णुगुप्त-मदिबपुराणविष्णुधर्मोत्तर-बराहपुराण पयपुराण-गोपथब्राह्मण स्कन्दपुराणोका मानभेदा हम्बा।
|01-1
| १ शुक्तिः
|
|
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२४२
अमरकोषः।
[द्वितीयकाडे१ पादस्तुरीयो भागः स्यारदंशभागौ तु वण्टके ॥ ८९॥ ३ द्रव्यं वित्तं स्वापतेयं रिक्थमृक्थं धनं वसु।
हिरण्यं द्रविणं शुम्नमर्थरैविभवा अपि ॥१०॥ ४ * स्यात्कोशश्च हिरण्यं च हेमरूप्ये छताकते। ५ ताम्यां यदन्यत्तत्कुप्यं ६ रूप्यं तद्वयमाहतम् ॥ ११ ॥ ७ गारुत्मतं मरकतमश्मगों हरिन्मणिः । ८ शोणरत्नं लोहितकः पद्मराग:
. पादः (पु), 'चौथाई भाग' का । नाम है ॥ २ अंशः, भागः, वण्टकः (३ पु), 'भाग, हिस्सा' के ३ नाम हैं ।
१ ग्यम् , वित्तम् , स्वापतेयम् , रिक्थम , ऋक्यम् , धनम् , वसु, हिर. ज्यम् , द्रविणम् , घुम्नम् ( न), अर्थः, राः (= + पुस्सी), विमवः (३ पु), 'धन' के १३ नाम हैं।
४ कोशः (+ कोषः । पु), हिरण्यम् (न), 'सोना-चांदी' अर्थात् 'सिका बने हुए और बिना लिका बने हुए सोना-चांदीमात्र' के २ नाम हैं ।
५ कुप्पम् (न), 'सोना-चांदीसे भिन्न तांबा आदि धातु' का नाम है।
रूभ्यम् (न), 'लिका बने हुए सोना, चांदी, तांबा, गिल्टी मादि' का । नाम है। (सोना जैसे-असर्फी गिनी भादि । चांदी जैसेरुपया, अठन्नी, भादि । तांबा जैसे-पैसा, धेला, पाई आदि । गिल्टी जैसेचवत्री, दुशन्नी, एकन्नी')॥
७ गारुस्मतम् , मरकतम (२न), अश्मगर्भः, हरिन्मणिः (२३), 'पन्ना या मरकत मणि' के ४ नाम हैं। ८ शोणरस्नम (न), लोहितका, पारागः (१पु) '
पराग मणि, लाल' के ३ नाम हैं ॥
१. 'स्याकोषच' इति । पाठान्तरम् ॥
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वैश्यवर्ग ९]
-१ अथ मौक्तिकम् ॥ ९२ ॥
मुक्काऽथ विद्रुमः पुंसि प्रवालं पुन्नपुंसकम् । ३ रत्नं मणिर्द्वयोरश्मजातौ मुक्तादिकेऽपि च ॥ ९३ ॥ ४ स्वर्ण सुवर्ण कनकं हिरण्यं देम हाटकम् |
१. तदुक्तम्
१ मौक्तिकम् ( न ), मुक्ता (बी), 'मोती' के २ नाम हैं ॥ २ विद्रुम (पु), प्रवालः (पुन), 'मूँगे' के २ नाम हैं ॥
३रश्नम् (न), मणि: ( + मणी । पु स्त्री ), 'रत्न, मणि' अर्थात् 'पन्ना, छाल, हीरा, मोती आदि जवाहरात के नाम हैं । ( 'सोना १, चांदी २, मोती ३, लाजावत ४ और मूंगा ५, अथवा - 'सोना १, हीरा २, नीलमणि ३, पद्मराग (लाल ) ४ और मोती ५, ये 'पञ्चरत" हैं। मोती १, सोना २, वैदूर्यमणि (सूर्यकान्त ) ३, पद्मरागमणि (लाल ) ४, पुखराज ५, गोमेदमणि ६, नीलमणि ७, पक्षा ८ और मूंगा ९, ये नव 'महारत" हैं। मोती २, सोना ३ चांदी ४, चन्दन ५, शङ्ख ६, चर्म ७ और वस्त्र ८, 'रत्नकी जातियाँ हैं' ) ॥
'हीरा १,
ये आठ
3
• स्वर्णम्, सुवर्णम्, कनकम् हिरण्यम्, हेम ( = हेमन् ), हाटकम्,
अथवा
मणिप्रभा व्याख्यासहितः ।
'सुवर्ण रजतं मुक्ता राजावतं प्रवालकम् ।
रत्नपञ्चकमाख्यातं शेषं वस्तु प्रचक्षते ॥ १ ॥ इति ॥
२. तदुक्तम्-
",
'कनकं कुलिशं नीलं पद्मरागं च मौक्तिकम् । एतानि पञ्चरत्नानि रत्नशास्त्रविदो विदुः ॥ १ ॥ इति ॥
'मुक्ताफलं हिरण्यं च "डूर्य पद्मरागकम् । पुष्परागं चं गोमेदं नीलं गारुत्मतं तथा ॥ १ ॥ प्रवालयुक्तान्युक्तानि महारत्नानि वै नव' ॥ इति ॥ ३. तदुक्तं वाचस्पतिना -
'हीरकं मौक्तिकं स्वर्ण रजतं चन्दनानि च । शङ्खश्वमं च वस्त्रं चेत्यष्टौ रत्नस्य जातयः ॥ १ ॥ इति ॥
३४३
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अमरकोषः। द्वितीयकाण्डेतपनीयं शातकुम्भं गाङ्गेयं भर्म कर्बुरम् ॥ ९४॥ चामीकर जातरूपं महारजतकाञ्चने । रुकम कार्तस्वरं जाम्बूनदमष्टापदोऽस्त्रियाम् ।। ९५ ॥
अलङ्कारसुवर्ण यच्छङ्गीकनकमित्यदः । २ दुर्वर्ण रजतं रूप्यं खजूर श्वेतमित्यपि ॥९६ ॥ ३ रीतिः स्त्रियामारकूटोन स्त्रियामय४ताम्रकम् ।
शुल्वं म्लेञ्छमुखं व्यश्वरिष्टोदुम्बराणि च ॥ ९७ ॥ तपनीयम् , शातकुम्भम् (शातकौम्भम् ), गाङ्गेयम् , भम ( = भर्मन् । +भमः = भर्म पु), कर्बुरम (+ कर्बुरम्), चामीकरम , जातरूपम् , महारजतम् , काचनम् , रुक्मम् , कार्तस्वरम् , जाम्वूदनम् (१८ न), अष्टापदः (पु न ।+ कलधौतम , अर्जुनम् , कल्याणम् , भूत्तमम् । न.''), 'सुवर्ण' के १९ नाम है।
शृङ्गीकनकम् (+शृङ्गी स्त्री, ऋङ्गि = ऋषि, कनकम् ; १ न। न), 'भूषण बने हुए सोने' का । नाम है ॥
२ दुर्वर्णम् , रजतम् , रूप्यम् ; खर्जुरम (+ खर्जुरम् ), श्वेतम् (+ कल. पौतम , तारम् ; हंस, चन्द्रमा और समुदके पर्यायवाचक सब शब्द । ५.), 'चांदी' के ५ नाम हैं।
३ रीतिः (+रीती, शिरी, रीरी। सी), भारफूटः (पुन), 'पीतल के २ नाम हैं।
४ ताम्रकम् (+ ताम्रम् ), शुखम् ( + शुरुषम् ), म्लेच्छमुखम् , यष्टम् , वरिष्टम् , उदुम्बरम (+ औदुम्बरम् , रक्तम् । न), 'तांबा' के । नाम है।
-
१. 'शातकौम्भं गाङ्गेयं मर्म कवुरम्' इति पाठान्तरम् ॥ २. गङ्गाया अपत्यं गाङ्गेयम् । तदुक्तं वायुपुराणे
'यं गर्म सुषुवे गला पावकादीप्ततेजसम् ।
तदुत्वं पर्वते न्यस्तं हिरण्यं समपद्यत' ॥ १॥ति ॥ १.सबुकम्-'तीरमृतसं प्राप्य मुखवायुविशोषिता ।
जाम्बूनदाख्यं भवति सुवर्ण सिबभूषणम् ॥ १॥इति ॥
.
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वैश्यवर्गः ९]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ लोहोऽस्त्री शस्त्रकं तीक्ष्णं पिण्डं कालायसायसी । अश्मसारोऽथ मण्डूरं' सिंहाणमपि तन्मले ॥ ९८ ॥ ३ सर्व च तैजर्स लोहं ४ विकारस्त्वयसः कुशी । ५ क्षारः काचो६ऽथ चपतो रसः सूतश्च' पारदे ।। ९९ । ७ गवलं माहिषं शृङ्गटमभ्रकं गिरिजामले ।
१ लोहः ( + लौहः । पुन ), शस्त्रकम् ( + शस्त्रम्), तीक्ष्णम्, पिण्डम्, कालायसम् (+ कृष्णायसम्, कृष्णामिषम् ), अयः (= अयस् । ५ न ), अश्मसारः + गिरिसारम्, शिलासारम् । पु । + न ), 'लोहे' के ७ नाम हैं ॥ २ मण्डूरम्, सिंहाणम् ( + सिंहानम्, सिवानम्, शिङ्खाणम् । २ न ), ' मण्डूर' अर्थात् 'लोहेकी मैल' के १ नाम हैं ॥
३ लोहम् ( + लौहम् । न ), 'सब तरह के धातु ( तैजस पदार्थ ' का १ नाम है । ( 'सुवर्ण १, चाँदी २, ताँबा है, पीतल ४, कौसा
५, गा
सीसा ७ और लोहा ८, ये भाठ 'लोहेके भेद' 'होते हैं' ) ॥
.
४ कुशी (स्त्री ), लोहेके बने हुए हथियार, बर्तन आदि वस्तु या फार' का एक नाम है
"
५ क्षारः, काचः ( २ पु ), 'काँच' के
२ नाम हैं ॥
३४५
६ चपलः, रसः सुतः, पारदः ( + पारतः । ४ पु ), 'पारा' के ४ नाम हैं ॥
७ गवलम् (न), 'भैंसे की सींग' का १ नाम है
॥
८ अभ्रकम्, गिरिजामलम् ( + गिरिजम् अमलम् । २ न ), 'अभ्रक' के २ नाम है ॥
१. सिंधानमपि' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'पारते' इति पाठान्तरम् ॥ ३. तदुक्तम्- 'सुवर्ण रजतं ताभ्रं रीतिः कांस्यं तथा त्रपु । सीसं कालायसं चैवमष्टौ छोहानि चक्षते ॥ १॥ ४. पारतस्तु मनाक् पाण्डुः सूतस्तु रहितो मलात् । पारदस्तु मनाक् शीतः सर्वे तुल्यगुणाः स्मृताः ॥ १ ॥ इति शब्दार्णवोक्तभेदाविवक्षयोक्तिरियमित्यवधेयम् ॥
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२४६
अमरकोषः ।
१ स्रोतोञ्जनं तु सौवीरं कापोताञ्जनयामुने ॥ १०० ॥ २ तुत्थाजनं शिखिग्रीवं वितुनकमयूरके । ३ कर्परी' दाविका क्वाथोद्भवं तुत्थं ४ रसाञ्जनम् ।। १०१ ।। रसगर्भ तार्क्ष्यशैलं -
१ स्त्रोतोञ्जनम्, सौवीरम्, कापोताञ्जनम् ( + कापोतम् ), यामुनम् (४ ब), 'सुर्मा' के ४ नाम हैं ॥
२ तुत्थानम् (+ सुरथम्), शिखिग्रीवम्, वितुझकम्, मयूरकम् (४न), 'तूतिया' के नाम हैं ॥
| द्वितीयकाण्डे
३ कर्पूरी, दाविका ( २ स्त्री ), स्थम् ( + तुनम् । न ), 'घिसकर तैयार किये हुये अञ्जन-विशेष' के ६ नाम हैं ॥
४ रसाञ्जनम्, रसगर्भम्, ताचर्यशैलम् (३ न ), 'रसाञ्जन' अर्थात् 'नेत्र में लगाने के अञ्जन-विशेष' के ३ नाम हैं । ( 'महे ० के मत से 'तुरथाञ्जनम्, कर्पूरी' 'तूतिया' के ५ नाम और 'रसाञ्जनम् दारूहल्दी के काथ (काढा) के समभाग बकरी के दूधमें तूतियाको घिसकर तैयार किये हुए अञ्जन-विशेष' के नाम हैं। सी० स्वा० के मत से 'दुत्थाञ्जनम्, "तूतिया' के ५ नाम और 'दार्विक्कायोद्भवम्, तुस्थरसाञ्जनम्, ( भा० दी० के कथनानुसार ५ नाम ) द्वितीय अर्थ में हैं । धन्वन्तरि और हेमचन्द्राचाय्र्यके? तो भिन्न ही क्रम हैं' ) ॥
४ नाम
******
3
....
.........
१. दाविकाकाथोद्भवं तुस्थरसाजनम्' इति क्षो० स्वा०, 'दाविकाकाथोद्भवं तुरथं रसाजनम्' इति महे० सम्मतः पाठः, मूलस्थो मा० दी० सम्मतः पाठः ॥
२. तथा च धन्वन्तरिः
'अनं मैचकं कृष्णसौवीरं स्यात्सुवीरजम् । कापोतकं यामुनंच स्रोतोऽअनमुदाहृतम् ॥१॥ इति ॥ तदुक्तं हेमचन्द्राच्चाय्यैरभिधानचिन्तामणौ
'अथ तुत्थं शिखिग्रीवं तुस्थाञ्जनमयूर के । मूषात्स्थं कांस्यनीलं हेमतारं वितुन्नकम् ॥ १ ॥ या कपरकास्थममृतासङ्गमञ्जनम् । रसगर्भ तार्क्ष्यशैलं तुस्थे दावरसोद्भवे' ।। २ ।। इति अभि० चिन्ता० ४।११८ - ११९ ॥
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औरषवर्ग:९] मणिप्रमाव्याल्यासहितः।
-१ गन्धाश्मनि तु 'गन्धिकः । सौगन्धिकश्व २ चक्षुष्याकुल्याल्यौ तु कुलस्थिका ॥ १०२॥ ३ रीतिपुष्पं पुष्पकेतु पुष्पक कुसुमाञ्जनम् । ४ पिञ्जरं पीसनं ताखमालं च हरितालके ॥१०३ ।। ५ गैरेयमर्थ्य गिरिजमश्मजं च शिलाजतु । ३ बोलगन्धरसप्राणपिण्डगोपरसाः समाः ॥१०४॥ ७ डिण्डीरोऽग्धिकफः फेनः ८ सिन्दूरं नागसंभवम् । १ नागसीसकयोगेष्टवप्राणि
गन्धाश्मा ( = गन्धाश्मन्), गन्धिका (+गन्धकः), सौगन्धिक (३३), 'गन्धक' के ३ नाम ।
२ चण्या, कुलाली, कुरुयिका (३ खी), 'काला मुर्मा' के ३ नाम है।
३ रीतिपुष्पम् , पुष्पकेतु, पुष्पकम् (+पौष्पकम् ), कुसुमाञ्जनम् (+पु. पालनम् । ४ न), 'तपाये हुए पीतलसे निकली हुई मैल के द्वारा बनाये हुए सुमे के ४ नाम हैं। __ पिञ्जरम, पीतनम (+पीतकम् , गौरम् ), तालम् , बालम (+4लम्), हरितालकम् (+हरिताकम् । ५न), 'हरताल' के ५ नाम हैं ।
५ गैरेयम् , भयम् , गिरिजम , अश्मजम , शिलाजत (५ न), 'शिलाजीत' के ५ नाम हैं।
बोला, गन्धरस: (+ रसगन्धः) प्राणः, पिण्डः ( + पिष्टः), गोपरसः (+गोपा, रसः, गोसः मुकु.।५पु), 'गन्धरस' के ५ नाम हैं।
- डिण्डी(+हिण्डीग, हिडिर), अधिक फा, फेनः (पु), 'स. मुद्रफेन' के ३ नाम हैं। ___सिन्दूरम् , नागसंभवम (+नागजम , शृङ्गारभूषणम् , चोनपिष्टम् । २), "सिन्दूर' के नाम है।
९ नागम , सीसकम् (+सीसम सीसपत्रम् ), योगेष्टम् , वप्रम (+व. धंम मुकु० । न), 'सीसा के नाम हैं।
१. 'ग ' इति पाठान्तरम् ॥ .. 'पोसरसा' इति मुकुटः' इति मा०दी०॥
३. 'हिण्डीरोबिकर इति पागन्तरम् ।
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३४८
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे
-१ पु पिश्चटम् ॥ १०५ ।। रङ्गव २ अथ पिचुस्तूलो६ऽथ कमलोत्तरम् । स्यात्कुसुम्भं वह्निशिखं महारजेनमित्यपि ॥ १०६॥
मेषकम्बल ऊर्णायुः शशोणे शशलोमनि । ६ मधु क्षौद्रं माक्षिकादि ७ मधूच्छिष्टं तु सिक्थकम् ।। १०७ ॥ ८ मनःशिला मनोगुप्ता मनोहा नागजिबिका। ९ नेपाली कुनटी गोला
पुः पिच्चटम् , राम, वनम (+मुहङ्गम् , आलानम् । ४.न), 'रांगा' के ४ नाम हैं॥
२ पिचुः, तूलः (+ पिचुतूलः, पिचुः।१५), 'कई कपास' के २ नाम हैं।
३ कमलोत्तरम् , कुसुम्भम, वद्विशिखम , महारजनम् ( ४ न ), 'कुसुम (घ) के फूल' के ४ नाम हैं।
४ मेषकम्बलः, ऊर्णायुः (२ पु) भंडके बालके कम्बल' के नाम हैं। ५शशोर्णम् , शशलोम (= शशलोमन् । २ न), 'खरगोश के रोएं' के २ नाम हैं।
मधु, चौद्रम् ,'मासिकम् , मादि ( + ग्रामरम , वाटकम् , पौत्तिकम् , सारघम्,... । ३ न), 'मधु शहद' के नाम हैं।
७ मधूच्छिष्टम् , सिक्थकम् (न), 'शहदसे निकाले हुए मोम' के २ नाम हैं।
मनःशिला, मनोगुप्ता, मनोहा, नागबिहिना ( + नागनिहा, शिला । स्त्री), 'मनसिल' के ४ नाम हैं।
९ नेपाली ( + शिला), कुनी, गोला (१ खो), 'नेपाली मैनसिल' के ३ नाम हैं। (भा.दी. आदिक मतसे 'मनःशिला'....... ७ नाम 'मैनशिल' के ही हैं।
१. रजवङ्गेऽथ पिचुलः' इत्यत्र पाठे तु 'इदेविनं प्रगृह्यम्' (पा. सू० १।१।११) इति प्रगृह्यसंज्ञायां 'प्लुतप्रगृह्या- (पा.स. ६१३१२५) इति प्राप्त प्रकृतिमावामाबो गजनिमीलिकयेत्यवधेयम् ॥
२. माक्षिकं तैलवणे स्याद् घृतवर्ण तु पौत्तिकम् ।
विशेयं भ्रमरं श्वेतं चौद्रं तु कपिदं स्मृतम् ॥१॥ इति निम्युक्तभेदाविवक्षयेयमुक्तिरित्यवधेवम् ।।
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वैश्यवर्गः ९] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
३४६ ___-१ यवक्षारो यवाग्रजः ॥ १०८ ।। पाक्यो२८थ मजिकाभारः कापोतः सुखवर्चकः । ३ सौवर्चलं स्याद्वक स्वपक्षीरी वंशवना !! १०९।। ५ शिमऊ श्वेतमरिचं ६ मोरटं मूल मैक्षवान् । ७ प्रन्थिक विशालोमुलं चटकाशिर इत्यपि :: ११० ॥ ८ गोलोमी भूत केशो मा ९ पत्राझं रक्तचन्दनम् । १० त्रिकटुम्यूषण कयो १२ त्रिफला तु फलनिकम् ।। १११
, यवक्षारः, यदाजा, पाक्यः (३ पु) 'जवास्वार' के ३ नाम हैं ॥ २ सर्जिकाहारः, कापोतः, मुखवर्चकः (३) 'सजीवार' के ३ नाम हैं ।।
३ सोबर्चलम् , रुचकम् (२न), 'क्षार-भेद या सोचरवार के २ नाम हैं। 'मा० पी० आदि मतले सर्जिकाचार:,.........." ५ नाम 'सजी. खार' के ही हैं)
४ स्वधारी ( + तुकाक्षीरी, तुकाशुभा, वांशी), वंशरोचना ( + वंशलो. चना, वंशजा । ३ स्त्री), 'वंशलोचन' के २ नाम हैं।
५ शिग्रुजम् , श्वेतमरिचम् । ३ न), 'सहिजनके बीज' के २ नाम हैं ।। ६ मोरटम् (न), 'ऊन (गो) की जड़' का । नाम है ॥
७ प्रन्धिकम् , पिप्पलीमूलम , चटकाशिरः (= घटकाशिरस । + चटका श्री, शि: = शिर पु । ३ न ), 'पिपराभूल' के ३ नाम हैं।
८ गोलोमी (बी), भूतके शः (पु), 'जटामांसी' के २ नाम हैं।
९ पत्राङ्गम् , रक्तचन्दनम् (२ न), 'रक्तसार' अर्थात् 'लाल चन्दन के समान एक काष्ठ-विशेष' के नाम हैं।
१० त्रिकटु, घ्यूषणम् (+ युपगम), व्योषम् (३ न ), 'त्रिकटु' अर्थात् 'पिपल, सोंठ और मिर्च के समुदाय के ३ नाम हैं ।
। त्रिफला ( + तृफला, परा। खी), फलत्रिकम् (न), 'त्रिफला' अर्थात् 'आँवला, हरे और बहेड़े के समुदाय के २ नाम हैं।
इति वैश्यवर्ग: ॥९॥
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अमरकोषः
[द्वितीयकाण्डे१०. अथ शूद्रवर्गः। १ शूद्रश्वावरवर्णाश्च वृषलाख जधन्यजाः। २ आचण्डालाच संकीर्णा अम्बष्ठकरणादयः ॥१॥ ३ शूद्राविशोस्तु करणोऽम्बष्ठो वैश्याद्विजन्मनीः । ५ शुद्राक्षत्रिययोरुषो ६ मागधः क्षत्रियाधिशोः ॥२॥ ७ माहिष्योऽक्षित्रिययोः ८क्षतार्याशुद्रयोः सुतः।
१०. अथ शूद्रवर्गः। १ शूदः, अवरवर्णः, 'वृषः,' जवन्यजः (+पयः, पजः । ४ पु), 'शूद' के ४ नाम है ॥
२ संकीर्णः ( + अर्णसङ्कर । पु), 'वर्णसङ्कर' अर्थात् 'भिन्न २ जातिवाद माता-पिता के संयोगसे उत्पन्न 'अम्बष्ठ, करण' आदि जाति-विशेष' का नाम है।
३ करणः (पु), 'शद्रवर्णकी स्त्री और वैश्य वर्ण के पुरुषसे उत्पन्न सन्तान' का नाम है।
४ अम्बष्ठः (पु). 'वेश्य वर्णकी स्त्री और ब्राह्मण वर्ण के पुरुषसे उत्पन्न सन्तान' का नाम है॥
५ उमः (पु), 'शूद वर्णकी स्त्री और क्षत्रिय वर्णके पुरुषसे उत्पन्न सन्तान' का । नाम है।
६ माराधः (पु), 'क्षत्रिय वर्णको स्त्री और वैश्य वर्णके पुरुषसे उत्पन्न सन्तान' का १ नाम है।
७ माहिष्यः (+माहिषः । पु), 'वैश्य वर्षको सो और क्षत्रिय वर्णके पुरुषसे उत्पन्न सन्तान' का । नाम है।
८ पत्ता (= क्षत पु), 'क्षत्रिय वर्णकीस्त्री और शूद वर्ष के पुरुषसे उत्पन्न सन्तान' अर्थात् बदाई' का नाम है।
१. तदुक्तं नारदेन'षो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते लवम् । सरल तं विवानोबाव-' इति ।
मनुरपि ( ८१६) ''स्थाने 'कम्' इति पठित्वा बदेवाह ।। २.'-रद्धयां शुदो मजायत' इति श्रुरखुोरियायेवम् ।
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शूद्रवः १० ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ ब्राह्मण्यां क्षत्त्रियात्सूतरस्तस्यां वैदेहको विशः ॥ ३ ॥ ३ रथकारस्तु माहिण्यात्करण्यां यस्य सम्भवः । ४ स्याश्चण्डालस्तु जनितो ब्राह्मण्यां वृषलेन यः ॥ ४ ॥
३४१
१ सूतः ( पु ), 'ब्राह्मण वर्णकी स्त्री और क्षत्रिय वर्णके पुरुष से उत्पन्न सन्तान' अर्थात् 'सारथिका काम करनेवाले' का नाम है
२ वैदेहकः ( वैदेहः, विदेहः । पु ), 'ब्राह्मण वर्णकी स्त्री और वैश्य वर्णके पुरुषसे उत्पन्न सन्तान' का नाम है ॥
३ रथकारः (पु), 'करणी स्त्री (शुद्ध वर्णकी श्री और वैश्य वर्ण के पुरुषले उत्पन्न कन्या) और माद्दिष्य जातिके पुरुष (वैश्य वर्णकी खो और चत्रिय वर्णके पुरुषसे उत्पन्न पुत्र ) से उत्पन्न सन्तान' का नाम है ॥ वर्णके
शूद
४ घण्टाळः ( + चाण्डालः । पु) (ब्राह्मण वर्णकी स्त्री और पुरुषसे उत्पन्न सन्तान' अर्थात् 'चाण्डाल' का १ नाम है ( 'इन सब ( श्लो० २ - ४ के ' प्रमाण टिप्पणी में स्पष्ट हैं और सुगमतया जाति- ज्ञान के लिये चक्र देखिये ' ) ॥
।
१. याज्ञवल्क्यस्मृतौ पूर्वोक्ता भन्याश्च सङ्करजातय उक्तास्तथा हि'विप्रान्मूर्द्धावसिक्तस्तु क्षत्रियायां विशः स्त्रियाम् । अम्बष्ठः शूदां निषादो जातः पाराशवोऽपि वा ॥ १ ॥ वैश्यशूद्रयोस्तु राजन्यान्माहिष्योग्रौ सुतौ स्मृतौ । वैश्यान्तु करणः शूद्रयां त्रिनास्वेष विधिः स्मृतः ॥ २ ॥ ब्राह्मण्यां क्षत्रियारसूतो वैश्याद्वैदेहिकस्तथा । शूद्राज्जातस्तु चाण्डालः सर्वधर्महिष्कृतः ॥ ३ ॥ क्षत्रिया मागधं वैश्याच्छूद्रास्तनारमेव च । शूद्रादायोगवं वैश्या जनयामास वै सुतम् ॥ ४ ॥ माहिष्येण करण्यां तु रथकारः प्रजायते । असरसन्तस्तु विज्ञेयाः प्रतिलोमानुलोमजाः ॥ ५ ॥
इति याज्ञ० स्मृति० १ । ९१-९५ ॥
एतद्भिन्नानां वर्णसङ्कराणामुत्पत्तिमूलं कर्माणि च मनुस्मृती ( १० । ८-५२ ), मौनसीस्मृतो, गौतमस्मृतेश्वतुर्थाध्याये, वसिष्ठ स्मृतेरष्टादशाध्याये च सविस्तरं द्रष्टव्यम् ॥
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३५२
अमरकोषः। द्वितीयक्षा९ कारुः शिल्पी २ संहतस्तैईयोः श्रेणिः सजातिभिः ।
कारः, शिल्पी ( = शिविषन् । २ यु), 'कारीगर' के २ नाम हैं। ('बढ़ई , हुला२, नाई ३, धोबी ४ और सार ५ थे पांच 'शिल्पी' हैं)।
२ श्रेणिः (पुत्री, मालिक कारीगरों के समूह' का ?
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अनुलोमज-प्रतिलो जात्युत्पोिधनकम् । संख्या स्तृिजातेः मातृजातौ जातः पुत्रजातिः विप्रात
क्षत्त्रियायाम् मूविमिक्तः वैशयाम्
अम्बष्ठः शूद्रथाम्
निषादःमाराशवो वा क्षत्रियात्
माहिष्यः
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वैश्यायाम्
शूदचाम्
उग्रः
करण:
ब्राह्मण्याम्
सूतः
| वैश्यात्
क्षत्रियात् | वैश्यात् | মাদার वैश्यात
चण्डाल:
शस्त्रियायाम्
मागधः
१२
वैश्यायाम
आयोगवः
१३ / माहिष्यात्
करण्याम्
रथकारः
१.तदत्त
' 'तक्षा च तन्तुवायश्च नापितो रजकस्तथा। पनमश्चर्मकारश्च कारवः शिपिनो मता ॥१॥ इति ।
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यूप::] मणिप्रभाव्यास्यासहितः।। ३५३ १ 'कुलकः स्यालश्रेष्ठी २ मालाकारस्तु मालिकः ॥५॥ ३ कुम्भकार: कुलालः स्यात् ५ पलगण्डस्तु नेपकः। ५ तन्तुवायः कुविन्दः स्यात् ६ तुभवायस्तु सौषिकः ॥ ६॥ ७ राजीवधिप्रकरः ८ शखमाजोऽसिधावकः। ९ पादपर्मकारः स्याद १० व्योकारो लोहकारक ॥७॥ ११ नाडिन्धमः स्वर्णकारः कलादो रुकमकारका ।
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लक: (+कुलिकः), कुलश्रेष्ठी ( = कुल भेछिन् । २ पु), 'बाम्दानी (कीन)कारीगर' के नाम है ॥ २ मालाकार, मालिकः (२३), 'माली' के नाम है।
म्भकारः, कुलालः (पु), 'कुम्हार' के नाम हैं। • पलगण्डः, लेपक (पु), 'मकान आदिमें चूना माधि लगाने पाले जाति विशेष' नाम है।
५ सन्तुवायः ( + तन्त्रवाया, तन्त्रवापः ), इविन्दः (+कुपिन्दा ३), 'जुलाहा' अर्थात 'कपड़ा बुनने वाले' के नाम हैं।
वापा, सौचिकः (पु), 'दर्जी' के नाम हैं। • गाजीवः, चित्रकरः (२३), 'रंगसाज' अर्थात् 'कपदेको रंगने वा पापकर शिकारी आदि करनेवाले' के . नाम हैं।
काममा असिधायकः (२ पु), 'सान चढ़ानेवाले या शस्त्रों की सफाई और मरम्मत आदि करनेवाले' के नाम है ।। ..
९ पादूरुत ( + पापकृत , पादुकाकृत), चर्मकार (पु), 'चमार' .नाम
• ज्योका, बहकारकः ( + लोहकारः, अयस्कारा, अयस्करः । ) 'लहार' के नाम है।
है। नारिम्भम:, स्वर्णकार:, कला, रुकमकारका (+हक्मकार, मुष्टिका, ममुहिकः । ४३), 'सुनार' के नाम है।
१. 'कुलिक सि पाठान्तरम् ॥ २. 'तन्त्रवायः' इति 'नवा इति पागन्तरे ।।
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३५४ अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे-- १ स्थाच्छाडिकः काम्बविकः २ शौल्बिकस्ताम्रकुटटकः ।। ८॥ ३ तक्षा तु वर्धकिस्त्वष्टा 'रथकारश्च काष्ठतट । ४ प्रामाधीनो प्रामतक्षः ५ कौटतक्षोऽनधीनकः ॥ ९॥ ६ क्षुरी मुण्डी दिवाकीर्तिनापितान्तावलायिनः । ७ निर्णेजकः स्याद्रजकः ८ शौण्डिको मण्डहारकः ॥ १ ॥ ९ जाबालः स्यादजाजीवो
१ शाङ्खिकः, काम्ब विकः ( २ पु), 'शङ्खकी चूड़ी आदि बनानेवाले' के २ नाम हैं ।
२ शौलिबकः ताम्र कुट्टकः ( २ पु) 'तमेड़ा' अर्थात् 'तांबे के बर्तन आदि बनाने वाले' के नाम हैं ॥ ___३ तज्ञा ( = तक्षन् ), वर्धकिः, स्वष्टा ( = स्वष्ट), रथकार: काष्टनट ( = काष्ठत क्ष । + स्थपतिः । ५ पु ). 'बढ़ई' के ५ नाम हैं।
४ ग्रामाधीनः ( भा. दी० ), प्रामतः (२ पु ), 'गांव के बढ़ई' के १ नाम हैं।
५ कौटतक्षः, अनधीनकः ( मा. दी० । २ पु ), 'स्वतन्त्र बढ़ई' के २ नाम हैं।
६ ( = तुरिन् । + सुरमर्दी = हुस्मदिन ), मुण्डी ( = मुण्डिन् । +मुण्डिः, मुण्डकः), दिवाकीर्तिः, नापितः, अन्तावसायी ( - अन्तावमायिन् । + चण्डिलः । ५ पु) 'हजाम' के ५ नाम हैं ।
७ निर्णेजकः, रखकः (३ पु), 'धोबी' के २ नाम हैं ।
८ शौण्डिकः मण्डहारकः ( + सुराजी वी - सुराजीविन् , कल्यपालः, पानवणिक = पानवणिज , ध्वजा, वारिवासः । २ पु), 'कलवार या मद्य बनानेवाले' के २ नाम हैं॥
९ जाबालः, अजाजीवः ( २ पु ), गँडेरिये या भैडिहारे' के २ नाम हैं।
१. 'रथकारस्तु' इति पाठान्तरम् , अत्र पठे भवन्ताथादि न पूर्वमाक्' (१।१ ५) पति पूर्वप्रतिशाविरोधात् 'रथकार' शब्दस्य 'तक्ष्णः' पर्यायता न स्यादिस्यवधेयम् ॥
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वर्गः १० ]
मणिप्रभाठयाख्यासहितः ।
३५५
-१ 'देवाजीवस्तु देवतः ।
स्याम्माया शाम्बरी ३ मायाकारस्तु प्रतिहारकः ॥ ११ ॥ ४ शैलालिनस्तु शैलूषा जायाजीवाः कृशाश्विनः ।
भरता इत्यपि नठा ५ धारणास्तु कुशीलवाः ॥ १२ ॥ ६ मार्दङ्गिका मौरजिका ७ पाणिवादास्तु पाणिधाः । ८ वेणुध्माः स्युर्वेणविका ९ वीणावादास्तु वैणिकाः ॥ १३ ॥ १० जीवान्तकः शाकुनिको ११ द्वौ वागुरिकजालिकौ ।
१ देवाजीवः ( + देवाजीवी = देवाजीविनू ), देवल:, ( २ पु ), 'पण्डा, पुजारी आदि' के २ नाम हैं ॥
२ माया, शाम्बरी ( २ स्त्री ), 'जादू' के २ नाम हैं ॥
३ मायाकारः, प्रतिहारकः ( + प्रतिहारकः, प्रातिहारिकः । २ पु ), 'जादूगर' के २ नाम हैं ॥
४ शैलाली ( = शैलालिन् ), शैलूषः, जायाजीवः, कृशाश्वी ( श्विन् ), भरतः ( भारत: ), नटः ( ६ पु ), 'नट' के ६ नाम हैं ॥ ५ चारणः, कुशीलवः ( २ पु ) 'कत्थक' के २ नाम हैं ॥
६ मार्दङ्गिकः मौरजिक: ( २ पु ), 'मृद# बजानेवाले' के १ नाम हैं ॥ ७ पाणिवादः पाणिघः ( २ पु ), हाथ की ताली बजाकर मृदङ्ग, तबला आदि बाजाओं के अनुकरणको करनेवाले' के २ नाम हैं |
८ वेणुमः, वैणविकः ( २ पु ), 'वंशी या मुरली बजानेवाले' के २ नाम हैं ॥
= कृशा
२ वीणावादः, वैणिक ( २ पु ), 'वीणा बजानेवाले' के २ नाम हैं ॥ १० जीवान्तकः, शाकुनिक: ( १ पु ), 'बहेलिये या चिड़ियों को मारने वाले' अर्थात 'चिड़ीमार' के २ नाम हैं |
११ वागुरिकः, जालिकः ( २ ), 'जाल से पशु-पक्षी, मछली आदिको फँसानेवाले' के २ नाम हैं ॥
१. 'देवाजीवी तु' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'प्रातिहारकः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. यथाह बृहस्पतिः - ' कृशाश्वेन च यत्प्रोक्तं नटसूत्र मधीयते ।
रङ्गावतारी शैलूषो नटो भरतभारती' ॥ १ ॥ इति ॥
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२५६
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डे१ चैतंसिकः कौटिकच मासिकश्च समं त्रयम् ॥१४॥ २ भृतको भृतिभुकर्मकरो वैतनिकोऽपि सः । ३ बार्तावहो वैवधिको ४ भारवाहस्तु भारिकः ॥ १५॥ ५ धिवर्णः पामरो नीचः प्राकृतश्च पृथग्जनः ।
'निहीनोऽपसदो जाल्मः क्षुल्लकश्चेतरच सः ।। १६ ।। ६ भृत्ये 'दासेरदाले यदालगोज्यकचेटकाः ।
नियोकिङ्करप्रेष्यभुजियपरिचारकाः ॥१७॥ ७ पराचितपरिस्कन्दपरजातपरैधिताः । ८ मन्दस्तुन्दपरिमृज आलस्यः शीतकोऽलसोऽनुष्णः ॥ १८॥
, वेसिका, कौटिका, मासिकः (३ पु), 'मांस बेचनेवाले अधिक आदि' के ३ नाम हैं।
. भृतकः, भृतिभुक् ( = भृतिभुज् ), कर्मकरः, वैतनिक (४ पु), 'मजदूर या वेतन लेनेवाले नौकर' के ४ नाम हैं ।।।
३ वार्तावहः, वैवधिकः ( + विवधिकः, वीवधिकः । ३ पु), 'काँवर या बहँगी ढोनेवाले' के २ नाम हैं।
४ भारवाहः, भारिकः ( + भारी = भारिन् । २ पु), 'बोझ ढोनेवाले कुली आदि' के २ नाम है।
५ विवर्णः, पामरा, नीचः, प्राकृतः, पृथग्जनः, निहीना, अपसः (+अपशादः), जाल्मः, पुल्लकः (+ खुल्लकः), इतर (१० पु), 'नीच' के 10 नाम है।
भृत्या, दासेरः, वासेयः, दासः (+ दाश:), गोप्यका, चेटक: (+ चेडकः), नियोज्या, किङ्करः, प्रेष्यः (+प्रेष्यः), भुजिष्यः, परिचारकः ("E), 'नौकर, भृत्य' के नाम है।
• पराचितः, परिस्कन्दः (+परिष्कन्दा, परिस्कमा, परिष्का), परजाता (+पराजिता), परैपिता ( ४ ), 'दुसरेके द्वारा पालित' के नाम हैं।
८ मन्दः, तुन्दपरिमृजः ( +तुन्दपरिमार्ज,) आलस्यः, शीतका, अलसः (+लालसा), अनुष्णा (६ पु), 'बालसी के ६ नाम हैं।
१. 'निहोनाऽपशदो' इति पाठान्तरम् ॥ १. 'दासेरदासेयदाश-पति पाठान्तरम् ॥ ३. 'पराजितपविताः' इति पाठान्तरम् ।।
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शूरवर्गः १०] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
३५७ १ वक्षे तु चतुरपेशलपटषः सूत्थान उष्णश्च । २ चण्डालप्लवमातदिवाकीर्तिजनक्षमाः ॥ १९ ॥ निषादवपचावन्तेवासिचाण्डालपुकसाः ।।
भेदाः किरातशबरपुलिन्दा म्लेच्छजातयः ।। २० ॥ ४ व्याधो मृगवधाजीवा मृगयुर्लुब्धकोऽपि सः । ५ कौलेयकः सारमेयः कुक्कुरी मृगदंशकः ।। २१ ॥
शुनको भषकः श्वा स्थावस्तु स योगितः । ७ श्वा विश्वकद्रुर्मगयाकुशलः ८ सरमा शुनी ।। २२॥
१ दक्षः, चतुरः, पेशलः, पटुः, सूयाना, ४6 ( + निरालसः । ६ पु), 'चालाक, चतुर' के ६ नाम हैं।
२ चण्डालः, प्लवः, मातङ्गः, दिवाकीर्तिः, जननमः ( + जलङ्गमा), विषादः, 'व: ( + श्वपाकः ), अन्तेवासी ( = अन्तेवासिन् ), चाण्डाला, पुक्कप्तः ( + पुष्कसः, बुक्कपः । १० पु), 'चाण्डाल' के १० नाम हैं।
३ किरातः, शबर: (+शव), पुलिन्दः (+पुलिकः। १ पु), ये तीन 'म्लेच्छजातिः (स्त्री), २ 'म्लेच्छ (चाण्डाल) के जाति-विशेष' हैं। ___४ व्याधः, मृगवधाजीवः, मृगयुः, लुब्धकः (४ पु), 'व्याघ' के ४ नाम हैं।
५ कौलेयकः, सारमेया, कुक्कुरः (+कुकुरः, कुकुर), मृगदंशकः (+ मृग. दंशः), शुनकः (+शुन:, शुनिः), भषकः, श्वा ( = अन् । + श्वाना, कपिला, शिवारिः, मण्डलः, कृतज्ञः । ७ पु), 'कुत्ते के ७ नाम हैं ।
अलर्कः (पु), 'पागल या रोगी कुत्ते का । नाम है। ७ विश्वकद्रुः (पु), 'शिकारी कुत्ते का नाम है ॥ ८ सरमा, शुनी (स्त्री), 'कुतिया' के २ माम हैं ॥ .
१. 'श्वपचो डोम्बः तुक्कसो मृतपः' इत्यवान्तरभेदोऽत्र न विवक्षित इत्यवधेयम् ।। २. तदुक्तम्-'गोमांसमक्षको यस्तु लोकवाद्यं च भाषते ।
सर्वाचारविहीनोऽसौ म्लेच्छ इत्यभिधीयते ॥ १॥इति ॥
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३५८
अमरकोषः
४
१ विट्चरः सुकरो प्राग्यो २ वर्करस्तरुणः पशुः । ३ आच्छोदनं मृगव्यं स्यादाखेटो मृगया स्त्रियाम् ॥ दक्षिणारुर्लुग्धयोगाद्दक्षिणेर्मा कुरङ्गकः । ५ बौरैकागारिकस्तेनदस्युतस्कर मोक्षकाः ॥ २४ । प्रतिरोधिपराम्कन्दिपाटश्चरमलिम्लुचाः ।
६ चौरिका स्तैन्यचौर्ये च स्तेयं ७ लोनं तु तद्धने ॥ २५ ॥ ८ वीतसस्तूपकरणं बन्धने मृगपक्षिणाम् ।
उन्माथः कूटयन्त्रं स्याद् १० वागुरा मृगबन्धनी ॥ २६ ॥
१ विट्चरः (पु), ग्रामके सुअर' का १ नाम है ॥
२ वर्करः ( पु ); 'जवान पशु' का १ नाम है ॥
३ आच्छोदनम्, मृगव्यम् ( + मृगव्या खी । २ न ), आखेट: ( पु ), मृगया ( + पापद्धिः । ह्री ), 'शिकार' के ४ नाम हैं ॥
४] दक्षिणेर्मा ( = दक्षिणेर्मन् पु), 'व्याधके मारनेसे दहने भागमें घाववाले मृग आदि पशु का १ नाम है ॥
५ चौरः ( + चोरः, चोरङ: ), ऐकागारिकः, रतेनः, दग्युः, तस्करः, मोषकः, प्रतिरोधी ( = प्रतिरोधिन् । + प्रतिरोधकः ), परास्कन्दी ( = परास्कन्दिन् ), पाटच्चरः, मलिम्लुचः ( + पारिपन्थिकः, रात्रिचरः । १० पु ), 'चोर' के १० नाम हैं ॥
| द्वितीयका
६ चौरिका ( + चोरिका । स्त्री), स्तेभ्यम्, चौर्यम्, स्तेयम् ( ३ न ), 'चोरी' के ४ नाम हैं ॥
७ लोप्नम् ( + होत्रम्, लोतम्, चोरितम् । न ), 'चोरीके धन या वस्तु आदि' का नाम है ॥
८ वीतंसः ( + वितंसः । पु) 'फन्दा' अर्थात् 'पशु पक्षियोंको फँसाने के किये जाल आदि साधन-विशेष' का १ नाम है ॥
९ उन्माथः ( पु ), कूटयन्त्रम् ( + पाशयन्त्रम् । न ), 'पशु-पक्षियोंको फँसानेवाले यन्त्र - विशेष' के २ नाम हैं ॥
१० वागुरा, मृगबन्धनी ( २ स्त्री), 'पशु या मृगको फँसाने के लातविशेष' के २ नाम हैं ॥
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शूद्रवर्गः १० ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ 'शुल्बं वराटकं स्त्री तु रज्जुस्त्रिषु वटी गुणः । २ उद्घाटनं घटीयन्त्रं सलिलोद्वाहनं प्रहेः ॥ २७ ॥ ३ पुंसि वेमा 'वायदण्डः ४ सूत्राणि नरि तन्तवः । ५ वाणिज्यूतिः स्त्रियौ तुल्ये ६ पुस्तं लेप्यादिकर्मणि ॥ २८ ॥ ७ पाञ्चालिका पुत्रिका स्याद्वस्त्रदन्तादिभिः कृता । ८ " स्यात्सालभञ्जिका स्तम्भे
"
१ शुक्ष्वम् ( + सुभ्यम्, शुभ्यम्, शुषम् ३ नः शुरुवा, सुदवी, स्त्री ), वराटकम् ( + वटाकरः । + पु। २ न ), रज्जुः (स्त्री), वटो ( त्रि । + स्त्री ), गुण: ( + वटीगुणः त्रि । पु ), 'रस्सी' के २ नाम हैं ॥
२ उद्घाटनम् ( + उद्धतनम् ), घटीयन्त्रम् (२ न ), 'कुएँ से पानी निकालेवाले पुरवट मोट, रेंहट आदि साधन' के २ नाम हैं ।
३ वेमा ( वेमन् । + न ), वायदण्डः ( + वापदण्डः । २ पु ), 'जुलाहोंके शास्त्र-विशेष' अर्थात् 'जिससे कपड़ा बुनते समय सूत बराबर किया जाता है उस हथियार के २ नाम हैं ॥
४ सूत्रम् (न), तन्तुः ( पु + सूत्रतन्तुः ), 'सूत' के २ नाम हैं ॥ ५ वाणिः व्यूति: ( + ब्युतिः । २ स्त्री ), 'कपड़े आदिको बुनने' के
२ नाम हैं ॥
६ " पुस्तम् (न), 'मिट्टी, कपड़े या चमड़े आदिसे लीपने या पुतली बनाने' का नाम हैं ॥
७ पाखालिका ( + पञ्चालिका ), पुत्रिका ( १ स्त्री), 'हाथी-दाँत या कपड़े आदिकी पुतली' के २ नाम हैं ॥
८ [सालमञ्जिका(+ सालभओ । स्त्री), 'लकड़ी की पुतली'का १ नाम है ] ॥
१. 'शुखं वराटक:' इति 'सुम्यं वटाकरः' इति च पाठान्तरे द्वितीयं पाठान्तरं 'स्वामि' सम्मतमिति मा० दी० 1 परन्तेन तथा पाठान्तरानुक्ते मा० दी० चिन्त्यः |
३५६
२. 'बापदण्डः' इति पाठान्तरम् || ३. 'पञ्चालिका' इति पाठान्तरम् ॥ ४. 'स्यात्सालभञ्जिका त्रिषु' इत्ययमंशः मा० दी० बी० स्वा० मूले नोपलभ्यते, ''त्रिषु' इत्युत्तरार्द्ध तु मद्दे०
किन्तु क्षी० स्वा० ख्याने मूकेरूपेणोपलभ्यते । 'जतुत्रपु '' व्याख्याने मूले चोपलभ्यत इत्यवधेयम् ॥
५. तदुक्तम्- 'मृदा वा दारुणा वाथ वस्त्रेणाप्यथ चर्मणा ।
कोहरत्नैः कृतं वापि पुस्तमित्यभिधीयते ' ॥ १ ॥ इति ॥
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अमरकोषः। [हितीयकाडे
-१ लेयेनालिकारिका (३२) २ जतुत्रविकारे तु जातुषं त्रापुषं त्रिषु' (३३) ३ पिटकः पेटकः 'पेटा मञ्जुषाऽऽथ 'विहक्षिका ।। २९ ।।
भारयटि५स्तदालम्बि शिक्यं काचोऽथ पादुका ।
पादूरुपानतस्त्री ७ सैवानुपदीना पदायता ।। ३० ॥ ८ नधी वधी वरचा स्याऽदवादेस्ताडनी कशा। १२ चाण्डालिका तु कण्डोलवीणा चण्डालवल्लकी। ३१ ।।
. [ अञ्जलि कारिका (बी), 'लेप्यमयी पुतली' का । नाम है ] ॥
२ जातुषम् , त्रापुषम् (२ त्रि ), 'लोह और राँगेकी पुतली' का क्रमशः १-१ नाम है ॥
३ पिटका, पेटकः (२ पु ), पेटा (+पेडा मुकु०, पीडा की. स्वा० ), मम्जूषा ( २ स्त्री), पेटी, मँपोली, बक्स आदि' के नाम हैं। 'क्षी. स्वा० के मत से पहलेवाले २ नाम 'छोटी झाँपी' के और अन्त वाले २ नाम 'बड़े झाँपी, बक्स आदि' के हैं)॥
४ विहजिका (+विहङ्गमा), भारयष्टिः ( २ स्त्री), 'बहँगीके डण्डे के माम हैं।
५ शिक्यम् (न) काचः (पु), 'बहँगीके डण्डे में लटकते हुए सिकहर' के २ नाम हैं।
६ पादुका, पादूः, उपानत् (= उपानह । + पादत्राणम् । स्त्री), 'जूता खड़ाऊँ, बूट, सिलेपड़, चटकी आदि के ३ नाम हैं ।
७ अनुपदीना (बी) 'पैताबा या पूरे पैरके जूते (वूर)का नाम हैं। ८ नधी, ध्र', वरना (३ वी), 'चमड़ेकी रस्सी ' के ३ नाम हैं । ९ कशा (स्त्री) 'कोड़ा या चाबुक' का १ नाम॥
१. चाण्डालिका (+ अण्डालिका), कण्डोलवीणा ( + कण्टोलवीणा, कण्डोली), चण्डालवलकी (३ स्वी), 'चण्डाल आदि नीचोके किंगरी नामक बाजा' के । नामक हैं।
२. 'पाडा' इति 'पेडा' इति च क्रमशः क्षी० स्वा. मुकु० संमतं पाठान्तरम् ।। २. 'विहामा' इति मुकुटसंग्रतं पाठान्तरम् ॥ ३. 'कण्टोलवीणा' इति पाठान्तरम् ॥
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शूदवर्गः ..] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ मारावी स्यादेषणिका २ शाणस्तु निकषः कषः। ३ प्रधना 'पत्रपरशुरीषिका तूलिका समे ।। ३२ ॥ ५ तेजसावर्तनी मूषा ६ भस्ना चर्मप्रसेविका। ७ माफोटनी वेधनिका ८ कृपाणी कर्तरी समे ॥३३॥ ६ वृक्षादनी वृक्षभेदी १० टङ्कः पाषाणदारणः । ११ ककचोऽस्त्री करपत्रम्
। नाराची, एषणिका (. सी), 'सोना-चाँदी तोलनेवाले काँटे' के नाम हैं। रशाणः, निकष, कषः (३ पु), 'कलौटी या सान' के ३ नाम हैं।
वश्वनः ( + वृश्चनः ), पत्रमशः (१ पु), 'सोना-चाँदी मादि काटनेकी छेनी आदि हथियार के २ नाम है ॥
४ ईषिका (+ एषिका, इषिका, इपीका ), तूलिका (+ तुलिः । २ सो), 'कैंची, चित्रमें रंग भरनेकी कलम' के २ नाम हैं ___ ५ तेजसावर्तनी ( + आवर्तनी ), मूषा (+ मूषी, मुषा, मुषी । र सो), 'सोना-चाँदी गलानेकी धरिया (मिट्टी पात्र-विशेष) के नाम है ॥
६ भस्वा, चर्मप्रसेविका (+ धर्मप्रसेवकः पु । २ स्त्री), भाथी' के १ नाम ॥
७ आस्फोटनी ( + लास्फोटनी); वेधनिका ( + वे बनी। एसी), 'मोती मणि आदि छेदनेवाली धर्मी' के २ नाम हैं ।
८ कृपाणी, कर्तरी ( २ स्त्री ), 'सांना चाँदी आदि काटनेवाली कैंची' के नाम हैं।
९ वृक्षादनी (बी), वृक्षभेवी ( = वृक्षभेदिन पु), 'काष्ठ काटनेवाले वसूला, बटाली आदि हथियार के २ नाम हैं ।
१० रङ्कः ( +तङ्कः । पुन ), पाषाण दारणः ( + पाषाणदारकः । पु), 'पाषाण तोड़नेवाले टांकी, छेनी, धन प्रादि हथियार के २ नाम हैं ।
"कच: (पुन), करपत्रम् (न), 'लकड़ी चीरनेवाले आरा, शाह या आरी आदि हथियार के २ नाम हैं ।
१. 'पत्रपरशुरेषिका' इति गठान्तरम् ।। २. 'लास्फोटनी' इति मुकुरः इति मा० दी० ॥ ३. 'पाषाणदारकः' इति पाठान्तरम् ॥
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३६२
अमरकोषः। [द्वितीयकाण्डे
-१ मारा चर्मप्रभेदिका ॥ ३४॥ २ सौ स्थूणायाप्रतिमा ३ शिल्पं कर्म कलादिकम् । ४ प्रतिमानं प्रतिबिम्ब प्रतिमा प्रतियातना प्रतिच्छाया ॥ ३५ ॥
प्रतिकृतिरर्चा पुंसि प्रतिनिधि ५ रुपमोपमानं स्यात् । वाच्यलिङ्गाः समस्तुल्यः सरक्षः सदृशः सहक ।। ३६ ।। साधारणः समानश्च ७ स्युरुत्तरपदे त्वमी! निभसंकाशनीकाशप्रतीकाशोपमादयः ॥३७ ।। ८ कर्मण्या तु विधाभृत्याभृतयो भर्म वेतनम् ।
आरा, धर्मप्रमेदिका (२ वी), 'चमड़ा काटनेवाले हथियार के १नाम हैं।
२ सूर्मी ( + सूमिः ), स्थूणा, अयःप्रतिमा ( ३ सी), 'लोहेकी मूर्ति' के नाम हैं।
३ शिरुपम ( न ), 'कला ( कारीगरी) आदि कौशल के काम' का नाम है।
४ प्रतिमानम् , प्रतिबिम्बम् (न), प्रतिमा, प्रतियातना, प्रतिच्छाया, प्रतिकृतिः, अर्चा (५ सी), प्रतिनिधिः (पु), 'प्रतिमा, फोटो, तस्वीर' के नाम है। ___ ५ उपमा (बी), उपमानम (न), 'उपमा, मिसाल' के ३ नाम है। ('किसी के मतसे 'प्रति मानम् ,' ...' ७ नाम एकार्थक हैं')॥
समा, तुल्या, REEः; सहशः, सहक ( = सश), साधारणा, समान: (७ त्रि), 'सरश, समान, बराबर' के ७ नाम हैं ।
निभा, संकाशः, नीकाशः, प्रतीकाशः, उपमा, आदि (+भूता, रूपा, कपः, देशः, देशीयः । ५ त्रि), ये, ५ शब्द किसी शब्दके उत्तरमे रहनेपर उसके सरश अर्थको कहते हैं। ('जैसे-'राजनिभा, राजसंकाशः,....." अर्थात् 'राजाके समान' । उत्तरपद शब्द समासमें रूढ है. अत एव 'चन्द्रेण निभः' यहांपर यद्यपि 'चन्द्र' शब्द के उत्तरमें निम' शब्द है, तथापि साश अर्थका बोध नहीं करता')॥
कर्मण्या ( + भर्मण्या), विधा, भृत्या, भृतिः ( ४ स्त्री,) भर्म (= भ..
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शूद्रवर्गः १०] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
३६१ भरण्यं भरणं मूल्य निर्वेशः पण इत्यपि ॥ ३८॥ १ सुग हलिप्रिया हाला परिवरुणात्मजा।
गन्धोत्तमाप्रसभेराकादम्बर्यः परिनुता ॥ ३९ ॥
मदिरा कश्यमये चायरेवदंशस्तु भक्षणम् । ३ शुण्डा पानं मदस्थानं ५ मधुवारा मधुकमाः॥४०॥ ५ मध्वासवो माधवको मधु' माध्वीकमद्वयोः। ६ मैरेयमासवः सीधु:मंन् ), वेतनम, भरण्यम्, भरणम, मूल्यम् (५ न), निशा, पणः (१), 'वेतन तनखाह या मजदूरी के नाम हैं।
। सुरा, हलिप्रिया, हाला. परिनुत् , वरुणात्मजा ( + वारुणी), गन्धो. समा, प्रसन्ना इरा, कादम्बरी, परिसुता ( + परिसृता), मदिरा (+मविष्ठा, स्वादुरसा। "सी), कश्यम् , मघम (+कल्यम , हारहरम् , कपिशायनम् । न), 'मदिरा, शराब' के १३ नाम हैं।
२ अवदंशः ( +पदंशः, चक्षणम , चर्वणम् । पु), 'मदिरा पीनेके समय रुचि बढ़ने के लिये नमकीन चना आदि चबाने का । नाम है।
। शुण्डा (स्त्री), पानम् ( + शुण्डापानम् ), मदस्थानम् (न), 'मदिरा पीने के स्थान के ३ नाम हैं ।
५ मधुवारः, मधुक्रमः (२ पु), 'मदिरा पीनेके बारी' के २ नाम हैं।
मध्वासवः, माधवकः (२पु), मधु, माध्वीकम् (+माकम् । २ न ), 'महुएके शराब के ४ नाम है। ('किसी २ के मतसे प्रथम २ नाम उक्तार्थक और अन्तवाले १ नाम 'दाखके शराब के हैं।
६ 'मेरेयम् (न), असवः (पु), सीधुः (+शीधुः। पुन), ऊन (गङ्गा) के रस या शाक मादिसे बने हुए मदिरा' के नाम हैं।
१.'माद्वींकमद्वयोः' इति भा० दी० सम्मतं 'मादीकमघयोः इति च क्षी० स्वा० सम्मत पाठान्तरम् । 'भत्र मथ' स्योकत्वात् 'अद्वयोः' इत्येवं पाठः' इत्ययुक्तम् , सामान्यविशेषरूपरवे. नादोषात' इति क्षी० स्वा० ॥
२. 'शीधुरिक्षुरसैः पक्वैरपक्वैरासवो भवेत् । मैरेयं पातकीपुष्पगुडधानाम्बुसंहितम्॥२॥ इति माधवोक्तभेदाविवक्षयेयमुक्तिः ।।
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अमरकोषः ।
-१ मेदको जगलः समौ ॥ ४१ ॥
४
२ सन्धानं स्यादभिषवः ३ किण्वं पुंसि तु' मग्नहूः । कारोत्तरः सुरामण्ड ५ आपानं पानगोष्ठिका ॥ ४२ ॥ ६ चषकोऽस्त्री पानपात्रं ७ सरकोऽप्यनुतर्षणम् । ८ धूर्त्तोऽक्षदेखी कितवोऽक्षधूत यूतकृत्समाः ॥ ४३ ॥ ९ स्युर्लनकाः प्रतिभुवः १० सभिका द्यूतकारकाः ।
३६४
१ मेदकः, अगल: ( २ पु ), लिये पीसे हुए पदार्थ विशेष' के
२ सन्धानम् (न ), अभिषवः (पु) 'मदिरा बनाने' के २ नाम है ॥ ३ किण्वम् ( न ), नग्नहूः ( + नग्नहुः । पु), 'चावल आदिको उबाल ( औट ) कर तैयार किये हुए मदिराके बीज' के २ नाम हैं ॥
* कारोत्तरः ( + कारोत्तमः ), सुरामण्ड: ( भा० दी० । २ पु ), मदिराके माँड़ ( ऊपरी हिस्सा ) के २ नाम हैं ॥
५ आपानम् ( न ), पानगोष्ठिका ( + पानगोष्ठी । स्त्री ), 'मदिरा पीनेके जमाव ( अड्डा ), के २ नाम हैं ॥
मदिरा के काढ़े या मदिरा बनानेके
हैं በ
[ द्वितीयकाण्डे
नाम
६ वषकः (पुन), पानपात्रम् (न), 'मदिरा पीने के प्याले के २ नाम है ॥
१. 'नग्नहु:' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'बादेवी' इति पाठान्तरम् ॥
७ सरकः (पुन), अनुतर्षणम् (न), 'मदिरा पीने या परोसने ( बाँटने ), के २ नाम हैं । 'मुकु० के मत से 'चषकः, ' ४ नाम 'मदिरा पीनेके प्याले' के ही हैं' ) ॥
८ धूर्तः ( + धार्त्तः ), अक्षदेवी ( = अपदेविनू ); कितवः, अक्षधूर्त्तः, द्यूतकृत् (५ पु ), 'जुवाड़ी या जुवा खेलनेवाले' के ५ नाम हैं ॥
९ लग्नकः, प्रतिभूः ( २ पु ), 'मध्यस्थ, बीचवान, जामिनदार' के २ नाम हैं ॥
१० सभिकः, द्यूतकारकः ( २ पु ), 'नालदार' अर्थात् 'जुवा खेलानेवाले के २ नाम है ॥
२. 'कारोत्तमः' इति पाठान्तरम् ॥
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शूनवर्गः १.] मणिप्रभाब्याख्यासहितः।
१ घतोऽस्त्रियामक्षवती कैतवं पण इत्यपि ॥४॥ २ पणोऽक्षेषु ग्लहो३ऽक्षास्तु देवनाः पाशकाच ते। ४ परिणायस्तु शारीणां समन्तात्रयनेऽस्त्रियाम् ॥४५॥ ५ अष्टापदं शारिफलं ६ प्राणितं समायः । ७ उक्का भूरिप्रयोगत्वादेकस्मिन्येऽत्र यौगिकाः॥१६॥
चूतः (पुन), बसवती (सी), कैतवम् (न), पण: (), 'जुमा? के नाम हैं।
२ पणः, ग्लहा ( २ पु), 'जुएमें दायपर रक्खे हुए रुपया आदि के नाम हैं।
३ भवा, देवनः, पाशक: (+प्राशकः । ३ पु), 'पाशा' के ३ नाम है। ४ परिणायः (पुन), 'शारी (गोटी)को चलने के नाम हैं।
५ भष्टापदम् (पुन), शारिफलम् (न), बिसात' अर्थात् 'गोटियोंको रखने (खेलने के समय बिछाने के लिये कपड़े या काष्ठके बने हुए भाधारविशेष' के २ नाम हैं।
६ प्राणितम् (मा. दी। न),' समादयः (पु), 'बाजी रखकर पशु-पक्षियों ( मुर्गा, तीतर, भेंडा मादि) को लड़ाने के २ नाम है ।
७ अन्धकार 'उक्ता-' इस श्लोकसे सब लिवाले शब्दों के सब लिङ्गों के नहीं कहने के दोषका निवारण करते हैं । इस 'शूदवर्ग' में अवषवार्थक (माद. शिक, मौरमिक मादि) शब्द काव्य, पुराण और कोषोंमें प्रायः पुंशिमें ही उपलब्ध होने के कारण यहाँ भी वे पुखित में ही कहे गये हैं, वे (माजिक, मौरजिक आदि ) शब्द उसके धर्म और योग आदिके वशसे अन्य जाति में वृत्ति होने पर तदनुसार (वृत्ति के अनुसार) खोलिङ्ग और नपुंसक भी होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। और अवयवार्थको छोड़कर समुदाय में शक (कुम्मकार, कुलाल, करण मादि) जो शब्द यहां (शूद्रधनमें) केवल शिमें ही कहे गये हैं, वे (कुम्भकार, कुलाल, करण आदि) शब्द शुद्र आदि शब्दों के समान १. तदुक्तम्
'अप्राणिमिः कृतं बरहोके तद्बतमुच्यते। प्राणिमिः क्रियते यतु स विज्ञेयः समाइमः॥१॥ति॥
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३६६
अमरकोषः।
[द्वितीयकाण्डताखादन्यतो वृत्ताबूह्या लिलान्तरेऽपि ते।
इति शूद्रवर्गः ॥१०॥
अथ काण्डसमाधिः१ 'इत्यमरसिंहकृती नामलिशानुशासने।
द्वितीयकाण्डो भूम्यादिः सान एव समर्थितः ॥१॥ इत्यमरसिंहविरचिते 'नामलिङ्गानुशासना' परपर्यायके
अमरकोषे द्वितीयो भूम्यादिकाण्डः समाप्तः ॥
खीवाचक होनेपर स्त्रीलिङ्गमें और नपुंसक में वृत्ति होनेपर नपुंसकलिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं, ऐसा समझना चाहिये। ('उदाहरण क्रमशः । यौगिक शब्द, तीनो लिङ्गमें जैसे-मार्दशिकः पुरुषः, मादनिका स्त्री, मार्दङ्गिक कुलम् ; मौरजिका पुरुषः, मौरजिकी सा, मौरजिक कुलम् ; ..। कढ शब्द, तीनों लिहों. में जैसे-कुम्भकारः पुरुषः, कुम्भकारी सा, कुम्भकारं कुळम् ; कुलालः पुरुषः, कुलाली स्त्री, कुलालं कुलम् , करणः पुरुषः, करणी स्त्री, करणं कुलम् ......। इसी प्रकार अन्यान्य शब्दों के उदाहरणको समझना चाहिये')॥
इति शूदवर्गः ॥१०॥
अथ काण्डसमाप्ति:श्री अमरसिंहके बनाये हुए नाम (भूः, भूमिः, अचला....... ) और लिज (पुंशिम, वीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग) को बतलानेवाले 'नामलिङ्गानुशासन' अर्थात् 'अमरकोष' नाम इस ग्रन्थ में भूमि आदि ('आदि शब्दसे पुर, बोल, वनौषधि, भादि • वर्गों का संग्रह है') वर्गवाला यह दूसरा काण्ड (भाग) अ (मृत् , शाखा, नगर, आदि और उपान मृत्सा आदि) के सहित समर्थित होकर सम्पूर्ण हुमा ॥ इति पण्डितप्रवरश्री रामस्वार्थमिश्र' तनुजश्री हरगोविन्दमिझ' विरचितायो _ 'मणिप्रभारण्या'मरकोष' व्याख्यायां द्वितीयो भूग्यादिका समाप्तः ॥
१. अयं क्षेपकरकोका क्षी० स्वा० मूलपुस्तके नोपलभ्यते, महे० मा० दी० पुस्तकयोर्मूलमात्रमुपलभ्यत इत्यवधेयम् ।।
२. 'बातेरसीविषयादयोपभाव ( पा० सू० ४।१।६१) इत्यनेनेति शेयम् ।
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अथ तृतीयकाण्डम्
वर्गभेदान् कथयति१ विशेष्यनिधनैः संकीर्णैर्नानार्थैरव्ययैरपि ।
लिङ्गादिसंग्रहैर्वर्गाः सामान्ये 'वर्गसंश्रयाः ॥ १॥
सर्वसाधारण होने से 'सामान्यकाण्ड' नामक इस प्रकरण में विशेष्य (स्त्री, दारा, कलत्र आदि पहले कहे हुए शब्द) के अधीन लिङ्ग और वचनवाले 'सुकृती साधु......' शब्दोंसे विशेष्यनिघ्नवर्ग १, आपस में भिन. जातीय अर्थवाले 'कर्मपरायण,... ...' शब्दों से संकीर्णवर्ग २, अनेक अर्थवाले 'नाक, लोक,.......' शब्दोंसे नानार्थवर्ग ३, 'आङ्,... अव्यय शब्दों से अव्ययवर्ग ४, और प्रत्यय अर्थात् 'टाप, ङप, घन, क,....... के द्वारा लिङ्गबोधक शब्दों से लिङ्गादिसंग्रहवर्ग५, कहता हूँ। विशेष्यनिघ्न आदि ५ घोंके क्रमशः उदाहरण । १ विशेष्यनिघ्नवर्ग जैसे-'सुकृतिनी साध्वी पुण्यवती वा स्त्री,...... । २ संकीर्णवर्ग जैसे-'कर्मपरायण,.....आदि शब्दों से कारीगरी, आदि किसी काम में लगे हुएका बोध होता है । ३ नानार्थवर्ग जैसे-'नाक, लोक,......' यहां पहलेवाले 'नाक, शब्दके 'स्वर्ग और भाकाश' तथा दूसरे 'लोक' शब्द के 'संसार और जन' ये २.३ अर्थ है।
अव्ययवर्ग जैसे-'आइ के थोक मादा और वाक्य, ये अर्थ है। ५ लिङ्गादिसंग्रहवर्ग जैसे-वेफालिजा, अजा,..."शब्दों में 'टाप' आदि प्रत्ययों से स्वटिङ्गका बोध होता है')। इन ५ वर्गों के पूर्वोक्त स्वर्गादि वर्ग ही संश्रय हैं अर्थात ये विशेष्यनिघ्न प्रादि वर्ग स्वतन्त्र नहीं हैं। अथवा-हेतुभूत विशेषणादिसे से ५ वर्ग इस सामान्य काण्ड अवान्तरवर्ग(जैसे-नानार्थवर्ग, कान्तादिवर्ग, अव्ययवर्ग में --- अनेकार्थ एकार्थवर्ग, और लिङ्गादिसंग्रहवर्ग में-सी. लिङ्गादिवर्ग)का संश्रय करते हैं।
१. 'वर्गसंग्रह' इत्येके पेठुः । सामान्यकाण्डे ये पञ्च वर्गाः स 'वर्गसंग्रह' इति योजना' इति क्षी० स्वा०॥
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अमरकोषः ।
[ तृतीयकाण्डेपरिभाषा१ 'स्त्रीदाराधैर्यद्विशेष्यं यादृशैः प्रस्तुतं पदैः । गुणद्रव्यक्रियाशब्दास्तथा स्युस्तस्य भेदकाः॥२॥
१. अथ विशेष्यनिघ्नवर्गः। २ सुकृती पुण्यवान् धन्यो
, मिस प्रकार सीलिज. पुंलिङ्ग आदि सहित (बी, वारा, कलत्र,...... शब्द) पदोंसे स्त्री, दारा, कलन आदि जो विशेष्य हैं, उनके भेदक गुण (सुकृती, साधु, .....") द्रव्य (दण्ड,...") और क्रिया (पढ़ना, पढ़ाना, पकाना, बोलना,..... ) से युक्त शब्द वैसे ही होते हैं अर्थात् प्रथम काण्डमें प्रायः रूप आदिके भेदसे लिङ्गका ज्ञान होता है, किन्तु इस (सामान्य) काण्डमें जो शब्द कहे गये हैं, वे शब्द 'गुण, द्रष्य और क्रिया' से युक्त विशेष्यों के अधीन है। ('तीनोंके क्रमशः उदाहरण | १ गुणयुक्त जैसे-सुकृतिनी, सान्वी पुण्यवती वा खी; सुकृतिना, साधवा, पुण्यवन्तो वा दाराः; सुकृति, साधु, पुण्यवत् वा कलत्रम् ;........." । २ द्रव्ययुक्त जैसे-दमिनी स्त्री, दण्डिमो बाराः, दणि कलनम् ; .......। ३ कियायुक्त जैसे-'अध्यापिका सी, अध्यापका दारा:, अध्यापकं कलत्रम्..... । इन उदाहरणों में 'स्त्री, दारा और कलन' शब्दोंके क्रमशः 'सीलिज, पुंलिज और नपुंसक लिग' होने से गुणयुक्त 'सुकृती, साधु,.....' शब्द, द्रव्ययुक्त 'दण्डि,..' शब्द और क्रियायुक्त 'अध्यापिका,..." शब्द भी क्रमशः 'स्त्रीलिज, पुंखिङ्ग और मपुंसकलिमें ही प्रयुक्त होते हैं। इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये')॥
१. अथ विशेष्यनिघ्नवर्गः। । सुकृती ( = सुकृतिन् ), पुण्यवान् (पुण्यवत् ), धम्या (३त्रि), भाग्यवान्' के नाम हैं। १. दाराबम्इति पाठो युक्तः। 'सीदाराचरित्येके, सीपुन्नपुंसकैरिस्वर्थ' इति क्षी० सा० ।
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विशेषनिम्नवर्गः ) मणिप्रभाब्याख्यासहितः।
-१महेच्छन्तु महाशयः। २ हदयालु मुहदयो ३ महोत्साहो महोचमः ॥ ३ ॥ ५ प्रवीणे निपुणाभिविनिष्णातशिक्षिताः ।
वैज्ञानिकः कृतमुखः कृती कुशल इत्यपि ॥ ४॥ ५ पूजनः प्रतीक्ष्यः ६ सांशयिकः संशयापनमानसः। ७ 'दक्षिणीयो दक्षिणास्तित्र दक्षिण्य इत्यपि ॥५॥ ८ स्युर्वदान्यस्थूललक्ष्यदानशौण्डा बहुपदे । ९ जैवातृकः स्यादायुष्मान् -
महेन्छः, महाशयः (२ त्रि), बड़े एवं उन्नत अभिप्रायवाले के माम हैं।
२ हृदयालुः ( + हयिकः), सुहृदयः ( सुहृदयः । ५ त्रि), 'अच्छे स्वभाषवाले' के नाम हैं।
३ महोत्साहः, महोचमः (+ उद्यमवान् - उद्यमयत् । २ त्रि), 'उद्यमी' के नाम है।
४ प्रवीणा, निपुणः, अभिज्ञः, विज्ञः, निष्णातः, शिक्षितः, वैज्ञानिकः (+ विज्ञानिकः), कृतमुखः, कृती ( = कृतिन् ), कुशलः ( + कृतकर्मा = कृत. कर्मन् , कृतार्थः, कृतकृत्यः, कृतहस्तः। 10 त्रि), 'शिक्षित, ज्ञानी, लोक चतुर के १० नाम हैं।
५ पूज्यः, प्रतीक्ष्यः (२ त्रि), 'पूजा करने योग्य' के २ नाम हैं। Paयिक, संशयापन मानसः (२ त्रि). 'सन्देहयुक्त' के नाम हैं। ७ दक्षिणीयः ( + दक्षिणेयः), दक्षिणाहः, दक्षिण्यः ( + दाक्षिण्यः । त्रि ), 'दक्षिणा देने योग्य ब्राह्मणादि' के ३ नाम हैं।
८ वदान्यः ( + वदन्यः), स्थूलल चयः ( + स्थूल लक्षः ), दानशौण्डा, बहुप्रदः ( ५ त्रि) 'बहुत दान करने वाले' के नाम हैं ।
९ जैवात्रिका, आयुष्मान् ( = भायुमत् । २ त्रि), 'बहुत उम्रवाले' के २ नाम हैं।
१. 'सहृदयः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'दक्षिणेयो दक्षिण बस्तत्र दाक्षिण्य इत्यपि' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'स्युर्वदान्यस्थूलकक्षादानशौण्डाः' इति पाठान्तरम् ॥
28 37 Pernational
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अमरकोषः ।
[ तृतीयकाण्डे-१ अन्तर्वाणिस्तु शास्त्रवित् ॥ ६॥ २ परीक्षकः कारणिको ३ वरदस्तु * समर्धकः । ४ वर्षमाणो विकुर्वाणः प्रमना हृष्टमानसः ॥७॥ ५ दुर्मना विमना अन्तर्मनाः ६ स्यादुक उम्मनाः । ७ दक्षिणे सरनोदारी ८ सुकलो दातृभोक्तरि ॥ ८॥ ९ तत्परे'प्रसितासक्ता १० विष्टार्थोद्युक्त उत्सुकः।
१ अन्तर्वाणिः शास्त्रवित् ( = शास्त्रविद् । २ त्रि), 'शास्त्र पढ़े हुए के २ नाम हैं ॥
परीक्षकः, कारणिका ( आक्षस्ट लेकः। २ त्रि), 'परीक्षा करने. वाले या मठादिमें ब्राह्मग आदिकी परीक्षाकर दान आदि दे वाले दानाध्यक्ष' के १ नाम हैं
३ वरदः, समर्धकः (+ समधु कः । १ त्रि), वर देने वाले' के नाम हैं।
४ हर्षमाणः, विकुणः , प्रारनाः ( - प्रमनस ), हृष्टमानसः (४ त्रि), 'प्रसन्न चित्तवाले' के ४ नाम हैं ।
. ५ दुर्मनाः (= दुर्मनस), विनाः (= विमनस् ), अन्तर्मनाः ( = अन्तमनस् । ३ त्रि), 'उदास चित्तवाले' के ३ नाम हैं ।
६ उरकः, उन्मा ( = उन्मनल । + सोस्कण्ठा, उत्कण्ठितः, उत्सुकः । २ त्रि), 'उत्सुक' के नाम हैं।
७ दक्षिणः, सरला, उदास (३ त्रि), 'सरल स्वभाववाले के । भाम हैं।
८ सुकलः (त्रि), 'दिल खोलकर दने और खानेवाले' का । नाम हैं।
९ तत्परः, प्रसितः आसक्तः (३ त्रि), 'तैयार, काममें लगे हुए ३ नाम हैं ॥
.. इष्टार्थोद्युफः, उत्सुकः (२ त्रि), 'अपने इष्टसिद्धि के लिये काममें लगे हुए' के २ नाम हैं। ('अन्याचार्यों के मतले 'तस्पर:,........ ५ नाम एकार्थक हैं। पाठभेदसे 'तापर:.......' ३ और 'आविष्टः' ये ४ नाम पूर्वार्थक और 'उद्युक्तः, उत्सुकः' ये २ नाम '
उक' के हैं)॥ १. समधुकः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'प्रसिताराताविष्टा उद्युक्तं इति पाठान्तरम् ॥
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विशेष्यनिघ्नवर्गः १] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ प्रतीते प्रथितख्यातवित्तविज्ञातविश्रुताः ॥ ९ ॥ २ गुणैः प्रतीते तु कृतलक्षणाइतलक्षणौ । ३ इभ्य आढयो धनी ४ स्वामी स्वीश्वरः पतिरोशिता ॥ १० ॥
अधिभूर्नायको नेता प्रभुः परिवृढोऽधिपः । ५ अधिकर्द्धिः समृद्धः स्याद् ६ कुटुम्बव्यापृतस्तु यः ।। ११ ।। स्यादभ्यागरिकस्तस्मिन्नुपाधिश्च पुमानयम् । ७ वराङ्गरूपोपेतो यः सिंहसंहननो हि सः ॥ १२ ॥ ८ 'निर्वार्यः कार्यकर्त्ता यः सम्पन्नः सवसम्पदा ।
1 gáta:, gfox:, quia: ( + faenia:, «fg: ), faa:, faria:, विश्रुत: ( ६ त्रि), 'मशहूर, प्रसिद्ध' के ६ नाम हैं ॥
२ कृतलक्षणः, आहतलक्षणः (mifgasan: 12 fa), 'faul, शिल्प आदि किसी गुण से प्रसिद्ध' के २ नाम हैं ॥
इभ्यः, भाढयः, धनी ( = धनिन् + धनिकः । ३ त्रि), 'धनी' के ३ नाम हैं ।
३७१
8 carat ( = exfag), que, aft, tan (klag), wings, नायकः, नेता ( = नेतृ ), प्रभुः (विभुः ), परिवृढः, अक्षिपा ( १० त्रि ), 'स्वामी, मालिक' के १० नाम हैं ॥
५ अधिकर्द्विः, समृद्ध: ( १ श्रि ), 'बहुत समृद्धिवाल' के २ नाम हैं ॥ ६ कुटुम्बव्यापृतः, अभ्यागारिकः ( २ त्रि ), उपाधिः (नि० पु ), 'परिचारके पालन-पोषण में लगे हुए' के ३ नाम हैं ॥
७ सिंहसंहननः (त्रि ), सुडौल तथा सुन्दर शरीरखाने' का १ नाम है ॥
८ निर्वार्यः (दिर्घायः । त्रि ) सत्वसंपत्ति ( सुख-दुःखमें बराबर साह ) से काम में लगनेवाले' का १ नाम है ॥
१. 'निर्वार्यः' इति पाठान्तरम् ॥
२. तदुक्तम्- 'व्यसनेऽभ्युदये वापि हानिकारि सदा मनः ।
वचु सत्वमिति प्रोक्तं नयविद्भिः किल ॥ १ ॥ इति ॥
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१२
अमरकोषः। [स्तीपका१ भवाचि मूकोरऽथ' मनोजवसः पित्सभिभः ॥ १३ ॥ ३ सत्कृत्यालङ्कृतां कन्या यो ददाति स कूकुदः । ४ लक्ष्मीवाल्लक्ष्मणः श्रीलः श्रीमान् ५ स्निग्धस्तु वत्सलः ॥१४॥ ६ स्याहयालुः कारुणिकः कृपालुः सूरतः समाः ।
. भवाक्: (=भवाच ), मूकः ( २ त्रि), 'गूंगे' के २ नाम ।
२ मनोजवसः (+मनोजवा, मनोजवाः = मोजवस), पितृसनिमः (२ त्रि), 'झान, पद या अवस्थादिके कारण पिताके समान पूज्य व्यक्ति के २ नाम हैं। . ३ कूकुदः (+कुकुदः । त्रि), 'वभ्याको भूषण वस्त्रादिसे मलड़हुतकर विद्वान् घरको बुलाकर कन्यादान करनेवाले' का नाम है। ('इस तरह 'ब्राह्म-विवाह' में होता है। ब्राह्मा, देव २, बर्ष ३, प्रजापत्य १, बासुर ५, गान्धर्व ६, राक्षस ७ और वैशाच ८, ये माठ प्रकार के विवाह होते हैं')॥
चमीवान ( = लघमीवर), चमणा, श्रील: (+लील), श्रीमान (= श्रीमत् । ४ त्रि), 'श्रीमान्' के नाम हैं।
५ स्निग्धः, वासरू: ( २ त्रि.), स्नेह करनेवाले' के २ नाम है।
६ दयालुः, कारुणिकः, कृपालुः, सूरत: (+सुरतः। ५ त्रि), 'दया करनेवाले' के नाम हैं।
१. 'मनोनवः स' इति पाठान्तरम् ॥ २. तदुक्तं मनुना-'ब्राझो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासरः।
गान्धों राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः॥१॥ तत्र 'ब्राझविवाह'लक्षणम्
माछाम चाचयिश्या च श्रुतिशीच्यते स्वयम् ।
माहूय दानं कन्याया ब्राह्य धर्म प्रचक्षते' ॥इति च मनुः ॥२१,२७॥ अषिकं द्रमिछुकै मनुस्मृती (२२१-१४) कारमृतौ (-१), बापवाक्यामृती (११५८-६१), चतुर्वचिन्तामणे (मा)क्षनसले (पृ. १४५-६४८) चटण्यम् ॥
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विशेष्यनिम्नवर्गः1 ] मणिप्रमाव्याख्यासहितः ।
३७३ १ स्वतन्त्रोपावृतः स्वैरी स्वच्छन्दो निरवग्रहः ॥ १५॥ २ परतन्त्रः पराधीनः परवान्नाथवानपि । ३ अधोनो निघ्न आयत्तोऽस्वच्छन्दो गृह्यकोऽप्यसौ ॥ १६॥ . खलपूः स्थानहुकरो ५ दीर्घसूत्रविरक्रियः । .६ जालमोऽसमीक्ष्यकारी स्यात् ७ कुण्ठो मन्दः क्रियासु यः ॥ १७॥
८ कर्मक्षमोऽलकर्मीणः ९ क्रियावान् कर्मसूद्यतः। १० स कामः कर्मशीलो यः
स्वतन्त्रः, अपांवृतः, स्वैरी ( = स्वैरिन् । स्वैरः) स्वच्छन्दा, निरष. प्रहः (+ नियन्त्रण, निराशा, स्वाधीनः, यथाकमी = यथाकामिन् । ५ त्रि), 'स्वतन्त्र' के ५ नाम हैं।
. परतन्त्रः, पराधीनः, परवान् ( = परवत्), नाथवान् (= नाथवत् । ४ त्रि), 'पराधीन' के नाम हैं ।
अधीनः, निधनः, भायत्तः, अस्वच्छन्दा, गृहका(५ त्रि), 'वश' अधीन' के ५ नाम हैं । ('एक भाचार्य के मतसे 'परतन्त्रा....." ९ नाम 'पराधीन'
४ खलपूः बहुकः (त्रि), 'स्खलिहान या जमीनको साफ करने. वाले' के २ नाम हैं। __ ५ दीर्घसूत्रः ( + दीर्घसूत्री = दीर्घसूनिन् ), विरक्रियः (त्रि), 'दीर्ष. सूत्री' अर्थात् 'कामे में बहुत देर लगानेवाले, के २ नाम हैं।
जामः, असमीचय कारी ( = असमीचयकारिन् । १ पु), 'विना वि. चारे काम करनेवाले' के नाम हैं ॥
७ कुण्ठः (वि), 'थोड़ा काम करनेवाले' अर्थात् 'काम करने में मद' का नाम है।
८ कर्मचमा, महकर्मीगः (२ त्रि), 'काम करने में समर्थ के नाम हैं।
९ क्रियावान् (क्रियावत् । त्रि), 'काम में लगे या तैयार रहनेवाले' का । नाम है ॥
० कामः, कर्मशीलः, (२ त्रि), महे• के मतसे 'सर्वदा काममें लगे रहनेवाले के और मा० दो. के मत से 'विना फनको इच्छा किये काम करनेवाले के नाम हैं ।
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अमरकोषः
- १ कर्मशूरस्तु कर्मठः ॥ १८ ॥
२ ' भरण्यभुक्कर्मकर: ३ कर्मकारस्तु तत्क्रियः । ४ अपस्नातो मृतस्नात ५ आमिषाशी तु शौष्कलः ।। १९ ।। ६ बुभुक्षितः स्यात्क्षुधितो जिघत्सुरशनायितः । ७ परान्नः परपिण्डाको ८ भक्षको घस्मरोऽद्मरः ॥ २० ॥ आधूमः स्यादौरिको विजिगीषाविवर्जिते । १० उभौ स्वारमम्भरिः कुक्षिम्भरिः स्वोदरपूरके ॥ २१ ॥
३७४
[ तृतीयकाण्डे
१ कर्मशूरः कटः ( २ त्रि ), 'आरम्भ किये हुए कामको यत्नपूर्वक पूरा करनेवाले' के २ नाम हैं ॥
२ भरण्यभुक ( = भरण्य भुज् । + कर्मण्यभुक् = कर्मण्यभुज् ), कर्मक (२ त्र ), 'मजदूर या मूल्य लेकर काम करनेवाले नौकर आदि' के नाम हैं ॥
३ कर्मकार : ( नि ), 'बिना वेतन आदि लिये काम करनेवाले' का १ नाम है । ( जैसे - स्वयंसेवक, श्रमदानी,
) ॥
४ अपस्नातः, मृतस्नासः (२ त्रि) मरे हुए परिवार आदिके उ. द्देश्य से स्नान किये हुए' के २ नाम हैं ॥
4 Wifaqısit ( = Wifaqıfag), sikas: ( + a1650;, g(FZ: 1 २ त्र ), 'मांस खानेवाले' के २ नाम हैं ।
६ बुभुचितः पुधितः, जिधरसुः, अशनाथितः (४ त्रि), 'भूखे हुए' के ४ नाम हैं ॥
७ पान:, परपिण्डादः (२ त्रि ), 'दूसरेके अन्नको खाकर जीनेवाले' हे २ नाम है ॥
८ भक्षकः, वस्मरः, अझरः ( ३ त्रि ), 'बहुत खानेवाले' के ३ नाम है ॥ ९ आसून, औदरिकः ( २ त्र ), 'अत्यन्त भूखे हुए' के २ नाम हैं ॥ 10 anamfi:, zfernft: ( +aquaft: 1 २ त्र ), 'पेटू' अर्थात् 'अपने पेट भरने से मतलब रखनेवाले' के २ नाम हैं ।
१. 'कर्मण्यभुक्कर्मकरः' इति पाठान्तरम् ॥
२. अयं प्राकू ( २।१० – १५ ) कोऽपि पर्यायान्तरक बनायेह पुनरप्युक्तः ॥
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३७५
विशेष्यनिध्नवर्गः ] मणिप्रभाव्याल्यासहितः । १ सर्वानीनस्तु सहभोजी २ 'गृध्नुस्तु गनः ।
लुब्धोऽभिलाषुकस्तृतक ३ समौ लोलुपलालुभौ ॥ २२ ॥ . सोन्मादस्तून्मदिष्णुः स्यादिविनीत सद्धतः । ६ मते शौण्डोत्करक्षीयाः ७ कामुके कामतानुकः॥ २३ ।।
कम्रः कामयिताऽभीकः 'कमनः कामोऽधिकः। ८ को विदग्धे ९ व्यसनिपभद्रावुपप्लुते (१)
1 सर्वान्नान , न्निभोजी (= सर्वानी जिन् । त्रि), 'सब जाति के भन्नको खानेवाले औघड़ परमहंस आदि' के २ काम हैं । (ऐमा पारले होता था, वितु वर्तमान में तो स्पस्पर्शका विवाद अत्यन्त शिथिल होने से ऐसे हो व्यक्तियों की संख्या अधिक हो गयी है )
२ गृधनुः (+ गृधनः), गर्धनः, लुब्धः, अभिलाषुकः, हष्णक (- तृष्णज । + तृष्णकः । ५ त्रि), भा० दी. के मत से 'लोभी' के ५ नाम हैं । ('म हे. आदिके मत से गृध्नुः,......' २ नाम 'आकाक्षा करनेवाले' के और 'मुग्धः,....... ३ नाम 'अभिलाष करनेवाले' के हैं।)॥
३ लोलुपः, लोलुभः (२ त्रि), 'अत्यन्त लोभी' ३ नाम हैं ॥
४ सोन्माद ( + उन्मदः, सून्मदः), उन्मदिणुः (२ त्रि), 'पागल' के २ नाम हैं।
५ अविनीतः, समुद्धतः (+निमर्यादः । २ त्रि), 'उद्धत' के २ नाम हैं। ६ मत्तः, शौण्डः, उरकटः (+ उद्रितः), क्षीबः ( + क्षीबा = क्षीवन् । त्रि), 'मतवाले' के ४ नाम हैं।
७ कामुकः, कमिता ( = कमितृ), अनुकः, व म्रः, कामथिता (= कामयित), अभीकः, कमनः, कामनः, अभिकः (९ त्रि), 'कामी' के ९ नाम हैं।
८ [ छेकः, विदग्धः (२ त्रि), 'विदग्ध, चतुर' के २ नाम हैं ] ॥
९ [ व्यसनी (= व्यसनिन् ), पचभद्रः, उपप्लुप्तः (+ विप्लुतः।। त्रि), 'ध्यसनी' के ३ नाम हैं॥
१. 'गृध्नस्तु' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'उन्मदस्तून्मदिष्णुः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'कामनः कमनोऽभिकः' इति तु युक्तः पाठः' इति क्षी० स्वा० ॥
४. 'छेको........"विटः' इत्ययं क्षेपकांशः क्षी. स्वा० व्याख्यायां मूकमुपलभ्यते, इत्यतोऽस्य प्रकृतोपयोगितयात्र क्षेपकरूपेण मया निहितः ॥
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२७६
अमरकोषः।
[वृतीषका १ वेश्यापति बस्यात् २षितः पल्लविको घिटः' (२) ३ विधेयो विनयप्राही बचनेस्थित माशयः ॥ २४॥ ५ वश्यः प्रणेयो ५ निभृतविनीतप्रश्रिताः समाः। ६.धृष्टे 'धृष्णग्वियातच ७ प्रगल्भः प्रतिभान्विते ॥ २५ ॥ .८ स्यादधृष्टे तु शालीनो ९ विलक्षो विस्मयान्विते । १० अधीरे कातरखास्ते भीमभीरुकभीलुकाः ॥ २६ ॥
[वेश्यापतिः (+गणिकापतिः), भुना (पु), 'वेश्याके पति' भर्थात रण्डीबाज' के २ नाम हैं ]॥
.[पिङ्गः, पलविकः (+पक्षक), विटः । न ।1), विर' के नाम हैं ]
३ विधेयः, विनयग्राही ( = विनयवाहिन्), वदनेस्थितः, आश्र(त्रि), 'याशकारी' के नाम हैं। (किसी र आचार्य मतसे प्रथम दो नाम मिले विनय सिखलाया जाय उसके तथा अन्तवाले दो नाम भाज्ञाकारी हैं)।
४ वश्यः, प्रणेयः (१ त्रि), 'वशमें रहनेवाले' के २ नाम हैं। (किसी के मतसे 'विधेयः,......." ६ नाम एकार्थक हैं')॥ ५ निभृतः, विनीतः, प्रश्रितः (३ त्रि), 'विनीत' के नाम हैं। ६ पृष्टः, पृष्णक ( = धृष्णज् । + Yष्णुः ) वियातः (३ त्रि), 'डीठ' नाम हैं।
७ प्रगमः, प्रतिभान्वितः (२ त्रि), 'प्रतिभाशाली' ( नवीन. . बुवाले)के नाम हैं।
अष्टा, शालीनः (२ त्रि), 'सलब' अर्थात् 'जो होठ नहीं हो उस' के नाम हैं।
९ विकता, विस्मयान्वितः (२ त्रि), 'माश्चर्य से युक्त' के २ नाम हैं। १. अधीरः, कातरः (२ त्रि) 'भूख, प्यास या भय आदिसे ज्याकुल २ नाम है।
प्रस्तः ( वस्नुः ), भील, भीरुका, भीलुकः (+दरितः। त्रि), 'हरे हुए या डरनेशले' के ४ नाम ।
१. 'कृष्णुर्वियातश्च' इति पाठान्तरम् ॥ २. तदुत्तम्-'प्रशा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिमा मता' ॥ इति ।।
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विशेष्यनिग्नवर्ग 1] मणिप्रभाव्याख्यासहितः। १ आशंसुराशंसितरि गृहयालुर्ग्रहीतर। ३ श्रद्धालुः श्रद्धया युक्त पतयालुस्तु पातुके ॥२७॥ ५ लबाशीलेऽपत्रविष्णु ६ र्धन्दाहरभिवादके । ७ शरारुर्घातुको हिंसः ८ स्थावर्विष्णुस्तु वर्धनः ॥ २८॥ ९ उत्पतिष्णुस्तूत्पतिता१०ऽलङ्करिष्णुस्तु मण्डनः । ११ भूष्णुर्विष्णुर्भविता १२ पर्तिष्णुवर्तनः समौ ॥ २६ ॥ १३ निराकरिष्णुः क्षिप्नुः स्यात्
आशंसुः, आशंसिता (= आशंसित । २ त्रि), 'अपने मनोरथको पूरा करनेकी इच्छावाले' के नाम हैं ।
२ गृहयालुः, ग्रहीता ( = ग्रहीत । २ त्रि), 'लेने (प्रहण करने वाले
३ अदालु, (नि), 'भया करनेवाले का । नाम है। " पतयालु, पातुकः (१ त्रि), गिरनेवाले' के नाम हैं। ५हज्जाशीला, अपविष्णुः (१ त्रि), सजाकरनेवाले के
बन्दाहा, अभिवादकः ( त्रि), 'प्रणाम (बन्दगी मादि) करने वाले' के नाम है।
• शरा, धातुका, त्रिः (३ त्रि), हिंसा करनेवाले' के नाम है। ८ वर्षिष्णुः, वर्धनः (२ त्रि), 'बढ़नेवाले' के २ माम हैं।
९ उत्पतिष्णुः, उस्पतिता ( = उस्पतित् ।। त्रि), 'उछलनेवाले २ नाम ११:अलकरिष्णुः, मण्डनः (२त्रि), 'अलंकृत करनेवलो' के नाम हैं।
भूष्णुः, भविष्णुः, मविता ( = भवित । । त्रि) 'होनहार। नाम॥
१९ वर्तिष्णः, वर्तमः (२), 'वर्तने (पवहारमै काने) वाले १ नाम हैं।
मिराकरिया, विमुः ( +विष्णुः । २.लि), 'निकालने या पहि कार करनेवाले के नाम हैं।
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अमरकोषः ।
-१ सान्द्रस्निग्धस्तु मेदुरः । २ ज्ञाता तु विदुरो विन्दुःविकासी तु विक्रः ॥ ३० ॥ ४ वितृत्व सृिमरः प्रसाठी व विसार्शिक |
३७८
५ सहिष्णुः सहन क्षमता तितिक्षुः क्षमिता क्षी ॥ ३१ ॥ ६ क्रोधनोऽसर्वणः कोपी ७ चच्स्त्वत्यन्तकोपनः ।
८ जागरुको जागरिता ९ धूनिक चलति ॥ २२ ॥ १० स्वप्रक्शालुद्वालु ११वाणी समी।
[ तृतीय काण्डे --
१ सान्द्रस्निग्धः ( ० ० ), मेदुः (१), 'घन, गझिन वा चिकने' के २ नाम हैं ॥
२ ज्ञाता (तृ), विदुरः किंदु: ( १ ), 'जाननेवाले' के ३. नाम हैं ॥
• farrel ( = famifaa | + विकाशी = विकाशिन् ), विकस्वरः ( + विकश्वरः । २ त्रि), 'खिलने (फूलने) बाले फूल आदि के २ नाम है | ४ विसृत्वरः, विसृमरा, प्रसारी (= प्रसारित) विसारी ( विसारिन् ।
४. त्रि), 'फैलनेवाली लता आदि' के ४ नाम है ॥
• afgɩg:, ags:, grar ( = vra ), falkgi, qfkar (= alka), समी ( = क्षमिन् । ६ त्र ), 'क्षमा करनेवाले'
६ नाम हैं । ६ क्रोधनः ( + कांधी = कोधिन् ), अमर्षणः, कोपी ( + शेषणः, कोपनः । ३ त्रि ) कोध करनेवाले' के ३ नाम हैं ॥
=
७ घण्डः, अत्यन्तकोपनः (२ त्रि), 'बहुत क्रोध करनेवाले' के २ नाम हैं ॥
८ जागरूकः, जागरिता ( = जागरितृ । २ त्रि), 'जागनेवाले' के २ नाम है ॥
कोपिन्
९ घूर्णितः, प्रचलायितः (२ त्र ), 'घूर्णित' अर्थात् निद्रा या नशा बादिसे व्याकुल होकर झूमने वाले' के २ नाम हैं ॥
१० स्वप्नक् (= स्वप्नज् ), शयालुः (२ त्रि), 'सोनेवाले' के २ नाम हैं । ११ निद्राणः ( + निद्रितः ), शयितः ( + सुप्तः । २ त्रि) 'सोये हुए ' २ नाम हैं ॥
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विशेष्यनिम्नवर्ग:.] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
३७६ १ पराङमुखः पराचीन: २ स्यादवाङप्यधोमुखः ॥ ३३॥ ३ देवानञ्चति देवध्रय ४विश्वध्रथड विश्वगञ्चति । ५ यः सहाश्चति सभ्रयास ६ स तिर्य यस्तिरोऽश्चति ।। ३४।। ७ वदो वदावदो पक्का ८ वागीशो वाकाति समी। ९ चासोयुक्तिपटुग्मिी १० वावदूकोतिकरि ३४ ।। ११ स्थाजपाकरतु वाचालो वाचाटो बहुमहावाक। १२ दुर्मुखे मुखराबद्धमुखौ
१ पराङ्मुखः (+ विमुखः ), पराधीनः (१ त्रि), 'विमुख'के २ नाम हैं।
२ भाबाङ ( = अवाच ), अधोमुखः ( + अवाचीनः। २ त्रि), 'नीचे मुख करनेवाले' के २ नाम हैं। ____३ देवद्रयङ् ( = देवद्रयच् नि ), 'देवताओं की पूजा करनेवाले का
४ विष्वयक ( = विश्वयच । + विश्वद्रयङ = विश्वद्रयच । त्रि), 'सब तरफ जाने या पूजा करनेवाले का नाम है ।
५ सध्रय ( = सध्यच् त्रि), 'साथ २ चलने रहने या पूजा करने. वाले का नाम है। तिछ( = तिर्यच ), '
तिछी (टेदा) चलनेयाले' का नाम है। ७ वदः, वदावदः, वक्ता ( = बक्तृ । ३ नि), 'बहुत बोलनेवाले' के । माम हैं।
८ वागीशा, वाक्पतिः (त्रि), 'मुन्दर बोलनेवाले' के नाम हैं। ९ वाचोयुक्तिपटुः (+वाचोयुक्ति, पटुः), वाग्मी ( = वाग्मिन् । त्रि) 'युक्तियुक्त बोलनेवाले या नैयायिक मादि' के २ नाम हैं।
१. वावदूकः, अतिवक्ता ( = अतिवक्त । २ त्रि), 'चतुरतासे अधिक बोलनेवाले' के २ नाम है। (भा. दी. के मत से 'वाचोयुक्तिण्टुः,......) ४ माम एकार्थक हैं।
" जरुपाकः, वाचाय:, वाचारः, बहुगवाक् (बहुगर्यवाच । ४ त्रि), 'निष्प्रयोजन अधिक बोलनेवाले के नाम है।
१२ दुर्मुखः, मुखरः, अबद्धमुखः (पत्रि) 'मप्रिय बोलनेवाले' के ३ माम हैं।
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अमरकोषः। [ततीवका
-१ 'शतः प्रियंवदे ॥३६॥ २ लोहलः स्यादस्फुटवाग ३ महावादी तु कदः। ४ समी कुवादकुचरी ५ स्थादसौम्यस्वरोऽस्वरा ॥ ३७॥ ६ रवणः शब्दनो ७ नान्दीवादी नान्दीकरः समौ । ८ जडोड:
शल: (+शका, श), पियंवदः (. त्रि), 'प्रिय बोलनेवाले' के २ नाम हैं। ___ २ कोहलः, अस्फुटवाक ( = अस्फुटवाच । २ त्रि), 'अस्पष्ट बोलनेवाले' के २ नाम हैं।
३ गवादी ( = गह्मवादिन ), कहा ( + दुर्वा = दुर्वाच् । २ त्रि) 'बुरा बोलनेवाले' के नाम है।
५ कुवादा, (वि), 'दोषयुक्त या दोषारोपण करते हुए बोलनेवाले' के २ नाम हैं। __ ५ असौम्य स्वा, भस्वरः (त्रि), 'कौवे मादिकी तरह खे स्वरसे बोलनेवाले' के २ नाम है।
शब्दना, रवणः (त्रि), 'विशेष शन्द करनेवाले' के ' नाम है। ७ नाम्दीवादी (= नान्दीवादिन् ), नान्दोकरः ( . त्रि), नान्दी' (स्तुति-विशेष)को करनेवाले या नाटकके भारम्भमें मालपाठ करनेवाले पात्र' नाम है।
'डा, अज्ञः ( . त्रि), 'जड़, मूर्ख' के नाम हैं ॥
१. 'शक्तः' इति क्षी० वा. 'शक्नः' इति सपरस्प संमतः पाठः ॥ २. नान्दीलक्षणं भरत माह । तद्यथा
'भाशीर्व वनसंयुक्ता स्तुतियस्मात्मवर्तते ।
'देवदि मनगीनां तस्मान्नान्दीति कोर्तिता' ॥१॥ जरलक्षणं यथा
'अष्टं वाऽनिष्टं वा मुखदुःखे वा न चेर यो मोहात । विन्दति परवशगः स भवेदिह बरसंशः पुरषः॥१॥ इति ॥
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३८१
विशेष्यनिष्णव) मणिप्रमावास्यासहितः ।
-१* परमकस्तुपर्नु श्रोतुमशिक्षिते ॥ ३८॥ २ तूणीशीलस्तु तूष्णीको ३ मग्नोरमासा दिगम्बरे। ५ निष्कासितोऽषकृष्टः स्यात् ५ अपभ्यस्तस्तु धिक्कतः॥ ३९ ॥ ६ 'मातगोऽभिभूतः स्याद् ७दापितः साधिता समो। ८ प्रस्थादियो निरस्तः स्यात्प्रत्याख्याता निराकृतः ॥४०॥ ९ निकृतः स्याद्विप्रकृतो १० विप्रताब्धस्तु पश्चितः।
एसमूक: (+ अमेहमूकः । त्रि), 'बोलने और सुनने में अशिक्षित, बहरे, गूंगे' के २ नाम है।
२ सूर्णीशीलः, तूनीकः (२), 'चुप रहनेवाले' के २ नाम है।
३ नग्नः, अबासा ( = अवासस्। + विवासाः = विवासस्), दिगम्बर (त्रि), 'नंगेके नाम हैं।
४ निष्कासितः ( + निष्कामितः), अकृष्टः (२ त्रि), 'निकाले हुए' के १ नाम है।
५ अपध्वस्तः, धिक्कृतः (२), 'विषकारे हुए' के २ नाम है।
६ भात्तगः ( + आत्तगन्धः), अमिभूतः (२ त्रि), 'दूटे हुए अमि. मानवाले' के नाम हैं। ('किसी के मससे 'अपवस्तः ,......." ४ नाम एकार्थक हैं)।
दापितः ( + दायितः), साधित: (२ त्रि), 'जिससे धन बादि दिलाया गया हो उसके या दिलाये हुए धन मादि' के नाम हैं।
८ प्रत्याविष्टः, निरस्ता, प्रत्याश्या, निराकृतः (४ त्रि), 'अनादरके साथ निकाले या हटाये हुए' के नाम हैं।
९ निकृत: (+ नि:कृतः ), विप्रकृतः (२ त्रि), 'समादर पाये हुए' के २ माम हैं।
१. विप्रलपा, वद्धितः (२), 'गे गये के २ नाम है ।।
१. 'मोssनेटकमूकस्तु' इति पाअन्तरम् । १. 'मालगन्योऽमिभूतः स्मरामिति पाठान्तरम् । ३. 'निः इति पाठान्तरम।
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३८२
अमरकोषः ।
[ तृतीय काण्डे -
१ मनोद्दतः प्रतिहतः प्रतिबद्धो हरक्ष सः ॥ ४१ ॥ २ अविक्षिप्तः प्रतिक्षिप्तो ३बद्धे कीलित संयतौ ।
आपन आपत्प्राप्तः स्यात् ५ कान्दिशीको भयद्भुतः ॥ ४२ ॥ ६ आक्षारिता क्षारितो८भिशस्ते ७ संक कोऽस्थिरे । ८ व्यसनात परतौ द्वौ ९ विहस्तग्याकुलौ समौ ॥ ४३ ॥ १० विक्लवो विह्नतः १९ स्यात्तु विवशोऽरिष्टदुष्टधीः । १२ कश्यः कशार्हे
१ मनोहता, प्रतिष्ठतः, प्रतिवद्धः हतः (त्रि ), 'काम पूरा न होनेले टूटे हुए मनवाले ( हतोत्साह, मनटूट ) के ४ नाम हैं ।॥
२ अविक्षिप्तः, प्रतिक्षिप्तर ( २ त्रि ), करता हो उसीके सामने तिरस्कृत' के २ ३ बद्धः, कीलितः, संयतः (३ त्र ), 'रस्सो आदिले बाँधे हुए' के ३ नाम हैं |
'जिससे डाई' ( ईर्ष्या )
नाम हैं ॥
४] आपन्नः, आपत्प्राप्तः ( २ त्र ), 'दुःख में पड़े हुए' के २ नाम हैं ॥ ५ कान्दिशीकः, भयद्भुतः ( २ त्रि ), 'भय से भागे हुए' के २ नाम हैं ॥ ६ भक्षारितः, क्षारितः, अभिशस्त: ( ४ त्रि ), 'चोरी या मैथुन आदि बुरे कामके विषय में झूडा ( बिना किये मी ) लोकापवाद पाये हुए ' के ३ नाम हैं ॥
संकसुकः, अस्थिरः ( २ त्र ), 'स्थिर नहीं रहनेवाले' के २ नाम हैं । ८ उपसनाती, उपरक्तः ( २ पु ) 'व्यसन से दुःखी' के २ नाम है ॥ ९ विहस्तः, व्याकुलः (२ त्रि), 'व्याकुल' (शोक आदिके कारण कर्तव्य ( अपने करने योग्य काम ), के निषय को नहीं करने वाले ) के २ नाम हैं ॥ १० विक्लवः, विह्नरुः (२ त्रि ), 'विज्ञान' ( शोकादि के कारण भने शरीरको सँभालने में असमर्थ ) के २ नाम हैं ॥
११ विवशः, अरिष्टदुष्टोः (२ वि ); 'मृत्युकाल समीप होनेसे 'अस्थिर बुद्धिवाले' के २ नाम है ॥
१२ कश्यः, कशार्हः ( १ त्रि), 'कोड़ेसे मारने योग्य मनुष्य, घोड़े - आदि' के २ नाम हैं ॥
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३८३
विशेष्यनिघ्नः ] मणिप्रभायाख्यासहितः।
-~-१ सन्नद्धे स्वाततायी वधोद्यते ॥४४॥ २ द्वेष्ये विगतो ३षभ्यः शीर्षच्छेद्य इमौसमौ। ४ विध्यो विषेण यो वध्यो ५ मुसल्या मुसलेन यः॥ ४५ ॥ ६ शिश्विदानोऽकृष्णकर्मा ७ चपलश्चिकुर समौ ।
'आततायी ( - आततायिन् त्रि), 'आततायी' अर्थात् 'मारने के लिये तैयार' का १ नाम है ॥
२ द्वेष्या, अक्षिगतः (१ त्रि), 'आँखों में गड़े हुए' अर्थात् 'और करने योग्य' के २ नाम हैं।
३ वध्यः, शीर्षच्छेद्यः ( २ ), 'मारने योग्य, या शिर काट लेने योग्य' के २ नाम हैं ।
४ विष्मः (त्रि), विष खिलाकर मारने योग्य' का १ नाम है ॥ ५ मुसक्ष्यः ( त्रि), 'मुसलसे मारने योग्य' का । नाम है ॥
६ शिश्विदानः, अकृष्ण का ( = भकृष्णकर्मन् । २ त्रि), 'पुण्य कर्म करनेवाले' के ( तथा पाठभेदसे-'शिश्विदानः, कृष्णकर्मा ( = कृष्णकर्मन् । १ त्रि), 'पाप कर्म करनेवाले' के २ नाम हैं।
७ चपलः, चिकुरः ( २ त्रि), 'चपल या दोषको विना विचारे ही मारनेके लिए तैयार' के २ नाम हैं ।
३. 'शिश्वदानः कृष्णकर्मा' इति पाठान्तरम् ॥ ४. वधस्योपलक्षगतयाऽन्येऽपि संग्र ह्यास्त आततायिनो यथा
'अग्निदो गोरदश्चैव शस्त्राणिर्धनापहः । क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते आततायिनः ॥ १॥ इति ॥
'उद्यतासिविषाग्निश्च शापोद्यतकरस्तथा ।
आथर्वणेन हन्ता च पिशुनश्चापि राजनि ॥ १ ॥ मार्यातिकमकारी च रन्ध्रान्वेषणतत्परः। एत्रमाद्यान्विजानीयारसर्वानेवाततायनि: ॥२॥
इति या स्मृति० २२१ मिताक्षरा।
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अमरकोषः।
[तृतीयकाडे१ दोकटपुरोभागी २ निकृतस्त्वनृजुः शठः ।। १६ ॥ ३ कणेजपा सूचका स्यात् ४ पिशुनो दुर्जनः खलः। ५ नृशंसो घातुकाकरः पायो ६ धूर्तस्तु वञ्चकः ॥१७॥
भूख्यथाजातमूर्खधेयबालिशाः । ८ कदये कृपणक्षुद्रपिवानमितंपचाः ॥४८॥ ९ नि:स्वस्तु दुर्विधो दीनो दरिद्रो दुर्गतोऽपि सः। १० 'धनीयको याचनको मार्गणो यावकार्थिनी ॥४९॥
१ दोषैकर ( = दोषैक हश ), 'पुरोभागी ( = पुरोभागिन् । २ त्रि) केवल दोषको ही देखनेवाले' के २ नाम है ॥
२ निकृतः, अनृजुः, शठः (३ त्रि), 'श' के ३ नाम हैं। ३ कर्णजपः, सूचकः (२ त्रि), 'चुगलखोर' के नाम हैं।
४ पिशुनः, दुर्जनः, खलः (३ त्रि) 'आपसमें फट करानेवाले के नाम है । (हेमचन्द्राचार्य ने 'कर्णेजप,..'सव पर्यायों को एकार्थक माना है)। ५ नृशंसः, धातुका, करः, पापः (४.त्रि) 'कर' के नाम हैं। धूर्तः, वश्चकः (२ त्रि), 'ठग' के २ नाम हैं।
अज्ञः, मूडः, यथाजातः, मूर्खः, बंधेयः, पालिश: (+मातृमुखा, मातशासितः, अमेधाः = अमेषस् । ६ त्रि), 'मूर्ख के नाम हैं।
८ कक्ष्यः, कृपणः, पुनः, किंपचानः, मितपधः ( + किंपधः, अनमितपत्रः कीमाशः, समुष्टिः। ५ त्रि), 'कृपण, कंजूस' के ५ नाम हैं !!
९ निःस्वः, दुर्विधः, दीनः, दरिद्रः, दुर्गत:( +दुःस्थः, अश्विनः, कीकटः। त्रि) 'दरिद्र' के ५ नाम हैं।
१. वनीयकः (+वनीपकः ), याचनकः, मार्गणः, थाचका, अर्थी (=Nलिन् । + तर्कुकः । ५ त्रि), 'याचक, माँगनेवाले' के ५ नाम हैं ।।
१. 'वनीपकः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'वस्कास्पा
दोषेकप्राविहदयः पुरोभागीति कथ्यते' इति क्षी० स्वा० ।। सवा-....... कनपरतु दुर्जनः । पिशुनः सूचको नीचो दिजिलो मस्सरी खकः ॥
इति अमि.चि.२४
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विशेष्यनिग्नवर्गः १] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
३८५ १ अहङ्कारवान हंयुः २ शुभंयुस्तु शुभान्वितः । ३ दिव्योपपादुका देवा ४ नृगवाद्या जरायुजाः ॥५०॥ ५ स्वेदजाः कृमिदंशाचाः ६ पक्षिसादयोऽण्डजाः। ७ उद्भिदस्तरुगुल्माचा:
१ अहङ्कारवान् ( = अहङ्कारवत् ), अहंयुः (२ त्रि), 'महङ्कार (मण्ड) करनेवाले' के २ नाम हैं ।
२ शुभंयुः, शुभान्वितः (२ त्रि) शुभयुक्त' के दो नाम हैं । ३ 'दिव्योपपादुकः (त्रि), 'स्वर्गीय देवता आदि' को कहते हैं ।
४ जरायुजः (त्रि ), 'गर्भसे उत्पन्न होनेवाले मनुष्य, गौ आदि को कहते हैं ।
५ स्वेदजः (त्रि), 'पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले खटमल, डंस, मश, चीलर आदि' को कहते हैं । __६ अण्डजः (त्रि), 'अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले पक्षी, साँप, मछली, मगर, चींटी आदि' की कहते हैं ।
इति प्राणिवर्गः । ७ उद्भित् ( = उद्भिद् त्रि), पेड़, लता, झाड़ी, घास, आदि' को कहते हैं। ('इस तरह अयोनिज १, जरायुज २ स्वेदज ३, अण्डज . और उद्भिज ५, ये ५ 'भूतों (जीवों) की सृष्टि' हैं; इनके चौदह अवान्तर भेद होते हैं')॥
१. नरकव्यावृत्तये दिव्यपदम् । मातापित्रादिदृष्टकारणनिरपेक्षा अदृष्टसहकृतेभ्योऽणुभ्यो जाता ये देवास्ते दिव्योपपादुका उच्यन्ते' इति भा० दी० । हेमचन्द्राचार्यैः 'यथोपपादुका देवनारका' (अभि चिन्ता० ४.४२३) इति देवनारकसामान्यतया 'दिग्योपपादुक'शब्द उक्तः।।
२. 'प्राणिनां विशेष्यनिघ्नतासूचक' इति यावत् प्रोच्यमानवर्गान्तर्गत एवायम् ॥
३. तथा च क्षीरस्वामी-इत्थमयोनिजजरायुजस्वेदजाण्डजोद्भिज्जत्वेन पञ्चधा भूतसर्गः । एषामेवा (वा ) न्तरभेदाच्चतुर्दशविधत्वम् । यदाहु:
'अष्टविकल्पो दैवस्तिर्यग्योनिश्च पञ्चधा मवति । मानुष्य एकविधः समासाद्भौतिकः सर्गः ॥१॥ पैशाचो राक्षसो याक्षो गान्धर्वः शाक एव च !
सौम्यश्च प्राजापत्यश्च प्रामोऽष्टी देवयोनयः ॥२॥ इति । २५०
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३८६
अमरकोषः
- १ उद्भिदुद्भिजमुद्भिदम् ॥ ५१ ॥
२ सुन्दरं रुचिरं चारु सुषमं साधु शोभनम् । कान्तं मनोरमं रुच्यं मनोशं मञ्जु मञ्जुलम् ॥ ५२ ॥ ३ तदासेचनकं तृप्तेर्नास्त्यन्तो यस्य दर्शनात् । ४ अभीष्टेऽभीप्सितं हृद्यं दयितं वल्लभं प्रियम् ॥ ५३ ॥ निकृष्ट प्रतिकृष्टशर्वरेफयाध्यायमाधमाः
उडित ( उहि ), उद्भिजल ( २ ), भिम (न ) 'पेड़, लता, झाड़ी, घास आदि पौधों के नाम हैं ||
J
,
२ सुन्दरम् रुचिरम्, चार, सुषम, साधु, शोभनम् भान्तम्, मनोरमम ( + मनोहरम् ), रुच्यम्, भनोज्ञम, सन्जु, मन्जुलम् ( + मनोहारि = मनोहारिन्, हारि = हारिन्, वल्गु, अभिरामम् बन्धुरम् । १२ त्रि ), 'सुन्दर, मनोहर' के १२ नाम है ॥
[ तृतीय काण्डे
}
३ आसेचनकम् ( + असेचनकम् । त्रि), 'जिसके देखते रहने से मन तृप्त नहीं हो ऐसे अत्यन्त सुन्दर पदार्थ' का १ नाम है ॥
४ अभीष्टम्, अभीप्सितम् हृद्यम्, दयितम्, वल्लभम् प्रियम् ( ६ त्रि ), 'प्रिय, अभीष्ट' के ६ नाम हैं |
,
हेमचन्द्राचाय्यैरष्टौ जीवोत्पत्तिस्थानान्युक्तानि । तथा हि
'अण्डजाः पक्षिसर्पाद्याः पोतजाः कुञ्जरादयः । रसजा मद्यकीटाद्या नृगवाद्या जरायुजाः ॥ यूकाद्याः स्वेदजा मत्स्यादयः संमूर्च्छनोद्भवाः । अनास्तूद्भिदोऽथोपपादुका देवनारकाः ॥
५ निकृष्टः, प्रतिकृष्टः ( + अपकृष्टः ), अर्वा ( = अर्वन् ), रेफः ( + रेप: ), याप्यः ( + याव्यः ), अवमः, अधमः, कुपूयः ( + कपूयः ), कुत्सितः, अवद्यः,
२. ' तदसेचनकम्' इति पाठान्तरम् ॥
३. 'निकृष्टप्रतिकृष्टाव रेपयाप्यावमाधमाः' इति पाठान्तरम् ॥
,
नसयोनय इत्यष्टौ -' इति अभि चिन्ता० ४।४२१–४२३ ।। १. 'मनोहरम्' इति पाठान्तरम् ॥
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विशेष्यनिघ्नवर्गः १] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
समाः ॥ ५४ ॥
कुपूयकुत्सितावद्यखेटगाणकाः १ मलीमलं तु मलिनं कश्चरं मलदूषितम् । २. पूतं पवित्रं मेध्यं व ३ वोधं तु' विमलार्थकम् ।। ५५ ।। ४ निर्णिक्तं शोधितं मृष्टं निःशोध्यमनवस्करम् ।
५ असारं फल्गु ६ शून्यं तुशिकं तुच्छरिक्तके ।। ५६ ।। ७ क्लीये प्रधानं प्रमुख प्रवेकानुत्तमोत्तमाः । प्रवर्दोऽनवरार्ध्यवत् ॥ ५७ ॥
मुख्यवर्यवरेण्याच
परार्ध्यायाग्रहप्राययात्रचाग्रीयमग्रियम्
1
८ श्रेयाश्रेष्ठः पुष्कलः स्यात्सत्तमश्चातिशोभने ॥ ५८ ॥
टः, गर्ह्यः, अगकः ( + आणकः । १३ त्रि ) 'खराब नीच' के १३ नाम हैं ॥ १ मलीमसम्, मलिनम् ( + स्लानम् ), कच्चरम्, मलदूषितम् ( + कश्म लम् । ४ त्रि), मैले गन्दे' के नाम हैं ॥
२ पूतम्, पवित्रम्, मेध्यम् ( + पावनम् । ३ त्रि), 'पवित्र' के ३ नाम हैं ॥ ३ वीम, विमलार्थकम् ( + विमलात्मकम् भा० दी० २ त्रि), 'स्वभा
वतः पवित्र' के २ नाम हैं ॥ ( यथा - तीर्थजल, अग्नि,
) ॥
४ निर्णिक्तम्, शोधितम् मृष्टम् निःशोध्यम्, अनवस्करम् ( ५ त्र ), 'साफ किये हुए' के २ नाम हैं ॥
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1
·
५ असारम् फल्गु (२ त्रि), 'निर्बल, निस्तत्त्व निःसार' के २ नाम हैं ॥ ६ शून्यम् ( + शुन्यम् ) वशिक्रम्, तुच्छम् रिक्तकम् ( + रिक्तम् ४ । त्रि ), 'तुच्छ खाली' के ४ नाम हैं ॥
३८०
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७ प्रधानम् (नि० न ), प्रमुखः, प्रवेकः, अनुत्तमः, उत्तमः, मुख्यः, वर्यः, वरेण्यः, प्रवहः, अनवरार्ध्यः, परार्ध्यः, अग्रः, प्राग्रहरः, प्राग्रथः, अग्रचः, अग्रीयः, अग्रियः ( १६ त्र ), 'मुखिया प्रधान' के १७ नाम हैं ॥
८ श्रेयान् (
श्रेयस् ), श्रेष्ठः, पुष्कलः, सत्तमः, अतिशोभनः ( ५ त्रि )
१. विमलात्मकम्' इति पाठान्तरम् ॥
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३८८ अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे१ स्युरुत्तरपदे व्याघ्रपुङ्गवर्षभकुञ्जराः ।
सिहशार्दूलनागाद्याः पुंसि 'श्रेष्ठार्थगोचराः ।। ५६ ।। २ अप्रानन्यं दयहीने छे अप्रधानोपसर्जने । ३ विशङ्कट पृथु बृहद्विशालं पृथुलं महत् ।। ६० ।।
वड्रोरुविपुलं ४ पीनपीनी तु स्थूलपीवरे । ५ स्तोकाल्पक्षुल्लकाः ६ सूक्ष्म श्लक्ष्णं दभ्रं कृशं तनु ॥ ६१ ॥
'बहुत शोभनेवाले के ५ नान हैं । ( अन्याचार्यों के मतसे प्रधानम् ,...... २१ नाम 'शोमन' के हैं)।
१ व्याघ्रः, पुङ्गवः, ऋषभः, कुञ्जरः, सिंह, शार्दूलः, नागः ( ७ पु), आदि ( + मुखः,... ... | पु,) 'उत्तरपद् (शब्द के आगे) में रहनेपर पूर्व शब्द के श्रेष्ठार्थ को कहते हैं। ('जैस्ने ----- नरव्याघ्रः, नरपुङ्गवः, पुरुषर्पा,.) यहाँपर 'नर' शब्दके बाद में ध्यान और पुङ्गव' शब्द, तथा 'पुरुष' शब्द बाद में 'ऋषम' शब्द है, अतः 'जर में श्रेष्ठ, पुरुषों में श्रेष्ट' यह अर्थ होता है' )॥
२ अप्राग्रयम् ( + उपागम् । त्रि) अप्रधानम् उपसर्जनम् ( २ नि० न). 'अप्रधान' के २ नाम हैं ॥
३ विशङ्कटम् , पृथु, बृहत् , विशालम् , पृथुलम् , महत्, वडम् , उरु, विपुलम् (९ त्रि), 'बड़े विशाल' के ९ नाम हैं ॥
४ पीनम् , पीव ( = पीवन् ), स्थूलम् , पीवरम् (४ न ), 'मोटे' के ४ नाम हैं।
५ स्तोकः, अल्पः, क्षुल्लकः ( ३ त्रि), 'थोड़े' के ३ नाम हैं ॥ ६ सूक्ष्मम् , श्लक्ष्णम् , दभ्रम् , कृशम् , तनु, (५ त्रि), मात्रा, त्रुटिः
१. 'श्रेष्ठार्थवाचकाः' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'वर्य प्रधानं युक्तमनुत्तमं सत्तमं प्रवहणं च इति नाममालायां ( सत्तमस्य)। 'अग्रं प्रापहरं श्रेष्ठं मुख्यवर्यप्रबईणम्' इति त्रिकाण्डशेषे च श्रेष्ठस्य पाठात एकविंशतिरेव शोमनस्य' इत्यन्ये' इति भा०दी०॥
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३८६
विशेष्यनिघ्नवर्गः १] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
स्त्रियां मात्रा त्रुटिः पुंसि लवलेशकणाणवः । १ अत्यल्पेऽल्पिष्ठमल्पीयः कनीयोऽणीय इत्यपि ।। ६२॥ २ प्रभूतं प्रचुरं भाज्यमदन बहुलं बहु ।
'पुरुहू: पुरु भूयिष्ठं स्फारं भूयश्च भूरि च ।। ६३ ।। ३ परः शताद्यास्ते येषां परा संख्या शतादिकात् । ४ गणनीये तु गणेयं ५ संख्यात गणित ६ मथ समं सर्वम् ॥ ६ ॥ विश्वमशेषं कृत्स्नं समस्तनिखिलाखिलानि निःशेषम् ।
"समप्रं सकलं पूर्णमखण्डं स्यादनूनके ॥६५॥ ( + त्रुटी। २ नि० स्त्री), लवः, लेशः, क्णः, अनुः (३ नि० पु), 'पतले' के ११ नाम हैं। ('भा० दी० के मत से 'स्तोकः,...' १४ नाम 'सूक्ष्म
५ अत्यल्पम् (भा० दी०), अल्पिष्ठम् , अल्पीयः ( = अल्पीयस्) कनीयः ( = कनीयस), अणोयः ( = अणीयस्। ५ त्रि), 'बहुत काम' के ५ नाम हैं ॥
२ प्रभूतम् , प्रचुरम् , प्राज्यम् , अदभ्रम , बहुलम् , बहु, पुरुहूः ( + पुरुहम , पुरहम् ), पुरु, भूयिष्ठम् , स्फारम् ( + स्फिरम् ), भूयः (= भूयस) भूरि ( १२ त्रि), 'बहुत' काफी' के १२ नाम हैं।
३ परःशतम् (त्रि), आदि (परःसहस्त्रम् , परोऽयुतम् , परोलक्षम्,...), 'सो आदि ( हजार, दश हजार, लाख,... ...) से अधिक' का १ नाम है॥
४ गणनीयम् , गणेयम् (१ त्रि), 'गिन्ती करने योग्य पदार्थ के २ नाम हैं।
५ संख्यातम् , गणितम् (२ त्रि), 'गिने हुए' के २ नाम हैं ॥
६ समम् ( 'यह केवल इसी सम्पूर्ण अर्थ में सर्वनामसंज्ञक हैं' ) सर्वम् , विश्वम् , अशेपम् , कृत्स्नम् , समस्तम् , निखिलम् , अखिलम् , निःशेषम् , समग्रम् , सकलम् , पूर्णम् ( + पूर्वम् ), अखण्डम् , अनूनकम् ( + अनूनम् । १४ त्रि), 'सम्पूर्ण पूरे समूचे' के १४ नाम हैं ॥
१. 'पूरुहु पुरु' इति 'पुरुहं पुरु' इति च पाठान्तरे ।। १. 'समप्रसकलाखण्डपूर्वादि स्यादनूनके इति क्षी० स्वा० पाठान्तरम् ॥
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३१०
अमरकोषः ।
[ तृतीयकाण्डे १ घने निरन्तरं सान्द्रं २ पेलवं विरलं तनु । ३ समीपे निकटासम्नसन्निकृष्टसनीडवत् ॥६६ ।। 'सदेशाभ्याशसविधसमर्यादसवेशवत् 'उपकण्ठान्तिकाभ्यर्णाभ्यग्रा अप्यभितोऽव्ययम् ॥ ६७ ॥ ४ संसक्त त्व्य वहितमपदान्तरमित्यपि । ५ नेदिष्ठमन्तिकतमं ६ स्याद् दूरं विप्रकृष्टकम् ॥ ६८ ॥ ७ दवीयश्च दविष्ठं च सुदूरं ८ दीर्घमायतम् । ९ वर्तुलं निस्तलं वृत्तं
१ घनम् , निरन्तरम् , सान्द्रम् (३ त्रि), 'घन गझिन' के ३ नाम हैं।
२ पेलवम् , विरलम् , तनु (३ त्रि) विरल, फरक २ वाले' में ३ नाम हैं।
३ समीपः, निकटः, आसन्नः, सन्निकृष्टः, सनीडः, सदेशः, अभ्याशः (+ अभ्यासः), सविधः, समर्यादः, सवेशः, उपकण्ठः, अन्तिकः, अभ्यर्णः, अभ्यग्रः (१४ त्रि), अभितः (अव्य०), 'समीप, नजदीक' के १५ नाम हैं ।
४ संसक्तम् , अव्यवहितम् , अपदान्तरम् ( + अपटान्तरम् (३ त्रि), 'सटे ( मिले) हुए' के ३ नाम हैं ।
५ नेदिष्टम् ( + नेदीयः = नेदीयस् ), अन्तिकतमम् (२ त्रि), 'बहुत समीपवाले' के २ नाम हैं।
६ दूरम्, विप्रकृष्टकम् (+ विप्रकृष्टम् । २ त्रि), 'दूरवाले' के २ नाम हैं ।
७ दवीयः (दवीयस्), दविष्टम् , सुदूरम् ( ३ त्रि ), 'बहुत दूरवाले' के ३ नाम हैं।
८ दीर्घम् , आयतम् (२ त्रि), 'लम्बे' के २ नाम हैं । ९ वर्सलम् , निस्तलम्, वृत्तम् (३ त्रि), गोलाकार' के ३ नाम हैं ।
१. 'सदेशाभ्याससविध-' इति पाठान्तरम् ।। २. 'उपकण्ठान्तिकाम्यर्णाभ्यग्राभिपतिता यमी' इति पाठान्तरम् ।।
३. 'त्वम्यवहितमपटान्तरमित्यपि' इति पाठान्तरम् ॥
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विशेष्यनिघ्नवर्गः १ ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ बन्धुरंतून्नतानतम् ॥ ६९ ॥ २ उच्चप्रांशून्नतोदग्रोच्छ्रितास्तुझे ३ ऽथ वामने ।
न्यड्नीचखर्वहस्वाः स्यु ४ रवाग्रेऽवनतानतम् ॥ ७० ॥ ५ अरालं त्रुजिनं जिह्ममूपिमत्कुश्चितं नतम् ।
आविद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं चक्रमित्यपि ।। ७१ ।। ६ ऋजावलिमप्रगुणौ ७ व्यस्ते त्वगुणाकुलो ।
शाश्वतस्तु ध्रुवो नित्यतदातन सनातनाः ॥ ७२ ।। स्थाम्नुः स्थिरतरः स्थेयानेकरूपतया तु यः। कालव्यापी स कूटस्थ:
१ बन्धुरम् ( + बन्धुरम् ), उन्नतानतम् ( २ त्रि), 'ऊँचखाल, ऊँचेनीचे' के २ नाम हैं।
२ उच्चः, प्रांशुः, उन्नतः, उदग्रः, उच्छ्रितः, तुङ्गः ( + उत्तुङ्गः, उद्धरः। ६ त्रि), 'ऊँचे' के ६ नाम हैं ॥
३ वामनः, न्यङ ( = न्यच ), नीचः, खर्वः, द्वस्वः (५ त्रि), 'वामन, नीचे, छोटे' के ५ नाम हैं ।
४ अवाग्रम् , अवनतम् , आनतम् (३ त्रि), 'नीचे की ओर झुके हुए' के ३ नाम हैं ॥ ___ ५ अरालम् , वृजिनम् , जिह्मम्, उर्मिमत् , कुञ्चितम् , नतम् , आविद्धम. कुटिलम् , भुग्नम् , वेल्लितम् , वक्रम् ( + भङ्गुरम् । ११ त्रि), 'टेढे' के ११ नाम हैं ।
६ ऋजुः, अजिह्मः, प्रगुणः (३ त्रि), 'सीधे' के ३ नाम हैं । ७ व्यस्तः,अप्रगुणः, आकुलः ६३ त्रि), धबड़ाये हुए, आकुल' के ३ नाम हैं।
८ शाश्वतः (+ शाश्वतिकः ), ध्रुवः, नित्य , सदातनः, सनातनः (५ त्रि), 'नित्य' अर्थात् 'सर्वदा स्थिर रहनेवाले के ५ नाम हैं ॥
९ स्थास्नुः, स्थिरतरः, स्थेयान् ( = स्थेयस् । ३ त्रि), 'अत्यन्त स्थिर' के ३ नाम हैं ।।
१० कूटस्थः (त्रि), 'सदा एक समान रहनेवाले' ( आकाश, आत्मा आदि) का १ नाम है ॥
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३६२
अमरकोषः ।
-१ स्थावरो जङ्गमेतरः ॥ ७३ ॥
२ चरिष्णु जङ्गमचरं श्रसमिक्षं चराचरम् । ३ चलनं कम्पनं कम्प्र ४ चलं लोलं चलाचलम् ॥ ७४ ॥ चश्चलं तरलं चैव चैव पारिप्लवपरिप्लवे ।
५ अतिरिक्तः समधिको ६ दृढसन्धिस्तु संहतः ॥ ७५ ॥ ७ 'कर्कशं कठिनं करं कठोरं निष्ठुरं दृडम् ।
जरठं मूर्त्तिमम्मूर्त्त ८ प्रवृद्धं प्रौढमेधितम् ॥ ७६ ॥ ९ पुराणे प्रतनप्रनपुरातनचिरन्तनाः
।
१ स्थावरः, जङ्गमेतरः ( २ त्रि ), 'स्थावर ( नहीं चलनेवाले ) पहाड़, पेड़, लता आदि' के २ नाम हैं ॥
२ चरिष्णु, जङ्गमम्, चरम्, त्रसम, इङ्गम्, चराचरम् ( ३ त्रि ), 'चल ( चलने-फिरनेवाले ) मनुष्य, पशु-पक्षी, कीटपतङ्ग आदि' के ६
नाम हैं ॥
३ चलनम्, कम्पनम्, कम्प्रम् (३ त्रि), महे० के मतसे 'काँपने ( हिलने) वाले' के ३ नाम हैं ॥
४ चलम्, लोलम्, चलाचलम्, चञ्चलम्, तरलम्, पारिप्लवम्, परिप्लवम् (७ त्रि), महे० के मत से 'चल' अर्थात् 'चलनेवाले' के ७ नाम हैं । ( भा० दी० के मत से 'चलनम् १० नाम 'चल' के हैं ॥
५ अतिरिक्तः, समधिकः ( २ त्रि ), 'अतिरिक्त फालतू' के २ नाम हैं | ६ दृढसन्धिः, संहतः ( २ त्र ), 'अच्छी तरह मिले या जुटे हुए' के २ नाम हैं ।
७ कर्कशम् (+ कक्खटम्, खक्खटम् ), कठिनम्, क्रूरम, कठोरम्, निष्ठुरम्, हम, जठरम्, मूर्त्तिमत्, मूर्त्तम् (९ त्रि ), 'कठोर, कड़े' के ९ नाम हैं ॥ 'बढ़े हुए' के ३ नाम हैं | प्रत्नम्, पुरातनम् चिरन्तनम् (५ त्रि), 'प्राचीन,
एधितम् ( ३ त्रि),
८ प्रवृद्धम्, प्रौढम् ९ पुराणम्, प्रतनम् पुराने' के ५ नाम हैं ॥
"
| तृतीय काण्डे -
"
१. 'स्खक्खट' इति 'कक्खर्ट' इति च पाठान्तरे ॥
,
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विशेष्यनिघ्नवर्गः १] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ प्रत्यग्रोऽभिनवो नव्यो नवीनो नूतनो नवः ॥ ७७ ॥ नूत्नश्ध २ सुकुमारं तु कोमलं मृदुलं मृदु । ३ अन्वगन्वक्षमनुगेऽनुपदं वलीबमव्ययम् ॥ ७८ ॥ ४ प्रत्यक्षे' स्यादैन्द्रियक ५ मप्रत्यक्षमतीन्द्रियम् । ६ एकतानोऽनन्यवृत्तिरेका काय नावपि अप्येकसर्ग एकाग्रयोऽप्येकायनगतोऽपि सः । ७ पुंस्यादिः पूर्वपौरस्त्यप्रथमाद्या
।। ७९ ।।
३३३
१ प्रत्यग्रः, अभिनवः, नव्यः, नवीनः, नूतनः, नवः, नूत्नः ( ७ त्रि ), 'नवीन, नये' के ७ नाम हैं ॥
२ सुकुमारम्, कोमलम्, मृदुलम, मृदु ( ४ त्रि), 'कोमल, मुलायम' के नाम हैं ॥
३ अन्वक्, अन्वक्षम्, अनुगम्, अनुपदम् ( महे० के मतसे ४ नपुंसक तथा अव्यय और क्षी० स्वा० के मतसे 'अन्वक्, अन्वक्ष, अनुपद' ये ३ अव्यय और 'अन्वक्ष, अनुपद' ये २ नपुंसक ), 'बाद पीछे' के ४ नाम हैं ॥
४ प्रत्यक्षम् ( + समक्षम् ), ऐन्द्रियकम् ( २ त्रि), 'इन्द्रिय से ग्राह्य ( ग्रहण करने योग्य )' के २ नाम हैं । ( 'जैसे- 'कर्णेन्द्रियका ग्राह्य शब्द, नेन्द्रका ग्राह्य घटपटादिका रूप, ' ) ॥
५ अप्रत्यक्षम् ( + अनध्यत्तम्, अत्यध्यक्षम् ), अतीन्द्रियम् ( २ त्रि ), 'इन्द्रिय से अग्राह्य ( नहीं ग्रहण करने योग्य ), के २ नाम हैं । ( जैसे... परमाणु, ) #
...g
६ एकतानः, अनन्यवृत्तिः एकाग्रः ( + ऐकाग्रः ), एकायनः, एकसर्गः, एकाग्रथः, एकायनगतः ( ७ त्रि), 'एकान' के ७ नाम हैं ॥
७ आदिः (नि० पु), पूर्वः, पौरस्त्यः, प्रथमः, आद्यः ( + आदिमः, अग्रथः, अग्रिमः, अग्रीयः । ४ त्रि ), 'पहला, प्रथम' के ५ नाम हैं ॥
१. 'स्यादैन्द्रियकमनध्यक्षमतीन्द्रियम्' इति - मत्यध्यक्षमतीन्द्रियम्' इति च पाठान्तरे ॥ २. - वृत्तिरैकायैकाय नावपि' इति पाठान्तरम् !
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३६४
अमरकोषः ।
[ तृतीयकाण्डे
-१ अथास्त्रियाम् ।। ८०॥ अन्तो जघन्यं चरममन्त्यपाश्चात्त्यपश्चिमाः । २ मोघं निरर्थकं ३ स्पष्टं स्फुटं प्रत्यक्तमुल्वणम् ।। ८१ ॥ ४ साधारणं तु सामान्य ५ मेकाको 'त्येक एककः । ६ भिन्नार्थका अन्यतर एकस्त्वोऽन्येतरावपि ।। ८२॥ ७ उच्चावचं नैकभेद ८ मुच्चण्डमविलम्बितम् । ९ अरुन्तुदं तु मर्मस्पृक
१ अन्तः ( पु न), जघन्यम् , चरमम् , अन्त्यः, पाश्चात्यः, पश्चिमः ( + अन्तिमः । ५ त्रि), 'अन्त (आखीर) वाले' के ६ नाम हैं।
२ मोघम् , निरर्थकम् (२ त्रि ), 'निष्फल, बेकाम' के २ नाम हैं ।
३ स्पष्टम् (+ विस्पष्टम्), स्फुटम् ( + प्रस्फुटम् ), प्रध्यक्तम् ( + व्य. कम् ), उल्बणम् (४ त्रि), 'स्पष्ट' के ४ नाम हैं। (किसीके मतसे 'स्पष्टम् , स्फुटम्' ये २ नाम 'स्पष्ट' के और 'प्रव्यक्तम् , उल्बणम्' ये २ नाम 'खुलासा, साफ' के हैं)॥
४ साधारणम् , सामान्यम् (२ त्रि), 'साधारण, मामूली' के २ नाम हैं ।
५ एकाकी ( = एकाकिन् ), एकः, एककः, (+ एकलः । ३ त्रि), 'अकेले' के ३ नाम हैं ।
६ भिन्नः ( भिन्नके पर्यायवाचक सब शब्द ), अन्यतरः ( + एकतरः), एकः, स्वः, अन्यः, इतरः ( ६ त्रि), 'भिन्न, दसरे, अलग' के ६ नाम हैं ।
७ उच्चावचम् , नेकभेदम् (२ त्रि), 'अनेक कारवाले के २ नाम हैं ।
८ उच्चण्डम् , अविलम्बितम् ( + अविलम्वयम् । २ त्रि), जल्दबाज, शीघ्रता करने वाले' के २ नाम हैं।
९ अरुन्तुदः, मर्मस्पृक् ( = मर्मस्पृश् । २ त्रि), 'मर्मस्थाको पीड़ा देनेवाले' के २ नाम हैं ॥
१. एकलः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'एकतरः' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'नैकभेदमुच्चण्डमविलम्बनम्' इति पाठान्तरम् ॥
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३६५
acco
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विशेष्यनिघ्नवर्गः १] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ अबाधं तु निरर्गलम् ॥ ८३ ॥ २ प्रसव्यं प्रतिकूलं स्यादपसव्यमपटु च। ३ वामंशरीरंसव्यस्या . वपसण्यं तु दक्षिणम् ।। ८४ ।। ५ संकटं ना तु संबाधः ६ कलिलं गहनं समे । ७ सकीर्ण संकुलाकीणे ८ मुण्डितं परिवापितम्।। ८५ ।। ९ 'ग्रन्थितं संदितं हब्धं --
१ अबाधम् , निरर्गलम् (+ उद्दामम् , उच्छृङ्खलम् , निरङ्कुशम् । २ त्रि), 'अबाध' अर्थात् 'बिना रोक-टोकवाले' के २ नाम हैं ।
२ प्रसव्यम् , प्रतिकूलम् , अपसव्यम् , अपष्टु ( + अपष्टुरम् , विलोमम् , प्रतीपम् , विपरीतम् । ४ त्रि), 'प्रतिकूल, उलटा' के ४ नाम हैं ।
३ सव्यम् (त्रि), 'शरीरके वाम भाग' का १ नाम है ॥ . ४ अपसव्यम् ( त्रि), 'शरीरके दाहिने भाग' का १ नाम है। ___ ५ संकटम् (त्रि), संबाधः (नि० पु), 'तक रास्ता, या गली आदि' के २ नाम हैं ।
६ कलिलम् , गहनम् (२ त्रि), 'दुष्प्रवेश्य (मुश्किलसे प्रवेश करने योग्य ) रास्ता, गली' जङ्गल आदि' के २ नाम हैं ॥
७ संकीर्णम् (+ कीर्णम्), संकुलम् (+ आकुलम्), आकीर्णम् (३ त्रि), 'सभा, देवदर्शन या मेले आदिके कारण मनुष्य आदिसे ठसाठस भरे हुए स्थान आदि' के ३ नाम हैं। ('किसी २ के मतसे 'कलिलम् , .... ' ५ नाम और किसीके मतसे 'संकटम् ,''....' ७ नाम एकार्थक हैं)॥
८ मुण्डितम् , परिवापितम् (२ त्रि), 'मुण्डित' अर्थात् 'मुण्डन किये हुए के २ नाम हैं । ___९ ग्रन्धितम् ( + गुन्थितम् , ग्रथितम् ), संदितम् ( + गुम्फितम् ), दृब्धम् (३ त्रि), 'गुथी हुई माता आदि' के ३ नाम हैं ।
१. अत्र-"ग्रन्थितम्' इत्यपि पाठः । 'गुम्फितं गुफितं चे'त्यपि पाठः" इति महे० । "ग्रन्थितम्, इति कचित्' - इति पीयूषव्याख्या !-'मवितं मर्दितम् , इति पाठे 'मृद क्षोदे' अनेकार्थत्वाद्ग्रन्थने' इति स्वामी, इति मुकुट" इति दाधिमथाः । किन्तु मुकुटोक्तं क्षी० स्वा० वचनं तट्टीकायां नोपलभ्यत इत्यवधेयम् ।।
___
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३६६
अमरकोषः ।
[ तृतीयकाण्डे----१ विकृतं विस्तृतं ततम् । २ अन्तर्गत विस्मृतं स्यात् ३ प्राप्तप्रणिहित समे ॥ ८६ ।। ४ वेल्लित प्रेलिताधूतचलिताकम्पिता धुते । ५ दुत्तनुन्नास्तनिष्ठयूताविद्धक्षिप्तेरिताः समाः ।। ८७ ॥ ६ परिक्षिप्तं तु निवृतं ७ मूषितं मुषितार्थकम् । ८ प्रवृद्धप्रसृते १ न्यस्तनिसृष्टे १० गुणिताहते ।। ८८ ॥ ११ निदिग्धोपचिते १२ गूढगुप्ते १३ गुण्ठितरूषिते ।
१ विसृतम् , विस्तृतम् , ततम् , ( ३ त्रि ), 'फैले हुए' के ३ नाम हैं ॥ २ अन्तर्गतम् , विस्मृतम् (२ त्रि ), 'भूले हुए' के २ नाम हैं ॥ ३ प्राप्तम् , प्रणिहितम् (२ त्रि), 'पाये हुए' के २ नाम हैं ॥
४ वेल्लितः, प्रेखितः, आधूता, चलितः, आकम्पितः, धुतः ( ६ त्रि), 'थोडासा कंपे हुए' के ६ नाम हैं ॥
५ नुत्तः, नुन्नः, अस्त, निष्ट्यतः (+ निष्ठतः ), आविद्धः, क्षिप्तः, ईरितः (७ त्रि), 'भेजे या किसी काममें लगाये हुए' के ७ नाम हैं ॥
६ परिक्षिप्तम् , निवृतम् ( + वलयितम् , परिवेष्टितम् , परीतम् । (• त्रि), 'खाई या दिवाल आदिले घिरे हुए' के २ नाम हैं ॥
७ मूषितम् , मुषितम् (मुपितके पर्यायवाचक सब शब्द । २ त्रि), 'चुराए हुए' के २ नाम हैं ॥
८ प्रवृद्धम् , प्रसृतम् (२ त्रि ), 'पसारे हुए' के २ नाम हैं । ९ न्यस्तम् , निसृष्टम् ( २ त्रि), 'फेंके हुए' के २ नाम हैं ॥
१० गुणितम् , आहतम् (२ त्रि), 'गुणा किये हुए अङ्क या वटी (वरी) हुई रम्ली आदि' के २ नाम हैं ।
११ निदिग्धन , उपचितम् (२ त्रि ), 'बड़े (पुष्ट) हुए' के २ नाम हैं ॥ १२ गृढन् , गुप्तम् (२ त्रि), 'गुप्त' के २ नाम हैं ।।
१३ गुण्ठितम् (+ गुण्डितम्), रूपितम् (२ त्रि), 'धूल आदिमें लिपटे हुए' के २ नाम हैं । (जैसे-'पदातिरन्तगिरिरेणुरूषितः' किरात १३४')॥
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विशेष्यनिघ्नवर्गः १ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
३६७
१ द्रुतावदीर्णे २ उद्गूर्णोद्यते ३ 'काचितशिक्यिते ॥ ८९ ॥ ४ घ्राणघाते ५ दिग्धलिप्ते ६ समुदन्तोद्धृते समे । ७ वेष्टितं स्याद्वलयितं संवीतं रुद्धमावृतम् ॥ ९० ॥ ८ रुग्णं भुग्ने ९ऽथ निशितक्ष्णुतशातानि तेजिते । १० स्याद्विनाशोन्मुखं पक्वं ११ हीणहीतौ तु लज्जिते ॥ ९१ ॥
१ द्रुतम् अवदीर्णम् (२ त्रि ), 'पिघले हुए' के २ नाम हैं ॥
>
२ उद्गूर्णम्, उद्यतम् (२ त्रि ), 'उठाए हुए खड्ग आदि, उठाकर तौल आदि का अन्दाजा किये हुए या लोके हुए गेंद आदि' के २ नाम हैं ॥
,
३ काचितम् शिक्यितम् (२ त्रि), 'सिकहरपर रक्खे हुए ( पाठभेदसे - कारितम्, शिक्षितम् ( २त्रि ), सिखलाये हुए' के' ) २ नाम हैं ॥
४ घ्राणम्, घातम् ( २ त्रि), 'सूत्रे हुए' के २ नाम हैं ।
५ दिग्धम्, लिप्तम् (२ त्रि), 'लिपे हुए स्थान आदि के २ नाम हैं ॥ ६ समुदक्तम्, उद्धृतम् (२ त्रि ), 'नदी, तालाब, कुँए आदिसे निकाले हुए पानी आदि' के २ नाम हैं |
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७ वेष्टितम् वलयितम् संवीतम्, रुद्वम्, आवृतम् ( ५ त्र ), 'चारो तरफ से घेरे हुए' के ५ नाम हैं |
८ रुग्णम्, भुन्नम् ( २ त्रि ) 'व्यथित या टूटे हुए' के २ नाम हैं ॥ ९ निशितम् ( + निशातम् ), चगुतम्, शातम् ( + शितम् ), तेजितम् ( ४ त्रि ), 'सान आदि देकर तेज किए हुए तलवार, भाला, चाकू आदि' के ४ नाम हैं ॥
१० विनाशोन्मुखम् ( भा० दी० ), पक्कम् ( २ त्रि), पके हुए या शीघ्र नष्ट होनेवाले' के २ नाम हैं ।
११ हीणः, होता, लज्जितः ( ३ त्र ), 'लजाये हुए' के ३ नाम हैं |
१. 'कारित शिक्षिते' इति पाठान्तरम् ॥
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३१८ अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे - १ वृत्ते तु' वृतवावृत्तौ २ संयोजित उपाहितः। ३ प्राप्यं गम्यं समासाधं ४ स्यन्नं रीणं स्नुतं नुतम् ॥ ९२ ।। १५. संगूढः स्यात्संकलितो ६ ऽवगीतः ख्यातगर्हणः । ७ विविधः म्यावहुविधो नानारूपः पृथग्विधः ॥ ९३ ।। ८ अवरीको धिकृतश्चाप्य ९ वध्वस्तोऽवचूर्णितः ।
१ मृत , कृतः, वावृत्तः ( + स्वागतः । ३ त्रि), 'स्वयंवर खादि में स्वीकार किये हुए घर अादि' के नाम हैं ।
२ संयोजितः ( -- संयोगितः ), उपाहिलः ( २ नि', 'जोड़े हुए' के
३ प्राप्यम् , गम्यम् , सनासाद्यम् (३ त्रि), 'जो मिल सके उसके ३ नाम हैं।
४ स्यनम् , रीणम् , स्नुतम् , स्रुतम् (४ त्रि), 'ठपके, चूए या बहे हुए जल आदि के ४ नाम हैं ॥
५ संगूढः, संकलितः ( २ त्रि ), 'जोड़े हुए अङ्क आदि' के २ नाम हैं ॥
६ अवगीतः, ख्यातगर्हगः ( २ त्रि ), 'संसार-प्रसिद्ध निन्दावाले' के ४ २ नाम हैं ॥ ___ ७ विविधः, बहुविधः ( + बहुरूपः), नानारूपः ( + नानाविधः ) पृथग्विधः ( + पृथग्रुपः। ४ त्रि), 'अनेक प्रकार के पदार्थ आदि' के नाम हैं।
८ अवरीणः, धिक्कृतः ( २ त्रि) धिक्कारे हुए' के २ नाम हैं ॥
९ अवध्वस्तः ( + अपध्वस्तः), अवचूर्णितः ( २ त्रि) चूर्ण किये हुए' के २ नाम हैं।
१. वियते वृतः । वर्तते वृत्यते वा वृत्तः । वावृतः, वृतु गवृतु वरणे ( वर्तते ) इत्थमबुद्ध्वा 'वृतव्यावृतौ' इति पेटुः, लक्ष्येऽपि-ततो वावृत्तमानसेति ( माना सेति...........) इति भट्टिः ( ४२८)' इति क्षी० स्वा० । किन्तु सांप्रतिके भट्टिपुस्तके 'वावृत्यमानासौ' इति पाठ उपलभ्यते । 'वृतव्यावृत्तौ' इति महे० सम्मतं पाठान्तरम् ॥
२. 'विक्कृतश्चाप्यपध्वस्तः' इति पाठान्तरम् ॥
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३६४
विशेष्यनिध्नवर्गः १] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ अनायासकृतं फाण्टं २ स्वनितं ध्वनितं समे ॥ २४ ॥ ३ बद्ध संदानितं'मूतमुद्दितं संदितं सितम् । ४ निस्पको कथितं ५ पाके क्षीराज्यहविर्षा शृतम् ।। ९५ ॥ ६ निर्वाणो मुनिवनयादी ७ निर्वातस्तु गतेऽनिले। ८ पक्वं परिणते ९ गूनं हन्ने १० मीढं तु मूत्रिते ॥ ९६ ॥ २१ पुष्टे तु पुषितं --
१ अनाचा { आ. दी.), फाण्टम् (२ त्रि), 'विना परिश्रम से तैयार होनेवाले त्रिफला आदिके काढा विशेष" २ नाम हैं ।
२ स्वनितम् , ध्वनितन (२ त्रि), निन' अर्थात् 'अव्यक्त शब्द' के २ाम है ॥
३ बद्धम् , संदानितम् , मूतम् ( + मूर्णम् ), उहितम् ( + उदितम् ), संदितम् , सितम् ( + यन्त्रितम् , नियमितम् । ६ त्रि ), 'बंधे हुए' के ६ नाम हैं ॥
४ निप्पक्वम् , क्वथितम् (२ त्रि), 'अच्छी तरह पकाए या उबाले हुए' के २ नाम हैं ॥
५ शृतम् (त्रि ), 'पके हुए दूध, घी और हविष्य आदि या पाकमात्र' का १ नाम है । (जैसे - 'शृतं क्षीरम् ,... अर्थात् 'पका हुआ दूध,.......')॥
६ निर्वाणः ( त्रि ), 'मुक्तिप्राप्त मुनि या बुझो डुई अग्नि आदि' का का १ नाम है।
७ निर्वातः (त्रि ), 'विना हघाके स्थान आदि' का १ नाम है ॥ ८ पक्वम् , परिणतम् (२ त्रि), 'पके हुए' के २ नाम हैं । ९ गूनम् , हन्नम् (१ त्रि), 'पानाना किए हुए' के २ नाम हैं । १० मीढम् , मूत्रितम् (२ त्रि), 'पेशाब किए हुए' के २ नाम हैं ।। ११ पुष्टम् , पुषितम् ( २ त्रि ), 'पाले हुए, के २ नाम हैं ।
१. 'मूर्णमुदितं' इति पाठान्तरम् ।
२. क्षीराज्यपयसा' इति पाठान्तरम् ॥
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४०० अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे-१ सोटे' क्षान्त २ मुद्वान्तमुद्गते । ३ दान्तस्तु दमिते ५ शान्तः शमिते ५ प्रार्थितेऽदितः ।।९७ ॥ ६ शप्तस्तु ज्ञपिते ७ छन्नश्छादिते ८ पूजितेऽञ्चितः । ९ पूर्णस्तु पूरिते १० क्लिष्टः क्लिशिते १९ ऽवसितेसितः॥२८॥ १२ पृष्टप्लुटोषिता दग्धे १३ तत्वष्टौ तनूकते । १४ वेधितच्छिद्रितौ विद्ध १५ निन्नवित्तौ विचारिते ॥ ९९ ॥
१ सोढम् , क्षान्तम् ( २ त्रि), 'क्षमा किए हुए' के २ नाम हैं ।
२ उद्वान्तम् ( + उद्धानम् , उद्वानम् ), उद्तम् (२ त्रि), 'वमन ( उल्टी) किये हुये' के २ नाम हैं ।
३ दान्तः, दमितः (२ त्रि) दमन किए हुए वत्स आदि' के २ नाम हैं । ४ शान्तः, शमितः (२ त्रि), 'शान्त किये गये के २ नाम हैं। ५ प्रार्थितः, अर्दितः (२ त्रि), 'प्रार्थना किये हुए' के २ नाम हैं । ६ ज्ञप्तः, ज्ञपितः (२ त्रि), 'जनाए हुये के २ नाम हैं । ७ छन्नः, छादितः (२ त्रि), 'ढके (छिपाये ) हुए' के २ नाम हैं । ८ पूजितः, अञ्चितः (अर्चितः । २ त्रि), 'पूजा किए हुए' के २ नाम हैं । ९ पूर्णः, पूरितः (२ त्रि), 'पूरा किए हप' के २ नाम हैं। १० क्लिष्टः, क्लेशितः (२ त्रि ), 'क्लेश पाप हुए' के २ नाम हैं । ११ अवसितः, सितः (२ त्रि), 'समाप्त' के २ नाम हैं । १२ पृष्टः, प्लुष्टः, उषितः, दग्धः (४ त्रि), 'जले हुए' के ४ नाम हैं ।
१२ तष्टः, त्वष्टः (२ त्रि ), 'वसूले आदिसे छील कर पतली की हुई लकड़ी आदि' के २ नाम हैं ॥
१४ वेधितः, छिद्रितः, विद्धः (३ त्रि), 'वर्मी या सूई मादि से छेदे हुए' के ३ नाम हैं।
१५ विन्नः, वित्तः, विचारितः ( + आलोचितः। ३ त्रि ), 'सोचे हुए' के ३ नाम हैं।
१. 'क्षान्तमुद्धानमुद्गते' इति 'क्षान्तमुद्धानमुद्गते' इति च पाटान्तरे ।
२. 'पूजितेऽचिंतः' इति पाठान्तरम् ।। ___
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विशेष्यनिष्णवर्णः १] मणिप्रभाव्याक्यासहितः ।
१ निष्प्रभे विगतारोको २ विलीने विद्रुतौ । ३ सिद्धे निवृत्तनिष्पक्ष ४ दारिते मिम्नमेदितो ॥१००॥ चेति त्रितयं तन्तु संतते ।
५ ऊतं स्यूतमुतं
६ स्यादहिंते नमस्थितनमलितमपचायिताच्चितापचितम् ॥ १०१ ॥ ७ वरिवसिते वरिवस्यितमुपासितं चीपचरितं च । ८ संतापित संतप्तौ धूपितधूपायितौ च दूनःश्च ॥१०२॥ ९ दृष्टे मत्तस्तृप्तः प्रहृन्नः प्रमुदितः प्रीतः ।
१ निष्प्रभः विगतः, अरोक: ( ३ त्रि), 'विना प्रभाषाले' के ६ नाम है ॥
२ विहीनः, विद्रुतः, द्रुतः (३ त्रि), 'स्वयं पिघले हुए बर्फ आदि' के छ नाम हैं ॥
३ सिद्धः, निर्वृत्तः निष्पन्नः (३ त्रि), 'सिद्ध हुए काम आदि' के ३ नाम है ॥
४ दारितः, भिनः, भेदितः ( ३ त्र ), 'फाड़े ( अलग किये, चिरे ) हुए लकड़ी या कपड़े आदि' के ३ नाम हैं ।
४०१
1
"
५ उतम्, स्यूतम् उतम्, तन्तुसंततम् (भा० दी० । ४त्रि ) बुने हुए कपड़े, बोरे, पाट आदि' के ४ नाम हैं ।
६ अर्हितम् नमस्थितम् नमसितम् अपश्चायितम्, अर्चितम् अपचितम्
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( ६ त्र ), 'प्रणाम किये गये देवता, माता-पिता आदि गुरुजन' के ६ नाम हैं ॥
"
७ वरिवसितम्, वरिवस्थितम् उपाखितम् उपचरितम् ( ४ त्रि ), पूजित ( पूजा किये गये ) या सेवित देवता, माता-पिता आदि गुरुजन' के ४ नाम हैं ॥
२६ अ०
८ संतापितः, संतप्तः, धूपितः, धूपायितः, दूनः (४ त्रि) 'तपाये या गर्म किए हुए सोना चाँदी आदि' के ५ नाम हैं |
९ हृष्टः, मत्तः, तृप्तः, प्रहृशः, प्रमुदितः प्रीतः ( ६ चि), 'खुश सन्तुष्ट' ६ नाम हैं ।
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४०२
अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ छिन्नं छातं लूनं कृत्तं दातं दितं छितं वृषणम् ॥१०॥ २ सस्तं ध्वस्तं भ्रष्टं स्कग्नं पन्नं च्युतं गलितम् । ३ लब्धं प्राप्त विन्नं भाषितमासादितं च भूतं च । १०४॥ ४ अन्वेषितं गवेषितमन्विष्टं मार्गितं मृगितम् । ५ आई साई क्लिन्न तिमितं स्तिमितं समुन्नमुत्तं च ॥१०५॥ ६ त्रातं त्राणं रक्षितमषितं गोपायितं च गुप्तं च । ७ अनगणितमवमतावालेऽपमानितञ्च परिभूते ॥१०६॥ ८ त्यकं हीनं विधुतं समुज्झितं धूतमुत्सृष्टे । है उक्तं भाषितमुदितं जल्पिलमाख्यातमभिहितं लपितम् ॥१०७॥
१ छिनम् , छातम , लूनम् , कृतम् , दातम् , दितम् , छितम् , वृणम् (८ त्रि), "काटे हुए काष्ठ आदि' के ८ नाम हैं।
२ सस्तम्, ध्वस्तम्, भ्रष्टम्, स्कन्नम्, पन्नम्, च्युतम्, गलितम् (७ त्रिं ) 'गीरे हुए' के ७ नाम हैं ॥
३ लानम् , प्राप्तम् , विनम् , भावितम् , आसादितम् , भूतम् ( त्रि), 'पाये हुए' के ६ नाम हैं ।
___४ अन्वेषितम् , गवेषितम् , अन्विष्टम् , मार्गितम् , मृगितम् (५ त्रि) 'ढूँढे (खोजे ) हुये' के ५ नाम हैं ॥
५ भाईम् , साईम् , क्लिन्नम् , निमितम् , स्तिमितम् , समुन्नम्, उत्तम् (७ त्रि) 'भीगे हुए' के ७ नाम हैं।
६ त्राणम् , बातम् , रचितम् , अवितम् , गोपायितम् , गुप्ठम् (५ त्रि), 'रक्षा किये (बचाये ) हुए' के ६ नाम हैं ।
७ अवगणितम्, अवमतम्. अवज्ञातम्, अवमानितम्, परिभूतम् (५ त्रि), 'अपमान किये हुए' के ५ नाम हैं।
८ स्यकम् , हीनम् , बिधुतम् , समुक्षितम् , धूतम् , उत्सृष्टम् (६ त्रि), 'छोड़े हुए' के नाम हैं।
९ उक्तम्, भाषितम्, उदितम्, जविपतम्, माख्यातम्, अभिहितम्, लपितम् (७ त्रि), 'कहे हुए' के ७ नाम हैं।
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Adama
विशेष्यनिम्नवर्गः1 ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४०३ १ बुद्धं दुधितं मनितं विदितं प्रतिपन्नमवसितावगते । २ ऊरीकृतगुररीकृतमझीकृतमाश्रुतं प्रतिक्षातम् ॥ १०८॥
'संगीर्णविदितसंश्रुतसमाहितोपश्रुतोपगतम् । ३ ईलितशस्तपणायितपनायितप्रणुतपणितपनितानि ॥ १०९ ।।
आप मोर्णवमित्ताभितडितानि स्तुतार्थानि । ४ भक्षितत्रितलीदप्रत्य त्रसितगिलितखादितासातम्॥ ११० ॥
अभ्य सहृतान्नजन्मग्रस्तग्लस्ताशितं भुक्त। ५ 'ब्रह्मण्यो ब्राह्मणहितो ६ वीतदम्भस्त्वकल्मषः (३)
, बुद्धम् , वुधितम् , सनित , विदितम् , प्रतिपन्नम् , अवसितम् , भरगतम् (७ त्रि), 'माने या समझे हुये' के ७ नाम हैं।
२ उरीकृतम् ( + उरीकृतम् ), उररीकृतम् , अङ्गीकृतम् , आश्रुतम् (+ प्रतिश्रुतम् ), प्रतिज्ञातम्, संगीणम् , विदितम् (+ संविदितम्), संश्रुतम्, समादितम् , उपश्रुम् , उपगतम् ( त्रि), 'स्वीकार (मंजुर) किये हुए' के ११ लाम हैं।
३ ईलितम् , शस्तम् , पणायितम् , पनायितम् , प्रणुतम् , पणितम् , पनितम् , गीर्णम् , वर्णितम् , अमिष्टुतम् , ईडितम् , स्तुतम् (१२ त्रि), 'स्तुति (पहाई) किये हुए' के १२ नाम हैं।
४ मचितम् , चर्वितम् , लीढम् (+लिप्तम् ), प्रत्यवसितम् , गिलितम् , खादितम् , सातम् , अभ्यवहृतम्, असम् , जग्धम् , प्रस्तम्, ग्लस्तम् , अशित , भुक्तम् (१४ त्रि ), 'खाये, चबाये, चाटे, धोठे (निगले) हुए' के १४ नाम ॥
५ [ब्रह्मण्या, ब्राह्मणहितः (२त्रि), 'ब्राह्मणके लिए हित' के २ नाम है।
६ [वीतहम्मः, अकल्मषः (२ त्रि), 'निष्पाप, दम्भसे रहित २ नाम हैं ।
१. 'संगीण संविदितं मंश्रुत' मिस्यपि कचिस्पाठः' इति महे० ॥ २. 'भक्षितचर्वितलिप्तप्रत्यवसित-' इति पाठान्तरम् ।।
१. 'ब्रह्मण्यो....."धोमुखे' इत्ययं क्षेपकाशः क्षी. स्वा. व्याख्यायां 'वाच्यं चब्रह्मण्यो..."धोमुखे इत्येवं मूकमात्रमुपलभ्यते। अस्य च प्रकतोपयोगितयाऽयं मया मूले क्षेपकरवेन स्थापितः॥
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४०४
अमरकोषः ।
[ तृतीयकाण्डे
१ असंमतः प्रणाय्यः स्या २ च्चक्षुष्यः प्रियदर्शनः ( ४ ) ३ वैरागिको विरागाईः ४ संशितस्तु सुनिश्चितः (५) ५ ईर्ष्यालुः कुहनो ६ गोष्ठश्वोऽन्यद्वेष्टा स्वगेहगः ( ६ ) ७ तीक्ष्णोपायेन योऽन्विच्छेत्स आयःशूलिको जनः ( ७ ) ८ गेहेशूरे गृहेनदीं पिण्डीशरो ९ऽथ
संस्कृता ( ८ ) व्युत्पन्नमद्दतक्षुण्णा १० अन्वेष्टाऽनुपदी समौ ( ६ ) ११ नीतीरागः स्थिरस्नेहो १२ हरिद्वारागकोऽन्यथा ( १० ) १३ आसीन उपविष्टः स्या १४ दूर्ध्वस्थोर्ध्वदमौस्थिते ( ११ )
[ असंमतः, प्रणाय्यः (२ त्रि ), 'असंमत' के २ नाम हैं । ॥ २ [ चक्षुष्यः, प्रियदर्शन: ( २ त्रि), 'देखने में प्रिय' के २ नाम हैं ] ॥ २ [ वैरागिकः, विरागाह: ( २ त्रि ), 'विराग के योग्य' के २ नाम हैं ] ४ [ संशितः, सुनिश्चित ( २ ) 'सुनिश्चित' के २ नाम हैं ) | ५ [ ईर्ष्यालुः, कुहनः ( २ त्रि), 'ईर्ष्या करनेवाले' के २ नाम है ! | ६ [ गोडश्वः (त्रि), 'घर बैठे दूसरेसे द्वेष करनेवाले' का १ नाम है ] ७ [ आयःशलिकः (त्रि ), 'सरल उपाय से भी होने योग्य कामको तीक्ष्ण ( कठोर ) उपाय से करनेवाले' का १ नाम है ] ॥
८ [ गेहेशूरः, गेहेनद ( गेहेन दिन ), पिण्डीशूरः ( ३ त्रि) 'घर में बहादुर बननेवाले' के ३ नाम है ] ॥
हो
९ | संस्कृतः व्युत्पन्नः प्रहतः, क्षुण्णः ( ४ त्रि), 'शास्त्रादिसे संस्कृत, व्युत्पन्न' के ६ नाम हैं ] ॥
अनुपदिन् । २ त्रि), 'खोज
१० (अन्वेष्टा ( =ष्ट्र ), अनुपदा ( ( अनुसन्धान ) करनेवाले' के २ नाम हैं ) ॥
91 ( føram:, femeie: ( ? la ), 'frær ( qaè ) duaid' à २ नाम हैं ) ।।
१२ [ हरिद्वारागक : (त्रि), 'अस्थिर ( कच्चे ) प्रेमवाले' का १ नाम है ] । १३ [ आसीन:, उपविष्टः ( २ त्रि), 'बैठे हुए' के २ नाम हैं ] ॥
'9
१४ [ उर्ध्वस्थः, ऊर्ध्वद्मः स्थितः ( ३ त्रि ) 'खड़े या ठहरे हुये' के ३ नाम हैं ] ॥
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विशेष्यनिम्नवर्गः.] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
४०५ १ उत्पश्य उन्मुख २ गृह्यः पक्षे (क्ष्ये) न्युजस्त्वधोमुख्ने' (१२) ४ क्षेपिष्ठमोविष्ठप्रेष्ठवरिष्ठस्थविष्ठबंहिष्ठाः ॥११॥
'क्षिप्रक्षुद्राभीप्सितपृथुपीपरबहुप्रकर्षार्थाः ।। ५ साधिष्ठद्राधिष्ठरस्फेष्ठगरिष्ठहसिष्ठवृन्दिष्ठाः ॥११२ ।
बाढण्यायतबहुगुरुषामनवृन्दारकातिशये । ६ "ग्राम्ये प्रामेयकग्रामीणा ७ श्वाच्छिन्नो बलाद्धृते (१३) ८ चोरिते मुषितं मुष्टं ९ स्थपुटं तु नतोन्नतम् (१४) १० उत्पाटितोन्मूलितार्थमुद्धृतं
[उरपश्यः, उन्मुखः (२ त्रि), 'उन्मुख' के २ नाम हैं ] ॥ २ [गृह्यः, पक्षः (+ पचयः । २ त्रि), 'पक्ष (तरफदार) के २ नाम हैं] ॥
३ [ न्बुब्जः, अधोमुखः (१ त्रि) 'कुबड़ा या नीचे मुख झुकाये हुए' के २ नाम हैं ] ॥
४ क्षेपिष्ठः, सादिष्ठः, प्रेष्ठः, वरिष्ठः, स्थविष्ठः, बंहिष्ठः, ( ६ त्रि), 'बहुत जल्द, बहुत खोटा या छोटा, बहुत प्रिय, बहुत बड़ा, बहुत मोटा,
और बहुत ज्यादा' का क्रमशः - नाम है ॥ __ ५ साधिष्ठः, द्राविष्ठः, स्फेष्ठः, गरिष्ठः, हृसिष्टः, वृदिष्ठः (६ त्रि), 'बहुत भला, बहुत लम्बा, बहुत स्थिर, बहुत भारी, बहुत छोटा और बहुत प्रधान' का मशः १-१ नाम है ॥
६ [ग्राम्या, ग्रामेयकः, प्रामीणः (१), 'देहाती' के ३ नाम हैं ] ॥
७ [आच्छिन्नः, बलातः (२ त्रि), बलपूर्वक (जबर्दस्ती से) पकड़े या छिने हुए' के ' नाम ] ॥
८ [चरितम् , मुषितम् , मुष्टम् (३ त्रि), 'चुराये हुए' के ३ नाम है ॥ ९ [ स्थपुटम् , न तोन्नतम् (१ त्रि), 'ऊँचेनीचे' के २ नाम है ॥ १. [उपारितम , उन्मूलितम् , उद्धतम् (३ न), 'उखाड़े हुप' के नाम है। १. 'बहुलप्रकर्षाः ' इति पाठान्तरम् । 'पीवर' इति पाठस्त्वयुक्तः चन्दोमङ्गात् । 'पौव' इति पाठे नान्तो युक्तः' इति मा० दी। परमत्रार्याछन्दसो लक्षणस्य सर्वथा सातु समन्वयेन च्छन्दोमनामावाच्चिन्स्येय मुक्तिः ।
२. 'ग्राम्ये..... स्फुटे" स्ययं क्षेपकांशः क्षी. स्वा. व्याख्यायो 'वाच्यं च-'ग्राम्ये... स्फुटे' इत्येवं मूत्रमात्रमुपलभ्यते। अस्य च प्रकृतोपयोगितयाऽयं मया मू क्षेपकरवेन स्थापितः।
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४०६
अमरकोषः।
[तृतीयकाण्ड
-१ बहिते वृढम् (१५) २ भाजितं निचितं ३ पूर्णे पूरितं ४ निभृते भृतम् (१६) ५ प्रतिश्रितं प्रविष्ट स्या ६ दमार्ग निरर्थक (१७) ७ न्यशितं. म्यादधःक्षिप्तं ८ दिसमूच मुश्चितम् (१८) ९ स्पष्टेऽचितं १० चतुर्थे तु तुमो तुय भास्थिते (१९)
आकारे श्लिष्टसंपृक्त: १२ स्नाचते छुतिभूषितो (२०) १३ प्रचर्चितं प्रतीष्टं १४ द्वेष्यामृष्य हिगताः समाः (२१) १५ श्यानं शीने
, [ बहितम् , वृढम् (२ त्रि), 'बढ़े हुए' के २ नाम हैं ] ॥ २ [ भाचितम् , निचितम् (२ त्रि), 'घटे हुए २ २ नाम हैं ] ॥ ३ [ पूर्णम् , पूरितम् (२ त्रि), 'पूरे हुए' के २ नाम हैं ] ॥ ४ [ निभृतम् , भृतम् (२ त्रि), 'वश में रहनेवाले' के नाम हैं ] ॥
५[५ प्रतिश्रितम् , प्रविष्टम् (२ त्रि), 'प्रवेश किये (घुसे) हुए के २ नाम हैं ॥]
६ [अन्तर्गहु, निरर्थकम् (२ त्रि), 'निरर्थक. बेमतलब' नाम हैं] ॥ ७ [ न्यश्चितम् , अधःक्षिप्तम् (१ त्रि), 'नीचे फेंके हुए' के २ नाम हैं] ॥ ८ [ उदखितम् (त्रि), 'उपर फेंके हुए' का । नाम है] ॥ २ [ स्पष्टम् , अषितम् (१ त्रि), 'स्पष्ट' के २ नाम हैं ] ॥ १. [ चतुर्थम् , तुरीयम् , तुर्यम् ( ३ त्रि), 'चौथे' के ३ नाम हैं ] ॥ "[श्लिष्टसंपृका (त्रि), 'स्थायी आकारवाले' का । नाम है ] ॥
१२ [ खचितः, छुरितः, भूषितः (३ त्रि), 'रत्न-जवाहिरात आदि से जड़े हुए भूषण आदि के ३ नाम हैं ] ॥
१३ [प्रचर्चितम् , प्रतीष्टम् (२ त्रि), 'चन्दनादि छिड़के हुए स्थान मादि' के २ नाम है ] ॥
"[ द्वेष्यः, अमृष्या, अक्षिगतः (३ त्रि), 'आँख में गड़े हुए, वैरी' के तीन नाम है ]
१५ [श्यानम्, सीनम् , (२ त्रि), 'जमे हुए घी आदि के २ नाम हैं।
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४०७
संकीर्णवर्गः २] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १- अन्धितेऽन्धोतं २ प्रकाशप्रकटौ स्फुटे (२२)
इति विशेष्यनिधन्वर्गः ॥ १ ॥
२ अथ संकीर्णवर्गः। ३ प्रकृतिप्रत्ययार्थाः संकाणे लिङ्गमुन्नयेत् ।
१ [ अन्वितम् , अन्वीतम् ( २ नि ), 'युक्त, सहित' के २ नाम हैं ] ॥ २ [प्रकाशः, प्रकटः, स्फुरः (३ त्रि), 'प्रकट, स्पष्ट' के ३ नाम हैं ] ।
इति विशेष्य निम्नवर्गः ॥ १॥
२ अथ संकीर्णवर्गः। ६ पूर्वोक्त शब्दों के आपसमें संकीर्ण होने (मिल जाने ) के भयसे पहले नहीं कहे हुए शब्दों के संग्रह के धास्ते 'प्रकृति-इस श्लोकसे द्वितीय 'संकीर्ण वर्ग' का प्रारम्भ करते हैं। संकीर्ण अर्थ और संकीर्ण लिमसे आरब्ध होने के कारण 'संकीर्णवर्ण' नाम के इस प्रकरण में प्रकृति , प्रत्यय २ भादि (आदिसे रूपभेद ३, साहचर्य ४, के अर्थका संग्रह है) से लिङ्गोको समझना चाहिये।' ("प्रत्येकके क्रमशः उदाहरण। २ला प्रकृत्यर्थ जैसे-अपरस्पराः (त्रि), इस उदाहरणमें 'परवल्लिङ्ग द्वन्द्वसत्पुरुषयोः' (पा० सू० २.४४४६) इस सूत्रसे पर (आगे) बाले शब्दके लिङ्गका अतिदेश होनेसे यहाँ ( अपरस्पर शब्दमें ) 'पर' शब्द के त्रिलिग होने के कारण अपरस्पर' शब्द भी त्रिलिङ्ग है। इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये । २रा प्रत्ययार्थजैसे---'शान्तिः, कृति, चितिः, विपत्तिः,....... (स्त्री), 'हसितम् , हसनम् , जहिपतम् , शयनम् ............ (४ न ), 'आकरः, रामः, सन्धिः ,........ (३ पु) इन
दाहरणों में 'स्त्रीलिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग और इंजिन' में चिन्, मादि प्रत्ययों के होनेसे ये शब्द भी क्रमशः स्त्रीलिङ्ग आदिमें प्रयुक्त होते हैं । इसी तरह अन्यान्य (९ रा रूपमेद और श्या साहचर्यके) वाहरणका भी स्वयं तक कर लेना चाहिये")
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४०८
अमरकोषः। [वृतीवकान१ कर्म किया २ तस्सातत्ये गम्ये स्युरपरस्पराः॥१॥ ३ साकल्यासाषचने 'पारायणतुरायणे। ५ यहच्छा स्वैरिता ५ हेतुशून्या वास्या विलक्षणम् ॥२॥ ६ शमथस्तु शमः शान्ति ७ दान्तिस्तु दमथो दमः। ८ अवदान कर्म वृत्तं
१कम ( = कर्मन् न ), विया (सी.), 'काम' के २ नाम हैं ।
१ अपरस्परम् (ले अर्थमें नपुं० और दूसरे अर्थ में त्रि.) 'लगातार काम होते रहना, और लगातार काम करनेवाला' इन दो अर्थों में है।
३ पारायणम् , तरायणम् (+परायणम् , +नि। २ न ), 'पूर्ण कथन (कहना, वक्तग्य) और प्रासनिक (जवसरके अनुकूल ) कथन' का क्रमशः 1-1 नाम हैं।
४ यहछा, स्वैरिता ( २ बो), 'स्वतन्त्रता के २ नाम है। ५ विलक्षणम् (न), "विचित्र' अर्थात् 'निष्कारण ठहरने' का । नाम है।
शर्मथः, शमः (२५), शान्तिः (बी), 'शान्ति' के तीन नाम हैं।
७ दान्तिः (बी), दमथः, दमः (२ पु) 'इन्द्रियोंको अपने वशमें करने के ३ नाम हैं ॥
४ अवदानम (+ अपदानम्), कर्मवृत्तम् (भा. दी० । २ न) 'बीते हुए काम, अच्छे काम' के २ नाम ॥
१. "परायणतुरायणे" इति "पारायणपरायणे" इति च पाठान्तरे ।। २. "स्वास्था" इति पाठान्तरम् ॥ ३. "अवदानं कर्म वृत्तं (कर्मवृत्तं)" इति "अपदानं-" इति च पाठान्तरे ॥
४. प्रथमाथे (क्रियासातस्ये)'अपरस्पर'शब्दस्य क्लीयस्वं यथा-'भपरस्परं गच्छन्ति लिया, पुरुषाः, कुलानिया द्वितीया (क्रियावां सातस्ये) 'अपरस्पर' शब्दस्य त्रिलिगर यथाअपरस्पराः खियः, अपरस्पराणि कुलानि, अपरस्परोऽन्वयः......." || ५. 'पारायण' शब्दस्य क्लीयस्वमात्रे यथा
"रत्नपारायणं नाम्ना लड्डूयं मम मैथिलि" इति महिः ५।८९ ॥ 'परायण' शब्दस्य त्रिलिगकरवे यथा"अथ मोहपरायणा सती विवशा कामवधूर्वियोषिता" इति कु० सं०४॥१॥
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संकीर्णवर्ग:२] मणिप्रभाव्याच्यासहितः ।
४०६ -१'काम्यदानं प्रधारणम् ॥ ३॥ २ घशक्रिया संवननं ३ मूलकर्म तु कार्मणम् । . विधूननं विधुवनं ५ तर्पणं प्रीणनावनम् ॥४॥ ६ पर्याप्तिः स्यात्परित्राणं हस्तवारणमित्यपि । ७ सेवनं सीवनं न्यूति ८ विंदरः स्फुटनं भिदा ॥ ५ ॥ ९ आक्रोशनमभीषङ्गः १० संवेदो वेदना न ना । ११ संमूर्छनमभिव्याप्तिः
। कायदानम् ( + कामदानम् ), अवारणम् ( + प्रचारणम् । २ न) 'मनचाहा' दान देने २ नाम हैं।
२ वशक्रिया (बी), संवननम् ( + संवपनम् , संवदनम् । न ) 'मन्त्र. मणि आदिसे वशमें करने के २ नाम हैं।
३ मूल कर्म ( = मूल कर्मन् , भा० दी.), कार्मणम् (२ न), 'जड़ी-बूटी आदिले उचाटन, मारण, मोहन आदि करने के २ नाम हैं ।
४ विधूननम् (+विधुननम), विधुवनम् (२.), 'कैंपाने' के २ नाम हैं। ५ तर्पणम् , प्रीणनम् , अवनम् ( ३ न ), 'तृप्त करने के ३ नाम हैं ।
६ पर्याप्तिः (स्त्री), परित्राणम् , हस्त वारणम् (+ हस्तधारणभ् । ३ न), 'मारने के लिये उद्यत ( तैयार )को रोकने के ३ नाम है ॥
७ सेवनम् ( + सेवः पु), सीवनम् ( २ न), स्यूतिः (सी), 'सिलाई करने के ३ नाम हैं।
८ विदरः (५), स्फुटनम् ( + स्फोटनम् । न ), भिदा (बी), 'फटने या अलग होने के ३ नाम हैं। ___९ आक्रोशनम् (न), अभीषङ्गः (+ अभिषङ्गः । पु), 'गाली या शाप देने के १ नाम है।
१० संवेदः (पु) वेदना ( सी न ), 'अनुभव' के १ नाम हैं।
18 संमूरछनम् ( न ), अभिव्याप्तिः ( छी), 'व्याप्त होने' अर्थात् 'चारों तरफसे बढ़ने या मर जाने के २ नाम हैं ॥
२. 'हस्तपारम्' इति पाठान्तरम् ।।
१. 'कामदानं' इति पाठान्तरम् । ३. 'सेवस्तु' इति पाठान्तरम् ।।
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४१०
अमरकोषः
[ तृतीयकावे-१ याच्या भिक्षाऽर्थनाऽर्दना ॥ ६ ॥ २ वर्धनं छेदने ३ ऽथ द्वे 'आनन्दलभाजने ।
आप्रच्छन्न ४ मथाम्नायः संप्रदायः ५ क्षये क्षिया ।। ७ ।। ६ ग्रहे ग्राहो ७ वशः कान्तौ ८ 'रास्त्राणे ९ रणः कणे। १० मधो बेधे ११ पचा पाके १९ हवो हूतौ १३ वरो वृतौ।। ८ १४ ओषः कोषे १५ नयो नाये-- , यात्रा, भिक्षा, अर्थना, अर्दना ( ४ स्त्री ), 'माँगने के ४ नाम हैं । २ वर्धनम् , छेदनम् , ( २ न ), 'काटने के २ नाम है ॥
३ भानन्दनम् ( + आमन्त्रणम् ), समाजनम् , आप्रच्छन्नम् ( ३ न ), 'मित्र या गुरुजन आदिके आनेपर अभ्युत्थान ( उठकर अगवानी), आलिङ्गन आदि और कुशल प्रश्न आदि द्वारा उनके सत्कार करने के ३ नाम हैं।
४ आम्नायः संपदायः (. पु), रिवाज, कुलक्रमागत (खान्दानी) रहन-सहन या गुरु-परम्परागत उपदेश आदि' के २ नाम हैं ।
५ क्षयः (पु), शिया (स्त्री), 'घटने या कम होने के २ नाम हैं ।। ६ ग्रहः, ग्राहः (२ पु), 'ग्रहण करने, लेने के २ नाम हैं । ७ वशः (पु), कान्तिः (स्त्री), 'चाहना इच्छा' के २ नाम हैं । ८ रणः (+रक्षा स्त्री), त्राणः ( २ पु), 'रक्षा' के २ नाम हैं । ९ रणः, कणः (८ पु), 'शब्द करने के २ नाम हैं ॥ १० व्यधः, वेधः, (२ पु), 'छेदने' के २ नाम हैं ॥ ११ पचा ( + पतिः । स्त्री). पाकः (पु), 'पकाने के २ नाम हैं । १२ हवः (पु), हूतिः (स्त्री), 'पुकारने या बुलाने के २ नाम हैं ।। १३ वरः (पु), वृतिः (स्त्री), 'घेरे या तप, सेवा आदिसे प्रसन्न होकर देवता, गुरु आदिके वरदान देने के २ नाम हैं ।
१४ ओषा, प्लोषः ( + प्रोषः । १ पु), 'दाह' के २ नाम हैं । ५५ नयः, नायः (२ पु), 'नीति' के २ नाम हैं। १. 'आमन्त्रणसभालने इति पाठान्तरम् । २. 'रक्ष' इत्यपपाठः' इति क्षी० स्था। ३. तथा च कास्यः-तपोमिरिष्यते यस्तु देवेभ्यः स वरो मतः' । रति ।
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संकीर्णवर्ग: २] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
४११ १-ज्यानिर्जीर्णो २ भ्रमो भ्रमौ। ३ स्फातिवृद्धौ ४ प्रथा ख्याती ५ स्पृष्टिः पृक्तौ ६ स्नवः सवे ॥९॥ १५ पधा समृद्धी ८ स्फुरणे स्फुरणा ९ प्रमिती प्रमा। १० प्रसूतिः प्रलवे ११ श्च्योत प्राधारः १२ कलमथः क्लमे ॥१०॥ १३ उत्कर्षोऽतिधये १४ सन्धिः श्लेषे १५ विषय आश्रये ।
, ज्यानिः, जोगिः, ( २ स्त्री), 'पुराना होने के २ नाम हैं ॥ २ भ्रमः (पु), भ्रमिः (स्त्री), 'भ्रमण करने के २ नाम हैं । ३ फातिः, वृद्धिः (२ स्त्री), 'बढने के नाम हैं।
प्रथा, ख्यातिः, (२ श्री), 'प्रसिद्धि के २ नाम हैं। ५ स्पृष्टिः, पृतिः (२ वी), 'स्पर्श करने के २ नाम है ॥ ६ स्नकः, स्नवा (पु), 'धीरे धीरे चूने' के २ नाम हैं । ७ एषा ( + विधा), समृद्धिः (२ स्त्री). 'बढ़ने के २ नाम हैं ।
८ स्फुरणम् ( + स्फुलनम, स्फोरणम, स्फारणम, स्फरस । न), स्कुरणा (स्त्री), 'फरकने के १ नाम हैं।
९ प्रमितिः, प्रमा ( ३ श्री), 'यथार्थ ज्ञान' के नाम हैं।
१० प्रसूतिः (स्त्री), प्रसवः (५), 'बच्चा जनने (पैदा करने ) के २ नाम हैं।
। श्च्योतः, प्राधारः (२), 'पानी भादिके धारासे चूने या बहने के २ नाम हैं।
१२ क्लमयः, क्लमः ( २ ), 'ग्लानि, खेद' के १ नाम है ॥
३ सत्कर्षः, अतिशयः (२५), 'उत्कर्ष, बड़ाई के २ नाम हैं। १४ सन्धिः , श्लेषः (१), 'जोड़, मेल' के नाम हैं ।
१५ विषयः, आश्रयः (+आशयः । पु), 'आश्रय, अवलम्ब' के १ नाम हैं।
१. विषा समृसौ' इति पाठान्तरम् ॥ ३. 'भाशये' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'कुमथुः' इत्यपपाठः' इति क्षी० स्वा०॥
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४१२
भमरकोषः। [तृतीयकाण्डे१ क्षिपायां क्षेपणं २ गीणिगिरी ३ 'गुरणमुघमे ॥ ११॥ ४ उन्नाय उन्नये ५ श्रायः श्रयणे ६ 'जयने जयः। ७ निगादो निगदे ८ मादो मद ९ उद्वेग उभ्रमे ॥ १२॥ १० विमर्दनं परिमलोऽ ११ भ्युपपत्तिरनुग्रहः। १२ 'निग्रहस्तद्विरुद्धः स्यात्
१ क्षिपा (स्त्री), क्षेण्णम् (न), 'प्रेरणा करने, चलाने या फेंकने के २ नाम हैं।
२ गीनि:, गिरिः ( २ स्त्री), 'निगलने' अर्थात् 'घोंटने के २ नाम है।
३ गुरणम् ( + गूरणम् , गोरणम् । न ), उद्यमः (पु), 'उद्यम, उद्योग' के २ नाम हैं।
४ उचायः, उन्नयः (२ पु), 'उन्नति या ऊहा' के २ नाम हैं । ५ श्रायः (पु), श्रयणम् (न), 'सेवा' के २ नाम हैं ।
६ जयनम (न), जयः (पु), 'जीत, विजय के २ नाम हैं। (बी. स्वा० सम्मत पाठभेदसे--- 'जपनम् (न), जपः (g), 'जप' के २ नाम हैं)।
७ निगाद, गदः ( २ पु), 'स्पष्ट कहने के २ नाम हैं । ८ मादः, मदः (६ पु), 'मद, हर्ष के २ नाम हैं । ९ उद्वेगः, उनमः ( २ पु), 'घबराहट' के १ नाम हैं ।
१० विमर्दनम् (न), परिमलः (पु), 'शरीरमें कुङ्कुम, चन्दन या उषटन आदिको लगाने के २ नाम हैं ।।
"अभ्युपपत्तिः (स्त्री), अनुग्रहः (पु) 'अनुग्रह' अर्थात् भलाई करने या बुराई से बचाने के २ नाम हैं ॥
१२ निग्रहः (पु), (+ निरोधः, भा० दी.), 'निग्रह' अर्थात् 'बुराई करने और भलाईसे बचाने (रोकने का नाम है । ('पाठभेदसे-"विग्रहः, विरोधः (२ पु), 'विरोध' (वैर) के २ नाम हैं")॥
२. 'गूरणमुघमे' इति पाठान्तरम् । २. 'जपने जपः' इति क्षी० स्वा० सम्मतं पाठान्तरम् ॥
३. अयं पाठो महे० सम्मतः । 'निप्रहस्तु विरोधः' इति क्षी० स्वा० पुस्तकपाठः, तत्र'-निरोध' इति पाठयम् । 'विग्रहो विरोधो वा' इति क्षी० स्वा० । 'निग्रहस्तु निरोष। इति मा० दी० पाठः समीचीनो माति ।।
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संकीर्णवर्ग २] मणिप्रभाव्याख्या सहितः ।
४१३.
-१ अभियोगस्त्वभिग्रहः ॥ १३ ॥
स्प्रष्टोपतप्तरि ॥ १४ ॥
२ मुष्टिबन्धस्तु संप्राहो ३ डिम्बे डमरविप्लपौ । I ४ बन्धनं' प्रसितिश्चारः ५ स्पर्शः ६ निकारो विप्रकारः स्या ७ दाकारस्त्विङ्ग इङ्गितम् । ८ परिणामो विकारो द्वे समे विकृतिविक्रिये ।। १५ ।। अपहारस्त्वपचयः १० समाहारः समुच्चयः ।
६
१ अभियोगः, अभिग्रहः (२ पु) 'युद्ध आदि में ललकारने 'के १ नाम हैं ॥ २ मुष्टिबन्धः, संग्राहः ( २ पु ) 'मुट्ठी बाँधने या प्रतिमल्ल आदिको पकड़ने' के २ नाम हैं ॥
३ डिम्बः, डमरः, हथियारों की लड़ाई' के हैं, उस 'लट्ठ' अर्थ में भी किया है ) ॥
४ बन्धनम् (न), प्रसितिः ( + प्रसृतिः । स्त्री ), चारः ( + स्वारः । पु) 'बन्धन' के ३ नाम हैं ॥
विप्लवः (३ पु ), 'प्रलय टूटना (डाका ), या नाम हैं । ( जिसे बालक रस्सी लपेटकर नचाते 'डिम्ब' शब्द का प्रयोग श्रीहर्षने नैषधचरितमें
५ स्पर्शः ( + स्पशः ), स्पा ( = स्पष्टृ ), उपतप्ता (= उपतप्तृ । ३ पु ), 'संतप्त या उपताप रोगसे पीड़ित' के ३ नाम है ॥
६ निकारः विकारः (पु), अपकार, बुराई' के २ नाम हैं ॥
७ आकारः, इङ्गः ( २ पु ), इङ्गितम् (न), 'मतलब के अनुसार चेष्टा' के ३ नाम हैं ॥
८ परिणामः विकारः ( २ पु ), विकृतिः, विक्रिया ( २ स्त्री ), 'विकार, स्वभाव के बदलने' नाम हैं ! ( 'किसी किसी के मत से २-२ शब्द
एकार्थक हैं' > ॥
९ अपहार, अपचयः ( २ पु ), 'छीन लेने या घटने' के २ नाम हैं ॥ १० साहाः, समुच्छ्रयः (२ पु), 'बटोरने इकट्ठा या ढेरी करने' के २ नाम हैं ॥
१. 'प्रसृतिः स्वारः स्पशः' इति पाठान्तरम् ॥
२. तद्यथा - 'बालेन नक्तं समयेन युक्तं रौप्यं लसड्डिम्बमिवेन्दुबिम्बम् ।'
इति नै० च० २२-५३
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४१४ अमरकोषः।
[तृतीयकाडे१ प्रत्याहार उपादानं २ विहारस्तु परिक्रमः ॥ १६॥ ३ अभिहारोऽभिग्रहणं ४ निर्हारोऽभ्यवर्षणम् । ५ अनुहारोऽनुकारः स्या ६ दर्थस्यापगमे व्ययः ।। १७ ।। ७ प्रवाहस्तु प्रवृत्तिः स्यात् ८ प्रवदो गमनं बहिः । ९ वियामो वियो यायो यमः संयामसंयमौ ॥ १८ ॥ १० हिंसाकर्माऽभिधास्याजागी जागरा द्वयोः।
प्रत्याहा (पु), उपादानम् (न ), 'इन्द्रियोको अपने (इन्द्रियोंक) विषयोंसे हटाकर वशीभूत करने के २ जाम हैं ।
२ विहारः, परिक्रमः (२ पु), 'पैदल टहलने' के नाम हैं ।
३ अभिहार: ( + अभ्याहारः । पु), अभिग्रहणम् (न), 'चुराने के २ नाम हैं। ___४ निहारः (पु), अभ्यवकर्षणम् (न) पर आदिमें चुभे (गड़े) हुए काँटे आदिको निकालने २ नाम हैं ॥
५ अनुहारः, अनुकारः (२ पु), 'अनुकरणम् ( नकल) करने के ।
६ व्ययः (पु), 'खर्च का , नाम है॥
• प्रवाहः (पु), प्रवृत्तिः (बी), 'पानी आदि तरल पदार्थों के निरन्तर बहने' के २ नाम हैं ।
८ प्रवहः (पु) 'जनादि के बाहर निकलने (बहने) के . नाम हैं ।
९ विधामः, वियमः, यामः, यमः, संयामः, संयमः (६ पु), 'संयम' अर्थात् 'योगके संयमनामक भङ्ग-विशेष' के ६ नाम हैं। (पी० स्वा० के मत से 'अनेक तरहके यम करने, उपरति (स्थाग) मात्र और संयम करने के क्रमशः २-२ नाम ')॥
१० हिंसाकर्म ( = हिंसाकर्मन् न । भा० दी.), अभिचारः (१), "हिंसा आदि करने के २ नाम हैं।
जागर्या ( +जानिया, जागतिः। सी), जागरा (बी पु), 'जागने
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संकीर्णवर्गः २]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
४१५
१ विघ्नोऽन्तरायः प्रत्यूहः २ स्यादुपनोऽन्तिकाश्रये ॥ १९ ॥ ३ निवेश उपभोगः स्यात् ४ परिसर्पः परिक्रिया | ५ विधुरं तु प्रविश्लेषे ६ ऽभिप्रायश्छन्द आशयः ॥ २० ॥ ७ संक्षेपणं समसनं ८ पर्यवस्था विरोधनम् । ९ परिचर्या परीसारः १० स्यादास्या त्यासना स्थितिः ॥ २१ ॥ ११ विस्तारो विग्रहो व्यासः १२ स व शब्दस्य विस्तरः । १३ 'संवादनं मर्दनं स्यादू
१ विघ्नः, अन्तरायः, प्रत्यूहः ( ३ पु ), विघ्न' के ३ नाम हैं | २ उपघ्नः, अन्तिकाश्रयः ( भा० दी० । २ पु ), 'समीप रहने आश्रय करने' के २ नाम हैं ॥
३ निर्देशः, उपभोगः ( २ पु ), 'उपभोग' के २ नाम हैं ॥
५ परिसर्प: (पु), परिक्रिया (स्त्री), 'परिवार आदि इष्टजनों से घिरे रहने' के ४ नाम हैं !
५ विधुरम् (न ), प्रविश्लेषः (पु), 'परिवार आदि इष्टजनों से अलग होने' के २ नाम हैं ॥
६ अभिप्रायः, छन्दः, आशयः ( ३ पु० ), 'आशय, भाव, मतलब' के ३ नाम हैं ॥
७ संक्षेपणम्, सम्सनम् ( २ न ), 'संक्षेप ( लाघव, थोड़ा हलका ) करने' के २ नाम हैं ॥
८ पर्यवस्था (स्त्री), विरोधनम् ( न ), 'विरोध करने' के २ नाम हैं ॥ ९ परिस (स्त्री), परीसारः ( + परिसारः । पु ), 'सब तरफ जाने' के २ नाम हैं ॥
१० आश्या, आसना, स्थितिः (३ स्त्री) 'टिकाव या स्थिति' के ३ नाम हैं ॥ ११ विस्तारः, विग्रहः व्यासः ( ३ पु ) 'फैलाव' के ३ नाम हैं ॥
१२ विस्तरः ( पु ), 'शब्द के फैलाव' का १ नाम है ॥
१३ संवाहनम् ( + संवहनम् ), मर्दनम् ( २ न ), 'शरीर को दबाने ' के २ नाम हैं ।
१. 'स्यान्मर्दनं संवहनम्' इति मा० दी० संमतं पाठान्तरम् ॥
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अमरकोषः ।
- १ विनाशः स्याददर्शनम् ॥ २२ ॥
२ संस्तवः स्यात्परिचयः ३ प्रसरस्तु विसर्पणम् । ४ नीवाकस्तु प्रयामः स्यात् ५ सन्निधिः सत्रिकर्षणम् ||२३|| ६ लवोऽभिलाषो लवने ७ निष्पावः पवने पवः ।
८
१०
४१६
प्रस्तावः स्यादवसर ९ स्त्रसरः सूत्रवेष्टनम् ॥ २४ ॥ प्रजनः स्यादुपसरः ११ प्रश्रयप्रणयौ समौ ।
[ तृतीयकाण्डे
१ विनाशः (पु), अदर्शनम् (न), 'अन्तर्धान होने या छिप जाने' के २ नाम हैं ॥
२ संस्तवः परिचय : ( २ पु ), 'परिचय' अर्थात् 'जान पहिचान' के २ नाम हैं ॥
३ प्रसरः (पु), विसर्पणम् ( न ), 'घाव (व्रण) आदि के थाला' ( फैलाव ) के २ नाम हैं ॥
४ नीवाकः, प्रयामः ( २ ), 'धान्य आदिको एकत्रित करने' के २ नाम हैं ।
५ सन्निधिः (पु), सत्रिकर्षणम् (न), 'पास, समीप करने' के २ नाम हैं ।
६ लवः, अभिष्टावः ( २ पु ), लवनम् ( न ) 'काटने' के ३ नाम हैं ॥ ७ निष्पावः (पु), पवनम् ( न ), पत्रः ( 5 ) 'धान आदि अन्नको ओसाने या सूप आदिले फटककर भूसा अलग करने' के ३ नाम हैं |
८ प्रस्तावः, अवसर: ( ३ पु ), 'अवसर' प्रसन, प्रस्ताव' के २ नाम हैं ॥
९ त्रसरः ( + तसरः । पु ) सूत्रवेष्टनम् (न ) ' कपड़ा बुननेके लिये जुलाहा आदी सून लपेटने ( ताना-पाई करने ) के २ नाम हैं ॥
१० प्रजनः, उपसरः ( २ पु ), 'पहली बार गर्भ धारण करने' के २ नाम है !!
११ प्रश्रयः ( + प्रसः ), प्रणयः ( २ पु ), 'प्रेम, प्रीति' के २ नाम हैं ॥
१. प्रसरप्रणयौ' इति पाठान्तरम् ॥
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संकीर्णवर्गः २]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः !
१ श्रीशक्तिर्निष्क्रमोऽस्त्री तु संकमो दुर्गसंवरः ॥ २५ ॥
३ प्रत्युत्क्रमः' प्रयोगार्थ ४ प्रक्रमः स्यादुपक्रमः । स्यादभ्यादानमुद्धात आरम्भः ६ संभ्रमस्त्वरा ॥ २६ ॥ ७ प्रतिबन्धः प्रतिष्टम्भः
१ धीशक्तिः (स्त्री), निष्क्रमः (पु), बुद्धि के सामर्थ्य' के २ नाम हैं । ( 'सुनने की इच्छा १, सुनना २, ग्रहण करता ३, धारण करना ( स्थिर अर्थात् याद रखना ) ४, ऊहा ( तर्क ) ५, अवरोह ६, विज्ञान ७, और तस्वज्ञान ८, 'ये ८ वुद्धिके गुण' हैं ' ) ॥
२ संक्रमः (पुन), दुर्गसंवरः ( + दुर्गसंचारः । पु), 'किलामै जाने, दुर्ग (किल्ला) के मार्ग' के २ नाम हैं ॥
३ प्रत्युत्क्रमः ( + प्रत्युत्क्रान्तिः स्त्री ) प्रयोगार्थः ( + प्रयुद्धार्थः । 'प्रयोग' ( + प्रयुद्ध ) के पर्यायवाचक सब शब्द । २), 'कार्यारम्भमें पहली बार प्रयोग करने या युद्धके लिये अच्छी तरह उद्योग करने' के २ नाम हैं ॥
४ प्रक्रमः, उपक्रमः (२ पु), 'पहली बार आरम्भ करने' के २ नाम हैं ॥ ५ त्रभ्यादानम् ( न ), उद्घातः ( + उपोद्घातः ), आरम्भ: ( १ पु ), 'आरम्भमान' के ३ नाम हैं । ( 'भा० दो० के मतले 'प्रक्रमः,' 'आरम्भ' के ही हैं' ) ॥
६ नाम
६ संभ्रमः (पु), स्वरा ( + श्वरिः । स्त्री ), 'शीघ्रता, जल्दीबाजी' के २ नाम हैं ।
१. 'प्रयुद्धार्थः' इति पाठान्तरम् ॥
२. तदुक्तम्- 'शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा ।
४१७
७ प्रतिबन्धः, प्रतिष्टम्भः (१), 'कार्य आदिमें रुकावट पड़ने' के २ नाम है ॥
......
ऊहापोहौ च विज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणाः ॥ १ ॥ इति ॥
३. 'उपोद्घात 'लक्षणं यथा
'चिन्त प्रकृतिसिद्धार्थापोद्धातः प्रचक्षते' ॥ इति ॥
२७ अ० Jain Education international
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४१८ अमरकोषः ।
[तृतीयकाण्डे -१ अवनायस्तु ' निपातनम् । २ उपलम्भस्त्वनुभवः ३ समालम्भा विलेपनम् ।। २७॥ ४ विप्रलम्भो विप्रयोगो ५ बिस्तम्भस्त्वतिसर्जनम् । ६ विश्रावस्तु प्रतिख्यातिऽरवेक्षा प्रतिजागरः ।। २८ ॥ ८ निपाठनिपठौ पाठे ९ तेमस्तेमौ समुन्दने । १० आदीनवानवौ क्लेशे ११ मेलके सनसङ्गमौ ॥ २९ ॥ १२ संवीक्षण विचयन मागणं मृगणा मृगः ।
१ अवनायः (पु), निपातनम् ( + नियातनम् । न ), 'नाचे झुकने' के २ नाम हैं।
२ उपलम्भः, अनुभवः (२पु), 'अनुभव प्राप्ति के २ नाम हैं ।
३ समालम्भः (पु), विलेपनम् (न), 'चन्दन आदि लपेटने के २ नाम हैं।
४ विप्रलम्मा, विप्रयोगः ( २ पु), 'अलग होने के २ नाम हैं । ५ विलम्मः (पु), अतिसर्जनम् (न), 'बहत देने के २ नाम हैं।
६ विश्रावः (पु), प्रतिस्यातिः ( + प्रविख्यातिः । सी ), 'बहुत प्रसिद्धि' के २ नाम हैं।
७ अवेता (स्त्री), प्रतिजागरः (पु), 'किसी वस्तु आदिकी निगरानी ( देखभाल ) करने' के २ नाम हैं ।
८ निपाठः, निपठः, पाठः ( ३ त्रि), 'पढ़ने के ३ नाम है ॥
९ तेमः, स्तेमः ( २ पु), समुन्दनम् ( न ), 'पानी आदिसे भीगने' के ३ नाम हैं।
१० आदीनवः, मानवः (+आश्रयः), क्लेशः (३ पु), 'दुःख' के ३ नाम हैं। ११ मेलकः ( + मेल:), सङ्गः, सङ्गमः (१ पु), 'मेल, मिलाप' के ३ नाम हैं।
१२ संवीक्षणम् ( + अन्वीक्षणम् , अन्वेषणम् , गवेषणम् ), विचयनम् , मार्गणम् ( ३ न), मृगणा (+मृगया । स्त्री), मृगः (पु), 'दूढ़ने, बोजने' के ५ नाम है ॥ १. 'नियातनम्' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'अन्वीक्षणमन्वेषणम्' इत्येके पेठुः' इति क्षी०स्वा० ॥
३. 'मृगया' इति मुकुटः॥
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संकीर्णवर्गः १) मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
४१६ १ परिरम्भः परिग्वनः संश्लेष उपगृहनम् ॥ ३० ॥ २ निर्णनं तु निध्यानं' दशनालोकनेक्षणम् । ३ प्रत्याख्यानं निरसनं प्रत्यादेशो निराकृतिः ॥ ३१ ॥ ४ उपशायो विशायश्च पर्यायशयनार्थको । ५ अतनं च ऋताया च हृणीया च घृणार्थकाः ॥ ४२ ॥ ६ स्याद्वयत्यासो विपर्यासो व्यत्ययध विपर्यये। ७ पर्ययोऽतिकमस्तास्मन्नातपात उपात्ययः ॥ ३३ ॥ ८ प्रषणं यत्समाहूय तत्र स्यात्प्रातशासनम् ।
२ परिरम्भः (+परीरम्भः ), परिश्वतः, सश्लेषः (३ पु), उपगृहनम् (न), 'मालिङ्गान करने या लिपटने' के ४ नाम हैं।
निवर्णनम् , निध्यानम् , दर्शनम् , आलोकनम् , ईक्षणम् (+ मालोकनसमम् । ५ न), 'देखने के ५ नाम हैं ।
३ प्रत्याख्यानम् , निरसनम् (२ न), प्रत्यादेशः (पु), निराकृतिः (स्त्री), 'मना करने के ४ नाम हैं ।
४ उपशायः, विशायः (२ पु), 'पहरेदार आदिके पारी २ से सोने' के नाम हैं।
५ अर्तनम् (न), ऋतीया, हृणीया ( + हृणिया), घृणा (१ स्त्री), 'घृणा' के ४ नाम हैं ॥
व्यत्यासः विपर्यासः व्यत्ययः, विपर्ययः ( + विपर्यायः । ४ पु), 'उलटा, कमरहित' के ४ नाम हैं ।
७ पर्ययः, अतिकमः, अनिपातः, उपास्य यः (४ त्रि), 'अतिकम' (क्रम को छोड़कर भागे बढ़ने )' के ४ नाम हैं ॥
८ प्रतिशासनम् ( न ), 'नौकर आदिको बुलाकर कहीं भेजने या किसी काममें लगाने का । नाम है ॥
१. दर्शनाकोकलक्षणम्' इत्यपि पाठः' इति महे ॥
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४२०
अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे
१ स संस्तावः क्रतुषु या स्तुतिभूमिर्दिजन्मनाम् ।। ३४॥
निधाय तक्ष्यते यत्र काष्ठे काष्ठं स उद्धनः । ३ स्तम्बघ्नस्तु स्तम्बघनः स्तम्बो येन निहन्यते ॥ ३५॥ ४ आविधो विध्यते येन तत्र ५ विष्वक्समे निघः । ६ उत्कारश्च निकारश्च द्वौ धान्योत्क्षेपणार्थको ॥ ३६ ।। ७ निगारोगारविक्षावोद्ग्राहास्तु गरणादिषु । ८ आरत्यवरति विरतय उपरामे९ऽथास्त्रियां तु निष्ठेवः॥ ३७॥
निष्ठयतिनिठेवनं निष्ठीवनमित्यभिन्नानि ।
. संस्तावः (पु), 'यज्ञमें ब्राह्मणोंकी स्तुति करनेके लिये नियत स्थान-विशेष' का नाम है।
२ उदनः (पु), 'ठेहा' अर्थात् 'जिस लकड़ीपर रखकर दूसरी लकड़ी छीलते हैं उस नीचेवाली लकड़ी' का नाम हैं ।
३ स्तम्बम्नः, स्तम्बधनः (पु), 'घास काटने के हथियार खुरपा आदि, या तीनीके धानको झटका देकर झाड़नेके लिये बाँस या छड़ीमें बाँधे हुए दौरी आदि बर्तन' के २ नाम हैं ।
४ आविध: (पु), 'वर्मा' का नाम है ॥
५ निघः (पु), 'सब तरफ से एक समान जमे या लगाये हुए पेड़ मादि' का नाम है।
कारः, निकारः (२ पु), 'धान आदि अन्नको ओसाने या फटकने' के २ नाम हैं ।
७ निगार, उद्गार, विक्षावः, उग्राहः (४ पु), निगलने' (घोंटने ), वमन ( उल्टी, कय ) करने, छींकने और डकारने' का क्रमशः 1-1 नाम है।
८ भारतिः, भवरतिः, विरतिः ( ३ स्त्री), उपरामः (पु), 'रुकने के
. ९ निष्ठेवः (पुन ), निष्ठयतिः (स्त्री), निष्ठेवनम्, निष्ठीवनम् (न), 'थूकने के नाम हैं।
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संकीर्णवर्गः २]
मणिप्रभाव्याख्या सहितः ।
४२१
१ जवने जूतिः २ सातिस्त्ववसाने स्या३दथ ज्वरे जूर्तिः ॥ ३८ ॥
पशुप्रेरण५मकरणिरित्यादयः
शापे ।
वृन्दमित्यौपगवकादिकम् ॥ ३८ ॥
४ उद्जस्तु ६ गोत्रान्तेभ्यस्तस्य
७ आपूपिकं
शाकुलिकमेवमाद्यमचेतसाम् |
८ माणवानां तु माणव्यं ६ सहायानां सहायता ॥ ४० ॥ हल्या दलानां ११ ब्राह्मण्यवाडव्ये तु द्विजन्मनाम् । १२ द्वे पर्शुकानां पृष्ठानां पार्श्व पृष्ठयमनुक्रमात् ॥ ४१ ॥
१ जवनम् ( न ), जूतिः (स्त्री), 'वेग' के १ नाम हैं ॥
२ सातिः (स्त्री), अवसानम् (न), 'समाप्ति, अन्त' के २ नाम हैं ॥ ३ ज्वरः ( पु ), जूर्तिः (स्त्री), 'ज्वर, बुखार' के २ नाम हैं ।
४ उजः (पु), पशुप्रेरणम् ( भा० दी०, न ), पशुओंको हाँकने ललकारने या किसी तरह प्रेरणा करने' के २ नाम हैं ॥
५ अकरणि: ( स्त्री ), आदि ( ' आदि से अजननिः, स्त्री; अवग्राहः, निग्राहः २पु, ), 'शाप देने' का १ नाम है ॥
***...*
६ औपगवकम् (न), आदि ( 'आदि से गार्गकम्, दाचकम्, 'औपगव 'उपगु' के गोत्र में उत्पन्न आदि' ( आदिले 'गार्ग्य,
२ न
दाचि ) के समूह' का १ नाम है ॥
७ आपूपिकम् शाकुलिकम् ( २ न ), आदि ( आदिले 'सातुकम्
,
9
चाणकम् २ न '), 'पूआ, पुड़ी आदि ( आदि से 'सत्तू, चना"") के समूह (ढेरी )' का १–१ नाम है ॥
८ माणव्यम् ( न ), 'लड़कों के झुण्ड' का १ नाम है ॥ ९ सहायता ( स्त्रो ), 'सहायोंके झुण्ड' का १ नाम है ॥
१० क्या (श्री), 'इलोके समूह' का १ नाम है ॥
११ ब्राह्मण्यम्, वाढव्यम् ( २ न ). 'ब्राह्मणों के झुण्ड' के २ नाम हैं ॥ १२ पार्श्वम्, पृष्ठयम् (२ न ), 'पशुओं ( पँजदीकी हड्डियों ) और पीठोंके समूह' का क्रमशः १–१ नाम है । ( इन दोनों का यज्ञमें स्मरण होता है अत एव ये दोनों यज्ञ-विषयक हैं' ) ।
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५२२
अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे
खलानां खलिनी स्वल्याप्यरथ मानुप्यकं नृणाम् । ग्रामता जनता धूम्या पाश्या गल्पा पृथक्पृथक् ॥ ४२ ॥ अपि. साहस्रकारोषवार्मणाथर्वणादिकम् ।
इति संकीर्णवर्गः ॥ २॥
३. अथ नानार्थवर्गः। ३ नानार्थाः केऽपि कान्तादिवर्गेष्वेवान कीर्तिता ।
भूरि प्रयोगा ये येषु पर्यायेष्यपि तेषु ते ॥१॥ , खलिनी, खल्या ( २ स्त्री ), 'स्खलिहानके समूह के नाम हैं।
२ मानुष्यकम् , ग्रामता, जनता, धूम्या, पाश्या, गल्या (५ स्त्री), 'साह. सम् , कारीषम् , वार्मणम् , पाथवर्णम् (शे० ५ न ), आदि (आदिसे 'चार्मणम् , आङ्गारम , ..... ), 'मनुष्य, ग्राम, जन, धूम, पाश (जाल ), बड़ा काश, हजार, कडरा ( उपला या गोहरा), कवचधारा, अथर्वण, मादि (मादिसे चमड़ा, अङ्गार,... ), इनके समूह' का क्रमशः १-१ नाम है।
इति संकीर्णवर्गः ॥३॥
३. अथ नानार्थवर्गः। ३ वश्यमाण (भागे कहे जानेवाले ) इस कान्तादि (बादिसे-खान्त गान्त, बान्त,.......... ) वर्ग में अनेक अर्थवाले भी कई शब्द कहे गये हैं जो पहले पायों में नहीं कहे गये हैं और पण्डित-जनोंने काव्य-पुराण आदि प्रमों में 'पृथुक, गरुमत् , रजस्' आदि जिन शब्दों का बहुधा प्रयोग किया है वे (शुक, गहस्मत, रजस् मादि) शब्द पहले स्वर्गवर्ग आदिके पर्यायों में तथा यहाँ भी कहे गये हैं। (जैसे-पृथुक शब्द 'पोतः पाकोऽर्भको डिम्मा पृथुका शावकः विद्यः' (२५) यहाँ 'बालक' अर्थमें और 'पृथुकः स्थाश्चिपिटक:' (A ) वहाँ 'पिका' अर्थ में कहे जानेपर भी इस नानार्थवर्गमें 'पृथुक.
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४२३
नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
अथ कान्ताः शब्दाः। १ आकाशे त्रिदिवे नाको २ लोकस्तु भुवने जने।
चिपिटाभको' ( ३३॥३) उक्त दोनों (बालक और चिउड़ा) अर्थों में फिर कहा गया; 'गरुत्मत्' शब्द 'गरुत्मान्' गरुढस्ताचर्यो -' ( २९) यहाँ 'गरुड़ अर्थमें और '-नीहोद्भवा गरुत्मन्तो पिस्सन्तो नभसङ्गमाः' (२।५। ३४ ) यहाँ 'पक्षी' अर्थ में कहे जानेपर भी इस नानार्थवर्गमें 'पक्षिताच्यौं गरुत्मन्तौ ( ३।११५८) उक्त दोलों ( पक्षी और गरुड़) अर्थों में फिर कहा गया; 'तमस्' शब्द 'तमस्तु' राहुः वर्भानु:--' (१।३।२६) यहां 'राहु' अर्थमें. 'गुणाः सत्वं रजस्तमः' (११५।२९) यहाँ 'सत्त्वादि गुण' अर्थमें और 'अन्धकारोऽस्त्रियां धान्तं तमित्रं तिमिरं तमः' (१ ) यहाँ 'अन्धकार' अर्थमें कहे जाने पर भी इस नानार्थवर्गमें 'राहो ध्वान्ते गुणे तमः' ( ३॥॥२३॥) उक्त तीनों (राहु, सस्वादि गुण और अन्धकार ) अर्थों में पुनः कहा गया। इसी तरह विद्वान् जन अन्यान्य उदाहरणों का भी तर्क कर लें)। पद्यपि 'जम्बुक' शब्दके क्रमशः 'स्यार, वरुण' और 'बालिश' शब्द 'मूर्ख, बालक' ये २-२ अर्थ हैं तथापि इन्हें पण्डित-जनोंने क्रमशः 'स्यार और मूर्ख इन्हीं 1-1 अर्थों में उक्त (जम्बुक और बालिश) शब्दोंका प्रयोग किया है, अन्य दो (वरुण और बालक) अर्थों में नहीं, मत एक ग्रन्थकारने भो वैसा ही किया है (अर्थात् जैसे-'जम्बुक' शब्दको 'सृगालवशककोष्टुफेरुफेरव. जम्बुकाः (१५।५) यहाँपर 'स्यार' अर्थ में कहकर इस नानार्थवर्गमें जम्बुको क्रोष्टुवरुणौ' ( ३) 'स्यार और वरुण' दोनों अर्थों में कहा है। इसी तरह 'बालिश' शब्दको भी 'अज्ञे मूड़यथाजातमूर्खवैधेयबालिशाः' ( ३।९।४८) यहाँ 'मूर्ख' अर्थमें कहकर इस नानाथवर्गमें 'शिशावशे च बालिश' (३॥
१८) 'मूर्ख और बालक' दोनों अर्थों में कहा है। इसी तरह अन्यान्य उदाहरणों का तर्क करना चाहिये' )।
अथ कान्ताः शब्दाः । , 'नाका' (पु) के स्वर्ग, आकाश, २ अर्थ हैं। १ 'लोक' (पु) भुवन (संसार), जन, एअर्थ हैं।
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४२४ अमरकोषः ।
[ तृतीयकाण्डे१ पद्ये यशसि च श्लोकः २ शरे खड़गेच सायकः ॥ २॥ ३ जम्बुको कोष्टघरुणी ४ पृथुको चिण्टिाको । ५ 'आलोको दर्शनद्योती ६ भेरीपटहमानको ॥ ३ ॥ ७ उत्सङ्गचिह्नयोरङ्कः ८ कलकोऽङ्कापवादयोः । ६ तक्षको नागवर्धक्यो१०रर्कः स्फटिकसूर्ययोः ।। ४ ११ मारुते वेसि ब्रध्ने पुंलि कः कं शिरोम्बुनोः । १२ स्थात्पुलाकस्तुच्छधान्ये संक्षेपे भक्तसिक्थके।। ५ ।। १३ उलूके करिणः पुच्छमूलोपान्ते च पेचकः । १४ कमण्डलौ च चरकः, श्लोकः' (पु) के पथ, यश, २ अर्थ हैं। २ 'सायक' (पु) के बाण, तलवार, २ अर्थ हैं ॥ ३ 'जम्बुक: (पु) के स्यार, वरुण, २ अर्थ हैं। . 'पृथुकः' (पु) के चितड़ा, बालक, २ अर्थ है ॥ ५ 'आलोक' (पु) के दर्शन ( देखना ), प्रकाश, १ अर्थ हैं ।
'मानक: (+माणकः । पु) के भेरी, नगादा, १ अर्थ हैं। ७ 'अङ्क' (पु) के उत्सा (कोड, गोदी), चित, २ अर्थ हैं।
'कलकु (पु) के चिह लान्छन, र अर्थ है॥ ९ 'तक्षक' (पु), 'तपक' नामका सर्प, बढ़ई २ अर्थ हैं।
१. 'मर्कः' (पु) के स्फटिक मणि, सूर्य, मदार या एकवन ( आक नामक पौधा ), ३ अर्थ है ॥
"'क' (पु) के हवा, ब्रह्मा, सूर्य, ३ अर्थ; 'कम्' (न ) के शिर, पानी, १ अर्थ हैं।
१२ 'पुलाकर (पु)के तीनो (नीवार ) धान या धानकी भूसी, संक्षेप, बा (भात) का अवयव, . अर्थ हैं।
'पेचक (पु) के उल्लू, हाथीकी पूंछ की पर (मांस-पिण्डविशेष), १ अर्थ हैं।
१४ करक' (पु)के कमण्डलु, बौरी ( मोला), अर्थ हैं। 'भागेको नयोती मेरीपटइमाणको' इति पाठान्तरम् ॥
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नानार्थवर्ग : ३ ]
-१ सुगते च विनायकः ॥ ६ ॥
२ किष्कुर्हस्ते वितस्तौ च ३ शूककीटे च वृश्चिकः । ४ प्रतिकूले प्रतीक स्त्रिष्वेकदेशे तु पुंस्ययम् ॥ ७ ॥ ५ स्यादुभूतिकं तु भूनिम्बे कतृणे भूस्तृणेऽपि च । ६ ज्योतिस्तकायां च घोषे च कोशातक्यथ ७ कट्फले ॥ ८ ॥ सिते च खदिरे सोमवल्कः स्या ८ दथ सिद्धके । तिलकल्के च पिण्याको ९ बाह्निकं रामठेऽपि च ॥ ९ ॥ १० महेन्द्रगुग्गुलूलू कव्यालग्राहिषु कौशिकः ।
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
११ रुक्तापशङ्कास्वातङ्कः १२ स्वल्पेऽपि क्षुल्लकस्त्रिषु ॥ १० ॥ १३ जैवातृकः शशाङ्केऽपि -
४२५
● 'विनायकः' (पु) के बुद्धदेव, गणेश, गरुद, गुरु, विघ्न, ५ अर्थ है ॥ १ 'किष्कुः' (पु) के हाथभर, वित्ताभर ( प्रमाण-विशेष ), २ अर्थ हैं ॥ ३ ' वृश्चिकः' (पु) के बिच्छू, आठवीं राशि ( लग्न ), भौंरा केकड़ा, ओषधि-विशेष, ५ अर्थ हैं ॥
● 'प्रतीक' (त्रि ) का प्रतिकूल, १ अर्थ और 'प्रतीकः' (पु) का wana ( fgtar ), i mat 11
५ 'भूतिकम्' (न) के चिरायता, 'रोहिस' नामक घास, भूतृण, १ अर्थ हैं ॥ ६ 'कोशातकी' (स्त्री) के चिचिढ़ा, तरोई या परवल, २ अर्थ हैं ॥
७ ' सोमवल्कः' ( पु ) के कायफल, दुधिया ( सफेद ) खैर २ अर्थ है ॥ ८ ' पिण्याकः' (पु) के लोहबान, तिलकी खली, २ अर्थ है ॥ ९'बाहिकम्' (+ बाह्रीकम् । न) के हींग, बाह्रीक देश का ( काबुली ) घोड़ा, कुंकुम, ३ अर्थ हैं ॥
१० 'कौशिकः' (पु) के इन्द्र, गुग्गुलु, उल्लू पक्षी, रुँपेरा, ४ अर्थ हैं ॥ ११ 'आतङ्कः' (पु) के रोग, ताप, शङ्का, मुरज बाजेका शब्द, ४ अर्थ हैं। १२ 'क्षुल्लकः' (त्रि ) के क्षुद्र, नीच, जैनसम्प्रदायका तपस्वि - विशेष, २ अर्थ हैं ॥
१३ 'जैवातृकः' (पु) का चन्द्रमा, १ अर्थ और 'जैवातृकः' (त्रि ) के आयुष्मान् ( चिरजीवी ), कृश, भेषज, ३ अर्थ हैं ॥
१. 'बाह्रोकम्' इति पाठान्तरम् ॥
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४२६
अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे
~१ खुरेऽव्यश्वस्य वर्तकः ! २ व्याघ्रऽपि पुण्टीको ना ३ यधान्यामपि दापकः ।। ११ ।। ४ शालावृशाः कपिझोष्टुश्वान: मणेऽपि गैरिकम् । ६ पाडार्थेऽपि व्यताक स्या ७ दलाक त्वप्रियेऽनृते ।। १२ ।। ८ शालान्वयाननूके ये ९ शल्के शकलवल्कले।
साधे शते सुवर्णा हेम्न्युगेभूषणे पले ।। १३ ।। दीनारेऽपि च निष्कोऽस्त्री११कल्कोऽस्त्रीशमलंनसोः । दभ्येऽप्य१२थ पिनाकोऽम्त्री शूलशङ्करधन्धनोः ।। १४ ।।
, 'वर्तकः' (पु) के सुम (घोड़े का खुर), 'वत्तक' नामका पक्षी, २ अर्थ हैं।
२ 'पुण्डरीक:'(पु) के बाघ, भाग, दिग्गज, ३ अर्थ और 'पुण्डरीकम्' (म) के सफेद छाता, औषध-विशेष, श्वेत कमल, ३ अर्थ हैं ।
३ 'दीपकः' ( + दीप्यकः । पु) के अजमोदा जवाइन, मोरशिखा, चिराग, ३ अर्थ और 'दीपकम्' (न) का दीपकालकार, , अर्थ है ॥
४ 'शालावृकः' (+मालावृकः । पु) के बन्दर, स्यार, कुत्ता, ३ अर्थ हैं।
५ 'गैरिकम् (न) के सुवर्ण (सोना), गेरू (एक प्रकारका धातुविशेष), १ अर्थ हैं।
६ 'यलीकम् (न) के पीडा, वैलचय, २ अर्थ हैं। ७ 'अलीकम्' (न) के अप्रिय, झूठ ( असत्य), ललाट, ३ अर्थ हैं। ८ 'अनूकम्' (न) के शील, वंश, १ अर्थ हैं । २ 'शल्कम् (न) के खण्ड (टुकड़ा या हिस्सा ), छिलका २ अर्थ हैं ।।
1. 'निष्कः' (पु न ) के १०८ अशर्फी सोने का बना हुआ छातीका भूषण (चन्द्रहार, सिकड़ी, हलका आदि) सोने का पल ( ४ भरी सोना), मोहर, (अशर्फी), ४ अर्थ हैं ।
" 'कल्कः ' (पु न ) के मैला (विट), पाप, दम्भ, ३ अर्थ हैं ।
११'पिनाक' (पु न ) के शङ्करजीका त्रिशूल, शङ्करजीका धनुष, धूलि. की वर्षा, ३ अर्थ हैं ॥
१. 'सालाकाः' इति पाठान्तरम् ।।
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नानार्थवर्ग:३] मणिप्रभाष्याख्यासहितः।
४२७ १ धेनुका तु करेण्यां च २ मेघजाले च कालिका । ३ कारिका' यातनावृत्याः ४ कणिका कर्णभूषणे ॥ १५॥
कारहरलेला पनबीजकोश्या ५ त्रिघूत्तरे।
वृन्दारको रूपिमुख्याध्वेके मुख्यान्यकेवलाः ॥ १६ ॥ ७ स्याहाम्भिकः कोकटिको यश्चादूरेरितक्षणः।
८ लालाटिकः प्रभोर्भालदर्शी कार्याक्षमश्च यः ॥ १७ ॥ wwwrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
१ 'धेनुका' (स्त्री) के हथिनी, नथी ब्याई हुई गाय, १ भर्य और 'धेनुकः' ( ) का दान विशेष, , अर्थ है ।
१ 'कालिका' (स्त्री) के मेघजाल (बरसाती समय, मेघ समूह, नया मेघ), या स्वर्ण आदिका दोष (कालिमा), सुरा ( मदिरा ), काली देवी, ४ अर्थ हैं ।
'कारिका' (स्त्री) के यातना (बहुत बुरी तरहसे कष्ट भोगना), कारिका (जैसे-मुकावली, वाक्यपदीय, साहित्य वर्पण आदिमें ), नटरी, कृति, नापितादिका कर्म (हजामत आदि), ५ अर्थ हैं।
४ 'कर्णिका' (स्त्री) के कानका भूषण ( कनफूल, ऐरन, आदि) हाथीकी सूक, हाथके बीचकी चंगुलि, कमलका छत्सा (जिसमें कमलगटे रहते है), अर्थ हैं।
५ 'वृन्दारकः' (त्रि) के मनोहर या अनेक रूप धारण करनेवाला मायावी, श्रेष्ठ, देवता, ६ अर्थ हैं ।
'एक' (नि) के प्रधान, दूसरा, केवल (सिर्फ), पहला अक, १ अर्थ हैं।
'कौकुटिकः' (त्रि) के दम्भ करनेवाला, पाससे चेष्टा आदिको देखनेवाला, २ अर्थ हैं।
'लालाटिक' (नि) के स्वामीके ललाट ( + भाव ) को देखनेवाला (इसलिये कि स्वामी क्या आज्ञा देते हैं, स्वामीका मेरे ऊपर कैसा भाव है,..) भृत्य, काम करने में असमर्थ, २ अर्थ हैं
१. यातनाकृरयोः' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'प्रमोमविदशी' इति पाठान्तरम् ।।
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४२८
अमरकोषः
(तृतीयकाण्डे
१ "भूभृनितम्बवलयचकेषु कटकोटस्त्रियाम् ( २३) २ सूच्यग्रे क्षुद्रशत्रौ च रोमहर्षे च कण्टकः (२४) ३ पाको पक्तिशिशु मध्यरत्ने नेतरि नायकः ( २५) ५ पर्यः स्यात्परिकरे६ स्याव्यानेऽपि च लुब्धकः (२६) ७ पेटकस्त्रिषु वृन्देऽपिटगुरौ देश्ये च देशिकः ( २७) ९ खेटको प्रामफलकौन्धीवरेऽपि च जालिकः (२८)
['कटकः' (पु न ) के पहाड़ के बीचका भाग, कङ्कग ( कँगना), चक्र, ३ अर्थ है ]॥
२ ['कण्टक:' (त्रि) के सूई, कोटा या हँड आदिका नोक (आगेवाला हिस्सा), जुद्र (छोटा) बैरी, रोमाञ्च (रोआका खड़ा होना ), ३ अर्थ हैं ] ॥
३['पाकः' (पु) के पकाना, बालक, २ अर्थ हैं ] ॥
४ [ 'नायकः' (पु) के मालाके बीचवाली मनियाँ ( सुमेरु), नेता (किसी कामके आगे चलनेवाला मुखिया आदि), २ अर्थ हैं ] ॥
५ ['पर्यत:' (पु) के परिकर (नौकर आदि बास्मीय जन ), पछङ्ग या मचान, २ अर्थ हैं ] ॥
['लुब्धकः' (नि) के बाध, लोभी, २ अर्थ हैं ] ॥ ७ ['पेटकः' (नि) के समूह, पिटारी (बकस, झपोली मादि), अर्थ हैं] ॥
८ [ 'देशिकः' (त्रि) के गुरु, देशमें होने वाला पदार्थ (जैसेदेशिकं वासः, देशिका, पुत्तलिका, देशिकोऽश्वः, ....... ), २ अर्थ हैं ] ॥
९ [ 'खेटक' (त्रि) के ग्राम, ढाल, २ अर्थ हैं ] ॥
१. ['जालिकः' (त्रि) के मल्लाह, ग्रामज अलि, जाल की वृत्तिसे जीविका करनेवाला, ३ अर्थ है ] ॥
१. 'भूभृन्नितम्ब..."दाश्मदारणो' इत्ययं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यानेऽमरविवेकपुस्तके च मूलमात्रमुपलभ्यते । 'मृद्भाण्डे "द्रवके' (पृ० ४२९) इत्येष क्षेपकांशश्च क्षी० स्वा० व्याख्यायामेवोपलभ्यत इत्यतोऽयमप्यंश क्षेपकरूपेणैव मया मूले निक्षिप्त इत्यवधेयम् ।।
२. 'भाद्रोयामपि लुग्धकः' इति पाठान्तरम् ।।
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नानार्थवर्ग:३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४२६ १ पुष्परेणी च किअल्क: २शुल्कोऽस्त्री स्त्रीधनेऽपि च (२९) ३ स्यात्कल्लोलेऽप्युत्कन्निका ४ वार्द्धकं भाववन्दयोः (३०) ५ करिण्यां चापि गणिका ६ दारको बालभेदको (३१) ७ अन्धेऽप्यनेडमूकः स्या ८ दृकौ वर्षाश्मदारणौ ( ३२) ९ मृद्भाण्डेऽप्युष्ट्रिका १० मन्थे खजको रसदर्वके' (३३)
इति कान्ताः शब्दाः ।
अथ खान्ताः शब्दाः। ११ मयूस्खस्विटकरज्वाला १२ स्वलिवाणौ शिलीमुनो। १३ शङ्को निधो ललाटास्थिन कम्बो न स्त्री
['किञ्जल्क: (नि) के फूलका पराग, कमल कसर, २ अर्थ हैं ] ॥
['शुल्क.' (पुन) के स्नीका धन, रुपया (महसूल, कर, फीस आदि), १ अर्थ हैं] ॥
[ 'उत्कलिका' (स्त्री) के नदी आदिकी तरङ्ग, हँसी मजाक, सरकण्ठा, ३ अर्थ हैं ] ॥
४ ['वार्द्धकम्' (त्रि ) के बुढ़ापा, बूदों का समूह, २ अर्थ हैं ] ॥ ५ [ 'गणिका' (बी) के हथिनी, वेश्या, १ अर्थ हैं ] ॥ ६ ['दारकः' (पु) के लवका, भेद करनेवाला, १ अर्थ हैं] ॥
७ ['अनेडमूकः' (पु) के अन्धा, मूर्ख ( कहने सुनने में अशिक्षित ), शठ, ३ अर्थ हैं ]
८ [ 'टङ्कः' (पु) के दर्प, पत्थरको चीरनेवाली टॉकी, १ अर्थ हैं ] ॥ ९ ['उष्ट्रिका' (लो) के मिट्टी का मद्य भाण्ड विशेष, ऊटियो, २ अर्थ हैं ] ॥ 1. ['खज' (पु) के मथनीका डण्डा, कलछुल, युद्ध, ३ अर्थ हैं ] ॥
इति कान्ताः शब्दाः।
अथ खान्ताः शब्दाः। " 'मयूखः' (पु) के शोभा, किरण, ज्वाला, ३ अर्थ हैं । १२ शिलीमुखः' (पु) के भौंरा, बाण, २ अर्थ हैं।
" 'शङ्ख' (पु) के निधि ( खजाना-विशेष), ललाउकी हड्डी, २ अर्थ और 'श' (पुन)का शङ्क, १ अर्थ है ।
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४३० अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे.
-१ इन्द्रियेऽपि खम् ॥ १८ ॥ २ घृणियाले मपि शिखे
इति खान्ताः शब्दाः।
श्रय गान्ताः शब्दाः।
-३ शैलवृक्षौ नगावगौ। ४ आशुगौ वायुविशिखौ ५ शरार्कविहगाः खगाः ॥ १९ ॥ ६ पतङ्गो पक्षिसूर्यो व ७ पूगः क्रमुकवृन्दयोः। ८ पशवाऽपि मृगा ९ वेग: प्रवाहजवयोरपि ।। २० ।। १० परागः कौसुमे रेणौ स्नानायादौ रजस्यपि । ११ गजेऽपि नागमातनो
, 'खम्' (न), के इन्द्रिय, शून्य, आकाश, ३ अर्थ हैं ।
२ 'शिखा' (स्त्री) के किरण, ज्वाला, मोरकी शिखा, शिखामान (चोटी), ४ अर्थ हैं।
इति खान्ताः शब्दाः।
अथ गान्ता: शब्दाः । ३ 'नगः, अगः' ( पु) के पहार, पेस, १ अर्थ हैं ।। ४ 'आशुगः' (पु) के वायु, वाण, सूर्य, ३ अर्थ हैं। ५ 'खगः' (पु) के वाण, सूर्य, पक्षी, ३ अर्थ हैं । ६ 'पत' (पु) के पक्षी, सूर्य, २ अर्थ हैं। ७ 'पूग' (पु) के सुपारी ( कसैली), समूह, २ अर्थ हैं । ८ 'मृगः' (पु) के पशु, हरिण, पाँचों नक्षत्र, याचना, ४ अर्थ हैं ।। ९ 'वेगः' (पु) के प्रवाह, तेजी, २ अर्थ हैं ।
.. 'परागः' (पु) के फूलका पराग, स्नान करने योग्य सुगन्धित चूर्ण (पार ), धूलि, विख्याति, पर्वत, ५ अर्थ हैं।
'नाग' (पु) के हाथी, सॉप, नागकेसर, ६ अर्थ और 'माता ' (पु) के हाथी, चण्डाल, १ अर्थ हैं।
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४३१
नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
-१ अपाङ्गस्तिलकेऽपि च ॥ २१ ।। २ सर्गः स्वभावनिर्मोनिश्चयायायसृष्टिषु । ३ योगः सन्नहनोपायभ्यानसंगतियुक्तिषु ।। २२ ।। ४ भोगः सुखे ख्यादिभृतावहेश्व फणकाययोः । ५ चातके हरिणे पुंलि सारङ्गः शबले त्रिषु ॥ २३ ॥ ६ कपौ च प्लवगः ७ शापे त्वभिषतः पराभवे । ८ यानाधङ्गे युगः पुंसि युगं युग्मे कृतादिषु ॥ २४॥ ९ स्वर्गषपशुवाग्वजदिनघृणिभूजले
लक्षष्टया स्त्रियां पुंसि गौ१०लिङ्ग चिह्नशेफसोः ॥२५॥ , 'अपाङ्गः' (पु) के तिलक, नेत्रका प्रान्त (किनारा), २ अर्थ हैं।
२ 'सर्गः' (पु) के स्वभाव, त्याग, निश्चय, काव्य के प्रकरण (जैसेवाल्मीकि, नैषध, माध, किरात, रघुवंश आदिका प्रकरण ), सृष्टि, ५ अर्थ है।
३ 'योगः' (पु) कवच, साम-दाम आदि उपाय, ध्यान (चित्तको एकाग्र करना), संगति, युक्ति, विश्वासघातक, ६ अर्थ हैं।
४ 'भोगः' (पु) के सुख, स्त्री आदिकी मजदूरी या वेतन, साँपका फण, साँपका शरीर, ४ अर्थ हैं।
५ 'सार' (पु) के चातक पक्षी, हरिण, हाथी, ३ अर्थ और 'सारङ्गः' (त्रि) का चितकाबर, १ अर्थ है ॥
६ 'प्लवगः' (पु) के बन्दर, मेडक, सूर्यका सारथि, ३ अर्थ हैं॥ ७ 'अभिषतः' (पु) के शाप, पराभव, शपथ, ३ अर्थ हैं।
८ 'युगः' (पु) के रथ-गाड़ी आदिका जुआठ (जुवा), अर्थ और 'युगम्' (म) के युग (सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग), जोड़ा, २ अर्थ हैं।
९ 'गौः' ( = गो, लषयानुसार पु स्त्री) के स्वर्ग, चाण, पशु (गाय, बैल, साद आदि ), बाक ( बोली , वज्र, दिशा ( पूर्व, पश्चिम आदि), आँख, सूर्य, पृथ्वी, पानी १० अर्थ हैं । ( लक्ष्यानुसार पुंल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग जैसे-स्वर्ग, वाण, पशु (वैट) आदिके पुंलिङ्ग रहनेपर 'गो' शब्द पुखिनः वाक्, पशु (गाय, बाछी), दिशा आदिके स्त्रीलिङ्ग रहनेसे 'गो' शब्द स्त्रीलिज होना')॥
१. लिङ्गम् (न) के चिह्न, लिग (पुरुषके पेशाबका रास्ता), १ अर्थी।
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अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ शृङ्गं प्राधान्यसान्योश्च २ वराङ्गं मूर्द्धगुह्ययोः।। ३ भगं श्रीकाममाहात्म्यवीर्ययतार्ककीर्तिषु ॥ २६ ॥
इति गान्ताः शब्दाः।
अथ धान्ताः शब्दाः। ४ परिघः परिघातेऽस्त्रेऽ५प्योघो वृन्देऽम्भसा रये। ६ मूल्ये पूजाविधाव?७ऽहोदुःखव्यसनेम्वघम् ।। २७ ।। ८ 'त्रिविष्टेऽल्पे लघु:
इति घान्ताः शब्दाः।
....
' 'कम्' (न) के प्राधान्य, शिखा (पहारकी चोटी), सींग, ३ अर्थ हैं।
२ 'वरागम्' (न) के मस्तक, गुयेन्द्रिय या योनि (बीके पेशाबका रास्ता), १ अर्थ हैं।
३ 'भगम्' (न) के शोभा, इच्छा, माहास्य (प्रशंसा या बड़ाई), सामर्थ्य, यस्न, सूर्य, यश, धर्म, ८ अर्थ और 'भगः' (प)का सूर्य, अर्थ है।
इति गान्ता: शब्दाः
अथ घान्ताः शब्दाः ४ 'परिघः' (+पलिघः । पु) के परिध' नामका हथियार (बोहा मढ़ी हुई लाठी), योग-भेद,.. अर्थ हैं ।
५ 'मोघा (पु) के समूह, जलका प्रवाह, शीघ्रतासे नाचना, परम्परा, ४ अर्थ हैं॥
'अर्घः' (पु) के मूल्य (कीमत ), पूजा-विधि (अतिथि भादिके मानेपर या देव-पूजामें किया हुजा 'अर्घ नामका सरकार-विशेष, २अर्थ है।
• 'अघम् (न) के पाप, दुःख, व्यसन (जुमा खेलने भादिकी भावत), . ३ अर्थ हैं। 'लघु' (त्रि) के इष्ट, कम, १ अर्थ हैं।
इति घान्ताः शब्दाः ।
१. 'त्रिविष्टेऽपि इति पाठान्तरम् ॥
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मानार्थवर्गः३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
__ अथ चान्ताः शब्दाः।
-१काचाः शिश्यमृद्भेदप्रजः। २ 'विपर्यासे विस्तरे च प्रपञ्चः ३ पावके शुचिः ।। २८ ॥
मास्यमात्ये चात्युपधे पुंलि मेध्ये सिते त्रिषु । ५ अभिष्वक्रेस्पृहायांच गभस्तौ च रुचिःस्त्रियाम् ॥ २९॥
इति चान्ताः शब्दाः।
अथ छान्ताः शब्दाः । ५ 'प्रसन्ने मल्लकेऽप्यच्छो ६ गुच्छः स्तबकहारयोः (३४) ७ परिधानाले कच्छो जलप्रान्ते त्रिलिङ्गका' (३५)
इति छान्ताः शब्दाः ।
अथ चान्ताः शब्दाः। १ काचः' (पु) के सिकहर, काच, आँखका रोग-विशेष, ३ अर्थ हैं।
२ प्रपञ्चः' (पु) के विपर्यास (उलटा-पुलटा), शब्द का फैलाव, संझट ३ अर्थ हैं ।
३ 'शुचिः ' (पु) के आग, आषाढ मास, मन्त्री, शृङ्गार रस, ४ अर्थ और 'शुचिः ' (त्रि) के सफेद वस्तु, पवित्र, शुद्ध चित्तवाला, ३ अर्थ हैं।
४ 'रुचिः' (स्त्री) के अभिष्वङ्ग (राग), स्पृहा (चाह), सूर्य आदि की किरण, शोभा, ४ अर्थ हैं।
इति चान्ताः शब्दाः ।
अथ छान्ताः शब्दाः । ५ [ 'अच्छ:' (पु) के प्रसन्न, भालू , स्फटिक मणि, ३ अर्थ हैं ] ॥
६ ["गुच्छः ' (पु) के फूल-फल आदिका गुच्छा, ३२ या ७० लड़ीका हार-विशेष, २ अर्थ हैं ] ॥
७ [कच्छः ' (पु) के कपड़े आदिको पहिरना, अञ्चल, २ अर्थ और 'कच्छ .' (त्रि)का पानीका किनारा, १ अर्थ है ] ॥
इति छान्ताः शब्दाः।
१. 'विपर्यासे च विस्तारे' इति पाठो युक्तः' इति क्षी० स्वा० ॥
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अमरकोषः
अथ जान्ताः शब्दाः ।
१ के कितावद्दिभुजौ २ दन्तविप्राण्डजा द्विजाः । ३ अजा विष्णुहरच्छामा ४ गोष्ठाध्वनिवद्दा वजाः ॥ ३० ॥ ५ धर्मराजौ जिनयमौ ६ कुञ्जो दन्तेऽपि न स्त्रियाम् । ७ वलजे क्षेत्र पूरे चलजा वल्गुदर्शना ॥ ३१ ॥ ८ समे क्ष्मांशे रणेऽप्याजिः ९ प्रजा स्यात्सन्ततौ जने । २० अब्जौ शंखशशांकौ च ११ स्वके नित्ये निजं त्रिषु ॥ ३२ ॥ इति जान्ताः शब्दाः ।
४३४
अथ जान्ता शब्दाः ।
१ 'अहिभुक' ( + अहिभुज् पु ) के मोर, गरुड २ अर्थ हैं ॥
२ 'द्विज' (पु) के दाँत, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों वर्ण, अण्डज ( चिड़िया, साँप, मछली, मगर आदि ), ३ अर्थ हैं ॥
[ तृतीयकाण्डे
३ 'अज:' (पु) के विष्णु, शिवजी, छाग ( खस्सी ), रघुके पुत्र ( 'अज' नामका रघुवंशी राजा ), ब्रह्मा, कामदेव, ६ अर्थ हैं ॥
४ 'व्रजः' ( पु ) के गोष्ठ ( गौओंके ठहरनेका स्थान गोशाला आदि ), रास्ता, समूह, ३ अर्थ हैं ॥
५ ' धर्मराजः' (पु) के जिन (बुद्धदेव), यमराज, युधिष्ठिर, ३ अर्थ हैं ॥ ६ 'कुञ्जः' (पुन) के हाथी का दाँत, कुअ (लता आदिसे गलोके समान बना हुआ स्थान विशेष ) २ अर्थ हैं ।
७ 'लजम्' (न) के क्षेत्र, नगरका फाटक या द्वार, २ अर्थ और 'घलजः ' (त्रि ) का देखने में प्रिय लगनेवाला, १ अर्थ है ॥
८ 'आजि:' (स्त्री) के बरावर (समतल ) जमीन, युद्ध, २ अर्थ हैं ॥ ९ 'प्रजाः' (स्त्री) के सन्तान (पुत्र या पुत्रो, प्रजा ( रैयत), २ अर्थ हैं ॥ १० 'अन्न' (पु) के शंख, चन्द्रमा, धन्वन्तरि, ३ अर्थ और 'अजम्' ( न ) का कमल, १ अर्थ है ॥
११ 'निजम् ' ( त्रि) के आत्मीय ( अपना ), नित्य, २ अर्थ हैं ॥ इति जान्ताः शब्दाः ।
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नानार्थवर्गः३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
अथ जान्ताः शब्दाः। १ पुंस्थात्मनि' प्रवीणे च क्षेत्रज्ञो वाच्यलिङ्गका २ संज्ञा स्याच्चेतना नाम हस्ताधेश्चार्थसूचना ॥ ३३ ॥ ३ "दोषको वैद्यविद्वांसौरो विद्वान् सोमजोऽपि च (३६) ५ विज्ञी प्रवीणकुशलौ ६ कालज्ञो ज्ञानिकुक्कुटी' (३७)
इति जान्ताः शब्दाः।
अथ टान्ताः शब्दाः । ७ काकेभगण्डौ करटौ ८ गजगण्डकटी कटौ। ९ शिपिविष्टस्तु स्खलतो दुश्चमणि महेश्वरे ।। ३ ।।
___ अथ जान्ताः शब्दा। १ 'क्षेत्रमः' (पु) का आत्मा, १ अर्थ और 'क्षेत्र' (त्रि) का क्षेत्रज्ञ (शरीर को जाननेवाला ज्ञानी पुरुष । + प्रधान), १ अर्थ है।
२ 'संक्षा' (स्त्री) के चेतना ( होश, ज्ञान ), नाम हाथ-भौं आदिका इशारा, गायत्री, सूर्य की स्त्रो, ५ अर्थ हैं ।।
३ [ 'दोषज्ञः' (पु) के वैद्य, विद्वान् , २ अर्थ हैं ] ॥ ४ [ 'ज्ञः' (पु) के विद्वान् , 'बुध' नामका ग्रह, ब्रह्मा, ३ अर्थ हैं ] ॥ ५ ['विश्वः' (पु) के प्रवीण ( निपुण), चतुर, २ अर्थ हैं ] ॥ ६ [ 'कालज्ञः' (पु) के ज्ञानी, मुर्गा, २ अर्थ हैं ] ॥
इति जान्ताः शब्दाः।
अथ टान्ताः शब्दाः। ७ 'करट:' (पु) के कौआ, हाथियोंका कपोल (गाल) २ अर्थ हैं । ८ 'कटः (स्त्री) के हाथियोंका कपोल, कमर, २ अर्थ हैं। ९ शिपिविष्टः' ( + शिपविष्टः, शिविपिष्टः । पु) के खल्वाट ( रोग
१. 'प्रधाने' इति पाठान्तरन् ।।
२. दोषज्ञो...""कुक्कुटौ' इत्ययं क्षेसकांशः माहेश्वरीव्याख्यायां मूलमात्रमुपलभ्यते इत्यतोऽस्य प्रकृतोपयोगितयाऽयं मूले स्थापितः ।।
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४३६
अमरकोषः ।
[ तृतीय काण्डे -
३ रसे
१ देवशिल्पिन्यपि स्वश २ दिष्टं देवेऽपि न द्वयोः । कटुः कट्बकायें त्रिषु मत्सरतीक्ष्णयोः ॥ ३५ ॥ ४ प्रिं क्षेमाशुभाभावेष्वरिष्टे तु शुभाशुभे । ६ मायानिचलयन्त्रेषु कैतवानृतराशिषु ॥ ३६ ॥ अयोधने शेट कूटमस्त्रियाम् । संशयेऽपि सा ॥ ३७ ॥ लग्नकचे जटा ।
सीराङ्गे
७ सूक्ष्मैवायां त्रुटि: स्त्री स्यास्कालेऽल्पे ८ आकर्षाश्रियः कोट्यो ९ मूले
आदि कारण जिसके शिरके बाल गिर गये हों), खराब चमड़ेवाला ( + नपुंसक क्षी० स्वा० ), शिवजी विष्णुजी, ४ अर्थ हैं ॥
१ 'स्वप्न' ( वपु ), के विश्वकर्मा ( देवताओंका बढ़ई या कारीगर ), बारह सूयोंमें से एक सूर्य, बढ़ई, ३ अर्थ हैं ॥
२ दिष्टम्' (न) का भाग्य, १ अर्थ और 'दिष्टः' (पु) का समय, १ अर्थ है ॥
३ 'कटुः' (पु) का कहुवा, १ अर्थ; 'कटु' ( न ) का नहीं करने योग्य * १ अर्थ और 'कटुः' (त्रि) के मत्सर ( दूसरे की भलाई से द्वेष करना ), तीक्ष्ण, १ अर्थ हैं ॥
४रिष्टम्' (न) के कल्याण, अशुभका अभाव, २ अर्थ हैं ॥ ५ 'अरिष्टम्' (पु) के शुभ, अशुभ, २ अर्थ हैं ॥
६ ' कूटम् ' ( न पु ) के माया, निश्चल ( आकाशादि ), हरिना आदि फँसानेका का यन्त्र - विशेष ( जाल आदि ), कपट, असत्य, गल्ला ( अन्न आदि की ढेरी ), लोहका हथौरा, पहाड़की चोटी, हलके आगेवाला भाग, ९ अर्थ हैं ॥ 'त्रुटि' (स्त्री) के चोटी इलायची, समय-भेद, न्यूनता ( कमी ) संशय, ४ अर्थ हैं ॥
१७
८ 'कोटि' (खो ) के धनुषके दोनों छोर, प्रकर्ष, कोण करोड़ ( संख्याविशेष ), ४ अर्थ हैं ॥
९ 'जटा' (स्त्री) के पेड़ आदिको जड़, जटा ( मुनि आदिके सटे हुए बाल ), जटामासी, ३ अर्थ हैं ॥
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नानार्थवर्गः३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ न्युष्टिः फले समृद्धौ च २१ष्टिानेऽक्षिण दर्शने ॥ ३८ ॥ ३ इािगेच्छयोः ४ 'सृष्टं निश्चिते बहुनि त्रिषु । ५ कष्टे तु कृच्छ्रगहने ६ दक्षामन्दागदेषु च ।। ३९ ॥
पटुद्वौँ वाच्यलिझी च-.
"पोटा दासी द्विलिङ्गा च ८ घृष्टी घर्षणसूकरी (३८) ९ घटा गोष्ठयां हस्तिपको १० कृपीटमुदरे जले' (३९)
इति टान्ताः शब्दाः।
अथ ठान्ताः शब्दाः।
-११ नीलकण्ठः शिवेऽपि च । १'व्युष्टिः' (स्त्री) के फल (प्रयोजन ), समृद्धि, २ अर्थ हैं । २ 'दृष्टिः' (स्त्री) के ज्ञान, आँख, देखना, ३ अर्थ हैं । ३ 'इष्टिः' (स्त्री) के यज्ञ, इच्छा, २ अर्थ हैं ॥
४ 'सृष्टम्' ( + सृष्टिः स्त्री। त्रि), के निश्चित बहुत (काफी ), छोड़ा हुआ, बनाया हुआ, ४ अर्थ हैं ॥ ___ ५ कष्टम् (त्रि) के दुःख, गहन (मुश्किल से करने योग्य काम आदि), २ अर्थ हैं ।
६ 'पटुः' (त्रि ) के चतुर, निरालसी, रोग, ३ अर्थ हैं ] ॥ ७ ['पोटा' (स्त्री) के दासी, स्त्री पुरुष के चिह्नोंसे युक्त स्त्रो, २ अर्थ है ] ॥ ८ ['घृष्टिः' (पु) के घिसना, सूअर, २ अर्थ हैं ] । ९ ['घटा' (स्त्री) के सभा, हाथियोंकी कतार, २ अर्थ हैं ] ॥ १० [ 'कृपोटम्' (न) के पेट, पानी, २ अर्थ हैं ] ॥
इति टान्ताः शब्दाः।
अथ ठान्ताः शब्दाः . ११ 'नीलकण्ठः ' (पु) के शिवजी, मोर, २ अर्थ हैं।
१. 'सृष्टिनिश्चिते बहुले त्रिषु' इति पाठान्तरम् ॥
२. मोटा....."जले इत्ययं क्षेपकांशः क्षी. स्वा. व्याख्यायां मूलमात्रमुपलभ्यत इत्य. तोऽयं प्रकृतोपयोगितया क्षेपकत्वेनात्र स्थापितः ॥
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४३८ अमरकोषः ।
[तृतीयकाण्डे१ पुंसि कोष्ठोऽन्तर्जठरं कुमूलोऽन्तर्गृहं तथा ॥ ४० ॥ २ निष्ठा निष्पत्तिनाशान्ताः ३ काष्ठोत्कर्ष स्थिती दिशि । ४ त्रिषु ज्येष्ठोऽतिशस्तेऽपि ५ कनिष्ठोऽतियुवाल्पयोः ।। ४१ ।।
इति ठान्ताः शब्दाः।
अथ डान्ताः शब्दाः। ६ दण्डोऽस्त्री लगुडेऽपि स्याद् ७ गुडो गोलेशुपाकयोः। ८ सर्पमांसात्पशू व्याडौ ९ गोभूवाचस्विडा इलाः ॥ ४२ ॥ १० क्ष्वेडा वंशशलाकापि ११ नाडी नालेऽपि षटक्षणे।
१ 'कोष्ठः' (पु) के कोष्ट (पेटके भीतरका एक भाग), कोठिला या बखार, घरका भीतरी भाग, ३ अर्थ हैं ।
२ 'निष्ठा' (स्त्री), के निप्पत्ति ( सिद्धि ), नाश, आखीर, ३ अर्थ हैं । ३ 'काष्ठा' (स्त्री) के वृद्धि, मर्यादा, पूर्व आदि दिशा, ३ अर्थ हैं ॥
४ 'ज्येष्ठ.'(त्रि)के बहुत उत्तम, बड़ा भाई आदि, वृद्ध, ३ अर्थ और 'ज्येष्ठः' (पु) का ज्येष्ठ महीना, 1 अर्थ है ॥ ५ 'कनिष्ठः' (त्रि) बालक, छोटा भाई आदि,थोड़ा ३ अर्थ हैं ।
इति ठान्ताः शब्दाः।
अथ डान्ता शब्दाः । ६ 'दण्ड: (पुन) के डण्डा, सजा, २ अर्थ हैं ॥ ७ 'गुडः (पु) के मिट्टीकी गोली, गुड, २ अर्थ हैं ॥ ८ 'प्याड' (पु) के साँप, बाघ, २ अर्थ हैं ॥ . ९ 'इडा, इला' (२ स्त्री) के गौ, पृथ्वी, वचन, बुधकी स्त्री, ४ अर्थ हैं ।
१. 'श्वेडा' (स्त्री) के पिंजड़ा-दौरी आदि बनाने के लिये बाँस आदिको छीलकर चिकनी और पतली की हुई शलाका, सिंहकी गर्जना, २ अर्थ हैं ।
'नारी' (स्त्री) के छः क्षण (एक घटी या २४ मिनट) का समयविशेष, नादी (नस), नाल (डंठल ), ३ अर्थ हैं ।
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४३६
भानार्थवर्गः३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ काण्डोऽस्त्री दण्डयाणार्ववर्गावसरवारिषु ॥४३॥ २ स्याद्भाण्डमश्वाभरणेऽमत्रे मूलवणिग्धने ! ३ "संघातग्रालयोः पिण्डी द्वयोः पुंसि कलेवरे (१०) ४ गण्डौकपोलविस्फोटौ ५ मुण्डकं त्रिपु मुण्डिते' (४१)
इति डान्ताः शब्दाः ।
अथ ढान्ताः शब्दाः। ६ भृशप्रतिज्ञयोर्बाद ७ प्रगाढं भृशकृच्छ्रयोः ॥४४॥ ८ शक्तस्थूलो त्रिषु दृढौ
१ 'काण्डः' (पु न) के दण्ड, बाण, निन्दित, वर्ग (प्रकरण, जैसेवाल्मीकीयमें-बाल काण्ड, अयोध्याकाण्ड, अमरकोषमें-प्रथमकाण्ड,... ), अवसर, पानी, ६ अर्थ हैं ।
२ 'भाण्डम्' (न) के घोड़ेका भूषण, बर्तन, व्यापार आदिमें लगाये हुए बनिये आदिका मूल धन, ३ अर्थ हैं ।
३ ["पिण्डी' (स्त्री पु) के समूह, ग्रास, २ अर्थ और 'पिण्डी' (पु) का शरीर, १ अर्थ है ] ॥
४ [ 'गण्ड (पु) के गाल, विस्फोट ( फोड़ा आदि), २ अर्थ हैं ] ॥ ५ [ 'मुण्डकम्' ( + मुण्डम् । त्रि) के मुण्डित, शिर, २ अर्थ हैं ] ॥
इति डान्ताः शब्दाः।
अथ ढान्ताः शब्दाः । ६ 'बातम्' (न) का अत्यन्त, १ अर्थ और 'बाढम्' (अ.) के प्रतिज्ञा, स्वीकार, २ अर्थ हैं ॥
७ 'प्रगाढम्' (न) के अत्यन्त, कष्ट, २ अर्थ हैं ॥ ८ 'ढ' (त्रि) के समर्थ, मोटा या पुष्ट, अच्छी तरह, ३ अर्थ हैं ॥ 'संघात "मुण्डिते इति क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यायां मूलमात्रमुपलभ्यते इति प्रकृतो५योगितयाऽयं मया मूले क्षेपकत्वेन निहितः ।।
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१५०
अमरकोषः।
[तृतीयकाण्ड-१ व्यूढौ विन्यस्तसंहती। इति ढान्ताः शब्दाः।
अथ णान्ता: शब्दाः। २ भ्रूणोऽर्भके स्त्रैणगर्भ ३ बाणो बलिसुते शरे ॥१५॥ ४ कणोऽतिसुक्ष्मे धान्यांशे ५ संघाते प्रमथे गणः। ६ पणो द्यूतादिषुत्सृष्टे भृतौ मूल्ये धनेऽपि च ॥ १६ ॥ ७ मौया द्रन्याश्रिते सत्त्वशौर्यसन्ध्यादिके गुणः । ८ निर्व्यापारस्थिती कालविशेषोत्सवयोः क्षणः ॥४७॥ ९ वर्णो द्विजादौ शुक्लादौ स्तुतौ वर्ण तु पाक्षरे । १ 'व्यूहः (त्रि) के रचित, मिला हुआ (संहत ), २ अर्थ हैं ।
इति ढान्ताः शब्दाः ।
अथ णान्ताः शब्दाः । २'भ्रूण' (पु) के बालक, स्त्रीका गर्भ, २ अर्थ हैं । ३ 'बाणः' (पु) के बलिका पुत्र (बाणासुर), बाण, २ अर्थ हैं ॥
४ 'क' (पु) के अत्यन्त सूक्ष्म (पानीकी छोटी २ बूदें, मोतीके दाने,.. ), धान्य (अन्न) की खुद्दी, २ अर्थ हैं ॥ ___५ 'गण' (पु) के समूह, शिवजीके दूत, सेनाको संज्ञा विशेष, ३अर्थ हैं । ( देखिये-२।८८१ की टिप्पणी)
६ 'पण' (पु) के जुआ आदिमें दावपर रक्खा हुआ धन आदि, वेतन या मजदूरी, कीमत, धन, ४ अर्थ हैं ॥
७ 'गुणः' (पु) के धनुषकी ताँत, रूप-रस आदि २४ गुण, सत्व-रजसतमस् ३ गुण, बहादुरी, चातुर्य-पाण्डित्य आदि गुण, सन्धि-विग्रह आदि (पृ. २६९) ६ गुण, इन्द्रिय, ६ अर्थ हैं।
'क्षण' (पु) के निकम्मा होकर बैठे रहना, एक घड़ीका बारहवाँ हिस्सा या ३ मिनटका समय-विशेष, उत्सव, ३ अर्थ हैं ॥
९ वर्णः' (पु) के ब्राह्मण-पस्त्रिय-वैश्य-शूद्र ये ४ जाति, सफेद-लाल-पीला आदि रंग तथा स्तुति (व्रत, गुण, गीतका ताल विशेष, यश) ये अर्थ और 'वर्णम् (न)का अधर, १ ही अर्थ है ॥
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४४१
मानार्थवर्ग:३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।।
१ अरुणो भास्करेऽपि स्यावणंभेदेऽपि च त्रिषु ॥४८॥ २ स्थाणुः शर्वेऽस्य३थ द्रोणः काकेऽप्याजौ रवे रणः । ५ ग्रामणी पिते पुंलि श्रेष्ठे प्रामाधिपे त्रिषु ।। ४९ ॥ ६ ऊर्णा मेषादिलोमिन स्यादावर्ते चान्तरा 'भ्रवो। . ७ हरिणी स्यान्मृगी हेमप्रतिमा हरिता च या ॥५०॥
त्रिषु पाण्डौ च हरिणः ८ स्थूणा स्तम्भेऽपि वेश्मनः । ९ तृष्णे स्पृहापिपासे द्वे १० जुगुप्साकरुणे घृणे ॥५१॥ ११ वणिक्पथे च विपणिः १२ सुरा प्रत्यक्च वारुणी।
१ 'अरुण' (पु) का सूर्य, सूर्यका सारथि, सन्ध्या समयकी लालिमा, कुष्ठ, ४ अर्थ और 'अरुणः' (त्रि ) का लाला रङ्गवाला, १ अर्थ है ॥
२ 'स्थाणुः' (पु) के शिवजी, खुत्थ (बिना डाल-पातका सूखा हुआ पेड़) आदि स्थिर पदार्थ, २ अर्थ है । __३ 'द्रोण' (पु) के कौआ, द्रोणाचार्य, द्रोण (परिमाण-विशेष ), ३ अर्थ हैं।
४ 'रण' (पु) के लड़ाई, शब्द, २ अर्थ हैं ।।
५ 'ग्रामणी' (पु) का नाई (हजाम), १ अर्थ और 'ग्रामणी' (त्रि) के श्रेष्ठ, ग्रामका स्वामी ( सरपञ्च, डीहा ), २ अर्थ हैं ।।
६ 'ऊर्णा' (स्त्री) के उन (भेंड़ आदिका रोआ), दोनों भौंहों के बीचवाला भाग, २ अर्थ हैं।
७ 'हिरिणि' (स्त्री) के मृगी, सोनेकी मूर्ति, हरे रंगवाली, ३ अर्थ और 'हरिणः' (त्रि) के पाण्डु (कुछ २ पीलापन लिये सफेद) रंग, हरिना, २ अर्थहैं ।
८ 'स्थूणा' (स्त्री) के घरका खम्भा, लोहेकी मूर्ति, रोग-विशेष, ३ अर्थ हैं ।
९ 'तृष्णा' (स्त्री) के स्पृहा ( अभिलाषा), प्यास, २ अर्थ हैं । १० 'घृणा' (स्त्री) के घृणा (नफरत), करुणा, २ अर्थ हैं । ११ 'विपणिः' (स्त्री) के बाजार (कटरे) की गलो, दूकान, २ अर्थ हैं । १२ 'वारुणी' (स्त्री) के मदिरा, पश्चिम दिशा, २ अर्थ हैं। १. 'ध्रुवौ' इति पाठान्तरम् ॥
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g४२
अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ करेणुरिभ्यां स्त्री नेभे २ द्रविणं तु बलं धनम् ॥ ५२ ॥ ३ शरणं गृहरक्षित्रोः ४ श्रीपर्ण कमलेऽपि च । ५ विषाभिमरलोहेषु तीक्ष्णं क्लीबे खरे त्रिषु ॥ ५३॥ ६ प्रमाणं हेतुमर्यादाशास्त्रेयत्तापप्रमातृषु । ७ करणं साधकतमं क्षेत्रगानेन्द्रियेष्वपि ॥५४॥ ८ प्राण्युत्पादे संसरणमसंबाधचमगतौ ।
घण्टापथे९थ वान्तान्ने समुगिरणमुन्नये ॥ ५५ ॥ १० अतस्त्रिषु विषाणं स्यात्पशुगेभेवन्तयोः ।
. 'करेणुः' (स्त्री) का हथिनी, १ अर्थ और 'करेणुः' (पु) का हाथी, १ अर्थ है ।
२ 'द्रविणम्' ( न ) के बल, धन, २ अर्थ हैं । ३ 'शरणम्' (न) के मकान (घर), रक्षक, २ अर्थ हैं ।
४ 'श्रीपर्णम्' (न) के कमल, अरणि ( यज्ञमें रगड़कर आग पैदा करने योग्य काष्ठ-विशेष ), २ अर्थ हैं ।
५ 'तीक्ष्णम्' (न) के विप, लड़ाई, लोहा, ३ अर्थ और 'तीक्ष्णम्' (त्रि ) का तेज हथियार आदि, १ अर्थ है ।।
६ 'प्रमाणम्' (न) के हेतु (जैसे-पहाडपर अग्निका अनुमान करने में धुओं हेतु है,... ), सीमा (हद ), शास्त्रकी इयत्ता, प्रमाता, ४ अर्थ हैं ।
७ 'करणम्' (न) के कामकी सिद्धि में अत्यंत उपकारक (जैसे-मारनेमें बाण-तलवार आदि ), क्षेत्र, शरीर, इन्द्रिय, ४ अर्थ हैं ।
८ 'संपरणम्' (न) के प्राणियोंकी उत्पत्ति, मेनाका निर्विघ्न आगे बढ़ना, राजमार्ग ( सड़क), ३ अर्थ हैं ।।
समुद्रिणम्' ( + समुद्धरणम् । न ) के उल्टो (वमन, कय ) किया हुआ अन्न आदि, किसी चीजको ऊपर खींचना या उठाना, उखाड़ना, ३ अर्थ हैं ।
१० 'विषाणम्' (त्रि) के सींग, हाथीका दाँत. २ अर्थ हैं ॥
१. 'समुद्धरणमुगिरे' इति पाठान्तरम् ।
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नानार्थवर्ग:३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
४४३ १ प्रवणं क्रमनिम्नोा प्रह्वे ना तु चतुष्पथे ।। ५६ ॥ २ संकीर्णी 'निचिताशुद्धाश्विरिणं शून्यमूषरम् । ४ 'सेतो च धरणो ५ वेणी नदीभेदे कचोच्चये (४२)
इति णान्ताः शब्दाः।
अथ तान्ताः शब्दाः। ६ देवसूर्यो विवस्वन्तौ ७ सरस्वती नदार्णवौ ॥ ५७ ॥ ८ पक्षिताक्ष्यौँ गरुत्मन्तौ ९ शकुन्तौ भासपक्षिणौ। १० अग्न्युत्पाती धूमकेतू ११ जीमूतो मेघपर्वती ।। ५८॥
१ 'प्रवणम्' (त्रि) के ढालू जमीन, नम्र, २ अर्थ और 'प्रवणः' (पु) का चौरास्ता, १ अर्थ है ॥
२ 'संकीर्णः' (त्रि ) के च्याप्त (फैला या भरा हुआ ), अशुद्ध ( दो जातियोंका मेल), २ अर्थ हैं ।
३ 'इरिणम्' (+इरणम् , ईरणम् , ईरिणम् , विरिणम् । न ) के खाली स्थान, ऊसर जमोन, २ अर्थ हैं ।
४ ['धरण:' (पु) के पुल, बाँस यातार, काँटा आदिका घेरा, २ अर्थ हैं । ५ [ 'वेणी' (स्त्री), के नदी-विशेष केशकी चोटी २ अर्थ हैं ] ॥
इति णान्ताः शब्दाः ।
अथ तान्ताः शब्दाः। ६ 'विवस्वान्' ( = विवस्वत् पु), के देवता, सूर्य हैं ।
७ 'सरस्वान्' (= सरस्वत् पु) के नद (शोणभद्र, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र आदि), समुद्र, २ अर्थ हैं ॥
८ 'गरुत्मान् ( = गरुत्मत् पु) के पक्षी, गरुड़ २ अर्थ हैं । ९ 'शकुन्तः ' (पु) के गिद्ध, चिड़िया-मात्र २ अर्थ हैं ॥
१० धमकेतुः (पु) के आग, भविष्य में होनेवाले उत्पातका सूचक तारा-विशेष, २ अर्थ हैं।
११ 'जीमूतः' (पु) के बादल पहाड़ २ अर्थ हैं । १. 'निचिताशुद्धावीरिणम्' इति पाठान्तरम् ॥ ___२. सेतो"कचोच्चये' ईत्ययं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यानेऽपि मूलमात्रमुपलभ्यते ।।
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४४४
अमरकोषः। [तृतीयकाण्डे१ हस्तौ तु पाणिनक्षत्रे २ मरुती पवनामरौ । ३ यन्ता हस्तिपके सूते ४ भर्ता धातरि पोष्टरि ॥ ५९॥ ५ यानपात्रे शिशौ पोतः६ प्रेतः प्राण्यन्तरे मृते। ७ प्रहभेदे वजे केतुः ८ पार्थिवे तनये सुतः॥६०॥ ९ स्थपतिः कारुभेदेऽपि १० भूभृभूमिधरे नृपे। ११ मृर्द्धाभिषिक्तो भूपेऽपि १२ ऋतुः स्त्रीकुसुमेऽपिच ॥ ६१ ॥ १३ विष्णावप्यजिताव्यक्ती
१ 'हस्तः ' (पु) के हाथ, हस्त नामक तेरहवाँ नक्षत्र, २ अर्थ हैं। २ 'मरुद (पु) के वायु, देवता, २ अर्थ हैं।
३ 'यन्ता' ( = यन्तृ पु) के हाथोवान, सारथि (कोचवान, एकावान, ड्राइवर आदि), २ अर्थ हैं ॥
४ 'भर्ता (= भर्तृ पु), बह्मा, पोषण (रक्षा) करनेवाला, पति, ३ अर्थ हैं । ५ 'पोत:'(पु)के जहाज, बालक, २ अर्थ हैं । ६ 'प्रेतः' (पु) के प्रेत ( योनि-विशेष ) मरा हुआ जीव, २ अर्थ हैं । ७ 'केतुः (1) के केतु नामका ग्रह, पताका २ अर्थ हैं । ८ 'सुतः' (पु) के राजा पुत्र, २ अर्थ हैं ।
९ 'स्थपतिः' (पु) के बढ़ई, कंचुकी, बृहस्पतिके मन्त्रसे यज्ञ करनेवाले, ६ अर्थ हैं ।
१० 'भूभृत् (पु) के पहाड़, राजा, २ अर्थ हैं।
११ 'मूर्धाभिषिक्तः' (पु), के राजा, प्रधान, मन्त्री, क्षस्त्रियमात्र ब्राह्मण जातिके पितासे क्षत्रिय जातिकी मातामें उत्पन्न संतान, ५ अर्थ हैं ।
१२ 'ऋतुः' (पु) के स्त्रियोंका मासिक धर्म, हेमन्त आदि (१।४।१३ में उक्त) छः ऋतु २ अर्थ हैं॥
१३ 'अजितः' (पु) के विष्णु, शिवजी, २ अर्थ और 'अजितः' (त्रि) का नहीं हारा हुआ । अर्थ, तथा 'अव्यक्त' (पु) के विष्णु, शिवजी, मूर्ख, ३ अर्थ; 'अव्यक्तम् (न) महदादिक, आत्मा २ अर्थ और 'अध्यक्तम्' (त्रि) का अस्पष्ट, १ अर्थ हैं।
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मानार्थवर्गः३] मणिप्रभाब्याख्यासहितः।
४४५ १-सूतस्त्वष्टरि सारथौ। २ व्यक्तः प्राशेऽपि ३ 'दृष्टान्तावुभौ शास्त्रनिदर्शने ॥ ६ ॥ ४ क्षता स्यात्सारथौ द्वास्थे क्षत्रियायां च शद्रजे। ५ वृत्तान्तः स्यात्प्रकरणे प्रकारे कार्यवार्तयोः ॥ ६३ ॥ ६ आनतः समरे नृत्यस्थाननीवृद्विशेषयोः। ७ कृतान्तो यमसिद्धान्तदैवाकुशलकर्मसु ॥६४॥ ८ श्लेष्मादिरसरतादिमहाभूतानि तद्गुणाः ।
१ 'सूतः' (पु) के बढ़ई, सारथि, पत्रिय जातिके पितासे ब्राह्मण जातिकी मातामें उत्पन्न संतान, बन्दी, पारा, ५ अर्थ और 'सूतः' (त्रि) के जन्मा (पैदा) हुआ, प्रेरित, २ अर्थ हैं।
२ 'व्यक्तः' (पु) के विद्वान् , स्पष्ट, २ अर्थ हैं । ३ 'इष्टान्तः' (पु) के तर्क आदि शास्त्र, उदाहरण, २ अर्थ हैं ॥
४ 'क्षत्ता' ( = क्षतृ पु), के सारथि, द्वारपाल, शूद्र जातिके पितासे क्षत्रिय जातिकी मातामें उत्पन्न संतान, वेश्या-पुत्र, नियुक्त, ब्रह्मा, ६ अर्थ हैं ।
५ 'वृत्तान्तः' (पु) के प्रकरण (अवसर), प्रकार ( तरह, भाव, यथापाँच प्रकारके छः प्रकारके,....") साकल्य (पूरा २), बात, ४ अर्थ हैं ।
६ 'आनः ' (पु) के लड़ाई, नाचघर, देश-विशेष (पश्चिम समुद्रके पासको द्वारावती अर्थात् द्वारकापुरी), ३ अर्थ हैं ॥
७ 'कृतान्तः' (पु) के यमराज, सिद्धान्त, भाग्य, पापकर्म, ४ अर्थ हैं ।
८ 'धातुः' (पु) के कफ आदि (थूक, खखार, पित्त, आदि), रस (भोजन करने बाद उत्पन्न अनादिका विकार-विशेष), खून आदि (चर्बी, मज्जा, वीर्य, मांस, पीव, हड्डी आदि), पृथ्वी आदि, (जल तेज, वायु, आकाश), पञ्च महाभूत, उन ( पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ) के गुण (गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ), इन्द्रिय (आँख आदि पूर्वोक्त (१०५८) ११ इन्द्रिय), हरताल, मैनसिल, गेरू आदि पत्थरके विकारसे उत्पन्न धातुः भूः, एध,
'. 'दृष्टान्ताउभे' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'वेश्यायां च हत्यपपाठश्छन्दोमङ्गात् । ३. 'इलेष्मादिरस्थिरतादिमहाभूतानि' इति पाठान्तरम् ॥
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अमरकोषः ।
[ तृतीयकाण्डे
इन्द्रियाण्यश्मविकृतिः शब्दयोनिश्च धातवः ।। ६५ ।। १ कक्षान्तरेऽपि शुद्धान्तो नृपस्यासर्वगोचरे । २ कासूसामर्थ्ययोः शक्ति३र्मूत्तिः काठिन्यकाययोः ॥ ६६ ॥ ४ विस्तारवल्ल्योर्वततिर्वसती रात्रि वेश्मनोः ।
४४६
६ क्षयार्चयोरपचितिः ७ सातिर्दानावसानयोः ॥ ६७ ॥ ८ 'अर्तिः पीडाधनुष्कोट यो९र्जातिः सामान्यजन्मनोः । १० प्रचारस्यन्दयो रीतिः
पच आदि शब्दोत्पत्ति के कारण भूत व्याकरणशास्त्रसम्मत धातु, सोना-चाँदीताँबा - पीतल आदि धातु, ९ अर्थ हैं ॥
' 'शुद्धान्तः' (पु) के रनिवास ( राजाका महल - जहाँ सब कोई नहीं जा सकता ऐसा राजाकी रानियोंका निवासगृह ), राजाकी स्त्रियाँ, अशौचका अन्त, ३ अर्थ हैं ॥
२ 'शक्ति' (स्त्री) के बछ, सामर्थ्य, २ अर्थ हैं ॥ ३ 'मूर्त्तिः' (स्त्री) के कठोरता, शरीर, २ अर्थ हैं ॥
४ 'व्रततिः' ( स्त्री ) के विस्तार, लता, २ अर्थ हैं ॥
६ 'अपचितिः' (स्त्री) के क्षय, पूजा, खर्च, ३ अर्थ हैं ॥
७ 'सातिः ' ( स्त्री ) के दान ( गज-मदका जल ), अन्त, २ अर्थ हैं | ८ 'अर्तिः' ( + आर्त्तिः । खी ) के दुःख, धनुषका दोनोंका किनारा (छोर) २ अर्थ हैं ॥
९ 'जातिः' (स्त्री) के सामान्य अर्थात् जाति ( जैसे- गोव, ब्राह्मणत्व, आदि), जन्म, मालती नामका फूल, छन्द, जातीफल, गोत्र, आँवला, ७अर्थ हैं ॥
१० 'शीतिः' (स्त्री) के रिवाज ( रस्म, लोकाचार ), छन्द, धीरे २ बहना, टपकना, पीतल, लोहेकी मैल ( मण्डूर ), वैदर्भी आदि ( गौडी, पाञ्चाली, लाटिका) काव्य के रसादि-संबन्धी चार रीति, ५ अर्थ हैं ॥
१. 'आतिं:' इति पाठान्तरम् ॥ २. तदुक्तं विश्वनाथेन -- ' पदसंघटना
रीतिरङ्गसंस्थाविशेषवत् ।
उपकर्त्री रसादीनां सा पुनः स्याच्चतुर्विधा ॥ वैदर्भी चाथ गौडी च पाञ्चाली काटिका तथा' ।
इति सा० द० ९ ६ ४४ - ६४५
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
-१ ईतिडिम्बप्रवासयोः ॥ ६८ ॥ २ उदयेऽधिगमे प्राप्तिस्त्रेता स्वग्नित्रये युगे। ४ वीणाभेदेऽपि महती ५ भूतिर्भस्मनि संपदि ।। ६९ ॥ ६ नदीनगर्यो गाना भोगवत्यऽथ संगरे ।
सने सभायां समितिः ८ क्षयवासावपि 'क्षिति ॥ ७० ॥ ९ रवेरर्चिश्व शस्त्रं च वह्निज्वाला च हेतयः । १० जगती जगति च्छन्दोविशेषेऽपि क्षितावपि ॥ ७१ ॥
१ 'ईतिः' (स्त्री) के विप्लव ( बहुत वर्षा होना, सूखा पड़ना अर्थात् वर्षाका न होना; टिड्डी, मुसे, सुग्गेका, लगना, राजाका पास आना; ये ६ उप. इव), परदेश जाना, २ अर्थ हैं ॥
२ प्राप्तिः' के उत्पत्ति, पाना, २ अर्थ हैं ॥
३ 'त्रेता' (स्त्री) के दक्षिण, गार्हपत्य और हवनीय नामके तीन अग्निविशेष, त्रेता नामक युग, २ अर्थ हैं ॥
४ 'महती' (स्त्री) के नारद ऋषिकी वीणा, महत्त्वसे युक्त (बड़ी) स्त्री,
५ भूतिः' (स्त्री) के भस्म (राख), सम्पत्ति, हाथोका शृङ्गार,
६ 'भोगवती' (स्त्री) के दौकी नदी, सों की नगरी ( पाताल),
७ 'समितिः' ( स्त्री) के युद्ध, सङ्ग, सभा ३ अर्थ हैं । ७ 'क्षितिः' (स्त्री) के विनाश, निवास, पृथ्त्री कालभेद, ४ अर्थ हैं ॥ ९ 'हेतिः' (स्त्री) के सूर्य की किरण, हथियार, आगकी ज्वाला ३ अर्थ हैं ।
१० जगती (स्त्री) के संसार, बारह अक्षर के ( जैसे-वंशस्थ, तोटक, इन्द्रवंशा आदि ) छन्द, पृथ्वी, जन, ४ अर्थ है ॥
१. क्षितिः' इति पाठान्तरम् ॥ २. शव पड् भवन्ति । ता यथा -
'अतिवृष्टिर नावृष्टिः शलभा मूषकाः शुकाः।
प्रत्यासन्नाश्च राजानःपडेता ईतयः स्मृताः' ॥ इति । कचित्त-स्वचक्रं पर चक्रं च सप्तैता ईतयः स्मृताः इत्येवमुत्तरार्द्ध दृश्यते ॥
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अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे१ 'पश्छिन्दोऽपि दशमं २ स्यात्प्रभावेऽपि चायतिः । ३ पत्तिर्गतौ च ४ मूले तु पक्षतिः पक्षभेदयोः ।। ७२॥ ५ प्रकृतियोनिलिने च ६ कैशिक्याद्याच वृत्तयः। ७ सिकताः स्युर्वालुकापि ८ वेदे श्रवसि च श्रुतिः ॥ ७३॥
'पङ्कि' (स्त्री) के दश अक्षरके (जैसे-चम्पक्रमाला, मनोरमा, मत्ता आदि ) छन्द, पंक्ति (कतार), २ अर्थ हैं ॥ २ 'आयतिः' (स्त्री) के प्रभाव, उत्तर काल, २ अर्थ है ।।
३ 'पत्तिः ' (स्त्री) के चलना, योद्धा, सेना-विशेष (१० २९२ या २१८८०) पैदल ४ अर्थ हैं ॥
४ 'पक्षतिः' (स्त्री) का पक्ष (शुक्ल या कृष्ण) की प्रथम तिथि अर्थात् प्रतिपदा, चिड़िया आदिके पङ्खकी जड़, २ अर्थ हैं ॥
५'प्रकृतिः' (स्त्री) के योनि, लिङ्ग (पुंलिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग, नपुंसक ), स्वभाव, शिल्पी ( कारीगर ), नागरिक-मन्त्री, आदि, गुणसाम्य, ६ अर्थ हैं ।
६'वृत्तिः' (स्त्री) के कैशिकी आदि (आरभटी, शाश्वती, भारती) काव्य-सम्बन्धी चार 'वृत्ति, जीविका, सूत्रादिका अर्थ हैं ।
७ सिकताः' (स्त्री नि० ब० व०) के बालू , बालसे युक्त स्थान या देश चीनी, ३ अर्थ हैं ।
८ 'श्रुतिः' (स्त्री) के वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद), कान, वार्ता, ३ अर्थ हैं ॥
१. पंक्तिश्छन्दो दशापि स्यात्' इति पाठान्तरम् ॥ २. भारती शाश्वती चैव कशिक्यारमटी तथा ।
पतनों वृत्तयश्चैताः यासु नाट्यं प्रतिष्ठितम् ॥ इति । दशरूपकेऽपि 'तद्वयापारात्मिका वृत्तिश्चतुर्द्धा, तत्र कैंशकी' (दशरू० २४७ ) इत्यारभ्य 'चतुर्थी भारती सापि वाच्या नाटकलक्षणे (दशरू० २।६० इत्यन्तेन तद्भेदा) उक्त अग्रेच
'शृङ्गारे कैशिकी वीरे सात्वत्यारभटी पुनः।
रसे रौद्र च बीभत्से वृत्तिःसर्वत्र भारती' ॥ (दशरू० २।६१) इत्यनेन करयाः कोपयोग इति कथितम् ।।
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पामार्थवर्ग:३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४४४ १ वनिता जनितात्यर्थानुरागायां च योपिति । २ गुप्तिः क्षितिव्युदासेऽपि ३ धृनिर्धारणधर्थयोः ।। ७ ।। ५ वृहती क्षुद्रवार्ताको छन्दाभेदे मायपि । ५ 'वासिता स्वीकारण्यांश्च ६ वातोनशुतो li
धात फल्गुन्यरोगे च विष्व ७ प्सु तामृतं । ८ कलधौतं रुप्य हेम्नो ९निमितं हेतुलक्ष्मणोः ।। ७६ ।। १० श्रुतं शास्त्रावधृतयो ११ युगपर्यातयोः कृतम् । १२ अत्याहितं महाभीतिः कर्म जीवानक्षि च ।। ७७ ।। १ 'वनिता' (स्त्री) के अत्यन्त प्यारी स्त्री, स्त्रीमात्र, २ अर्थ हैं ॥
२ 'गुप्तिः' (स्त्री) के जमीनका गढा ( गुफा या सुरङ्ग), जेलखाना, रक्षा ३ अर्थ हैं।
३ 'धृतिः' (स्त्री) के धारण, धैर्य, योग-विशेष, यज्ञ, पुष्टि, ५ अर्थ हैं ॥
४ 'बृहती (स्त्री) के रेंगनी (भटकटैया), नव अक्षर का (जैसेमणिबन्ध,.. ) छन्द, बड़ी, विश्वावसुकी वीणा, वस्त्र विशेष ५ अर्थ हैं ॥
५ 'वासिता' (+वाशिता । स्त्री) के स्त्री, हथिनी, २ अर्थ हैं ।
६ 'वार्ता' (स्त्री) के जीविका, बात, २ अर्थ और 'वार्तम्' (त्रिके सारहीन (निस्तत्व, निर्बल), नीरोग, २ अर्थ हैं ।
७ 'घृतम्' (न) के घी, पानी, २ अर्थ और 'घृतम्' (त्रि) का प्रदीप्त, १ अर्थ तथा 'अमृतम्' (न) के अमृत, पानी, घी, यज्ञ-शेष, अयाचित, मोक्ष ६ अर्थ और 'अमृतः (पु) के धन्वन्तरि, देवता, २ अर्थ हैं।
८ 'कलधौतम्' (न) चाँदी, सोना, २ अर्थ हैं । ९ निमित्तम्' (न) के कारण, चिह्न, २ अर्थ हैं ।
१० 'श्रुतम्' (न) का शास्त्र, : अर्थ और 'श्रुतम्' (त्रि ) का सुना हुआ, १ अर्थ है ॥
११ 'कृतम्' (न ) के सत्ययुग, पर्याप्त (पूरा, काफी); २ अर्थ हैं ।
१२ 'अत्याहितम् (न) के बड़ा भय, जीनेकी आशा छोड़कर किया हुआ बहुत बड़ा साहस, २ अर्थ हैं ।
१. 'वाशिता' इति पाठान्तरम् ।।
२६ अ०
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४५० अमरकोपः।
[ तृतीयकाण्डे१ युक्ते मादामृते भूतं प्राण्यतीते समे त्रिषु । २ वृत्तं पद्य चरित्रे त्रिवतीते दृढनिस्तले ॥ ७॥ ३ महद्राज्यं चा ४ वगीतं जन्धे स्थाद् गर्हिते त्रिषु । ५ श्वेतं रूप्येऽपि ६ रजतं हेमन रूपये सिते त्रिषु ।। ७२ ॥ ७ 'त्रिवतो ८ जगदिङ्गेऽपि रक्तं नील्यादि रागि च ।
१ 'भूतम्' (न) के युक्त ( उचित ), पृथ्वी आदि (जल, वायु, तेज और आकाश), सत्य, ३ अर्थ और 'भूतम्' (त्रि ) के प्राणी, बीता हुआ, सदृश, प्राप्त, ४ अर्थ हैं ।
२ 'वृत्तम् (न) के श्लोक आदि पद्यमात्र (जिनमें मात्राकी नहीं किन्तु वर्गोंकी गणना हो वह पद्यविशेष' ), चरित्र, २ अर्थ और 'वृत्तः' (त्रि ) क बीता हुआ, दृढ़ (मजबूत), गोलाकार, अधीत (पढ़ा हुआ ), ४ अर्थ हैं ।
३ 'महत्' (त्रि) का बड़ा, १ अर्थ और 'महत्' (न) का राज्य, ५ अर्थ है ॥
'अवगीतम्' (न)का जनापवाद, १ अर्थ और 'अवगीतः' (त्रि) के सिद्धान्न, निन्दित, दुष्ट ( + दृष्ट अर्थात् देखा गया), ३ अर्थ हैं ।
५ 'श्वेतम्' (न) का चाँदी १ अर्थ; 'श्वेतः' (त्रि) का सफेद पदार्थ, १ अर्थ; 'श्वेतः' (पु) के द्वीप-विशेष, पर्वत-विशेष, २ अर्थ और + 'श्वेता' (स्त्री) के कौड़ी, काष्ठपाटली, शङ्खिनी, ३ अर्थ हैं ॥
६ रजतम्' (न) सोना, चाँदी, २ अर्थ और 'रजतम्' (त्रि) का सफेद वर्णवाला पदार्थ । अर्थ है ॥
७ यहाँसे सब तान्त शब्द त्रिलिङ्ग हैं ॥
८ 'जगत्' (त्रि) का जङ्गम, । अर्थ; 'जगत्' (न) का संसार, १ अर्थ और 'जगत्' (पु) का वायु, १ अर्थ है ॥
९ रक्तम्' (न) का लाल रंग, खून, कुकुम, ३ अर्थ, 'रका' (त्रि) के अनुरक्त, रँगा हुआ कपड़ा आदि, २ अर्थ हैं ।
१. 'त्रिष्वितो' इति पाठान्तरम् ।। २. एतच्च द्रष्टव्यं छन्दोमायो 'पचं चतुष्पदों स्यादिनोकं प्रथमायाये।
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। नानार्थवर्ग:३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४५१ १ अधदातः मिते पीते शुद्ध २ यद्धार्जुनौ सितौ ॥ ८॥ ३ युक्तेऽतिसंस्कृते मर्षिण्यामनीतो ४ 5 संस्कृतम् ।
कृत्रिमे लक्षणोपेतेय ५ बन्नोऽध पनि ।। ८१ ॥ ६ ख्याते हृष्टे प्रतीतो ७ऽभिजातस्तु कुलजे बुधे । ८विविक्तो पूतविजनी ९ मूर्चिततो सूढ होच्छ्यौ ।। ८२ ॥ १० वी चाम्लपरुषो शुको ११ शिनी अनेकौ ! १२ सत्ये साधी विद्यमाने घशस्तेऽभ्यहिते व सत् ।। ८३ ।। १३ पुरस्कृतः पूजितेऽरात्यनियुक्नेऽग्रतः कते। १'अवदातः' (त्रि) के सफेद, पीला, शुद्ध ३ अर्ध हैं ॥ २ सितः' (त्रि) बंधा हुआ, समाप्त, श्वेत, (सफेद) पदार्थ, ३ अर्थ हैं ।
३ 'अभिनीतः' (त्रि) के कृत्रिम (बनावटी, नकली), अत्युत्तम, सहनशील, ३ अर्थ हैं ॥
१ 'संस्कृतम्' (त्रि) के बनाया (संस्कार किया) हुआ, उत्तम, भूषित, ३ अर्थ और 'संस्कृतम्' (न) का पगिन्यादि के लक्षणोंसे सिद्ध अर्थात् संस्कृत भापा, १ अर्थ है ॥ __ ५ 'अनन्त' (त्रि) का अन्तरहित, १ अर्थ, 'अनन्तः ' (पु) के शेष नाग, विष्णु, २ अर्थ और 'अनन्तम्' (न ) का आकाश, १ अर्थ है ॥
६ 'प्रतीतः' (त्रि) के प्रसिद्ध, प्रसन्न, जाना हुआ, ३ अर्थ हैं ।
७ 'अभिजातः' (त्रि) के श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न (खान्दानी), विद्वान् , न्याययुक्त, ३ अर्थ हैं ।
८ विविक्तः (त्रि) के पवित्र, एकान्त, विवेकवाला, ३ अर्थ हैं । ९ 'मूच्छितः' (त्रि) के मूर्ख, वृद्धिसे युक्त, बेहोश, ३ अर्थ हैं । १० 'शक्तः' (त्रि) के खट्टा (काजी), कठोर, २ अर्थ हैं । ११ 'शितिः' (त्रि) के सफेद, काला, २ अर्थ हैं ॥
१२ 'सत्' (त्रि) के सत्य, साधु (सजन), विद्यमान, प्रशस्त (उत्तम), पूजित, धीर, मान्य, ७ अर्थ हैं ।
१३ 'पुरस्कृतः' (त्रि) के पूजित, शत्रुसे आक्रान्त, आगे किया हुआ, श्रेष्ठ, ४ अर्थ हैं।
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४५२ अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ निघताचाश्रयावानी शस्त्राभेदां च धर्म यत् ॥ ८४ ॥ २ जाताना म्युरुच्छिता ३ उत्थिताम्त्वमी।
वृद्धि नाचलो . सातो सादराचिंती ।। ८५ ॥ ५ कर्मवो विगति ६र्गदम्युल्बणे तृणे (४३) ७ ऋलनुञ्छशिले रूत्ये शोभनेऽपि विवक्षितम् (४४) ८ उदास्थितः प्रतीहारे चरभेदे ९ समाहितः (४५)
ध्यानस्थे चाप्य १० नीकस्थो गजलक्षणवेदिनि (४६) ११ श्रद्धारचनयाभक्तिर्गौण्यां वृत्ती च सेवने (१७)
१ निवात.' (त्रि) के निवासस्थान, वायुसे रहित देश-स्थान आदि, हथियारसे अभेद्य कवच, ३ अर्थ हैं ॥
२ 'उच्छ्रितः' (त्रि) के उत्पन्न, अभिमानी, बढ़ा हुआ, ३ अर्थ हैं ।
३ 'उत्थितः' (त्रि) के वृद्धिवाला, प्रवृत्त ( लगा हुआ, तैयार ), उत्पन्न, ३ अर्थ हैं।
४ 'आरतः' (त्रि) के सत्कारसे युक्त, आदर पाया हुआ, २ अर्थ हैं । ५['गतिः' (स्त्री) के कर्म-विपाक, गमन, २ अर्थ हैं ] ॥ ६ [ 'गर्मुत्' (पु) के सोना, स्पष्ट, तृण; ३ अर्थ हैं ] ॥
७ ['ऋतम्' (न) के उच्छशिल (खेत या खलिहान आदिसे अन्नका १-१ दाना चुंगना), सत्य, सुन्दर, ३ अर्थ हैं ] ॥
6 [ उदास्थितः' (पु) का प्रतीहार(द्वार),दूत-विशेष, अध्यक्ष, ३ अर्थ हैं।
९ ['समाहितः' (त्रि) के ध्यानमें मग्न, आहित, प्रतिज्ञात, समाधान करनेबाला, ४ अर्थ हैं ] ॥
१० [अनीकस्थः' ('पु) के युद्ध में स्थित, हाथी के लक्षणों को जाननेपाला, राजरक्षक, ३ अर्थ हैं ] ॥
११ ['भक्तिः' (स्त्री) के श्रद्धा, रचना-विशेष, गौणी वृत्ति, सेवा करना, ५ अर्थ हैं ] ।
१. 'कर्मविपावेऽपि...."स्थितिः' इत्यरं क्षेपकांशः क्षी० म्वा० व्याख्यायां दुर्गवचनत्वे. नोपलभ्यत इति प्रकृतोपयोगितयात्र क्षेपकत्वेन निहितः।
२. तान्तशब्देषु थान्तशब्दपठनमनुचितं प्रतिभाति ।। ३. थकारान्तः कथमुक्तः क्षी० स्वा० ॥
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नानार्थवर्ग:३] भणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
४५३ . १ आप्तौ लब्धप्रत्ययिती २ नहा पुनश्च पुत्रयोः (४८) ३ समूहोत्पन्नयो त ४ मांजिटीपीन्द्रयोः (४१) ५ सौतिकेऽपि प्रशतो ६ ऽशावपातयतटावटी (५०) ७ समित्सने रणेऽपि स्त्री ८ व्यवस्थायामपि स्थितिः' (५१)
शति तान्ताः शब्दाः ।
अथ थान्ताः शब्दाः । ९ सर्थाऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजननिवृत्तिषु ।। १० निपानागमयास्तार्थमृषिजुटे जले गुरौ ॥ ८६ ।।
1 [ 'आप्तः' (त्रि) के लब्ध (मिला हुआ ), निश्वस्त, २ अर्थ हैं ] ॥
२ [ 'नता' ( = नप्त पु), का पोता (पुत्र का पुत्र ), नातो (पुत्रीका पुत्र), २ अर्थ हैं ] ॥
३ [ 'जातम्' (न) का समूह, अर्थ और 'जातम्' (त्रि) का उत्पन्न, १ अर्थ है ॥
४ [ 'अहिजित्' (पु) के विशु, इन्द्र, २ अर्थ हैं ] ॥ ५ [ 'प्रतापः' (पु) के पहाड़ का झरना, लेटना, २ अर्थ हैं ] || ६ [ 'अवपातः' (पु) के अतट (विना किनारावाला), गढा, २ अर्थ हैं ] ॥ ७ [भित्( स्त्री) ॐ संग, मद, २ अथ हैं ] ।। ८ [ स्थितिः' (स्त्री) के व्यवस्था, निवासस्थान, टिकाव, ३ अर्थ है ] ॥
इति तान्ताः शब्दाः ।
अथ धावा शब्दाः । ९ 'अर्थः' (पु) के कहने योग्य, धन, वस्तु, प्रयोजन, (उद्देश्य, मतलब), निवृत्ति, ५ अर्थ हैं ॥
१. 'तीर्थम्' (न) के कूपादिके पासका जलाशय ( गढा । + सीढ़ी मुकु० । + निदान अर्थात् उपाय), बौद्धशास्त्रसे भिन्न शास्त्र, ऋपिसे सेवित जल, गुरु, यज्ञ, पुण्यक्षेत्र, यज्ञवाला, स्त्री-रज, योनि, पात्र, दर्शन, ११ अर्थ हैं । १. 'निदानागमयोस्तीर्थमृषिजुष्टे' इति पाठान्तरम् ।।
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४५४ अमरकोषः।
[तृतीयकाडे१ समर्थस्त्रिषु शक्तिस्थे संबद्धार्थे हितेऽपि च । २ दशमीस्थी क्षीणरागवृद्धौ ३ वीथी पदव्यपि ॥ ८७॥ ५ आस्थानीयत्नयोरास्था ५ प्रस्थोऽस्त्री सानुमानयोः।। ६ "शास्त्रद्रविणयोर्ग्रन्थः ७ संस्थाऽऽधारे स्थिती मृतौ (५२)
इति थान्ताः शब्दाः।
अथ दान्ताः शब्दाः । ८ अभिप्रायवशी छन्दा ९ वदो जीमूतवत्सरो ॥ ८८ ।। १. अपवादी तु निन्दाशे ११ दायादौ सुतवान्धवी। १२ पादा रश्म्यघ्रितुर्याशा १३ श्चन्द्राग्न्यास्तमोनुदः ॥ ८९ ।। , 'समर्थः' (त्रि) के बलवान् , सम्बद्ध अर्थ, हित, ३ अर्थ हैं ।। २ 'दमशीस्थः' (त्रि) के क्षीण रागवाला (प्रेमहीन), वृद्ध, २ अर्थ हैं ।।
३ 'वीथी' (स्त्री) के रास्ता (गली), पङ्क्ति (कतार), गृहप्रान्त ३ अर्थ हैं।
४ 'आस्था ' (स्त्री) के सभा, उपाय, आलम्बन, अपेक्षा, ४ अर्थ हैं ।। ५ 'प्रस्थः ' (पु) के शिखर (कँगूरा), परिमाण-विशेष (सेर), २ अर्थ हैं। ६ [ 'ग्रन्थः ' (पु) के शास्त्र, धन, २ अर्थ हैं ] ॥
७ [ 'संस्था' (स्त्री) के आधारं, स्थिति, मृति, संस्था ( सभा, सोसायटो आदि), ४ अर्थ हैं.] ॥
इति थान्ताः शब्दाः ।
अथ दान्ताः शब्दाः। ८ 'छन्दः' (पु) के अभिप्राय, वश, २ अर्थ हैं । ९ 'अन्दः' (पु) के मेघ, वर्ष, पर्वत विशेष, मोथा, ४ अर्थ हैं।
१० 'अपवादः' (पु) के निन्दा, आज्ञा, विश्रम्भ, निरवकाश (बाधक) सूत्रादि, ४ अर्थ हैं।
११ दायादः' (पु) के पुत्र, परिवार, २ अर्थ हैं । १२ पाद: (पु) के किरण, पैर, चौथाई हिस्सा, ३ अर्थ है। १३ 'तमोनुत्' ( = तमोनुद् पु) के चन्द्र, अग्नि, सूर्य, ३ अर्थ हैं ।। १. 'अयं क्षेपकांशः क्षी० स्वा व्याख्यानेऽमरविवेकमूलपुस्तके तयाख्याने चोपलभ्यते ॥
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मानार्थवर्गः३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
४५५ १ निर्वादो जनवादेऽपि २ शादो जम्बालाग्योः । ३ मारावे रुदिते प्रातर्याक्रन्दो दारुणे रणे ॥१०॥ ४ स्यात्प्रसादोऽनुरागेऽपि सूदः स्पद् व्यञ्जनेऽपि च । ६ गोष्ठाध्यक्षेऽपि गोविन्दो ५ हामीमदः॥ ११ ॥ ८ प्राधान्ये राजलिङ्गे च वृषाङ्गे सकुन्दोऽस्त्रियाम् । ९ स्त्री संविधानसभाषाकिया काराजिनामसु ॥ ९२ ।।
१ 'निर्वादः' (पु) के जनापवाद, सिद्धान्त, २ अर्थ हैं । २ 'शादः' (पु) के कीचड़ (पक ), घास २ अर्थ हैं ।
३ 'आकन्दः ' (पु) के कष्ट युक्त शब्द, रोना, रक्षक, भयङ्कर शुद्ध, ४ अर्थ हैं।
४ 'प्रसाद' (पु) के अनुग्रह, प्रसन्नता, काव्य का 'गुग--विशेष, ३ अर्थ हैं । _५ 'सुदः' (त्रि) के व्यञ्जन (कई, बरी, तरकारी आदि), रसोइयादार, २ अर्थ हैं ॥
६ 'गोविन्दः' (पु) के गोष्ट ( गोशाला ) का मालिक, विष्णु, वृहस्पति, ३ अर्थ हैं ॥ ___७ 'आमोदः' (पु) के हर्प, दूर ही से चितको आकर्षित करनेवाला कस्तूरी आदिका गन्ध, २ अर्थ और 'मदः' (पु) के हर्प, कस्तूरी, वोर्य (शुक्र), गर्व ( अहङ्कार ), हाथीका मद, ५ अर्थ हैं ।
८ ककुदः (पुन) के प्राधान्य, राज-चिह्न (छत्र, चंबर आदि), बैल या साँड़सा डील, पहाड़की चोली, ४ अर्थ हैं ।
९ 'सांवत्' ( = संविद् स्त्री) ज्ञान, संभाषा (संभाषण । + संकेत), कर्मका नियम वा व्यवस्थापन, लड़ाई, नाम, तोषण, आचार, प्रतिज्ञा, ८ अर्थ हैं। १. विश्वनाथेन प्रसादलक्षणमुत्तन्तद्यथा
'चित्तं व्याप्नोति यः क्षि शुष्कन्धनमिवानलः ।
स प्रसादः समस्तेषु रसेषु रचनासु च' ॥ इति सा० द० ६ । ६३१ ।। काव्यप्रकाशे च-'शुष्कन्धनादिवत्स्वच्छजलवत्सहसैव यः।
व्याप्नोत्यन्यत्प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थितिः' ॥ इति ।।
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1
१५६
अमरकोषः ।
[ तृतीय काण्डे
३ पदं
४
१ धर्मे रहस्युपनिषत् २ स्यादतौ वत्सरे शरत् । व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्मात्रिवस्तुषु ॥ ९३ ॥ गोष्पदं सेविते माने ५ प्रतिष्ठा कृत्यमास्पदम् । ६ त्रिविष्टमधुरो स्वादू ७ मृदू चातीक्ष्णकोमलौ ॥ ९४ ॥ ८ मूढाल्पापनिर्भाग्या मन्दाः स्यु ९ औँ तु शारदी। प्रत्यग्राप्रतिभौ १० विद्वत्सुप्रगल्भो विशारदौ ॥ ९५ ॥ इति दकारान्ताः शब्दाः ।
अथ धकारान्ताः शब्दाः ।
११ व्यामो वटश्व न्यप्रोधौ
१ 'उपनिषत् ' ( = उपनिषद् स्त्री ) के धर्म, एकान्त, वेदान्त ( ग्रन्थविशेष ), ३ अर्थ हैं ॥
२ 'शरत्' (= शरद् खी) के शरद् ऋतु ( पृ० ४२ ), वर्ष, २ अर्थ हैं ३ 'पदम् ' ( न ) के व्यवसाय, रक्षा, स्थान, चिह्न, पैर, शब्द (सुबन्ध और तिङन्त ), वाक्य, एक वस्तु, व्यवसाय, अपदेश, १० अर्थ हैं ॥
४ ' गोष्पदम् ' ( न ) के गौओसे सेवित स्थान, गौके चरणतुल्य प्रमाणवाला गढा २ अर्थ हैं ॥
५ 'आस्पदम् ' ( न ) के प्रतिष्ठाका स्थान, काम, १ अर्थ हैं ॥
६ 'स्वादुः' (त्रि ) के इष्ट, मधुर, स्वादिष्ट, ३ अर्थ हैं ॥
७ 'मृदुः ' (त्रि ) के तेजोहीन, कोमल २ अर्थ हैं ॥
८ ' मन्दः' (त्रि) के अल्प, बेवकूफ भाग्यहीन, शिथिल, स्वच्छन्द, रोगी, शनि, ७ अर्थ हैं ॥
९ 'शारदः' (त्रि ), के नया (टटका), डरपोक ( ढिठाई से होन ), शरद् ऋतु में उत्पन्न, ३ अर्थ हैं ॥
१० 'विशारदः' (त्रि ) के विद्वान्, प्रतिभावाला, २ अर्थ हैं ॥ इति दान्ताः शब्दाः |
अथ धान्ताः शब्दाः |
हुए
११ 'न्यग्रोधः' (पु) के व्याम ( अँकवारभर अर्थात् फैलाये हार्थोके घेरेका प्रमाण-विशेष ), बरगद ( बढ़ ) का पेड़, २ अर्थ हैं ॥
दोनों
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४७
नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः। १७
-१ उत्सेवः काय उन्नतिः । २ पर्याहार मार्गश्च विधौ बीवधौ च तो।। ९६ ॥ ३ परिधिर्यशियतरोः नाखानामुपसूर्यके । ४ वधक व्यलनं चेतःपीडाधिष्ठानमाधयः ॥ ९७ ॥ ५ स्युः समर्थननीयाकनियमाश्च समाधयः । ६ दोषोत्पादेऽनुबन्धास्यात्प्रत्यादिधिनश्वरे।। ९८ ॥
मुख्यानुयायिनि शिशौ प्रकृतस्यानुवर्तने ।। , 'उत्सेधः' (पु) के शरीर, उन्नति (ऊँचाई ), २ अर्थ हैं ।
'विवधः, वीवधः' (२ पु) के वहँगी या काँवर, रास्ता, बोझ, ३ अर्थ ॥
३ 'परिविः' (पु) के यज्ञ-सन्बन्धी पेड़ (पलाश, शमी आदि) की शाखा, परिवेप नामका सूर्यके चारों तरफवाला घेरा, गोलाई, ३ अर्थ हैं । ___४ 'माधिः' (पु) के बन्धक (ऋग लेने के समय विश्वास के लिये महाजनके पास रखी हुई चीज अर्थात् थाती, धरोहर), आपत्ति, मानसिक पीड़ा, अधिष्ठान, ४ अर्थ हैं ॥
५'समाधिः' (पु) के समर्थन, चुप रहना, नियम ( अपनेको ब्रह्मरूप' समझना), ३ अर्थ हैं ।
६ 'अनुबन्धः' (पु) के दोष लगाना, नष्ट होनेवाले (प्रकृति, प्रत्यय, आगम, आदेश आदिमें इत्संज्ञा होनेपर लुप्त होनेवाले) अक्षर ( जैसे-एध, डुपचष् , सु, औट , तिप् , ङीष , गुट नुट् , धुट् , नुम् ,'' में क्रमशः अकार, हु तथा अष, उ, "वर्ण), पिता आदि श्रेष्ठोंकी आज्ञा माननेवाला बालक, प्रकरणागत विषयोंका अनुवर्तन (जैसे-वैरानुन्धः,... ) ४ अर्थ हैं । १. सूतसंहितायां समाधिलक्षणमुक्तन्तद्यथा
'सोऽहं ब्रह्म न संसारी न मत्तोऽन्यत्कदाचन ।
इति विद्यात्स्वमात्मानं स समाधिः प्रकीर्तितः' ॥ इति ।। अन्यच्च-समाधि'तु समाधानं जीवात्मपरमात्मनोः ।
ब्रह्मण्येव स्थितायां स समाधिः प्रत्यगात्मनः ॥ इति । भगवता पतञ्जलिना योगसूत्रेऽपि
'तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधिः'।। इति यो० सू० ४ । ३ इति ।
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अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ विधुविष्णौ चन्द्रमसि २ परिच्छेदे बिलेऽवधिः ॥ ९९ ॥ ३विधिविधाने देवेऽपि प्रणिधिः प्रार्थने चरे। ५ बुधवृद्धौ पण्डितेऽपि ६ स्कन्धः समुदयेऽपि च ॥ १०॥ ७ देशे नविशेषेऽब्धौ सिन्धुर्ना सरिति स्त्रियाम् । ८ विधा विधौ प्रकारे च ९ साधू रम्येऽपि च त्रिषु ॥ १०१॥ १० बधूर्जाया स्नुषा स्त्रीच ११ सुधालेयोऽमृतं स्नुही। १२ संधा प्रतिक्षा मर्यादा १३ श्रद्धा संप्रत्ययः स्पृहा ॥ १०२।। १४ मधु मधे पुष्परसे क्षौद्रेपि१ 'विधुः' (पु) के विष्णु, चन्द्रमा, कर्पूर, ३ अर्थ हैं । २ अवधिः' (पु) के समान ( हद्द), बिल या गढा, समय, ३ अर्थ हैं। ३ विधिः' (पु) के विधान (कानून), भाग्य, ब्रह्मा, समय, प्रकार, ५ अर्थ हैं। ४ 'प्रणिधि:' (पु) के याचना करना, दूत, २ अर्थ हैं ।
५ 'बुधः' (पु) के पण्डित, बुधनामक ग्रह २ अर्थ और 'वृद्धः' (त्रि) के पण्डित, पुराना या बूढ़ा, बढ़ा हुआ, ३ अर्थ हैं ॥
६ 'स्कन' () के समूह, सैन्यभाग, काण्ड (शाखा, डाल ), कन्धा,
राजा, ५ अर्थ हैं।
७ 'सिन्धुः ' (पु) के सिन्धुदेश, नद-विशेष ( यह पजाब-में है ), समुद्र, ३ अर्थ और 'सिन्धुः ' (स्त्री) का नदी, १ अर्थ है ॥
८'विधः' (स्त्री) के विधि, प्रकार ( तरह, जैसे-द्विविधा, त्रिविधा,." ... ), हाथी-घोड़े आदिका भोजन, वेतन, वृद्धि ५ अर्थ हैं ।
९ 'साधुः' त्रि) के रमणीय, सजन (महात्मा), बनियाँ, ३ अर्थ हैं ।
१० 'वधूः' (स्त्री) के पत्नी, पतोहू (पुत्र-भतीजा आदिकी स्त्री), स्त्री-मात्र ३ अर्थ हैं।
१५ 'सुधा' (बी) के लेप, आरत, मोड, ३ अर्थ हैं। १२ 'संधा (स्त्री) के स्वीकार, मर्यादा, प्रतिज्ञा, ३ अर्थ हैं । १३ 'श्रद्धा' (स्त्री) के आदर, काङ्खा, २ अर्थ हैं ।
१४ 'मधु' (न) के मदिरा फूलका रस, शहद, दूध ४ अर्थ और 'मधु' (पु) के वसन्त (चैत-वैशाख) ऋतु, मधु नामका दैत्य, चैत्र महीना, एक प्रकारका पेड़, ४ अर्थ हैं ।।
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४५ -१ अन्धं समस्यपि। २ मतस्त्रिषु ३ समुन्नद्धी पण्डितंमन्यगर्विती ॥ १०३॥ ५ ब्रह्मबन्धुरधिक्षेपे निदेशे ५ ऽथावलस्थितः।
अविदूरोऽप्यवष्टब्धः ६ प्रसिद्धौ ख्यातभूषितौ ॥ १०४।। ७ 'लेशेऽपि गन्धः ८ संबाधः गृह्यसंकुलयोरपि (५३) ९ बाधा निषेधे दुःखेऽपि १० ज्ञातृवान्द्रिसुरा बुधाः' (५४)
इति धान्ताः शब्दाः।
१ 'अन्धम्' (न) का अन्धकार, १ अर्थं और 'अन्धः' (त्रि) का अन्धा, १ अर्थ हैं॥
२ यहाँसे आगे सब तान्त शब्द त्रिलिङ्ग हैं ।
३ 'समुन्नद्धः (त्रि) के स्वयं पण्डित न होते हुए भी अपनेको पण्डित समझनेवाला, अभिमानी, २ अर्थ हैं।
४ 'ब्रह्मबन्धुः' (त्रि) के निन्दा, (जैसे-हे ब्रह्मवन्धो ! दुष्टोऽसि, ...... ), निर्देश, २ अर्थ हैं ।
५ 'अवष्टब्धः' (त्रि) के अवलम्वित (आश्रित ), समीप (पासवाला), बँधा हुआ, रुका हुआ ४ अर्थ हैं ।
६ 'प्रसिद्ध ' (त्रि), के विख्यात, सुशोभित, २ अर्थ हैं ॥ ७ [ 'गन्धः ' (पु) के लेश, गन्ध ( सुवास), २ अर्थ हैं ] ।
८ ['संबाध' (पु) के गुप्त, सङ्घल (भीड़ आदिसे ठसाठस भर हुआ), २ अर्थ हैं ]॥
९ [ 'बाधा' (स्त्री) के निषेध, दुःख, २ अर्थ हैं ॥ १० [ 'बुधः' (पु) के जाननेवाला, बुध नामका ग्रह, देवता, ३ अर्थ हैं।
इति धान्ताः शब्दाः ।
१. अयं क्षेपकांशः क्षी० वा. व्याख्याने मूलमात्रमुपलभ्यत इति प्रकृतोपयोगितया क्षेपकत्वेन स्थापितः ।।
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४६०
अमरकोषः
[ तृतीयकाण्डे.
अथ नान्ताः शब्दाः। १ सूर्यवही रिप्रभानू २ भानू रश्मिदिवाकरी । ३ भूतात्मानौ धातृदेहौ मूर्खनीचौ पृथग्जनी ॥ १०५॥ ५ नावादी शैल पाषाणी ६ पत्रिणी शरपक्षिणी। ७ तरुशैली शिखरिणौ ८ शिखिनो बहिबर्हिणौ ॥ १०६ ॥ ९ प्रतियत्नावुभौ लिप्सोपग्रहा १० वथ सादिनौ ।
द्वो सारथियारोदौ ११ वाजिनोश्वेषुपक्षिणः ॥ १०७॥ १२ कुलेऽप्यभिजनो जन्मभूम्यामप्य १३ थ हायनाः ।
वर्षाविज्ञहिभेदाश्च १४ चन्द्राएको विरोचनाः ॥ १०८॥
अथ नान्ताः शब्दाः । १ 'चित्रभानु' (पु) के सूर्य, अग्नि, २ अर्थ हैं ॥ २ 'भानु' (पु) के किरग, सूर्य, २ अर्थ हैं । ३ 'भूतात्मा' ( = भूतात्मन् पु) के ब्रह्मा, शरीर, २ अर्थ हैं ॥ ४ 'पृथग्जनः' (पु) के मूर्ख, नीच, २ अर्थ हैं ॥ ५ 'ग्रावा' ( = ग्रावन् पु) के पहाड़, पत्थर, २ अर्थ हैं ॥
६ 'पत्री' ( = पत्रिन् पु ) के बाण, पक्षी, बाज चिड़िया, रथिक, पहाड़, ५ अर्थ हैं ॥
७ 'शिखरी' ( = शिखरिन् पु), के पहाड़, २ अर्थ हैं ।
८ 'शिस्त्री' ( = शिखिन् पु) के मोर, अग्नि, पेड़, मुर्गा, पक्षी, बाण, केतु नामका ग्रह, ७ अर्थ हैं ।
९ 'प्रतियत्नः' (पु) के लिप्सा, वन्दी-ग्रहणादि, संस्कार, ३ अर्थ हैं ॥ १० 'सादी' ( = सादिन् पु) के सारथि, घुड़सवार, २ अर्थ हैं । 9. 'वाजी' ( - वाजिन् पु) के घोड़ा, बाण, पक्षी, ३ अर्थ हैं ।
१२ 'अभिजनः' (पु) के वंश (खान्दान), जन्म भूमि, ख्याति, कुलसमूह, ४ अर्थ हैं ।
१३ 'हायन' (पु) के वर्ष, किरण, नोवार (तिबी) आदि अन्न, ३ अर्थ हैं। १४ 'विरोचनः' (पु) के चन्द्र, अग्नि, सूर्य, ३ अर्थ हैं।
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MSC
नानार्थवर्गः३] मणिप्रमाव्याख्यासहितः ।
४६१ १ 'कले शेऽपि वृजिनो २ विश्वकर्मार्कसुरशिल्पिनोः । ३ आत्मा यत्नो धृतिर्बद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्म च ॥ १०९ ॥ ४ शको घातकमत्तेमो वर्षुकाब्दो घनाघनः ! ५ अभिमानोऽर्थादिद माने प्रणयहिंसयोः ॥ ११० ॥ ६ धनो मेघे मूर्तिगुणे त्रिषु मूर्ते निरन्तरे। ७ इनः सूर्य प्रभौ ८ राजा मृगाङ्के क्षत्रिये नृपे ।। १११ ।। ९ वाणिन्यो नर्तकीदूत्यो १० सवन्त्यापि वाहिनी।
१ 'वृजिनः' (पु) का क्लेश (+केश), 'वृजिनम्' (न) का पाप, रक्तचर्म २ अर्थ और 'वृजिनः' (त्रि) का कुटिल, १ अर्थ है ॥
२ विश्वकर्मा (= विश्वकर्मन् पु) के सूर्य, देवताओंका कारीगर (बढ़ई), २ अर्थ हैं । - ३ 'आत्मा' ( = आत्मन् ए) के यत्न, धैर्य, बुद्धि, स्वभाव, ब्रह्म, शरीर, क्षेत्रज्ञ (ज्ञानी पुरुष), अर्थ हैं।
४ 'घनाघनः' (पु) के इन्द्र, घातुक (हिंसा करनेवाला) मतवाला हाथी, बरसनेवाला साल (वर्ष), ३ अर्थ हैं ।
५ 'अभिमान:' (पु) के धन आदिका घमण्ड, ज्ञान, प्रेम, हिंसा, ४ अर्थ हैं।
६ 'धनः' (पु) के बादल, कड़ापन, लोहेका मुद्गर, बाहुल्य, मुस्त, ५ अर्थ और 'घनः' (त्रि) के कटोर, गझिन, कासेका बाजा, ३ अर्थ हैं ।
७ 'इन:' (पु) के सूर्य, प्रभु या समर्थ, श्रेष्ठ, ३ अर्थ हैं ।
८ 'राजा' ( = राजन् पु) के चन्द्रमा, क्षस्त्रिय, राजा, स्वामी, यक्ष, इन्द्र, ६ अर्थ हैं।
९ वाणिनी' (स्त्री) के नाचनेवाली वेश्या आदि, दूती, चतुर स्त्री, मतवाली स्त्री, ४ अर्थ हैं।
१० 'वाहिनी' (स्त्री) के नदी, सेना, सेनाका भेद-विशेष (२१८१८१ का . चक्र), ३ अर्थ हैं।
१. 'केशे' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'शक्रघातुकमत्तेमवषुकाब्दा धनापनाः' इति पाठान्तरम् ।।
३. कचित्तु -'घनो..."निरन्तरे' इत्ययमंशः अभिमानो..."हिंसयोः' इत्यस्यानन्तरं पठ्यते ॥
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3
४६२
अमरकोषः ।
११२ ।।
१ ह दिम्यो वज्रतडितौ २ वन्दायामपि कामिनी ।। ३ त्वग्देहयोरपि तनुः ४ सूनाऽघोजिह्नि कापि च । ५ क्रतुविस्तारयारस्त्री वितानं त्रिषु तुच्छके ॥ ११३ ॥ मन्दे ६ ऽथ केतनं कृत्ये केतावुपनिमन्त्रणे । 'वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः ॥ ११४ ॥ ८ उत्साहने च हिंसायां सूचने चापि गन्धनम् । प्रतीवापजवनाप्यायनार्थकम् ।। ११५ ।।
९ आतश्चन
१ 'ह्रादिनी' (स्त्री) के वज्र (इन्द्रका अस्त्र-विशेष), बिजली, २ अर्थ हैं ॥ २ 'कामिनी' (स्त्री) के बन्ना ( बाँदा अर्थात् पेड़के ऊपर ही उत्पन्न काष्ठ- विशेष), स्त्री, काम (इच्छा) करनेवालो खो, विलासिनी स्त्री, ४ अर्थ हैं ॥ ३ 'तनुः' (स्त्री) के त्वचा (छाल, चमड़ा), शरीर, २ अर्थ और 'तनुः" (त्रि ) के कृश, घोड़ा, विरल, ३ अर्थ हैं ॥
[ तृतीयकाण्डे
४ सूना' (स्त्री) के गलेकी घाँटी, प्राणियोंका वधस्थान, सन्तान, ३ अर्थ हैं ॥
५ ' वितानम्' (न पु ) के यज्ञ, विस्तार, चंदोवा, ३ अर्थ और 'वितानम्' (त्रि ) के तुच्छ, मन्द, २ अर्थ
በ
६ ' केतनम्' (न) के कार्य, पताका, निमन्त्रण (मित्रोंको उत्सव आदिमें जुलाना ), निवास, ४ अर्थ हैं ॥
७ 'ब्रह्म' ( = ब्रह्मन् न ) के ऋग्, यजुष, साम ये तीनों वेद, तत्र, तप, ब्रह्म, ४ अर्थ और 'ब्रह्मा' ( = ब्रह्मन् पु ) के ब्राह्मण, ब्रह्मा, २ अर्थ हैं ॥
८ 'गन्धनम्' ( न ) के उत्साहित करना, हिंसा करना, आशय प्रकट करना, ( + हिंसा - प्रयुक्त सूचना श्री० स्वा० ), प्रकाशन, ४ अर्थ हैं ॥
९ 'आतञ्चनम् ' ( न ) के जोरन डालना ( औंटे दूधमें दही छोड़कर दही जमाना । + गलाये हुए सोनेमें दूसरे द्रव्य के साथ अवचूर्णन करना हो० स्वा० ), वेग, तर्पण ( तृप्त ) करना, ३ अर्थ हैं ॥
१. 'वेदास्तत्त्वं' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'हिंसार्थसूचने' इति श्री०
स्वा० इति पाठान्तरम् ॥
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाब्याख्यासहितः।
१ व्यञ्जन' लाञ्छनं श्मश्रुनिष्ठानावयवेष्वपि । २ स्यात्कौलीनं लोकवादे युद्धे पश्वहिपक्षिणाम् ॥ ११६ ।। ३ स्यादुद्यानं निःसरणे वनभेदे प्रयोजने । ४ अवकाशे स्थितौ स्थानं ५ क्रीडादावपि देवनम् ॥ ११७।। ६ उत्थानं पौरुषे तन्त्रे सन्निविष्टोद्गमेऽपि च । ७ व्युत्थानं प्रतिरोधे च विरोधाचरणेऽपि च ॥ ११८।। ८ मारणे मृतसंस्कारे गतौ द्रव्येऽर्थदापने ।
निर्वर्तनोपकरणानुवज्यासु च साधनम् ॥ ११९ ।।
'पञ्जनम् (न) के चिह्न, दाढ़ो-मूंछ ( हजामत), तेमन (दही कढ़ी, बरी बरा आदि) अवयव, ४ अर्थ हैं।
२ 'कौलीनम्' (न) के लोकापवाद, पशु (भेंडा आदि) पक्षियों (मुर्गातीतर आदि) आदिकी लड़ाई, कुलीनता, ३ अर्थ हैं ।
३ 'उद्यानम्' (न) के निकलना, वागीचा, प्रयोजन, ३ अर्थ हैं ।।
४ 'स्थानम्' (न) के अवकाश, स्थिति, सादृश्य ( बराबरी), ज्योंका त्यों रहना ( न घटना न बढ़ना), ४ अर्थ हैं ।।
५ 'देवनम्' (न) के क्रीडा आदिमें जीतनेकी इच्छा, व्यवहार, २ अर्थ और 'देवनः' (पु) का जुवा (धूत) १ अर्थ है।
६ उत्थानम्' (न) के पुरुषार्थ, तन्त्र (सैन्य, अपने मण्डल अर्थात् राज्य-विषयक चिन्ता, या पारिवारिक काम), ऊँचा उठना ( उन्नति करना), पुस्तक, युद्ध, सिद्धान्त, ६ अर्थ हैं ।।
७ 'युत्थानम्' (न) के तिरस्कार, चोरी आदि विरुद्ध आचरण, स्वतन्त्रता, ३ अर्थ हैं।
८ 'साधनम्' (न) के मरना (पारा आदिका शोधना), मरे हुएका संस्कार (दाह आदि) करना, जाना, धन, धन दिलाना (+ द्रव्यका उपपादन) थन पैदा करना, उपाय, पीछे २ चलना, सैन्य, मेढ़ , १० अर्थ हैं ।।
१. लाम्छनश्मश्रुनिष्ठानावयवेष्वपि' इति पाठान्तरम् ॥ २. 'द्रव्योपपादने' इति पाठान्तरम् ॥
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४६४
अमरकोषः। [तृतीयकाण्डे१ निर्यातनं वैरशुद्धौ दाने न्यालार्पणेऽपि च । २ व्यानं विपदि भ्रशे दोषे काम कोपजे ॥१२० ।। ३ पक्ष्माक्षिलोनिकिअल्के तत्वायंशेऽप्यणीयसि । ५ तिथिभेदे क्षणे पर्व ५ वर्त्म नेत्रच्छदेऽध्यान ॥ १२१ ॥ ६ अकार्यगुह्ये कोपीनं ७ मैथुनं संगतो रते। ८ प्रधानं परमात्मा धीः ९ प्रज्ञानं बुद्धिचिह्नयोः ॥ १२२ ।। १० प्रसूनं पुष्पफलयोः
१ 'निर्यातनम्' (न) के वैरशुद्धि (शत्रु से बदला लेना), दान, धरोहर (थाती) को वापस करना, ३ अर्थ हैं।
२ 'व्यसनम्' (न) के विपत्ति, नीचे गिरना, (अवनति होना), कामजन्य (शिकार, जुआ, मदिरा-पान, स्त्रीसङ्ग आदिसे उत्पन्न ) दोष, क्रोधजन्य (कठोर वचन, कठिन दण्ड आदिसे उत्पन्न ) दोष, निष्फल उद्यम, अशुभ भाग्य का बुरा फल, ६ अर्थ हैं ॥ ___३ 'पक्ष्म' ( = पक्ष्मन् न) के बरौनी (आँखका रोआ), किजल्क (कमलकेसर), सूत आदिका बहुत महीना हिस्सा, ३ अर्थ हैं ।
'पर्व' (पर्वन् न) के तिथि-भेद ( अमावस्या-पूर्णिमा आदि, प्रतिपद् और पञ्चदशी अर्थात् अमावस्या पूर्णिमाको सन्धि ), उत्सव, ग्रन्थका अंश (जैसे-आदिपर्व, वनपर्व, आदि), ३ अर्थ हैं ।
५ 'वर्म' (वर्मन् न) के पपनी (आँखको ढाकनेवाला चमड़ा, पलक,), रास्ता २ अर्थ हैं ।
'कौपीनम्' (न) के नहीं करने योग्य, लँगोटी, गुह्य (शिश्न ), ३ अर्थ हैं ।
७ 'मैथुनम्' (न) के स्त्री आदिका सम्बन्ध, स्त्रीके साथ संभोग करना, २ अर्थ हैं।
'प्रधानम्' (न) के परमात्मा, बुद्धि, मुख्य, सायशास्त्रोक्त प्रकृति, राजाका प्रधान सहाय, ५ अर्थ हैं ।।
९ 'प्रक्षानम्' (न) के बुद्धि, चिह्न २ अर्थ हैं । १. 'प्रसूनम् (न) के फूल, फल, २ अर्थ हैं ।
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४६५
मानार्थवर्ग: ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ निधनं कुलनाशयोः। २ क्रन्दने रोदनाहाने ३ वर्म देहप्रमाणयोः ॥ १२३ ॥ ४ गृहदेहत्विट्प्रभावा धामान्य५थ चतुष्पथे ।
सनिवेशे च संस्थानं ६ लक्ष्म चिह्नप्रधानयोः ॥ १२४ ।।
आच्छादने संविधानमपवारणमित्युभे । 5 आराधनं साधने स्यादवाप्तौ तोषणेऽपि च ॥ १२५॥ ९ अधिष्ठान चक्रपुरप्रभावाध्यासनेष्वपि । १० रत्नं स्वजातिश्रेष्ठेऽपि ११ वने सलिलकानने ॥ १२६ ।। १२ तलिनं विरले स्तोके १३ पाच्यलिङ्ग तथोत्तरे । १४ समानाः सत्समैके स्युः१ निधनम्' (न ) के कुल ( वंश), नाश, २ अर्थ हैं ॥ २ 'क्रन्दनम्। न ) के रोनी, पुकारना, २ अर्थ हैं ॥ ३ वर्म ( = वर्मन् न ) के शरीर, प्रमाण, २ अर्थ हैं । ४ धाम' (धामन् न ) के घर, शरीर, तेज, प्रभाव, जन्म, शक्ति, ६
अर्थ हैं ।।
५ संस्थानम्' (न ) के चौरास्ता, अवयव-विभाग, भाकृति, मरना ४ अर्थ हैं ।
६ 'लक्ष्म' ( = टक्ष्मन् न ) के चिह्न, प्रधान, २ अर्थ हैं ।
७ 'आच्छादनम्' (न) के अच्छी तरह छिपना ( अन्तर्धान होना) कपड़े आदिसे ढाकना २ अर्थ हैं ॥
८ 'आराधनम्' ( न ) के साधन प्राप्ति होना, संतुष्ट करना, ३ अर्थ हैं । ९ 'अधिष्ठानम्' ( न ) के पहिया, ग्राम, प्रभाव, आक्रमण, ४ अर्थ हैं ।
१० रनम्' (न ) के अपने जातिवालों (सामान्य वर्ग) में श्रेष्ठ, मणि (जवाहरात ), २ अर्थ हैं ।।
" 'वनम' ( न ) के पानी, जङ्गल, निवास, घर, ४ अर्थ हैं के १२ तलिनम' (त्रि ) के विरल, गोड़ा, स्वच्छ. ३ बर्थ हैं ॥ १३ इस आगे सब नान्त शब्द वाच्य लिङ्ग (त्रिलिक)॥
१४ 'समान:' (त्रि) के पण्डित, समान (तुल्य ), मुख्य, ३ अर्थ 'समानः' (पु) का नाभि मण्डल में रहनेवाली वायु, . अथं हैं॥
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अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे
-१ पिशुनौ खलसूचकौ ॥ १२७ ।। २ हीनन्यूनावूनगहों ३ वेगिर्रौ तस्विनौ। ४ अभिपन्नोऽपराद्धोऽभिग्रस्तन्यापद्गतावपि ॥१२८ ॥ ५ "लेख्यं भूम्यादिदानार्थ यातनाऽऽज्ञा च शासनम् (५५) ६ निदानमवसानेऽपि ७ साथै वार्धषिके धनी (५६) ८ कक्षापटेऽपि कौपीनं ९ न ना ज्ञानेऽपि बाधना (५७) १० द्युम्नं बले, 'पिशुनः' (त्रि) के दुष्ट, चुगलखोर, २ अर्थ हैं। . 'हीनः, न्यूनः' (२ त्रि) के कम, निन्दनीय, २ अर्थ हैं । ३ 'तरस्वी' ( = तरस्चिन् त्रि) के वेगवान् , शूरवीर, २ अर्थ हैं ॥
४ 'अभिपन्नः' (त्रि ) के अपराधी, शत्रुसे आक्रान्त, विपत्तिमें पड़ा हुआ, ३ अर्थ है ॥ __ ५ [शासनम्' ( न ) के राजासे मिली हुई भूमि आदि जागीर, शास्त्र (जैसे-'अथ धर्मानुशासनम' यो. सु. ११), माज्ञा, राज्य-लेख्य-भेद, शासन ( दण्ड देना), ५ अर्थ हैं ] ॥
६ [निदानम्' (न) के अवसान ( अन्त ), रोग-निर्णय, आदि कारण, कारणमात्र, कारण समूह, शुद्धि, रोग ७ अर्थ हैं ॥
['धनी' ( =धनिन् पु) के सूदखोर (व्याजपर रुपया देनेवाला महाजन ), बनियोंका झुण्ड, धनवान् , ३ अर्थ है ॥
८ [ 'कौपीनम्' ( न ) के नहीं करने योग्य, गुह्य (लिङ्ग), लंगोटी, ३ अर्थ हैं ] ॥
[ 'बाधना' (सी) के प्रतिरोध (रोक), स्वभाविक ज्ञान, हेत्वाभात. भेद, पीड़ा, न्यायोक्त, ५ अर्थ और पा० भे० से + 'वेदना' (स्त्री) के ज्ञान, दुःख, २ अर्थ हैं ] ॥
१. [ 'द्युम्नम्' (न) के बल, धन २ अर्थ हैं ।।
१ 'ख्यं......लान्छनम्' इत्ययं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यायां मूलमात्रमुपलभ्यते इति प्रकृतोपयोगितयाऽत्र स्थापितः ।
२ 'न ना खेदेऽपि वेदना' इति पाठान्तरम् ।
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाब्याख्यासहितः ।
४६७ १-अथ भार्यापि जनी २ दोषेऽपि लाञ्छनम् (५८)
इति नान्ताः शब्दाः।
अथ पान्ता: शब्दाः। ३ कलापो भूषणे बहें तूणीरे संहतावपि । ४ परिच्छदे परीवापः पर्युप्तौ सलिलस्थितौ ॥ १२९ ।। ५ गोधुग्गोष्ठपती गोपौ ६ हरविष्णू वृषाकपी । ७ बाष्पमूष्माश्रर 'कशिपुस्त्वन्नमाच्छादनं द्वयम्॥ १३० ॥ ९ तल्पं शय्याऽदारेषु१०स्तम्बेऽपि विटपोऽस्त्रियाम् ।
१ ['जनी' (त्री के सीमन्तिनी (श-वेशसे युक्त मी), बहु १ अर्थ है ॥ २ । 'लाञ्छनम्' ( न ) के दोष, चिह्न, नाम, ३ अर्थ हैं ] ॥
इति नान्ताः शब्दः ।
अथ पान्त: शब्दाः । ३ 'कलापः' (पु) के भूषण ( गहना ), मोरका पंख, तरकस ( बाण रखने के लिये चमड़े आदिको बना हुई झोली-नूगीर ), संहत (मिला हुआ), ४ अर्थ हैं।
४ 'परीवापः' (पु) के तम्बू कनात आदि, बाज बोना, याला, ३ अर्थ हैं। - ५ 'गोपः' (पु) के गौ दुहनेवाला, गोशाला का स्वामी (अहीर), देश या कुलका अध्यक्ष, १ अर्थ हैं ।
६ 'वृषाकपिः' (पु) के शिवजो, विष्णु भगवान् , अग्नि, ३ अर्थ हैं । • 'कशिपुः' (पु) के अन्न, वस्त्र, १ अर्थ हैं । ९ 'तल्पम्' (न) के शय्या, अटारी, स्त्री ३ अर्थ हैं । 10 'विटप:' (पु न ) के गुच्छा, विस्तार, शाखा, ३ अर्थ हैं । १. 'कशिपू' इत्यपपाठ' इति क्षा० स्वा० ॥
२. 'अलियाम्' इत्यस्य 'कशिपु-तस्प शम्दाभ्यां सम्बन्ध पर के मा० दी. महे० वचने तु 'कशिपुर्मोज्यवस्नयो' (भने० संग्रह ३२४७१) इति हेमचन्द्राचार्योक्त्या, 'कशिपुमोना.
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४६८
अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ प्राप्तरूपस्वरूपाभिरूपा वुधमनोज्ञयोः ॥ १३१ ।।
भेद्यलिङ्गा अमीरकूर्मी वीणाभेदश्च कच्छपी। ३ "कुतपो मृगरोमोत्थपटे चाहोऽष्टमेऽशके' (५९)
__इति पान्ताः शब्दाः ।
अध फान्ताः शब्दाः । ४२ रवणे पुंसिः रेफः स्यात्कुत्सिते वाच्यलिङ्गकः ॥ १३२ ।। ५ 'शिफाशिखायां लरिति मांसिकायां च मातरि (६०)
, 'प्राप्तरूपः, स्वरूपः, अभिरूप.' ( त्रि) के विद्वान् , मनोहर . अर्थ हैं ।
२ 'कच्छपी' ( स्त्री ) के सरस्वतीको वीणा, कछुही, २ अर्थ हैं ॥
३ 'कुतपः' (पु) के ऊनी कपड़ा, दिनका आठवाँ हिस्सा, २ अर्थ हैं ] ॥
इति पान्ताः शब्दाः ।
अथ फान्ताः शब्दाः। ४ 'रेफर' (पु ) के रेफः अर्थात् 'र' अक्षर, , अर्थ और 'रेफर' (त्रि) का निन्दित, । अर्थ हैं ॥
५ 'शिफा' (स्त्री) के शिखा, नदी, जटामसी, माता, ४ अर्थ हैं ] ॥ छदा-' (अमि० रन० १।१२१) इति इलायुधोक्त्या, 'कशिपुभक्ताच्छादनयोरेकोक्त्या पृथक् तयोः पुंसि' ( मेदि० पृ० १०८ श्लो० १८) इति मेदिन्युक्त्या च 'कशिपु'शग्दस्य; 'तपमट्टे शय्याकलत्रयोः' (अने० संग्र० २१२९८) इति हेमचन्द्राचार्योक्त्या, 'तत्पम? कलत्रे च शयनीये च न द्वयोः' ( मेदि० पृ० १०८ श्लो० ६) इति मेदिन्युक्या च 'तरुप' शब्दस्य च पुंस्त्वस्यैव लाभाच्चिन्त्ये ।।
१. 'कुतपो..."'शङ्केइत्ययं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्या मूलमात्रं माहेश्वर्या मूले चोपलभ्यते ॥ ___२. 'रवर्णे.....लिङ्गकः' इत्ययमंशःमा० दो० महे० मूले पठिवाव्याख्यातः,शिफा....... कीर्तितः' इत्ययमंशश्च महे० व्याख्याने मूलमा पठ्यते। क्षी० स्वा० व्याख्यावां तु 'रवणे ...... कीर्तितः' इति सर्वोऽप्यंशः मूलमात्रमेव पठथते ।
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ शर्फ मूले तरूणां स्याद्वादीनां खुरेऽपि च (६१) २ गुम्फः स्याद् गुम्फने बाहोरलङ्कारे च कीर्तितः ( ६२)
इति फान्ताः शब्दाः।
अथ वा (बान्ता : शब्दाः । ३ अन्तगभवसत्त्वेऽश्वे गन्धर्वो दिव्यगायने । ४ कम्बुर्ना वलये शखे ५ विजिह्वौ सर्पसूचकौ ।। १३३ ।। ६ पूर्वोऽन्यलिङ्गः प्रागाह पुंबहुत्वेऽपि पूर्वजान् । ७ "चित्रपुकेऽपि कादम्बो ८ नितम्बाऽद्रितटे कटौ (६४)
['शफम्' (न) के पेड़ की जड़, पशुओं का खुर, २ अर्थ हैं ] ॥ २ [ 'गुल्फः ' (पु) के फूल माला भादिका गूंथना, हाथका भूषण, २ अर्थ हैं ।
इति फान्ताः शब्दाः ।
अथ वा (बा)न्ताः शब्दाः । ३ 'गन्धर्वः' (पु) का जन्म और मरणके मध्य समय में स्थित प्राणी, मृगविशेष, पुस्कोकिल, घोड़ा, स्वर्गके ( हाहा, हूहू आदि) गायक, ५ अर्थ हैं ।
४ 'कम्वुः ' (पु) के कङ्कण, शङ्ख, गज, घोंघा या सितही, ४ अर्थ हैं । ५ 'द्विजिह्वः' (पु) के साँप, चुगलखोर, २ अर्थ हैं ॥
'पूर्वः' (त्रि) का पहला ( जैसे-पूर्वो ग्रामः, पूर्व वनम् ,..... ), १ अर्थ; + 'पूर्वा' (स्त्री) पूर्व दिशा, १ अर्थ और 'पूर्वे' (पु नि० ब० व०) का पुरुखा ( पुराने वंशवाले, पुरनिर्मा), ब्रह्मा, ३ अर्थ हैं ।
[ 'कादम्बः' (पु) के चित्र पंखवाला पहि-विशेष ( कल हंस), वाण, . अर्थ हैं ] ॥
८ [ 'नितम्बः' (पु) के, पहाड़का किनारा, कटि (चूतद), २ अर्थ हैं ] ॥ १. बयोः सावाद्वान्ता बान्ताश्व शब्दा अत्र उक्ताः ।।
२. 'चित्रपुडखेऽपि..... फले' इत्ययं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यायामुपलभ्यमानः प्रकृतोपयोगितयाऽत्र स्थापितः ।
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४७०
अमरकोषः ।
१ दव फणापि २ बिम्बोऽस्त्री मण्डले चाकृतौ फले' (६४) इति वा ( बा ) न्ताः शब्दाः ।
अथ भान्ताः शब्दाः ।
३ कुम्भो घटेभमृशी ४ डिम्भौ तु शिशुबालिशौ ॥ १३४ ॥ स्तम्भ स्थूणाजडीभावौ ६ शम्भू ब्रह्मत्रिलोचनौ ।
७ कुक्षिभ्रूणार्भका गर्भा ८ विस्रम्भः प्रणयेऽपि च ॥ १३५ ॥ ९ स्याद्वेय दुन्दुभिः पुंसि स्यादक्षं दुन्दुभिः स्त्रियाम् । १० स्यान्महारजने क्लीवं कुसुम्भं करके पुमान् ॥ १३६ ॥ ११ क्षत्रियेऽपि च नाभिर्ना
[ तृतीयकाण्डे -
' [ 'दव' (स्त्री) के सौंपकी फणा, कलछुल २ अर्थ हैं ] ॥
२ [ 'बिम्ब:' ( + विम्बः । पुन ) के सूर्य्यादिका मण्डल, आकृति, प्रतिबिम्ब, बिम्बिका-फल ( कुनरुन, त्रिकोलका फल ), ४ अर्थ हैं ] ॥ इति वा ( बा ) न्ताः शब्दाः ।
अथ भान्ताः शब्दाः |
'कुम्भः' (पु) के घड़ा, हाथी के मस्तकका कुम्भ ( मांस- पिण्ड - विशेष ), कुम्भ नामका ग्यारहवाँ राशि, वेश्या-पति, कुम्भकर्णका पुत्र, ५ अर्थ हैं ॥
४ 'डिम्भ:' ( g ) के बालक, मूर्ख, २ अर्थ हैं ॥
५ 'स्तम्भ:' ( पु ) के खम्मा, जडता, २ अर्थ हैं ॥
६ 'शम्भु' ( षु ) के ब्रह्मा, शिवजी, पूज्य, ३ अर्थ हैं ॥
७ 'गर्भः' ( पु ) के कुक्षि ( कोख ), गर्भ में रहनेवाला बच्चा या गर्भ, बालक, ३ अर्थ हैं ॥
८ 'विस्रम्भः' (+ विश्रम्भः । पु) के शृङ्गार-याचना, विश्वास, २ अर्थ हैं | ९ 'दुन्दुभि:' (पु) के मेरी बाजा, वरुण, दुन्दुभि नामका दैश्य, ३ अर्थ और 'दुन्दुभिः' (स्त्री) का लड़कों का खिलौना - विशेष 1 अर्थ है ॥
१० 'कुसुम्भम् : ' ( न ) के बर्रे ( कुसुम ) का फूल, सोना, २ अर्थ और 'कुसुम्भः' (पु) का कमण्डलु, १ अर्थ है ॥
११ 'नाभिः' (पु) के क्षत्रिय, जीतने की इच्छा करनेवाला या प्रधान
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ सुरभिर्गवि च स्त्रियाम् । २ सभा संसदि सभ्ये च ३ त्रिज्वध्यक्षेऽपि वल्लभः ।। १३७ ।।
इति भान्ताः शब्दाः ।
अथ मान्ताः शब्दाः। ४ किरणप्रग्रही रश्मी ५ कपिभेको नमो। ६ इच्छामनोभवो कामौ ७ शौर्योद्योगी पराक्रमौ ॥१३८ । ८ धर्माः पुण्ययमन्यायस्वभावाचारसोमपाः ।
६ उपायपूर्व आरम्भ उपधा चाप्युपक्रमः ।। १३९ ।। राजा, पहिये के बीचवाला भाग, ३ अर्थ और 'नाभि:' (स्त्री) करतूरीकामद, १ अर्थ है ॥
'सुरभिः' (स्त्री) का गौ, १ अर्थ; 'सुरभिः' (पु)के वसन्त ऋतु, जातीफल, चम्पा, अर्थ और 'सुरभिः' (त्रि) के सुगंधित, मनोहर, २ अर्थ हैं ।
२ 'सभा' (स्त्री) के सभा (बैठक, कमेटी ), धूतमन्दिर, ३ अर्थ हैं । ३ 'बल्लभः' (त्रि) के अध्यक्ष, प्रिय, हैं ।
इति भान्ताः शब्दाः ।
अथ भान्ताः शब्दाः । ४ 'रश्मिः ' (पु) के किरण, रस्सी २ अर्थ हैं । ५ प्लवनमः' (पु) के बन्दर, मेढक, २ अर्थ हैं । ६ 'कामः' (पु) के इच्छा, कामदेव, काम्य, ३ अर्थ हैं । ७ 'पराक्रमः' (पु) के सामर्थ्य उद्योग, २ अर्थ हैं ।
८ 'धर्मः' (पु न ) के पुण्य ( यज्ञ, अहिंसा आदि ), आचार (जैसेधर्मशास्त्र, आदि), स्वभाव, उपक्रम, उपनिषत् , न्याय (जैसे-धर्माधिकारी, धर्माध्यक्ष,..), ६ अर्थ औ 'धर्मः' (पु) के यमराज, सोमलताका पान करनेवाला, जिन, ३ अर्थ हैं।
९ 'उपक्रमः' (पु) के उपायको सोचकर किया हमा आरम्भ, मन्त्रीके शील. परीक्षा करनेका उपाय, चिकित्सा, ३ अर्थ हैं ।
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१०२
arm
अमरकोषः
[तृतीयकाण्डे१ वणिक्पथः पुरं वेदो निगमो २ नागरो वणिक् ।
नैगमौ द्वौ ३ बले रामो नीलचारूसिते त्रिषु ॥ १४० ॥ ४ शब्दादिपूर्वो वृन्देऽपि ग्रामः ५ क्रान्तौ च विक्रमः । ६ स्तोमः स्तोत्रेऽध्वरे वृन्दे ७जिह्मस्तु कुटिलेऽलसे ॥ ११ ॥ ८ 'उष्णेऽपि धर्म९श्चेष्टालङ्कारे भ्रान्तौ च विभ्रमः । १० गुल्मा रुस्तम्बसेनाश्च११जामिः स्वसृकुल स्त्रियोः ॥ १५२ ।। १२ क्षितिक्षान्त्योः क्षमा युक्ते क्षमं शक्ते हिते त्रिषु । , 'निगमः' (पु) के वाणिज्य, पुर ( ग्राम), वेद, २ अर्थ हैं ।
२'नगमः' (त्रि) के वेद-सम्बन्धी, नगर-वासी, २ अर्थ और 'नैगमः' (पु) के उपनिषद, बनियां, २ अर्थ हैं॥
३ 'रामः' (पु) के बलदेवजी (कृष्णजी के बड़े भाई ), परशुरामजी, रामचन्द्रजी, ३ अर्थ और 'रामः' (त्रि) के नीला, सुन्दर, सफेद, बागीचा, १ अर्थ हैं।
४ 'ग्रामः' (पु) के शब्द आदि (पूर्व) में रहे तो समूह (जैसेशब्दप्रामः, गुणग्राम अर्थात् क्रमशः शब्द-समूह, गुण-प्समूह,"), गांध, स्वरविशेष, ३ अर्थ हैं॥
५ 'विक्रमः' (पु) के क्रान्ति ( भाक्रमण ), पराक्रम, ३ अर्थ हैं । ६ 'स्तोमः' (पु) के स्तोत्र, यज्ञ, समूह, ३ अर्थ हैं । ७ 'जिह्मः' (पु) के कुटिल, आलसी, २ अर्थ हैं। ८ 'धर्मः' (पु) के धूप (घाम, रौदा) पसीना, २ अर्थ हैं।
९ "विभ्रमः' (पु) के हाव, भ्रान्ति, शोभा, पद्यका अलङ्कार विशेष, ४ अर्थ हैं।
१. 'गुल्मः' (पु) के गुरुम (प्लीहा या कब्ज) रोग, कुश, बाल, साल आदि का गुच्छा, सेना-विशेष (१८८१ का चक्र), किला आदिका रक्षास्थान, ४ अर्थ हैं।
" 'जामिः' (+यामिः । स्त्री) के बहन (भगिनी), कुलस्त्री, २ अर्थ हैं। ११ 'क्षमा' (स्त्री) के पृथ्वी, माफी, २ अर्थ; 'क्षमम्' (न) का योग्य, अर्थ और 'क्षमम्' (त्रि) के शक्त (समर्थ), हित, १ अर्थ हैं । १. 'दाविति ब्राह्मणस्य नैगमरखें निषेधः इति क्षी० स्वा० ॥ २. 'उष्णेऽपि....."विभ्रम" इति क्षेपकांशः मा० दी० मुंबव्याख्ययोनोंपकभ्यते ॥
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४७३ १ त्रिषु श्यामौ हरिकृष्णौ श्यामा स्याच्छारिया निशा ॥ १३ ॥ २ ललामं पुच्छपुण्ड्राश्वभूषाप्राधान्यकेतुषु । ३ सूक्ष्ममध्यात्ममप्याये ५ प्रधाने प्रथमस्त्रिषु ॥ १४॥ ५ वामौ वल्गुप्रतीपौ ६ द्वाघधमौ न्यूनकुत्सिती। ७ जीर्ण च परिभुक्तं च यातयाममिदं द्वयम् ॥१४५ ॥ ८ 'भ्रमो मूर्छा तक्षभाण्डमजिराम्बुविनिर्गमः (६५) ९ ध्यामौ धूम्रास्फुटौ
'श्यामः' (त्रि) के हरित् (नीला रंग) वाला, काला रंगवाला, २ अर्थ 'श्यामः' (पु)के काला रंग, नीला रंग, प्रयागका अक्षयवट' नामक वटवृक्ष, मेध, वृद्धदारक ( औषध-विशेष), पिक, ६ अर्थ; 'श्यामा (स्त्री) के शारिवा (सरिवन ) नामक ओषधि, रात, सोमलता, गुन्द्रा, यमुना, तिधारा ओषधि, सोलह वर्षकी स्त्री, बिना बच्चा पैदा की हुई बी, ८ अर्थ और 'श्यामम्' (न) के मिर्च, समुद्री नमक, २ अर्थ हैं ।
२ 'लालामम्' ( + ललाम = ललामन् । न) के पूंछ, घोड़ा आदिके ललाटका चित्र (चिह्न-विशेष ), घोड़ा, घोड़ेका गहना, पताका, प्रधान, शृङ्ग, रमणीय, प्रभाव, १० अर्थ हैं ।
३ 'सूक्ष्मम्' (न) के अध्यात्म, कपट, २ अर्थ; 'सूक्ष्मः ' (पु) का अग्नि, १ अर्थ और 'सूक्ष्मः ' (त्रि) का अत्यन्त महीन या छोटा, । अर्थ है ॥
४ 'प्रथमः' (त्रि) के पहला, प्रधान, २ अर्थ है ॥ ५ 'वामः' (त्रि) के सुन्दर, प्रतिकूल, शिवजी, पयोधर, बायां, शत्रु, अर्थ हैं॥ ६ 'अधमः' (त्रि ) के थोड़ा, नीच ( निन्दित), अर्थ हैं ॥
७ 'यातयामम' (त्रि) के पुराना, उपभोग किया हुआ (जूठा या बासी), २ अर्थ हैं।
'भ्रमः' (पु) के मूर्छा (बेहोशी), तक्षभाण्ड, जलका निगम, ३ अर्थ हैं ] ॥ ___९ 'ध्यामः' (पु) के धुओं, अस्पष्ट, १ अर्थ हैं ।
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४७४
अमरकोषः ।
[ तृतीय काण्डे
- १ भीमा रुद्रभीषणपाण्डवा:' (६६) इति मान्ताः शब्दाः ।
अथ यान्ताः शब्दाः ।
२ तुरङ्गगरुड तार्यो ३ निलयापचय क्षय । ४ श्वशुर्यो देवरश्याला ५ खातृव्यौ भ्रातृजद्विषौ ॥ १४६ ॥ ६ पर्जन्यौ रसदग्देन्द्रौ ७ स्यादर्यः स्वामिवैश्ययोः । ८ तिष्यः पुष्ये कलियुगे ९ पर्यायोऽवसरे क्रमे ॥ १४७ ॥ १० प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविश्वास हेतुषु ।
रन्ध्र शब्दे
१ [ 'भीमः' (पु) के शिवजी, भयङ्कर, भीमसेन ( युधिष्ठिरका भाई " अमलवेंत ४ अर्थ है ] ॥
इति मान्ताः शब्दाः |
३ अर्थ हैं ।
-D
NN NIFAI: NEQI: I
२ 'तार्क्ष्यः' (पु) के घोड़ा, गरुड़, सर्प, गरुड़का बड़ा भाई, ४ अर्थ हैं ॥ ३ 'क्षयः' (पु) के घर, कमी ( नाश ), कल्पान्त, रोग विशेष, ४ अर्थ हैं ।
·
8
'श्वशुर्यः' (पु) के देवर ( पतिका छोटा भाई ), शाला ( स्त्रीका भाई ), २ अर्थ हैं |
५ ' भ्रातृव्यः' ( पु ) के भाई का लड़का, शत्रु, २ अर्थ हैं ॥
६ 'पर्जन्य : '
पु) के गर्जता हुआ मेघ, इन्द्र, मेघका गर्जना,
७ 'अर्यः' (पु) के स्वामी, वैश्य, २ अर्थ हैं ॥
निर्माण,
८ ' तिष्यः' ( 9 ) के पुष्य नामका आठवां नक्षत्र, कलियुग, १ अर्थ हैं ॥ ९ ' पर्यायः' (पु) के अवसर, सिलसिला (क्रम ), प्रकार, ४ अर्ध हैं ।
१० ' प्रत्ययः' (पु) के अधीन, शपथ ( कसम ), ज्ञान, विश्वास, कारण, आचार, प्रसिद्ध, छिद्र, प्रत्यय ( जैसे - सन् क्यच् काम्यच् तिप् तस् झि, सु, औटू, जस्,
,
.....
), २ अर्थ हैं ।
"
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४७५ -१ अथानुशयो दीर्घद्वेषानुतापयोः ॥ १४८ ॥ २ स्थूलोधस्त्वसाकल्ये वागानां मध्यमे गते । ३ समयाः शपथाचारकालसिद्धान्तसंविदः ॥१४९ ॥ . व्यसनान्य शुभं दैवं विपदित्यनयास्त्रयः । ५ अत्ययोऽतिक्रमे छच्छे दोषे दण्डेऽप्यथापदि ॥१५॥
युद्धायत्योः संपरायः ७ पूज्यस्तु श्वशुरेऽपि च । ८ पश्चादवस्थायि बलं समवायश्च सन्नयौ ॥१५१॥ ९ संघाते सनिवेशे च संस्त्यायः. १० प्रणयास्त्वमी।
'विश्वम्भयाच्याप्रेमाणो ११ विरोधेऽपि समुच्छयः ॥ १५२॥ १२ विषयो यस्य यो ज्ञातस्तत्र शब्दादिकेम्वपि । १ 'अनुशयः' (पु) के बड़ा द्वेष, पछतावा. २ अर्थ हैं।
२ स्थूलोञ्चयः' (पु) के असंपूर्णता, हाथियोंका मध्यम ( न बहुत कम न बहुत अधिक ) गतिसे चलना, पहाड़का बड़ा ढोका (चट्टान ), ३ अर्थ हैं।
३ 'समयः' (पु) के शपथ, आचार, काल, सिद्धान्त, भाषा, बुद्धि, निर्देश, संकेत, ८ अर्थ हैं।
४ 'अनयः' (पु) के जुआ आदि खेलनेकी बुरी आदत, दुर्भाग्य, विपत्ति, भन्याय, ४ अर्थ हैं ।
५'अत्ययः' (पु) के उल्लङ्घन, कष्ट, दोष, दण्ड, बड़ा उत्पात, ५ अर्थ हैं।
'संपरायः' (पु) के युद्ध, आपत्ति, उत्तर काल, ३ अर्थ हैं॥ ७ 'पृज्यः ' (पु) के श्वशुर, पूजा करने योग्य, . अर्थ हैं ॥ ८ 'सन्नयः' (पु ) के सेनाके पीछे रहने वाली सेना, समूह, २ अर्थ हैं । ९ 'संस्त्यायः' (पु) के समूह, स्थान-विशेष, विस्तार ३ अर्थ हैं ॥ १० 'प्रणयः' (पु) के विश्वास, याचना, प्रेम, परिचय, ४ अर्थ हैं। ११ 'समुछ्यः ' (पु) के बिरोध, ऊँचाई, २ अर्थ है ॥
१२ 'विषयः' (पु) के देश, स्थान, शब्द आदि ( स्पर्श, रूप, रस, गन्ध । इनमें कानका शब्द, स्वचाका स्पर्श, नेत्रका रूप, जिह्वाका रस और नाक का गन्ध विषय है), ३ अर्थ हैं ।
१. 'विसम्मयाच्याप्रेमाणः' इति पाठान्तरम् ।
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४७६
अमरकोषः ।
[ तृतीय काण्डे
१ निर्यासेऽपि कषायोऽस्त्री २ सभायां च प्रतिश्रयः ।। १५२ ॥ ३ प्रायो भूम्यन्तगमने ४ मन्युर्दैन्ये ऋतौ कुधि ।
५ रहस्योपस्थयोर्गुह्यं ६ सत्यं शपथतथ्ययोः ॥ १५४ ॥ ७ वीर्य बले प्रभावे च ८ द्रव्यं भव्ये गुणाश्रये ।
९ धिष्ण्यं स्थाने गृहे मेऽग्नौ १० भाग्यं कर्म शुभाशुभम् ॥ १५५ ॥ ११ कशेरुहेग्नोर्गाङ्गियं १२ विशल्या दन्तिकाऽपि च ।
५
१ 'कषायः' (पुनः) के काढ़ा, कषाय (कसाव ) रस, गेरुआ रंग, ३ अर्थ हैं ॥ २ ' प्रतिश्रयः' (पु) के सभा, आश्रय, २ अर्थ हैं ॥
३ 'प्राय.' (पु) के अधिकतर, अन्तिव यात्रा ( मरना, जैसे 'प्रायोपवेशः कृतः' अर्थात् मर गया, ' · ), अनशन ( भोजन - श्याग करना), तुक्ष्य ४ अर्थ हैं ॥ ४ 'मन्युः' (पु) के दीनता, यज्ञ, क्रोध, ३ अर्थ हैं ॥
५ 'गुह्यम्' (न) के रहस्य, उपस्थ ( योनि, लिङ्ग ), २ अर्थ हैं ॥
६ 'सत्यम्' ( न ) के कसम ( शपथ ), सत्य, २ अर्थ हैं ॥
७
'वीर्यम्' (न) के बल, प्रभाव, तेज, शुक्र ( पुरुषका धातु), ४ अर्थ हैं ॥ ८ 'द्रव्यम्' (न) के भव्य ( योग्य ), गुणाश्रय ( गन्ध आदि गुणका आश्रम - पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन, ये ९ द्रव्य' ), धन, विलेप, ओषधि, ५ अर्थ हैं ॥
५
e 'fùcoag' ( a ) è eura, qz, aga, mía, afm, ( श्री० स्वा० के मत में अग्नि अर्थ में 'धिष्ण्यः' ( पु ) है ) ॥
अर्थ |
१० 'भाग्यम्' (न) के पूर्व जन्मका किया हुआ शुभ या अशुभ कर्म, ऐश्वर्य, २ अर्थ हैं ॥
११ 'गाङ्गेयम्' (न) के दो, सुवर्ण, २ अर्थ और 'गाङ्गेयः' (पु) का भीष्म पितामह, १ अर्थ है |
१२ 'विशल्या' ( वी ) के दन्ती ( ओषधि - विशेष ), आग की लपट, गुडुच, त्रिपुटा ओषधि, ४ अर्थ हैं ॥
१. 'कसेरु नोर्गाङ्गेयं' इति पाठान्तरम् ॥
२. तदुक्तमन्नम्भट्टेन तर्कसङ्ग्रह - 'तन्न द्रव्याणि पृथिव्यप्तेजोवाय्याकाशकालदिगात्ममनांसि नवैव' इति ॥
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ वृषाकपायी श्रीगौर्यो २ रभिख्या नामशोभयोः ॥ १५६ ।। ३ आरम्भो निष्कृतिः शिक्षा पूजनं संप्रधारणम् ।
उपायः कर्म चेष्टा च चिकित्सा च नव किया ।। १५७ ।।
छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनातपः । ५ कक्ष्या प्रकोष्ठे हादेः काञ्च्यां मध्येभवन्धने ।। १५८ ।। ६ कृत्या क्रियादेबतयोस्त्रिपु मेधे धनादिभिः । ७ जन्यं स्याजनवादेऽपि ८ 'जघन्योऽन्त्येऽधमेऽपि च ।। १५९ ।। ९ 'गांधीनी च वक्तन्यौ १० कल्यौ सजनिरामयो।
१ वृषाकपायी' (स्त्री) के लक्ष्मीजी, पार्वतीजी, जीवन्ती नामका ओषधि-विशेष, शतावर, ४ अर्थ हैं ।
२ 'अभिख्या' (स्त्री) के नाम, शोभा, यश, ३ अर्थ हैं।
३ 'क्रिया' (स्त्री) के कार्य, निष्कृति (प्रायश्चित्त ), शिक्षा, पूजा, विचार, साम आदि ( दान, दण्ड, विभेद ) चार उपाय, काम, चेष्टा, रोग मादि. की चिकित्सा, ९ अर्थ हैं ।
४ 'छाया' (स्त्री) के सूर्यको स्त्री, शोभा, प्रतिबिम्ब, छोह, ४ अर्थ हैं ॥
५ 'कक्ष्या' (स्त्री) के राजगृह आदि की ड्योढ़ी, करधनी (स्त्रियों के कमरका भूषण ), हाथियोंका हौदा, गद्दा आदि कसनेकी डोरी, ३ अर्थ हैं ।
६ 'कृत्या' (स्त्री) के क्रिया, देवता विशेष ( 'मारी' नामक), २ अर्थ और 'कृत्या' (त्रि) के धन स्त्री भूमि भादिसे शत्रुका भेद्य ( फोड़ने योग्य ) पुरुष आदि, कार्य, २ अर्थ हैं ।
● 'जन्यः (पु। + न) के जनापवाद, उस्पात, युद्ध, ३ अर्थ हैं।
८ 'जघन्यः' (त्रि) के अन्त ( + अन्त्य ), नीच, निन्दित, शिश्न (लिङ्ग), ४ अर्थ हैं ।।
९ 'वक्तव्यः ' (त्रि) के निन्दित, हीन (+ वश), कहने योग्य, ३ अर्थ हैं ।
१. 'कल्यः ' (नि) के उपाय-युक्त ( तयार, सजा हुआ ), नीरोग, २ अर्थ हैं॥
१. 'जघन्योऽन्ते' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'गृह्याधीनौ' इति पाठान्तरम् ।।
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४७८
अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ 'आत्मवाननपेतोऽर्थादथ्यौँ २ पुण्यं तु चार्वपि ॥ १६० ।। ३ रूप्यं प्रशस्तरूपेऽपि ४ वदाम्यो वल्गुवागपि । ५ न्याय्येऽपि मध्यं ६ सौम्यं तु सुन्दरे सोमदैवते ॥ १६१ ॥ ७ "सर्वज्ञभिषजौ वैद्या ८ वात्मा कामश्च हृच्छयौ (६७) ९ फलकल्याणयोर्भव्यं १० योग्यं सांप्रतिके त्रिषु ( ६८) ११ कियाचारातिक्रमेऽपि १२ जलाधारेऽपि चाशयः (६९)
१ 'अथ्यः' (त्रि ) के बुद्धिमान् ( +धार्मिक }, अर्थसे युक्त, न्याय से युक्त, ३ अर्थ हैं।
. 'पुण्यम्' (त्रि) के मनोहर, पवित्र, १ अर्थ और 'पुण्यम्' (न) के सुकृत, धर्म, २ अर्थ हैं।
३ 'रूष्यम्' (वि) कासुन्दर रूपवाला, १ भर्थ और 'रूष्यम्'(न) के सोनेका सिक्का (अशर्फी, गिन्नी आदि), चांदीका सिक्का (रुपया, अठन्नी आदि), १ अर्थ हैं ।
४ 'वदान्यः' ( + वदन्यः । त्रि) के मधुर बोलनेवाला, बहुत दान देने. वाला, २ अर्थ हैं।
५ 'मध्यम्' (त्रि) के न्याय्य (न्यायसे युक्त), कमर, बीच, अधम, ४ अर्थ हैं ।
६ 'सौम्यम्' (त्रि) के सुन्दर, उग्रताहीन, सोम देवतावाला हविष्य आदि, ३ अर्थ और 'सौम्यः' (पु) का बुघ नामका प्रह, १ अर्थ है ॥
['वैद्यः' (पु) के सर्वज्ञ ( सब कुछ जाननेवाला अर्थत् पण्डित ), भिषक ( दवा करनेवाला वैद्य, डाक्टर, हकीम आदि), २ अर्थ हैं ] ।
८ [ 'हृच्छयः' (पु) के आरमा, कामदेव, २ अर्थ हैं ] !! ९ ['भण्यम्' (न) के फल, कल्याण, २ अर्थ हैं ]॥
१. [ 'योग्यम्' (त्रि) के योगाह, चित, निपुण, समर्थ, ४ अध 'योग्य' (पु) के पुष्प नक्षत्र, और 'योग्यम्' (न) का ऋद्धि औषध, । अर्थ है।
"क्रिया' (स्त्री) के भाचारातिक्रम, भारम्भ, आदि (३३।१५९ में उक)१० अर्थ हैं ।
१२ [ 'आशयः' (पुं) के जलाधार, अभिप्राय, कटहल ३ अर्थ हैं ] ॥ १. 'अन्नवाननपेतोऽर्थादथ्यौं' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'सर्वशमिषजी.........."सरित्' इति क्षेपकांशः महेश्वरव्याख्यायां, दुर्गवचनत्वेन क्षी. स्वा० व्याख्यायानोपलभ्यत इति प्रकृतोस्योगितया क्षेपकरखेन मूले निहितः ॥
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मानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४७६ १ दैत्याचायेंऽपि घिष्ण्यो ना २ काषायः सुरभावपि (७०) ३ चन्द्रोदयो वितानेऽपि ४ स्यादाम्नायोऽन्वये श्रुती (७१) ५ शीताशिते शिते शैत्यं ६ जात्यं कुलजकान्तयोः (७२) ७ व्यवायो व्यवधौ च स्यात् ८ कुल्या कुलवधूः सरिद्' (७३)
इति यान्ताः शब्दाः।
अथ रान्ताः शब्दाः। ९ निवहावसरी वारी १० संस्तरी प्रस्तरावरी। ११ गुरू गोर्पतिपित्राद्यौ १२ द्वापरौ युगसंशयौ ।। १६२ ।।
[धिष्ण्यः ' (पु) के शुक्र, अग्नि, २ अर्थ और 'धिष्ण्यम्' (न) के स्थान, नत्र, घर, बल, ४ अर्थ हैं ] ॥
२ ['काषाया' (पु) के सुगन्धि, कसाव रस, २ अर्थ हैं ।
३ ['चन्द्रोदयः' (पु) के वितान (चंदोवा), चन्द्रमाका उदय, चन्द्रोदय रस ( औषध-विशेष ), । अर्थ हैं ] ॥
४ [ 'आम्नाय:' (पु) के ( वंश, खान्दान ), वेद, उपदेश, अर्थ हैं ] ॥ ५ ['शैत्यम्' (न) के ठंढक, दौर्बल्य, तीचणता, ३ अर्थ है ] ॥ ६ [ 'जात्यम्' (न ) के कुलीन, सुन्दर, २ अर्थ हैं ] ॥ ७ [व्यवायः' (पु) के व्यवधान, मैथुन, २ अर्थ हैं ] ॥ - [ 'कुल्या' (स्त्री) के कुलवधू , छोटी नदी ( नहर ), . अर्थ हैं ] ॥
इति यान्ताः शब्दाः।
अथ रान्ताः शब्दाः। ९ 'चार' (पु) के समूह, अवसर, सूर्य, चन्द्र, मङ्गल आदि सात दिन,
१० 'संस्तरः' (पु) के शय्या या कुशादिकी चटाई आदि, यज्ञ २ अर्थ हैं।
" 'गुरु' (पु) बृहस्पति, पिता आदि (माता, बड़ा भाई भादि. बड़े लोग पढ़ाने वाला , अर्थ हैं।
१२'दाप' (पु) के द्वापर युग, संशय, अर्थ हैं।
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४८० अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ प्रकारौ भेदसादृश्ये २ आकारविनिताकृती । ३ किंशास 'सस्यशूकेषू ४ मरू धन्वधराधरौ ॥ १६३ ॥ ५ अद्रयो द्रुमशैलार्काः ६ स्त्रीस्तनान्दो पयोधरौ । ७ ध्वान्तारिदानवा वृत्रा ८ बलिहस्तांशवः कराः॥ १६ ॥ ९ प्रदरा भडनारीरुग्बाणा १० अनाः कचा अपि । ११ अजातको गौः कालेऽप्यश्मश्रुर्ना न तूबरौ ॥ १६५ ।। १२ स्वर्णेऽपि रा: १३ परिकरः पर्यङ्कपरिवारयोः । , 'प्रकारः' (पु) के भेद ( तरह ), सादृश्य ( बरावरी ), २ अर्थ हैं । २ 'आकार' (पु) के चेष्टा, भाकृति (आकार, डीलडौल), २ अर्थ हैं । ३ 'किंशारुः' (पु) के कान आदि (यव आदि) का ढूंड, बाण २ अर्थ हैं ।
४ 'मरु' (पु) के मरुस्थल (राजपुताने के निर्जल स्थान ), पहाड़, २ अर्थ हैं। ५ 'अद्रि' (पु) के पेड़, पहाड, सूर्य, ३ अर्थ है ।
'पयोधरः' (पु) के स्त्री का स्तन, मेघ, कोषकार, कशेरु, नारियल, ५ अर्थ हैं।
७ 'वृत्रः' (पु) के अन्धकार, शत्रु, वृत्रासुर, पर्वत-भेद, ४ अर्थ हैं ।
८ 'करः' (पु) के कर (मालगुजारी, टैक्स, कौड़ो, आदि ), हाथ, किरण, हाथी का सूंद, ४ अर्थ हैं।
९ 'प्रदर' (पु) के भन, स्त्रीका-रोग-विशेष, बाण ३ अर्थ हैं।
१० 'अनः' (पु) के केश, कोण, २ अर्थ और 'अम्रम्' (न) के आंसू खून, २ अर्थ हैं।।
- 'तूबरः' ( + तूवरः। पु) के भंब (समय आने पर भी सींग ) जिसका नही जमा हो वह ) गौ, समय (अवस्था) आने पर भी दाढी-मूंछ जिसाका नहीं जमा हो वह पुरुष, कसाव रस, ३ अर्थ हैं ।।
१२ 'रा' ( = रैपु) के स्वर्ण (सोना), धन, २ अर्थ हैं। .
१३ 'परिकरः' (पु) के पर्यङ्क, परिवार, मन्त्री आदि परिजन, समूह, विवेक, आरम्भ, यस्न, ७ अर्थ हैं ।।
१. धान्यशूकेषु' इति पाठान्तरम् ॥
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नामावगः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ मुक्ताशुद्धौ व तारः स्यारच्छारो वायौ स तु त्रिषु ॥ १६६ ॥
कंबुरे३ऽथ प्रतिहाजिसंविदापरसु संगरः।
वेदभेदे गुप्तवादे मन्त्री ५ मिको रवावपि ।। १६७ ॥ १ मनेषुयुपण्डेऽपि स्वरुअगुहोऽप्यवस्करः । ८ आडम्बरस्तूर्यरवे गजेन्द्राणां त गजिते ।। १६८ ॥
'अभिहारोऽभियोगे २ चौर्य संहनेऽपि च । १० म्याज्जनमे परीवारः खगको परिच्छदे ॥ १६९।।
ता: () के मुमशुद्धि, निर्मल मोती, नैरना, वानर- मेय. ४ अर्ध; 'तारम् (न मी) के नाम, खिको पुतला, अर्थतारम्' () का चाँदी, अर्ध+ 'तारा' ( सो) * बुद्धदेवी, गालि (सुग्रीव भाई ) की, वृहस्पतिकी की. ३ 8 और नाTA (त्रि) का ऊँचा शब्द, अर्ध है।
२ 'शार:' (पु) का वायु, १ अर्थ और 'शारः' (त्रि) का चितकाबर, , अर्थ है ॥
३ 'संगरः' (पु) के प्रग, युद्ध, क्रियाकार, आपत्ति, विष, ५ अर्थ और 'संगरम्' (न) का शमोफल, १ अर्थ है ।
४ 'मन्त्रः ' (पु) के वेद-भेद ( मन्त्र), सलाह, २ अर्थ हैं । ५ 'मित्रः' (पु) का सूर्य, १ अर्थ और 'मित्रम्' (न) का दोस्त, । अर्थ है।
६ 'स्वरुः' (पु) के यज्ञ-स्तम्भको छीलते समय पहली बार गिरा हुआ काष्ठ-खण्ड, इन्द्रका वज्र, ३ अर्थ (क्षी० स्वा० मतसे-यज्ञ, बाण, यज्ञ स्तम्भ, खण्ड, वज्र, ५ अर्थ) हैं।
७ 'अवस्करः' (पु) के पस्थ ( भग, लिङ्ग), विष्ठा, २ अर्थ हैं।
८ 'आडम्बरः' (पु) के बाजाका शब्द, हाधियोंका गजेना, समारम्भ (भाउम्पर), ३ अर्थ हैं।
९ 'अभिहार:' (पु)के अभियोग, चोरी, कवच आदिको धारण करना, है अर्थ हैं।
१० 'परीवार' (पु) के परिजन ( कुटुम्ब, भृत्य आदि), तलवारकी म्यान, उपकरण ( सहायक सामग्री), ३ अर्थ हैं ।
१. 'अमिहारो... ...च' इत्यंशः क्षी० स्वा० अब्याख्यातः, (२) दृक्कोष्ठान्तर्गतश्च मूलमात्रमेवोपलभ्यते।
Jain
Conternational
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४८२
अमरकोषः।
[तृतीयकाग्रे१ विष्टरो विटपी दर्भमुष्टिः पीठाद्यमासनम् । २ द्वारि द्वाःस्थे प्रतीहारः प्रतीहार्यप्यनन्तरे ।। ७० ॥ ३ विपुले नकुले विष्णौ बभ्रुर्ना पिलले त्रिषु । ४ सारो बले स्थिरांशे च न्याय्ये क्लीवं वरे त्रिषु ॥ १७१ ॥ ५ दुरोदरो द्यूतकारे पणे धुते दुरोदरम्। ६ महारण्ये दुर्गपथे कान्तारं पुनपुंसकम् ।। ६७२ ॥ ७ मत्सरोऽन्य शुभद्वेषे तद्वत्कृपणयोनिषु । ८ देवावृते वरः श्रेष्ठे त्रिषु फली मनाविप्रये ॥ १७३ ।।
, 'विष्टरः' (पु) के पेड़, कुशाकी मुट्ठी (जिसमें २५ कुशा हो), पीढ़ा (पाटा) मृगचर्म नादि भाप्सन, ३ अर्थ हैं।
२ 'प्रतीहारः' (पु) के द्वार, द्वारपाल, २ अर्थ और 'प्रतीहारी' (बी) का द्वारपालिका, १ अर्थ है ॥
३ 'बभ्रः' (पु) के बड़ा, नेवला, विष्णु, मुनि, ३ अर्थ और 'बभ्रु' (त्रि) के पिङ्गल वर्णवाला ( भूभर ), अग्नि, शूली, ३ अर्थ हैं।
४ 'सार' (पु) के बल, स्थिरअंश, ( सारिल लकड़ी आदि), २ अर्थ, 'सारम' (न ) का न्याययुक्त, । अर्थ और 'सार' (त्रि) का उत्तम, अर्थ है।
५ 'दुरोदर" ( + दरोदरः। 5 ) के चुत कार ( नालदार अर्थात् जुभा खेलानेवाला), दाव, २ अर्थ और 'दुरोदरम' (न ) का जुभा, १ अर्थ है ।
६ 'कान्तारः' (पु न ) के बड़ा जङ्गल, कठिन रास्ता, बिल, ३ अर्थ हैं ।
७ 'मत्सरः' (पु) का दूसरेकी उन्नति आदि शुभ कर्मों से द्वेष करना, १ अर्थ और 'मत्सरः' (त्रि) के दूसरेकी उन्नति आदि शुभ कर्मों से द्वेष करनेवाला, कृपण, २ अर्थ हैं।
८ 'बरः' (पु) के वरदान (देवता आदि से प्राप्त सभीप्सित फल ), दामाद, विट, ३ अर्थ; 'वरः' (त्रि) का श्रेष्ठ, " अर्थ और 'घरम्' (न । + अध्य० क्षो.) का थोबा प्रिय (जैसे-'वरं कृपशताद्वापी,........), १ अर्थ है।
१. 'विष्टरप्रमाणं यथा-'भवेरपञ्चाशता ब्रह्मा तदर्दैन तु विष्टर' । इति ।
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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ शारे करीरोऽत्री तकभेदे घटे च ना। २ना चमूजघने हन्तसुञ प्रतसरोऽस्त्रियाम् ।। १७४ ।। ३ यमानिलेन्द्रचन्द्राकविष्णुसिंहांशुवाजिषु
शुकाहिकपिभेकेषु हारर्ना कपिले त्रिषु ॥ १७५ ।। ४शश कर्पगंशेऽपि ५ यामा स्याद्यापन गतो। ६ हा भूवाक्सुरामात् तन्द्रा निद्राशमीलयोः ॥ १७६ ।। ८ धामी स्यादुपमातापि क्षितिरप्यामलक्यपि । ९ नुना व्यङ्गा नटी वेश्या सरघा कण्टकारिका १७७ ।।
'करी.' (पु न ) का बाँसका को पड़ (अङ्कुर ), १ अर्थ और 'करीरः' (पु) के करील पेड़ ( इसमें पत्ते नहीं होते हैं ), घड़ा, २ अर्थ हैं ।
प्रतिसर.' () के सेना का पिछला हिस्सा, मन्त्र-भेद, माला, कङ्कण, ४ अर्थ; 'प्रतिलर:' (पु न) के माल, विवाह काल में हाथ बँधा हुआ कङ्कण (माङ्गलिक सूत्र-विशेष) या राखी, २ अर्थ और 'प्रतिसरः' (बि) का नियोज्य (भृत्यादि), अर्थ है ॥
३ 'हरिः' (पु) यमराज, वायु, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, विष्णु, सिंह, किरण, घोड़ा, तोता (सुग्गा ) साँप, वानर, मण्डूक ( मेढ़क), लोकान्तर (परलोक), १४ अर्थ और 'हरिः' (त्रि) के हरा रंग, कपिल रंग, २ अर्थ हैं। ___४ 'शर्करा (स्त्री) छोटे २ कण या झिकटा, शक्कर, रोग विशेष, टुकड़ा, ४ अर्थ हैं।
५ यात्रा' (बी) के समय बिताना ( + भोजनादि विधान, जैसेप्राणयात्रा,......' ), चलना, देव-दर्शन आदि करना, ३ अर्थ हैं ॥
'इरा' (स्त्री) के पृथ्वी, बात ( वचन ), मदिरा, जळ, ४ अर्थ हैं ।
७ 'तन्द्रा' ( + तन्द्री। बी) नींद, श्रमादिसे इन्द्रियों का अपनेअपने काम में शिथिल होना, २ अर्थ हैं।
८ 'धात्री' (सी) के धाई, पृथ्वी, आँवला, माता ४ अर्थ हैं । ९ 'क्षुद्रा' (स्त्री) के किसी भले हीन बी, नटी, वेश्या, मधुमक्खी,
-
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१. 'तन्द्री' इति पाठान्तरम् ।
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४४
अमरकोषः
[वतीयकाण्डेत्रिषु करेग्धमेऽल्पेऽपि क्षुद्रं १ मात्रा परिच्छदे ।
अल्पे च परिमाणे ला मात्र कारस्येऽवधारणे ॥ १७८ ॥ २ मालेख्याधर्ययोश्चित्रं ३ कलत्रं श्रोणिभार्ययोः। ४ योग्यभाजनयोः पात्रं ५ पत्रं वाहनपक्षयोः ॥ १७९ ।। ६ निदेशप्रन्ययोः शास्त्रं शलमायुधलोहयोः । ८ स्याजटाशुकयोनं ९ क्षेत्रं पत्नीशरीरयोः ।। १८० ।। १० मुखाग्रे कोडहलयोः पोनंभटकटैया ( रेंगनी), ५ अर्थ और 'क्षुद्र.' (वि) क्रूर, ग (निधन), मोच, ३ अर्थ हैं।
, 'मात्रा' (सी) परिक्छा या सामग्री ( जैसे-महामात्रः,... ), थोड़ा, परिमाण, अकरके अवयव (इकार, ईकार, उकार,..),कामका भूषण विशेष, ५ अर्थ और 'मात्रम्' (न) साकस्य (जैसे-हस्तमानं वस्त्रम्,.. ), अवधारण (केवल, जैसे-पयोमानमन्ति,... ), २ अर्थ हैं।
२ "चित्रम्' (न) के फोटो (तस्वीर ), भा, चितकावर, ३ अर्थ हैं। ३ 'कलत्रम्' (न ) कमर, सी, २ अर्थ हैं।
" 'पात्रम् (न) के योग्य (जैसे-पात्रे दानं कर्तब्यम,..),वर्तन, दो तटो. का बीच, सुवा-रु मादिराजमंत्री, पत्ता,नाटक करनेवाला (एक्टर), . हैं॥
५ 'पत्रम् (न) वाहन (घोड़ा, हाथी, उँट मादि सवारी), पङ्क, पत्ता, बाण, पक्षी, ५ अर्थ हैं।
'शास्त्रम्' (म) के मादेश, व्याकरण भादि ६ शाम, . अर्थ हैं। ७ 'शस्त्रम्' (न) के हथियार, लोहा, २ अर्थ हैं॥ ८ 'नेत्रम्' (न) की खोर (जब), वन, मथनीकी रस्सी,खि, अर्थ हैं। ९ 'क्षेत्रम्' (न ) के बी, शरीर', खेत, सिद्ध मुनि आदिका स्थान अर्थ हैं।
१० 'पोत्रम्' (न) सूअरका मुस, इसका मुख ( अगला भाग), रूः भर्थ हैं। १. तदुक्तं भगवता श्रीकृष्णेनार्जुनं प्रति
'दं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । गीता १३१॥
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तानार्थवः ३ मणिप्रभाच्याख्यासहितः ।
- गोत्रं तु यानि च । २ सत्रमाच्छादने यो स्वादाने बनेऽपि च ।। १८१ ।।
अाज विषये काये. उस व्याग्नि वाससि । २ चकं गलेऽ,६क्ष माक्षेऽपि ४ क्षीरसुव ।। १८२ ।। ८ स्वर्णेऽपि भूपिचन्द्रौद्ध द्वारमात्रेऽपिगोपुरम् । १० गुहादम्भौ गह्वरे वे १३ रहाऽन्तिक रबरे ।। १८३ ।।
__ १ गोत्रम्' ( न ) के नाम, गोत्र (वंश, कुल ), संभावनाके योग्य बोध, जङ्गल, क्षेत्र, रास्ता, ६ अर्थ हैं ।
३ 'सत्रम्' (न ) के आच्छादन ( ढाँकना ), यज्ञ, सर्वदा दान करना, जङ्गल, दम्म, ५ अर्थ हैं ॥
३ 'अजिरम्' (न ) के विषय (रूप, रस, गन्ध आदि), शरीर, आँगन (चौक ), हवा, मेढ़क, ५ अर्थ हैं।
४ 'अम्बरम्' (न) के आकाश, कपड़ा, २ अर्थ हैं ।
'चक्रम्' (न) के राज्य, सेना, पहिया, भायुध विशेष, समूह, कुम्भारका चाक, पानीकी भौंरी, ७ अर्थ और 'चक्रः' (पु) का चकवा पक्षी, 1 अर्थ है।
'अक्षरम्' (न) के मोक्ष, परब्रह्म, वर्ण ( क ख ग घ भादि वर्ण, किसी भी भाषाके असर), आकाश, धर्म, तप, मूल कारण, चिचिड़ा (अपामार्ग), ८ अर्थ हैं ।
७ 'क्षीरम्' (न) के पानी, दूध, १ अर्थ हैं ।
८ 'भूरि' (न ) का सोना । अर्थः' 'भूरि.' (पु) के कृष्णजी, शिवजी, ब्रह्मा, ३ अर्थ और 'भूरि' (त्रि) का अधिक (काफी), १ अर्थ तथा 'चन्द्रः" (पु) के सोना, चन्द्रमा, सुन्दर, कबीला (औषध-विशेष), नी, ५ अर्थ हैं ।
२ 'गोपुरम् (न) के द्वारमात्र, नगरका द्वार, मोथा, ३ अर्थ हैं। ३. 'गह्वरम्' (न) के गुफा, दम्भ, निकुञ्ज, गहन, ४ अर्थ ॥ ११ 'उपतरम्' (न) के एकान्त, समीप, १ अर्थ हैं ।
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१८६
अमरकोषः।
तृतीयकापडे१ पुरोऽधिकमुपर्यग्राण्य २ गारे नगरे पुरम् ।
मन्दिरं चास्य राष्ट्रोऽस्त्री विषये स्थादुपद्रवे ।। १८४ ॥ ४ दरोऽस्त्रियां भये श्वश्वे ५ योऽस्त्री होरके पवौ। ६ तन्त्रं प्रधाने सिद्धान्त प्राय परिच्छदे ।। १८५।। ७ 'औशीरचामरे दण्डेयौशीरं शयनासन । ८ पुष्करं करिइस्ताग्ने नाधलाण्डमुखे जले १८६ ।।
ज्योमिन खड्गफले पो तीर्थोषधिविशेषयोः । ९ अन्तरमवकाशावधिपरिधानान्तधिभेदतादयें ॥ १८७ ॥
१ 'अग्रम्' ( न ) के अागे । सामने ), एक पल ( ४ भरी ) का प्रमाण. विशेष, ऊपर, आलम्बन, समूह, प्रान्त, अर्थ और 'अनम्' (त्रि) के अधिक प्रधान, पहला, ३ अर्थ हैं।
२ 'पुरम्' (न ) के घर, नगर (शहर, बहा ग्राम ), . अर्थ और 'पुर (पु) के गुग्गुल, । अर्थ तथा 'मन्दिरम् (न) के घर, नगर, २ अर्थ हैं ।
३ 'राष्ट्र' (पुन ) के देश, उपद्रव, २ अर्थ हैं ॥ ४ 'दर' (पु न ) के डर, गढा, र अर्थ हैं। ५'वजः' (पुन) के हीरा, बद्र (इन्द्रका प्रायुध विशेष), १ अर्थ है।
६ 'तन्त्रम् (न) के प्रधान, सिद्धान्त, जुलाहा (कपडा बुननेवाली जाति-विशेष), सामग्री, वेदकी एक शाखा, कारण, उत्तम औषध, ७ अर्थ हैं।
. 'औशीरः' (पु+न. पी. स्वा० ), का चवरका दण्ड, , r); 'मौशीरम(न) के शयन, भासन (+ शयन और आसन दोनोंका समुदाय जी. स्वा.), उशीर (खश) से उत्पन, ३ अर्थ है ॥ . ___ ८ 'पुष्करम् (न) के हाथीकी सँड़का भागेवाला हिस्सा, बाजाके भाण्डका मुख, पानी, आकाश, तलवारका फल, कमल, पुष्कर क्षेत्र' नामक तीर्थ विशेष, पुष्करमूल औषध, ८ अर्थ हैं ॥
९ 'अन्तरम् (न) के अवकाश (खाली), अवधि, पहिरने का कपड़ा वादि, अन्तर्धान (छिपना), भेद (फरक.), तादर्थ्य ( उसके लिये, जैसे
१. 'भौशीरं चामरे दण्डे' इति पाठान्तरम् ।।
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मानार्थवर्गः३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
छिद्रात्मीयविनावहिरवसरमध्येऽन्तरात्ममि च। १ मुस्तेऽपि पिठरं २ राजकशोरुण्यपि नागरम ।। १८८ ।। ३ शार्वरं त्वन्धतमसे 'धातुके मालिङ्गकम् । ४ गौरोऽरुणे सिते पीते ५ व्रणकायेंऽप्यनकरः ॥ १८९ १ ६ जठरः कटिनेऽपि स्या ७ दधस्ताददि चाधरः । ८ अनाकुलेऽपि चैकाग्री ९ व्यगोव्यासक्त आकुले ।। १९०॥
मोदनान्तरस्तण्डुलः अर्थात मा लिये चावल ,....... .. ), छन्द, श्रारमीय (अपना), दिशा, बाहर, अवसर, श्रीम, अन्तराम, Rदृश्य, २, ३५ अर्थ हैं।
"पिठरम्' (न) के मोथा पप, स्थाली (बटलोली), मथनी ३ अर्थ हैं ।
२ नागरम' (न) के सोंठ, नागरमोथा, १ अर्थ और 'नागरः' (त्रि) के नगरवासी या नगरमें होनेवाला, चतुर, २ अर्थ हैं ।
३ 'शार्वरम्' (न ) का घोर अन्धकार १ अर्थ; 'शार्वरम्' (त्रि) का धातुक, १ अर्थ और 'शार्वरः' (पु) का घातुक हाथी, । अर्थ है ॥
४ 'गौरः' (त्रि) के अरुण, सफेद (गोर ), पीला, विशुद्ध, ४ अर्थ; गौरः' (पु) के पीला सरसों, चन्द्रमा, २ अर्थ और 'गौरः' (पु न )का पद्मकेसर, १ अर्थ है। __ ५ 'अरुष्करः' (पु) का 'भेलावा' नामकी ओषधि, । अर्थ और 'अरुकरः' (त्रि) का घाव करनेवाला, १ अर्थ है ॥
६ 'जठरः' (नि) का कठोर, । अर्थ; 'जठरः' (पु न) का पेट, । अर्थ और 'जठरः' (पु) का बूढा, । अर्थ है ॥
७ 'अधरः' (वि) के नीचे, हीन, २ अर्थ और 'अधरः' (पु) का मोठ, १ अर्थ है ॥
८ 'एकाग्रः' (त्रि) के अनाकुल (स्वस्थ ), एकान्त, २ अर्थ हैं ।
९ 'व्यग्रः' (त्रि) के अनेक कार्यों में फंसा हुआ (चन्चल), व्याकुल, १ अर्थ हैं
१. धातुकेभे नृलिङ्गकम्' इति पाठान्तरम् । २. 'व्रणकार्येऽप्यरुष्कर' इति पाठान्तरम् ।
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४८८
अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ उपर्युदीच्यश्रेष्ठेष्वयुत्तरः स्याद २ नुत्तरः ।
एषां विपर्यये श्रेष्ठे ३ दूरानात्मोत्तमाः एगः ॥ १२ ॥ ४ स्वादुप्रियौ तु मधरी ५ करो कठिननिर्दयो। ६ उदारो दातृहतो ७रितरस्स्यायनीचयोः ।। १९२ ।। ८ मन्दस्वच्छन्दयोः स्वरः ९ शुभ्रमहीप्तशुक्लयोः । १० मासारो वेगवद्वर्ष सैन्यप्रसरणं तथा (७४) ११ धाराम्बुपाते चोत्कर्षेऽसौ १२ कटाहे तु कर्परः (७५)
१ 'उत्तरः' (त्रि) के ऊपर, उत्तर दिशा में होनेवाला, श्रेष्ठ, ३ अर्थ 'उत्तरम्' (न) का जवाब, ' अर्थ; 'उत्तर' (पु) का विराट राजाका पुत्र, , अर्थ और + 'उत्तरा' (बी) के उत्तर दिशा, अभिमन्यु ( अर्जुन के पुत्र) की स्त्री, २ अर्थ है ॥
'अनुत्तर' (नि) के नीचे, उत्तरके अतिरिक्त ( भिन्न) दिशामें होनेवाला, नीच, श्रेष्ठ, ४ अर्थ और 'अनुत्तरम्' (न) का निरुत्तर, । अर्थ है ।
३ 'परः' (त्रि) के दूर, शत्रु, उत्तम, दूसरा (अपने से भिन्न ), ४ अर्थ और 'परम्' (न) का केवल, १ अर्थ है । ___'मधुर' (त्रि ) के स्वादिष्ट, प्रिय, २ अर्थ; 'मधुरः' (पु) का मीठा, १ अर्थ और + 'मधरा' (स्त्री) का सौंफ, १ अर्थ है ॥ ५ 'कर' (वि) के कठिन, निर्दय, घोर, ३ अर्थ हैं॥
'उदारः' (त्रि) के दाता, बड़ा, चतुर, ३ अर्थ हैं। ७ 'इतरः' (नि) के दूसरा, नीच, २ अर्थ हैं ॥ ८'स्वैरः' (त्रि) के मन्द, स्वतन्त्र, २ अर्थ हैं।
९ 'शुभ्रम्' (त्रि) के उद्दीष्ठ (प्रकाशमान), श्वेत वर्णवाला, २ अर्थ और 'शुभ्रम् (न) का सफेद रंग, , अर्थ है ॥
.. [आसार' (पु) के जोरसे वर्षा होना, सेनाका फैलना, २ अर्थ हैं] ॥
"['धारा' (स्त्री) के धारसे पानो भादिका गिरना, तलवार आदि की पार, घोडेकी गति-विशेष, सेनाप्रभाग, ४ अर्थ है ॥
['कर्पर (पु) के कटाह (बड़ी कड़ाही), शम-विशेष, कपाल, ३ अर्थ हैं] ॥ १. 'मयंक्षेपकांश बी. वा. व्याख्याने समुपलभ्यत इति प्रकृतोपयोगितयात्र स्थापितः।
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४८६
नानार्थवर्गः ३] पणिप्रभारुयाख्यासहितः ।
१ वन्धुरं सुन्दरे नम्र २ गिरिगेंन्दुकशैलयोः (७६) ३चरुः स्थाल्यां हविःपत्ता ४ बधीर कातरे चले'(55)
इति रान्ताः शब्दाः।
अथ हान्ताः शब्दाः । ५ चूडा किरीटं केशाश्व संयता मौलयस्त्रयः ॥ १९३ ।। ६ द्रुमप्रभेदमातङ्गकाण्डपुष्पाणि पीलवः । ७ कृतान्तानेहसोः काल ८ श्चतुर्थेऽपि युगे कलिः ॥ १९४ ।। ९ स्यात्कुरोऽपि कमलः १० प्रावारेऽपि च कम्बलः ।
१ [ 'बन्धुरम्' (त्रि) सुन्दर, नम्र, २ अर्थ हैं ] ॥
२ ['गिरिः' (पु) के गेंदा, पहाड, बाँखका रोग-विशेष, ३ अर्थ और गिरिः' (त्रि) का पूज्य, । अर्थ है ] ॥
३ ['चहः' (पु) के पटलोही, हविष्यका पाक, २ अर्थ है ] ॥ ४ [ 'मधीरः' (त्रि) के कातर, अधीर (चक अर्थात् धैर्यहीन र अर्थ हैं] ॥
इति रान्ताः शब्दाः।
अथ लान्ताः शब्दाः । ५ 'मौलिः' (पुत्री) के चूरा, मुकुट, बँधा हुभा केश (बाल), ३ अर्थ हैं ।
६ 'पीलु' (पु) के अन्चरोटका पेड़, हाथी, बाण, ३ अर्थ और 'पीलु' (न) का अखरोटका फल तथा फूल, २ अर्थ हैं ।
• 'काल' (पु) के यमराज, समय, मृत्यु, काला, ४ अर्थ हैं।
८ 'कलिः ' (पु) के कलियुग, लड़ाई झगड़ा, २ अर्थ और 'काल' (स्त्री) का फूलकी कळी ( कोंडी), १ अर्थ है ॥
९ 'कमल' (पु)का मृग-विशेष, , अर्थ और 'कमलम् (न) के कमल का फूल, पानी, तांषा, आकाश, औषध, ५ अर्थ हैं ।
१. 'कम्बलः' (पु) का दुपट्टा (चादर), हाथी, सास्ना (गाय पा बैल के गले में खटकता हुभा चमड़ा, लोर), कीड़ा (कृमि), ४ अर्थ और 'कम्ब. लम् (न)का पानी, कम्बल, २ अर्थ हैं।
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अमरकोषः ।
[ तृतीयकपडे-
४६०
१९५ ॥
१ करोपहारयोः पुंसि 'बलि: प्राण्यङ्गजे स्त्रियाम् ॥ २ स्थौल्यसामर्थ्य सैन्येषु बलं ना काकलीरिणोः । ३ वातूलः पुंसि वात्यायामपि बातासहे त्रिषु ॥ १९६ ॥ ४ मेलिङ्गः शठे व्याक्तः पुंसि श्वापपैयः ।
५ मलोऽस्त्री पापचिट किट्टान्य ६ स्त्री शूलं रुपाधम् ॥ १९७ ॥ ७ शङ्कावपि द्वयोः कीलः ८ पालिः रूयश्रयङ्कपङ्गिषु । कला शिल्पे कालभेदेऽपि -
२.
१ 'बलि' ( + वलिः । पु) के राजाका कर ( कौड़ी, टैक्स, मालगुज़ारी ), उपहार ( भेंट, नजर ), 'बलि' नामक दैश्य, चंवरका दण्ड, ४ अर्थ और 'बलि' (स्त्री) के बुढ़ापे से चमड़ेका सिकुड़ना, घरमें लगा हुआ काष्ट विशेष, पेटी ( पेटके चमकी सिकुड़न ), ३ अर्थ हैं ॥
२ 'बलम्' (न) के मोटाई. सामर्थ्य ( ताकत ), सेना, रूप, ४ अर्थ और 'बल:' ( 9 ) के कौभा, बलराम (कृष्णजीके बड़े भाई), 'बल' नामका दैश्य ( जिसे इन्द्रने मारा था ), ३ अर्थ हैं ॥
३ ' वातूल:' ( + वातुलः । पु) का वायुसमूह ( आँधी), १ अर्थ और 'वातूलः' (त्रि ) का बातूनी ( बहुत बात करनेवाला ), १ अर्थ हैं ॥
४ ' व्यालः' (त्रि ) का शठ, १ अर्थ और 'व्यालः' ( पु ) के हिंसक जन्तु, साँप, बदमाश हाथी, ३ अर्थ है ॥
५ 'मल:' ( पु न ) के पाप, मैठा ( विष्ठा ), मेल, ३ अर्थ हैं ॥
६ 'शूलम्' (पुन) के शूल नामक रोग विशेष, हथियार (त्रिशूल ), २ अर्थ हैं ॥ ७ 'कीलः' (पुत्री) के खूठा जादि, आगकी ज्वाला, शङ्कु, ३ अर्थ हैं ॥ ८ 'पालि:' ( + पाली । स्त्री ) के कोना या घार, अङ्क ( गोद ) पङ्कि, श्मश्रु ( दादी-मूँछ ) से युक्त स्त्री, प्रान्त, पुल, कल्पित भोजन, बड़ाई, कर्णलता, प्रस्थ, १० अर्थ है ॥
९ 'कला' ( स्त्री ) के कारीगरी ( यह ३४ प्रकारकी होती है । एतदर्थं परिशिष्ट देखिये ), ३० काष्ठाका (८ सेकेण्ड ; पृ० ४४ में उक्त ) समय - विशेष, मूल धनकी वृद्धि ( सूद ), सोलहवाँ हिस्सा, चन्द्र-कला, ५ अर्थ हैं ॥
१. 'बलिः' इति पाठान्तरम् ।
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नानार्थवर्गः३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४६१ -१ आली लख्यावली अपि ॥ १९८॥ २ अन्यम्बुविकृती वेला कालमर्यादयोरपि । ३ बहुलाः कृत्तिका गावो बहुलोऽग्लो शितो निषु ।। १५९ ।। ५ लीला बिलातक्रिययो ५ रुपला शर्करापि च ! ६ शोणितेऽम्भसि कीखालं ७ मूलनायो शिफोभयोः : २०० ।। ८ जालं समूह आनायगवाक्षक्षारकेष्वपि । ९ शीलं स्वभावे सद्वृत्ते १० सस्ये हेतुकृते फलम् । २०१ ॥ , 'आल' (बी) के सखो, पङ्कि, २ अर्थ हैं ।
२ 'वेला' (स्त्री) के चन्द्रमांक ४दय हानेपर समुदका बढ़ना, समय, मर्यादा, तट, बुधकी सी, धनियों का भोजन, विना दुःख का मरना, ७ अर्थ हैं ।।
३ 'बहला' (स्रो, ताराओंके बहुत होनेसे नित्य बहुवचन है) कृत्तिका नामका तीसरा नक्षत्र, गौ, १ अर्थ; 'बहुल:' (पु) के अग्नि, कृष्णपक्ष, २ अर्थ और 'बहुलः' (त्रि ) के काला वर्ण, बहुत, २ अर्थ हैं ।
४ 'लीला' (स्त्री) के विलास, केलि, शृङ्गारभावसे उत्पन्न किया-विशेष, ३मर्थ हैं।
५ 'उपला' (स्त्री) के शिकडी ( पत्थरका छोटा १ कक), खाँड़ या चीनी, २ अर्थ और 'उपलः' (पु) के पत्थर, एन, २ अर्थ है ॥
६ 'कीलालम् (न) खून, पानी, २ अर्थ हैं।
७ 'मूलम्' ( न ) के पहला, जर, मूल नामक उन्नीसवाँ नक्षत्र, (+मूल. धन), समीप ( जैसे-वृतमूले तिष्ठति, ....... ), ४ अर्थ हैं ॥
'जालम्' (न) के समूह, जाल (फन्दा), गवाक्ष (खिडकी, जंग. ला), विना खिली हुई कल्ली, दम्म, ५ मथ और 'जाल'(पु) का कदम्बका पेड़, । अर्थ है।
९ 'शीलम्' (न) के स्वभाव, सदाचरण (अच्छी रहन ), २ अर्थ हैं ।
१. 'फलम' (न) के धान्य वृक्ष भादिका फल, फल ( लाभ, जैसेयज्ञका फल स्वर्ग,......), बाणकी नोक, जातीफल, त्रिफला (आँवला, हरे, बहेड़ा), कंकोल, सम्पचि, ७ अर्थ हैं। १. 'शिफार्थयो। इति पाठान्तरम् ।
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४६२
अमरकोषः [AILA काण्डे१ छदिनेत्ररुजोः क्लीबं समूहे पटलं न ना । २ अधःस्वरुपयोरस्त्री तलं ३ स्याञ्चामिषे पलम् ।। २०२॥ ४ और्वानलेऽपि पातालं ५'चेलं वस्त्रेऽधमे त्रिषु । ६ कुकूलं शङ्कुभिः कीर्णे श्वभ्रे ना तु तुषानले ॥२०३।। ७ निर्माते केवलमिति त्रिलिङ्गं त्वेककृत्स्नयोः। ८ पर्याप्तिक्षेमपुण्येषु कुशलं शिक्षिते त्रिषु ॥ २०४ ॥ ९ प्रगलमङ्करेऽप्यस्त्री१०त्रिषु स्थूलं जडेऽपि च । ११ करालो दन्तुरे तुझे १२ चारो दक्षे च पेशलः ॥ २०५॥
१ 'पटलम्' ( न ) क छप्पर, बाखका रोग विशेष, २ अर्थ और 'पट. लम्' (न स्त्री) का समूह, १ अर्थ है ॥
२ 'तलम्' (पु न ) के नीचे (जैसे- रसातलम् , पादतलम् ,.......), स्वरूप, पृष्ठ भाग (जैसे-भूतकम् , करतलम् ,..... ), ३ अर्थ हैं ।
३ 'पताम्' (न) के मांस, चार भरीका प्रमाण-विशेष, समय विशेष (१ घटीका १० भाग), .३ अर्थ है ॥
४ 'पातालम्' (न) के वडवानल, नागलोक (पाताल), बिल, ३ अर्थ हैं।
५ 'चैलम्' ( + चेलम् । न ) का कपड़ा, । अर्थ और 'चैलः' (त्रि) का नीच, , अर्थ है।
६ 'कुकूलम्' (न) का कील आदिसे भरा गढा, १ अथं और 'कुकूल' (पु) का भूसेकी भाग ( मर), " अर्थ है ॥ _ 'केवलम्' (अव्यय) का सिर्फ, १ अर्थ और 'केवलम्' (त्रि) के एक (अकेला, जैसे-केवलोऽयं याति,...... ), समूचा (जैसे-केवला भिक्षु. काः,...... ), २ अर्थ हैं ॥
८ 'कुशलम्' (न) के पर्याप्ति ( सामर्थ्य ), कल्याण, पुण्य, ३ अर्थ और 'कुशलम' (नि) का शिक्षित (चतुर), १ अर्थ है ॥
९ 'प्रवालम्' (न पु) के नया पल्लव', मूंगा, वीणाका दण्ड, ३ अर्थ हैं । १० 'स्थूलम्' (त्रि) के मोटा, जड़ (मूर्ख), २ अर्थ हैं ।। ११ 'करालः' (त्रि) के दाँतुल, ऊँचा, भयङ्कर, ३ अर्थ हैं । १२ 'पेशलः' (त्रि) के सुन्दर, चतुर, २ अर्थ हैं ।। १'चेलम्' इति पाठान्तरम् । २. 'भरोऽत्र किसलयः' इति क्षी० स्वा० उक्तः।
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नानार्थवर्गः३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
४६३. १ मूर्खऽर्भकेऽपि वालः स्था २ ल्लोलञ्चलमतृष्णयोः। ३ 'कुलं गृहेऽपि ४ तासाङ्के कुबेरे चैककुण्डलः (७८) ५ स्त्रोपावावशाला ६ हेलिः सूयें ७ रणे हिलिः ( ७९ ) ८ हालः स्यान्नृपती मधे ६ शकलच्छेदयोदल ( ८०) १० तूलिश्चित्रो रकरणालातूलशय ययोः
(८१) ११ तबुलं व्याकुले शब्दे १२ शाकुली कर्णपाल्यानि' (८२)
इति वान्ता: शब्दाः ।
अथा वान्ताः शब्दाः । १३ दवदावौ वनारण्यवह्नी
, 'बाल' ( + वालः । त्रि) के मूर्ख बालक, कश, नेत्रवाला औषध, हाथी-घोड़े की पूछ के बाल का गुच्छा, ५ अर्थ हैं।
'लोलः' (वि) के चल, चाहनासे युक्त, २ अर्थ हैं ॥ ३ [ 'कुलम्' ( न ) के घर, देह, देश, वंश, परिवार, ५ अर्थ है ] ॥ ४ 'एककुण्डलः' (पु)के बलभद्र, कुबेर, र अर्थ हैं ] ॥ ५ ['हेस्ता' (स्रो) के सीका भाव-विशेष; अवज्ञा, २ अर्थ हैं ] । ६ [ 'हेलि' (पु) के सूर्य, आलिङ्गन, २ अर्थ हैं ] ॥ ७ [ 'हिलिः ' (पु) के लवाई, भाव-सूचन, , अर्थ हैं ] ॥
८ [हालः' (पु) के शालिवाहन ( + सातवाहन ) राजा, १ अर्थ और +'हाला' (स्त्री) का मदिरा, १ अर्थ है ] ॥
९ । 'दलम्' (न) के टुकड़ा, पत्ता, २ अर्थ हैं ] ॥ १० ['तूलिः(स्त्री) के चित्र बनानेकी कूँची, तोसक, २ अर्थ हैं ] ॥
११ ['तुमुलम्' (न) का रण आदिमें जन समूहादि से ठसाठस भए हुआ, १ अर्थ और 'तुमुलः' (पु) का बहेडेका पेड़, १ अर्थ है ] ॥ ' १२ ['शष्कुली' (स्त्री) के कर्णपालो, (कानका पर्दा), पूड़ी, २ अर्थ हैं] ॥
इति लान्ताः शब्दाः।
अथ वान्ताः शब्दाः। १३ 'दवः, दाव:' (पु) के वन, दावानल (कदियोंकी रगरसे सस्पस हुई जङ्गलकी आग), २ अर्थ हैं ।
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Gm com
४६४
अमरकोषः।
[ तृतीयकाप्डे
-१ जन्महरी भवो ॥२.६ ।। २ मन्त्री सहायः सचिचौ ३ पतिशाविना धवाः । ४ अवयः शैल मेषा ५ आशाऽऽह्वानाध्वरा हवाः ॥ २०७।।
भावः 'सत्तास्वभावाभिमायचेष्टात्मजन्मनु । ७ स्यादुत्पादे फले पुष्पे असो नर्ममोचने ।। २०८।। ८ अविश्वासेऽपह्नवेऽपि निकृतापि निह्नवः । ९ उत्तेकामर्षयादिच्छाप्रलरे मह उत्पत्रः ।०९।। १० अनुभावः प्रभावे च सतां च प्रतिनिश्चये। ११ स्याजन्महेतुः प्रभवः स्थानं चायापलब्धये ।। २१०॥
'भवः' (पु) के जन्म लेना, शिवजी, प्रावि, सत्ता, संसार, कल्याण, ६ अर्थ हैं॥ ___ २ 'सचिवः' (पु) मन्त्री (बुद्ध-सचिव), सहायक (कमसचिव), १ अर्थ हैं।
३ 'धवः' (पु ) के पति, धन का पेड़, नर, धून, ४ अर्थ हैं । ४ 'अवि.' (बु) के पहाड़, भदा, सूर्य, नाय ( स्वामी ), ४ अर्थ हैं । ५ 'हवः' (पु) के आज्ञा, पुकारना, यज्ञ ३ अर्थ हैं ।।
६ 'भाव' (पु) के सत्ता, स्वभाव, अभिप्राय, चेष्टा, आत्मा, जन्म, वस्तु, किया, लीला, विभूति, पात, जन्तु, रतिवेग, १३ अर्थ हैं ।।
७ 'प्रसवः' (पु) के उत्पत्ति, फल, फूल, गर्भसे पैदा होना, सन्तान, ५ अर्थ हैं।। ८ निङ्गवः (१) के अविश्वास, व्यर्थ बोलना (बकना), शठता, ३ अर्थ हैं।
९ 'उत्सव' (पु) उन्नति, क्रोध, इच्छाका वेग, आनन्दका अवसर (विवाह आदि उत्सव ), ४ अर्थ हैं ।
१. 'अनुभावः' (पु) प्रभाव, सजनोंके ज्ञान का निर्णय, भाव-सूचन, ३ अर्थ हैं।
१. 'प्रभवः' (पु) के जन्मकारण ( जैसे--पुनादिका जन्म र मातापिता,......), प्रथम उपलब्धिका स्थान (जैसे-'गङ्गाप्रमवा हिमवानु'भर्थात गङ्गाके प्रथमोपलब्धिका स्थान हिमालय है,..........),२ अर्थ हैं ।
१. 'स्वस्वस्वभावामिप्रायचेष्टात्मजन्मस' इति पाठान्तरम् ।
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४६५
नानार्थवर्गः ३ } मणिप्रभाख्यासहितः ।
१ शूदायां विप्रतनये शो' पारशवो मतः। : ला मभदे क्लीबं तु निश्चिते शाश्वते त्रिषु ।। २११ ॥ • स्यो शातावात्मन्नि बिध्यात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने। ४ स्त्रीकटीवस्त्रबन्धेऽपिनीवी परिपणेऽपि च ।। १२ ।। ५ शिवा गौरीफेरया ६ ईन्द्वं कलयुग्मयोः । ॐ द्रव्यासुब्यवसाधु सत्यमस्त्री तु जन्तुषु ।। २१३ ।।
नारश:'( + पाराश ) शूद बातिफी माता में ब्राह्मग जाति के पितासेना सन्ता, परशु ( फरसा, कुरुहाही) अस्त्र, २ अर्थ हैं ॥
२ 'ध्रुवः' (पु) ध्रुव ताग, बह, बसु, योग भेद, शिवनी, शङ्क, कोल, ७ अर्थ; 'भ्रूवम्' (न) का निश्चित (जैसे-ध्रुवं मूोऽयम् ,...........), 1 अर्थ और 'ध्रवम्' (त्रि ) के निरन्तर (जैसे-जातस्य हि ध्रवो मृत्युर्धवं जन्म मृतस्य च (गाता २ । २७), "...'). तर्फ, भाफाश, ३ अर्थ है ॥
३ 'स्वः' (पृ) के ज्ञानी (जाति, जैसे-टामुकानीव भान्ति 'स्वाः, ...... ) आत्मा (जैसे- हृदि स्वमवलोकयन् ,..... ), २ अर्थ; 'स्वम्' (त्रि) का बास्मीय, १ अर्थ और 'स्वः' (पुन ) का धन, १ अर्थ है । { 'इस 'स्व' शब्द ज्ञाति और धन अर्थमें 'राम' शब्दकी तरह और आरमा और शारमीय अर्थमें 'म' शब्दकी नाह होते हैं)
४ नीवी' ( + नाविः । स्त्री) के फुफुती (स्त्रियों के नाभिके नीचे वाली वस्त्र निध) गजपुत्रादिक धन का अदल-बदल पनियों का मूलधन, ३ अर्थ हैं।
५ शिवा' (स्त्री) के पार्वतीजी, सियारिन, स्यार, शमी वृक्ष, आँवला, भंई आँपला ओषधि, ६ अर्थ है ॥
'द्वन्द्वम्' (न । + पु) के लड़ाई, जाली (युग्म, युगल), रहस्य, ३ अर्थ हैं ॥
७ सत्त्वम्' ( न ) के वस्तु, प्राण, अधिक पराक्रम होना, ३ अर्थ और 'सत्त्वम्' ( न पु) का प्राणी १ अर्थ है ॥
१. 'पाराशवः पुमान्' इति पाठान्तरम् । २. 'नीविः' इति पाठान्तरम् ।
३. आस्मात्मीयार्थयोः स्वशब्दः 'स्वमशातिधनाख्यायाम्' (पा० स० १२३५) इति सर्व नामसंज्ञकरतेन 'सर्व'वद्रूपम् । शातिषनार्थयोस्तु सर्वनामसंशामावाद रामशब्दवद्रूपमित्यवधेयम्
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४६६
अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे१ 'क्लीवं नपुंसकं षण्ढे वाच्यलिङ्गमविक्रमे । २"त्यध्वगातिप्रणती प्राध्वी प्राध्वं तु बन्धने (८३)
इति वान्ताः शब्दाः ।
अथ शान्ताः शब्दः । ३ विशी वैश्यमनुजी ४ द्वौ चराभिमरी स्पशौ ।। २४ ॥ ५ द्वा शशी पुअमेषाद्यौ ६ द्वौ वंशौ कुलमस्करौ। ७ रहःप्रकाशी वीकाशी
१ 'क्लीबम्' ( न ) का नपुंसक (हिजड़ा ) १ अर्थ और 'क्लीबम्' (त्रि ) का सामर्थ्यहीन, १ अर्थ है।
२['प्राध्वः' (पु) के रास्ताको चलकर पूरा किया हुआ, अतिनम्र, २ अर्थ और 'माध्यम्' ( न ) का बन्धन, १ अर्थ है ] ॥
इति वान्ताः शब्दाः ।
अथ शान्ताः शब्दाः। ३ 'विट' ( = विश पु) के वैश्य, मनुष्य, प्रवेश ३ अर्थ हैं ।। ४ स्पशः' (पु) के दूत, युद्ध, २ अर्थ हैं ।
५ राशिः ' (पु) के ढेरी, मेष आदि ( १३:२७ में उक्त ) बारह राशि, २ अर्थ हैं।
५ 'वंश' (पु) के कुल (खान्दान), घाँस, संघ, पीठकी रीढ़ ४ अर्थ हैं।
७ 'वीकाशः' ( + विकाशः । पु) के एकान्त, प्रकाश ( स्पष्ट व्यक्त), २ अर्थ हैं ।
१. अयं (कीवशब्द:)ोष्ठ्योऽत्र भ्रमात्पठितः' इति मा० दी०, 'बवयोः सावादस्यात्र पाठः इति महे० वचनं च चिन्त्यम् । 'कृपणक्षुद्रकक्लोवक्षुदा..." इति, क्लीवो वर्षवरः पण्डः....... इति, क्लीवो विक्रमहीनेऽपि...""(अमि० रस्न क्रमशः २११९२, २।२७५, ५।३४) इति हलायुषात , 'क्लीबोऽपौरुषषण्ढयो" (अने० संग्र० २।५३२) इति वान्तप्रकरनहैमात् 'पापे क्लीवं नपुंसके षण्वेऽन्यवदविक्रम' इति मेदिन्याश्च वान्तस्यै ( दन्त्यौष्ठयस्यै) य 'क्लीब' शब्दस्योपडन्ध्या सर्वेषां भ्रमरपनानौचित्यात् ॥
२. 'भस्यध्वग्ग........"वन्यने' इत्ययं क्षेपकोशः क्षी० स्वा० व्याख्यायामेवोपलभ्यत इति प्रकृतोपयोगितया मूळे क्षेपकस्वेन निहितः ॥
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मानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
-१ निवेशो भृतिभोगयोः ॥ २१५ ॥ २ कृतान्त पुंसि कीनाशः क्षुद्रकर्षकयोस्त्रिषु । ३ पदे लक्ष्ये निमित्तेऽपदेशः स्या ४ कुशमासु च ॥ २२६ ॥ ५ दशावस्थानेकविधाप्या ६ शा तृष्णापि चापता। ७ वशा स्त्री करिणी च स्यादुराहरक्षाने ज्ञातरि त्रिषु ॥ २१७ ॥ ९ स्यात्कर्कशा साहसिकः कठोरामसृणावपि । १० प्रकाशोऽतिप्रसिद्धेऽपि, 'निवेशः' (पु) के वेतन, उपभोग, २ अर्थ हैं ॥
२ 'कीनाशः' (पु) के यमराज, वानर, २ अर्थ और 'कीनाश' (त्रि) के चुद, कर्षक (किसान), २ अर्थ है ॥ __३ 'अपदेशः' (पु) के व्याज ( बहाना। + स्थान ), लचय, निमित्त ३ अर्थ हैं।
४ 'कुशम्' (न) का पानी, १ अर्थ और 'कुशः' (पु) के रामचन्द्रजी. का पुत्र, कुछा, द्वीष, जोती (बैल मादिके गले में बांधने के लिये जुवाठकी रस्सी), १ अर्थ हैं॥
५ 'दशा' (सी)के अवस्था ( दशा ), भनेक तरह, दीपकी बत्ती, ३ अर्थ और 'दशा' (स्त्री नि०प०.) का कपड़ेकी धारी (किनारी, वस्सी),
अर्थ है ॥
'माशा' (स्त्री) के तृष्णा (चाह, भाशरा, उमीद ), पूर्व आदि दिशा,
७ 'वशा' (स्त्री) के स्त्री, हथिनी, बाँझ गौ, लड़की, वशमें रहनेवाली, ५अर्थ है।
'क' ( = दश त्री) के ज्ञान, नेत्र, बुद्धि, ६ अर्थं और 'क' (= रश त्रि) का ज्ञाता (जाननेवाला), " अर्थ है ॥
९ 'कर्कश (त्रि) के साहसी, कठोर, रूखा, , निर्दय; कृपाण, कर, •अर्थ और 'कर्कश' (पु)के तलवार, कपोला ओषधि, गधा, कासमई (गुरुमभेद महे । + वेसवारभेद नी. स्वा० मा० दी.), अर्थ है .......
१. 'प्रकाश' ()के बहुत प्रसिद्ध, बाम, माला, देसी, अर्थ । Bregoti
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अमरकोषः
[तृतीयकाडे-१ शिशावशे च बालिशः ॥ २१८ ॥ २'कोशोऽस्त्री कुड्मले बापिधानेऽर्थीदिन्ययोः (८.) ३ नाशः क्षये तिरोधाने जीवितेशः प्रिये यमे (८५) ५ नृशंसन हो निस्विंशा ६ वंशुः सूर्याऽशवः कराः (८६) ७ आश्वासमा शालिशीघ्राथें८पाशोबन्धनशस्त्रया' (८७)
इति शान्ताः शब्दाः।
रथ रान्ताः शब्दाः। ९ सुरमत्स्यानिमिषी १० पुरुषावात्ममानवौ। १ 'बालिशः' (पु) के बालक, मूर्ख, २ अर्थ हैं ॥
१ ['कोशः' (न) के फूल की कोंढ़ी ( कलिका ), तलवार की म्यान, खजाना, दिव्य (शपथ-भेद), अर्थ हैं ] ॥
३ [ 'नाशः' (पु) के क्षय, अन्तर्धान (छिपना), १ अर्थ हैं ! ॥ ४ ['जीवितशः' (पु) के प्रिय ( पनि आदि), यमराज, २ अर्थ हैं ] ॥ ५ ['निस्त्रिंश' (पु) क्रा, नलवार, २ अर्थ ] ॥
६ [ 'अंशुः' (पु) के सूर्य, किरण, सून आदिका पतला हिस्सा, ३ अर्थ हैं ]॥
७ [ 'माशु' () के नहि (धान्य भेद ), शीघ्र, २ अर्थ हैं । ८ [ 'पाशः' (इ) बन्धन. वरुणका हथियार या फॉस, १ अर्थ हैं ]
इति शान्ताः शब्दाः ।
अथ पान्ताः शब्दः। ९ 'अनिमिषः' (पु) के देवता, मछली, २ अर्थ हैं ।
१. 'पुरुषः' (पु) के क्षेत्रज्ञ (ज्ञानी), मनुष्य (पुरुष), पुन्नाग वृक्ष ३ अर्थ है ॥
१. 'को शो......दिव्ययोः' इत्ययमंशः मा० दो० क्षी० स्वा० मूलपुस्तके नोपलभ्यते नापि ताभ्यां व्या यातः, क्षी० स्वा० व्याख्याने दुर्गव वनत्वेन समुपलभ्यते। महे• मू व्याख्यायां च समुपलभ्यते ।।
२. 'नाशः...."शस्त्रयोः' इत्यंशः क्षी० स्वा० व्याख्याने दुर्गवचनत्वेनोपलभ्यमानः प्रकृतोपयोगितयाऽत्र क्षेपकरवेन स्थापितः॥
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मानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४६ १ काकमत्स्यात्खगौ घासौ २ कक्षौ तु तृणवीरुधौ ।। २१९ ।। ३ अभीषुः प्रग्रहे रश्मौ ४ प्रैषः प्रेषणमर्दने । ५ पक्षः' सहायेऽप्युदणीषः शिरोवेष्टकिरीटयोः ।। २२० । ७ शुकले मूषिके श्रेष्ठे सुकृते वृषभे वृषः। ८ कोषोऽस्त्री कड़मले खड्गपिधानेऽर्थोघदिव्ययोः ॥ २२१ ॥ ९ द्यतेऽले शारिफलकेऽप्याकर्षो१०ऽथासमिन्द्रिये ।
ना द्यूताने कर्षचक्रे व्यवहारे कलिद्रुमे ॥ २२२ ।। , 'ध्वाङ्कः' (पु) के कौआ, मछलीको खाने वाला पक्षी (बगुला), भिक्षुक, तक्षक , कपालके बीज निकालनेका यन्त्र विशेष, ६ अर्थ हैं ।
२ 'कक्षः' (पु) के घास, लता, काँख जङ्गल, ४ अर्थ हैं।
३ 'अभीषुः' ( + अभीशुः । पु ) के रस्सी (घोड़े आदिका बारडोर ), किरण, २ अर्थ हैं।
४ 'प्रैषः' ( + प्रेषः । पु) के भेजना, पीडा, २ अर्थ हैं।
५ 'पक्षः' (पु) के सहाय, पखवारा (आधा महीना अर्थात् कृष्ण पक्ष, शुक्लपक्ष), पा, प्रह, साध्य, अवरोध, कश आदिसे परे (आगे) रहनेपर समूह (जैसे-के शपक्षः, कापसः,... ....... ), बल, मित्र, पंख, रुचि विकविपत (जैसे-भवदीयः पक्षः, अस्मदीयः पक्षः,...... ), १२ भर्थ हैं ।
६ उणीषः' (पु। +न ) के एगढ़ी, किरीट (मुकुट) २ अर्थ हैं ।। ___वृषः' (पु) के बहुत पराक्रमवाला ( + अण्डकोश), चूहा, श्रेष्ठ, धर्म, वृष नामका दूसरा राशि, बैल, ६ अर्थ हैं ।
८'कोषः' ( + कोशः, पु न ) के फूलकी विना खिली हुई कशी (कोदो), तलवारकी म्यान, खजाना दिव्य ( शपय-भेद), ४ अर्थ हैं ।
९ 'आकर्षः' (पु) के जुभा, जुआ खेलने का पाशा, सतरंज आदि खेलने की बिसात, ( कपड़ा या पटरी आदि), खींचना, इन्द्रिय, ५ अर्थ हैं ।
१० 'अक्षम्' (न) के इन्द्रिय, तूतिया, पोचरखार, ३ अर्थ और 'अक्ष' १, 'सहायेऽप्युष्णीष' इति पाठान्तरम् ।।
२. 'कोषो....."दिव्य योः' इत्येषोंडशो महे० पुस्तके नोपलभ्यते नापि तेन ग्यास्यास शी. स्वा० मा० दी० मूलेलभ्यते व्याख्यातश्च ताभ्याम् ।।
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५००
अमरकोषः। । तृतीयकाण्ड १ कर्पूर्वार्ता करीषामिः कः कुल्याभिधायिनी। २ भावे तरिक्रयायां च पौरुष ३ विषमप्सु च ।। २२३ ।। ४ उपादानेऽप्यामिषं स्या ५ दपराधेऽपि "किरिवषम् । ६ स्याद् वृधी लोकधास्वंशे वत्सरे वर्षमलियाम् ।। २२४ ।। ७ प्रेक्षा नृत्येक्षणं प्रक्षा ८ भिक्षा सेवाऽऽर्थना भृतिः ।
१ रिघट शोभाऽपि १० त्रिषु परे ११व्यक्ष कासयनिकश्योः ॥२२५॥ (पु) के जुआ खेलनेका पाशा, कर्ष ( सोलह मासा, प्रमाण-विशेष), पहिया, बहेबा, व्यवहार ( आय व्ययका विचार अर्थात् लेन देन ), ५ अर्थ है ॥
''कडूः' (पु) का खेती (जीविका), उपला (गोहरा, गोइंठा ) का भार, २ अर्थ और 'ग' (बी) का नहर, १ अर्थ है।
२ पौरुषम्' (न) के पुरुषका भाव, पुरुषका कर्म (पुरुषार्थ), तेज १ अर्थ और 'पौरुषम' (त्रि) का पोरसा (हाथ उठाये हुए मनुष्य के साढ़े चार हाथका प्रमाण विशेष) १ अर्थ है।
३ 'विषम्' ( न) के जल, जहर, २ अर्थ हैं॥
४ 'आमिषम्' (नपु) के उपादान (घूस, रिस्वत), भोग्य वस्तु, संभोग, मांस, " अर्थ हैं।
५ किलिषम्' (+किल्मिषम् । न) के अपराध, पाप, रोग, ३ अर्थ हैं ।
६ वपम् (पु न ) के वर्षा, जम्बूद्वीपके खण्ड (१।। में उक्त भारत आदि नव वर्ष), वर्ष (साल), ३ अर्थ और 'वर्षा' (स्त्री नि० ब० व.) का वर्षा ऋतु, १ अर्थ है ॥
७ 'प्रेक्षा' (स्त्री)के नाच, देखना (+ नाच देखना, बुद्धि, ३ अर्थ हैं ।।
८ भिक्षा' (स्त्री) के सेवा, याचना, वेतन, भिक्षा में मिला हुआ पदार्थ, ५ अर्थ हैं ॥
९ स्विट' ( = स्विष स्त्री ) के शोभा, वचन, तेज, ३ अर्थ हैं। १० य हांसे आगे सब पकारान्त शब्द त्रिलिङ्ग हैं ।
११ 'न्यक्षम्' (त्रि ) के साकल्य, नीच, २ अर्थ यक्ष:' (पु) का परशुराम, ५ अर्थ है।
१. 'किल्मिषम् इति पाठान्तरम् ।
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ज्ञानार्थवर्गः ३ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
५
१ प्रत्यक्षेऽधिकृतेऽभ्यक्षो २ रुतस्त्वप्रेरणनिकणे । ३ "व्याज संख्यामध्ये लक्षं ४ घोषो रखती (८८ ) कपिशीर्ष भिन्तिभ्टङ्गेऽनुतर्षश्चकः सुरा (२९) ७ दोषो वातादिके दोषा रात्री ८ दक्षोऽपि कुक्कुटे (६०) ९. शुण्डाप्रभागे गण्डूशे द्वयोश्च खपूरणे (९१) इति षान्ताः शब्दाः १
अथ सान्ताः शब्दाः ।
१० र विश्वेदो हंसी
१ ' अध्यक्षः' (त्रि ) के प्रत्यक्ष, अधिकारी ( मालिक, ) २ अर्थ है ॥ २ 'रुतः' (त्रि ) के प्रेसरहित, रूखा, अर्थ हैं ॥
[' लक्षम्' (न) के व्याज, लाख संख्या, निशाना, ३ अर्थ हैं ] ॥ ४ [ 'घोषः' (पु) के शब्द (हल्ला, आबाज़), अहीरोंके रहने का स्थान, 4 अर्थ हैं ] ॥
५ [ 'कपिशीर्षम् ' ( न ) के दिवालका ऊपरी भाग, शृङ्ग, अर्थ हैं ] ॥ ६ [ 'अनुतर्षः' (पु) के मदिरा पीनेका प्याका, मदिरा, अभिलाषा, तृष्णा, ४ अर्थ हैं ] ॥
19
[ 'दोष' (पु) के वात आदि (पित्त, कफ) तीन दोष, दोष (अपराध), २ अर्थ और 'दोषा' ( अव्य० ) का रात, १ अर्थ है ] ॥
• [ 'दक्षः' (g) का मुर्गा, १ अर्थ और 'दक्षः' (नि) का चतुर, १ अर्थ है || ९ [ 'गण्डूषः' (पु) के हाथीके सूंड़का आगेवाला भाग, १ अर्थ और 'गण्डूष:' ( पु स्त्री ) का कुल्ला ( मुखमें पानी भरना ), १ अर्थ है ] ॥ इति षान्ताः शब्दाः ।
अथ सान्ताः शब्दाः |
१० 'हंस' (पु) के सूर्य, हंस पक्षी, योगि-भेद, ३ अर्थ हैं ॥
५०१
१. 'व्याज... "मुखपूरणे' इत्ययं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यायामुपलभ्यमानः प्रकृतोपयोगितया मूळे क्षेपकत्वेन स्थापितः ॥
२. तदुक्तम्- 'कुटीचको बहूदको हंसश्चैव तृतीयकः ।
चतुर्मो परमो हंसो योग्यः पश्चात्त उत्तमः ॥ इति हारीतः ॥
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अमरकोषः ।
-१ सूर्यवह्नी विभावसु ॥ २२६ ॥ २ वत्सौ तकवर्षो द्वौ ३ सारङ्गाश्च दिवौकसः । ४ शृङ्गारादौ विषे वीर्ये गुणे रागे द्रवे रसः ॥ २२७ ॥ ५ पुस्युत्तंसावतंसी द्वौ कर्णपूरे च शेखरे ।
देवभेदेऽनले रश्मौ वसू रत्ने धने वसु ॥ २२८ ॥ ७ विष्णौ च वेधाःद स्त्री त्वाशीडिताशंसाद्दिदंष्ट्रयोः । लालसे प्रार्थये १० हिंसा चौर्यादिकर्म च ।। २२९ ।।
५०२
१ 'विभावसुः' (पु) के सूर्य, अग्नि, २ अर्थ हैं ॥
२ 'वत्सः' (५) के गौका बछवा या पुत्र आदि ( बच्चा ), वर्ष, २ अर्थ और 'घत्सम् ' ( न ) का छाती, अर्थ है ॥
३ 'दिवौकसः' ( = दिवौकस् पु) के चातक पक्षी, देवता, २ अर्थ हैं ॥
[ तृतीय काण्डे
४ 'रसः' (पु) के शृङ्गार आदि ( १/७/१७ में उक्त ) नव रस, विष, वीर्य, कसाव आदि ( ११५१९ में उक्त ) छ रस, राग ( जैसे- रसिकस्तरुणः, ), पिघलना, पारा, जल, स्वाद, ९ अर्थ हैं ॥
५ 'उत्तंसः, अवतंसः' (२ पु) के कानका भूषण, भूषणमात्र, २ अर्थ हैं ॥
६ 'वसुः' (पु) के घर आदि आठ वसु ( १ घर, २ ध्रुव, ३ सोम, ४ अहनू ( दिन ), ५ वायु, ६ अग्नि, ७ प्रत्यूष, ८ प्रभास; ये आठ वसु' हैं ), अभि, किरण, राजा, जोती ( जुवाठमें बंधी हुई बैठ के गले में बांधने की रस्सी ), ५ अर्थ; 'वसु' (न) के रश्न, धन, वृद्धि औषध, स्वर्ण, ४ अर्थ और 'वसुः' (त्रि ) का मधुर, १ अर्थ है ॥
७
'वेधाः ' ( = वेधस् पु ) के विष्णु, ब्रह्मा, पण्डित. ३ अर्थ हैं ॥
८ 'आशीः' ( = आशिस खी) के आशीर्वाद, सर्पका दाँत, २ अर्थ हैं ॥
९ 'लालसा' (खी) के प्रार्थना, उत्सुकता, अधिक चाह, याचना, ४ अर्थ हैं ॥
१० 'हिंसा' (स्त्री) के चोरी आदि ( बांधना, डराना ) बुरा काम, मारना, २ अर्थ हैं ॥
१. तदुक्तम्- 'घरो ध्रुवश्च सोमश्च अहश्चैवानिलोऽनलः ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टाविति स्मृताः ॥ १ ॥ इति मा० आ० ६६० -' इति वाचस्पस्म० पु० ४८६३ ॥
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' मानार्थवर्ग:३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ प्रसूरश्वापि २ भूद्यावौ रोदस्यौ रोदसी च ते । ३ ज्वालाभालौ न पुंस्यचिज्योतिर्भद्योतयषिषु ।। २३०॥ ५ पापापराधयोरागः ६ खगवाल्यादिनोर्वयः । ७ तेजः पुरीषयोर्वों ८ महस्तूत्सवतेजोः ।। २३१ ॥ ९ रजोगुणे व स्त्रीपुष्पे१०राहो ध्वान्ते गुणे तमः । ११ छन्दः पोऽभिलाषेचररतपः इच्छादिकर्म च ॥ २३२ ॥ १३ सहो बल सहा मागो
, 'प्रसूः' (बी) के घोड़ी, माता, केला, लता, ४ अर्थ हैं ॥
२ 'रोदस्यो' (= रोदसी स्त्री ), 'रोरसी' (रोदस न । २ नि० द्विव) का, जमीन-आसमान, " अर्थ है ॥
३ 'अचिः' (= अचिस स्त्री न ) के ज्वाला, किरण था कान्ति, २ अर्थ हैं । ४ 'ज्योतिः' (- ज्योतिस् न ) के नक्षत्र, प्रकाश, दृष्टि, ज्योतिष शास्त्र,
५ 'आग' (= आगस् न ) के पाप, अपराध, २ अर्थ हैं ।
६ 'वयः' (= वयस् न) के चिड़िया, अवस्था ( बाल्य, यौवन, वार्द्धक्य भादि), १ अर्थ हैं।
७ 'वर्चः' (॥ वर्चस् न) के तेज, विट (मैला, पाखाना), रूप, ३ अर्थ हैं । ८ 'मह' (= महस न । + महः = मह पु) के उत्सव, तेज, २ अर्थ हैं।
९ 'रज' (= रजसन । + रजः = रज पु)के रजोगुण, स्त्रीका मासिक मार्तव, १ अर्थ हैं।
१० तमाः (= तमस् पु) का राहु ग्रह, १ अर्थ और 'तमाः' (तमस् न) के अन्धकार, तमोगुण, शोक ( मोह, मूर्छा ), ३ अर्थ हैं ।
११ 'छन्दः' (= छन्दस् न ), पच (श्लोक आदि), अभिलाषा, वेद, स्वइन्दता, ४ अर्थ हैं।
'तयः (= तपसन) का तपस्या (कृच्छ, चान्द्रायण शादि कठिनवत), तपोलोक, धर्म, ३ अर्थ 'तपा' (s) के माघ महीना, शिशिर ऋतु, २ अर्थ हैं ।
११ 'सहः' (सहस् न) के बल, ज्योतिष, १ अर्थ और 'सहाः' (= सहस्पु )मार्ग (अगहन) महीना, हेमन्त ऋतु, २ अर्थ हैं।
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५०४
अमरकोषः ।
- १ नभः खं श्रावणो नभाः ।
२ ओकः समाश्रयश्ौकाः ३ पयः क्षीरं पयोऽम्बु च ॥ २३३ ॥ ४ ओजो दीप्ती बले ५ स्रोत इन्द्रिये निम्नगारये । ६ तेजः प्रभावे दोप्तौ च बले शुक्रेऽभ्यन्तस्त्रिषु ॥ २३४ ॥ ८ विद्वान्दिंश्चबीभत्सो हिंनोऽध्य १०तिशये त्वमी । वृद्धप्रशस्ययोज्ययान् -
१ 'नमः' (= नभल् न ) का आकाश, १ अर्थ और 'नभाः' (= नभस् पु) के श्रावण महीना, मेव ( बादल ), पिकदान ( उगलदान ), नाक, मृगालसूत्र, वर्षा ऋतु, ६ अर्थ हैं ॥
| 'ओकः' (= ओकस् । न + अक: = ओक पु ) का मकान, १ अर्थ और 'ओका:' ( = ओकस् पु ) का आश्रयमात्र, १ अर्थ है ॥
३ ' पय:' ( = पयस् न ) के दूध, पानी, २ अर्थ हैं ॥
४ 'ओजः' (= ओकस् न) के दीप्ति, खल, प्रकाश (उजाला), ३ अर्थ हैं ॥ ५ 'स्रोतः' (= स्रोतस् न ) के इन्द्रिय, सोत ( नदी आदिका बहाव ), २ अर्थ हैं ॥
६ 'तेज:' ( = तेजस् न ) के प्रभाव, दीप्ति, खक, वीर्य ( मनुष्यका शरीरस्थ धातु ), 'असहन, ५ अर्थ हैं ॥
७ यहांसे आगे सब सकारान्त शब्द त्रिलिङ्ग हैं |
[ तृतीय काण्डे -
८ 'विद्वान्' (= विवस त्रि ) के पण्डित, आत्मज्ञानी, प्राज्ञ, ३ अर्थ है ॥ ९ 'बीभत्सः' (त्रि) के हिंसक या क्रूर, भयङ्कर ( डरावना ), २ अर्थ और 'बीभत्सः' (पु) के बीभास रस ( 'यह पृ० ७३ में उक्त शृङ्गार आदि नवरसों के अन्तर्गत है' ), १ अर्थ है ॥
१० 'ब्यायान्' (= उपायस् त्रि) के अत्यन्त बूढा, बहुत प्रशंसा करने अर्थ हैं ॥
योग्य,
१. तदुक्तं साहित्यदर्पणे विश्वनाथेन -
'अविक्षेपापमानादेः प्रयुक्तस्य परेण यत् । प्राणात्ययेऽप्यसनं तचेत्रः समुदाहृतम् ॥ १ ॥
इति सा० द० ३ । ९७ ॥
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५०५
नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ कनीयांस्तु युवालायोः ॥ २३५॥ २ घरीयांस्तूरुवरयोः ३ लाधीयान्साधुवाढयोः ।
हति सान्ताः ला!
अथ हान्ताः शब्दाः। ४ दलेऽपि बह ५ निर्बन्धोपरागार्कादयो ग्रहाः ।। २३६ ।। ६ द्वार्यापीडे क्वाथरसे नियूँ हो नागन्तके । ७ तुनासूत्रेऽश्वादिरश्मौ प्रपाहः प्रग्रहोऽपि च ।। २३७ ॥ ८ पत्नीपरिजनादानमूलशापाः परिग्रहाः। ९दारेषु च गृहा:-- 1 'कनीयान्' (= कनीयस् त्रि) के बहुत युवा, बहुत छाटा, २ अर्थ हैं । २ 'घरीयान्' ( = वसीयस त्रि) के बहुत बड़ा, बहुत श्रेष्ठ, १ अर्थ हैं ।
३ 'साधीयान्' ( = साधीयस त्रि) क बहुत साधु (अच्छा), बहुत ज्यादा, २ अर्थ हैं॥
इते सान्ताः शब्दाः।
अथ हान्ताः शब्दाः। ४ 'बहम्' (न पु) के पत्ता, मोरका पंख, १ अर्थ हैं।
५ 'ग्रह' (पु) के ग्रहण करना, सूर्य चन्द्र ग्रहण, सूर्य मादि ग्रह (पूर्य,चन्द्र, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु ये नव 'ग्रह" हैं), ३ अर्थ हैं ।
६ '
नियूँइ.' (पु) के द्वार, शिखा या चोटीमें बांधनेको माला, काका रस, खूटी, ४ अर्थ हैं।
'प्रग्रहः, प्रवाह' (२ पु) के तनी ( तराजू के खण्डोकी रस्तो), घोड़े आदिका वागडोर या लगाम, १ अर्थ हैं ॥
८'परिग्रह' (पु) के परनी (स्त्री), परिजन, लेना, वृक्षादिको जह, शाप या शपथ, राहुप्रस्त सूर्य, ६ अर्थ हैं।
९ 'गृहाः' (नि० पु. ५० ५० ) का स्रो, । अर्थ और 'गृहम्' (न) का घर, " अर्थ है ॥ १. तदुरूम्-'सूर्यश्चन्द्रो मङ्गलच बुधश्चापि बृरस्पतिः।
शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति नव ग्रहाः ॥ १॥ इति वाचस्स.पू. २७४५.
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५०६ अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे-१ श्रोण्यामप्यारोहो वरस्त्रियाः॥ २३८ ॥ २ व्यूहो वृन्देऽप्य३हित्रेऽप्यनीन्द्रस्तिमोपहाः। ५ परिच्छदे नृपाहेऽथे परिवहः
इति हान्ता: शब्दाः ।
अथाव्यया: शा।
___-६ अव्ययाः परे ॥ २३९ ॥ ७ आङीषदथेऽभियातो सीमार्थ धातुयोगजे । ८ आ गृह्यः स्मृतौ वाक्येऽ९प्यास्तु स्यात्कोपपीडयोः।। २४०॥
, 'आरोहः' (5) के स्वकी कमर या चूतड़, पहाड़ आदिपर चढ़ना, पेड़ बादिकी ऊँचाई, ३ अर्थ है ॥
२ 'न्यूहः' (पु) के समूह, सेनाको स्थिति विशेष, तर्क, बनावट (रचना), ४ अर्थ हैं ॥
३ 'अहिः ' (पु) के वृन्नासुर, साँर, १ अर्थ हैं। ४ 'तमोपह.' (पु) के अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, जिन, ४ अर्थ हैं। ५ 'परिहः' (पु) सामग्री, राजाका छत्र चामर आदि रित, धन,मर्थ हैं।
इति हान्ता शब्दाः।
अधाव्ययाः शब्दाः। - ६ यहांसे आगे नानार्थवर्गके अन्ततक सब शब्द मव्यय हैं ।
७ 'आङ्' के थोड़ा, अभिव्याप्ति (व्याप्तकर ), सीमा (हद्द), धातुयोगसे उत्पन्न अर्थ, ४ अर्थ हैं। (क्रमशः उदाहरण- आपिङ्गलः, २ आस्व. गत , ३ आसमुद्रं सितीशानाम् (रघु. १५), ४ आक्रामति,..")॥
८ 'आ' ( इसकी प्रगृह्यसंज्ञा' होती है) के स्मरण, वाक्य, २ अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०-१ मा एवं नु मन्यसे, २ मा एवं किल तत ,.........)॥
. 'आ' के कोप, पीडा, १ अर्थ हैं। (क्रमशः उदाहरण-१मा पाप! एषम् मधुनापि प्रजवपसि, २ माः शीतम् ,...........")।
१. निपात एकाजनार (पा० सू० १११११४) इति सूत्रेणामिन्नस्य मा' इत्यस्यैव प्रगृह्य संक्षा विधीयते । सत्यां च तस्यां वक्ष्यमाणटीकोकोदाहरणदये 'वृद्धिरेचि' (पा.सू० ६.१८८) इति सूत्रेण पद्धिर्न भवति, किन्तु 'प्लुतप्रगृणा अचि नित्यम् (पा० स० ६।१।१९५) इति प्रतिमाव एवेति प्रगृमसंक्षाफलमित्यवधेयम् ॥
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५०७
मानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
५०७ १ पापकुत्लेषदथें कु २ धिङ् निर्भर्सननिन्दयोः। ३ चान्वाचयसमाहारेतरेतरसमुच्चये
॥२४१॥ ५ स्वस्त्याशीः क्षेमपुण्यादौ ५ प्रकर्षे लसनेऽप्यति । ६ स्वित्प्रश्ने च वितके च ७ तु स्याद्भेदेऽवधारणे ॥ २५२ ॥ । 'कु' के पाप, कुरसा (निन्दा), थोड़ा, ३ अर्थ हैं । ('क्रमशः उदा०कुकृत्यम् , कुकर्म, २ कुमार्योऽयम , ३ कोष्णम् .........' )॥
२"धिक के सराना निन्दा, २ अर्थ हैं । ( क्रमशः उदा०-१धिक स्वा शाल नाहं विस्मृतार्थम् , विक तार्किकान् , ३ घिग वारवधूगामिनं स्वाम ,........)
३ 'च' के भन्वाचय (जहां दो कामों में से एक काम प्रधान हो वह ), समाहार (समूह) इतरेतरयोग ( एकाधिकका आपस में मिल जाना), समु. चय ( परस्पर निरपेक्ष किलाओंका आपसमें अन्वय होना), विनियोग, तुल्ययोगिता, कारण, • अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ भिक्षामट गावानय, २ पाणी च पादौ च पाणिपादम् , संज्ञा च परिभाषा च संज्ञापरिभाषम् , ३ धवश्व खदिर धवखदिशै हरिश हरश्च हरिहरौ, " ईश्वरं च गुरुं च भजस्व, पठति पचति च मैत्रः, ५ अहं च स्वं च वृत्रहनसंयुज्याव सनिभ्य भा (निरु० ११४ ), ६ ध्यातश्योपस्थित, . प्रामश्च गन्तव्यः भातपश्च अर्थात् भातपास्कथं ग्रामो गम्यते,............ ॥
४ 'स्वस्ति' के आशीर्वाद, कल्याण, पुण्य, मङ्गल, ४ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ स्वति भवद्या, २ स्वस्ति प्रजाभ्यः, स्वस्ति गच्छ, ३ स्वस्तिमान स्वर्गमानोति, स्वस्ति काममिदंतव, ४ स्वस्ति श्रीकुसुमपुरात-(मुद्रा०),..." ॥
५ 'अति' के प्रकर्ष (अतिशय), लखन, १ अर्थ हैं । (क्रमशः उदा०. अत्युत्तमं भोजनम् , २ मर्यादामतिकामसि दुष्टः,........")॥
'स्वित्' के प्रस्त, विसर्क, १ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ कि स्विन्मङ्गलमस्ति तावकगृहे, अधः विदासी परिस्बिहालीत ,....." ) ॥
'तु के भेद (कमी वेशी); निभय, २ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-. चीरान्मांसं तु पुष्टिकत, भीमस्तु पाण्डवानां रौद्रा, भोजनं तु रुधिप्रियम् ........... |
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०८५ अमरकोषः।
[तृतीय काण्डेलकृत् सहैकवारे चाप्यारराद्-दूरसमीपयोः। ३ प्रतीच्यां चरमे पश्चारदुताप्यर्थविकल्पयोः ॥२४३ ॥ ४ पुनः सहार्थयोः शश्वत् ६ साक्षात्प्रत्यक्षतुल्ययोः। ७ खेदानुकम्पासतोषविस्मयामन्प्रणे 'बत २४४ ।।
CAN
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-
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' 'सकृत्' के साथ, एक बार सर्वदा, ३ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०१ 'सकृद्गच्छन्ति बालकाः' सह गच्छन्तीरथर्थः, २ सकृदध्ययनाद्विस्मयते पाठः, ३ 'सकृयुवानो गीर्वाणा' देवाः सदा युवानो भवन्तीत्यर्थः,.....")॥
२ 'आराद' के दूर, समीप, २ अर्थ हैं। (मशः उदा०-१ भाराद् दुर्जनसंसर्गस्त्याज्यः श्रेयोऽभिलाषुक, १ सखायं स्थापयेदारात्' समोपे स्थापयेदित्यर्थः. ... ....)॥
३ पश्चात् के पश्चिम दिशा, अन्तिम, २ अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०. पवादस्त मितो रविः, पश्चादस्तादिः' पत्रिम इत्यर्थः, पश्चाद्गच्छति....' ) ॥
४ 'उत' के समुच्चय, प्रश्न, विकल्प, वितर्क, ४ अर्थ हैं । ('क्रमशः उदा०-१ उत भीम उतार्जुनः, २ उत दण्डः पतिष्यति, ३ उत पर्वतं भिन्धात् , उत त्रुटयेद्वज्रः, ४ स्थाणुरुत पुरुषः,..."")॥
५ 'शश्वत्' के बारम्बार, साथ, निस्प (सदा), ३ अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०-१ 'शश्वद्गच्छति' भनेकवारं गच्छतीत्यर्थः, १ शव अते, ३ शाश्वतं वैरम् ,.......")॥
'साक्षात्' के प्रत्यक्ष (सामने), तुल्य, १ अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०- साक्षास्पश्यति परमात्मानं योगीश्वरः, २'इयं साक्षालयमोः' लघमीतु. येत्यर्थः,......")॥ ___ ७ 'बत' (+वत ) के खेद, अनुकम्पा (दया), सन्तोष, विस्मय, भामन्त्रण, ५ अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०-1 महोबत महदुखम् , १ बत निःस्वोऽसि स्वम् , ३ बत पतिरालिनिवा, बत प्राप्ता सीता, अहो बतासि स्पृहणीषवीर्यः (कु० सं० ३।२०), अहो बतायं ध्रुव भाप देशम , पत वितरत तोयं तोयवाहा नितान्तरम् , एहि व सौम्य,......").
१. 'वत' इति पाठान्तरम् ॥
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५०
मानायव
मणिप्रभाज्यास्यासहितः। १ हन्त हर्षेऽनुकम्पाय वाक्यारम्मविषादयोः । ६ प्रति प्रतिनिधी बीमसालक्षणादी प्रयोगतः ।। २४५॥ ३ प्रति हेतुप्रकरणप्रकाशादिसमाप्तिषु । ५ प्राच्या पुरस्तात् प्रथमे पुरार्थेऽप्रत इत्यपि ।। २४६ ॥ ५ गावा- साकस्येवरी मानेऽवधारणे।
'हन्त' के हर्ष, दया, वाक्यारम्भ, विषाद, ४ अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०-१ हन्त जीवामो वयम् , २ हन्त दीनो रमणीयः, ३ हन्त ते कथयि. ज्यामि (गीता १०।१९), ७ हन्त आतमजातारेः प्रथमेन स्वयारिणा (शिशु० वध २।१०९),.......")॥ ___२ 'प्रति' प्रतिनिधि, वीसा (न्यात करने की इच्छा), लक्षण, 'आदि' से-इत्थंभूताख्यान, भाग, प्रतिदान, ६ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०, अभिमन्युरर्जुनं प्रति, अभिमन्यु प्रति परीचित् , २ तीर्थ तीर्थ प्रति याति, वृक्षं वृहं प्रति विद्योतते विधुव, ३ वृक्ष प्रति विद्योतते विद्युत् , १ साधु देवदत्तो मातरं प्रति, ५ यदन मां प्रति सोऽनो दीयताम् , ' माषानस्मै तिलेश्वः प्रति प्रयच्छति,.....").
३ 'इति' के हेतु, प्रकरण, प्रकाश (+प्रकर्ष), 'आदि' से-इस तरह, समाधि, विवक्षा, नियम, स्वरूप, • अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ इन्तीति पलायते, २ गौरवो हस्तीति नातिः, ३ 'इति पाणिनिः' पाणिनिर्लोके प्रकाशित इत्यर्थः, ४ क्रमादमुं नारद इत्यबोषिसः (शिशु वध १॥३), ५ धर्ममाचरेदिति,. अभइति (पा. सू० ॥४॥६८), स्वास्स्यस्मिमिति मतुप (पा० स० ५।२।९४), ७ वृद्धिरित्येव या सा वृदिः ,....')॥
४ 'पुरस्ताद' के पूर्व दिशा, पहले (प्रथम), बीता हुआ (भूतकाल ), पहले (आगे), ४ अर्ध हैं। ('कमशः उदा०-१ पुरस्ताद् द्वारम् पूर्वस्या दिशीत्यर्थः, २ पुरस्ताद्भुके प्रथम मुल्क इत्यर्थः, ३ पुरस्ताद्रामोऽभूत् , ४. पित्रोः पुरस्तात् क्रीमति शिया,"....").
५ 'यावत् , ताप' के साकस्स (जितना, सतना), अवधि (१६),. प्रमाण, अवधारण (नियम), बर्षहै।('दोनों क्रमशः उदा०- मम
१. 'खप्रकरणप्रकादिसमाक्षिमिरर
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अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे१ मजलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्म्यवथो अथ ।। २७॥ २ वृथा निरर्थकाविष्यो३ नाऽनेकोभयार्थयोः ।
४नु पृच्छायां विकल्पे च ५ पश्चात्सादृश्ययोरनु ॥ २५८ ।। यावरकार्यमस्ति तावस्कुरु, यावदध्यापितं तावत्पठितम् . २ यावद्गन्ता तावत्तिष्ठ, ३ यावरसुवर्ण तावद्रजतम् , यावद्दत्तं तावद्भुतम् , ४ यावदमत्रं ब्राह्य मानामामन्त्रयस्व,......
'अथो, अथ' के' मङ्गल, अनन्तर (बाद), आरम्भ, प्रश्न, कार्य, अधिकार, प्रतिज्ञा, अन्वादेश ( एक बार कहे हुएको फिर कहना ), समुच्चय, ९ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ अथ परस्मैपदानि, अथातो ब्रह्मजिज्ञासा (७० सू० १।१।११), १ स्नानं कृत्वाऽथ भुजोत, ३ अथ शब्दानुशासनम् पात. भा. १।१ आह्नि १ पस्प०), ४ अथ वक्तुं समर्थस्स्वम् , ५ अथ क्रतून् ब्रमः, ६ अथ स्नानविधिः, ७ गोडो भवानथेति ब्रमः, ८ अथो इमं वेदमध्यापय अथो एनं छन्दोऽपि, ९ अथो खत्वाः , भोमोऽथार्जुन:, ......)
२'वृथा' के अर्थ (निष्फल ), अविधि (विधिसे हीन), २ अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०-१ वृथा दुग्धोऽनड़वान् , २ प्रतिभाव्यं वृथा दान माक्षिक सौरिकं च यत् ( मनुः ८॥५९),.....)
३ 'नाना' के अनेक (बहुत), उभय, विना, ६ अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०-१ नानाविधाः पुरुषाः, २ मानाविधं न सज्जेत, नानापवावमर्शः संशयः, ३ 'नाना नारीनिष्फला लोकयात्रा'नारीविना लोकयात्रा निष्फला भवतीत्यर्थः,...)
४'नु' के प्रश्न, विकल्प, वितर्क, ३ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ को नु धावति, को नु भवान् , २ भीमो नु फागुनो नु योद्धा, देवदत्तो नु यज्ञदत्तो नु पण्डितः, ३ स्थाणुर्नु पुरुषो नु, अहिर्नु रज्जुर्नु,....... )।
५ 'अनु' के पश्चात् (बाद), सादृश्य (समानता), लक्षण, तत्वाख्यान, भाग, वीप्सा, लम्बाई, ७ अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०-१राममनुगच्छति लक्ष्मणः, २पितरमनुकरोति बाला, ३ वृक्षमनुद्योतते, ४ साधु देवदत्तो मातरमनु, ५ यत्र मामनुस्यात्तद्दीयताम् , ६ वृत्तं वृक्षमनुसिनति, अनुगङ्गं काशी,......) १. ओंकारश्वापदश्च दावेतौ ब्रह्मणः पुरा। कण्ठंमिरवा विनियंती बस्मानमालिकावुमो१॥
इत्यभियुक्तोकस्या 'अथ' शब्दस्य मानसिकता।
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मानार्थवर्गः ३]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
५११
१ प्रश्नावधारणानुज्ञाऽनुनयामन्त्रणे ननु । २ गहौंसमुच्चयप्रश्नशङ्कासम्भावनास्वपि ॥२४९ ॥ ३ उपमायां विकल्पे वा ४ सामि त्वधे जुगुप्सिते । ५ अमा सह समीपे च ६ कं वारिणि च मूर्धनि ॥ २५० ॥
'ननु के प्रश्न, अवधारण, अनुज्ञा (आज्ञा ), आमन्त्रण, वाक्यारम्भ, नाक्षेप प्रत्युक्ति ( प्रत्युत्तर, जबाध), ७ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ ननु
ठति छात्रः, २ नम्वद्य गच्छामो वयम् , ३ नन्दादिश, ४ ननु चण्डि प्रसीद में, २ नन्वपोह: प्रसूयते, ६ ननु किमर्थमागतस्त्वम् , अकार्षीः गृहकार्य ? ननु करोमि भोः, पठसि पुस्तकम् ? ननु पठामि भोः,....) ॥
२ 'अपि' के निन्दा, समूह ( भी ), प्रश्न, शङ्का, संभावना, इष्टपरन, आक्षेर, युक्त पदार्थ ( वस्तु), ८ अर्थ हैं । ( 'कप्रशः उदा०-१ अपि सिक्स्पलाण्दुम, १ स्त्रियं पालय पुत्रमपि, रामो वनं यानि लक्ष्मणोऽपि, ३ अपि, गच्छसि गृहम?, अपि जानामि किंचितम् ?, ४ अपि प्रसादेद्रष्टो नृपतिः अपि चौरोऽयम् ५ पर्वतमपि शिरसा भिन्द्य त् , ६ 'अपि कियार्थ सुलभं समित्कुशं जलाया। स्नानविधिक्षमाणि ते । मापि स्वशःया तपसे प्रवर्तसे-(कु० सं० ५।११), ० अपि गृहं यां चेदम् , ८सरिषोऽपि स्यात् ,...... )॥
'वा' के उपमा, विकार, समूह, ३ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०१ भीमोऽन्तको वा समरे गदापागिरहश्यत, सर्पो वा क्रुद्धः सर्प इव क्रुद्धः' इत्यर्थः, २ यवैवाहिभिर्वा यजेत, ३ 'सा वा शम्भोस्तदाया वा मूर्तिजलमयो मम कु० सं० २।६०) म तृनायामूर्ति रित्यर्थः, वायुथ मेहाय दहनो वा,...').
४ 'सामि' के आधा निन्दित, १ अर्थ है। ('क्रमशः उदा०- सामि संमोलिताक्षी, २ सामि कृतमकृतं स्यात् , सामिकृतमकल्याणकारि,...")।
५'अमा' के साथ, पास, . अर्थ हैं। (क्रमशः उदा०-, 'वेगामा भुङ्क्ते' सहेत्यर्थः, २ अमा भावोऽमास्य:,.....")॥
'कम् के पानी, शिर (मस्तक), मुख, ३ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०.क कमलम् , २ का देशा, ६ कुंयु,.....")।
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१२
अमरकोषः ।
२ नूनं तर्केऽर्थनिश्चये ।
★
१ इवेत्थमर्थयोरेवं ३ तृष्णीमर्थं सुखे जोषं किं पृच्छायां जुगुप्सते ॥ २५९ ॥ ५ नाम प्राकार संभाव्यकोधापगमकुत्सने । ६ अलं भूषण पर्याप्तिशक्तिवारणवाचकम् ।। २५२ ।।
[ तृतीय काण्डे
''पवम्' के इवार्थ ( सहरा ), इस तरह, उपदेशादि, निर्देश, निश्चय, स्वीकार, ६ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ अग्निरेवं द्विजोऽग्निरिवेत्यर्थः, २ एवं पादिनि देवषों ( कु० सं० ६।८४ ), ३ एवमन्य ४ एवं तावत् ५ एवमेतत्, 4 एवं कुर्मः, ) ॥
२ 'नूनम्' के तर्क, अर्थका निश्रय, २ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा० - १ नूनं शरत्फुल्ला हि काशाः, नूनमयतियज्वनां प्रियः, २ क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने, नूनं हन्तास्मि रावणम्, ')
३ 'जोषम् ' के मौन (चुप रहना), सुख, १ अर्थ हैं । ( क्रमशः उदा०'जोषमास्व' मौनमास्वेत्यर्थः, २ जोषमास्ते जितेन्द्रियः, जोषमासीत
वर्षासु .......) ॥
' 'किम्' के प्रश्न, निन्दा, २ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ किंकरोषि ?, किं गतोऽसौ ?, २ स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं हिताच्च यः संश्रृणुते स किंप्रभुः ( किरा० १ । ५ ), .....' ) ॥
५ 'नाम' (= नामन् ), के प्राकाश्य ( प्रकट, नाम, संज्ञा ), संभावना के योग्य, क्रोध, द्वेषपूर्वक स्वीकार करना, निन्दा, झूठा, विस्मय, ७ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ हिमालयो नाम नगाधिराजः ( कु० सं० ), ३ कथं भविष्यति संगरो नाम, ३ ममापि नाम रावणस्य नरवानरै मृत्युः, ५ शत्रोः सकाशाद् गृह्णाति नाम, एवमस्तु नाम, ५ को नामायं प्रलपति मे विशतः सभाबाम को नामायं सवितुरुदयः, ६ दष्टेऽधरे रोदिति नाम तन्वी, ७ अन्धो नाम गिरिमारोहति,
,
'' ॥
"
६ 'अलम्' के भूषण, पर्याप्त ( काफी ), शक्ति, वारण ( मना करना ), व्यर्थ, ५ अर्थ है । ( 'क्रमशः उदा०-१ अलङ्कृतां कन्यां प्रयच्छेत् २ 'अलमस्थस्य धनं' बह्नित्यर्थः, ३ अलं हरिः' समर्थ इत्यर्थः, अलं महो महाय * भक्रमविप्रसङ्गेन, अहं महीपाल तव श्रमेण - ( रघु० २।१४ ).) W
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VAAAAAVA
माम् ,.......)
नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ हुँ क्ति के परिप्रश्ने २ समयाऽन्तिकमध्ययोः । ३ पुनरप्रथमे भेदे ४ निनिश्चयनिषेधयोः ॥ २५३ ।। ५ स्यात्प्रबन्धे त्रिरातीते निकटागामिके पुरा। ६ कर!ी चोररी च विस्तारेऽङ्गीकृती त्रयम् ।। २५४॥ ७ स्वर्गे परेच लोके म्वः
१ 'हुम्' के वितर्क, प्रश्न, भय, भर्त्सन ( डराना), अनिच्छा, ५ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ हुं पयो हुं मृगतृष्णा, चैत्रो हुं मैत्रो हुम् , २ हुं देवदत्तोऽयम् हुँ तस्य त्वं सुहृत् , ३ हूं राक्षसोऽयम् , ४ हुँ निर्लजः, ५ हुं हुं मुञ्च ___ २ 'समया' के समीप, बीच, २ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ राम समयाऽस्ते लक्ष्मण, समया ग्रामं नदी, २ 'ग्रामं समयाऽस्ते' ग्राममध्य इत्यर्थः, 'समया शैलयोमः' शैलयोर्मध्य इत्यर्थः, .......)॥
३ 'पुनः' ( = पुनर् ) के फिर, भेद (विशेष), २ अर्थ हैं । ('क्रमशः उदा०-१ पुनरागतः, २ किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा (गीता ९।३३), ...........)
४ 'निः' ( = निर् ) के निश्चय, निषेध, २ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०१ निष्पन्न कार्यम् , निरुक्तम् , २ निर्धनो वणिक, निर्मर्यादा,......" ) ॥
५ 'पुरा' के प्रबन्ध, बहुत दिन पहले, आनेवाला (आगामी) निकट समय, ३ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा०-१ 'पुराधीयते' निरन्तरमपाठीदित्यर्थः, २ पुरापि न नव पुराणम् , पुरातनम् , ३ 'गच्छ पुरा देवो वर्षति" समनन्तरं वर्षियतीत्यर्थः,.........")॥
६ 'ऊररी. ऊरी उररी' ३ के विस्तार, स्वीकार, २ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०- १ 'ऊररीत्य, उरीकृस्य, उररीकृत्य वा पटं' विस्तार्यत्यर्थः, २ 'ऊररी कृत्य ऊरीकृत्य उररीकृत्य वाऽज्ञां गच्छति' स्वीकृत्य गच्छीत्यर्थः,......')॥
७ 'स्व.' ( - स्वर् ) के स्वर्ग, परलोक, २ अर्थ हैं । ('क्रमशः उदा०स्वलॊकलोकतरदुर्लभानि, स्वभोगमत्रापि सृजन्त्यमाः , स्वर्णदीस्वर्गपद्मिन्याः(नैप० च० क्रमश; ३।६६, ३१२१, २०३९), २ स्वर्गतस्य जनस्य पारलौकिकं कुर्यात् , स्वर्गतस्य क्रिया कार्या पुत्रैः परमभक्तितः,... ...... )।
१. अत्र 'यावत्पुरानिपातयोलेट (पा० स० ३।३।४ ) इस्यनेन लट्लकारः ॥
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अमरकोषः ।
-९ वार्ता संभाव्ययोः किल । २ निषेधव क्यालङ्कारजितासाऽनुनये बलु ॥ २५५ ॥ ३ समोपोभयतः शीघ्रसाकल्याभिनुखेऽभितः । ४ नामप्राकाश्ययोः प्रादुपर्मिथोऽन्योन्यं रहस्यपि ॥ २५६ ॥
५१४
१ 'किल' के वार्ता, सम्भावनाके योग्य, हेतु, झूडा ( असत्य ), अरुचि, अर्थ हैं ( 'क्रमशः उदा० - १ जघान कंसं किल वासुदेवः २ अर्जुनः किल विजेष्यते कुरून्, ३ स किल कविरेव युक्तवान् ४ गोत्रस्वलितं किलाश्रुतं कृत्वा, ५ त्वं किल योत्स्यसे, ' ) ॥
>
,
२ 'खलु' के निषेध, वाक्यालङ्कार, जिज्ञासः ( जानने की इच्छा ), अनुनय ४ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ खलु रुदित्वा खलु कृत्वा, २ एतब्बल्वाहुः, ३ सखल्वधीते शब्दशास्त्रम्, ४ न खलु न खलु मुग्धे साहसं कार्यमेतत् (नागा०
ना० २११०
} ॥
[ तृतीयकाण्डे -
>);
३ 'अभितः' ( अभितस्) के समीप दोनों तरफ, शीघ्र, साकल्य, सामने, ५ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ वाराणसीमभितो गङ्गा, अभितो ग्रामं वसति' समीप इत्यर्थः, २ अभितः कुरु चामरौ, ३ अभितः पठ, अभितो गच्छ' शीघ्रमित्यर्थ, ४ 'व्याप्नोत्यभितो रजः सर्वत इत्यर्थः, ५ आपतन्तमभितोऽरिमपश्यत् )। ४ 'प्रादु:' ( = प्रादुस) के नाम, प्रकट, २ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा०६ विष्णोदेश' प्रादुर्भावाः दश नामानीत्यर्थः २ प्रादुरासीद् बुद्धिर्वादिनः, '')। ५ 'मिथः' ( = मिथस् ) के अन्योन्य ( परस्पर, आपस ), एकान्त, २ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ मिथः प्रहारं कुर्वतः, वसिष्ठकौण्डिन्य मैत्रावरुणानां मिथो न विवाहः, २ मिथो मन्त्रयते. '
1
..' ) ॥
.."
१. पुराणसमुच्चये दशावतारा उक्ताः
'मरस्याभूद्भुतभुग्दिने मधुसित कुर्मो विधौ माधवे वाराही गिरिजासुते नभसि यद् भूते सिते माधवे । सिंहो भाद्रपदे सिते हरितियों श्रीवामनो माधवे रामो गौरितियावतः परमभूदामी नवन्यां मधोः ॥ १ ॥ कृष्णोऽभ्यां नमसि सिततरे चाश्विने यद्दशम्यां बुद्धः कल्की नभसि समभूपष्ठयां क्रमेण । अहो मध्ये वामनो रामरामो मत्स्यः क्रीडचापराहे विभागे । कूर्मः सिंहो बौद्धकल्की च सायं कृष्णो रात्री कालसम्ये च पूर्वे ॥ २ ॥
इति नि० सिन्धु० पु० ६२ परि० २ ।
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नानार्थवर्ग: ३ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ तिरोऽन्तर्धौ तिर्यगर्थे २ हा विषादशुगतिंषु ।
३ अत्यद्भुते खेदे ४ हि देतावत्रधारणे ॥ २५७ ॥
इत्यव्ययाः शब्दाः । इति नानार्थवर्गः ॥ ३॥
१ तिरः' ( = तिरस् ) के अन्तर्धान ( छिपना ), तिर्छा, २ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ इति व्याहृत्य विबुधान्विश्वयोतिस्तरोदधे ( कु० सं० २। ६२ ), २ तिरोवर्तते भास्करः, ' ) ॥
२ 'हा' के विषाद, शोक, दुःख, ३ अर्थ हैं । ('क्रमशः उदा० --- ---१ हा गतो रमणीयः कालः, २ हा वनं गतो रामचन्द्रः, ३ हा हतोऽस्मि मन्दभाग्यः, १) ॥ ३ ' अहद्द' ( + अहहा ) के अद्भुत, खेद, २ अर्थ हैं । (क्रमशः उदा० - १ अहह बुद्धिप्रकर्षो नृपालस्य, २ अहह नीतो मया व्यसनेनामूल्यः, कालः, अहह हता विधवा बाला,
) ॥
9
४ 'हिं' के हेतु, अवधारण ( निश्चय ), २ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा०१ अग्निरत्रास्ति धूमो हि दृश्यते, २ चन्द्रो हि शीतलः, ) ॥
५१५
विशेषः - 'नानार्थ अव्यय' शब्दों के अव्ययमात्र होनेसे अन्य प्रकरणों के समान ('अच्य ० ' ) इस तरह प्रत्येक शब्द के बाद नहीं लिखा गया है, अतः ३।३।२४० से ३/३/२५७ तक के प्रत्येक शब्दोंको 'अध्यय' समझना चाहिए ॥ इस 'नानार्थवर्ग' में ग्रन्थकारके अतिरिक्त 'अनेकार्थसंग्रह, मेदिनीकोष, विश्वकोष, अभिधानत्नमाला, कोषग्रन्थों में लिखित अतिप्रसिद्ध अर्थ तथा ग्रन्थकार के लिखित 'च, तु, अपि, ......7 शब्दसे संगृहीत- टीकाकारों के सम्मत बाहरी अर्ध भो लिखे गये हैं । कहीं-कहीं आवश्यकीय स्थलों में उदाहरण आदि भी दिये गये हैं। टीका बढ़ने के भने उन्हें पृथकू लिखना या सर्वथा त्याग करना अनुचित-सा प्रतीत होनेसे एकत्र ही किंवा वया है । यद्यपि पूर्वोक्त अव्यय शब्द भी 'कान्त, खान्त, गान्त आदि से हो कहे गये हैं तथापि इन नानार्थ अध्यय शब्दको 'कान्त अव्यय शब्द, वान्त अव्यय शब्द, टोकावृद्धि के भय से नहीं कहा गया है। पाठकगण स्वयं कान्त, खान्त, गन्त, अव्ययों को समझ लें ||
...
.... "
इत्यव्ययाः शब्दाः । इति नानार्थवर्गः ॥ ३ ॥
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अमरकोषः ।
४. अथाव्ययवर्गः । चिररात्राय चिरस्याद्याश्चिरार्थकाः ।
४
१ चिराय ५ मुहुः पुनः पुनः शश्वदभीक्ष्णम सकृत्समाः ॥ १ ॥ ३ नाग्झटित्यञ्जसाऽऽहाय द्राङ् मङक्षु सपदि द्रुते । बलवत्सुष्ठु किमुत स्वत्यतीव च निर्भरे ॥ २ ॥ ५ पृथग्विनान्तरेणते हिरुङ् नाना च वर्जने । ६ यत्तद्यतस्ततो हेताब ७ साकल्ये तु ८ कदाचिजातु ६ सार्धं तु साकं सभा १० आनुकूल्या र्थकं प्राध्वं ११ व्यर्थके तु ४. अथाव्ययवर्गः ।
चिश्चन ॥ ३ ॥
५१६
१ चिराय, चिररात्राय, चिरस्य, ( + आद्य शब्दसे- चिरेण, चिरात्, चिरम्, चिरे ) ३ का 'देर' अर्थ है '
[ तृतीयकाण्डे -
समं सह । वृथा मुधा ॥
२ भुहुः ( = मुहुस् ) पुनः पुनः ( = पुनः पुनर् ) शश्वत् अभीचणम्, असकृत् ५ का 'बारबार' अर्थ है ॥
,
३ स्राक्, झटिति, अञ्जसा, अह्वाय, द्राक्, मङ, सपदि ७ के 'झटपट ' 'उसी समय' अर्थ है ॥
४ बलवत्, सुष्ठु, किमुत, सु, अति, अतीव, ६ का 'अतिशय' अर्थ है ॥ ५ पृथक्, विना, अन्तरेण, ऋते, हिरुक्, नाना, ६ का 'वर्जन' (विना ) अर्थ है ॥
१० प्राध्वम्, १ का 'अनुकलता' अर्थ है ॥
११ वृथा, सुधा, २ का 'व्यर्थ' अर्थ है ।।
,
६ यत्, तत्, यतः ( = यतस् ) ततः ( ततस् + येन तेन ), ४ का 'कारण' अर्थ है ||
७ चित् चन, २ का 'असाकल्य' ( असम्पूर्णता ) अर्थ है ॥
८ कदाचित् जातु, २ का 'कभी' अर्थ है |
९ सार्धम्, साकम्, सना, समम्, सह ( + सजूः = सजुषू ), ५ का 'साथ' अर्थ हैं ॥
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अव्ययवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ आहो उताहो किमुत विकल्पे किं किमूत च । २ तु हि च स्म ह वै पादपूरणे ३ पूजने स्वति ॥ ५॥ ४ दिवाऽहीत्य५थ दोषा च नक्तं च रजनावपि । ६ तिर्यगर्थे माचि तिरोऽप्य७५ सम्बोधनार्थकाः ॥ ६ ॥
स्युःभ्याट प्याडल हे है भोः८समया निकषा हिरुक। २ सलकिते तु सहसा स्थात् १० पुरः पुरतोऽग्रतः ॥ ७॥ ११ स्वाहा देवहर्थािने श्रौषट् वौषट् वषट् स्त्रधा। १२ किञ्चिदीपानायल्पे १३ त्याभुत्र भवान्तरे ॥ ८॥ १४ व वा यथा तदेवं साम्ये
3 आहो ( + अहो), उताहो, किमुत, किम् , किमु, उत, ५ का 'वितर्क करना,विकल्प' अर्थ है ॥ ____२ तु, हि, च, स्म, ह, व, ६ श्लोक के वरण को पूरा करने में' प्रयुक्त होते हैं ।
३ सु, अति, २ का 'पूजा बड़ाई' अर्थ है ॥ ४ दिवा, १ का दिन में अर्थ है । ५ दोषा, नक्तम् ( + उपा)२ का 'रात में' अर्थ है ॥ ६ साचि, तिरः ( = तिरस ) २ का 'तिर्छा' अर्थ है ॥
७ पाट , प्याट् , अङ्ग, हे, है, भोः ( = भोस् ), ६ का 'सम्बोधन' (पुकारना, बुलाना ) अर्थ है।
८ समया, निकषा, हिरुक् , ३ का 'समीप' अर्थ है ॥ ९ सहसा, १ का 'एकाएक' अर्थात् अतर्कित (विना विचार किये) अर्थ है ।।
१० पुरः (पुरस्) पुरतः ( = पुरतस्), अग्रतः ( = अग्रतस् ), ३ का 'मागे पहले' अर्थ है ॥
॥ स्वाहा, श्रौषट, वौषट, वषट्, स्वधा, ये ५ देवताओंको हविष्य देनेमें' प्रयुक्त होते हैं, (इनमें 'स्वधा' शब्द, 'पितरोको कव्य देने में प्रसिद्ध है)।
१२ किश्चित् , ईषत् , मनाक् , ३ का 'थोड़ा' अर्थ है ॥ १३ प्रेत्य, अमुत्र, २ का 'परलोक' अर्थ है ॥
१४ व ( + वत् ), वा, यथा, तथा, इव, एवम् , ६ का 'समानता' (बराबरी, उपमा, सादृश्य ) अर्थ है ॥
१. 'वढा' इति पाठान्तरम ।
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अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे
-~-१ अहो ही च विस्मये। २ मौने तु तूष्णी तूष्णीका ३ सद्यः सपदि तत्क्षणे ॥९॥ ४ दिष्टया समुपजोषं चेत्यानन्देऽथान्तरेऽन्तरा।
अन्तरेण च मध्ये स्युः ६ प्रसह्य तु हठार्थकम् ॥ १०॥ ७ युक्ते द्वे सांप्रतं स्थानेऽभीक्ष्णं शश्वदनारते । ९ अभावे मह्य नो नापि १० मास्म माऽलं च वारणे ॥ ११ ॥ ११ पक्षान्तरे चेद्यदि च१२तत्त्वे त्वद्धाऽअसा द्वयम् । १३ प्राकाश्ये प्रादुराविः स्या१५दोमेवं परमं मते॥ १२ ॥ १ अहो, ही, २ का 'आश्चर्य' अर्थ है ॥ २ तूष्णीम् , तूष्णीकाम् , २ का 'चुप, मौन' अर्थ है । ३ सद्यः (सद्यस्), सपदि, २ का इसी समय' (अभी) अर्थ है ॥
४ दिष्टया, समुपजोषम् (+ शम् , अपजोषम् , उपयोषम् ), २ का 'आनंद' अर्थ है॥
५ अन्तरे, अन्तरा, अन्तरेण, ३ का 'मध्य, बीज' अर्थ हैं । ६ प्रसह्य, १ का 'हट' (बलात्कारपूर्वक ) अर्थ है ॥ ७ सांप्रतम् , स्थाने, २ का 'यक, उचित' अर्थ है ॥ ८ अभीक्षणम् , शश्वत् , २ का 'निरन्तर, लगातार' अर्थ है। ९ नहि, 'अ, नो, न, ४ का 'नहीं' अर्थ है ॥ १० मास्म, मा, अलम् , ३ का 'वारण, मना करना अर्थ है ॥ १. चेत् , यदि, २ का 'पक्षान्तर' (यह वा वह, अथवा) अर्थ है ॥ १२ अद्धा, अअसा, २ का 'तत्त्व' (ठीक-ठीक विषय) अर्थ है ॥ १३ प्रादुः( = प्रादुस), आविः ( = आविस), २ का 'प्रकट' अर्थ है। १४ ओम , एवम् , परमम् , ३ का 'स्वीकार, अनुमिति' अर्थ है ॥
१. 'नओऽयमकारः' इति वदतो मानुजिदीक्षितस्योक्तिस्तु -- अशम्दः स्यादमावेऽपि स्वल्पार्थप्रतिषेधयोः। अनुकम्पायाश्च यथा-' ( मेदि० पृष्ठ० १९३ श्लो. १) पति मेदिनी बचनात , 'अ स्यादनावे स्वल्पार्थे विष्णावेष त्वमव्ययम्' ( अने० सं० परिशिष्टकाण्डे श्लो०१)ति हैमवचनात् , अ स्यादमावे स्वल्पार्थ-' इति विश्वाच्च चिन्त्या। अत एवं बी० स्वा० उक्तस्य विप्रवन्न अपे' इति विवरणात्मकस्य 'अविप्र इव माषसे' इति समस्त.
वाक्यस्थ सगतिरित्यवधेयम् ।।
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अव्ययवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।।
१ समन्ततस्तु परितः सर्वतो विश्वगित्यपि। २ 'कामानुमती काम३मस्योपगमेऽस्तु च ॥१३॥ ५ ननु च स्याद्विरोधोक्तौ ५ कश्चित्कामप्रवेदने । ६ निःषमं दुःषमं गहाँ ७ यथावं तु यथायथम् ॥ १४ ॥ ८ मृषा मिथ्या च वितथे ९ यथार्थ तु यथातथम् । १० स्युरेवं तु पुनर्वै वेन्यवधारणवाचकाः ॥ १५ ॥ ११ प्रागतीतार्थकं १२ नूनमवश्यं निश्चये व्यम् । १३ संचवर्षे१४ऽबरे त्व१ि५गामेवं १६स्वयमात्मना ॥१६॥
१ समन्ततः (= समन्ततस्), परितः (= परितस), सर्वतः (= सर्वतस), विश्वक, ४ का 'चारों (सब) तरफ अर्थ है ॥
२ कामम् , ' का विना इच्छासे स्वीकार ( अनुमति ) अर्थ है ॥ ३ अस्तु, १ का 'असूया-पूर्वक स्वीकार' अर्थ है ॥ ४ ननु च ( + नाम ), १ का विरोधोक्ति' अर्थ है । ५ कच्चित् , ' का 'इष्ट प्रश्न' अर्थ है ॥ ६ निःपमम् , दुःषमम् , २ का निन्दनीय' अर्थ है ॥ ७ यथास्वम् , यथायथम् , २ का 'यथायोग्य' अर्थ है ॥ ८ मृषा, मिथ्या, २ का 'असत्य' अर्थ है ॥ १ यथार्थम् , यथातथम् , २ का 'सत्य' अर्थ है ॥ १० एवम् , तु, पुनः ( = पुनर ), वै, वा, ५ का निश्चय' अर्थ है ॥ ११ प्राक् , १ का 'बीता हुआ, पहले समय में अर्थ है ॥ १२ नूनम् , अवश्यम् , २ का निश्चय (जरूर ) अर्थ है ॥ १३ संवत् , १ का 'वर्ष, साल' अर्थ है । १४ अर्वाक् , ' का 'पुराने समयके बाद' अर्थ है ॥ १५ आम् , एवम् , २ का 'हाँ' अर्थ है । १६ स्वयम् , १ का 'आपसे आप' अर्थ है॥
१. 'आकामानुमतौ' इति पाठान्तरम् ।
२. 'ननु च' निपातदयस्य समाहारद्वन्दः' इति मा० दी० ।
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अमरकोषः। [तृतीयकाण्डे१ अहरे नीचेश्महत्युच्चैः ३ प्रायो भून्यते शनैः । ५ सना नित्ये ६ बहिर्बाह्य ७ स्मातोतेऽस्तमदर्शने ॥१७॥ ९ अस्ति सत्त्वे १० 'रुषाक्तावु ११ ऊप्रश्ने१२नुनये त्वयि । १३ हुं तकें १४ म्यादुषा रात्रेवसाने १५ नमो नती ॥१८॥ १६ पुनार्थेऽग १७ मिन्दायां दुष्टु १८ सुष्टु प्रशंसने । १२ सायं लाये २० प्रगे प्रातः प्रभाते २१ निकषाऽन्तिके ॥१९॥ १ नीचैः (= नीचे ), १ का 'छोटा, धीरे-धीरे, नीचे' अर्थ है ॥ २ उच्चैः (%D उच्चैस्), १ का ऊंत्रा, अधिक, जल्दी-जल्दो' अर्थ है ॥ ३ प्रायः (= प्रायस), १ का 'बाहुल्य, अधिकतर' अर्थ है। ४ शनैः (= शनैस), १ का 'धीरे-धीरे अर्थ है ॥ ५ सना (+ सनत् , सनात् ), १ का 'नित्य' अर्थ है ॥ ६ बहिः (= बहिस), १ का 'बाहर' अर्थ है ॥ ७ स्म, १ का 'बीता हुआ' अर्थ है ॥ ८ अस्तम् , १ का 'अस्त' ( नहीं दिखाई देना) अर्थ है ॥ ९ अस्ति , १ का 'है' अर्थ है ॥ १० 3 ( + उम्), १ का क्रोधले कहना' अर्थ है ॥ ११ ऊं (= ऊज़ ) १ का 'पूछना' (+ क्रोधसे पूछना क्षी० स्वा०) अर्थ है। १२ अयि, १ का 'शान्त करना, स्ठे हुएको मनाना' अर्थ है । १३ हुम् (+ स्यात् 'जैसे-स्याद्वादिनो जैनाः'), ' का 'तर्क' अर्थ है। १४ उषा, १ का 'रात्रिका अन्त, सबेरा' अर्थ है । १५ नमः (= नमस ), १ का 'प्रणाम' अर्थ है । १६ अङ्ग, १ का 'फिर' अर्थ है ॥ १७ दुष्टु, १ का 'निन्दा' अर्थ है। १८ सुष्टु, १ का 'बड़ाई, प्रशंसा अर्थ है ॥ १९ सायम् , १ का 'सायंकाल, साँझ अर्थ है ॥ २० प्रगे, प्रातः (=प्रातर). २ का 'प्रातःकाल, सुबह' अर्थ है। २१निकषा, १ का 'समीप अर्थ है।
१. 'इषोकाई' इति पाठान्तरम् । २. 'त: स्यात्' इति पाठान्तरम् ।
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अव्ययवर्गः ४] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
५२१ १ परुत्परायैषमोऽन्दे पूर्वे पूर्वतरे यति । २ अद्यात्रायस्थ पूर्वेऽह्नीत्यादौ पूर्वोत्तरापरात् ।। २० ॥ ___ तथाधरान्यान्यतरेतरात्पूर्वेधुरादयः ४ उभयधुश्चोभयेयुः ५ परे त्वह्नि परेधवि ॥ २१ ॥ ३ यो गतेऽनागतेऽह्नि श्वः ८परश्वस्तु परेऽहनि । ९ तदा तदानी १० युगपदेकदा ११ सर्वदा सदा ।। २२।। १२ पतर्हि संप्रतीदानीमधुना सांप्रतं १३ तथा।
१ परुत् , परारि ऐषमः ( = ऐषमस), क्रमशः १ १ का 'परसाल, परियार साल, इस वर्ष १-१ अर्थ हैं ।
२ अद्य, १ का 'आज' अर्थ है ॥
३ पूर्वेद्यु; ( = पूर्वेद्युस), उत्तरेधुः ( = उत्तरेधुस), अपरेधुः ( = अपरेद्युस्), अधरेयुः ( = अधरेगुस्), अन्येद्युः ( = अन्येद्युस्), अन्यतरेयुः ( = अन्यतरेयुस) इतरेधुः (= इतरेयुस), क्रमशः १-१ का 'पूर्व'(पहले बीता हुआ) दिन, उत्तर (आगे आनेवाला) दिन, पर (आगामी) दिन, हीन (बीता हुआ) दिन, अन्य (दूसरे) किसी दिन, दो दिनों में से किसी एक दिन, इतर ( दूसरे) दिन' १-१ अर्थ है।
४ उभयद्युः ( = उभय द्युस), उभयेद्युः ( = उभयेद्युस), २ का 'दो दिन' अर्थ है ॥
५ परेचवि, १ का 'आनेवाला दिन' अर्थ है ॥ ६ यः ( = यस), १ का 'बीता हुआ कल' अर्थ है ॥ ७ श्वः ( = श्वस), १ का 'आनेवाला कल' अर्थ है ॥ ८ परश्वः (परश्वस), १ का 'आनेवाला परसों अर्थ है ॥ ९ तदा, तदानीम् , २ का 'तष' अर्थ है ॥ १० युगपत् (=युगपद् ।+ युगपत् ), एकदा, २ का 'एक समय' अर्थ है। ११ सर्वदा, सदा, २ का 'हमेशा, हर समय' अर्थ है ।
१२ एतर्हि, संप्रति, इदानीम् , अधुना, सांप्रतम् , ५ का 'इस समय' अर्थ है॥
१३ तथा, १ का 'समुच्चय (और) उस तरह २ अर्थ हैं ।
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अमरकोषः। [तृतीयकाण्डे१ दिग्देशकाले पूर्वादौ प्रागुदप्रत्यगादयः ।। २३ ।।
__ इत्यव्ययवर्गः ॥४॥
. ५. अथ लिङ्गादिसंग्रहवर्गः । २ सलिङ्गशास्त्रैः सन्नादिकृत्तद्धितसमासः।
'प्राक' के 'पूर्व दिशामें 3, पूर्व दिशासे २, पूर्व दिशा ३, पूर्व देशमें ४, पूर्व देशसे५, पूर्व देश ३, पूर्वकालमें ७, पूर्व कालसे ८, पूर्व काल ९, ये ९ अर्थ हैं। ('क्रमशः उदा०-१ 'प्राग्वसति'पूर्वस्यां दिशि वसतीत्यर्थः । २ 'प्रागागतः' पूर्वस्या दिश आगत इत्यर्थः । ३ 'प्रागस्ति' पूर्वा दिगस्तीत्यर्थः । ४ 'प्राग्वसति' पूर्वस्मिन्देशे वसतीत्यर्थः। ५ 'नागागतः' पूर्वस्माद्देशादागत इत्यर्थः । ६ 'प्राग्गतः पूर्वस्मिन्काले गत इत्यर्थः । ७ 'प्रागासीत्' पूर्वस्मिन्काल आसीदित्यर्थः। ८ 'प्राक् प्रचलितेयं प्रथास्ति' पूर्वस्मारकालादियं प्रथा प्रचलतीत्यर्थः । ९ 'प्राग्वर्तते' पूर्वकालो वर्तते इत्यर्थः' इसी तरह 'उदक' के उत्तर दिशामें ,......९ अर्थ, 'प्रत्यक' के पश्चिम दिशामें .....९ अर्थ, 'अवाक' के दक्षिण दिशा में......९ अर्थ होते हैं। उनके उदाहरण भी उसी तरह समझ लेना चाहिये ।)।
इत्यव्ययवर्गः ॥ ४ ॥
५. अथ लिङ्गादिसंग्रहवर्गः। २ पाणिनि आदि ऋषियोंके निर्मित लिङ्ग-विधान करनेवाले शास्त्रों अर्थात् सूत्रों ( 'जैसे- स्त्रियां क्तिन् (पा० सू० ३।३१९४), 'पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण (पा. सू० ३।३।११८) 'नपुंसके भावे क्तः' (पा० सू० ३।३।१४), 'अदन्तोत्तरपदो द्विगुः स्त्रियामिष्टः' (वार्ति०), ......") के सहित, सन् आदि (आदिले क्यच् ,...) कृत् , तद्धित और समाससे उत्पन्न प्रत्ययोंसे बननेवाले प्रायः पहले नहीं कहे हुए शब्दोंसे इसलिङ्गादिसंग्रहवर्ग' में संकीर्णवर्गके समान लिङ्गका तर्क करना चाहिये । ('क्रमशः उदा०-१ सन्' प्रत्यय से उत्पन्न शब्द जैसे-तितिक्षा, जुगुप्सा, पिपासा....", २ 'आदि' शब्दसे संगृहीत 'क्य'
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लिङ्गादिसंग्रहवर्गः ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
'अनुक्तैः संग्रहेलिङ्ग संकीर्णवदिहोन्नयेत् ॥१॥ १ लिनशेषविधिापी विशेषयद्यबाधितः ।
प्रत्ययसे उत्पन्न शब्द जैसे-पुत्रकाम्या,"। ३ 'कृत्' प्रत्ययसे उत्पन्न शब्द जैसे-श्वपाकः, कुम्भकारः, सरसिजम् ,..। ४ 'तद्धित' प्रत्ययसे उत्पन्न शब्द जैसे-औपगवः, चैयाकरणः, नैयायिकः, गार्ग्यः, वात्स्यः,"। ५ 'समास' प्रत्यय ( 'टच , अच् , अ...") से उत्पन्न शब्द जैसे-वायुसखोऽनलः, धर्मराजः, ब्रह्मवर्चसम् , अर्धर्चः,......")। 'संकीर्णवर्ग' के समान लिङ्ग समझना चाहिये अर्थात् 'संकीर्णवर्ग' में जिस तरह प्रकृति और प्रत्यय के अर्थ आदि (क्रियाविशेषण,...... ) से लिङ्गका तर्क किया गया है उसी तरह यहाँ भी तर्क करना चाहिये । (उदा०-१ प्रकृतिके अर्थसे जैसे-'अर्धर्चाः पुंसि च' (पा० सू० २।४।३१ ) इस सूत्रसे 'अर्धः , अर्धर्चम्' यहांपर 'अर्धर्च' शब्द पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग,........। २ प्रत्ययके अर्थसे जैसे-'स्त्रियां तिन्! (पा० सू० ३।३।९४) इस सूत्रसे 'कृतिः, संपत्तिः, विपत्तिः, भूतिः, ये शब्द स्त्रीलिङ्ग और ३ 'आदि' शब्दसे संगृहीत क्रिया-विशेषणसे जैसे-'साधु भवति, शोभनं पचति,......' में साधु और शोभन शब्द नपुंसक हुए हैं, उसी तरह इस 'लिङ्गादिसंग्रहवर्ग' में भी समझना चाहिये ॥
१ यदि पहले और यहाँ कहे हुए वाक्योंसे बाध (निषेध) नहीं किया गया हो तो शेष लिङ्गका विधान अपने विषयमें व्यापक होता है अर्थात् अपवाद (बाधक) विषयको छोड़कर सर्वत्र सामान्यतः उक्त लिङ्ग होता है। ('उदा०-'स्वर्गयागाद्रिमेधाब्धि- (३।५।११) इस वाक्यसे स्वर्ग-पर्याय शब्दको सामान्यतः पुंलिग कहा गया है तथापि 'स्वरव्ययं स्वर्गनाकत्रिदिवत्रिदशालयाः । सुरलोको चोदिवौ द्वे सियां क्लीबे त्रिविष्टपम्' (१९१६) इस अपवाद वचनसे 'स्वर' शब्दको अव्यय, 'यो, दिव' शब्दको स्त्रीलिङ्ग, और 'त्रिविष्टप' शब्दको नपुंसक कहनेके कारण ये ( स्वर् द्यो, दिव , त्रिविष्टप) शब्द पुंलिङ्ग में प्रयुक्त नहीं होते, किन्तु उक्त विशेष वचन के अनुसार क्रमशः 'अव्यय, स्त्रीलिङ्ग, और नपुंसकलिङ्ग में ही प्रयुक्त होते हैं, ग्रन्थ बढ़नेके
१. 'अनुक्तौ इति पाठान्तरम् ।
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५२४ अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डेअथ स्त्रीलिङ्गसंग्रहः । १ स्त्रियारमीद द्विरामैकासयोनिप्राणिनाम च ॥ २॥
३ गाम विद्युनिशावल्लीवीणादिग्भूनदीहियाम् । भयसे उन स्वरादि शब्दों की भिन्न लिङ्गमें यहाँ पुनः नहीं कहा गया है। २ उदा०-पुंस्त्वे सभेदानुचराः सपर्यायाः सुरासुराः' (३।५।११) इस सामान्य वचनसे 'भेद, अनुचर, पर्याय' के सहित 'सुर और असुर' पुल्लिङ्ग हैं' ऐसा कहा गया तथापि'....."देवतानि पुसि वा देवताः खियाम्' (१९) इस अपवाद वचनसे 'देवत' शब्दको पुंल्लिङ्ग तथा नपुंसकलिङ्ग और 'देवता' शब्दको स्त्रीलिङ्ग कहा गया है, अतः इन (दैवत् , देवता) शब्दोंको छोड़कर 'सुर, असुर' के पर्याय आदि शब्द पुल्लिङ्ग होते हैं। इस लिंगादिसंग्रहवर्ग' में विशेष वचन सामान्य वचनका बाधक होता है। ('जैसे-- 'अदन्तैद्विगुरेकार्थः (३।५३) इस सामान्य वचनसे अदन्त शब्दसे आगे रहने पर एकार्थ द्विगुको स्त्रीलिङ्ग कह कर 'न स पात्रयुगादिभिः' (३२५३) इस विशेष वचन से 'पात्र, युग, भुवन' आदि शब्होंके आगे रहनेपर स्त्रीलिङ्गका निषेध किया गया है, अत एव 'अष्टाध्यायी, त्रिलोकी, दशमूली' आदि शब्दोंके समान 'पञ्चपात्रम् , चतुर्युगम् , त्रिभुवनम् ,.... शब्द स्त्रीलिङ्ग नहीं होते हैं)॥
____ अथ स्त्रीलिङ्गसंग्रहः। १ यहाँ से आगे 'पुंस्त्वे....... (३।५।११)तक 'स्त्रियाम्' का अधिकार होनेसे यहाँसे 'पुंस्त्वे ........ (३।५।११) के मध्यवर्ती (बीचवाले) सव शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं ॥
२ एक अच् वाले ईकारान्त १, ऊकारान्त २; तथा योनि (भग) सहित प्राणियों के नाम ३ स्त्रीलिंग होते हैं। (क्रमशः उदा०-१ धीः, श्रीः, हीः,
"।२-भ्रू, स्नूः, द्रः, जूः, भूः,........ । ३ माता ( = मातृ), दुहिता ( = दुहित), याता ( = यातृ ), प्रसूः, स्वसा ( - स्वस), योषित् , करेणुः, सुरभिः ,... ...")॥ ___३ विद्युत् (बिजली) १, निशा (राशि)२, वल्ली (लता) ३, वीणा
१. 'विद्युन्निशावल्लीवाणीदिग्भूनदीधियाम्' इति पाठान्तरम् ।
___
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लिङ्गादिसंग्रहवर्ग: ५ ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१ भदन्तद्विगुरेकार्थो न स पात्रयुगादिभिः॥३॥ २ तल्वृन्दे येनिकट्यवाः
(+ वाणी') ४, दिक् (दिशा) ५, भू (जमीन) ६, मदी ७ ही (लाज+धी अर्थात् बुद्धि), के नामवाले शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-१ विद्युत् , चपला, सौदामिनी, तडित् ,........। निशा, रात्रिः, यामिनी,.......। ३ वल्ली, बनती, लता,... | ४ वीणा, वल्लकी, विपञ्ची, कच्छपी ..... I + वाणी, भारती, ब्राह्मी, वाक ,.....। ५ दिक, ककुप, आशा, हरित्......। ६ भूः, पृथ्वी, मही, इला, ..। ७ नदी, सरित्, आपगा,..."। ८ ब्रीडा, लजा, पा, ......! + धीः, बुद्धिः, मतिः, शेमुषी, चित् , संवित् ,.....')॥
१ अदन्त ( हस्व अकारान्त ) शब्द ('जैसे-मूल, लोक, अक्षर, अध्याय, .....') के उत्तर पदमें रहनेपर समाहार (समूह) अर्थमें द्विगु समास-संज्ञक शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं । ('जैसे-दशमूली, त्रिलोकी, पञ्चाक्षरी, अष्टाध्यायी, ....' )। किन्तु पात्र, युग आदि (भुवन, पुर,.....) अदन्त शब्द उत्तर पदमें रहने पर द्विगु समास-संज्ञक शब्द स्त्रीलिङ्ग नहीं होते हैं। ('जैसेपञ्चपात्रम् , चतुर्युगम्", त्रिभुवनम् त्रिपुरम् , ......")। 'भदन्त' ग्रहणसे 'पञ्चकुमारि, दशधेनु......' में और 'एकार्थ' ( समाहार ) ग्रहण करने से पञ्चकपालः, पञ्चकपाली, पञ्चकपालाः,......, में स्त्रीलिङ्ग नहीं होता है ।
२ समूह में १ तल प्रत्ययान्त, और य २, इनि ३, कट्य ४, त्र ५, प्रत्य
१. 'व्यवूङन्त... (२।५।५) इति वक्ष्यमाणवचनेनैव 'वीणा'पर्यायानां 'कच्छपीविपञ्ची'त्यादीनां स्त्रीत्वसिद्धौ ‘धीणा' ग्रहणस्याकिञ्चित्करत्वात् , तत्स्थाने 'वाणी' शब्द, पाठ एव समुचितस्तत्पर्यायाणां 'ब्राह्मी, गीऔरती'त्यादिशब्दानां स्त्रीत्वनिर्देशावश्यकत्वादित्यवधेयम् । ____२. 'स्त्रियामोदूद्विरामैकाच्' (३१५२) इति वचनेनैव 'ही'पर्यायवता 'लज्जादीनां स्त्रीत्वसिद्धौ 'ही' शब्दस्यात्राकिश्चित्करत्वात् तत्स्थाने 'धी'शब्दपाठ एव समुचितः, “धी'पर्यायवतां 'चित्संविदा।' दीनांखीत्वबोधकवचनावश्यकत्वादित्यवधेयम् ।
३. 'अदन्तोत्तरपदो द्विगुः स्त्रियामिष्टः' (वार्ति० १५५६ ) इति भाष्येष्टः। ४. 'पात्राद्यन्तस्य न' (वाति० १५५९) इति भाष्येष्टेः ।
५. 'समासान्ताः' ( पा० सू० ५।४।६८ ) इति सूत्रमाष्ये तु 'त्रिपुरीति दृश्यते।
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अमरकोषः ।
[ तृतीयकाण्डे
- १ 'बैर मैथुनिकादिवुन् । २ स्त्रीभावादावनिक्तिण्ण्वुल्णच्ण्वुच्क्यव्युजिअ निशाः ॥ ४ ॥
यान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ ग्रामता, जनता, बन्धुता, देवता,...... । २ पाश्या, वात्या, ३ खलिनी, शाकिनी, डाकिनी, पद्मिनी, ....... ४ रथकट्या, । ५ गोत्रा, १) । 'वृन्द' ग्रहण करनेसे मुख्यः, दण्डी ( दण्डिन् )' यहां स्त्रीलिङ्ग नहीं हुआ है ।
=
१ वैर १, मैथुनिक २ आदि अर्थ में विहित वुन्' प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं । 'आदि' शब्द से वीप्सा में विहित 'पादशतस्य-' ( पा० सू० ५|४|१), दण्डव्ययसर्गयोश्व' ( पा० सू० ५ । ४ । २ ) से विहित 'वुन्' प्रत्ययान्त भी स्त्रीलिङ्ग होता है । ( 'क्रमशः उदा० - १ अश्वमहिषिका, काकोलूकिका, ' २ अभिरद्वाजिका. कुत्सकुशिकिका, 'आदि' से 'संगृहीतके क्रमशः उदा० - १–२ द्विपदिकां द्विशतिकाम् वा ददाति, दण्डितो वा,' | 'वुन्' ग्रहण 'वुञ्' का उपलक्षण है अतः 'काठिकया काशिका, गर्तिकया श्लाघते,' यहाँ भी स्त्रीलिङ्ग होना है' ) ।
......
3
२ 'स्त्रियां क्तिन्' ( पा० सू० ३ । ३ । ९४ ) के 'स्त्रियाम्' का अधिकार कर भाव आदि अर्थ में विहित 'अनि चिन् २, ण्वुल् ३, णच् ४, ण्वुच्, ५, त्र्यपू ६, युच् ७, इञ ८, अङ् ९, नि ( + अ ) १०, श ११, प्रत्यय जिसके अन्त में हों, वे शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं । 'क्रमशः उदा० - १ अकरणिः, अजननिः... । २ कृतिः, भूतिः, चितिः, | ३ प्रच्छर्दिका, प्रवाहिका, आसिका, | ४ व्याचकोशी, व्यात्युक्षी, व्यावहासी, .....५ शाथिका, इतुभक्षिका ......। ६ ब्रज्या, इज्या, समज्या, निषद्या, ब्रह्महत्या,' ७ कारणा, हारणा, आसना', कामना, ...१८ वापिः, वासिः, कारिः, गणिः, ......१९ पचाभिदा, घटा, मृदा, ....... १० ग्लानिः, ग्लानि, अरणिः, धमनिः, + चिकीर्षा, पुत्रकाम्या, ......। ११ क्रिया, इच्छा, ग्रहण करनेसे, मृषोद्यम् यहाँपर स्त्रीलिङ्ग नहीं होता है
१) 'स्त्रीभावाद'
I
...
-
...
.....
१. 'वैर मैथुनकादिवुः' इति पाठान्तरम् ।
२.
'व व्युजिञङदशाः' इति पाठान्तरम् ।
......
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लिङ्गादिसंग्रहवर्गः ५ ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ 'उणादिषु निरूरीश्च याबूङन्तं चलं स्थिरम् । २ तस्क्रीडायां प्रहरणं चेन्मौष्टा पाल्लवाण दिक् ॥५॥ ३ घोषःसा क्रियाऽस्यां चेहाण्डपाता हि फाल्गुनी।
श्यैनंपाता च मृगया तैलंपाता स्वधेति दिक् ॥६॥
१ उणादिमें विहित 'निर् १, ऊर् २, ई ३, प्रत्ययान्त शब्द तथा चल (जङ्गम) अथवा अचल (स्थावर) जो 'डी ( ङीष् वा ङीप) ४ आप (टाप) ५, ऊ६' प्रत्ययान्त शब्द वे स्त्रीलिङ्ग होते हैं । ('क्रमशः उदा०-१ श्रेणिः, श्रोणिः, ज्यानिः,....... । २ कर्पूः, चमूः, अलावूः, जम्बू:,..... । ३ लक्ष्मीः , अवीः, तरीः, तन्त्रीः,...। ४ चल (जङ्गम) जैसे-नारी,...अचल (स्थावर) जैसे-कदली, कन्दली,.....।५चल ( जगङ्गम) जैसे-शिवा, रमा, गङ्गा,"। अचल ( स्थावर ) जैसे-खट्वा, माला, .... । ६ चल (जङ्गम ) जैसेब्रह्मबन्धूः, वामोरूः, करभोरू,..... । अवल ( स्थावर ) जैसे-कर्कन्धः, अलाबू:,...")॥
२ खेलमें 'मुष्टि पल्लव' आदि (मुसल, दण्ड,....") का प्रहरण (प्रहार, मार ) इसका है, इस अर्थमें 'ग' प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं । ('क्रमशः उदा०-मौष्ट्या, पाल्लवा, मौसला, दण्डा,....")॥
३ दण्डपात इस फाल्गुनी तिथि में है १, श्येनपात (बाजका गिरना) इस मृगया (शिकार ) क्रिया में है २, तैलपात ( तेलका गिरना) इस स्वधा (पिण्ड-दान ) क्रिया में है ३, इस अर्थमें 'या' प्रत्ययान्तसे विहित 'अ' प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-१ दण्डपातोऽस्यां फाल्गुन्यां तिथी विद्यते इति दाडपाता फाल्गुनी तिथिः। २ श्येनपातोऽस्यां मृगयायाम , इति श्यैनंपाता मृगया । ३ तैलपातोऽस्यां स्वधायाम् इति तैलंपाता स्वधा') "इति दिक' कहने से मुसलपातोऽस्यामिति 'नौसलपाता' भूमिः आदि का संग्रहण है ॥
१. 'उणादिष्वनिरूरीश्च' इति पाठान्तरम् एतत्पाठे 'धरणिः, धमनिः, शरणिः' इत्याधुदाहरणं शेयम् ॥
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अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे१ स्त्री स्यात्काचिन्मृणाल्याविधिक्षाऽपचये यदि । २ लङ्का शेफालिका टीका धातकी पञ्जिकाऽऽढकी ॥ ७॥ सिध्रका 'सारिका हिका प्राचिकोहका पिपीलिका । तिन्दुकी कणिका भक्तिः सुरजासूचिमायः॥ ८॥
१ अपचय (न्यूनता, कमी) विवक्षित रहनेपर मृणाली आदि (कुम्भी प्रणाली,......) शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं। ('जैसे- अल्पं मृणालं (थोड़ा मृणाल (मृणाली, कुम्भी, प्रणाली, मुसली, छत्री, पटी, तटी, मठी, वंशी, गृह्यकाण्डी,......" ('काचित्' ग्रहण करनेसे 'अल्पो वृतः' इति विग्रहे 'वृक्षकः' पुंलिङ्ग ही होता है स्त्रीलिङ्ग नहीं होता।
१ 'ड्याबूङन्तम्' (३।५।५) इत्यादिसे उक्त लिङ्गवाले कुछ शब्दोंको भी सुखपूर्वक लिङ्ग-ज्ञानके लिये ‘कान्त, खान्त, ....' के क्रमसे कहते हैं । 'लङ्का ( रावणकी राजधानी ), शेफालिका (निर्गुण्डी), टीका (ग्रन्थादिकी ग्याख्या), धातकी (धव वृक्ष-विशेष), पञ्जिका ( सम्पूर्ण पदोंकी म्याख्या), आढकी ( अरहर, जिसकी दाल होती है ), सिध्रका ('सीध'नामका वृक्ष-विशेष), सारिका ( + शारिका । मैना पक्षी), हिक्का (हिचकी आना), प्राचिका (वनमक्खी। + पक्षि-विशेष क्षी० स्वा०) उल्का (लुक्क ) पिपीलिका (चींटी या दीमक । + जो अप्रसिद्ध है या पहले अनुक्त है वही यहाँपर तत्तन्नाम-निर्देश-पूर्वक कहा गया है अतः ‘शनैर्याति पिपीलकः' यहाँ पुंलिङ्गका निषेध नहीं हुआ, इसी तरह सर्वत्र समझना), तिन्दुकी (तेंदू वृक्ष), कणिका (परमाणु, अतिसूक्ष्म या गेहूँ आदिका आटा, जयपर्ण वृक्ष या अरणि वृक्ष), भङ्गिः (रचना, कौटिल्य-भेद) सुरङ्गा (सुरङ्ग) सूचि (सूई ) माढिः (दन्य या दैन्य प्रकाशन, पत्रिशिरा अर्थात् पत्तेकी नस । + देशः कवच क्षी०
१. 'शारिका' इति पाठान्तरम् ॥
२. 'ड्याबूङन्तम्' ( ३।५५) इति सिद्ध नामानुशासनार्थो लङ्कादीनां पाठः । मढ्यादी. नामुमयानुशासनार्थः । शेफलिकादीनां तु व्यर्थः स्वपर्यायपठित्वात' इति भा० दी।
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हिङ्गादिसंग्रह वर्गः ५] मणिप्रभा व्याख्यासहितः ।
पिच्छावितण्डाकाकिण्यश्वर्णिः शाणी दुणी दरत् । सातिः कन्था तथाऽऽसन्दी नाभी राजसभापि च ॥ ९ ॥ झल्लरी चर्चरी पारी छोरा लट्टा च सिध्मला । लाक्षा लिक्षा च गण्डूषा गृध्रसी चमसी मसी ॥ १० ॥ इति खीलिङ्गसंग्रहः ।
अथ पुंलिङ्गसंग्रहः । १ पुंस्ये २ सभेदानुचराः सपर्यायाः सुरासुराः ।
५२६.
स्वा० ), विच्छा ( मोचरस अर्थात् सेमर का गोद । + भात आदिका मांद ), वितण्डा ( बखेड़ा ), काकिणी ( + काकिनी । चौथाई पैसा, दुकड़ा ), चूर्णिः ( अष्टाध्यायीका पातञ्जल भाग्य ), शाणी (सनका वन-विशेष महे०, कसोटी, सान अर्थात् शस्त्रको तेज करनेका यन्त्र-विशेष + 'काणी' अर्थात् संकोच ), दुणी ( गोजर + कच्छपी ), दर ( ग्लेच्छ जाति ), सातिः ( समाप्तिः ), कन्या ( चिथड़ा ), आसन्दी ( एक प्रकारका आसन, या बेंतका आसन ), नाभिः ( पेटकी ढोंडी ), राजसभा ( राजाकी सभा ), झल्ली (हुडुक बाजा), चर्च (ताली या गान - विशेष ), पारी ( हाथी के पैर बाँधने की रस्सी, पानभाण्ड घड़ा आदि ), होरा (लग्न, लग्नार्द्ध, जातक ), लट्बा ( ग्रामका गौरैया पक्षी, करअ फल, वाद्य- विशेष ), सिमला ( सूखी मछली, गीली खुजली, मल 1 + सफेद कुष्ठ रोग सी० स्वा० ), लाक्षा (लाइ ), लिक्षा (जुमाका अण्डा, लीख ), गण्डूषा ( + गण्डूषः पु । पानीले मुख भरना, कुल्ला ), गृध्रसी (उरु- सन्धिमें होनेवाला वातरोग - विशेष ), चमसी ( उड़द या मसूर आदिका बेसन, काष्ठका बना हुआ यज्ञपात्र विशेष + प्रणीतापात्र महे० ), मसी ( स्याही ), ये ४२ शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं ॥ इति स्त्रीलिङ्गसंग्रहः ।
अथ पुंलिङ्गसंग्रहः ।
१ यहाँ से आगे 'द्विहीने (३ । ५ । २२ ) के पूर्व 'पुंस्त्वे, इसका अधिकार होने से इसके मध्यवर्ती (बीचवाले) सब शब्द २ भेद और अनुचरके सहित १ सुर ( देवता ) तथा २
पुंलिङ्ग होते हैं । असुर ( दैश्य )
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५३०
अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे१ स्वर्गयागाद्रिमेघान्धिद्रुकालासिशरारयः ॥ ११ ॥
के पर्यायों के सहित सब शब्द पुंलिङ्ग होते हैं। (क्रमशः सदा.-१सुरके पर्याय जैसे-अमरः, निर्जरः, देवः, त्रिदशः, विषुधा,..... । भेद जैसे-तुषित:, साप्याः, आभास्वराः, इन्दः, शक्रः, विद्यौजा; सूर्यः, आदित्यः, रविब्रह्मा, स्वयम्भूः; विष्णुः, शौरिः; रुद्रः, शम्भु;.......... । अनुचर जैसे-हाहा, हूहूः, तुम्बुरुः, मातलिः, जयः, विजयः, चण्डा, प्रचण्ड:, विष्वक्सेना, नन्दी ( = नन्दिन् ), महाकालः, भृङ्गी ( = भृङ्गिन् ), गणाः, प्रमथा...। २ असुर (दैत्य) के पर्याध जैसे-देश्याः, देतेया, दानवाः, पूर्वदेवाः,......" । भेद जैसे-बलिः, नमुचिः, जम्मा, विरोचनः प्रायः,....... । अनुचर जैसे-फूष्माण्डः, मुण्डः, कुम्भः,.....")॥
१ स्वर्ग 1, याग ( यज्ञ) २, अदि (पहाड), मेव (बादल), अधि ( समुद) ५, द्रु (पेड़), काल (समय) ७, मसि (तलवार), शर (बाण) ९, और अरि (शत्रु) १०, इनके पर्याय और भेदवाचक शब्द पुलिङ्ग होते हैं । ( क्रमशः उदा०-१ पर्याय जैसे-स्वर्गः, नाकः, त्रिदिवः, विदशालयः,...। २ पर्याय जैसे-यागः, ऋतुः, सततन्तः,...... । भेद जैसे-अग्निटोमः, अनिरात्रः, अश्वमेधः,.... । ३ पर्याय जैसेअद्रिः, गिरिः, पर्वतः....... । भेद जेसे-सुमेरुः, मेरुः, हिमालयः, विध्या, सह्यः, ..... । ४ पर्याय जैम-मेघा, भम्बुदः, घना, वारिदः,..... । भेद जैसे-पुरकरावर्तकः,...... । ५ पर्याय जैसे-अब्धिः , समुदः, नदीना, सागरः, अर्णवः,...... । भेद जैले-क्षारोदः, लवणोदः, दध्यूदः,..... । ६ पर्याय जैसे-दः, नमः, वृक्षः,...... । भेद जैसे-वटः, आम्रः, पखा, व दिग्ः, पिपल:,...... । ७ पर्याय जैसे-कारः, ममयः, दिष्टः,..... । भेद जैसे--मासः, ' क्षः, ऋतुः,......। ८ पर्याय जैसे-असिः, खड्गः करवालः, अपमानः,...... । भेद जैसे-नन्दकः, चन्द्रहासा,.... ९ पर्याय जैसे--शः, बाणः, इपुः, विशिखः ....... । भेद जैसे-नाराय: काण्डः, भएकः,...... । १० पर्याय जैसे--अरि, रिपुः, शत्रुः, द्वेषणः,.. भेद जैसे-आततायी ( = आततायिन )........)
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लिङ्गादिसंग्रहवर्गः ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ करगण्डोष्ठदोर्दन्तकण्ठकेशनस्वस्तनाः २ बहाहन्ताः श्वेडभेदा रावान्ता प्रागसंख्यकाः ॥१२॥ ३ श्रीवेशद्याश्च निर्यासा असनन्ता अबाधिताः ।
कर (कौड़ी या राजाका कर अर्थात् मालगुजारी, किरण,) 1, गण्ड (गाल) २ ओष्ठ (मोठ) ३, दोः ( = दोष । हाथ ) ४, दन्त (दाँत) ५, कण्ठ (गला), केश (बाल ) ७, नख ( नाखून), स्तन (थन ) ९, इनके पर्याय और भेदके सहित शब्द पुल्लिङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०१ करः, राजभागः, रश्मिा , मयूखः, .... ! १ गण्डः, कपोलः, कटा, .......। ६ ओटा, रदनच्छदः, अधरः, ....... | ४ दशेः (= दोष), प्रवेष्टः, बाहुः, भुना, ......। ५ दन्तः, दशना, रदः, रदनः,...... । ६ कण्ठः, गलः,.....। ७ केशः, वालः, चिकुरः,...... | ८ नखः, पुनर्भ, कररुहः,......। ९ स्तनः, पयोधर:, कुचः, ....")॥
२ १, अहन् २' शब्द जिसके अन्त में हो वे शब्द, विष-भेदके वाचक शब्द ३, रात्रि' शब्द हो अन्त में जिनके ऐसे असंख्यापूर्वक (संख्या-वाचक शब्द पूर्व में न रहें ऐसे) शन्द ४, पुल्लिङ्ग होते हैं। (क्रमशः उदा०-, पूर्वाह्नः, सायाह्नः, अपरालः, मध्याह्नः,'''''. । २ पहा, यहः, उत्तमाहः, परमाहः,.......३ वरसनामा, सौराष्टिकः, ब्रह्मपुत्रः, शौकिकेयः, काल कटा, हला. हला,......। ४ अहोरात्रः, सर्वरात्रः, दीर्धरात्रः, वर्षा रात्रः,.....)'प्रागसंख्यकाः' ( असंख्यापूर्वक ) ग्रहण करने से 'पञ्चरात्रम् द्विरात्रम् , त्रिरात्रम् .....में संख्यावाचक शब्द पूर्व में रहने से पुल्लिङ्ग नहीं होता है)।
३ श्रीवेष्ट (+ श्रोपिष्ट ) आदि गोंद के वाचक शब्द १, अस् २, और अन् ३, हो अन्त में जिनके ऐसे अबाधित (किसीसे बाध न हुआ हो) शब्द पुंलिङ्ग होते हैं। (क्रमशः उदा०-। श्राविष्टः ( + श्रोपिष्टः) सरलः, द्रवः, .... । 'श्राद्य' शब्दसे 'श्रीवासः, वृकधूम,........' का और 'च' शब्दसे गुग्गुलुः, वृकधूम.....' का संग्रह होने से ये शब्द भी पुस्लिम होते हैं।२ वेधाः (= वेधस्) पुरोधाः (पुरोधस्) उशनाः ( = उशनस), अङ्गिराः
१. 'करगण्डौष्ठदोदंण्डकण्ठकेशनखस्तनाः' इति पाठान्तरम् ।
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५३२
अमरकोषः।
[तृतीयकाडे१ कशेरुजतुवस्तूनि हित्वा तुरुविरामकाः ॥१३॥ २ कषणभमरोपान्ता यद्यदन्ता अमी ३ अथ।
पथनयसटोपान्ताः( = अङ्गिरस), चन्द्रमाः (चण्द्रमस्), ....... । । कृष्णवर्मा (= कृष्णव. पर्मन् ), प्रतिदिवा (= प्रतिदिवन्), मघवा (=मघवन् ), प्लीहा (प्लीहन्), .......')। 'अबाधित' ग्रहण करने से 'अप्सरसः (= अप्सरस), जलौकसः (= जलौकस ), सुमनसः (= सुमनस् ),..... ये असन्त शब्द, तथा 'लोम (= लोमन् ), साम ( = सामन्), वर्म (= वर्मन्), ....... ये नान्त शब्द पुल्लिङ्ग नहीं होते हैं ।
५ 'कशेरु, जतु , वस्तु' शब्दको छोड़कर अन्य 'तु 1, रु २' अन्त में हो जिनके ऐसे १३ पुंल्लिङ्ग होते हैं । ('क्रमशः उदा०-१स्तुः , मस्तु:, हेतुः, सक, धातुः, सेतुः,...... । २ कुरुः, सरु', मरुः, 2रु,......")। 'कशेरुज. तुवस्तूनि हित्वा' 'इसके कहने से इदं 'कशेरु' जलज कन्द विशेष, 'ज' लाक्षा, इदं 'वस्तु' यहाँपर 'शेरु, जत, वस्तु' शब्द पुल्लिङ्ग नहीं होते हैं।
२ 'क १, २, ३, म ४, म ५, र ६' य ६ वर्ण जिसे अदन्त भब्द के उपान्त ( अन्तवाले वर्ण के अव्यवहित पू.) में रहें वे शब्द विशेप, पुल्लिङ्ग होते हैं । ( क्रमशः उदा०- १ अङ्कः, कला, लोकः, स्फरिकः, शकः, वराटकः, ....... | २ ओपः, प्लोषः, माषः, पक्षः, निकषः, तुषः, रोषः, ++ + ३ गणः, शणः, कणः, पाषाणः, गुणः, + + । ४ कुम्मा, कलभः, दर्भः. शलम:, + + । ५ आचामः, धूमः, होमः, ग्रामः, गुल्मः, ज्यामः, + + । ६ अङ्कुरः, दरः, झर्झरः, + +')
३ ११, थ २, न ३, य ४, स ५, र ६' ये ६ वर्ण जिनके उपान्त (अन्त. के वर्णके अव्यवहित पूर्व) में हैं वे शब्द पुल्लिङ्ग होते हैं। ( 'क्रमशः उदा०, सूपः, वाप्पः, कलापः, यूपः कूपः, ......... । २ रोमन्थः, शपया, सार्थः,
१. 'कशेरुजतुवस्तुनि हित्वा' इति ग्यर्थम् । 'अबाधिताः' इत्यस्यान्वयेनैव सामजस्यात् । वस्तुतस्तु 'अबाधिताः' इत्यपि व्यर्थम् । 'विशेषर्यद्यबाधितः' (३१५।१) इत्यने नैव निर्वाहात् । अत एव दार्वादिषु निर्वाः' इति भा० दी. 'वेशेाधुपलक्षण 'दारुश्मश्रु'
प्रभृतीनाम् । कशेरु अस्थिविशेषस्तृणविशेषो वा, बतु लाक्षा' इति महे ।।
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हिमादिसंग्रहवर्ग: ५] मणिप्रभाष्याख्यासहितः ।
५३३ -१ गोत्राख्याश्चरणायाः ॥ १५ ॥ २ नाम्न्यकर्तरि भावे च घञजन्नङ्गघाथुवः। ३ ल्युः कर्तरीमनिज्भावे को घोः कि:प्रादितोऽन्यतः ॥१५॥
नाथः,..... 1 ३ फेना, हापना, स्तनः, जना, इना,..... । ४ अपनयः, विनयः, प्रणय', आयः, व्ययः, तन्तुवायः,... | ५ रसा, हासः, कुस्सा, वरसा,...... ।
रा, कटः, सरटा,.....। महे. मु. के मतसे 'अ' शब्दको आदिमें रहने. से 'यद्यदन्ता इसका सम्बन्ध 'पथनयसटोपान्ता' में नहीं होता, अतः 'पायुः, जायुः, गोमायुः,....." भदन्तसे भिन्न शब्द भी इंखिङ्ग होते हैं)॥
गोत्राख्य (गोत्रके वाचक) शब्द क्षी. स्वा० के मतसे अपत्य प्रत्ययान्त 1, और चरण (वेद-शाखा) के वाचक शब्द पुंलिङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-काश्यपः वसिष्ठः, गौतमः,.... । वी. स्वा० के मतसे + वासिष्ठः, गायः, दाविः,..... । २ कठः, बचा , छन्दोगः, कलाप:.......' ) ॥
१ नाम, कर्तृभिन्न कारक और भाव में विहित 'घा , अच् १, अए ३, नङ ४, ण ५, ध ६, अथुच् ७, प्रत्यय जिनके अन्त में हों वे शब्द शिलङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-1 प्रास, वेदा, प्रासादः, प्रकार, माघः, भावः, पाकः, स्थागः,..... । १ जयः, चयः, नया,..... । ३ पचः, करः, गरः, लवा, स्तवः, प्लवः,.......४ यज्ञःप्रश्ना, यत्नः,..... ('नङके उपलचण होनेसे'नन्' प्रत्ययान्त भी पुंल्लिङ्ग होता है, जैसे-स्वप्नः,..... )। ५ न्यावा,..... ।
प्रहरा, विषसः, गोचर: उरकर, प्रच्छदः,........ । ७ वेपथुः, श्वयथुः, मानन्दथुः,.......)
३ कर्ता विहित 'क्यु' प्रत्ययान्त , भाव में विहित 'इमनिच' और 'क' ३, प्रत्ययान्त तथा प्रादिसे ४, और अन्यसे ५, परे घुसंज्ञक धातुसे विहित 'कि' प्रत्ययान्त शब्द पुंल्लिङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-1 नन्दनः, रमणा,
१. अत्र 'प्रादि' शब्देन दाविंशतिरुपसर्गा प्राधास्ते यथा--'प्र १, परा २, अप ३, सम् ४, मनु ५. अव ६. निस् ७, निर ८, दुस् ९, दुर् १०, वि ११, भार १२, नि १३, भषि १४, भपि १५, अति १६, सु १७, उत् १८, अमि १९, प्रति २०, परि २१, उप २२१ एस्पेते 'उपसर्गाः क्रियायोगे (पा. स. १६४५९) इत्यनेनोपसर्गसंघका मवन्ति ।
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५३४
अमरकोषः
[ तृतीयकाण्डे१ चन्द्वेऽश्वघडवावश्ववडवा न समाहृते । २ कान्तःसूयेन्दुपर्यायपूर्वोऽयः पूर्वकोऽपि च ॥ १६ ॥ ३ वटकश्चानुवाकश्च रल्लकश्च 'कुडनकः ।
पुढो न्यूङ्खः समुद्गश्च विटपट्टघटाः खटाः ॥ १७ ।।
मधुसूदनः, जनार्दनः,...... । २ प्रथिमा (= प्रथिमन् ), लघिमा (= लघिमन् ), गरिमा (= गरिमन् ), महिमा ( = महिमन् ),..."। ३ प्रस्था, आखूस्था,''। ४ (प्रादिसे परे घुसंज्ञक धातुसे विहित 'कि' प्रत्ययान्त ) जैसे-प्रधिा, निधिः, व्याधिः, आधिः, उपधिः,..... । ५ ( अन्य से परे घुसंज्ञक धातुसे विहित 'कि' प्रत्यपान्त, जैसे-जलधिः, भब्धिः ,......")। 'घोः किः' इसीसे सर्वत्र पुंल्लिङ्ग हो जाता, अतः 'प्रादितोऽन्यतः' यह पद व्यर्थ ही है ।
समाहार अर्थसे भिन्न द्वन्द्व समास में 'अश्ववडव' शब्द पुंलिङ्ग होता है । (जैसे-वच वडवा च 'अश्ववडवो')॥
२ 'सूर्य, चन्द्र २, के पर्याय, और 'अयस्' ३ शब्दसे परे ( आगे) रहनेपर 'कान्त' शब्द पुंल्लिङ्ग होता है। ('क्रमशः उदा०-१ सूर्यकान्तः, अर्ककान्त:,भास्वरकान्त:,...... । २ चन्द्रकान्तः,शशिकान्तः, इन्दुकान्त:,... । ३ अयस्कान्त:')॥
३ अब 'कान्त, खान्त .......के क्रमसे 'पुंल्लिङ्गसंग्रह' के अन्ततक पुंल्लिङ्गशब्दोंको कहते हैं । वटकः (चारा ), अनुवाकः ( वेद-भेद, ऋक् और यजुष का समूह ), रल्लकः (पचम-कम्बल, रोआदार कम्बल ), कुडङ्गकः (+ कुटङ्गकः । वृक्ष-लतासे गहन स्थान ), पुखः (चाणके नीचेवाला भाग), न्यूजः (+ न्युङ्खः । सामवेदके भा० बी० के मतसे ६ और पी० स्वा० के मतसे १६ ॐकार ), समुद्रः (सम्पुट, डब्बा), विटः (कामी अनुचर, धूर्त), पट्टः (बीड़ा, काष्ठका आसन-विशेषा+पनदी आदि ची०स्वा०),घट: (काष्टकी तराजू, परीक्षा करनेकी तराजू), खटः (अन्धा कूवां, तृण, प्रहार ), कोहः (किला), मरघट्ट
-
१. 'कुटाका' इति पाठान्तरम् ॥ २.न्यु इति पाठान्तरम् ।।
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किङ्गादिसंग्रह वर्ग: ५ ] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
कोट्टारघट्टहट्टा' पिण्डगोण्ड पिचण्डवत् । गडुः करण्डो लगुडो वरण्डश्च किणो घुणः ॥ १८ ॥ इतिसीमन्तहरिता रोमन्थोद्गीथबुदबुदाः । "कासमर्दोऽनुदः कुन्दः फेनस्तूपौ सयूपकौ ॥ १९ ॥ आतपः क्षत्रिये नाभि: कुणपरकेदराः । पूरक्षुरप्रचुक्राश्च गोल हिल पुलाः ॥ २० ॥
( बड़ा कुआँ + कोट्टारा, घट्टः, अर्थ क्रमशः नगरका कूप, घाट, भा० दी० ), हहः (बाजार ), पिण्डः (कवल या पिण्ड), गोण्ड: ( नाभि | + गौडः अर्थात् गुड का बना पदार्थ या गौढ देश ), पिचण्ड: ( + पिचिण्डः । पेट ), गडु: ( गाल श्री० स्वा०, गलगण्ड रोग महे०), करण्डः ( समुद्र क्षी० स्वा०, बाँसका कोठिला आदि भाण्ड विशेष भा० दी० महे०), लगुडः ( लाठी ), वरण्डः ( समूह, मुखरोग), किण: ( घावका चिह्न, मांस- ग्रन्थि, घट्ठा ), घुण: (घुन ), cfa: (nıdî), dînza: ( da-àn ), gfa ( gei in ), dìaru: (qyŵ), रुद्रोधः (साम-भेद ), बुद्बुदः ( बुल्ला, पानी में वर्षा आदि पढ़ने या खौलनेपर होनेवाला क्षणिक जक - विकार ), कासमर्दः ( गुल्म-भेद महे०, वेसवार अर्थात् एक प्रकारका मसाला या छौंक ), अर्बुदः ( दश करोड़, आबू पहाद, रोगविशेष | + अर्दनिः अर्थात् अग्नि ), कुन्दः (कुन्द फूल या शिल्प - भाण्ड), फेनः ( फेन, गाज ), स्तूप: ( माटी आदिका ढेर श्री० स्वा०, + यज्ञमें वध्य पशु बाँधने का काष्ठ- विशेष ), यूपः ( यज्ञ में पशु बाँधनेका काष्ठ-विशेष । + पूपः अर्थात् पू ), आतपः, ( घाम ), नाभिः ( क्षत्रिय), कुणप ( मु-विशेष | + कणपः, अर्थात् प्रास - विशेष ), तुरः ( छूरा ), केदरः ( एक प्रकारका व्यावहारिक पदार्थ ), पूरः ( पानीका प्रवाह ), सुरप्र: ( + खुरप्रः । बाणभेद ), चुक: ( चुक, शाक- विशेष ), गोठ: ( गोळा, पिण्ड ), हिङ्गुलः ( + हिडुलुः । ईगुर), पुद्गलः ( आत्मा, जैन सिद्धान्तसम्मत आकाशादि द्रव्य ),
-
१. 'पिण्डगोड पिचण्डवत्' इति 'पिचिण्डिवत्' इति च पाठान्तरे । २. 'कासमर्दोऽर्दनिः कुन्दः फेनस्तूपौ सपूपको' इति पाठान्तरम् । ३. 'पूरखुरप्रचुक्राश्च' इति 'गोहिल पुद्रा:' इति पाठान्तरम् ।
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अमरकोषः। [ तृतीयकाडेवेतालभल्लमल्लाश्च पुरोडाशोऽपि' पट्टिशः। कुल्माषो रभसश्चैव सकटाहः पतग्रहः ॥ २१ ।।
इति पुल्लिङ्गसंग्रहः।
अथ नपुंसकलिङ्गसंग्रहः । बिहीनेऽन्यच्च २ खारण्यपर्णश्वहिमोदकम् । शीतोष्णमांसरुधिरमुखाक्षिद्रविणं बलम् ॥ २२ ॥ 'फलहेमशुल्बलोहसुखदुःखशुभाशुभम्
जलपुष्पाणि लवणं व्यञ्जनान्यनुलेपनम् ॥ २३ ॥ वेतालः (प्रेत-विशेष), भल्लः (भालू, बाण-विशेष, पटा), माला (कुश्ती लड़ने में चतुर), पुरोडाशः ( यज्ञसम्बन्धी पूभा, हविष्य-विशेष,) पट्टिशः (+ पट्टिसः । अन-विशेष), कुल्माषः (भाधा गोला यव या उपद आदि), रभसः (हर्ष, वेग, पौर्वापर्यका विचार ), कटाहः (कराह ), पतग्रहः (पीकदान). ये ५५ शब्द पुंल्लिङ्ग होते हैं । इति पुंल्लिङ्गसंग्रहः।
अथ मपुंसकलिङ्गसंग्रहः । , यहाँसे भागे 'पुनपुंसकयोः' (३।५।३२) के पहले तक 'द्विहीने इसका अधिकार होने से इसके मध्यवर्ती (बीचवाले) शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं। "अभ्यत्' ग्रहण करने से जो बाधित न हों वे ही शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं।
. स्वम (इन्द्रिय )", अरण्यम (वन)२, पर्णम् (पत्ता) ३, वभ्रम् (पाताल, बिल ) , हिमम् (वर्फ)५, उदकम् (पानी) ६, शीतम् (ठण्ढा) ७, उष्णम् (गर्म) ८, मांसम् (मांस) ९, रुधिरम् (खून ) १०, मुखम् (मुंह)", अक्षि (ख) १२, द्रविणम् (धन) १३, बलम् (सेना) १४, फलम् (माम आदिका फल । +लम् अर्थात् जोतनेवाला हल) १५, हेम ( हेमन् । सुवर्ण) .. शुरुषम् (तामा) १७, लोहम (कोहा) १८, सुखम् (सुख) १९, दुःखम् (दुःख) २०, शुभम् (शुभ) २१, अशुभम् (अशुभ) २१, जलपुष्पम् (पानी में होनेवाले फूल) १५, लवणम् (नमक) २९, म्यानम् (तरकारी आदि) २५, अनुलेपनम् (लेप-भेद) १६ पे २६ शब्द
१. पट्टिसः इति मुकुरः इति महे। १.विडीनेऽन्यब' इति पाठान्तरम् ।
३. हेम-ति पाठान्तरम् ।।
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लिङ्गादिसंग्रहवर्ग:५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ "भयामृतशकवक्तचापाभरणलालम् (९२)
और इनके पर्यायवाचक शब्द नपुंसकलिङ्ग (भा० दी० ने इनके पर्यायवाचक शब्दोंको नपुंसक नहीं कहा है) होते हैं। क्रमशः उदा०-१ प्रथमार्थक (इन्द्रिय पर्याय) जैसे-१ खम् , इन्द्रियम् , करणम् , हृषीकम् ,......।" द्वितीयार्थक (आकाश-पर्याय ) जैसे-खम् , आकाशम् , गगनम् , मम्म रम् ,..... । २ अरण्यम, कान्ताराम , वनम्, विपिनम् ,.... । ३ पूर्णम्, -इलम् , पस्त्रम् ,..." । ४ श्वभ्रम, विलम् , विवरम् , पाताळम् ,...""" हिमम्, प्रालेयम्, तहिनम्,..." । ६ उदकम, जलम्, पानीयम्, तोयम्,...। ७ शीतम, शिशिरम,..."। ८ उष्णम्, धर्मम्, .....। ९ मौसम, पिशितम्, तरसम्,..... ।१० रुधिरम्, रक्तम्,...| मुखम, भाननम् , रूपनम,
आस्यम् , वक्त्रम्,.... . अति, नयनम्, नेत्रम्, ...... | ५ द्रविणम् , 'धनम्, स्वापतेयम् ,..."। १४ बलम्, सैन्यम्. अनीकम्,":""। १५ फलम्, भाम्रम्, कपिश्यम्, ...... । १६ हेम ( = हेमन् ), सुवर्णम् , हाटकम, स्वर्णम्,..." । १७ (लोह-भेद) जैसे-शुरुषम् , ताम्रम् औदुम्बरम,..." १८ लोहम्, कालायसम्, भरमसारम्,...। १९ सुखम, उपजोषन् , शान्तम, शर्म ( = शर्मन् ) शातम्, ...... । २० दुःखम्, कष्टम, कृच्छ्रम् , मामीलम् ......। २१ शुभम्, कल्याणम् , कुशलम् , पुण्यम् , सुकृतम् ,.....। २२ अशुभम् , पापम् , दुष्कृतम्,..."। २३ (जळपुष्प भे३) जैसे-कमलम्, कैरवम् , कुमुदम् , कहारम, सस्पलम, ......। २४ (लवण-भेद ) जैसेलवणम्, सैन्धवम्, विडम्, रुचकम् ,......। २५ व्यअनम्, तेमनम्, निष्ठानम, उपसेचनम्, मस्तु,...... । और २६ (अनुलेपन-भेद ) जैसे-अनुलेपनम् , कुङ्कुमम् , अग्निशिखम , काश्मीरम् , चन्दनम्, ......")॥
, [भयम्(सर),अनृतम् (भूठा। + 'अमृतम्' अर्थात् अमृत), शत् (मैला), चक्त्रम् (मुख । + 'वस्तु' अर्थात् चीज, पदार्थ), चापम् ( धनुष्), भाभाणम्
१. 'भया''प्रयुज्यते' इत्ययं क्षेपकाशः क्षी० स्वा० व्याख्याने समुपलभ्यमानः प्रकतोपयुक्ततयाऽत्र मूळे स्थापितः। तत्र-'मयामृतशदस्तु' इति पाठान्तरमप्यस्ति ।
२. तथा च मा० दी.-'दाभ्यां होने क्लीवे.." इस्यायुक्त्वा तत्र कांश्चिदर्शयति समिति-'इस्याह।
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५३
अमरकोषः।
[तृतीयकाडेदावौषधमृधापत्य हृदयोदरकाकुदम् (९३) पत्तनाजिरशृङ्गानद्वारबोंडमानसम्
ध्वान्तं चाव्यक्तलिङ्गच भाणती यत्प्रयुज्यते' (९५) १ कोट-याः शतादिसङ्ख्याम्या वा लक्षा नियुतं च तत् । २ द्वयकमसिसुसन्नन्तं
यदनान्तमकर्तरि ॥ २४॥ (भूषण), लाङ्गलम् (हल), दारु (लकड़ी), औषधम् (दवा), मृधम् (युद्ध), अपत्यम् (सन्तान ), हृदयम् (हृदय), उदरम् (पेट), काकुदम् (तालु), पत्तनम् (नगर), अजिरम (आँगन), शृङ्गम् (सींग या शिखर) अकम् (अनाज ), द्वारम् (दरवाजा), बहम् (मोरका पङ्ख), उदु (नक्षत्र), मानसम् (मनका भाव या कर्म वा मानसरोवर तालाब), ध्वान्तम् ( अन्धकार)
और अध्यक्त (आफुट) लिङ्गवाले जो शब्द कहने में प्रयुक्त होते हैं वे सब शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं ] ॥
'कोटि' शब्द को छोड़कर अन्य ‘शत आदि संख्या-वाचक शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं । जैसे- शतम् , सहस्त्रम्, अयुतम्, अर्बुदम् , लपम्,' और लक्षा' शब्द विकल्पसे नपुंसकलिङ्ग होता है पक्ष में स्त्रीलिङ्ग 'लक्षा' होता है। उसी (लक्षा) का पर्याय नियुतम्' भी नपुंसकलिङ्ग है । "कोटि' शब्द स्त्रीलिङ्ग है। 'शतादि' ग्रहण करने से 'विंशतिः, नवतिः, सप्ततिः,......" नपुंसकलिङ्ग नहीं होते हैं ।
२ अस १, इस २, उस् ३, अन् ४, अन्त में हो जिनके ऐसे दो पच (स्वर) वाले शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं। और 'अन' अन्त में हो जिसके ऐसे 'कर्ता' से भिन्न शरद ५,नपुसकलिङ्ग होते हैं । (क्रमश: उदा.-१यशः(= यशस्), पयः (= पयस), मनः (=मनस्),तपः (= तपस् ),.....सर्पिः (= सर्पिस् ), ज्योतिः (= ज्योतिस ), = हविः (= हविष ), ...। ३ धनुः (धनुस् ), वपुः (= वषुस), यजुः (= यजुस ), + +। वर्म (= वर्मन्), चर्म (= चर्मन् ), कर्म (= कर्मन् ), साम ( सामन् ), ....."। ५ गमनम् , १. 'कोटि-कक्षा' शब्दयोस्त्रीलिङ्गत्वे उदाहरणम्
'कियती पत्रसहस्रा कियती लयाऽथ कोटिरपि कियती। औदार्योन्नतमनसा रस्नमती वसुमती कियती' ॥ १॥ इति ।
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लिङ्गादिसंग्रहवर्गः ५] मणिप्रमाव्याल्यासहितः।
५३६ १ त्रान्तं सलोपधं शिष्टं रात्रं प्राक्सलन्ययान्वितम् । २ पात्राद्यदन्तरेकार्यों द्विगुर्लक्ष्यानुसारतः ॥ २५ ॥ ३ द्वन्द्वैकत्वान्ययीभावी
मिणम् , साधनम् , पचनम्,.....)। 'कर्तृभिन्न ग्रहण करनेसे 'रमणः, मधुसूदनः, मदना,....' नपुंसकलिन नहीं होते हैं।
शेष (पूर्वोत्तसे बचा हुमा अर्थात् अबाधित) ब्रान्त ('' अन्त में हो जिन के वे), स., ल (+न) ३, उपधा' (अन्त के पूर्व) में हो जिनके वे शब्द, संख्यावाचक शब्द पूर्व में जिनके हो ऐसे 'रात्र' शब्द अर्थात् संख्यापूर्वक 'रात्र' शब्दान्त शब्द ४, नपुंसकलिग होते हैं। (क्रमशः उदा०-१ (नान्त) जैसे--वहित्रम्, वस्त्रम, पात्रम्, अमत्रम्, "( सोपध ) जैसे-त्रपुसम, घिसम, अन्धतमसम्, बुसम,.....१३ (लोध) जैसे-कुलम्, मूलम, तूलम्, शूलम,...",। +३ (नोपध) जैसे-भुवनम्, वनम्,..")। * (संख्या-पूर्वक रात्र-शब्दान्त) जसे-पवरात्रम्, त्रिरात्रम्, षड्रात्रम्,....") । 'शिष्ट' ग्रहण करनेसे 'पुत्रः, नृत्रः, हंसः, कंसा, पनसा, कालः, गल: (+जनः, स्येनः, स्वप्नः),........' और 'संख्या' प्रहण करने से 'अर्धरात्र, मध्यरात्रा, पूर्वरात्रः,...' नपुंसकलिङ्ग नहीं होते हैं ।
२ 'पात्र' आदि अदन्त शब्दोंके साथ एकार्थ (समानार अर्थवाले) द्विगु शब्द लचयके अनुसार नपुंसकलिङ्ग होते हैं। (जसे-पञ्चपास्त्रम्, चतुर्युगम्, त्रिभुवनम् ........")। 'पात्रादि ग्रहण करनेसे 'त्रिलोकी, त्रिवेदी,........." 'एकार्थ' ग्रहण करने से 'पञ्चकपालः (पाँच कपाल में पकाया हुआ) पुरोसशः,.......' और 'लक्ष्यानुसारत' ग्रहण करनेसे 'त्रिपुरी, पञ्चमूली,......." नपुंसकलिङ्ग नहीं होते हैं।
द्वन्द्व समासमें एकरव ( एकार्यक अर्थात् समाहार ) १, और अव्ययी. भाव समासवाले शब्द २, नपुंसकलिङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-पाणिपादम, शिरोग्रीवम्, मानिकपाणविकम............। १ अधिस्त्रि, अधिगोपम्, द्विमुनि, त्रिमुनि, तिष्ठद्गु,.....").
१. 'मलोऽन्स्यास्पूर्व उपधा' (पा० सू० १॥ १।३५) इत्यनेनास्यात्पूर्वो वर्ण 'उपधा संघको मति ।
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.
अमरकोषः।
[सीवकाण्डे
-१पथः सङ्याव्ययात्परः। २ षष्ठयाश्छाया बहूनां चेद्विच्छायं ३ संहती सभा ॥ २६ ॥ शालार्थापि परा राजामनुण्यार्थादराजकात् ।
, 'संख्या १, अव्यय २, से परे कृतसमासान्त' (समासान्त 'अच्' प्रत्यथान्त ) 'पथिन्' शब्द नपुंसकलिङ्ग होता है। (कमशः उदा०-, द्विग्थम् , त्रिपथम् ,......। विपथम , कापथम् ......")। 'संख्याध्यय' ग्रहण करनेसे 'धर्मपथा,..." में 'पथ' (कृतसमासान्त) ग्रहण करनेसे 'अतिपन्थाः, सुपन्या,......में नपुंसकलिङ्ग नहीं होता है।
२ षष्यन्त (षष्ठी विभक्ति जिसके अन्त में रहे उस) से परे कृतसमासान्त 'छाया' शब्द नपुंसकलिङ्ग होता है, यदि वह छाया बहुतोंकी' रहे तक। ('जैसे-इच्छायम , वीना पति छापा विच्छायम , वृद्धानां छाया वृद्ध
छायम् ,.....")। 'बहूनां चेत् (बहुतोंकी छाया रहे तब ) ग्रहण करनेसे 'वृक्षस्य छाया वृक्षच्छाया,......" में नपुंसकषित नहीं होता है ।
३ षष्ठयन्तसे परे (आगे) रहनेपर समूहाक (समूह अर्थवाला) 'समा' शब्द १, षष्ठयन्तसे परे रहनेपर गृहायक (गृह अर्थवाला) और 'मपि' शब्दसे समूहार्थक 'सभा' शब्द अराजक ('राज' शब्दसे मिन) राजा. र्थक (रान पर्यायवाले) २, अमनुष्यार्थक ( मनुष्य अर्थसे भिन्न ) ३, नपुंसक. लिङ्ग होता है। ('क्रमशः उदा०-1 दासोसमम् , ब्राह्मणसभम् ,"...। नृपसभम , इनसभम् , प्रभुलभम् ,..." रासमम् , पिशाचसमम् , ......')। 'संहती (समूहार्थक) ग्रहण करनेसे 'दासीमा समा गृहम इस विग्रहमें 'दासीसमा यहापर, 'षष्ठया(पन्तसे परे रहनेपर) ग्रहण करने. से 'नृपतिविषये सभा 'नृपतिसमा' बहाँपर, नृगा पतिर्यस्यां सा नृपतिः सा चासो सभा च' यह विग्रहकर कर्मधारय समास करनेसे 'नृपतिसमा यहाँपर, 'अराजक' ('राजन्' शब्दसे मिट) ग्रहण करनेसे चन्द्रगुप्त के राज
१. मूले 'पथ' शब्दोपादानं कृतसमासान्तस्वैव पविन्' शब्दस्य प्राहकशक्तिपरम् ।
२. अत एव भुच्छायनिषादिन्यः..... (.४।२०) इत्येव समीचीनः पाठः।
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टिङ्गादिसंग्रहवर्गः ५ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
दासीसभं नृपसभं रक्षःसभमिमा दिशाः ॥ २७ ॥ १ उपशोपक्रमान्ता • तदादित्यप्रकाशने । कोपशकोपक्रमादि २ कन्धोशीनरनामसु ॥ २८ ॥ ३ भावेनणकचिद्भयोऽन्ये समूहे भावकर्मणोः ।
विशेष होनेके कारण 'चन्द्रगुप्तस्य सभा' इस षष्ठीतत्पुरुषमें भी 'चन्द्रगुप्त प्रभा' यहाँपर, नपुंसकलिङ्ग नहीं होता है ।
१ 'उपज्ञा और उपक्रम' का प्राथस्य प्रकाशन करना हो तो पष्ठधन्त से परे उपज्ञान्त ( जिसके अन्त में 'उपज्ञा' शब्द हो वह) शब्द १, 'उपक्रमान्त' (जिस के अन्त में 'उपक्रम' शब्द हो वह ) शब्द २, नपुंसकलिङ्ग होता है । ( 'क्रमशः उदा० -१ कस्योपज्ञा कोपज्ञं सर्गः, चन्द्रोपज्ञमसंज्ञकं व्याकरणम्, पाणिन्युपज्ञमकाक्ष्यकं व्याकरणम् ११ कस्योपक्रमः कोपक्रमः सृष्टिः, नन्दोपक्रमाणि मानानि ') । 'तदादित्व प्रकाशने' ग्रहण करने से 'देवदत्तोपज्ञा मृन्मयः प्रकारः, देवदत्तोपक्रमो रथः, ' में नपुंसकलिङ्ग नहीं होता है ॥
,
......
५४५
२ 'उशीनर देशकी जो कन्था' इस अर्थ में संज्ञा ( नाम ) गभ्यमान रहे त षष्ठ्यन्त से परे 'कन्था' शब्द नपुंसकलिङ्ग होता है । ( 'जैसे- सौशमिकन्थम्र, बद्धिककथम् .. ') । 'उशीनर' ग्रहण करने से 'दाक्षिकन्या' ( यह नाम बाह्वोक देशमें प्रसिद्ध है ) यहाँपर, और 'नाम' ग्रहण करने से 'चैत्र कन्था' ( यह संज्ञा नहीं है ) यहाँ पर नपुंसकलिङ्ग नहीं होता है ॥
......"
,
३ न, ण, क, चित् ( 'च' की जिसमें ' इस्संज्ञा हुई हो ) प्रत्यय से भिन्न जो भाव में विहित 'कृत्संज्ञक अदन्त प्रत्यय १, और समूह अर्थ में भाव-कर्म में विहित जो अकारान्त तद्धित प्रत्यय २, तदन्त शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ भूतम्, भवनीयम्, भवितम्यम्, भव्यम्, ब्रह्मभूयम्, सांराविणं वर्तते, सांकुटिनं वर्तते, ......7 1 २ ( समूह में तद्धित ) जैसे - भैवम्, औपगकम्, कैदार्यम्, कैदारकम्, राजकम्, यौवतम् औषकम् भावमै
|
·
"
-
१. प्रत्ययादौ वर्तमानस्य चस्य 'चुटू' ( पा० सू० १ । ३ । ७ ) इत्यनेन प्रत्ययादेरन्ते वर्तमानस्य च 'इलन्त्यम्' ( पा० सू० १ । ३ । ३ ) इत्यनेनेरसंशा विधीयते ।
२. 'कृदति' ( पा० सू० १ । १ । ९३ ) इत्यनेन कृत्संज्ञा विधीयते ।
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४२
अमरकोषः।
[तृतीयकाडेअदम्तप्रत्ययाः १ पुण्यमुदिनाभ्यां त्वहः परा ॥ २९ ॥ २ कियाध्ययानां भेदकान्येकत्वेऽयुक्थितोटके ।
'चोचं पिच्छं गृहस्थूणं तिरोटं मर्म याजनम् ॥ ३०॥ राजसूयं वाजपेयं गद्यपधे कृती कः।
गोस्वम्, शौचम्,.....'कर्ममें-शौक्ल्यम्, राजपम्, चौर्यम् , .......")। नणकविद्भयोऽम्ये' ग्रहण करने से 'प्रश्नः, यस्ना, स्वप्नः, न्यादा, माखूस्था, वेनः, चयः, जयः, कारणा, हारणा, ......' में नपंसकलिङ्ग नहीं होता है ॥
पुण्य , सुदिन २, शब्दसे परे 'कृतसमासान्त 'महन्' शब्द नपुंसक लेग होता है। ('क्रमशः उदा.-1 पुण्याहम् , . सुदिनाहम्')। 'अहः' रहण करनेसे पुण्यानि अहानि यस्मिन्मासि स 'पुण्याहा' ( = पुण्याहन्) हाँपर नपुंसकलिङ्ग नहीं होता है ।
रक्रिया । और अव्यय १ के विशेषण नपुंसकलिङ्ग और एकवचन होते ।। ('क्रमशः उदा०- मृदु पचति, मन्दं करोति, सुखं तिष्ठन्ति योगिता, ....... ।। रम्यं श्वः, सुख प्रातः, ......")
३ अब नपुंसकलिङ्गबाले कुछ शब्दोको कण्ठरब से स्वयं कह रहे हैं। 'उक्थम्' (सामभेद ), ताटकम् (१० अक्षरवाले 'पति' जातीय वृत्तका छन्दो-विशेष). चोचम् (जूठा छोड़ा हुआ, तालफड, कदली-फ), पिच्छम् (मोरका पंख ।+ 'उक्तम्' अर्थात् एक अक्षरवाला 'उक्का' जातीय 'श्री' आदि छन्दो-विशेष सी. स्वा० । + 'मुक्तम्' अर्थात् छूटा हुआ मा. दा.), गृहस्थ्गम (धरम लगा हुआ खम्भा), तिरीटम् (शिरका बेठन, साफा, पाडो आदि, शिाका भूग), मर्म (= मर्मन् , सन्धिस्थान, हृदय आदि मर्म स्थल), योजनम् (चार कोसका लम्बे रास्ते भादिका प्रमाण-विशेष), राजसूयम् ( राजसूय नामका यज्ञ-विशेष ), वाजपेयम् (वाजपेय नामका यज्ञ-विशेष), गद्यम् (कवि रचिता विना छन्दकी शब्द-योजना, जैसे-दशकुमार, कादम्बरी आदि प्रन्यों में है), पचम् ( कवि-रचित छन्दसे युक्त
१. 'चोचमुक्तम्' इति क्षी० स्वा. पाठान्तरम् । मा. दो• तु 'मुक्तम्' इति पाठे 'मुच्ल मोचने' इत्यस्मात् 'क्त' प्रत्ययेन साधितवान् ।
२. 'चित्-धयनं श्वयथुः' इति क्षो० वा. उदाहरण चिस्यम् । तस्वाइनसामावार ।
३. मूले 'मह' इति कृतसमासान्तस्याहन्छन्दस्वानुकरणम् ।
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५४३
विनादिसंग्रहवः ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
'माणिक्यभाष्यसिन्दूरवीरचीवरपिलरम् ॥ ३१ ॥ लोकायतं हरिताल विश्लस्थालबालिकम् ।
इति नपुंसकलिंगसंग्रहः ।
अथ पुनपुंसकलिंगसंग्रहः । १ पुनपुंसकयोः शेषोऽधचपिण्याककण्टकाः ॥ ३२॥
लोक आदि, जैसे-रघुवंश, कुमारसंभव, नैषधचरित, मादि काम्यादि प्रन्यों में है), माणिक्यम् (रत्न, जवाहिर), माध्यम (जिसमें सूत्र के अनुसार पदोंकी व्याख्या हो और अपने पदकी भी विवेचना की गई हो ऐसा ग्रंथ-विशेष, जैसे-पा० सू० पर पातअलमाष्य, वेदान्तसूत्रपर शाङ्करभाष्य,.....), सिन्दूएम (सिन्दूर ), चीरम् ( कपड़ा), चीवरम् (मुनियों का वन), पिजाम (+ परम । चिरिया आदि पाल नेका पिंजड़ा ), लोकायतम् (तक), हरितालम (हरताल नामका औषध विशेष ), विदलम् (बाँसका बर्तन विशेष ), स्थालम् ( भोजनपान विशेष), बाह्निकम् (बह देशमें होनेवाला, कुङ्कुम । + 'बाहाम्' अर्थात् बह्न देशसे होनेवाला ), ये २५ शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं ।
इति नपुंसकलिंगसंग्रहः।
अथ पुनपुंसकलिंगसंग्रहः । १ यहाँसे आगे 'स्त्रीपुंषयोः .....' (३१५३७) के पहले 'पुनपुंसकयो। इसका अधिकार होने से इसके मध्यवर्ती ( बीच वाले ) शेष (पूक्तिसे भिन्न ) शब्द 'पुंल्लिंग और नपुंसकलिंग' होते हैं ।
१ अर्धर्चः अर्धर्चम् (ऋचाका आधा ), पिण्याकः पिण्याकम् (तिल की खली), कण्टकः कण्टकम् (काँटा), मोदकः मोदकम् (मिठाई, लड्डू.), तण्डका
१. ... 'पञ्चरम्' इति पाठान्तरम् । २. 'विदल स्थाल बाहाम्' इति पाठान्तरम् । ३. 'भाष्य' लक्षणं पराशरपुराण उक्तं तद्यथा
सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र वाक्यैः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वय॑न्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः॥१॥ इति ।
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288
अमरकोषः ।
मोदकस्त ण्डकष्टङ्कः शाटक: 'कर्पटोऽर्बुदः । पात कोद्योगचरकतमालामलका नड: ॥ ३३ ॥ कुष्ठं मुण्डंशीधु 'बुस्तं क्ष्वेडितं क्षेम कुट्टिमम् ।
तण्डकम् ( परिष्कार क्षी० स्वा०, उपताप विशेष महे० । + 'दण्डकः दण्डकम् " अर्थात् दण्ड या कपड़ा बुनने का काष्ठ- विशेष ), टङ्कः टङ्कम् ( पत्थर चीरने की
की ), शाटक: शाटकम् ( साड़ी ), कर्पटः कर्पटम् ( स्थान- भेद या वस्त्र भेद । + 'खर्वटः खर्वटम्' अर्थात् नदी और पहाड़ से मिश्रित स्थान महे० भा० नी०, ४०० ग्रामका संग्रहस्थान क्षी० स्वा० ), अर्बुदः भर्बुदम् ( आँखका रोगविशेष, दस करोड़ की संख्या ), पातकः पातकम् (ब्रह्महत्या आदि पाप), उद्योगः उद्योगम् (उद्योग), चरक चरकम् (चरक नामका वैद्यक ग्रन्थ । + 'वरकः वरकम् ' अर्थात बुना हुआ कपड़ा ), तमालः तमालम् ( तम्बाकू, सुर्ती ), आमलक: आमलकम् (वलेका फल ), नड: नडम् (भीतरी बिल, नरसल नामका तृणविशेष ), कुष्टम् कुष्ठः ( कोद रोग ), मुण्डम् मुण्डा ( शिर ), शीधु शीधुः (मदिरा), बुस्तम् बुस्त: ( + वुस्तम् वुस्त:, पुस्तम पुस्तः, श्वस्तम् श्वस्तः, चुस्तम् चुस्तः । मांस की पुड़ी क्षी० स्वा०, भूना हुआ मांस, कटहल आदिका सारभाग), वेडितम् च्वेडितः ('वीरोंका सिंहके समान गर्जना, ) क्षेम क्षेमा ( = क्षेमन् । कुशल ), कुट्टिमम् कुट्टिम: ( मणि-पत्थर आदि जड़ा हुआ फर्श ), संगमम् संगम: ( दो नदी आदिका मिलाना ), शतमानम् शतमानः ("चार रुपया भरका - विशेष ), अर्मम् धर्मः ( आँखका रोग-विशेष ), शम्बलम् शम्बलः ( + सम्बलम् सम्बलः । रास्ते का कलेवा ), अव्ययम् अव्ययः (व्ययका न होना,
प्रमाण
१. 'खटोऽर्बुदः' इति पाठान्तरम् ।
२. 'पातकोद्योगवरकतमाला मलका' इति पाठान्तरम् ।
३. 'वुस्तम्, चुस्तम पुस्तम्, श्वस्तम्' इति पाठान्तराणि । ४. 'खवंट' लक्षणं यथा
"यत्रैकतो भवेद्ग्रामो नगरं चैकतः स्मृतम् ।
,
मिश्रं तु खर्वटं नाम नदीगिरिसमाश्रयम्' ॥ १ ॥ इति । ५. 'शतमान 'लक्षणं स्मृतावुक्तं तद्यथा
"द्वे कृष्णले रूप्यमाषी धरणं षोडशैव ते ।
शतमानं तु दशभिर्धरणैः पलमेव च ॥ १ ॥ इति ।
[ तृतीयकाण्डे
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नादिसंग्रहवर्ग: ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
५४५ संगमं शतमानार्मशम्बलाव्ययताण्डवम् ॥ ३४॥ कवियं 'कन्दकर्पासं पारावारं युगन्धरम् । 'यूपं प्रग्रीवपात्रीवे यूषं चमसचिसो ।। ३५ ।। अर्धर्चादी घृतादीनां पुंस्त्वाचं वैदिकं भूवम् । तन्नोक्तमिह लोकेऽपि तच्चेदस्त्यस्तु शेषषत् ।। ३६ ।।
इति पुनपुंसकलिङ्गसंग्रहः।
लेग और संख्याले रहित सब cिङ्गों और वचनों ने तुल्य रूपवाला ('अव्यय' 'संज्ञक शब्द-भेद), तास्वम् ताण्डवः (नाचना), कवियम् कवियः (लगाम), इन्दम् कन्दः ( + कर्म । सूरन कन्दा बण्डा भादि कन्द), कर्पासम् कक्षा
कपास, रूई), पारम् पारः ( नदी आदिका पार अर्थात् दूसरा किनारा), पवारम् अवारः (नदी आदिके इघरका किनारा), युगन्धरम् युगन्धरः 'जिसमें घोड़े बैल आदि जोते जाते हैं वह रथका लम्बा काष्ठ-विशेष), यूपम्
पः ( यज्ञमें पशु बाँधने का खम्भा। + 'पूयम् पूयः' अर्थात् पीब), प्रग्रीवम् ग्रीवः ( खिड़की), पात्रीवम् पात्रीवः (यज्ञ-पात्र-विशेष), यूषम् यूषः (माँर), बमसः चमसम् (यज्ञ-पान-विशेष), चिकस: चिकसम् (यज्ञ-पान-विशेष रहे०, यवका भाटा सी. स्वा०), ये ४० शब्द पुंल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग होते हैं।
१ अर्धर्चादिगण में 'घृत' आदि शब्दके जो लिङ्ग आदि (नपुंसकलिङ्ग) कहे गये हैं, वे निश्चय वैदिक हैं अर्थात् उनका वेदमें ही प्रयोग होता है । असएव यहाँ लोकमें वे नहीं कहे गये हैं। यदि प्रमाद भादिसे लोकमें भी दोनों लिङ्ग के प्रयोग मिल जाय तो शेष (अवशिष्ट) शब्दों के समान उनका भी मुशिङ्ग और नपुंसकलिङ्गमें प्रयोग होता है।
इति पुनपुंसकलिङ्गसंग्रहः ।
१. 'कर्मकर्षासम्' इति पाठान्तरम् । २. 'पूयम्' इति पाठान्तरम् ।।
३. 'अव्यय लक्षणं 'तद्धितश्वास'.' (पा० सू० १ । १। ३७) इति सूत्रीयपातजम्माष्य उक्तं तद्यथा
'सदृशं त्रिषु लिनेषु सर्वासु च विमक्तिषु ।
वचनेषु च सर्वेषु या ज्येति तदम्ययम् ॥१॥इति ॥
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अमरकोषः ।
अथ खीपुंल्लिङ्गसंग्रहः ।
१ स्त्रीपुंसयो २ रपत्यान्ता ३ द्विचतुःषट्पदोरगाः । जातिभेदाः ४ पुमाख्याश्च स्त्रीयोगैः सह ५ मल्लकः ॥ ३७ ॥ 'ऊमिर्वराटकः स्वातिर्वर्णको झाटलिर्मनुः ।
५४६
अथ खीपुंलिङ्गसंग्रहः ।
5
१ यहाँ आगे 'खोनपुंसकयो:- ( ३/५/३९ ) के पहले तक 'स्त्रीपुंसयो:' का अधिकार होने से इसके मध्यवर्ती ( बीच वाले ) शब्द 'स्त्रीलिङ्ग और पुंल्लिङ्ग' होते हैं ॥
'अपस्य' अर्थ विहिन प्रत्यय जिनके जन्मे हों वे शब्द स्त्रीलिङ्ग और होते हैं। ( 'जैसे- 'उपगोरपश्यम् औपरादः औपगवी; इसी तरह गार्ग्यः गार्गी वैदेहः वैदेही, वासिष्ठः वासिष्ठी )। इनमें पहला 'औपगव' शब्द लिङ्ग और दूसरा 'औपगवी' शब्द स्त्रीलिङ्ग है, इसी तरह अन्यत्र भी सम्झना चाहिये ॥
३ जाति-भेद द्विरद (दो पैरवाले) १, चतुष्पद (चार पैरवाले) २, षट्पद (छः पैरवाले) ३, और उरग (सर्प) शब्द स्त्रीलिङ्ग और पुंल्लिङ्ग होते हैं । ('क्रमशः उदा०- - १ मानुषः मानुषी, ब्राह्ममः ब्राह्मणी, शूद्रः शूद्रा, पुरुषः पुरुषी, "I २ सिंहः सिंही, अजः अजा, मृगः मृग, व्याघ्रः व्याघ्री, मार्जारः मार्जारी, ་། ३ भ्रमरः भ्रमरी, भृङ्गः भृङ्गी, षट्पदः पट्पदी, ..... I ४ उरगः उरंगी, नागः नागी, सर्पः सर्पिणी, .........)॥
४ स्त्री- योग के साथ पुंस् ( पुरुष ) वाचक शब्द स्त्रीलिङ्ग और पुंल्लिङ्ग होते है । ( 'जैसे - मातुलः मातुलानी-मातुली, इन्द्रः इन्द्राणी) । ( कोई २ उयाख्याकार 'पुमाख्याच स्त्रीयोगेः' इसका सम्बन्ध पूर्वक ही साथ करते हैं )
[ तृतीयकाण्डे
५] अब कुछ स्त्रीलिङ्ग और पुंल्लिङ्ग शब्दोंको स्वयं कहते हैं - 'मलका, मलिका ( पुष्प - छता- विशेष, बेलाका फूल ), ऊर्मिः ( पानीका तरङ्ग । + gfa: अर्थात् ऋषि तपस्विनी ), वराटकः जगटिका ( कौड़ी ), स्वातिः ( + स्वाती । स्वाती नामका पन्द्रहवाँ नक्षत्र), वर्णकः वर्गिका ( चन्दक ), झाटलि: ( पलाश वृक्ष के तुल्य वृक्ष - विशेष ), मनुः मनायो -मनावी- प्रनुः (मनुस्मृतिके निर्माता
१. 'मुनिर्वराटक:' इति पाठान्तरम् ।
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लिङ्गाविसंग्रहवर्गः ५] मणिप्रभाध्याख्यासहितः। ५४७ मूषा सृपाटी कर्कन्धूर्यष्टिः शाटी कटी कुटी।। ३८ ॥
इति स्त्रीपुंल्लिङ्गसंग्रहः ।
अथ स्त्रीनपुंसकलिङ्गसंग्रहः। १ स्त्रीनपुंसकयो २ र्भावक्रिययोः व्यचिञ्च वुत्र !
औचित्यमौचिती मैत्री मंत्र्यं प्रागुवाहतः ।। ३९ ॥ ३ षष्टयन्तप्राक्पदाः सेनाछायाशालामुरानिशाः । मनु या मनुष्य, मानुशी), मूषः मूषा (सोना-चाँदी क्षादि धातु गलाने की धरिया), सपाटः सपाटी (परिमाण-भेद), कर्कन्धूः (बैर-), यष्टिः (छड़ी, लाठी), शारः शाटी (साड़ी). कटः कटी ( कमर ), कुटः कुटी ( कुटिया ), ये शब्द स्त्रीलिङ्ग और पुखिकङ्ग होते हैं । ( इनमें एक रूपवाले शब्द दोनों लिङ्गमें तुल्यरूप होते हैं )।
इति स्त्रीपुंल्लिङ्गसंग्रहः ।
अथ स्त्री नपुंसकलिङ्गसंग्रहः । । यहाँसे आगे 'त्रिषु' (३।५।४१) के पहले 'स्त्रीनपुंसकयोः' इसका अधिकार होने से इसके मध्यवर्ती ( बीचबाले ) शब्द 'स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग'
. भाव और कर्म में विहित व्यञ् । और बुञ् । प्रत्ययान्त शब्द कहींकहीं (सर्वत्र नहीं किन्तु लचपानुसार ) स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-१ (व्या प्रत्ययान्त ) जैसे-औचिस्यम् औचितो, मध्यम् मैत्री, सामप्रयम् सामग्री, आईन्स्यम् भान्ती,....। १ (वुन् प्रत्ययान्त) का 'वैस्मैथुनकादिवु (२५४ ) में उदाहरण दिया गया है')। 'क्वचित्। (कहीं २ सर्वत्र नहीं ) ग्रहण करनेसे 'शौक्ल्यम् , ब्रह्मण्यम् , रामणीयकम् , साहाय्यकम् , शैष्योपाध्यायिका, गार्गिका, काठिका....." यहापर दोनों लिङ्ग (स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग) नहीं होते हैं ।
३ षष्ठयन्त पूर्वपदमें रहनेपर सेना १, छाया २, शाला ३, सुरा ४, निशा ५, विकलरसे स्त्रीलिङ्ग (स्त्रीलिङ्ग और पक्ष में नपुंसकलिङ्ग) होते हैं । ('क्रमशः उदा०-1 नृसेनम् नृपेना, राजसे नम राजसेना,.....। वृक्षच्छायम् वृक्षच्छाया, कुड्यच्छायम् कुडयच्छाया,....' । ३ गोशालम् गोशाला, पाठ.
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५४८ अमरकोषः।
[ तृतीयकास्याद्वा तृसेनं श्चनिशं गोशालमितरे च दिक् ॥ ४०॥ १ आबन्नन्तोत्तरपदो द्विगुश्चापुंसि नश्च लुप्। विखट्वं च त्रिखट्वी च त्रितक्षं च त्रितक्ष्यपि ॥४१॥
इति स्त्रीनपुंसकरिङ्गसंग्रहः ।
अथ त्रिलिङ्गसंग्रहः। २ त्रिपु३ पात्री पुटी वाटी पेटी कुवलदाडिमो।
इति त्रिलिङ्गसग्रहः ।
४ परं लिझं स्वप्रधाने द्वन्द्व तत्पुरुषेऽपि तत् ॥ ४२ ॥ शालम् पाठशाला, पाकशालम पाकशाला,... । ४ यवसुरम्यवसुरा,..... । ५ श्वनिशम श्वनिशा,.....")
, 'आप !, अन् २, प्रत्ययान्त शब्द उत्तरपदमें ( भागे ) रहें तो द्विगु समासमें वे शब्द 'नपुंसकलिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग होते हैं तथा 'अन्' प्रत्ययके 'न्' का लोप होता है। ('क्रमशः उदा०-१ विखट्वम त्रिखट्वी,..."। वित. सम् , त्रितक्षी,.....)
इति स्त्रीनपुंसकलिङ्गसंग्रहः ।
अथ त्रिलिङ्गसंग्रहः । १ यहाँसे आगे 'परवल्लिङ्ग......' (२५४२) के पहले 'त्रिषु' का अधिकार होनेसे इसके मध्यवर्ती ( बीचवाले) सब शब्द त्रिलिङ्ग होते हैं।
३ यहाँ स्वयं कुछ त्रिलिङ्ग शब्दोंको कहते हैं-पानी पात्रम् पात्रः (वर्तन ), पुटी पुटम् पुटः ( ढक्कन ), वाटी वाटम् वाटः (आच्छादन, घेरा), पेटी पेटम् पेटः (बेंत भादिका बक्स), कुवलः कुवली कुवलम् (बैरका फल ), दाडिमा दाडिमी दाडिमम् (अनार), ये ६ शब्द त्रिलिङ्ग होते हैं।
इति त्रिलिङ्गसंग्रहः ।
४ स्वप्रधान (उभयपदप्रधान) इतरेतर द्वन्छ समासमें १, और तत्पुरुष समासमें २, पर (गे) वाले शब्दके समान लिग होता है। जैसे-इमे कुक्कुटमयूग्यौं, इमो मयूरीकुक्कुटी;......१२ भयं कुलब्राह्मणः, इदं ब्राह्मणकुलम् । इयमपिप्पली, अयं चन्द्राधा; इयं समीतिः, इदं सर्पभषम् ;.......)
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लिङ्गादिसंग्रहवर्गः ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ अर्थान्ताः प्राधलंप्राप्तापन्नपूर्वाः परोपगाः ।
तद्धितार्थो द्विगुः सङ्ख्यासर्वनामतदन्तकाः ।। ३ ।। २ बहुव्रीहिरदिङनाम्नामुन्नेयं तदुदाहृतम् । २ गुणद्रव्यक्रियायोगोपाधिभिः परगामिनः॥४४॥
, अर्थान्त ('अर्थ' शब्द जिसके अन्त में हो वह ) १, २, मादि (अति ३, सु ४, ...... ), अलम् ५, प्राप्त ६, भापन्न ७, पूर्व में जिन के रहें वे शब्द, तद्वितार्थ द्विगु ८, संख्यावाचक ९, सर्वनाम १०, संख्यान्त (संख्या-वाचक शब्द जिन के अन्त में रहें वे) , सर्वनामान्त (सर्वनाम जिनके अन्त में रहे वे) ११, शब्द त्रिलिग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-1 द्विजा माला, द्विजार्थः सूपः, द्विजार्थ पयः,...... । । प्रगन आचार्यः प्राचार्यः, ...... । ('मादि' से संगृहीत । ३ अतिक्रान्तः मालामतिमाला, अतिखटवः,"। ४ सुपूरयः, सुकुलम्, सुनगरी, ...... )। ५ अलविकाय अलोविकः, ..... । ६ प्राप्त जीविको भृत्या, प्राप्तग्राम कुलम , ...... । ७ आपन्न जीविको मनुष्या, आपन्न जीविका दासी,....। ८ पञ्चकपालः, पुरोडाशः, पञ्चकपालं पयः,..... । ९ एको विप्रा, एका वधूः, एकं वनम् द्वौ बाल को, द्वे बालिके, द्वे वाससी, बहवो विप्राः, बतयः विप्रपन्यः, बहूनि वस्त्राणिः ...... | 10 सर्वः, सर्वा, सर्वम; पूर्वः, पुरुषः, पूर्वा दिक, पूर्व नगरम, .....।।उनत्रयो ब्राह्मगः, ऊनतिस्रो वधः, ऊनत्रीणि वस्त्राणि; ...... । १२ परमसी , परमसर्वा, परमसर्दम् ; ......")॥
२ 'दिङ्नाम' से भिन्न बहुव्रीहि ब्रिलिङ्ग होता है। ('जैसे-बहुधना, बहुधना, बहुधनम्। .......')। 'आदिङ्नाम्नाम्' के ग्रहण करनेसे 'उत्तरस्यां पूर्वस्यां च मध्ये या दिक सा 'उत्तर पूर्वा' दिक,.....' में त्रिलिङ्ग नहीं होता है।
३ गुण 1, द्रव्य २, क्रिया ३, का योगनिमित्त है जिनका वे शब्द त्रिलिङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-१ शुक्ल पटः, शुक्ला शाटी, शुक्लं वस्त्रम् । कृष्णो देहः, कृष्णा तनुः, कृष्णं शरीरमा .... । २ दण्डी पुरुषः, दण्डिनी स्त्री, दणि कुलम् ........। ३ पाचको विप्रा, पाचिका ब्राह्मगी, पाचकं विप्रकुलम्;.....
१. 'गुणद्रव्यक्रियायोगोपाधयः' इति पानन्तरम् ।
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अमरकोषः।
[तृतीयका डे१ कृतः कर्तर्यसंज्ञायां २ कृत्याः कर्तरि कर्मणि । ३ अणायन्तास्तेन रक्ताद्यथे नानार्थभेदकाः॥४५॥ ४ षट्संबकास्त्रिषु समा युष्मदस्मत्तिव्ययम् ।
, कर्ता अर्थ में विहित संज्ञाभिन्न (नामको छोड़कर ) 'कृत्' प्रत्ययान्त शब्द त्रिलिंग होते हैं । (जैसे-कर्ता पुरुषः, की स्त्री, कर्तृ कलनम् ; कुम्भकारः पुरुषः, कुम्भकारी स्त्री, कुम्भकारं कलत्रम् ;"...")। 'असंज्ञायाम् ग्रहण करनेसे 'ग्रहः, व्याघ्रः, धनञ्जयः, हरिः, प्रजा, ... ... ' में और 'कर्तरि' ग्रहण करने से 'कृतिः, ...' में त्रिलिङ्ग नहीं होता है ।
२ कर्ता १ और कर्म ३ अमें विहित संज्ञाभिन्न 'कृत्य' प्रत्ययान्त शब्द त्रिलिङ्ग होते हैं। ('क्रमशः उदा०-1 वास्तव्यः, वास्तव्या, वास्तव्यम्...। . कर्तव्यो धर्मः, कर्तव्या गुरुजनसेवा, कर्तव्यं सन्ध्योपासनम् ; ......")। 'कर्तृकर्मणोः' के ग्रहण करने से स्थातव्यं वया, ब्रह्मभूयम्, एधितव्यं स्वया...' में त्रिलिन नहीं होता है।
. 'उससे रँगा गया है' आदि ('आदि' से 'भागन, युक्त २, देवता ३, दृष्ट १, .....') अर्थमें विहित 'अण' १, आदि प्रत्ययान्त शब्द त्रिलिङ्ग होते हैं। (जैसे-हारिद्रः पटः, हारिद्री शाटी, हारिद्रं वस्त्रम् ; कोसुम्भम्, कौसुम्भी, कौसुम्भा, लाक्षिकः, लातिकी, लाक्षिकम् ; ....... । ('आदि' से संगृहीत । 'भागत' अर्थमें जैसे-माथुरो विप्रः, माथुरी महिषी, माथुरं वस्त्रम् ;.....। २ कार्तिकी पौर्णमासी, कार्तिको मासः, कार्तिकं दिनम् .. ३ ऐन्द्रो मन्त्रः, ऐन्द्री ऋक्, ऐन्द्रं हविः' । ४ वासिष्टी मन्त्रः, वासिष्ठी ऋक् , वासिष्ठं साम;..')। इसी तरह अन्यान्य अर्थ और उदाहरणों का तर्क स्वयं कर लेना चाहिये')॥
४' षट्संज्ञक , युष्मद् २, अस्मद् ३, अव्यय ४, और तिङन्त ५, शब्द तीनों लिङ्गों में समान रूपवाले होते हैं। (क्रमशः उदा०-१ कति पुरुषाः, कति सिया, कति वस्त्राणि; षञ्च षट् सप्त अष्टौ वा ब्राह्मणाः, पञ्च षट सप्त अष्टौ वा ब्राह्मण्यः, पञ्च षट सप्त अष्टौ वा वस्त्राणि; ...... । २-३ स्वम् महं वा पुरुषः, स्वम् अहं वा स्त्री, स्वम् अहं वा कुलम् .......... | ४ उच्चैः
१. 'डति च' (पा० स० १।१२२५) इत्यनेन 'कति' शब्दस्य, ष्णान्ताः षट' (पा० सू० १।१।२४) स्यनेन च 'पञ्चन् , षट, सप्तन् , अष्टन् , नवन्' आदि नान्तशब्दानां 'षट' संवा विधीयते।
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५५१
लिङ्गादिसंग्रहवर्गः ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १ परं विरोधे २ शेषं तु ज्ञेयं शिष्टप्रयोगतः : ४६॥
इति लिङ्गादिसंग्रहवर्गः ॥५॥
नीचैः पुरस्तात् पश्चाद् का प्रासाद, उच्चैः नीचैः पुरस्तात् पश्चादा पाठशाला, उच्चैः नाचः पुरस्तात् पश्चात् वा गृहम् ,...... । ५ पुरुषः पचति, स्त्रो पचति, कुलं पचतिः ......")॥
१ लिङ्ग-विधायक वचनों को यदि आपस में विरोध ( दो या अधिक वचनों से दो या अधिक लिङ्ग प्राप्त ) हों तो पर ( अन्त) वाला लिा होता है। (जैसे-धी:, भूः,........' में 'स्त्रियामीदूद्विरामैकाच' (३।५।२) चरितार्थ है
और 'कर्ता, पाचकः,.......में 'कृत: कर्तर्य संज्ञायाम् (३१५६४५) चरितार्थ है, फिर नी:, लू:' यहाँ दोनोंकी (१ ले वचनसे स्त्रीलिङ्ग और २ रे वचनसे त्रिलिङ्गकी) प्राप्ति है तब पर ( आगेवाले) वचन से उक्त लिज (त्रिलिङ्ग) ही होगा। इसी तरह अन्यान्य उदाहरणों का तर्क कर लेना चाहिये')॥
२ शेष (बाकी)लि शिष्टों के प्रयोगके अनुसार जानना चाहिये । ('जैसे--, 'चालनी तितउः पुमान्' (२।९।१६) इस वचनसे 'तितउ' शब्दको लिग कहा गया, किन्तु तितह परिवपनं भवति' (पा. भा० पृ. ४२) इस भाष्य के प्रयोगले 'तितउ' शब्द नपुंसकलिङ्ग भी होता है। ३ 'कलिका कोरकः पुमान्' (१।४।१६) इस वचनसे 'कोरक' शब्दको पुंल्लिङ्ग कहा गया है तो भी 'कोरकाणि' इस माघ कविके प्रयोगसे वह 'कोरक' शब्द नपुंसकलिङ्ग भी होता है')। यहाँ जो नहीं कहा गया है उसे लक्ष्यसे समझना चाहिये। ('उदा०-१ अव्यक्त गुण-लिङ्ग में नपुंसकलिङ्ग होता है, जैसे-किं तस्या 'जात' पुमान स्त्री वा... । २'तयप' प्रत्ययान्त धर्मवृत्ति शब्द स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग होते हैं, जैसे-वर्णानां चतुष्टयी, वर्णानां चतुष्टयम् , वेदानां त्रयी, वेदानां त्रयम् , ... । छन्द (वेद) में स्वार्थविहित 'अण' प्रत्ययान्त शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं, जैसे-गायत्री एवं गायत्रम् , अनुष्टुबेवानुष्टुभम् ,..... । ४ 'स्तिप् अन्त में हो जिसके ऐसा इक (इ, उ, ऋ, लू) अन्तवाला शब्द बोलिङ्ग होता है, जैसे-इयं वृद्धिः, इयं पचतिः,...... । ५ 'प्रमाण' आदि शब्द निस्य नपुंसक. लिङ्ग होते हैं, जैसे-वेदाः प्रमाणम् , स्मृतयः प्रमाणम् ,
इति लिङ्गादिसंग्रहवर्गः ॥५॥
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५५२
अमरकोषः।
काण्डसमाप्ति:'इत्यमरसिंहकृतौ नामलिशानुशासने । सामान्यकाण्डस्तृतीयः साझ पर समर्थितः ॥१७॥ इत्यमरसिंहविरचिते 'नामलिलानुशासना' परपर्यायके
'अमरकोषे' तृतीयः 'सामान्यकाण्डः' समाप्तः ।
~~rrrrrrrrrr
काण्डसमाप्तिः, श्री अमरसिंह' के बनाये हुए 'नानलिङ्गानुशासन' (अमरकोष) नामके अन्य सामान्य काण्ड' नामका तीसरा प्रकरण अङ्गसहित समर्थित होकर पूर्ण हुआ।
बुधस्य सन्देहहरो बुधामयः शास्त्राधिनाथो बुध 'लोकनाथः' । शास्त्रार्थकान्तारहरिप्रवीरो विपक्षपद्मस्य हि 'पूर्णचन्द्रः ॥ १ ॥ वेदाङ्गषट्शास्त्रसमुद्रपारङ्गतैर्बुधैश्चापि प्रभातवन्धः । स्वान्तेवसापूरितभू 'त्रिवेदी श्रीदेवनारायण' नामधे ॥१॥ शिरसतद्गुरुश्रेष्ठपादाब्जद्वंदरेणुभिाताभिर्ल धसज्ज्ञानादित्य नष्टमनस्तमा॥३॥ 'विहार' प्रान्त 'आरा' ख्ये मण्डले पावने शुभे । 'केसठ' ग्रामवास्तव्य रामस्वार्थ' सुधीसुतः ॥ ४ ॥ 'हरगोविन्दमिश्राख्यो 'नामलिङ्गानुशासनीम्।
व्याख्या 'मणिप्रभा'नाम्नी व्यधाद्वानोपयोगिनीम् ॥ ५॥ गुरुप्रसादसंलब्धज्ञानेन निर्मिता शुभा। पूज्य गुरुपादाब्जेवेव भूयःसमर्पिता॥६॥ नेत्राङ्काशशाङ्कसंमिततमे श्रीवैक्रमे वस्सरे
भाद्रे मास्यसिते दले वसुतिथौ सौम्ये निशीथक्षणे । कोषस्या मरसिंह'पण्डितकृतेाख्या सुपूर्णा शुभा ।
भूयाच्छात्रगणस्य वोपकृतये लोकस्य विष्णोर्जनिः ॥ ७ ॥ इति पण्डितप्रवरश्री रामस्वार्थमिश्र'तनूज- श्री हरगोविन्दमिश्र विरचितायों ___ 'मणिप्रभाख्या'मरकोष' व्याख्यायां तृनीयः 'सामान्यकाण्डः' समाप्तः ।
१. 'इत्यमर....."समर्थितः रत्ययं श्लोकः केवलं महेश्वरेणेव व्याख्यातः। भा० दी. मूले, क्षी० स्वा० व्याख्यायां च [ ] ईदृक्कोप्टे मूलमात्रमुपलभ्यत इत्यवधेयम् ।। २. 'व वा यथा तथेवैवम्' (२४९) इति ग्रंथकारोक्तरत्र 'वा' शब्द हवार्थक रस्यवधेयम् ।
समाप्तोऽयं प्रन्थः ।
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परिशिष्टम् आदित्याः (१।१।१०)-हरिवंशोक्ता द्वादशादित्यकथाऽत्रोच्यते, तथा हि'मरीचात्कश्य पानातास्तेऽदित्या दक्षकन्यया । तत्र शक्रश्च विष्णुश्च जमाते पुनरेव ह ॥ अर्यमा चैव धाता च त्वष्टा पूषा च भारत। विवस्वान् सविताचैव मित्रोवरुण एव च ॥ अंशो भगश्चातितेजा श्रादित्या द्वादश स्मृताः'। इति शब्दकल्पद्रुमकोशः॥
काश्यान्त्वन्य एव द्वादशादित्याः विद्यन्त इत्युक्तं काशीखण्डे । तथा हिइति काशी प्रभावज्ञो जगचभुस्तमोनुदः । कृत्वा द्वादशधाऽऽस्मानं काशीपुर्या व्यवस्थितः॥ लोकार्क उत्तरार्कश्च शम्बादित्यस्तथैव च । चतुर्थो द्रुपदादित्यो पद्धकेशवसङ्गको ॥ दशमो? विमलादित्यो गङ्गादित्यस्तथैव च । द्वादशश्च रमादित्यः काशीपुय्या पटोद्भव ॥ तमोऽधिकेभ्यो दुष्टेभ्यः क्षेत्रं रक्षन्त्यमी सदा।
इति काशीखण्डे अ० ४६; वाचस्पत्याभिधानस्य ३८०६ तमे पृष्ठे ॥ यथा वा-विष्णुधर्मोत्तरे भारते चोक्ता द्वादशादित्याः'धाता मित्रोऽर्यमा रुद्रो वरुणः सूर्य एव च । भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा।
एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्दादश उच्यते' । इति ॥ द्वादशमानभेदेनान्य एव द्वादशादित्या श्रादित्यहृदये उतारतेऽत्र निर्दिश्यन्ते । तथा हि'अरुणो माघमासे तु सूर्यो वै फाल्गुने तथा। चत्रेमासि च वेदज्ञो वैशाखे तपनः स्मृतः॥ ज्येष्ठे मासि तपेदिन्द्र प्राषाढे तपते रविः । गभस्तिः श्रावणे मासे यमो भाद्रपदे तथा । इथे हिरण्यरेताच कार्तिके च दिवाकरः । मार्गशीर्षे तपेच्चैत्रः पौषे विष्णुः सनातनः॥
इत्येते द्वादशादित्याः काश्यपेयाः प्रकीर्तिताः' !
इति वाचस्पत्याभिधानस्य ६९६ तमे पृष्ठे ॥ विश्वेदेवाः ( १।१.१०)-विश्वेदेवा दश प्रोकास्तेषां नामान्युल्लिख्यन्ते । तथा हि'ऋतुर्दक्षो वसुः सत्यः कामः कालस्तथा धुरिः। रोचनोमाद्रवाश्चैव तथा चान्यः पुरूरवाः। विश्वेवा भवन्त्येते दश श्राद्धेषु पूजिताः' । इति वाचस्पत्याभिधाने ४९१६ तमे पृष्ठे॥
अन्यच्च वहिपुराणे'ऋतुर्दशो वसुः सत्यः कामः कालस्तथा ध्वनिः। रोचकवादवाव तथा चान्यः पुरूरवाः।
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५५४
अमरकोषे
विश्वेदेवा भवन्त्येते दश सर्वत्र पूजिताः ॥ इति वह्निपुराणे गणनामाध्यायः । इति शब्दकल्पद्रुमकोशस्य ४४० पृष्ठे ।
वसवः ( १1१1१० ) - वसवोऽष्टौ । ते यथा'धरो ध्रुवश्च सोमश्च श्रहश्चैवानिलोऽनलः । प्रत्यूषश्च प्रभासच वसवोऽष्टाविति स्मृताः। इति भा० ० ६६ ०' इति वाचस्पत्याभिधानस्य ४८६३ तमे पृष्ठे । धरो ध्रुवश्च सोमश्च विष्णुश्चैवानिलोऽनलः । प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ क्रमात्स्मृताः ॥ इति भरतः । दक्षो द्वितीयजन्मनि षष्ठमन्वन्तरे सिक्न्यां परयो षष्टिः कन्या जनयामास । ताः प्रजापतिभ्यो दत्तवान् । धर्माय दश, तासां नामानि - 'मानुर्लम्बा ककुयामिर्विश्वा साध्या मरुत्वती । वसुमुहूर्ता सङ्कल्पा । श्रासां मध्ये वसोरष्टौ वसवः पुत्रा जाताः । ते यथा—१ द्रोणः, २ प्राणः, ३ ध्रुवः, ४ अर्कः ५ अग्निः ६ दोषः, ७ वास्तुः ८ विभावसुश्चेति ।
मतान्तरोक्ता अष्टो वसवो यथा
४१ धरः २ ध्रुवः, ३ सोमः ४ सावित्रः ५ अनिलः, ६ अनलः, ७ प्रत्यूषः, ८ प्रभासश्चेति' महाभारते दानधर्मः । अचि च-'श्यापो ध्रुवश्च सोमश्च परश्चैवानिलोऽनलः । प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः । इति वह्निपुराणे काश्यपीयप्रजासर्गनामाध्यायः । कूर्मपुराणे १४ तमाध्यायश्चेति ॥
तुषिताः (१।१।१०) गणदेवताभेदे १२ मन्वन्तरभेदे भिन्ननामानो यथा-'पूर्वमन्वन्तरे श्रेष्ठा द्वादशासन् सुरोत्तमाः । तुषिता नाम तेऽन्योन्यमूचुर्वैवस्वतोऽन्तरे ॥ उपस्थितेऽतियशसश्चाक्षुषस्यान्तरे मनोः । समवायीकृताः सर्वे समागम्य परस्परम् ॥ आगच्छत द्रुतं देवा दितिं संप्रविश्य वै । मन्वन्तरे प्रसूयामस्तत्र श्रेयो भविष्यति ॥ एवमुक्त्वा तु ते सर्वे चाक्षुषस्यान्तरे मनोः । मारीचात्कश्यपाज्जातास्तेऽदित्यादक्षकन्यया ॥ तत्र विष्णुश्च शक्रश्व जज्ञाते पुनरेव च । अर्यमा चैव धाता च त्वष्टा पूषा तथैव च ॥ विवस्वान् सविता चैव मित्रो वरुण एव । अंशो भगश्चादितिजा श्रादित्या द्वादश स्मृताः ॥ चाक्षुषस्यान्तरे पूर्वमासन् ये तुषिताः सुराः ।
वैवस्वतोऽन्तरे ते वै प्रदित्या द्वादश स्मृताः ॥'
इति हरिवंशे श्याध्यायः ॥ तथा चादित्यरूपा द्वादश
'प्राणापानावुदानश्च समानो व्यान एव च । चक्षुः श्रोत्रं रसो घ्राणस्पर्शो बुद्धिर्मनस्तथा ॥
१. अत्रैवाने प्रत्येकस्य सन्ततिवर्णनं नाम चामे विस्तरेण वर्णितम् ।
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परिशिष्टम् ।
新款
द्वादशैते तु तुषिता देवाः स्वारोचिषोऽन्तरे' । इति सारसुन्दरीवचनाद् द्वादश । तोषः प्रतोषः सन्तोषो भद्रश्शान्तिरिङस्पतिः । इष्मः कविर्विभुः स्वाहासुदेवो रोचनो द्विषट् । तुषिता नाम ते देवा श्रासन् स्वायम्भुवोऽन्तरे' ॥ इति शब्दार्थचिन्तामणिघृतवाक्योक या पत्रिंशत् ॥
इति वाचस्पत्याभिधानस्य ३३३७ तमे पृष्ठे, शब्दकल्पद्रुमस्य ६४० पृष्ठे च ॥ ये च द्वादश इति मन्यन्ते, त एकैकमन्वन्तरापेक्षया द्वादशेति वर्णयन्ति समयभिप्रायेण षटत्रिंशदिति विवेकः । तदभिप्रायेणैव 'पत्रिंशत्तषिता मता :" इत्युकं टिप्पणे इत्यवधेयम् ॥
आभास्वराः ( १/१/१० ) - आभास्वराः ' द्वादश । तथाहि'श्रात्मा ज्ञाता दमो दान्तः शान्तिर्ज्ञानं शमस्तपः ।
कामः क्रोधो मदो मोहो द्वादशाभास्वरा इमे ॥
इति वाचस्पत्याभिधाने ७५४ तमे पृष्ठे, शब्दकल्पद्रुमस्य १७९ तमे पृष्ठे च ॥ अनिलः ( १1१1९० ) -- अग्निपुराणे वायोरूनपञ्चाशन्नामान्युक्तानि तानीह प्रोच्यन्ते । तथा हि
'एकज्योतिष द्विज्र्ज्योतित्रिज्योतिर्ज्योतिरेव च । एकशको द्विशकथ त्रिशक्रख महाबलः ॥ इन्द्रश्व गत्यदृश्यश्च ततः पतिसकृत्परः । मितश्च संमितश्चैव सुमतिश्च महाबलः ॥ ऋतजित्सत्यजिच्चैव सुषेण: सेनजित्तथा । श्रग्निमित्रोऽनमित्रश्च पुरुमित्रोऽपराजितः ॥ ऋतश्च ऋतवादश्व धर्ता च धरणो ध्रुवः । विधारणो नाम तथा देवदेवो महाबलः ॥ इक्षवाप्यदृक्षच एते दश मिताशिनः । व्रतिनः प्रसदृक्षश्च समरश्च महायशाः ॥ बाता दुर्गे धृतिर्भी मस्त्वभियुक्तस्त्व पारसः । द्युतिपुरनाय्योऽथ वासः कामो जयो विराट् ॥ इत्येकीनाञ्च पञ्चाशम्मरुतः पूर्वसम्भवाः ' ॥ इति वह्निपुराणे गणनामाध्यायः ॥
हेमाद्री दानखण्डे वायुपुराणोकान्ये कोनपञ्चाशन्मदन्नामानि तेषां सप्त गणाची - कास्तेऽत्र निर्दिश्यन्ते । तथा हि- मरुन्नामानि तु वायुपुराणे--- ततस्तेषां तु नामानि मातापित्रोः ? प्रचक्रतुः । तद्विधैः कर्मभिचैव मरुतान्तो पृथक् पृथक् ॥ शुक्रज्योतिस्तथाऽऽदित्यश्चित्रज्योतिस्तथाऽपरः ।
I
सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्मान् सत्यद्दा ऋतपास्तथा ॥
१. इदं 'आमास्वराश्चतुःषष्टिः' इति टिप्पणीवचनविरुद्धमपि ६४ भेदानां काप्यनुपलम्भेर्द्वादशैवात्र निर्दिष्टाः । ६४ भेदान् सूचयतो विदुषः परं कृतो भवेयम् ।
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अमरकोषे
प्रथमोऽयं गणः प्रोको द्वितीयं त निबोधत । ऋतजित्सत्यजिच्चैव पुषैषः सेनजित्तथा ॥ अन्तिमित्रो त्यमित्रश्च दूरेमित्रस्तथा परः । गण एष द्वितीयस्तु तृतीयोऽयं निबोधत ॥ ऋतः सत्यो ध्रुवो धर्ता विधर्ताऽय विधारयः। धरुणश्च तृतीये तु चतुर्थ मे निषोधत ॥ ध्वान्तश्च धुनितश्चैवसभरश्च तथा गणः । ईदृक्षासः पुरुषश्चैव ! अन्यादृक्षास एव नः ॥ संमिताः समदृक्षासः प्रतिक्षास वै गणः । मरुतेन्द्रः सरभसस्तथा देवविशोऽपरः ॥ यज्ञश्चैवानुवमानस्तयाऽन्यो मानुषीविशः। दैत्यदेवाः समाख्याताः सप्तैते सप्तका गणाः॥ एते होकोनपश्चाशनमस्तो नामतः स्मृताः ॥ इति हेमादौ दानखण्डे ७७६ तमे पृष्ठे ॥
वायवः पश्चैवेति केचिदाहुस्तेऽत्र लिख्यन्ते । तथा हि-'वायुश्च पञ्चभूतान्त. र्गतभूतविशेषः। तहिशेषविवरणं यथा-वायवः प्राणापानसमानव्यानोदानाः। तत्र १ प्राणो नाम प्रारगमनवानासाप्रवर्ती, २ अपानो नाम अवारगमनवान् पायवादिस्थानवर्ती, ३ व्यानो नाम विष्वगमनवान् अखिलशरीरवर्ती, ४ उदानो नाम कण्ठस्थानीय ऊर्ध्वगमनवानुत्क्रमणवायुः, ५ समानो नाम शरीरमध्यगताशितपीतामादिसमीकरणकरः ( समीकरणन्तु परिपाककरणं रसरूधिरशुक्रपुरोषादिकरणम् ) इति । ___ अन्ये तु नाग २ कूर्म ३ कृकर ४ देवदत्त ५ धनञ्जया ख्याः पञ्चान्ये वायवः सन्तीत्याहुः । तत्र १ नाग दिरणकरः, २ कूर्मो निमीलनादिकरः, ३ कृकरः क्षुधाकरः, ४ देवदत्तो जम्भणकरः, ५ धनञ्जयः पोषणकरः। एतेषां प्राणादिष्वन्तर्भावात्पश्चैवेति केचित् । इति शब्दकल्पद्रुमकोषः ३४१ पृष्ठे। वाचस्पत्युकान्ये कोनपञ्चाशद्वायुनामानि तत्रैव शब्दकल्पद्रुमकोषे १६४-१६८ तमे पृष्ठे 'अनिल' शब्दविवरणे सविस्तरं द्रष्टव्यानि ॥
महाराजिकाः (१1१1१०)-एषां विंशत्यधिकशतद्वयं भेदाः सन्ति ॥
साध्याः ( ११११०)-साध्या द्वादशविधास्तेषां नामानि यथा'मनो मन्ता तथा प्राणो भरोऽपानश्च वीर्यवान् । निर्भयो नरकश्चैव दंशो नारायणो वृषः
प्रभुश्चेति समाख्याताः साया द्वादश देवताः'। इति वाचस्पत्याभिधानस्य ५२७९ तमे पृष्ठे ॥
रुद्रः(१।१।१०)-रुद्रा एकादश सन्ति । ते यथा-१ अजः, २ एकपाद्, ३ श्रहिनना, ४. पिनाकी, ५ अपराजितः, ६ त्र्यम्बका, ७ महेश्वर,
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परिशिष्टम् ।
५५७
८ वृषाकपिः, शम्भुः १० हरणः, ११ ईश्वरश्चेति, इति महाभारते दानधर्मः ॥ अपि च
'जैकपादहिब्रघ्नो विरूपाक्षः सुरेश्वरः । जयन्तो बहुरूपश्च व्यम्बकोऽप्यपराजितः ॥ वैवस्वतश्च सावित्री हरो रुद्रा इमे स्मताः । इति जटाधरः ॥ अन्यच्च— अजैकपादहिब्रध्नस्त्वष्टा रुद्रश्च वीर्यवान् । त्वष्टुभैवात्मजः पुत्रो विश्वरूपो महातपाः ॥ हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकचापराजितः । वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपर्दी रेवतस्तथा ॥ एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः । इति गारुडे ६ तमेऽध्याये ॥
श्रमिपुराणे 'त्वष्टृ' स्थाने 'कृत्तिवासाः' इत्युक्तम् ॥ अन्यच्च— 'प्रजैकपादहिब्रग्नो विरूपाक्षोऽय रैवतः । हरश्च बहुरूपच त्र्यम्बकश्च सुरेश्वरः ॥ सावित्र्यश्व जयन्तश्च पिनाकी चापराजितः । एते रुद्राः समाख्याता एकादश गणेश्वराः इति मात्स्ये ५ मेऽध्याये' इति शब्दकल्पद्रुमकोषस्य १६७ तमे पृष्ठे ॥ हेमाद्रौ ब्रह्माण्डपुराणे व रुद्राः समाख्यातास्तेऽत्र यथाक्रमं स्त्रीपुत्रनामसहिता निर्दिश्यन्ते । तथा हि
रुद्रो भवश्च शर्वश्च ईशः पशुपतिस्तथा । भीम उप्रो महादेव एते रुद्राः प्रकीर्तिताः ॥ जटिलाश्चर्मवसनाः सर्वे खट्वाङ्गशूलिनः । तेषां भार्याश्च पुत्रांश्व नामतः कथयामि ते ॥ सौवर्चलाऽङ्गवादा च विकेशी च शिवा तथा ।
स्वाहा दिशा च दीक्षा च रोहिणी च तथा क्रमात् ॥
ताश्व स्त्रीवेषधारिण्यः सर्वाभरणभूषिताः। रुद्रपत्म्य इमाश्वाष्टौ पुत्रश्च शृणु नारद ॥ शनैश्वरश्च शुक्रश्च लोहिताङ्गो मनोजवः । वसन्तः स्वगः सन्तानो बुधश्चैव यथाक्रमम् ॥ इति हेमाद्रेर्दानखण्डे ७४५ तमे पृष्ठे ॥ षडभिज्ञः ( १।१।१४ ) - श्रभिधर्मकोषोकाः षडभिज्ञा यथा
१ ऋद्धि श्रोत्र मनः- पूर्व निवास - च्युत्युपपत्क्षयेत् ज्ञानसाक्षा क्रियाभिज्ञा षड्विधाः । २ दिग्यश्रोत्रज्ञान साक्षात्क्रियाभिज्ञा । ३ चेतःपर्यायज्ञान साक्षात्क्रियाभिज्ञा । ४ पूर्व निवासानुस्मृतिज्ञान साक्षात्क्रियाभिज्ञा । ५ च्युत्युपपादनज्ञानसाक्षात्कि - याभिज्ञा । ६ श्राश्रवक्षयज्ञान साक्षात्क्रियाभिज्ञा' । इति अभिधर्मकोषः ७१४३ ॥
दशबलः (१।१।१४ ) - श्रभिधर्मकोषे दशबलानि बुद्धस्यान्यान्येवोक्तानि । तानि यथा'ध्यानाध्यक्षा विमोक्षेषु ध्वान्तौ च प्रतिपत्सु वा । दश द्वे संवृतिज्ञाने षड्वा दश वा क्षये ॥ १ स्थानासहज्ञानबलम् | २ कर्मविपाकज्ञानबलम् । ३-३ ध्यान- विमोक्ष
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अमरकोषेसमाधि समापत्तिज्ञानबलानि । ७ सर्वत्रगामिनीप्रतिपज्ज्ञानबलम् । ८-९ पूर्वनिवास बलम , च्युत्युत्पादनबलञ्च । १० अ.श्रवक्षयज्ञान बलम्'। इति अभिधः मेकोषः ७।२९॥ ___ अष्टमूर्तिः (क्षे० १४-१।१।३४)-अथाष्टमूर्तः प्रत्येकमूर्तिनामान्युच्यन्ते । तथा हि-१ क्षितिमूर्तिः शर्वः, २ जलमूर्तिर्भवः, ३ अनिमूर्ती रुद्रः, ४ बायुमूर्तिसमः, ५ आकाशमूर्तिीमः, ६ यजमानमूर्तिः पशुपतिः, ७ चन्द्रमूतिर्महादेवः, ८ सूर्यमूतिरीशानश्चेति तन्त्रशास्त्रम् । एताः शरभरूपिशिवस्याष्टपादा इति कालिकापुराणम् ॥ अन्यच्च"अथानी रविरिन्दुश्च भूमिरापः प्रभखनः । यजमानः खमष्टौ च महादेवस्य मूर्तयः ॥
इति 'शब्दमाला' इति शब्दकल्पद्रुमस्य १४९ तमे पृष्ठे। सप्तमातरः (ले० १६-११११३५)-भरतेन सप्त मातर उकास्तथा हि
'ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री रौद्री वाराहिकी तथा ।
कौबेरी चैव कौमारी मातरः सप्त कीर्तिताः ॥ इति । अन्याश्च सप्तमातरो यथा
'श्रादौ माता गुरोः पत्नी ब्राह्मणी राजपत्रिका।
गावी धात्री तथा पृथ्वी सप्तैता मातरः स्मृताः' ।। इति । अन्यत्राष्टमातरोऽप्युक्तास्तथा हि
'ब्राह्मी माहेश्वरी चैव वाराही वैष्णवी तथा।
कौमारी चैव चामुण्डा चर्चिकेत्यष्ट मातरः' ।। इति ॥ श्राद्धतत्त्वे बह चपरिशिष्टे गौर्यादिषोडशमातरोऽप्युक्तास्ता यथा
गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया। देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः ॥ शान्तिः पुष्टिधृतिस्तुष्टिंरात्मदेवतया सह ।
श्रादौ विनायकः पूज्यः अन्ते च कुलदेवताः।। इति ॥ वैष्णवपूज्यास्त्वन्या एव षोडश मातरः उक्तास्तथा हि'यत्र मातृगणाः पूज्यास्तत्र येताः प्रपूजयेत् । सदा भगवती पौर्णमासी पमान्तरणिका ।। गङ्गा कलिन्दतनया गोपी वृन्दावती तथा । गायत्री तुलसी वाणी पृथिवी गौश्व वैष्णवी ॥ श्रीयशोदा देवहूतिदेवकीरोहिणीमुखाः । श्रीसीता द्रौपदी कुन्ती पर या महर्षयः ।।
रुक्मिण्याद्यास्तथा चाष्टमहिषी याश्च ता अपि । इति पाझे उत्तरखण्डे ७८ तमेऽण्याये' इति शब्दकल्पद्रुमस्य ६९० तमे पृष्टे ।।
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परिशिष्टम् ।
५५४ दुर्गाः ( १।११३७ )-दुर्गासप्तशत्यो नव दुर्गा उक्ताः । तथा हिप्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनी तथा । सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ॥ नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः । इति दुर्गासप्तशतीकवचम् ३-५ ॥
निधिः (ले० ३०--१।१७१) मूले नवनिधय उक्ताः। किन्तु हारावल्या 'खर्वश्च निधयो नव' इत्यस्य स्थाने 'व!ऽपि निधयो नव' इति पाठ उपलभ्यते । मार्कण्डेयपुराणे तु 'वर्च' इति हित्वाऽष्टावेवोक्ता' इति भरतः। तल्लक्षणं फलश्च मार्कण्डेयपुराणस्य ६८ तमेऽध्याये द्रष्टव्यम् ।।
सध्या (१।४।३)-मुहूर्तचिन्तामणौ, तद्वयाख्यायां पीयूषधारायां चोक्तं सन्ध्यालक्षणं निर्दिश्यते । तथा हि
'सन्ध्या त्रिनाडीप्रमितार्कविम्बादोदितास्तादध ऊधमत्र ।
चेद्याम्यसौम्ये अयने क्रमास्तः पुण्यौ तदानीं परपूर्वधनौ' । इति मुहूर्तचिन्तामणिः ३॥७॥ अत्र पीयूषधाराख्यटीकाकारः । तदाह वराहः
अर्धास्तमितानुदितात्सूर्यादस्पष्टभं नभो यावत् ।
तापत्रसन्ध्याकालचिह्न रेतैः फलं ब्रूयात्' ॥ इति ॥ सन्ध्ययोर्लक्षणान्तरे । तत्प्रमाणमाह नारदः'मास्तमनसन्ध्या हि घटिकात्रयसंमिता । तत्रैवार्डोदयात्प्रातर्घटिकात्रयसंमिता' ॥इति॥ स्कन्दपुराणेऽपि
'उदयात्प्राक्तनी सन्ध्या घटिकात्रयमुच्यते ।
सोऽयं सन्ध्या विघटिका त्यस्तादुपरि भास्वतः' ॥ इति ॥ अत्र सन्ध्यालक्षणोऽर्धास्तमितानूदितवाक्यस्य स्कन्दपुराणीयवाक्यस्य च यव. ब्रीहिवद्विकल्प:' इति ॥
कल्पः (१।४।२१)-त्रिंशत्कल्पस्य ब्रह्मणो मासो जायते । तेषाच त्रिंशस्कल्पाना नामान्यत्र निर्दिश्यन्ते । तथा हि-'अथ कल्पदानं मत्स्यपुराणे-- 'कल्पानुकीर्तनं वक्ष्ये सर्वपापप्रणाशनम् । यस्यानुकीर्तनादेव वेदपुण्येन युज्यते ॥ प्रथमः श्वतकल्पस्तु द्वितीयो नीललोहितः । वामदेवस्तृतीयस्तु ततो रथन्तरोऽपरः ॥ शैरवः पञ्चमः प्रोक्तः षष्ठः प्राण इति स्मृतः । सप्तमोऽथ बृहत्कल्पः कन्दर्पोऽष्टम उच्यते ॥ सयोऽथ नवमः प्रोक्त ईशानो दशमः स्मृतः । व्यान एकादशः प्रोक्तस्तथा सारस्वतोऽपरः॥ त्रयोदश उदानस्तु गारुडीऽथ चतुर्दशः। कूर्मः पञ्चदशो ज्ञेयः पौर्णमासी प्रजायते ॥
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५६०
अमरकोषेषोडशो नारसिंहस्तु समानस्तु ततः परः। श्रामेयोऽष्टादशःप्रोक्तः सोमकल्पस्तथा पः॥ मानवो विंशतिःप्रोक्तस्तत्पुमानिति चापरः। वैकुण्ठश्चापरस्तद्वलक्ष्मीकरुपस्तथा परः॥ चतुर्विशस्तथा प्रोक्तः सावित्रीकरूपसंज्ञकः । पञ्चविंशतिमो घोरो वाराहस्तु ततोऽपरः॥ सप्तविंशोऽथ वैराजो गौरीकल्पस्तथाऽपरः। माहेश्वरस्तथा प्रोत्तास्त्रि रो यत्र घातितः।। पितृकरूपस्तथा ते तु या कुहब्रह्मणः स्मृता । इत्ययं ब्रह्मणो मासः सर्वपापप्रणाशनः'।
इति हेमाद्रौ दानखण्डे ७८३ तमे पृष्ठे ॥
भैरवम् ( ११७१९)-अयं भैरवशब्दः पुंल्लिङ्गत्वे देवविशेषस्य वाचकः । तस्य चाष्टो भेदाः सन्ति । ते यथा-१ अमिताः, २ रुरुः, ३ चण्डः, ४ क्रोधः, ५ उन्मत्तः, ६ कुपितः, ७ भीषणः, ८ संहारश्चेति ॥
द्वीपः (१९१०८-अग्निपुराणे सप्त द्वीपा उक्ताः। ते च लवणादिभिः सप्तस मुद्रराकृता इत्युक्तम् । तथा हि
'जम्बूपलक्षाहयौ द्वीपो शाल्मलिश्चापरो महान् ।
कुशः क्रोश्चस्तथा शाकः पुष्करश्चेति सप्तमः॥ एते द्वौपाः समुद्रस्तु सप्त सप्तभिरावृताः । लवणेक्षुसुरासबिधिदुग्धजलैः समम् ॥
इत्यमिपुराणम् अध्यायः १०८ श्लो० १-२॥
नल्वः-गम्यूतिः ( २।१।१८)-हेमाद्रो दानखण्डे 'नल्व-गव्यूति' लक्षणान्युक्तानि । तथा हि'जालान्तरगते भानो यत्सूक्ष्म दृश्यते रजः । प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते ॥ प्रसरेणुस्तु विज्ञेयो ह्यष्टौ ये परमाणवः । त्रसरेणवस्तु ते ह्यष्टौ रथरेणुस्तु स स्मृतः ।। रथरेणवस्तु ते ह्यष्टो बालापं तत्स्मृतं बुधैः।बालाप्राण्यष्ट लिक्षातु यूका लिक्षाष्टकं बुधः।। अष्टौ यूका यवं प्राहुरङ्गुलं तु यवाष्टकम् । द्वादशाङ्गुलमात्रा वै वितस्तिस्तु प्रकीर्तिता ।। अङ्गुष्ठस्य प्रदेशिन्यान्यासःप्रादेश उच्यते । तालः स्मृती मण्यमया गोकर्णधाप्यनामया।। कनिष्ठया वितस्तिस्तु द्वादशाङ्गुलिका स्मृता। रनिस्त्वगुलपर्वाणि विज्ञेयस्वेकविंशतिः।।
चत्वारि विंशतिश्चैव हस्तः स्यादडलानि तु ।
किस्कुः स्मृतो द्विरत्निस्तु द्विचत्वारिंशदङ्गुलः ॥ षण्णवत्यङ्गुलेश्चैव धनुदण्डः प्रकीर्तितः। धनुदण्डयुगं नालिज्ञेयो ह्येते यवाङ्गुलेः॥ धनुषा त्रिंशता नस्वमाहुः संख्याविदो जनाः। धनुः सहने द्वे चापिगम्यूतिरुपदिश्यते॥
अष्टौ धनुःसहस्राणि योजनं तु प्रकीर्तितम् ॥ मार्कण्डेयपुराणे'परमाणुः परं सूक्ष्मं त्रसरेणुमहीरजः। बालानं चैव निक्षा च यका चाय यवोऽङ्गसम्॥
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परिशिष्टम् । कमादगुणान्याहुर्यवा अष्टौ ततोऽङ्गुलम् । षडङ्गुलं पदं प्राहुवितरित दि गुणं स्मृतम् ॥ द्वे वितस्ती ततो हो ब्रह्मतीथ द्विचेष्टनैः । चतुर्हस्तो धनुर्दण्डो नालिका तागेन तु ॥ कोशो धनुस्सहस्रे द्वे गतिश्च चतुर्गुणा ।
द्विगुणं योजनं तस्मात्प्रोक्तं संख्यानकोविदः ॥ इति हेमाद्रो दानखण्डे १३१-१३२ तमे पृष्ठे ॥
पर्वतः ( २१३१)-पथ प्रसन्नाद्गरुडपुराणोक्तसप्तकुलपर्वताना नामा मुलि. यन्ते । तथा हि
त्रिकोणे संस्थितो मेकरधः कोणे च मंदरः । दक्षकोणे च कैलासो वामकोणे हिमाचलः ॥ निषधश्नोवरेखायो दक्षायां गन्धमादनः ।
रमणो वामरेखायां सप्तैते कुलपर्वताः॥ इति गरुपुराणे १५ अ० ६०-६१ श्लो० ॥ यमः ( २१७४८)-अविस्मृतो तु यमा दश उकाः । तथा हि'मानृशंस्यं क्षमा सत्यमहिंसादानमाजेवम् । प्रीतिः प्रसादो माधुर्य मार्दवं च यमा दश ॥ इति भत्रिस्मृतिः ११४८ ।। नियमाः ( ६१७४९ ) अविस्मृती नियमा दशसंख्यका उक्ताः । तथा हि'शौचमिज्या तपो दानं स्वाध्यायोपस्थानप्रहौ । व्रतमोनोपवासं च स्नानं च नियमा दश' ॥ इति भत्रिस्मृतिः ११४९ ॥ दुर्गः ( २१८१७ )-दुर्गस्य नवधात्वं शुक्रनीतावुफमत्र प्रोच्यते, तथा हि
'षष्ठं दुर्गप्रकरणं प्रवक्ष्यामि समासतः । खातकण्टकपाषाणैर्दुष्पथं दुर्गमैरिणम् ॥ परितस्तु महाखातं पारिखं दुर्गमेव तत् । इष्टकोपलमृद्वित्तिप्राकारं पारिघं स्मृतम् ॥ महाकण्टकवृक्षौति तद्वनदुर्गमम् । जलामावस्तु परितो धन्यदुर्ग प्रकीर्तितम् ।।
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५६२
अमरकोषेजलदुर्ग स्मृतं तहरासमन्तान्महाजलम् । सुवारिपृष्ठोश्वधरं विविक्ते गिरिदुर्गमम् ।। अभेद्यं व्यूहविद्वीरव्याप्तं तत्सैन्यदुर्गमम् ।
सहायदुर्ग तज्ज्ञेयं शूरानुकूरुवान्धवम्' । एतेषु किमपेक्षया कस्य श्रेष्ठत्वमित्यपि तत्रैव
'पारिखादेरिणं श्रेष्ठं पारिघं तु ततो वनम् । ततो धन्वं जलं तस्माद्विरिदुर्ग ततः स्मृतम् ॥ सहायसैन्यदुर्गे तु सर्वदुर्गप्रसाधके ।
ताभ्यो विनाऽन्यदुर्गाणि निष्फलानि महीभुजाम् ।। श्रेष्ठं तु सर्वदुर्गेभ्यः सेनादुर्ग स्मृतं बुधैः' ॥ इति शुक्रनीतिः ४।६।१-८ ॥ राज्यामानि ( १८१८)-शुक्रनीत्या सप्त राज्यानान्युक्तानि । तथा हि
'स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलानि च । सप्ताङ्गमुच्यते राज्यं तत्र मूर्दा नृपः स्मृतः ॥ दृगमात्या : सुहस्त्रं मुखं कोशो बलं मनः ।
हस्ती पादौ दुर्गराष्ट्र राज्यानानि स्मृतानि हि' । इति शुकनीतिः १।६१-६२ ।।
गतयोऽमूः पश (२०४९)-शुकनीत्यामश्वस्यैकादश गतय उक्ता• स्तथा हि
'चक्रितं रेचितं बल्गितकं घोरितमाप्लुतम् ।
तुरं मन्दं च कुटिलं सपणं परिवर्तनम् ॥ एकेदशास्कन्दितच' । इति शुक्रनीतिः २।१३४-१३५ ॥
लोकः ( ३।३।२)-भुवनार्थक नोक' शब्दस्य गरुडपुराणे सप्त भेदा उकास्तथा हि
....."सप्त लोकाः प्रकीर्तिताः ॥ भोंक नाभिमण्ये तु भुवों के तर्धके । स्वों के दृश्ये विद्यात्कण्ठदेशे महस्तथा ॥ बनसोकं वक्त्रदेशे तपोलोकं ललाटके । प्रत्यलोकं ब्रह्मरन्ध्र-'
इति गरमपुराणे ११५ । ५७-५९ ॥ 'भूर्भुवः स्वदेन त्रय एव कोका' इत्यपि परे ।
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परिशिष्टम् ।
५६३ प्रमाणम् ( ॥३॥५४ )-मतभेदेन 'प्रमाणस्य संख्यात्वेऽनेकमतम् । तथा हि
'प्रत्यक्षमेके चार्वाकाः, 'कणाद सुगतो पुनः । प्रत्यक्षमनुमानच, साजयाः शन्दं च ते अपि ॥ न्यायैकदेशिनोऽप्येवमुपमानं च "केचन । मर्थापत्या सदैतानि चत्वार्याह प्रभाकरः ।। अभावषष्ठान्येतानि भाद्या वेदान्तिनस्तथा ।
सम्भवेतिपयुक्तानि तानि पौराणिका जगुः' ।। इति ।। तलम् ( ३।३।२०२)-अधोऽर्थक 'तल' शम्दस्य गरुडपुराणे सप्त भेदा उकास्ते यथा
'पादास्तात्तलं ज्ञेयं पादौ वितलं तथा । जानुनोः सुतलं विद्धि सक्थिदेशे महातलम् ॥ तलातलं सक्थिमूले गुह्य देशे रसातलम् ।
पातालं कटिसंस्थं च-' इति गाहपुराणे १५१५६-५७ ।। अग्निपुराणे सप्त तलान्युकानि । तथा हिमतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत् । महामं सुतलं चैव पातालं चापि सप्तमम् ॥ प्रमातस्तत्रत्यभूमिवर्णान्यप्युच्यन्तेकृष्णपीतारुणाः शुक्ल शर्कराः शैलकाचगाः । भूमयस्तेषु रम्येषुइति अग्निपुराणम् १२०।२-३ ॥
कला (३।३।१९८)-चतुःषष्टिः कलाः शैवतन्त्रोक्ता यथा-'गीतम् १, वाद्यम् २, नृत्यम् ३, नाट्यम् ४, आलेख्यम् ५, विशेषकच्छेद्यम् ६, तण्डुलकुसुम. बलिप्रकाराः ७, पुष्पास्तरणम् ८, दशनवसनागरागाः ९. मणिभमिकाकर्म १०, शयनरचनम् ११, उदकवाय मुदकपातः १२, चित्रयोगाः १३, माल्यप्रन्थविकल्पाः १४, शेखरापीड़योजनम् १५, नेपथ्ययोगाः १६, कर्णपत्रमशः १७, सुगन्धियुतिः १८,
१. वैशेषिकः।
२. बुद्धः। ४. न्यायसारस्य भूषणाख्यटीकाकारः । ६. कुमारिकमानुयायिनः।
३. प्रत्यक्षानुमाने। ५. अन्ये नैयायिकाः ।
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५६४
अमरमोषे
भूषणयोजनम् १९, ऐन्द्रजालम् २०, कौचुमारयोगाः २१, हस्तलाघवम् २२, चित्र शाकापूपभक्ष्यविकारक्रियाः २३, पानकरसरागासनयोजनम् २४, सूचीवायकर्म २५, सूत्रक्रीडा २६, वीणाडमरुकवाद्यानि २७, प्रहेलिका २८, प्रतिमाला २९, दुर्वचकयोगाः ३०, पुस्तकवाचनम् ३१, नाटकाख्यायिकादर्शनम् ३२, काव्यसमस्यापूरणम् ३३, पत्रिकावेत्रवाणविकल्पाः ३४, तर्ककर्माणि ३५, तक्षणम् ३६, वास्तुविद्या ३७, रूप्यरत्नपरीक्षा ३८, धातुबादः ३९, मणिरागज्ञानम् ४०, पाकरमानम् ४१, वृक्षायुर्वेदयोगाः ४५, मेषकुक्कुटलावकयोगविधिः४३, शुकशारिकाप्रज्ञापनम् ४४, उत्सादनम् ४५, केशमार्जनकौशलम् ४६, अक्षर मुष्टिकाकथनम् ४७, म्लेच्छित कविकल्पाः ४८, देशभाषाज्ञानम् ४९, पुष्पशकटिकानिमितिज्ञानम् ५०, यन्त्रमातृकाधारणमातृका ५१, संवाच्यम् ५२, मानसकाम्यक्रिया ५३, भभिधानकोशः ५४, छन्दोमानम् ५५, क्रियाविकल्पाः ५६, छलितकयोगाः ५७, वनगोपनानि ५८, द्यूतविशेषः ५९, पाकपक्रीडा ६०, वालक्रीडनकानि ६१, वैनायिकीनाम् ६१, वैयिकीनाम् ६३, वैतालि. कानाच विद्यानां ज्ञानम् ६४, इति (श्रीमद्भागवते दशमस्कन्धे पूर्वाद्धे अध्यायः ४५ श्लो० ३६ तमस्य 'श्रीधरी' व्याख्या ।।
शुक्रनीती तु एतद्भिमा एव कला उक्ताः । तथाहि-शुक्रनीत्युक्ताश्चतुः षष्टिः कला यया
कलानां तु पृषानाम लक्ष्म चास्तीह केवलम् । पृथक पृथक् क्रियाभिर्हि कल:भेदस्तु जायते । यो यो कला समाश्रित्य तन्नान्ना मातिरुच्यते ।। हावभावादिसंयुक्तं नर्तनं तु कला स्मृता। अनेकवायकरणे ज्ञानं तद्वादने कला ॥ वस्त्रालङ्कारसन्धानं स्त्रीपुंसोश्च कला स्मृता । अनेकरूपाविर्भावकृतिज्ञानं कला स्मृता ॥ शय्यास्तरणसंयोगपुष्पादिप्रन्यनं कला । द्यूताधने कक्रोडाभी रजनन्तु कला स्मृता॥ अनेकासनसन्धाने रते नं कला स्मृता । कलासप्तकमेतद्धि गान्धर्व समुदाहृतम् ।। मकरन्दासवादीनां मद्यादीनो कृतिः कना।
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परिशिष्टम् ।
शलागढाहतो जानं शिरावगव्यधे कला ॥ हिङ्ग्वादिरमसंयोगादादिपचनं कला। वृक्षादिप्रामारोपपालनादिकृतिः कला ।। पाषाणधात्वादितिस्तद्भस्मीकरणं कला । यावदिक्षुविकाराणां कृतिहानं कला स्मृता । धात्वोषधीनां संयोगक्रियाज्ञानं कला स्मृता । धातुसाहर्यपार्थक्यकरणन्तु कला स्मृता ॥ संयोगपूर्व विज्ञानं धात्वादीनां कला स्मृता। क्षारनिष्कासनज्ञानं कलासंझं तु तत्स्मृतम् ॥ कलादशकमेतद्धि वायुर्वेदागमेषु च। शस्त्रसन्धानविक्षेपः पादादिन्यासतः कला ।। सध्याधाताकृष्टिभेदमल्लयुद्ध कला स्मृता । बाहुयुद्धं तु मल्लानामशलं मुष्टिमिः स्मृतम् ॥ मृतस्य तस्य न स्वर्गो पशो नेहारि विद्यते । बलदप विना शान्तं नियुद्धं यशसे रिपोः ।। न कस्यासिद्धिं कुर्याद्वै प्राणान्तं बाहुयुद्धकम् । कृतप्रकृतकैश्चित्रैर्षाहुभिश्च .. सुखटः॥ सन्निपातावपाश्च प्रमादोन्मयनैस्तथा। कृतं निपीडनं ज्ञेयं तन्मुकिस्तु प्रतिक्रिया । कलाभिलक्षिते देशे यन्त्रायत्रनिपातनम् । वायसंकेततो व्यूहरचनादि कला स्मृता ।। गजाब रथगत्या तु युद्धसंयोजनं कला। कलापञ्च कमेतद्धि धनुर्वेदागमे स्थितम् ।। विविधासनमुदाभिर्देवतातोष कला। सारध्यं च गमावादेर्गतिशिक्षा कला स्मृता ॥ मृत्तिकाकाष्ठपापाणधानुभाण्डादिपस्किया । पुयकलाचतुष्कं तु चित्राद्यालेखनं कला ॥ तहागवापीप्रासादसमभूमिक्रिया कला ।
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________________
५६६
अमरकोषे
धय्याद्यनेकयन्त्राणा वाद्यानां तु कृतिः कला ॥ होनमध्यादिसंयोगवर्णाचे रजनं
कला |
कला ||
स्मृतम् ॥
जवाध्वग्निसंयोगनिरोधैश्व क्रिया नौकारयादियानानां कृतिज्ञानं कला स्मृता । सूत्रादि रज्जु कर णविज्ञानन्तु कला स्मृता ॥ अनेक सन्तु संयोगेः पटबन्धः कला स्मृता । वेधादिसदसञ्ज्ञानं रत्नानां च कळा स्मृता ॥ स्वर्णादीनां तु याथात्म्यविज्ञान व कला स्मृता । कृत्रिम स्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानं कला स्मृता ॥ स्वर्णाद्यलङ्कारकृतिः कला लेपादिसत्कृतिः । मार्दवादिक्रियाज्ञानं चर्मणां तु कला स्मृता ॥ पशुचर्मानि रकिनाज्ञानं कला स्मृता । दुग्ध दोहा दिविज्ञानं घृतान्तं तु कला स्मृता ॥ सीवने चुकादीनां विज्ञानन्तु कलात्मकम् । बाह्रादिभिश्व तरणं कलासंज्ञं जले मार्जने गृहभाण्डादेविज्ञानं तु कला वनसंमार्जनं चैव क्षुरकर्मकले युभे ॥ तिलमांसादिस्नेहानां कला निष्कासने कृतिः । सीरायाकर्षणे ज्ञानं वृक्षायारोहणे कला || मनोनुकूल सेवायाः कृतिज्ञानं कला स्मृता । वेणुतृणादिपात्राणां कृतिज्ञानं कला स्मृता ॥ काचपात्रादिकरणविज्ञानं तु कला स्मृता । संसेचनं संहरणं जलानां तु कला स्मृता । लोहामिसारशस्त्रास्त्रकृतिज्ञानं कला स्मृता । गजाश्ववृषभोष्ट्राण पल्याणादिक्रिया कला ॥ शिशोः संरक्षणे ज्ञानं धारणे क्रीडने कला | सुयुक्तताडन ज्ञानमपराधिजने कला || नानादेशीयवर्णानां सुसम्यग् लेखने कला |
स्मृता ।
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________________
परिशिष्टम् ।
ताम्बूलरक्षादिकृतिविज्ञानं तु कला स्मृता ।
आदानमाशुकारित्वं प्रतिदानं चिरक्रिया। कलासु द्वौ गुणो ज्ञेयो द्वे कले परिकीर्तिते ॥
चतुष्षष्टिः कला येताः संक्षेपेण निदर्शिता'। इति शुक्रनीतिः अध्यायः ४ प्रकरणम् ३ श्लोकाः ॥ ६५.९९ ॥
प्राचार्यास्तु कन्यकाना-( कामसूत्र १११।१५) इति कामसूत्रीय 'जयमजला' भ्याख्योकाश्चतुष्षष्टिः कलास्तु भिषा एव । तत्रैवं जयमाला-'शास्त्रान्तरे चतुष्षटिल कला उक्ताः, तत्र कर्माश्रयाश्चतुर्विशतिः । तद्यथा-गीतम् १, नृत्यम् २, वाद्यम् ३, कौशललिपिज्ञानम् ४, वचनं चोदाहरणम् ५, चित्रविधिः ६, पुस्तकम् ७, पत्रस्छेद्यम् ८, माल विधिः ९, गन्धयुक्त्यारवायविधानम् १०, रत्नप. रीक्षा ११, सीवनम् १२, रगपरिज्ञानम् १३, उपकरणक्रिया १४, मानविधिः १५, श्राजोवज्ञानम् १६, तिर्यम्पोनिचिकित्सितम् १७, मायाकृतपाषण्डसमयज्ञानम् १८, क्रीडाकौशलम् १९, लोकज्ञानम् २०, वैचमण्यम् २१, संवाहनम् २१, शरीर. संस्कारः २३, विशेष कौशलम् २४, चेति । द्यूताश्रया विंशतिः-तत्र निर्जीवाः पञ्चदश, तद्यथा-प्रायुःप्राप्तिः २५, अक्षविधानम् २६, रूपसंख्या २७, कियामागंणम् २८, बोमप्रहणम् २९, नयज्ञानम् ३० करणज्ञानम् ३१ चित्राचित्रविधिः ३२ गूढराशिः ३३, तुल्याभिहारः ३४, क्षिप्रप्रहणम् ३५, अनुप्राप्तिलेख. स्मृतिः ३६, अग्निक्रमः ३७, छलव्यामोहनम् ३८, प्रहादानम् ३९, चेति । सजीवाः पञ्च, तद्यथा-उस्थानविधिः ४०, युद्धम् ४१, रूतम् ४२, गतम् ४३, नृतम् ४४ चेति । शयनोपचारिकाः षोडश, तद्यथा-पुरुषस्यभावप्रहणम् ४५, स्वरागप्रकाशनम् ४६, प्रत्यङ्गदानम् ४७, नखदन्तयोर्विचारो ४८, नीपोख्रसनम् ४९, गुणस्य संस्पर्शनानुलोम्यम् ५०, परमार्थ कौशलम् ५१, हर्षणम् ५२, समानार्थता. कृतार्थता ५३, अनुप्रोत्साहनम् ५४, मृदुकोधप्रवर्तनम् ५५, सम्यकोषनिवर्त. नम् ५६ ऋद्धप्रसादनम् ५७, मुप्त परित्यागः ५८, चरमस्वापविधिः ५९, गुप. गृहनम् ६०, इति । चतन उत्तरकला, तद्यथा-वाश्रुपातं रमणाय शाप. दानम् ६१, शपथक्रिया ६२, प्रस्थितानुगमनम् ६३, पुनःपुनर्निरीक्षणम् ६४, चेति चतुःषष्टिर्मूलकलाः । मास्वेव निविष्टानामवान्तर कलानामष्टादशाधिकामि पाशताम्युक्तानि । तत्र वर्माताश्रयाः प्रायश भावालं गच्छन्ति, ता एवान्यया
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________________
५६८
अमरकोपे
विभज्य चतुष्टिरत्रोक्ताः, यास्तु शयनोपचारिका उत्तरकलाव, ताः प्रायशस्तन्त्र. स्यारता प्रतिपद्यन्त इति पाश्चालिक्यामेव चतुःषष्ट्यामवान्तरकला वेदितव्याः, ताश्च यथाप्रस्तावं वक्ष्यन्ते' इति ॥
तन्त्रावापौपयिकी चतुष्षष्टिमाह-गीतम् १, वाद्यम् २, नृत्यम् ३, पाले. ख्यम् ४, विशेषकच्छेद्यम् ५, तण्डुलकुसुमलिविकाराः ६, पुष्पास्तरणम् ७ दशनवसनाङ्गरागः ८, मणिभूमिकाकर्म, ९, शयनरचनम् १०, उदकवाद्यम् ११, उदका. घातः १२, चित्राश्च योगाः १३, मास्यप्रन्य नविकल्पाः १४, शेखरकापीड़योजनम् १५, नेपथ्यप्रयोगाः १६, कर्णपत्रभङ्गाः १७, गन्धन युक्तिः १८, भूषण योजनम् १९, ऐन्द्रजालाः १०, कोचुमाराश्च योगा: २१, हस्तलाघवम् २२, विचित्रशाकयूषमक्ष्य. विकारक्रिया २३, पानकरसरागारषयोजनम् २४, सूचीवायकर्माणि २५, सूत्र कीडा २६, वीणाडमरुकवाद्यानि २७, प्रहेलिका २८, प्रतिमाळा २९, दुर्वाचकयोगाः ३०, पुस्तकवाचनम् ३१, नाटकाख्यायिकादर्शनम् ३२, काव्यसमस्यापूरणम् ३३, पट्टिका. वेत्रवानविकरुपाः ३४, तक्षकर्माणि ३५, तक्षणम् ३६, वास्तुविश ३७, रूप्यरत्न रीक्षा ३८, धातुबादः ३९, मणिरागाकरज्ञानम् ४०, वृक्षायुर्वेदयोगाः ४१, मेषकु. ककुटलावकयुद्धविधिः ४२, शुकमारिकाप्रकापनम् ४३, उत्सादने संवाहने के शमर्दने च कौशलम् ४४, अक्षरमुष्टिकाकथनम् ४५, म्लेच्छितविकताः ४६, देशभाषाज्ञानम् ४७, पुष्पशकटिका ४८, निमित्तानम् ४९, यन्त्रमातृका ५०, धारणमातृका ५१, संपाव्यम् , ५२, मानसी काव्यक्रिया, ५३, अभिधानकोषः ५४, छन्दोज्ञानम् ५५, क्रियाकल्पः ५६, छलितकयोगाः ५७, वस्त्रगोपनानि ५८, यूतविशेषः ५९,
आकर्षकीडा ६०, बालकोडनकानि ६१, वैनायिकीनां ६२, वैजयिकीनां ६३, व्यायामिकीनां च विद्यानां ज्ञानम् ६४, इति चतुःषष्टिराविधाः कामसूत्रावस्थायिनः इति कामसूत्रम् ११३।१६ )॥
इति परिशिष्टम् ।
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________________
अ ]
शब्दाः
अ
अंश
अंशु
अंशुक
अंस
अंसल
अंहति
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१
२
२
अंशुमती अंशुमत्फला २
अक्ष
93
99
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:131201
29
~ ASS
अक्षत
अक्षदर्शक
२
अकूपार अकृष्णकर्मम् ३
3 2
३
वर्गाङ्काः श्लोकाङ्काः
मूलस्थशब्दानामकारादिक्रमेण शब्दानुक्रमणिका
४
१.१
९
८९
३ ३३
६ ११५
४ ११५
20
४ ११३
७८
२
१ १०
२ ६
२ ६ ४४
२ ७ ३० अक्षिकूटक
२
२३
अक्षिगत
३९
अक्षीव
१
19
१ ४६ अक्षो
शब्दाः
अक्षदेविन् अक्षधूर्त
अक्षर
अक्षरचुच
अक्षरचण
अक्षवती
अक्षान्ति
अक्षि
१७ अ०
39
२ ४ ५८ अक्षौहिणी
२ ९
२ ९
२ १० ४५
३ ३ २२२
२ ९
४७
२ ८ ५
काण्डाङ्काः
श्लोकाङ्काः * वर्गाङ्काः
२ १० ४३
४३
३ १८२
२
८ १५
२ . १५
२ १० ४४
१ ७ २४
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६
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३ १९
2
शब्दाः
अगम
अगस्त्य
अगाध
अगार
अगुरु
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अग्नायी
अग्नि
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अग्न्युस्पात
अग्र
99
:13120 ~
अग्रज
अग्निकण
१ १
५७
अग्निचित्
२ ७ १२
२ ४ १२४
अग्निज्वाला अग्निभू १ १ ३९ अग्निमन्थ २ ૪ ६६
२ ४ ४२
अनमुखी अग्निशिखा
२
४ ११८
२
४ १३६
२
६ १२४
१
४ १०
३ १ ५८
३
३ १८४
२
६ ४३
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2
वर्गाङ्काः
→ श्लोकाङ्काः
३ २०
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२ २
५
२
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२
६ १२७
२ ७ २१
१
१ ५३
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________________
अग्रजन्मन् ]
(२)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[अणक
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or
१३
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शम्दाः का. व. श्ो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. अब्रजन्मन् २ ७ ४ अङ्गार २ ९ ३० अजहा २ ४ ६ अग्रवःसर २ ८ ७२ | अङ्गारक १ ३ २५ अजा २ १ ५६ अग्रवस् ३ ३ २४६ | मझारपानिका २ ९ २९ अमाजी २ १ ३६
३ ४ ७ अङ्गारवडरी २ ४ ४८ अजाजीव २ १० ११ अप्रमास २ ६ ६४ अङ्गारवडी २ ४ ९० : अजित ३ ३ ३२ भग्रिय
अङ्गारशकटी २ ९ २०. भजिन मङ्गीकार १ ५ ५!
अजिनपत्रा २५ अग्रीय ३ १ ५८ अङ्गीकृत ३ १ १०८ अजिनयोनि २ ५ अग्रेदिधिषू २ ६ २३ अङ्गुलिमुद्रा २ ६ १०८ अग्रेसर २ ८ ७२ अङ्गुली २ ६ ८२ अजिर २ . अग्रथ ३ १ ५८ अङ्गुलीयर २ ६ १०७
३१८२ भष १ ४ ३ अङ्गुष्ठ २ ६ ८२
अजिम ३ ३ २७ अघ्रि २ ६ ७१
अजिह्मग अघमर्षण २ ७ ४७ अधिनामक २ ४ १२
अज्जुका भनिवलिका २ ४ ९२ भनथा
अज्झटा
४ १२७ अचण्डी २ ९ ७० !
७० अश. ३ १ ३८ अचल २ ३ १ अचला
अज्ञान अध अच्युत
अन्त्रित अच्युताग्रज १ १ २३
अञ्जन १ ३ ३ अङ्कथ
अञ्जनकेशी २ ४ अच्छमल २ ५ ४ अअनावती १ ३ अज
प्रालि २ ६ ८५
अअसा अजगन्धिका
१३९ 'अङ्गण
अजगर
५
| अटनी २ ८ ८४ भङ्गाना अजगव
अटरूष २ ४ १०३ अजन्य २ ८ १०९
अटवी बङ्गविक्षेप १ ७ १६ अबमोदा २ ४ १४५ अटाट्या भसंस्कार २ ६ १२१ बजङ्गी २ ४ ११९
२ २ १२ बनदार १ ७ १६ / मनन १ १ १६ | अणक
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________________
अणि]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(९)
[अधोमुख
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शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. लो. अणि २८ ५७ अतिविषा २ ४ ९९ भद्रि अणिमन् १ १ ३६ अतिवेल १ १ ६६ , ३ ३ १३४ अणीयस् ३ १ ६२ अतिशक्तिता २ ८ १०२ , अणु २ ९ २० अतिशय १ १ ६६ अवयवादिन् १ १ १४
अधम अण्ड
अतिशोभन ३ १
५८ ५८
, ३ ३ १४५ अण्डकोश अतिसर्जन ३ २ २८
अधमर्ण अण्डज अतिसारकिन् २ ६ ५९
अधर अतीन्द्रिय ३ १ ७९ । अतीव ३ ४ २
अधिकर्षि ३ १ अतट
अत्तिका १ ७ १५ अधिकार २८ ६३ अतलस्पर्श २ १० १५ अत्यन्तकोपन ३ १ ३२ अधिकार २ ८ ३१ अतसी २ ९ २० अत्यन्तीन २ ८ ७७ अधिकृत २ ८ ६
३ ३ २४२ / अस्यय २ ८ ११६ अधिक्षिप्त ३ १ ४२
३ ४ २ , ३ ३ १५० अपित्यका २ ३ ७ अतिक्रम ३ २ ३३ अत्यर्थ
| अधिप ३ १ ११ अतिचरा २ ४ १४६ अस्यादित ३ ३ ७७ अधिभू ३ १. ११ अतिच्छत्र २ ४ १६७ अनि
२७ | अधिरोहिणी २ २ १८ अतिच्छत्रा २ ४ १५२ अथ
२४७ अधिवासन २ ६ १३४ अतिजव २ ८ ७३ | अथो
३ ३ २४७
अधिविना २ ६ ७ अतिथि २ ७ ३४ अदभ्र
अधिश्रयणी २ ९ २९ अतिनु १ १० १४
अदर्शन ३ २ २२ अधिष्ठान ३ ३ १२६ अतिपथिन् २ १ १६
अदितिनन्दन १ १ अधीन ३ १ १६ अतिपात २ ७ ३७ অয়
अधीर ३ १ २६ अदृष्ट
अधीश्वर अतिमात्र १ १ ६६ अष्टि
अधुना ३ ४ २२ अतिमुक्त २ ४ ७२ अद्धा
४ १२ अधृष्ट ३ १ २६ अतिमुक्तक २ ४ २६ अद्भुत
अर्थोशुक २ ६ ११७ अतिरिक्त ३ १ ७५
अधोक्षज १ १ २१ अतिवक्त ३ १ ३५ अअमर
अधोभुवन १ ८ १ अतिवाद १ ६ १४ अप ३ ४ २० | अधोमुख ३ १ ३
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Mrom our mmm or Modm wom
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________________
अध्यक्ष ]
मूलस्थशब्दानुक्रमाणका
[ अनूरु
शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. अध्यक्ष २ ८ ६ अनवस्कर ३ १ ५६ अनुचर २ ८ ७१
३ ३ २२६ | अनवराय ३ १ ५७ अनुज २६ ४३ अध्यवसाय १ ७ २० । अनस् २ ८ ५२ अनुजीविन् २ ८ ९ अध्यापक २ ७ ७ । अनागतार्तवा २ ६ ८ अनुतर्षण २ १० ४३ अध्याहार १ ५ ३ अनादर १ ७ २२ भनुताप अध्यूढा २ ६ ७ अनामय २ ६ ५० अनुत्तम ३ १ ५७ अध्येपणा २ ७ ३२ अनामिका २ ६ ८२ अनुत्तर ३ ३ १९१ अध्वग २ ८ १७ अनारत
अनुपद ३ १ ७८ अध्वनीन २ ८ १७ अनार्यतिक्त २ ४ १४३ अनुपदीना २ १० ३० अध्वन् २ १ १५ अनाहत
अनुपमा १ ३ ४ अध्वन्य २ ८ २७ अनिमिष ३ ३ २१९ अनुप्लव २८ ७१ मध्वर
| अनिरुद्ध १ १ २७ । अनुबन्ध अध्वर्यु . २ ७ १७ अनिल १ १ १० अनुबोध अनक्षर १ ६ २१
अनुभव ३ २ २७ अनङ्ग १ १ २५ | अनिश
अनुमाव अनच्छ ११० १४ | अनीक २ ८ ७८
३ ३ २१. अनडु २ ९ ६०
२ ८ १०४ अनुमति अनन्त १ २ १ | अनीकस्य २
अनुयोग
८ ६ अनीकिनी २ ८ ७८
अनुरोध
अनुलाप अनन्ता
अनुलेपन ३ अनु
३ २४८ २ ४ ९२ अनुक
अनुवर्तन २ ४ ११२ अनुकम्पा
अनुबाक १३६ अनुकर्ष २ ८ ५७
अनुशय __३ ३ १४८ ४ १५८
अनुष्ण २ १० १८ अनन्यज १ १ २६ अनुकामीन
। अनुहार ३ २ १७ अनन्यवृत्ति ३ १. ७९ अनुकार
अनूक भनय अनुक्रम
अनूचान २ ७ १० अनुक्रोश
| अनूनक ____३ १ ६५ अनवधानता १ ७ ३० अनुग ३ १ ७८ अनूप २ १ १० अनवरत १ १ ६६ ] अनुग्रह ३ २ १३ | अनूर १ ३ ३२
" or Nrm worrr mmorror rom
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________________
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अन्धु
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका () अपसद का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. अनृजु ३ १ ४६ / अन्तेवासिन् २ ७ ११ अपचिति २ ७ ३४ अनृत
२ १० २० । , ३ ३ ६७ अनेकप २ ८ ३४ अन्त्य ३ १ ८१ : अपटु २ ६ ५८ अनेइस्
अन्त्र
२ ६ ६६ : अपस्य २ ६ २८ अनोकह अन्दुक
अपत्रपा १ ७ २३ अन्त २ ८ ११६
अन्ध २ ६ ६१ अपत्रपिष्णु ३ १ २८ ३ ३ १०३
अपथ २ १ १७ अन्तःपुर
अन्धकरिपु १ १ ३४ अपथिन् २ १ १७ अन्तक अन्धकार १८ ३
अपदान्तर ३ १ ६८ अन्तर ३ ३ १८७ अन्धतमस् १ ८ ३ अपदिश १ ३ ५ अन्तरा ३ ४ १० अन्धस्
अपदेश १ ७ ३३ अन्तराय ३ २ १९
११० २६ अन्तराल १ ३ ६ अन्न
अपध्वस्त अन्तरीक्ष
३ १ १११ अपभ्रंश अन्तरीप ११० ८ अभ्य ३. १ ८२ अपयान २८ १११ अन्तरीय २ ६ ११७ अन्यतर ३ १ ८२ अपरस्पर ३ २ १ अन्तरे ३ ४ १० अन्वक्ष ३ १ ७८ अपराजिता २ ४ १०४ अन्तरेण
अन्वक ३ १ ७८ "
२ ४ १४९ अन्वय २ ७ १ अपराद्धपृषक २ ८ ६८ अन्तर्गत ३ १ ८६ | अन्ववाय २ ७ १ अपराध २ ८ २६ अन्तार २ २ १४ अन्वाहार्य २ ७ ३१ अपराह्न अन्तर्धा १ ३ १२
अन्विष्ट ३ १ १०५ अपर्णा अन्तर्षि १ ३ १२
अन्वेषणा २ ७ ३२ अपलाप अन्तर्मनस् ३ १ ८
अन्वेषित ३ १ १०५ अपवर्ग अन्तर्वलो २ ६ २२
अप ( आप् ) ११० ३ अपवर्जन अन्तर्वाणि ३ १ ६
अपकारगिर १ ६ ४४ अपवाद अन्तर्वशिक २ ८ ८
अपक्रम अन्तावसायिन् २ १० १० अपघन २ ६ ७० : अपवारण अन्तिक ३ १ ६७ अपचय
अपष्टु अन्तिकतम ३ १ ६८ अपचायित ३ १ १०१ | अपशब्द १ ६ २ अन्तिका २ ९ २९ । अपचित ३ १ १०१ अपसद २ १० १६
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________________
अपसर्प]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
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1
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का. व. श्लो. : शब्दाः का. व. श्लो. : शब्दाः का. व. श्लो. अपसर्प २ ८ १३ अबद्धमुख ३ । ३६ मिनय ७ अपसव्य ३ १ ८४ अबन्य २ ४ ६ अभिनव ३ १
३ १ ८४ : अबला २ ३ २ अमिनिमुक्त २ ७ अपस्कर
२ ८ ५६ प्रदान ३ । ८३ अभिनिर्याण २ ८ अपलात
अब्ज १ ३ १४ अभिनीत अपहार अपांपति अब्जयोनि । १७
अभिपन्न अपाङ्ग
अभिप्राय
अभिभूत ३ १ ४० अपाङ्गदर्शन २ ६
अब्धि
१ . अभिमर २ ७ ६३ अपान
३ ५ १५ : अभिमान १ ७ २२
अब्धिकफ अपामार्ग ૨ ૪ ૮૮
अब्रह्मण्य १ ७ १४ अमियोग ३ २ १३ अपावृत
अभय
१६४ | अमिरूप ३ ३ १३१ अपासन
११३ अमया २ ४ ५९ अमिलाव ३ २ २४ मपि अभाषण
अमिलाष १ ७ २८ अपिवान
अभिक
३ १ २४ अभिलाषुक ३ १ २२ अपिन
अभिक्रम २ ८ ९६ अमिवादक ३ १ २८ अपूप
अमिख्या ३ ३ १५६ अभिवादन २ ७ ४१ अपोगण्ड अभिग्रह ३ २ १३
अभिव्याप्ति ३ २ ६ अप्पति अभिग्रहण ३ २ १७
अभिशस्त ३ १ ४३ अप्पिल अमिघातिन् २ ८ ११
अभिशस्ति २ ७ ३२ अप्रगुण
अमिचार ३ २ १९ अमिशाप १ ६ . अप्रत्यक्ष
अमिजन २ ७ १. अमिषन ३ ३ २४ भप्रधान
३ १ १०८ अमिषव २ ७ ४७ अप्रत
अमिजात ३ ३ ८२ , २ १० ४२ अप्रापथ
अमिक्ष ३ १ ४ अमित २ ९ ३९ अप्सरस १ १. ११
अमितस ३ । १ ६७ : अभिषेणन २ ८ ९५ "
३ ३ २५६ । अमिष्टुत ३ १ ११० अफल २ ४ ६ अमिधान १ ६ ८ अमिसंपात २ ८ १०५ अबद्ध १ ६ २० | अमिध्या १ ७ २४ । अभिसर २ ८ ७१
३
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सारिका ]
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अभ्यवकर्षण ३
अभ्यवस्कन्दन २ ८ ११०
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अभ्यवहृत अभ्याख्यान १ ६ १० २ अभ्यागम
८ १०५
अभ्यागारिक ३ १ १२
अभ्यादान ३ २
शब्दाः
अभ्यासादन
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अभ्यमित्रीय २ ८ ७५ अमर्त्य
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अम्लान] (6) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका शब्दाः का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्लो. शब्दाः अम्लान २ ४ ७३ । अरिष्ट ३ ३ ३६ अर्णव । अम्लिका २ ४ ४३ : भरिष्टदुष्टधी ३ १ ४४ अर्णस् अय १ ४ २७ । अरुण १ ३ २९ अर्नन अयन ४ १३ :
. ३ ३२ अति " २ १ १५ , १ ५ १५ अर्थ अयस् २ ९ ९८
३ ३ ४८ , अयःप्रतिमा २ १० ३५ अरुणा २ ४ १९ , अयि ३ ४
अर्थना अयोग्र अरष्कर २ ४ ४२
अर्थप्रयोग । ३ ५ १८ : अगस
२ ६ ५४ अर्थिन् भरणि २ ७ १९ अरोक ३ ,१०० , अरण्य
३ ५ २२ अरण्यानी २ ४ - १ : अर्कपर्ण
अर्दना अरलि २ ६ ८६ अर्कबन्धु भरर २ २ १७ : अर्काह मरलु २ ४ ५७
५७ । अर्गल अरविन्द १ १० ३९ अर्ध ३ २७
अर्धचन्द्रा
अर्धनाव २८ ११
अर्धरात्र अराल
७१ अर्चा २ २ ७ ३४ भरि
अर्धर्च २ १० ३६
। अर्धहार
मचिंत अरित्र
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१ १ ५७ अरिमेद
३ ३ २३० अरिष्ट २ २८
| अर्जक २ ४ ८०
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२ ४ १६७ अर्यमन् २ ९ ५३ । अर्जुनी २ ९ ६७ । अर्या
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अवग्राह
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शब्दाः का व. श्लो. । शब्दाः का. व. इको. | शब्दाः का. व. श्लो. अवरोध २ २ १२ अवित ३ १ १०६ अश्मरी २ ६ ५६ अवरोधन
अविद्या १ ५ ७ अश्मसार २ ९ ९८ अवरोह __२ ४ १२ अविनीत ३ १ २३ । अश्रान्त अवणे १ ६ १३ अविरत
अश्रि अवलग्न
अविलम्बित १ १ ६५ अश्रु अवगुज
अश्लील १ ६ १९ अववाद २ ८ २५ अविस्पष्ट १६ २१
अश्व अवश्यम् ३ ४ १६ । अवीची
अश्वकर्णक २ ४ ४३ अवश्याय १ ३ १८ अबीरा २ ६ अश्वस्थ २ ४ २१ अवष्टब्ध १०४ अवेक्षा
अश्वयुज १ ३ २१ अवमर अव्यक्त
अश्ववडव ३ ५ १६ अवसान ३ २ ३८ अव्यक्तराग
अश्वा अत्रसित
अव्यण्डा २ ४ ८६ अश्वारोह २ ८ ६०
अन्यथा २ ४ ५९ अश्विन अआस्कर २ ६ ६७
४ १४६
अश्विनी १ ३ २१ १६८ अव्यय ३ ५ ३४ मश्विनीमत १ १ ५१ अवन्या १ ४ २९ अव्यवहित ३ १ १८ भश्वीय २ ८ ४८ अवहार ११० २१ अशनाया २ ९ ५४ अषडक्षीण २ ८ अवहित्था १ ७ ३४ अशनायित ३ १ २० अष्टापद २ ९ ९५ अवहेलन १ ७ २३ अशनि १ १ ४७
२ १० ४६ अवाकपुष्पी २ ४ १५२ | अशित ३ १ १११ | अष्ठीवत् अवाग्र ३ १ ७० अशिश्वी २ ६ ११ असकृत अवान् ३ १ १३ अशुम ३ ५ २३ ! असती ३ १ ३३ / अशेष
असतीसुत २ ६ अवाची १ ३ १ अशोक
असन अवाच्य
अशोकरोहिणी २ ४ ८५ असमीक्ष्यकारिन्३ १ १७ अचार ११० ७ ! अश्मगर्म २ ९ ९२ असार ३ १ ५६ अवःसम् ३ १ ३९ |
अश्मज २ ९ १०४ असि २ ८ ८९ अवि २ ६ २० । अश्मन् , ३ ३ २०७ | अश्मन्त २ ९ २९ असिक्नी २ ६ १८ अविग्न २ ४ ६८ । अश्मपुष्प २ ४ १२२ | असित १ ५ १४
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (११) [भाचार्यानी शब्दाः का. व. श्लो.! शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. असिधावक २ १० ७ मन्
: २ आकाश १ २ २ असिधेनुका २ ८ ९२ । अहमहमिका २ ८ १०१ आकीर्ण ३ १ ८५ लासपुत्री २ १ ९२ अहंपत्रिका २ ८ १.० आकुल अतु
२ ८५० अमांत ५ , ७ अनधारण २ ८ ११९ - अहति
आक्रोड २ ४ ३ अतर ११ १२ अइर्मुख १ ४ २
आक्रोशन
आक्रोशन ३ २ ६ अहस्कर १ ३ २८ अमर्कग १ ७ २३ ।
भाक्षारणा १ ६ १५
३ ३ २५७ अमया १ ७ २४
आक्षारित ३ १ ४३ अहार्य अमृग्धरा २ ६ ६२
आक्षेप १ ६ १३ मनन २ ६ ६४
आखण्डल १ १ ४४ अमौम्यस्वर ३ १ ३७
३ ३ २३९ | आख २ ५ १२ अस्त अहित २ ८ ११
भाखुभुज २ ५ ६ अहितुण्डिक १ ८ ११
आखेट २ १० २३ अन्नम् अहिमय २ ८ ३०
आख्या १ ६ ८ ३ ४ १८ | अहिभुज ३ ३ ३०
ख्यात ३ १ २०७ अस्तु
| अहेरु : ४ १०१ भाख्यायिका १ ६ अस्त्र अहो ३ ४ ९
आगन्तु अखिन् अहोरात्र १ ४ १२
भागस अन्थि
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| आः ३ ३ २४० भानीध्र २ ७ १७ अस्त्र
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३ ३ २४० । आग्रहायणिक १ ४ १४ अस्त्र आम्
आग्रहायणी १ ३ २३ | आकम्पित अत्रप
३ १ ८७ आङ् ३ ३ २४० अत्र भाकर
बाङ्गिक १ ७ १६ अस्वच्छन्द ३ १ २६ आकर्ष ३ ३ २२२ बाङ्गिरस १ ३ २४ अम्बन
आकल्प २ ६ ९९ आचमन २ ७ ३६ अस्वर आकार
आचाम अहंयु
| आचार्य २ ७ ७ अहङ्कार १ ७ २२ आकारगुप्ति १ ७ ३४ आचार्या २ ६ १४ महारवत् ३ १ ५० | आकारणा १६ ८ | आचार्यानी २ ६ १५
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आचित] (१२) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[ आपूपिक शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. आचित २ ९ ८७ | आतिथेय २ ७ ३३ । आधोरण २ ८ ५९ आच्छादन १ ३ १३ आतिथ्य २ ७ ३३ आध्यान १७ २९
आतुर २ ६ ५८ आनक १ ७ ६
आतोद्य आच्छुरितक १ ७ ३४ आत्तगर्व ३ १ ४० आनकदुन्दुभि १ १ २२ आच्छोदन २१० २३ आस्मगुप्ता २ ४ ८६ आनत आजक २ ९ ७७ आत्मघोष २ ५ २० आनद्ध आजानेय २ ८ ४४ आत्मज २ ६ २७ आनन आजि २ ८ १०६ आत्मन् १ ४ २९ आनन्द ३ ३ ३२
३ ३१०९ आनन्दथु १ ४ २५ आजीव २ ९ १ आत्मभू १ १ १६ भानन्दन
१ १ २६ आनत आज्ञा २ ८ २६ आत्मम्मरि ३ १ २१ आनाय ११० ५६ आज्य आत्रेयी
आनाय्य आटि २ ५ २५ आथर्वण ३ २ ४३ आनाइ २ ६ ५५ आडम्बर २ ८१०८ आदर्श २ ६ १४० आनुपूर्वी २ ७ ३ ३ १६८ भादि ३ १ ८० आन्धसिक २ ९ २८
भादिकारण १ ४ २८ आन्वीक्षिकी १ ६ ५ आढक आदितेय
आपक्व २ ९ ४७ आढकिक २ ९ १० आदित्य
आपगा ११० ३० आढकी
आपण
आपणिक २ ९ ७८ आदच आदीनव
आपत् २८ ८२ आतङ्क आदृत
आपत्प्राप्त ३ १ ४२ आतन्नन ३ ३
आद्य
| आपन्न ३ १ ४२ आततायिन् ३ १ आधमाषक
आपन्नसत्त्वा २ ६ २२ आतप आधून
आपमित्यक २ ९ ४ ३ ५ २०
आधार ११० २९ आपान २१० ४२ आतपत्र २८ ३२ आधि १ ७ २८ आपीड २ ६ १३६ आतर ११० १२ ,
आपोन २ ९ ७३ आतायिन् २ ५ २१ / आधूत ३ १ ८७ | आपूपिक २ ९ २८
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आभरण
२
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आभाषण
आभास्वर
आमीर
आभीरपल्ली
आभीरी
आमील
आभोग
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आमिक्षा २ ७ २३ आमिष
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आवलि] (१४) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[इक्षुगन्धा का. व. श्लो. । शब्दाः का. व. लो. ! शब्दाः का. व. श्लो. आवलि २ ४ ४ | आशुशुक्षणि १ १ ५५ आस्कन्दन २ ८ १०४ आवसित आश्चर्य
आस्कन्दित २ ८ ४८ आवाप १ १० २९ आभम
आस्तरण २ ८ ४२ आबापक २ ६ १०७ आश्रय
आस्था ३ ३ भावाल
आस्थान २ ७ १५ आविद्ध ३ १ ७१
आस्थानी आश्रयाश ३ १ ८७ आश्रव
आस्पद आविष ३ २ ३६
३ १ २४
आस्फोट २ ४ ८० भाविल ११० १४
आस्फोटनी २१० ३३ आश्रुत आविस् ३ ४ १२
आस्फोटा २ ४ ७० आश्व १
२ ७ १२
८ आबुक
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, २ ४ १०४ थावृत्त १ ७ १२ आश्वस्थ
आस्य २ ६ ८९ आवृत आश्वयुज
भास्या ३ २ २१ आवृत आश्विन
आस्रव आवेगी
आश्विनेय १ १ ५१ आहत भावेशन आश्वीन २ ८ ४७
३ १ ८८ आवेशिक २ ७ ३४ आषाढ १ ४ १६
आइतलक्षा ३ १ १० आशंसित ३ १ २७
आइव भाशंस ३ १ २७ आसक्त
आहवनीय २ ७ ५९ भाशय ३ २ २० आसन २ ६ १३८ आहार २ ९ ५६ भाशर १ १ ५९
आहाव ११० २६ आशा
आहेय १ ८ ९ आसना अशितकवीन २ ९ ५९ आसन्दी
आहोपुरुषिका २ ८ १०१ आशीविष १८ ७
आसन्न
३ १ ६६ आइय आशिस् ३ ३ २२९ | भासव २ १० ४१ माहान १ ६ ७ আয়ু
भासादित २ ९ १५ | भासार १ ३ ११
२ ४ १६३ आशुग
, २ ८ ९६ क्षुगन्धा २ ८ ८६ / आसुरी २ ९ १९
२ ४ १०४ १ ३ १९ भासेचनक ३ १ ५३ ! ,
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५००
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| आहो
Page #612
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________________
(१५)
[उख्य
-
-
-
का. व. श्लो.
शब्दाः ईक्षणिका
शंडत
८७
इक्षुगन्धा]
मुलस्थशब्दानुक्रमणिका शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. इक्षुगन्धा २ ४ १६३ इन्द्राणिका २ ४ ६८
२ ४ १०४ इन्द्राणी १ १ इक्षुर
४५ इक्ष्वाकु _२ ४ १५६
इन्द्रारि १ १ বল
२०
इन्द्रिय १ ५ ८ हमुदी इच्छा
इन्द्रियार्थ १ इच्छावती
इन्धन इज्याशील २ ७
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२ ८ ३४ स्टचर २ ९ ६२
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इतिह इतिहास इत्वरी इदानीम् इध्म
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३ ४ २३
ईहामृग
१११
इन्दीवर
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इष्टकापथ इष्टगन्ध इष्टार्थोयुक्त
३ ४ १८ ३ ११०७
इन्दीवरी
२ ४ १००
उक्त उक्ति उक्थ
इष्वास
२ ८ ८३
उक्षन्
२
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इन्द्रवारुणी २ ४ १५६ | ईक्षण २ ६ ९३ | , इन्द्रसरस २ ४ ६८ | , ३ २ ३१ | उस्य
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--------------------------------------------------------------------------
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(१६)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[उदासीन
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शब्दाः का. ब. श्लो. : शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का व. श्लो.
उत्कण्ठा १ ७ २९ | उत्सर्जन १ ७ २९ १ ७. २०
उत्सव २ ५ ४२
१ उत्कर
७ ३८ उत्कर्ष ३ २ ११
३ ३ २०२ जनगन्धा ४१०२
उत्सादन २ ६ १२१ उत्कलिका २ ४ १४५
उत्साह
७ २९ उत्कार उच्च
उत्साहवर्धन १ ७ १८ उत्क्रोश उच्चटा
उत्सुक उत्तंस उन्ड
उत्सृष्ट ३ १ १०७ उत्त उच्चार
उत्सेध उत्तप्त उच्चावच उच्चैःश्रवस्
उदक ३ ४ २३ उचैर्युष्ट
उत्तमणे उच्चैस् उत्तमा
३ ५ २२ उत्तमान उच्छ्य २ ४ १०
उदक्या २ ६ २० उच्छाय
उदग्र उच्छित
उदज ३ २ ३९ उत्तरासग २ ६ ११७
उदधि १ १० १ उज्जासन उत्तरीय २ ६ ११८
उदन्त उज्ज्वल उत्तान ११० १५
उदन्या २ ९ ५५ उञ्छशिल उत्तानशया
उदन्यत् ११० १ उटज उत्थान
उदपान ११० २६ उत्थित ३ ३ ८५ उड़
उदय उडुप उत्पतित ३ १ २९
६ ७७ उड्डीन २ ५ ३७ उत्पत्ति
उदर्क २ ८ २९ उत ३ १ १०१, उत्पतिष्णु ३ १ २९
उदवसित २ २ ५ ३ ३ २४३ / उत्पल १ १० ३७
उदश्वित् २ ९ ५३
४ १२६ उताहो ३ ४ ४५ उत्पलशारिवा २ ४ ११२ उदान १ १ ६३ उत्क
उत्पात २८ १०९ उदार उत्कट ३ ४ ३४ | उत्फुल्ल २ ४ ७ , ३ ३ १९२ ३ १ २३ | उत्स
३ ५ । उदासीन २ ८ १०
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उद्वान्त
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उदाहार]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (१७) [उपनिषद् शब्दाः का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. उदाहार १ ६ ९ उद्भिज ३ १ ५१ / उपकण्ठ ३ .१ ६७ उदित ३ १ १०७ उद्भिद् ३ १ ५१ / उपकारिका २ २ १० उदीची उद्भिद
उपकार्या २ २ १० उदीच्य उद्मम
उपकुनिका २ ४ १२५ २ ४ १२२ उद्यत
२ १ ३७ उदुम्बर २ ४ २२
उपकुल्या ३ २ ११ उद्यम
२ ४ ९६ २ ९ ९७
उपक्रम २ ७ १३ उद्यान उदुम्बरपणी २ ४ १४४
३ २ २६ उद्यान उद्खल २ ९ २
३ ३ १३९ उद्योग उद्गत ३ १ ९७
उद्र ११० ३०
उपक्रोश उगमनीय २ ६ ११२ उद्वर्तन
उपगत उदाढ
८ ३६ उपगृहन ३ २ ३० उद्रात २ ७ १७
उपग्रह ३ १ ९७
२ ८ ११९ उदार
उपग्राह्य २ ८ २८ उहासन उद्गाथ ३ ५ १९
उपन उद्वाह उद्गुर्ण
उपचरित ३ १ १०२ उग्राह
उपचाय्य
७ २० उपचित
उपचित्रा उद्धन
उन्नत उद्घाटन
उपजाप उन्नतानत
उपशा २ ७ १३ उन्नय
उपतप्त २ २ १४ उद्दाल
उपताप १ २ ५१ उन्मत्त उदित
७७
उपत्यका उद्राव
उपदा ૨ ૮ ૨૮ उद्धर्ष १ ७ ३८ उन्मदिष्णु ३ १ २३
उपधा उद्धव १ ७ ३८ उन्मनस्
उपधान उद्धान
| उन्माथ २ ८ ११५ उपधि उद्धार
२१० २६ ভানা, १ ७ ७ उद्धृत ३ १ ९० । उन्माद १ ७ २६ । उअनिधि २ ९ ८१ उद्भव १ ४ ३० उन्मादवत् २ ६ ६० । उपनिषद् ३ ३ ९३
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उपनिष्कर] (१८) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[उलप शम्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. लो. शब्दाः का. व. श्लो. उपनिष्कर २१ १८ उपसंपन्न २ ७ २६ . उपासना २ ७ ३५ उपन्यास , ६ १
२४. उपासित ३, १०२ उपपत्ति २ ६ ३५ उपसर ३ २ २. उपाहित उपबई २ ६ १३७ । उपसर्ग उपभृत २ ७ २५ उपसर्जन
उपेन्द्र उपभोग ३ २ २० : उपसर्या
उपोदिका २ ४ १.७ उपमा
१० ३६ : उपसूर्यक , ३ ३. उपोद्धात १६ ९ १० ३७ उपस्कर
उमयधुस् ३ ४ २१ उपस्थ उपमान
२६ ७. उभयेधुस् ३ ४ २१ उपस्पर्श
३३ उमा १ उपयम
१ ३६ उपयाम
उपहार
-उमापति उपहर
१ ३४ उपरक्त
.. उरःसूत्रिका २ ६ १०४ उपांशु
उरग उपरक्षण उपाकरण
उरण उपराग उपाकृत
उरणाख्य उपराम ३ २ ३७ उपास्यय
उरभ्र उपल २ ३ ४ उपलधार्या १६ ५ उपादान
उररी उपलब्धि उपाधि
उररीकृत ३ ११८८ उरछर
उरस् उपला उपाध्याय
उरसिल उपाध्याया उपवन
२८ ७६ उपवर्तन उपाध्यायानी २ ६
उरस्य उपाध्यायी २६ उरस्वत उपवास
२८ ७६
उह उपविषा उपानह
उरुबूक उपवीत उपायचतुष्टय २
उर्बरा उपशस्य
उर्वशी उपायन उपशाय ३ २ ३२ उपावृत्त
उर्वार २ ४ १५५ उपभुत ३ १ १०९
उपासा २ ८ ८८ उवीं उपसम्यान २६ ११७ | उपासन २८ ८६ | कप
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--------------------------------------------------------------------------
________________
उलूक]
शब्दा :
का.
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (१९) [ ऋषम श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो.
ऊष्मागम १ ४ १९ २ २ २३ । ऊत २ ४ ३४। ऊधस् १ ० १८ ! ऊम् ३ ४ १८ | ऋथ २ ९ ९०
३ ३ २५४ | ऋक्ष १ ३ २१ २ ६ ३८ अरव्य
ऊरी ऊरोकृत ३ १ १०८ ऋक्षगन्धा २ ४ १३७
ऋक्षगन्धिका २ ४ ११०
ऊररी
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उलूक उलूखल उलूखलक उलूपिन् उल्का उख उल्वण उत्मक उल्लाघ उल्लोच उल्लोल उशनस् उशीर
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ऊह
ऋच
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अरुपर्वन् ऊर्ज१ ऊर्जस्वल ऊर्जस्विन् ऊर्णनाम ऊर्गा ऊर्गायु
उपर्बुध
| ऋजोष २ ९ ३२ २ ६ ७२
३ । ७२ ४ १८
ऋजुरोहित १ २ ८ ७६ .
ऋग २ ८ ७६ ऋतीया
१ ६ २२ २ . ७६
२ ९ २ ऋतु
उपस्
ऋत
उषा उपापति
१ १ २७
उषित
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उष्ट्र
ऊध्वंक ऊर्ध्वजानु ऊध्वंशु
उष्ण
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४७
ऋतुमती
२ ६ २१
अमि
ऋते
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उण्यरश्मि
good we ar
ऊर्मिका ऊर्मिमद
ऊष ३ ३ २ ४ १९
ऊपर
ऊपवद २ ९ ६६ | ऊष्मक
उष्णिका उष्णीष उष्णोपगम
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or
२ ७ १७ २ ९ २३ २ ४ ११२ १ १ ८ १ १ ४४
ऋत्विज् ऋद्ध ऋद्धि अमु ऋभुक्षिन् ऋश्य ऋषभ .
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उन्न
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१८
२ ४ ११६
Page #617
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ौत्तानपादि
का. व. श्लो.
एडक
ऋषम] (२०) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. ब. श्लो. शब्दाः ऋषम २ ९ ५९
एकाठीला २ ४ ८५ ऐरावण , ३ १ ५९
२ ६ ४८ ऐरावत ऋषि २ ७ ४२ ऋष्यप्रोक्ता २ ४ ८७
एडगज २ ४ १४७ एडमूक ३ १ ३८ ऐरावती एड्रक २ २ ४ : ऐलविल
२ ५ १०. ऐलेय १५ १७ ऐश्वर्य
३ ४ २३ ऐषमस एध
२ ४ १२०
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३ ४ २० ओ
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एकतान
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एकताल एकदन्त
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एधस २ र १३
एधित १ १ ३८
एनस एरण्ड एला
४ १२५ एलापर्णी २ ४१४. २ ९
| एलावालुक २ ४ १२१ २ १
एवम् ३ ३ २५१ १
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३ ४ १२ ३ ५ ८०
|, ३ ४ १५ २ ९ ६८ ३ १ ८२
एषणिका २१० ३२ ३ १ ७९
ऐ ऐकागारिक २१० २४
एकधुर एकधुरावह एकधुरीण एकपदी एकपिा एकष्टिका एकसर्ग एकहायनी एकाकिन् एकाग्र
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ओंकार ओजस् ओण्डपुष्प ओण्डपष्प ओतु ओदन ओम् ओष ओषधी
३ ३ २३४ २ ४ ७५ २ ५ ५ २ ९ ४८
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ओषधोश ओष्ठ
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एकाग्य
पेण
एकायन ३ १ ७९
२ ५ ८ औक्षक एकायनगत ३ १ ८० ऐणेय २ ५८ औचिती ३ ५ ३५. एकावली २ ६१०६ | ऐतिय २ ७ १२ मौचित्य ३ ५ ३९ , एकाष्ठील २ ४ ८१ | ऐन्द्रियक ३ १ ७९ औत्तानपादि. ३ २० ।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कङ्काल
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औदनिक]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (२१) [ कत्तृण का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. औदनिक २ १ २८ ।
कटु ३ ३ ३५ औदरिक ३ १ २१ क
२ ९ २० कटुतुम्बो २ ४ १५६ औपगवका ३ २ ३२ कत्र
कटुरोहिणी २ ४ औपयिक २८ २४ कच्चर
कटवल औपत्रस्त २ ७ ३८ कच्चित्
कटवङ्ग २ ४ ५६ औरभ्रक २ २ ९ ७० कच्छ २
कटिअर
७९ औरस २
२४ १२८ | कठिन औधदेहिक २ ७ ३० कच्छप १ १० २१ कठिरलक और्व
कच्छपी ३ ३ १३२ कठोर ३ १ ७६ औक्षोर ३ ३ १८६ कच्छुर २ ६ ५८
२ ९ २२ औषध २ ४ १३५ कच्छुरा २ ४ ९२
कडम्ब
३५ २ ६ ५० | कच्छू
कडार औष्ट्रक २ ९ ७७ । कञ्चक
कण
२ ८ ६३ क ३ ३ ५ कनुकिन्
कणा कट कंसाराति १ १ २१ "
कणिका ककुद ३ ३ १२ ककुभती २ ६ ७४
कणिश ककुम् १ ३ १ कटक
कण्टक ककुम १ ७ ७
२ ६ १०७
कण्टकारिका २ ४ ९३ कटम्मरा २ ४ ८५ कन्टकिफल २ ४ ६१ ककोलक २ ६ १३०
२ ४ १५३ कण्ठ कटमी २ ४ १५० ३ ३ २१९ कटाक्ष
कण्ठभूषा २ ६ कक्ष्या २ ८ ४२ कटाह
कण्डुरा २ ६ ७४
कण्डू कटी
कण्डूया २ ६ ५३ कङ्कटक कटोप्रोथ
कण्डोल कङ्कण
कण्डोलवीणा २ १० ३१ कातिका २ ६ १३९ | , २ ४ ८५ कत्तृण २ ४ १६६
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________________
कथा]
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कन्दली
कथा कदश्वन कदम्ब कदम्बक
का. व. इलो. ३८ ११८ २ ६ ०.७ २ ९ ४०
११० २१
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कपर्द
२ ७ ४६
कदली
(२२) मुलस्थशब्दानुक्रमणिका का. व. इलो. शब्दाः ___का. व. श्लो. 'शब्दाः
२. . कबन्ध कन्दु २ ३, कवरी कन्दुक कन्धरा कन्या
२ ६ ८ कमठ कपट
कमठी
११. ३५ कमण्डलु ४११३ कपर्दिन्
कमन कपाट
कमल ३ ४ ४
कपाल कपालभूत कपि
कमला कपिकच्छु . ४ ८७
कमलासन कपित्थ
कमलोत्तर कपिल कपिला
कम्प
कम्पन २ ६ ४३ कपिवल्ली
कम्पित कपिश २ ६ ८२ कपीनन
४ २७ कम्प्र
११० ४०
कदाचित् कदष्ण
कद्द कनक
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कनकाध्यक्ष कनजालुका कनकाइय कनिष्ठ
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कनिष्ठा कनोनिका कनीयस्
कपोन कपोतपालिका २ २ १ कपोनाहिन २ ४० कपोल २ ६ ९० कफ २ ६ ६२ क्रम्बुग्रीवा
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कफिन्
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कफोणि २ ६ ८० कर कन्दर्प १ १ २५ / कवन्ध ११० ४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कलकल]
[ काकोदर
शब्दाः
का. व. श्लो. ३ ३ १३०
कलकल
कलक
(२४) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः
कलिल ३ १ ८५ ' कशिपु १ ३ १७ कलुष । १ ४ २३ । कशेरु
११० १४ कशेरुका कलेवर
कश्मल ३ ७६ कल्क
३ ३ १४ ; कश्य २ ८ ३५ . कल्प
४ २१ ,
कलत्र कलधौत कलम
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२ ८ ८७ २ ४ १५७
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कल्पवृक्ष कल्पान्त कल्मष कल्माष कल्य
कस्तूरी कहार
कलरव कलल कलविङ्क कलश कलशि कलहंस कलह कला
२ ६ १०९ ११० ६६
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काकचिनी २ ४ ९८ काकतिन्दुक २ ४ ३१ काकनासिका २ ४ ११८
काकपक्ष २ ६ ९६ २ ८ ६४ काकपीलुक २ ४ ३९ ५४ काकमाची २ ४ १५१
काकमुद्रा २ ४ ११३ काकली १ ७ २ काकाङ्गी २ ४ ११८
काकिणी ३ ५ ३५ काक
१ ६ १२ काकुद २ ६ ९१ २ ७ २४ काकेन्दु २ ४ १९ २१० ३१ काकोदुम्बरिका २ ४ ६१ ३ १ ४४ काकोदर १ ८ ७
२ ८ १०४
कल्या
कल्याण ३ ३ १९८ कल्लोल २ १० ८ कवच
कवल ३ ३ १२९ कवरी २ ९ १६ कवि ८ १०५
कविका
कविय २ ४ ६७ कवीष्ण
कव्य २ ४ ५८ कशा २ ४ ४८ कशाई
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कलिका कलिङ्ग
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काकोल]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (२५), शब्दाः का. व. श्लो. शब्दा : का. व. श्लो.
शब्दाः काकोल १ ८ १० कान्ता
काय (तीर्थ) कान्तार २ १ १७ कायस्था काक्षी
३ ३ १७२ कारण काङ्क्षा
२७ कान्तारक २ ४ १६३ कारणा कान्ति १ ३ १७ । कारणिक
कारण्डव २८ कान्द विक २ ९ २८ कारम्भा काचस्थाली २ ४ ५४ कान्दिशीक ३ १ ४२ कारवी काचित
कापथ काश्चन २ ९ ९५
कापोत २ ५ काबनाहय काबनी २ ९ ४१ कापोताजन
कारवेल्ल काम
१ १ २५ कारा १ ७ २८
कारिका काजिक
२ ९ ५७ काण्ड
३ ३ १३८ काण्डपृष्ठ २ ८ ६६
कारु कामन
कारुणिक काण्डवत् कामपाल
कारुण्य काण्डीर २८ कामम्
कारोत्तर काण्डेक्षु २ ५ १०४ कामयितु ३ १ २४
कामिनी कातर
कार्तस्वर २६ ३
कार्तान्तिक कात्यायनी १ १ ३६ कामुक ३ १ २३
कार्तिक
कातिकिक कादम्ब २ ५ २३ कामुका कादम्बरी
कार्तिकेय कामुकी २१० ३९ कादम्बिनी १ ३ ८
काम्पिल्य २ ४ १४६ काद्रवेय
काम्बल २ ८ ५४ काम्वविक २ १० ८
कार्पासी कानन
काम्बोज २ ८ ४५ काम कानीन २ ६ २४
काम्बोजी २ ४ १३८ । कान्त ३ १ ५२
काम्यदान ३ २ ३ कान्तलक २ ४ १२८ काय २ ६ ७१ | काय
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कार्षापण]
(२६)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[किलासिन्
का. व. श्लो. १६ ११०
किनुलक
११० २२ ११० ४३
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२ ६ ६५
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शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः कार्षापण २ ९ ८४ कालीयक २ ४ १०१ / किङ्किणी काषिक २ ९ ८८
२ ६ १२६ कित्रित काल
काल्पक २ ४ १३५
काल्या २ ९ ७० किंजल्क १४ कावचिक
किटि कावेरी ३ ५ ११ काव्य १ ३ २४ किण कालक
काश ३ ४ १६२ किणिही कालकण्ठक काश्मरी २ ४ ३५
किण्व कालकूट १ ८ १० काश्मय
२ ४ ३६
कितव कालखण्ड २ ६ ६६ काश्मीर २ ४ ४५ कालधर्म २ ८ ११६
काश्मीरजन्मन् २ ६ १२४ कालपृष्ठ
काश्यपि १ ३ ३२ कालमेषिका २ ४ ९०
काश्यपी २ १ २ १०९
किन्नरेश काठ
२ ४ १३ कालमेषी
किम् काष्ठकुहाल ११० कालशेय
काष्ठतक्ष
२ १० कालसूत्र
काष्ठा कालस्कन्द
किमुत
२ १० ४२
२ ४ ७७ २ १० ४३
किनार
१ १ ७१ १ १ ६९ ३ ३ २५१
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१ ४८ १ ७१
काला
४ ९४
काष्ठीला
कास
९ ३७ कासमद कालागुरु २ ६ १२७
कासर कालानुसार्य २ ४
कासार २ ६ १२६ । किंवदन्ती कालायस
९८ किंशारु कालिका ३ ३ १५ कालिन्दी ११० ३२ | किंशुक कालिन्दीभेदन १ १ २४ किकीदिवि काली
१ १ ३६ / किार
किम्पचान | किम्पुरुष
किरण २ ५ ४ किरात
किराततिक्त ६ ७ किरि २ ९ २१ किरीट
किमीर २ ४ २१
किल २ ५ १६ / किलास २ १० १७ | किलासिन्
२१० २० २ ४ १४३ २ ५ २ २ ६ १०२
३ ३ २५९ २ ६ ५३ २ ६ ६१
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
किलिक ]
शब्दाः
का. व. इलो.
किलिञ्जक २ ९ २६ किल्विष १ ४ २३
३
३ २२४
२
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किशोर
किष्कु
किसलय २
कोकस
२
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कीनाश
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कोलक
कोलाल
कोलिन
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का. व. इलो.
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शब्दाः
कुचन्दन
कुचर
कुचाम
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कुचित
कुक्ष
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कुअराशन
कुञ्जल
कुट
३ कुटी
19
कुटक
कुटज
कुटन्नट
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कुट्टनी
कुट्टिम
कुठर
कुठार
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कुप्य] (२८) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[ कूटयन्त्र शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दा: का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो कुप्य
कुरबक २ ४ ७५ | कुवाद कुबेर कुरर
कुविन्द २ १०६ ५ ३ ३ कुरण्टक २ ४ ७५ कुवेणी कुबेरक २ ४ १२७ / कुरुविन्द २ ४ १५९ / कुश
२ ४ १६६ कुबेराक्षी | कुरुविस्त
३ ३ २५६ कुब्ज
___ ४१ कुमार ७ १२ कुलक २ ४ ३९
३ ३ २६४ कुमारक
२ ४ १५५ कुमारी ૨ ૪ ૭૨
कुशीलव
__ २ १० १२ कुलटा
कुशेशय ११० ४० कुमुद १ ३ ३ कुलस्थिका २ ९ १०२ कुष्ट २ ४ १२६
कुलपालिका २ ६ ७ कुमुदवान्धव १ ३ १३ कुलश्रेष्ठिन् २१० .! कुमुदिका २ ४ ४० कुलसम्मव २ ७ २ कुसौद ___ २ ९ ४ कुमुदिनी ११० कुलसी
कुसीदिक कुमुदत
कुलाय २ ५ ३७ कुसुम २ ४ १७ कुमुदती कुलाल
कुसुमाञ्जन २ २ १०३ कुम्बा १८
२ ९ १०२
कुसुमेषु १ १ २६ कुलिश
कुसम्म २ ९ १८६ ર૭ कुली
__९४ १३४ कुलोन
कुसूति १ ७ ३० कुम्भकार २१० ६ कुलीर ११० २१ कुस्तुम्बुर २ ९ ३८ कुम्भसम्मव १ ३ २० कृल्माष
कुहना कुम्भिका
५ २१ कुम्भी
कुरुमाषामिषुत २ कुम्भीर ११० २१ कुल्य
३ १ कुरज
कुल्या ११० ३४ कूट कुरण्टक २ ४ ७४
कुवल २ ४ ७५ कुरबक २ ४ ७४ | कुवलय ११० ३७ कूटयन्त्र २ १० २६
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________________
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केतन
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (२९) [ केशिक शब्दाः का. व. श्लो. शब्दा: ___ का. व. श्लो. ! शब्दाः का. व. श्लो. कृटशाल्मलि २ ४ ४७ / कृतिन् २ ७ ६ कृष्णफला २ ४ ९६ कूटस्थ ३१ ७३ , ३ १ ४ कृष्णभेदी २ ४ ८६ कृप
२६ । कृत्त ३ १ १.३ । कृष्णला २ ४ ९८ कृपक
। कृत्ति २ ७ ४६ कृष्णलोहित १५ १६ ११० १२ । कृत्तिवासस ।। ३. कृष्णा वर्मन् १ १ ५४ २ ६ ७५ कृत्या ३ ३ १. कृष्णवृन्ता २ ४ ५५ ५७ कृत्रिमधूपक २ ६ १२८ । कृष्णसार ५ कृत्स्न
कृष्णा कृचंशीर्ष २ ४ १४२ कृपण ३ १ ४८ कृष्णिका कृचिका
कृपा १ ७ १८. केकर कूर्दन १ ७ ३३ कृपाण
केका कूपर २ ६ ८० कृपाणी
केकिन् कूर्पासक २ ६१८ | कृपालु
केतकी २ ४ १७० ११० २१ कृपीटयोनि १ १ ५३ कूल कृमि
३ ३ ११४ कूष्माण्डक २ ४ १.५ कृमिघ्न २ ४ १०६ केतु कृकग २ ५ १९ / कृमिज २ ६ १२६ केदर कृकलाम
| कृश ३ ६ ६१ केदार कृकवाकु कृशानु
केनिपातक ११० १३ कृकाटिका
कृशानुरेतस् १ १ ३३ केयूर कृच्छ्र कृशाश्विन् २१० १२
केलि १ ७ ३२
केवल कृषक
३ ३ २०४ कृषि
केश कृतपुर कृषिक
३ ५ १२ कृतमाल कृषीवल
केशपर्णी कृनमुख
केशपाशी कृतलक्षण कृष्ण
केशव १ १ १८ कृतसापलिका २ ६ ७ कृतहस्त २ ८ ६८
केशवेश २ ६ ९६ कृतान्त १, ५८
केशाम्बुनामन् २ ४ १२२ ३ ३ ६४ | कृष्णपाकफल २ ४ ६७ / केशिक
७७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
केशिन
. (३०)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[क्रकच
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कोदण्ड
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शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. ३लो. शब्दाः का. व. श्लो. केशिन् २ ६४ कोटि
कोश २ . " केशिनी २ ४ १२६ । कोरिवर्षा ४ १३३ / , ३६ :२५ केसर कोटिश
कोशफल कोट्ट
कोशातकी कोठ
कोष २ ४ ६५ कोण , ७ ६ कोष्ठ केसरिन्
" २ ८ ९३ कोष्ण कैटभजित
कौक्कुटिक कैडर्य कोद्रव
कौक्षेयक कैनव
कोप
६
कौटतक्ष २१० ४४ कोपना
कौटिक केदारक २ ९ ११ कोपिन
कौणप कैदारिक
कोमल ३ । ७. कौतुक ७ ३१ केदार्य २ ० ११ कोयष्टिक
कौतूहल ११० ३७ कोरक १ ४ १६ कौद्रवीण २ ९ ८ कैलास कोरङ्गी
कौन्तिक कैवर्त ११० १५ कोरदूष
कौन्ती २ ४ १२० कैवींमुस्तक २ ४ १३२ कोल
कौपीन
१२३ कैवल्य
३६ | कौमुदी ३६ कैशिक
कौमोदकी कैश्य
कौलटिनेय २ ६ २७ कोक
कौलटेय कोलदल कोकनद ११० ४२ कोलम्बक
कौलटेर कोकनदच्छवि १ ५ १५/ कोलवली २ ४ ९७ कोलीन कोकिल २ ५ १९ कोला २ कोलेयक कोकिलाक्ष २ . ०४ कोलाहल १६ २५ कौशिक कोटर
कोलि २ ६ १७ कोविद १ ७ ५ कौशेय २ ६१११ कोटि २८ ८४ | कोविदार २ ४ २२ कौस्तुभ १ १ २८
. २८ ९३ ) कोश २ ५ ३७ / कच २१० ३४
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(३१)
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका शब्दाः का. व. श्लो.
शब्दाः
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क्रोधन क्रोष्ट | क्रोष्टुविना २ क्रोष्ट्री
२ ५ २२ कौश्चारण १ १ ४० कुम
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क्षत्रिय क्षत्रिया क्षत्रियी क्षत्रियाणी
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क्रमेलक क्रयविक्रयिक २ ऋयिक
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क्षपा क्षपाकर क्षम क्षमा क्षमित
कम्य क्रम्याद ऋम्याद कायक क्रिया
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________________
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क्षान्ति ]
(३२) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो.
शब्दाः क्षान्ति १ ७ २४ क्षुध्
क्षौम क्षुधित ३ १ २० क्षारक क्षुप
क्ष्मा क्षारमृत्तिका २ १ ४ क्षुमा
क्ष्माभृत क्षारित
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क्षुरिन् क्षिप्तु
क्षुल्लक १ १ ६४ क्षिया क्षीब ३ १ २३
१ १० ४ २ १ ५१
३ ३ १८३ क्षीरविदारी २ ४ ११० क्षीरशुक्ली २ ४ ११०
क्षेत्राजीव क्षीरावी २ ४
क्षेपण क्षोरिका २ ४ ४५
क्षेपणी क्षीरोद १ १०२
क्षेपिष्ट क्षुद २ ६ ५२ क्षुत २ ६ ५२ क्षुतामिजनन २ ९ १९ क्षुद्र ३ ३ १७८
क्षोद क्षुद्रपण्टिका २ ६ ११० क्षोदिष्ट क्षुद्रशा ११० २३
क्षोम क्षुद्रा २ ४ ९४
३ ३ १७७ / क्षौम
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खगेश्वर खजाका खज खञ्जन खारीट
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खण्डविकार २ ९ ४३ ९ १०७ खण्डिक २ ९ १६ ६ १११ । खदिर २ ४ ४९
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________________
खदिरा ]
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खदिरा
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गवेषणा
२ ७ ३२ , २ ५ ११ गर्जित , ३ ८ गवेषित ३ ५ १०५ २ ८ ४४
२ ८ ३६ । गव्य २ ९ ५०
गव्या गन्धर्वहस्तक २ ४ ५० गर्दम २ ९ ७७ गव्यूति गन्धवह १ १ दर गर्दभाण्ड
गहन गन्धवहा २ ६ ८९
गर्धन ३ १ २२ गन्धवाह १ १ ६२ गर्भ
गहर गन्धसार २ ६ १३१
३ ३ १३५ गन्धाश्मन् २ ९ १०२
१३५
गाङ्गेय गन्धिक २ ९ १०२
गर्मागार गन्धिनो २ ४ १२३ गर्भाशय २६ २८
| गाङ्गेरुकी गन्धोत्तमा
गर्मिणी २१० ३९
२
गाढ ६ २२
१ १ ६७
गाणिक्य ५ २७ गोपघातिन २ ९ ६९ गन्धोली
२ ६ २२ गमस्ति
२
गाण्डिव ४ १६५
२ ८ ८४ गमीर गर्व १
गाण्डीव २ ८ ८४
गात्र गम
गर्हण १६ गमन गम्भारी गर्धवादिन् ३ १ ३७
गात्रानुलेपनी
गान गम्भीर गल २ ६ ८८
गान्धार गम्य
गलकम्बल २ ९ ६३ गायत्री
गलन्तिका २ ९ ३१ गारुत्मत गरिष्ठ ३ १ ११२ गलित ३ १ १०४ गामिण गरी
गल्या ३ २ ४२ गाईपत्य गवय २ ५ ११ गालव
गवल २ ९ १०० गिर १ ६ १ गरडाप्रज
गवाक्ष गरव
गवाक्षी __ २ ४ १५६ गरुत्मत १ १ २९ गवीश्वर २ ९ ५८ | गिरिकणी २ ४ १०४
२ ५ ३४ गवेधु २ ९ २५ गिरिका २ ५ १२
११ ५८ गवेधुका २ ९ २५ गिरिव २ ९ १०४
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मुलस्थशब्दानुक्रमणिका (३५) [गोजिला का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. गिरिजामल २ ९ १०० गुन्द्रा गिरिमल्लिका २ ४ ६६ । " २ ४ १६०
२ ४ १५१ गिरिश गिरीश १ १ ३१ " गिलित ३ १ ११० गुरण
३ ३ २३८ गीत १ ६ २६
गृहगोधिका २ ५ १२ गीर्ण ३ १ ११०
गृहपति २ ८ १५ गोणि ३ २ ११
गृहयालु ३ १ २७ गोष्पति १ ३ २४ : गर्विणी २६ २२
२२ | गृहस्थूण ३ ५ ३० गोर्वाण गुल्फ
गृहाराम
गृहावग्रहणी २ २ १३ गुग्गुलु
४ ३४ , गुल्म २ ६ १०५
२६ ६६ गृहिन्
२ ८ ८१ गृह्यक २ ५ ४३ गुच्छक गुच्छार्थ गुल्मिनी
२ ६ १३८ गुजा गुवाक
૨ ૨ ૪
१ १ ३९ गैरिक २ ३ ८ गुडपुष्प
२ ४ २८ गुहा २ ३ ६ , गुडफल
२ ९ १०४ गुडा
गुह्य ३ ३ १५४ गो २ ९ ९ गुडूची २ ४ ८२ गुह्यक १ १ १११ . , गुह्यकेश्वर
३ ३ २५ " २ ९ २८ गूढ ३ १ ८९ गोकण्टक २ ४ ९९ , २ १० २७ गूढपाद १.८ ७ गोकर्ण २ ५ १०
. ३ ३ ४७ गूढपुरुष २ : १३ , २ ६ ८३ गुणवृक्षक
२ ६ ६८ : गोकणी
गून गुण्ठित . ३ १ ८९ गृञ्जन २ ४ १४८ : गोक्षुरक २ ४ ५९
२ ६ ७३ गृध्नु ३ १ २२ गोचर १ ५ ८ गुन्द्र २ ४ १६२ गृध्र २ ५ २१ : गोजिह्वा २ ४ ११९
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गोमायु
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गोशाल
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गोस्थानक
गौतम
गौधार
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घाटा
ग्राहिन्
ه
२ ४ २१
घाण्टिक
२ ६ ८८ २ ८ ९६ २ ८ ११५ ३ १ २८
कोरक
घात
ग्रीवा ग्रीष्म
११०
७
धातुक
१ २८ : चक
ग्रैवेयक
२
६ १०४
سه
MNM
५ २२ २ ८ ५६
ग्लस्त
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घास
४ १६७
८
७८
२१० ४५
धुटिका
ग्लान
घुण
ग्लास्तु
१ ३२
घूर्णित घृणा
घ
३ ३ १८२ चक्रकारक २ ४ १२९ चक्रपाणि १ १ २० चक्रमर्दक २ ४ १४७ चकला २ ४ १६० चक्रवर्तिन् २८ २ चक्रवर्तिनी २ ४ १५३ चक्रवाक
घट घटा घटीयन्त्र घण्टापय घण्टापाटलि घण्टारवा
m a m ma in mor no roon n or or wou aan x w s or a n m m or ons u ws xar x w w
२ ८ १०७ २१० २७ २ १ १८ २ ४ ३९ २ ४ १०७
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चक्रवाल
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घोटक
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चक्रात चक्राझी
घोणा
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घोणिन्
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२०
1
८ ९१ ! धोण्टा
चक्रीवत
२ ९ ७७ ३ १ ६६ / धोर
चक्षुःश्रवस् १ ८ ७ घोष
चक्षुष २ ६ ९३ धनरस घोषक
चक्षुष्या घनसार २ ६ १३० घोषणा
चञ्चल ३ १ ७५ घनाघन ३ ३ ११० घ्राण १ ६ ८९ चञ्चला
३ १ ९० चन्नु
धर्म
Page #635
--------------------------------------------------------------------------
________________
चनु]
(३८)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[चाण्डालिका
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Y
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२१०
२०७
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का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. हो. चञ्च २ ५ ३६ चन्द्रभागा ११० २४ चराचर ३ १ ७४ चटक २ ५ १७ ! चन्द्रमस १ ३ १३ | चरिष्णु चटका
५ १८ चन्द्रवाला २ ४ १२५ चर ५ १८ चन्द्रशेखर ?
चर्चगे चटकाशिरस १२० चन्द्रसंश २ ६ १३० चर्चा १ ५ २ चणक चन्द्रहास
૨ દ ૨૨૨ चण्ड
चर्मकष २ ४ १४३ चन्द्रिका चण्डा २ ४ १२८
चर्मकार चण्यात
चर्मन् चण्डातक
चर्मप्रभेदिका २१० ३४ चण्डाल
पला २ १० १०
चर्मप्रसेविका २१० ३३ चण्डालवलको २ १०
चर्मिन् २ ४ ४६ चपट चण्डिका
२ ८ ७१ चमर चतुःशाल २ २
चर्या २ ७ ३५ चमरिक १९
चर्वित ३ १ १११ चतुरङ्गुल २ ४ चतुरानन १ १
चलदल २ ४ २०
३ १ ७४ चतुर्भद्र
चलाचल चतुर्भुज १
चलित २ ८ चतुर्वर्ग
चमूरु चतुहायणी २ ९ ६८ / चम्पक
९ चतुष्पथ
चविका चत्वर
चव्य २ ४ ९८
चषक २० ४३
३ . ७४ चषाल २ ७ ८ चन्दन
चरक
३ ५ ३३ चाक्रिक २ ८ ९६ चन्द्र चरण
चाङ्गेरी २ ४.४० २ ४ १४६ चरणायुध
चाटकर ३ ३ १८३ चरम
चाण्डाल २१० २० चन्द्रक २ ५ ३१ चरमक्ष्माभूत २ ३ २ चाण्डालिका २५० ३१ ।
६
चमसी
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१७
Page #636
--------------------------------------------------------------------------
________________
[चातक]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(३९)
[चैत्य]
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२१०
चक
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३ २ ४ चित्रतण्डुला
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शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. / शब्दाः का. व. श्लो. चातक २ ५ १७ चित्र
चिल्ल चातुर्वर्ण्य
३ ३ १७९ चाप चित्रक २ ४ ५१
चीन चामर २ ८ ३२
चोर चामीकर
२ ६ १२३
चीरी ५ २८ चाम्पेय २ ४ ६३ चित्रकार
चीवर र २ ४ ६५ मत चित्रकृत २ ४ २७
२ ४ १४१ चार २८ १३
चित्रतण्डुला २ ४ चारटी चित्रपणी २ ४ ९२
२ ४ १४०
चुक्रिका चित्रमानु १ १ ५६
चुल्ल चारु __ ३ ३ १०५
२ ९ चाचिंक्य
३९ २ ६ १२२
चित्रशिखण्डिज १ ३ २४ चूचुक २ ६ ७७ चालनी २ ९ २६ चित्रशिखण्डिन् १ ३ २७
चूडा चाष चिकित्सक चित्रा २
२ ६ १०२ चिकित्सा
चूडाला चिपिटक चिक्कण चिरक्रिय ३
चूर्णकुन्तल २६ ९६ चिञ्चा चिरण्टी
चूर्णि ३ ५ ९ चित् चिरन्तन
चूलिका २ ८ ३८ | चिरप्रसूता २ ९ ७१ चिता
चिरबिल्ल २ ४ ४७ चेटक चिति २ ८ ११७ चिररात्राय ३ ४ १
चेव चित्त १ ४ ३१ चिरस्य ३ ४ १ चेतकी चित्तविभ्रम १ ७ २६ / चिराय ३ ४ १ चेतन चित्तामोग १५ २ चिरण्टी २ ६ ९ चेतना चित्या २ ८ ११७, चिलिचिम ११० १८ चित्र १ ५ १७ चिल्छ २ ५ २१ चैत्य
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चूडामणि
चिन्ता
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चिकुर
चूर्ण
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चिक्कस
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चेतस्
___
Page #637
--------------------------------------------------------------------------
________________
[चैत्र]
(४०)
--
का. व. श्लो.
शब्दाः
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
व. श्लो. शब्दाः २ ८ २२ | जग्धि ३ १ ९८ जघन
८ १०८ जघनेफला छवि
जघन्य
का. व. शो. २ ९ ५५
चैत्र चत्ररथ चत्रिक चैल
orm
छल
or vom
२ ३
४ ६१ १ ८१
२०३
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चोच
२
४ १३४
जघन्यज
छाग छागी
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चोरपुष्पो चोक चौर
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४४ १०३
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१२६
११८ २१० २४ २१० २५ २ १० २५ ३ १ १०४
चौरिका
छादित
जङ्गम ३ १ ७४ जङ्गमेतर ११ ७३ जडा २ ६ ७२ जङ्घाकारिक २ ८ ७३ जाल २ ८ ७३
२ ४ ११ २ ६ ९७
छान्दस
चौर्य च्युत
३ १५८ ११०३
जटा
छाया छित छिद्र চিবির छिन्न छिनरुहा छुरिका
जटामांसी
छगलक छगलान्त्री
२ ९ ७६ २ ४ १३७
जटिन्
२
जटिला
Mr. Mr
८ ९२
४ १०५
२ ४ १३४ २ ६ ७७
जठर
४ १६७
छेदन
जड
छत्राकी
२
४ ११५
३
१ ३८
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mor mom rnm Mr Pr
२ ६ १२५
२ ५ ३६ जगत् छदन छदिस १४ जगती
जतुक छभन्
जतुकृत् छन्द ३ २ २० লাগ १ १ ६२
जतुका छन्दस् २ ७ २२ | बगल २ १० ४१ | जतूका छन्दस् ३ ३ २३२ / जग्ध
५ २६
२ २
४ १५२
Page #638
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिनक]
मुलस्थशब्दानुक्रमणिका
(1)
[जातु]
--
-
२ १०
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जलौकस्
शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. जनक . २ ६ २८ जम्बुक
जलाधार ११० २५ जनगम जम्बू
जलाशय ११० २५ जनता
जम्म जनन जम्भभेदिन् १
जलोच्छ्वास १ १० १० जम्मल २ ४ २४
११० २२ जननी
जम्मीर २ ४ २४ जलौका ११० २२ जनपद
जय २ ४ ६६
जल्पाक जनयित्री
२ ८ ११० जल्पित ३ ११०७ जनश्रुति
३ २ १२
१ १ ६४ जनार्दन जयन
२८ ७३ जनाश्रय जयन्त
जवन जनि जयन्ती
२ ८ ७३ जनो २ ४ १५३
__ ३ २ ३८ जया जय्य २ ८ ७४
जवनिका २ ६ १२० जनुस्
जरठ ३ १ ७६
जहुतनया ११० ३१ जरण
जागरा ३ २ १९ जरत २ ६ ४२ जागरित ३ १ ३२ जन्मन् जरदव
जागरूक जन्मिन्
जागयों जन्य जरायु
जाङ्गुलिक १ ८ ११ जरायुज
जाडिक २ ८ ७३
जात १ ४ ३१ जन्यु
जलजन्तु
१० २० जातरूप २ ९ ९५ जलधर
| जातवेदस् १ १ ५३ जपापुष्प
जलनिधि ११० २ जातापस्या जम्पती
जलनिर्गम ११० जाति जम्बाल ११० ९ जलनीली ११० ३८
૨ ૪ ૭૨ जम्बीर
२४ जलपुष्प ३ ५ २३ / २ ४ ७९ । जलप्राय २ १ १० जातीकोश २ ६ १३२
जलमुच् १ ३ ७ जातीफल २ ६ १३२ जम्बुक २ ५ ५ जलव्याल १ ८ ५ जातु
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जन्तु
२
४
७६
जम्बु
Page #639
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ जातोक्ष]
(४२)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[ज्योतिष्मतो]
-
का. व. श्लो.
का. व. श्लो. शब्दाः १ ३ ७/ जम्मण २ ४ ६९ / जेतु
२
८
७४
शब्दाः जातोक्ष जानु जाबाल जामात जामि जाम्बव जाम्बूनद जायक
का. व. श्लो. ! शब्दाः २ ९ ६० जोमृत २ ६ ७२
१० ११ २ ६ ३२ ३ ३ १४२
जीर्ण
जीरक
नमन
Am
२ ६ ४२
जीणि
२ ९ ९५ २ ६ १२५
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२ १
८ ७४ ३ १४
जीर्णदख
जीव
जाया जायाजीव जायापति
२ ६ १२६ ३ ३ २५१
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जालक जालिक जाली जारम
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जीवंजीव २ ५ ३५
शपित जीबन ११० ३ बाप्त ३ १ ९८
२ ९ १ शप्ति जीवनी २ ४ १४२ शातसिद्धान्त २ ८ १५ जीवनीया २ ४ १४२
शाति जीवन्तिका २ ४ ८२
शात
शातेय २ ४ ८३ जीवन्ती २ ४ १४२ शान जीवा २ ४ १४२ जीवातु २ ८ १२० जीवान्तक २१० १४
२ ८ ८५ जीविका
ज्यानि जुगुप्सा १ ६ १३ ज्यायस् जुङ्ग २ ४ १३७
३ ३ २३५ जुहू २ ७ २५ । ज्येष्ठ १ ४ १६
or
९०
जिघत्सु जिङ्गी जित्वर जिन
शानिन्
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जिष्णु
२८ ७७ ३ १ ७५
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जिह्वा
ज्योतिरिङ्गण २ ५ २८ १ ७ ३५ | ज्योतिष्मती २ ४ १५०
जीन
२ ६
४२ | जम्म
Page #640
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ज्योतिस्।
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(४३)
[तप]
का. व. श्लो. | शब्दाः
तत्काल
का. व. श्लो. २ ८ २९
on
तत्व
or
८ तत्पर
तत्पर
शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः ज्योतिस् ३ ३ २३० ज्योत्स्ना १ ३ १६ डमर ज्योस्लो २ ४ ११८
डमरु ज्योतिषिक २८
डयन ज्योत्स्नी ज्वर २ ६ ५६ डिण्डिम
डिण्डीर ज्वलन
डिम्ब
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२ ५
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झर्झर
ढक्का झलरी झष ११० १७
नत्र झषा २ ४ ११७
तक
२ ९ ५३ तनू झाटल तक्षक
तनुकृत झाटलि सक्षन्
तनूनपात झाबुक
तनूरुह झिण्टा
तटिनी झिण्टी
तडाग ११० २८ झिल्लिका २ ५ २८ तडित
तन्तुम झीरका २ ५ २८ तडित्वत्
तन्तुवाय सण्डक
तण्डुल २ ४ १०६ टक २१० ३४ तण्डलीय
तन्त्रक ३ ५ ३३ तत
तन्त्रिका रिट्टिभक २ ५ ३५
तन्द्रा टीका
३ ४ ३ | तन्द्री टुण्टुक २ ४ ५६ । ततस् ३ ४ ३ | तप
२१० २८
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तन्त्र
२ १० ३ ३ १८५ २ ६ ११२ २ ४ ८२ ३ ३ १७६
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________________
[तरन]
(४४)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[ ताली]
-
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शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. तपन १ ३ ३१ | तरस् १ १ ६४ | तापस २ ७ ४२
१ ८ १०२ तापसतरु २ ४ ४६ तपनीय २ ९ ९४ तरस २ ६ ६३ तापिच्छ २ ४ ६८ तपस
तरस्विन् २८ ७३ तामरस ११० ४० ३ ३ २३२
२ १२८
तामलकी २ ४ १२७ तपस्य १ ४ १५ तरि
ताम्बूलवल्ली २ ४ १२० तपस्विन् २ ७ ४२ । तरु
ताम्बूली २ ४ १२० तपस्विनी २ ४ १३४ | तरुण
ताम्रक २ ९ ९७ तम १ ३ २६ तरुणी २ ६ ८ ताम्रकणी १ ३ ५ तमस् १ ४ २९ तके
ताम्रकुट्टक २ १० तकारी
ताम्रचूड ३ ३ २३२
२ ६ ८१
८१ | तार १७ २ तमस्विनी १ ४ ४ तर्णक २ ९ ६०
३ ३ १६६ तमाल
तारकजित १ १ ४०
तारका तमालपत्र
२ ६ ९२ तमिस्र
तारा १ ३ २१ तमिस्रा
तारुण्य तमो
ताक्ष्य १ १ २९ तमोनुद ३ ३ ८९
३ ३ १४६ तमोपह ३ ३ २३९
तायशैल २ ९ १०२ तरक्षु २ ५ १ तरङ्ग तलिन्
२ ४ १६८ तरङ्गिणी ११० ३० तल्प
२ ६ ८३ तरणि १ ३. ३०
तल्लज १ ४ २७ , २ ९ १०३ ११० १० तष्ट
तालपत्र २ ६१०३ तस्कर
तालपणी २ ४ १२३ तरपण्य
तालमूलिका २ ४ ११९ ताण्डव
तालवृन्तक २ ६ १४० तात २ ६ २८ | तालाङ्क १ १ २४ तरला
२ ९ ५० | तान्त्रिक २ ८ १५ | तालो २ ४ १२७
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[ ताली ]
शब्दाः
ताली
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का. व. श्लो.
२ ४ १७०
२
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३
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१.
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तिक्तक
२
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तिक्तशाक २
४ २५
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तितिक्षा
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तित्तिरि
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तिन्तिडी २
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तिन्तिडीक तिन्दुक २ ४ ३८
तिन्दुकी
३
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१. १० १९
तिमिङ्गिल १. १० २०
तिमिन
३ ५. १०५
तिमिर
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
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३ ४
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तिरस्करिणी २ ६ १२०
१. ८ ३
३
३ २५७
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शब्दाः
तिलक
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तिलकालक
तिलपर्णी
तिलपिञ्ज
तिलपेज
निलित्स
तिल्य
तिल्व
तिष्य
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तिष्यफला
तोक्षण
99
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तीक्ष्णगन्धक
तोग
तीर्थं
तीव्र
तीत्रवेदना
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तिरोधान १ ३ १३ तुङ्गी तिरोहित २ ८ ११२ तियंच् ३ १ ३४
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२ ६ ४९
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शब्दाः
तुण्डिकेरी
तुण्डिभ
ਰੁਪਿੰਦਰ
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तुन्दिभ
तुन्दिल
सुन्दिन्
तुन्न
तुनवाय
तुमुल
तुम्बी
तुरग
तुरङ्ग
तुरङ्गम
तुरङ्गवदन
तुरायण
तुरासाह
तुस्थाअन
२
तुन्द
२
तुन्दपरिमृज २ १०
२
२
तुरुष्क
तुला
तुलाकोटि
तुल्य
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४ १३९
३
१
२
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२ ४ ११६ | तुवरिका
५६. तुल्यपान
[ तुवरिका ]
का. व. इलो.
२ ४ १३९
तुच्छ
तुण्ड
तुण्डिकेरी
२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[त्रिपुटा]
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का. व. श्लो. ३ ११०७
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तूणीर
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[ तुष]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका शब्दाः का. व. श्लो. হাঃ का.व.
शब्दाः तृप्ति
त्यक्त २ ९ २२
१ ७ २७ श्याग
त्रपा १९ तृष्णक ३ १ २२ त्रपु तुषित
१० तृष्णा ३ १ ५१
तेजन २ ४ १६१ तेजनक २ ४ १६२ तेजनी २ ४ ८३
त्रस्त ३ ३ २३४
সাল जित तूबर
३ २ २९
স্বার तुर्ण १ १ ६५
त्रायन्ती तैत्तिर २ ५ ४३
वायमाणा तेलपर्णीक २ ३ १३१
त्रास तूलिका
त्रिक तैलंपाता २ १० ३२
३ ५ तूष्णींशील
त्रिककुद् । तैलपायिका ३ १ ३९
२ ५ तूष्णीक ३ १ ३९
त्रिका तूष्णोकाम् ३ ४ तूष्णीम् ३
त्रिखटव तोकक
त्रिखटवी तोक्म तृगद्रुम
त्रिगुणाकृत तृणधान्य
त्रितक्ष तोत्र तृणध्वज २ ४ १६०
त्रितक्षी तणराज २ ४ १६८
त्रिदश तुगशून्य तोमर
त्रिदशालय तृण्या २ ४ १६८ तोय
त्रिदिव तृतीयाकृत २ ९ ९ तोयपिप्पली २ ४ १११ | त्रिदिवेश तृतीया प्रकृति २ ६ ३९ | तोरण २ २ १६ त्रिपथगा
३ १ १०१ / तौर्यत्रिक : १ ७ १० | त्रिपुटा
२ २ १
४ १५० ४ १५० ७ २१
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२ ९ १११ ११० २७
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११ ७ १ १ ६ १ १ ६ १ १ ७ ११० ३१ २ ४ १०८
तृप्त
Page #644
--------------------------------------------------------------------------
________________
[त्रिपुटा]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(४७)
[दमती]
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दन्त
शब्दाः का. व. श्लो. शब्दा: व. श्लो. शब्दाः का. व. लो. त्रिपुटा २ ४ १२५ त्वच २ ४ १२ दण्ड २ ८ २० त्रिपुरान्तक १ १ ३३
२ ८ ७१ त्रिफला २ ९ १११ त्वच त्रिमण्डी २ ४ १०८ स्वचिसार
दण्डधर १ १ ५९ त्रियामा १ स्वरा
दण्डनोति १ ६ ५ त्रिलोचन १
स्वरित १ १ ६४ दण्डविष्कम्म २ ९ ७४ त्रिवर्ग
दण्डाहत ७३ ८
२ ९ ५३ २ ७
दद्रुत २ ४ १४७ त्रिविक्रम
दद्रुण २ ६ ५९
३५ दद्रुरोगिन् २ ६ ५९ त्रिविष्टप
दचित्य त्रिवृत्
३ ३ २२५ दधिफल २ ४ २१ त्रिता २ ४ १०८
स्विषाम्पति
३ ३०
दनुज त्रिसन्ध्य १ ४ ३ त्रिसीत्य २ ९ ९ बिस्रोतस् । १० ३१
दन्तधावन त्रिहल्य २ ९ ९
दन्तभाग २ ८ ४० दंशन विहायणी
न्तशठ दशित त्रुटि २ ४ १२५ दंशी
२ ४ २४ ३ १ ६२
दन्तशठा दष्ट्रिन्
२ ४ १४०
दन्तावल २ ७ २० दक्षिण
दन्तिका ३ ४ १४४ ३ ३ ६९ दक्षिणस्थ २ ८
दन्तिन् ६०
८ ३४ त्रोटि दक्षिणाग्नि २ ७ १९
दन्दशूक त्र्यम्बक दक्षिणाई ३ १ ५
३ १ ६१ त्र्यम्बकसख
दक्षिणीय ३ १ ५ यूषण
दक्षिणेमंन् २१० २४ वक्क्षीरी
दक्षिण्य ३ १ ५. दमथ श्वक्पत्र २ ४ १३४
दग्ध ३ १ ९९ दमित ३ १ ९७ त्वक्सार २ ४ १६० दग्धिका २ ९ ४९ दमूनस् १ १ ५६
३ १ ८२ / दण्ड १ ३ ३१ दम्पती २ ६ ३८
दंश
दक्ष
नेता
Page #645
--------------------------------------------------------------------------
________________
[दम्भ ]
(४८)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[दिवस्पति]
का. व. श्लो.
दशा
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दाश
शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः दम्भ
३ ३ २१७ दम्भोलि
दस्यु दम्य ६२
२ १० २४ दारुण दया १८ दर
दारुहरिद्रा दयालु दहन
दारहस्तक दयित दाक्षायणी
दाघाट दाक्षाय्य दर
दार्विका दाडिम २ ४ ६४ दरद
३ ५ ४२
दावी दरिद्र दाडिमपुष्पक २ ४ ४९
दाव दाण्डपाता
दाविक १ १० २४ दात
१०३ दात्यूह २ ५ २१
दाशपुर ६१४० दात्र
दास दान
दासी दविं
८ २०
दासीसम दीकर
८ ३७
दासेय ५ ४ ८ दानव १ १ दासेर ७ ४८ दानवारि
दिगम्बर दर्शक
दानशौण्ड ३ १ ७ दिग्ध दर्शन
दान्त २ ४ १४
दित दव
३ ३ २०६ दानि ३ २ ३ दितिसुत दविष्ठ
दापित ३ १ ४० दवायस् ३ १ ६९
दामन्
२ ९ ७३ २ ६ ९१ दामनी २ ९ ७३ दिन दशनवासस् २ ६ ९० दामोदर
दिनान्त दशबल १ १ १४ दायाद
दिव दशमिन् ३ ६ ४३ दारा दशमीस्थ ३ ३ ८७ दारद
दिवस दशा २ ६ ११४ | दारित ३ ११०० दिवस्पति
१ ७ २० २ ४ १०२ २ ९ ३४ २ ५ १६ २ ४ ११९ २ ९ १०१ २ ४ १०२ ३ ३ २०६ १ १० ३६ ११० १५ २ ४ १३१ २ १० १७ २ ४ ७४ ३ ५ २७ २ १० १७ २ १०
दर्भ
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(४५,
[देवता
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दिष्टान्त
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शब्दाः का. व. इलो. शब्दाः का. य. इलो. पादाः का. व. इलो.
दुःपमम् ३ ४ १३ त्रिी २ ४ ११४ दिवाकर १ ३ २८ दुःस्पर्श
दुहित २ ६ २८ दिवाकीर्ति २ १० १० : दुःस्पशा
२ ८ १६ ___ २ १० १९ दुकूल
११३ दिविषद् १ १ ८ दुग्ध
२ ८ १६ दिवौकस १ १ ७ दुग्धिका
३ १ १०२ ३ ३ २२७ । दुन्दुमि दिव्योपपादुक ३ १ ५० ,
दुरदर्शिन् १ ३ १ दुरध्व
२ ४ १५८ ३ ५ ३ दुरालमा दिश्य १ ३ १ दुरित
१२० दिष्ट १ ४ १ दुरोदर
हत्या २ ८ ४२ १ ४ २८ दुर्ग : ८ १. , ३ ३ ३५ दर्गत
१ १ ६७ ३ १ ४९ "
३ १ ७६ २ ८
दुर्गति दिष्टया
दुर्गन्ध १ ५ १२ मन्धि दीक्षित २ ७ ८ : दुर्गसवर
३ २ २५ दृति
३ ५ १९ दीदिवि दीपिति
३ १ ४७ दृ
९३ दोन ३ १ ४९ दुर्दिन १ ३ १३
३ ३ २१७
दृषद दीप २ ६ १३८ . दुर्दुम
, १४८ दृष्ट २८ ३० दीपक ३ ३ ११ दुनामक २ ६ ७४ वजन २ ६ ८ दीप्ति १ ३ ३४ दुर्नामन् ११० २५ दृष्टान्त ३ ३ ६२ दीप्य १११ - दुर्बल
२ ६ ९३ ३ १ ६९ । दुर्मनस दीर्घकोशिका १ १० २५ । दुर्मुख दीर्घदर्शिन् २ ७
२ ९ ९६
१ ७ १३ दीर्घपृष्ठ १८
। देवकीनन्दन १ १ २१ दीर्घवृन्त र ४ ५७ /
२ ८ १० देवकुसुम २ ६ १२५ दीर्घसूत्र ३ १ १७ दुश्च्यवन १ १ ४४ ! देवखातक ११० २७ दीषिका ११० २८
१ ४ २३ देवच्छन्द २ ६ १०५ दु:ख १ ९ ३ ! दुष्ठु ३ ४ १९ , देवजग्धक २ ४ १६६ " ३ ५ २३ । दुष्पत्र २ ४ १२८ | देवता १ १ १ Jain Xo u nternational
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५८. दुर्गा ३३ दुर्जन
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(५०)
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देवदारु २
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देववल्लभ
देवभूय
देवमातृक
देवर
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देवी
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द्रोणकाक द्रोणक्षीरा
द्रोणदुग्धा
द्रोणी
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द्रोह चिन्तन
द्रौणिक
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मुलस्थशब्दानुक्रमणिका (५१) [धीशक्ति शम्दाः का. व. श्लो. शम्दाः का. व. इलो. शब्दाः का. व. श्लो. द्विजराज १ ३ १५ धनुश्मत् २ ८ ६९ धातु द्विजा
२ ४ १२० . धनुस् २ ८ ८३ धातु द्विजाति २ ७ ४ धन्य
३ १ ३ धातृपुष्पिका २ ४ २२४ दिजिह ३ ३ १३३ . धन्वन्
२ : ५ धात्री ३ ३ १७७ द्वितीया २ ६ ५ ,
२ ८ ८३ धाना २ ८ ३४ : धन्वयास २ ४ ९१
धानुष्क २८ ६९ द्विपाथ २ ८ २७ धन्विन्
धान्य २ ९ २१ द्विरद २ ८ ३४ : धमन २ ४ २६२ ' धान्याक द्विरेफ २ ५ २९ ! धमनि २ ६ ६५ धान्याम्ल २ २ ३९ २ ८ ११ धमनो २ ४ १३०. धामन्
३ ३ १२४ द्विषद २ ८ ० ,
२ ६ ६१ धामार्गव २ ४ ८८ द्विहायनी २ ९ ६८ धम्मिल्ल
२ ६ ९७ . ,
२ ४ १७७ द्वीप ११० ८ घर
२ ३ १. धाय्या २ ७ २२ दोपवती ११० ३० । घरणि २ १ २ धारणा दीपिन्
२ १ २ धारा देषण २ ८ १० धरित्री २ १ २ धारावर १ ३ ७ द्वेष्य
१ ४ २४ धारासम्पात १ ३ ११ २८ १८
१ ६ ३ धार्तराष्ट्र २ ५ २४
३ ३ १३९ धावनी २ ४ ९३ द्वैमातुर
धर्मचिन्ता १ ७ २८ धिक ३ ३ २४१ यष्ट
९ ९७
धर्मध्वजिन् २ ७ ५४ विक्कृत धर्मपत्तन २ ९ ३६ ।
३ १ ९३ ३ ५ १७, धर्मराज घट
१ १ १ १३ . विषण
३ २४ २ ४ ७७
१ १ ५८ : धिषणा
३ ३ ३१ धिष्ण्य ३ ३ १५५ धनञ्जय १ १ ५३ | धर्षिणी २ ६ १० धी धनद
धव
२ ६ ३५ धीन्द्रिय धनहरी २ ४. १२८
३ ३ २०७ धीमत धनाधिप
धदल
१ ५ १३ , धीमती थनिन् घाला २ ९ ६७
२ ६ १२४ धनिध १ ३ २२ धातकी २ ४ १२४ , धनुपर २ ८ ६९ . , ३ ५ ७ धीवर ११० १५ थनु-पट २ ४ ३८' धातु २ ३ ८ धीशक्ति ३ २ २५
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(५२)
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का. व. श्लो. शब्दाः २ ८ ४ धोरण ३ . ८७ धौरिनक
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का. व. हो. शब्दाः २ ८ ५८ नग । २ ८ ४८ नगरी २ ९.३५ नगौकस् २ ४ १३६. नन्न । १ ३ २० नामह २ ४ । नग्निका
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ननु च नक्तमाल २ ४ ४०
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नन्दन नक ११० २१ नक्षत्र . ३ २१
नन्दिवृक्ष नक्षत्रमाला २ ६१०६
नन्द्यावर्त नक्षत्रेश १ ३ १५
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(५३)
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शब्दाः का. व. इलो. शब्दाः का. व. इलो. शब्दाः का. व नभसङ्गम २ ५ ३४ नव्य ३ १ ७७ नाद नभस्य १ ४ १७ नष्ट २ ८ ११२ नादेयी नभस्वत् १ १ ६३ नष्टचेष्टता १ ७ ३३ . , २ । ननम्
नष्टाग्नि २ ७ ५३ , नमसित ३ १ १०१ नस्तित
२ ९ ६३ । " नमस्कारी २ ४ १४१ . नस्योत २ ९ ६३ नाना नमस्या २ ७ ३४
नहि नमस्थित ३ १ १०१ नाक १ १ ६ . नानारूप ३ १ नमुचिसूदन १ १ ४३
नान्दोकर ३१ नय
२ १ १४ नान्दोवादिन् ३ १ नयन २ ६ ९३ नाकुली
नापेत नर
नाग १ ८ ४ नामि। नरक नरवाहन १ १ ६९ " नकी
३ १ ५९ नामो ३ . नर्तन १ ७ १०
१९ नाम नर्मदा ११० ३२ नागकेसर
६५ १ ७ ३२ नागजिलिका २ ९ १०८
नामन् नलकूबर १ १ ७० नागवला २ ४ ११७ नाय
२ ४ १६४ नागर २ ९ ३८ नायक नलमीन ११० १८
२ ३ १८८
नारक नलिन ११० ३९ नागरङ्ग
नाराच नलिनी ११० ३९ नागलोक १ ८ १ नाराची नली २ ४ १२९ नागवल्ली २ ४ १२०
नारायण २ १ १८ . नागसम्भव २ ९ १०५ नारायणी नव
३ १ ७७ नागान्तक १ १ ९ नारो ন ११० ४३ नाट्य
नाल नवनीत २ ९ ५२ नाडन्धम २ १० ८ नवमालिका २ ४ ७२ नाडी २ ६ ६५ नालिका नवसूतिका २ ९ ७१ , २ ९ २२ नालिकेर नवाम्बर २ ६ ११२ , ३ ३ ४२ नाविक नवीन ३ १ ७७ - नाडीव्रण २ ६ ५४ नाग्य
नवोद्धृत २ ९ ५२ नाथवत ३ १ १६ । नाश
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(५४)
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का. ब. लो. शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. नासत्य १ १ ५१ निकृष्ट ३ १ ५४
निद्रालु नासा २ २ १३ निकेतन २ २ ४
निधन निकोचक नासिका २ ६ ८९
निधि निकम
२४ नास्तिकता १ ५ ४
निधुवन निकाण निःशलाक २८ २२ निखिल
निध्यान ३ १ ३. निःशेष ३ १ ६५ निगड
निनद निःशोध्य ३ १ ५६ निगद ३ २ १२
निनाद निःश्रेणि २ २ १८
निन्दा निःश्रेयस १ ५ ६
निप निःपमम् ३ ४ १३ निगाद
निपठ निःसरण २ २ १९ निगार
निपाठ निगाल २ ८ ४८ निपातन ३ २ २७ निकट निग्रह
निपान ११० २६ निकर
निपुण निकर्षण निघास
निबन्ध निकष २ १० ३२ निम्न
निवर्हण २ ८ ११३
निम निकषा
४ ७ निचुल
२ १० ३७ निचोल २ ६ ११६
निभृत निकषात्मज निन ३ ३
निमय
३२ निकाम
५७ नितम्ब २ ६ ७४
निमित्त ३ ३ ७६ निकाय नितम्बिनी २ ६ ३
निमेष निकाय्य
नितान्त १ १ ६७ निकार
निम्नगा नित्य
३ १ ७२ निम्ब निकारण २ ८ ११२
निदाघ १ ४ १९ निम्बतर निकुञ्चक २. ९ ८८
नियति निकुज २ ३ ८
निदान
१४ २८ निकुम्म २ ४ १४४ निदिग्ध ३ १ ८९
नियम निकुरम्ब २ ५ ४० निदिग्धिका २ ४ ९३ निदेश
२ निकत
७ ४९ निद्रा १ ७ ३६ नियामक ११० १२ निरुति १ ७ ३० | निद्राण ३ १ ३३ / नियुत ३ ५ २४
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
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शब्दाः का. व. २... शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. निम्गात
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३ . नीला २ ५ २६ " निष्पन्न २ :०० नीलाम्बर १ १ २४ नेत्राम्बु নিশ্বৰ
नीलाम्बुमन्मन् १ १० ३७ नेदिष्ठ - १०० नालिका २ ४ ७०
नेपथ्य निप्रवागि नीलिनी
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नीची २ ४ ७४ नेमी निसृष्ट
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नोवाक ३ २ २३ नेगम निस्तहण २८ ११४
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२ ९ ८० ६ ३ नीवृत निस्वान . : २३ : नीशार २ ६ ११८ नैयग्रोध २ ४ १८ निहनन २८ ११४ नोहार
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नष्किक निहिंसन २ ८ ११३
नैखिशिक निहीन . १०
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नौकादण्ड ११० १३ नीन नूनम् ३ ३ २५१
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न्यग्रोध नीचैस्
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न्यङ्क २ ५ १० नीप नृपलक्ष्मन्
न्यस्त ३ १ ८८ नीर नृपसम
न्याद नील नृपासन
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३ ५ ४० न्यास नीलगू २ ५ १३ । नेतृ ३ १ ११ न्युज
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पण्ड २ ६ ३२ २ २ २० पश्चशर
पण्डित पनशाख
पण्य पञ्चाङ्गुल
पण्यवीथिका २ २ २ पञ्चास्य
पण्या २ ४ १५० पञ्जिका
पण्याजीव २ ९७८ पट
पतग पटचर
पतङ्ग पटल २ २ १४
पतङ्गिका ૨ ૬ ૨૭ ३ ३ २०२
पतत पटलप्रान्त २ २ १४
पतत्त्र पटवासक २ ६ १३९
पतत्रि परह
पतस्त्रिन्
पतगृह २ १० १९ ३ ३ ४०
पतयालु ३ १ २७ २ ५ ३२
पटुपी २ ४ १३८ पताका पटोल _२
पताकिन् ४ १५५
२ ३ १२१
८ ७१ पटोलिका २ ४ ११८
पति
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पक्षद्वार पक्षमाग
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पतिवरा पतिवत्नी पतिव्रता पत्तन पत्ति
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पञ्चजन २ ६
पणव १ | पणायित ३ १ १०९ ,
२ ५ ३६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्र]
(५४)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[परिचय
पद्या
पन्न
दथिन्
शब्दाः का. व. श्लो. ! शब्दाः का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्लो. पत्र २ ८ ५८ पद्मराग २ ९ ९२ । परम्पराक २ ७ २६
• ३ ३ १७९ पद्मा १ १ २७ / परवत् ३ १ १६ पत्रपरशु २ १० ३२
परशु २ ८ ९२ पत्रपाश्या २ ६ १०३
२ ४ १४६ परश्वध पत्ररथ
पभाकर ११० २८ परश्वस ૨ ૪ ૨૨ पत्रलेखा २ ६ १२२
पमाट २ ४ १४७ पराक्रम २ ८ १०२ पत्रान २ ६ १३२ पद्मालया १ १ २७
३ ३ १३८ पभिन्
पराग पत्राङ्गुलि २ ६ १२२ | पद्मिनी
१० ३९ पत्रिन् २ ५ २५ पद्य
पराङ्मुख ३ १ ३३ २ १ १५
पराचित २ १० १८ २ ८ ८७
पराचीन ३ १ ३३ पनस १०६ पनायित
पराजय
३ १ १०९ पत्रोर्ण
२ ८ १११ . २ ४ पनित ३ १ १०९
पराजित २८ ११२ २ ६ ११३
३ १ १०४
पराधीन ३ १ १६ पथिक २ ८ १७ पन्नग
परान
पराभूत २ ८ ११२ पन्नगाशन २
१ ४ ५९ पथ्या
१ २९
परारि ११० ३ ३ ३ २३३
परासन २ ८ ११३ पदग
२ पयस्य
९
परामु ५१
२८१७ पदवी पयोधर ३ ३ १६४
परास्कन्दिन् २ १० २४ पदाजि २ ८ ६६ ।
२ ८ ११ परिकर ३ ३ १६६
परिकर्मन् २ ६ १२१ पदिक
२ ८ ६७ परःशत ३ १ ६४ परिक्रम ३ २ १६ पदग २ ८ ६७ परजात २ १० १८ | परिक्रिया ३ २ २० पद्धति
परतन्त्र ३ १ १६ | परिक्षिप्त ३ १ ८८ पद्म
परपिण्डाद ३ १ २० | परिखा ११० २१ ११० ३९ परभृव २ ५ २० | परिग्रह ३ ३ २३८ पद्मक परभृत
परिष २८ ९१ पद्मचारिणी २ ४ १४६ परमम् ३ ४ १२ |
३ ३ २७ पद्मनाभ १ १ २० परमान्न २ ७ २४ परिघासन २८ ९१ पद्मपत्र २ ४ १४५ । परमेष्ठिन् १ १ १६ । परिचय ३ २ २३
पयस्
२
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पराय
७१ ९३
पद
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पदाति
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[पलगण्ड
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का. व. श्लो.
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। परैधित
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पर्जनी
पर्जन्य
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परिध्वन
पर्णास
२ ३ ६ २ ४ ७१ २ ६ १३८
परिवर]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (५९) शब्दाः का. व. श्ली. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः परिचर २ ८ ६२ परिनिति २ ७ ५६ परेतराज परिना २ ७ ३५
परिट ३ । ११ परेशवि परित्राव्य २ ७ २०
परिवत
२ ७ ५५ परेष्टका परिचारक २१० परिवेष परिगत ३ ५ ९६ रियाध
བཅུ་ཅ༡it परिमय २ ७ ५६
पर्कटी परिणाम ३ २ १५ परिगाय २ १० ४५ परिषद् परिणाइ २ ६ ११४ परिष्कार २ ६ १०१ परितम् - ३ ४ १३ परिष्कृत परित्राण ३ २ ५ परिदान २ १ ८० परिसर २१
पर्णशाला परिदेवन १ ६ १६
परिसर्प परिधान २ ६ ११७ परिसर्या ३ २ २१
पर्यक परिधि १ ३ ३२ परिस्कन्द २ १० १८
पर्यटन ३ ३ ९७ परिस्तोम २८
पर्यन्तभू परिधिस्थ २८ ६२ परिस्यन्द
पर्यय परिपण २ ९ ८० परिस्रुत् परिपन्थिन् २ ८ ११ परिसुना २ १० पर्यवस्था परिपाटी २ ७ ३६ परीक्षक
पर्याप्त परिपूर्णता २ ६ १३७ परीभाव १ ७ २२ पर्याप्ति परिपेलव २ ४ १३१ परीवर्त
पर्याय परिप्लव ३ १ ७५ परीवाद १ ६ १३ परिवई ३ ३ २३९ । परीवाप ३ ३ १२९ पर्युदश्चन परिभव १ ७ २२ परीवार ३ ३ १६९ पर्येषणा परिभाषण १ ६ १४ परीवाह ११० १० पर्वत परिभूत ३ १ १०६ । परीष्टि
पर्वन परिमल १ ५ ९ | परोसार ३ २ २१
परीहास १ ७ ३२ परिरम्म ३ २ ३०
परुत्
२० पशुका परिवर्जन २ ८ ११४ परुष परिवादिनी १ ७ ३ परुस् परिवापित ३ १ ८५ परेत २ ८ ११७ । पलगण्ड
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पलकषा]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[पार
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शब्दाः का. व. श्लो. হালা: का. व. श्लो. शब्दाः का. व. हो. २ ४ ९८
३ १ २७ पलल
६३ पाकल २ ४ १२६ पात्र ११. ७ पलाण्डु २ ४ १४७ पाकशासन १ १ ४१ ,, २ ७ २४ पलाल २ ९ २२ पाकशासनि १ १ ४६ "
२ २ ३३ पलाश
पाकस्थान २ ९ २७: " २ ४ २९
२ ९ ४२ पात्री ३ ५ पावय
४२ ४ १५४
२ ९०९ पात्रीत्र पलाशिन्
पाखण्ड २ ७ ४५ पाथस् पलिक्नी २ ६ १२ पाञ्चजन्य १ १ २८ पाद पलित
पाश्चालिका २१० पस्यङ्क २ ६ १३८ पाट
८९ पाटच्चर
पादकटक पत्वल १ १० २८ पाटल
पादग्रहण पव ३ २ २४
पादप पवन पाटला
पादबन्धन पाटलि पवनाशन
पदस्फोट २ पाठ पवमान
पादान पवि
पादाङ्गद २ ६ १०९ पाठा पवित्र २ ४ १६६ पाठिन्
पादात २ ८ ६७ २ ७ ४५ पाठीन
पादातिक २ ८ ६६ पाणि
। पादुका २१० ३० पवित्रक
१६ पाणिगृहीती २ ६
२१० पशुजाति पाणिध २१०
पादूकृत पशुपति १ १ ३० पाणिपीडन २ ७
२ ७ ३३ पः रज्जु २ ९ ७३ पाणिवाद २ १०
पान २ १० ४० पश्चात् ३ ३ २४३ पाण्डर १ ५ १२
पानगोष्ठिका २ १० ४२ पश्चात्ताप
पानपात्र २ १० ४३ पाण्डु पश्चिम पाण्डुकम्पलिन् २ ८ ५४
पानभाजन २ ९ ३२ पष्ठीही पाण्डुर १ ५ १३
पानीय ११० ४ पांशु २ ८ ९८
पातक
३ ५ ३३ | पानीयशालिका २ २ ७ पांशुला २ ६ ११
पाताल १ ८ १ पान्य २ ८ १७
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परिमान्य २ ४ १२६ रियात्रक
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पारावताङत्रि २ ४ १५० पाशक
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(६२)
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का. व. श्लो. शब्दाः २ ६ १३९ पुटभेद ६ १३८ पुटभेदन
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शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः पितृ २ ६ ३७ पिष्टात पितृदान
पीठ पितृपति १ १ ५८
पीडा पितृपितृ २ ६ ३३ पितृपसू
पोतदारु पितृवन २ ८ ११८ पितृव्य २ ६ ३१ पितृसंनिम ३ १ १३ पित्त २ ६ ६२ पित्र्य (तीर्थ ) २ ७ ५१ पिरसत २ ५ ३४ पीतसारक पिधान
पीता पिनद्ध
पीताम्वर पिनाक
पीन ३ ३ १४
पीनस पिनाकिन् १ १ ३१ पीनोध्नी पिपासा
पीयूष पिपीलिका ३ ५ ८ पिप्पल
पीलु पिप्पली २ ४ ९७ पिप्पलीमूल २ ९ ११० पिप्लु २ ६ ४९ पिल्ल
पावन् पिशङ्ग
पीवर पिशाच
पीवरस्तनी पिशित
पुंश्चलो पिशुन ६ १२४ | पुंस्
पुक्कस ३ ३ १२७ पिशुना २ ४ १३३ पिष्टक पिष्टपचन २ ९ ३२ | पुज
ཐཱ ཡྻ བྷ ཝཱ བྷཱུ བྷྱཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཟླ ཟླ... བྷཾ # ༤ ཙྪཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཙྪཱ་༔ ཙཟླ ཙྪཱ ཙྪཱ བྷཾ #
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पुण्डरीकाक्ष १ १ १९ पुण्डू
२ ४ १६३ पुण्डक २ ४ ७२ पुण्य
३ ३ १६० २ ४ ४३ । पुण्यक २ ७ ३७
पुण्यजन १ १ ६० १ १ १९ पुण्यजनेश्वर १ १ ६९ ३ १६१ पुण्यभूमि २ १ ८ २ ६ ५१ पुण्यवत ३ १ ३ २ ९ ७१ पुत्तिका २ ५ २७ १ १ ४८ | पुत्र २ ६ २७
२ ६ ३७ २ ४ २८ पुत्रिका २१० २९ ३ ३ १९४ ।
२ ६ ३७ २ ४ ८४ पुद्गल ३ ५ २० २ ४ १३९ पुनःपुनर ३ ४ १
| पुनर् ३ ३ २५३ ३ १ ६१ " २ ९ ७१
पुनर्नवा २ ४ १४९ २ ६ १ पुनर्भव
२ ६ ८३ २ १० २० पुनर्भू
२ ६ २३ ३ ५ १७ पुन्नाग २ ४ २५
२ २ १ २ ८ ५. पुर ૨ ૬ ૪ર ! .
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________________
पुरःसर ]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (६३
[पृतना
का. व. श्लो. | शब्दाः २ १० २० पूज्य १ १ ४५
का. व. श्लो. ३ १ ५
का. व. श्लो. शब्दाः २ ८ ७२ पुलिन्द
पुलोमजा पुषित पुष्कर
पुरस्सर पुरतस् पुरद्वार पुरन्दर पुरन्ध्री पुरस् पुरस्कृत पुरस्तात
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তুলনা पृतिक पूर्तिकरज पूतिकाष्ठ
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पुष्कराज
पुराण
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पुष्करिणी
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पुष्कल
पूतिगन्धि पूतिफली
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पुरातन
३ १ ९७
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पुरावृत्त
पुष्प
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पुरी पुरीतत् पुरीष
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पुष्पक
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पूरुष | पूर्ण
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१ ४ २९
पुष्पकेतु २ ४ २५ पुष्पदन्त
पुष्पधन्वन् ३ ३ २१९ पुष्पफल पुरुषोत्तम १ १ २१
पुष्परस पुरुहू , ३ १ ६२ पुष्पलि पुरुहूत १ १ ४१ पुष्पवती पुरोग २ ८ ७२ पुष्पवत् पुरोगम २ ८ ७२ पुष्पसमय पुरोगामिन् २ ८ ७२ पुष्य पुरोडाश ३ ५ २१ पुष्यरथ पुरोधस् २ ८ ५ पुस्त पुरोमागिन् ३ १ ४६ | पूग पुरोहित २ ८ ५ , पुलाक ३ ३ ५। पुलिन ११० ९पूजित
पूर्वदेव
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पूर्वपर्वत
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२१० २८ २ ४ १६९ ३ ३ २०
पृक्ति
पृच्छा पृतना
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पृथक् ]
(६४)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[प्रचलापित
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शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्लो. पृथक् ३ ४ ३ ! पेटक २ १० २९ प्याट पृषपर्णी २ ४ ९२ । पेटा २ १० २९ । प्रकाण्ड १ ४ २७ पृथगात्मता १ ४ ३१ पेटी ३ ५ ४२
पेलव
३ १ ६६ प्रकाम २ ९ ५७ ३ ३ १०५
२ १० १९ प्रकार ३ ३ १६३ पृथावध ३ १ ९३
३ ३ २०५
प्रकाश पृथिवी
२ ५ ३७
३ ३ २१८ पृथु
पैठर २ ९ ४५ प्रकीर्णक २ ८ ३१ २ ९ ४० पैतृष्वसेय २ ६ २५
૨ ૪ ૪૮ पैतृष्वस्रीय २ ६ २५
। प्रकृति
१ ४ २९ पृथुक २ ५ ३८ पैत्र (अहोरात्र) १ ४ २१ २ ९ ४७ पोटगल २ ४ १६२
२ ४ १६३ ! " पृथुरोमन् ११० १७ पोटा
प्रकोष्ठ
२ ६ ८० पृथुल ३ १ ६० पोत २ ५ ३८ प्रक्रम
३ २ २६ ३ ३ ६० प्रक्रिया २ ९ ३७ पोतवणिज ११० १२ प्रकण १६
४० पोतवाह ११० २ प्रकाण पृथ्वीका
पोताधान
११० १९ प्रक्ष्वेडन पृदाकु
पोत्र ३ ३ १८१ प्रगण्ड पृश्नि ४८ पोत्रिन्
प्रगतजानुक पृदिनपणी
पौण्डये २ ४ १२७ प्रगल्म पृषत
२ ६ २९ प्रगाढ पृषत
२ ४ १६६ प्रगुण
पौरस्त्य ३ १ पृषत्क
पौरुष २ ६ प्रग्रह २ ८ ११९ पृषदश्व १ १ ६२ ३ ३ २२३
३ ३ २३७ पृषदाज्य
२४ पौरोगव २ ९ प्रग्राह ३ ३ २३७ २ ६ ७८ पौर्णमास
प्रग्रीव ३ ५ ३५ पृष्ठथ
पौर्णमासी १४ प्रघण २ २ १२
पौलस्य १ १ ६९ प्रषाण २ २ १२ २ ५ १५ पौलि
प्रचक्र २ ८ ९६ ३ ३ ६ | पौष १ ४ १५ | प्रचलायित ३ १ १२
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प्रच्छन
प्रच्छर्दिका
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प्रजविन्
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प्रजाता
प्रभापति
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प्रणय
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प्रतियातना
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प्रतिवाक्य १ ६
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प्रतिविषा
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प्रतिशासन
३ २
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प्रतिश्याय
२
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५१
प्रतिभय
३
३ १५३
प्रतिश्रव
१
५
५
प्रतिश्रुत्
६
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प्रतिष्टम्भ
२ २७
प्रतिसर
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२ ६
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३
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२ १०
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प्रतिसीरा
प्रतिहत
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प्रतीची
प्रतीत
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प्रतीर
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प्रतीहारी ३५ | प्रतोली
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प्रत्यक श्रेणी ] (६६)
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प्रत्यूष
प्रत्यूह
प्रथम
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प्राग्रहर प्राग्य
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प्रविदारण]
मुलस्थशब्दानुक्रमणिका (६७) [प्रादुस् शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. ] शब्दाः का. व. श्लो. प्रविवारण २ ८ १०३ प्रसारिन् ३ १ ३१ प्रहेलिका १ ६ ६ प्रविश्लेष ३ २ २० | प्रसारिणी २ ४ १५३ ,
३ ११०३ प्रवीण ३ १ ४ प्रसित ३ १ ९ प्रांशु प्रवृत्ति १ ६ ७ प्रसिति ३ २ १४ प्राकार ३ २ १८ : प्रसिद्ध ३ ३ १०४ प्राकृत
प्राग्वंश
३ ३ २३० प्रवेक
प्रसूता २ ६ १६ प्रवेणी प्रसूति ३ २ १०
प्राधार प्रसूतिका २ ६ १६ प्रवेष्ट प्रसूतिज १ ९ ३
३ ४ २३ पक्त
। प्रसून २ ४ १७ प्राचिका प्रश्न
३ ३ १२३ प्राची प्रश्रय | प्रसूजनयितृ २ ६ ३७
प्राचीन प्रश्रित प्रसूत
प्राचीना २ ४ ८५ प्रसृता ૨ ૬ ૭૨ प्राचीनावीत २ ७ प्रष्ठवाह
प्रसूति २ ६ ८५ प्राच्य प्रष्ठाही प्रसेव
प्राजन प्रसन्न १४ प्रसेवक
प्राजितु २ ८ ५९ प्रसन्नता
प्रस्तर प्रसन्ना ३९ प्रस्ताव
प्राज्ञा २६ १२ प्रसभ २ ८ १०८
२ ६ १२ प्रसर ३ २ २३
प्राज्य प्रसरण २ ८ ९६
प्राविवाक प्रसव प्रस्थपुष्प
प्राण १ १ ६३ प्रस्थान
२ ८ १०२ ३ , ३ १
प्रस्फोटन ८४
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२ ८ ११९ प्रसा प्रस्रवण
प्राण प्रसाद प्रस्ताव
प्राणिन् प्रहर
प्रातर ३ ४ १९ प्रसाधन प्रहरण
प्राथमकस्सिक २ ७ ११ प्रसाधनी २ ६ १३९ प्रइस्त २ ६ ८४ प्रादुस् ३ ३ २५६ साधित २ ६ १०० प्रति ११० २६ ।
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (१९) का. व. श्लो. शब्दा: का. व. श्लो. | शब्दाः २ ४ ६ बन्दी २ ८ ११९ । बला २ ४ ५४ बन्धकी २ ६ १० बलाका बन्धन
पळाकार
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२ ३ ४५ बलिमुख २ ५ २० बहिसन् १ . १ बलीवद
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(७०)
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का. व. श्लो.
बहुविध बहुमुता बहुसूति बाकूची बाव
मूलस्थशम्दानुक्रमणिका का. प. श्लो.। शम्दाः का. व. श्लो. : शब्दाः ३ १ ९३ । बाहुल
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बृहतिका २ ६ ११७ ३ ३ २०६ विसप्रसून १ ० ४१
वृहत्कुक्षि २ ६ ४४ बालतनय २ ४ ४९ बिसिनी ११० ३९
बृहद्भानु बालतण २ ४ १६७ विस १ १० ४२
बृहस्पति बालमूषिका २ ५ १२ बिसकण्ठिका २ ५ २५ बोधकर
बिस्त २ ९ ८६ बोधिद्रुम २ ४ २० बालिश १ १ ४८ बीज १ ४ २८
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६ ६२ । प्रश्न बालेय २ ९ ७७ बीजकोश १० ४३ ब्रह्मचारिन् २ ७ ३ बाकेयशाक १४ ९० बोजपूर
२ ७ ४२ बाक्य
बोजाकृत २ ९ ८ ब्रह्मण्य बाम्प ३३१३० बीज्य २ ७ २ ब्रह्मत्व २ ७ ५१ मापिका बीमत्स १ ७ १७ ब्रह्मदर्मा
ब्रह्मदार ३ ३ २३५ ब्रह्मन्
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(७२)
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भूनकेश २ ९ १११ मारबाह २ १० १५ मिस्मटा
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१५ मिस्सा
भूमात्मन्
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भूताबास २ ४ ५८ भार्गवी २ ४ १५८ मीति
भूति मागी २ ४ ८९ / भीम
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भूतिक मायापती मीर
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भूवार १ ७ २१ मीरुक
भूदेव ३ २०८ मीलुक ३ १ २६
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भूप २ ९ ४६
भीष्म १ ७ २० ३ १ १०४ भीष्मसू ११० ३१
भूभूत भावुक १ ४ २६ भुक्त ३ ११११
भूमि भाषा भुक्तसमुज्झित १ ९ ५६
भूमिजम्बुका २ ४ ३७
२ ४ ११८ ३ ११०७
भूमिस्पृश् २ ९ १ भाष्य भुज २ ६ ८० भूयस् ३ १ ५३
भूयिष्ठ ३ १ १३ मास्कर १ ३ २८
भूरि ३ १ १६ भुजङ्ग भास्पद भुजङ्गमुन २ ५ ३० ।
३ ३ १८३ मिक्षा
भुबङ्गम १ ८ ६ / भूरिफेना २ ४ १४३ ३ ३ २२५ | भुजङ्गामी २ ४ ११५ | भूरिमावा २ ५ ५ मिथु २ ७ ३ भुबधिरस् २ ६ ७८ । भूमण्डी २ ४ १९
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मकूलक २ ६ १०० भ्रकुंस
मक्षिका ३ १ २९ भ्रकति १७ ३७ मख
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| मघव २ ४ १३४
मक्षु
२९ मङ्गक ५ २९ अमरक
| मषक २ ४ १५१ भ्रमि
माश्या भ्रष्ट ३ १ १०४
मचिंका भ्रागिष्णु
मत्र भ्रातर
मना | भ्रात २ ६ ३६ | महरि
३६ / मनिष्ठा भातमाया २ ६ ३० मनीर भ्रातभगिनी २ ६ ३६
६ ३६ | मन भ्रातृम्य
मञ्जल ११० २४ भात्रीय
३६ मनपा ११० २४
मठ २ ८ २१
मड अकुंस
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मृगराज मृङ्गार भृङ्गारी भृतक मृति भृतिभुन
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मण्डलेश्वर ] (७४) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
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मधूक २ ४ २७ मण्डधारक २ १० १० मदगुर १ १० १९ / मधूच्छिष्ट २ ९ १०७ मण्डित १ ६ १०० मध
२ १० ४० मधूलक २ ४ २८ मण्डूक
मधूलिका २ ४ ८४ मण्डकपर्ण २ ४ ५६
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मध्य मण्डूकपणी २ ४ ९१
२ १० ४०
३ ३ १०३ मण्डूर
मध्यदेश मताज २ ८ ३४ मधुक
मध्यम मल्लिका
मधुकर २ ५ २९ मति मधुक्रम
२ ६ ७९ मत्त मधुद्रुम
मध्यमा मधुप ११०३ ! मधुपणिका २ ४
मध्याह मत्तकाशिनी २ ६ ४
२ ४ ९४ मध्यासव २१० ४१ मत्सर ३ ३ १७३ मधुपर्णी २
मनःशिला २ ९ १८ मत्स्य
मधुमक्षिका २ १ १० १७
१ ४ ३१
मनस मत्स्यण्डी २ ९ ४३ मधुयष्टिका २ ४ १०९
मनसिब १ १ २६ मत्स्यपित्ता २ ४ ८६
मनस्कार १ ५ २ मधुर १ मत्स्यवेधन ११० १६
३ १९२ मनाक मत्स्याक्षी २ ४ १३७ मधुरक २ ४ १४२ मनित ३ १ १०८ मत्स्याधानी ११० १६ मधुरसा
मनीषा मथित २ ९ ५३
२ ४ १०७ मनीषिन् २ ९ ७४ मधुरा । २ ४ २५२ मनु
मनुज २ ६ १ मद २ १२ मधुरिका २
मनुष्य मदकल
मधुरिपु १ मनुष्यवर्मन् १ १ ६८
मधुलिह मदन
मनोगुप्ता २
२ ९ मथुवार
मनोजवस् ३ १ १३ २ ४ ७८ मधुव्रत
५ २९ मनोश मदस्थान मधुशिग्रु
मनोरथ १ ७ २७ मदिरा २१० ४० मधुश्रेणी
मनोरम ३ १ ५२ मदिरागृह २ २ ८ मधुष्ठील २ ४ २८ मनोहत ३ १ ४१ मदोत्कट २ ८ ३५ । मधुसवा २ ४ १४२ | मनोहा २ ९ १०८
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन्तु
मुलस्थशब्दानुक्रमणिका
(०५)
[महादेव
-
का. व. श्लो. ! शब्दा
मयूख
मन्तु मन्त्र मन्त्रिन्
मयर
मन्थ मन्थदण्डक
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मयरक
मन्थनी
२ ९ ७४ : मरकत
मरण
मन्थान मन्द
मरीच २ १० १८ मरीचि
मरीचिका
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का. व. श्लो. शब्दाः का. व. शो.
मल ३ ३ १९७ ११ मलदूषित ३ ५ ५५
मलयू । मलयज
मलिन २ ९ ९२ मलिनी २ ६ २०
मलिम्लुच २१० २५ २ २ ३६ । मलीमस ३ १ ५५ मल्ल
३ ५ २१ ३ ३३ मरलक ३ ५
मल्लिका
मल्लिकाक्ष २ ५ २४ ३ १६३ मसी ३ ५ १० ६२ / मसूर २ ९ १७
मसूर विदला २ ४ १०९ मसूण मस्कर २ ४ १६१ मस्करिन् मस्तक २ ६ ९५ मस्तिष्क मस्तु मह १ ७ ३८ महत
मन्दगामिन् २ ८ ७२ मन्दाकिनी १ १ ४९ मन्दाक्ष १ ७ २३ मन्दार
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मरु
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मन्दिर
मरुत्वत् मरुन्माला
मरुबक
मन्दुरा मन्दोष्ण
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मकटक
मन्मथ
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मर्दन ३ १५४ मर्दल
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३ ३ ६९ ३ ३ २३१ २ ४ १४८
मन्वन्तर
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मर्मर
मर्मस्पृश् २ ९ १७ मर्यादा १ ३ ३३ | मल
महती
महस् ३ ५ ३० महाकन्द १६ २३ महाकुल ३ १ ८३ महा २८ २६ महाजाली २ ६ ६५ | महादेव
मयु मयुष्टक मयूख
२ २ १
९ ७५ ४ ११७ १ ३२
Page #673
--------------------------------------------------------------------------
________________
महाधन]
(७६)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[मायु
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का. व. श्लो. ! शब्दा: का. व. श्लो. २ ४ १०० मातुलपुत्रक २ ४ ७८ २ ४ १४८ मातुलानी २ ६ ३० २ ९ ३८ , २ ९ २० ३ ४ ११ मातुलाहि १८ ६
मातुली २ ६ ३० मातुलुङ्गक २ ४ ७८
मात् २ १० १४ , १ ७ १४
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माघ
का. व. श्लो. ! शब्दा: महाधन २ ६ ११३ महौषध महान्स २ ९ २७ महामात्र २ ८ ५ महारमत २ ९ ९५ महारजन २ ९ १०६ महारण्य २ ४ १ महाराजिक १ १ १०
| मांसल महारौरव १ ९ १ मानिक महाशय ३ १ ३ माक्षिक महाशूद्री २ ६ १३ मागध महायता २ ४ ११०
मागध महासा २ ४ ७३ मागधी
२ ४ १३८ महासेन महिला २ ६ २
माध्य महिलाहया २ ४ ५५
माठर महिष
माढि महिषी २ ६ ५ | माणवक मही २ १ ३ महीक्षित् २८ १ माणव्य महोत्र
माणिक्य महीरुह
माणिमन्थ महीलता
माता महीसुत महेच्छ ३ १ ३ ! मातरपितृ महेरणा
मातरिश्चन् महेश्वर १ १ ३०
मातलि महोक्ष
मातापित महोत्पल ११० ३९ । मातामह महोत्साह ३ १ ३ मातुल महोघम ३ १ ३ ,
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१० २ मात्र ३ ३ १७८ ७१ मात्रा ३ १ ६२
३ ३ १७८ माद ३ २ १२ ७३ माघ
१ १ १८ १ ३ ३१ "
१ ४ १६ माधवक २ १० ४१
४२ माधवी २ ४ ७२ २ ६१०६ माध्वीक २ १० ४१ मान
२ ९ ८५ ૨ ૩ ૪૨ मानव २ १० १९ मानस १ ४ ३१ ३ ३ २१ मानसौकस् २ ५ २३ २ ६
मानिनी २ ६ ३ १ १ ६१ मानुष २६ १
मानुष्यक ३ २ ४२ माया २ १० ११
मायाकार २ १० ११ २ ४ ७८ मायादेवीसुत १ १ १५ २ ६ ३१ | मायु
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________________
मायूर]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(७७)
[मुष्टिवन्ध
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माहिष्य
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शब्दाः का. व. श्लो.| शब्दाः का. व. श्लो. ! शब्दाः का. ब को. मायूर २ ५ ४३ ! माषपणी २ ४ १३८ । मुक्तकञ्चुक १ ८ ६ मार १ १ २५ मास १ ४ १२. मुक्ता २ ९ ९३ मारजित् १ १ १३ । मासर २ ९ ४९ मुक्तावली २ ६ १०५ मारण २ ८ ११४ मास्म ३ ४ ११. मुक्तास्फोट ११० २३ मारिष
मुक्ति मारुन
माहेयो मार्कव २ ४ २५१ मितम्पच ३१ ४८ , २ ६ २९ मार्ग १ ४ १४ मित्र १ ३ ३० , ३ २ २२
. २ १ १५ , २ ८ ९ मुखर ३ २ ३६ मार्ग
मुखवासन मार्गण
३ ३ १६७ मुख्य २ ७ "
४० मिथस्
३ २५६ मार्गशीर्ष १४
मुण्ड मिथुन मागित ११०५ मिथ्या ३ ४ १५ मार्जन २ ४ ३३ मिथ्यादृष्टि १ ५ ४ मुण्डित २ ६ ४८ मार्जना
मिथ्यामियोग १ ६ १० मार्जार २ ५ ६ मिथ्यामिशंसन १ ६ १० मुण्डिन् २ १० १० माजिता मिथ्यामति १५ ४
૨૪ माण्ड मिश्रेया
मुदिर माङ्गिक | मिसि
मुद्पणी २ ४ ११३ मार्टि २ ६ १२१
मुद्र
८ ९१ मारक २ ४ ६२ | मिसी २ ४ १३४ मुधा मालती मिहिका
मुनि मादा
१३५ । मिहिर मालाकार २१० ५ | मीढ ३ १ ९६ मुनीन्द्र मालातृणक २ ४ १६७ | मीन ११० १७ मुरज मालिक
मीनकेतन १ १ २५/ मालुधान १ ८ ६ मुकुट
| मुषित मालूर २ ४ ३२ / मुकुन्द २ ४ १२१ ।
२ ६ ७६ माल्य २ ६ १३४ | मुकुर २ ६ १४० मुष्कक माल्यवत् २ ३ ३ | मुकुल २ ४ १६ । मुष्टिवन्ध ३ २ १४
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मुसल]
(७८) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका [ मेघनादानुलासिन् शब्दाः का. .व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो.
३ ३ २०० मृड मुसलिन् १ १ २४ मूलक २ ४ १५७ मृडानी मुसलो मूलधन
मृणाल ११० ४२
मृणाली मुसल्य " २ १० ३८ मृत् २ १ ।
२ ८ ११७ मुस्ता २
मृत ४ १५९ मूषा
मृतस्नात
मृत्तालक मुहुर्भाषा
मूषिकपणों २ ४ भूषित
२ ८ ११६ मृग
मृत्युञ्जय १ १ ३१
मृत्सा मूत मृगणा
२ ४ १३१ मूत्रकृच्छ्र २ ६ ५६ मृगतृष्णा १ ३ ३५
मृदा भूश्ति
१ ९६ मृगदंशक २१० २१
३ १ ७८ ३ १ ४८
मृगधूर्तक २ ५ मुर्छा
२ ८ १०९ मृगनामि २ ६ १२९ । मृदुस्वच् मूछाल मृगवधानीव २ १० २१/ मृदुल
मृदुल ३ १ ७८ मृगवन्धनी २१० २६ मृद्धीका ३ ४ १०७ मृगमद २ ६ १२८
१०४ मृगया २ १० मृषा मृगयु २१० २१ मृष्ट
मृगव्य २१० २३ मेकलकन्यका ११० ३२ ३ ६६ मृगशिरस् १ ३ २३
२३ / मेखला २ ६ १०८ मूतिमत ३ १ ७६ मृगशीर्ष १३ २३
मृगाङ्क
१ ३ १४ मेष मूमिषिक्त २८ १ मृगादन २ ५ १ . मृगित
मेषज्योतिस् १३ १० मृगेन्द्र २ ५ १ मेघनादानुला२४ १२ । मृबा २६ १२१ सिन् २५ ३०
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शब्दाः मेघनामन् मेघनिर्घोष मेषपुष्प मेषमाला मेषवाहन मेचक
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (७९) का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. शमाः २ ४ १५९ | मोचक २ ४ ३१ | यश्चिय १ ३ ८ मोचा २ ४ ४६ / यज्वन्
यत् ३ ५ ३३ यतः मोरट २ ९ ११० ! यति मारटा २ ४ ८३ यनिन् मोषक २ १० २४ यथा मोह २ ८ १०९ यथाजात मौक्तिक
यथातथम् मौदोन
यथायथम् मौन
यथार्थम् | मौरभिक १० १३ यथाईवर्ण मौवीं २ ८ ८५ यथास्वम्
मौलि ३ १९३ यथेप्सित ३ ९ १५ | मौधा
यदि मौहूर्त २ ८ १४ यदच्छा मौहर्तिक
यन्तु ३ २ २९ लिष्ट १ ६ २१ २ ९ ७६ म्लेच्छदेश २
९ १०७
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६ ७६ | यकृत ३ २० । यक्ष
मैत्रावरुणि मैत्री मैत्र्य मैथुन
૨ ૭ ૪૮ ३ २ १८ १ १ ५८ १ १० ३२ १ १ ५८ २ ८ ४५ २ ९ १५
| यक्षकदम २ ७ ५७ यक्षप
३ १२२ यक्षराज २ १० ४१ यक्ष्मन्
यजमान
२ ६ ६६ यमराज १ १ ११ यमुना
यमुनाभ्रातृ २ ६ १३३ ययु २ ६ १२७ यव
यवक्य
यवक्षार २ ७ ८ यवफल १६ ३ | यवस २ ७ १६ यवागू २ ४ २२ / यवाग्रज
२ ९ १०८ २ ४ १६१ २ ४ १६७
यजम
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________________
रक्तचन्दन]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(6.)
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का. व. श्लो. । शब्दाः २ ४ ९५ रन्ध्र २ ८ १०४ : रमस
रमणी ३ ३ ४९ ! रम्मा २ ४ ८८ रय २ ७ ५७ रल्लक
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२ ४ ११६
शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः रक्तचन्दन २ ६ १३२ रजनी
२ ९ १११ रण रक्तपा ११० २२ , (क्तफला २ ४ १३२ , (क्तसन्ध्यक ११० ३६ । रण्डा रक्तसरोरुह ११० ४१ रक्ताङ्ग २ ४ ६४६ . रतिपति एक्लोत्पल ११० ४२ रन रक्षःसम ४ ५ २७ रक्षस् १ १ ११
रलसानु १ १ ६० । रत्नाकर रक्षित ३ १ १०६ रनि रक्षिवर्ग
२ ६ ११६ ३ ५ १७ १६ २२
२ ९ ९३ । रव
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रथकट्या ९ १०६ रथकार २ १० ७ २ ६ १३७ रथगुप्ति २ १० १० रवद्रु २ ९ ९६ रथाग
जाजीव रचना एजक (जत
२ ८ ५५ " २१० , १० ९ ,
५७ ! रसगर्म ४ २६ रसशा ५ २२ रसना
५५. रसवती
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रसित २ ६ ९० : रसोनक
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________________
का. व. श्लो.
(८२) मूलस्यशब्दानुक्रमणिका का. व. सो. शब्दाः का. व. श्लो. २८ २२ ! राजीव ११० १९
११० ४१ राज्यात रात्रि
रीष्टि रीढा
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मूलस्थशम्दानुक्रमणिका का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शम्दाः २ ४ १५८ ! रोधस् १ १० ७ लक्ष्मी ३ ३ २२६ रोप । २ ८ ८७ १५ ७ रोमन्
लक्ष्मीवत् २ ६ १९ रोमन्य
लक्ष्म २ ९ ९१ : रोमहर्षण १ २ ९ ९६ रोमाञ्च ३ ३ १६१ रोष २ ८ ७ रोहिणी ३ १ ८९ रोहित १ २ ८ ४८ "
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लम्बन ]
(८४)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[लोहपृष्ठ
का. व. श्लो.
का. व. श्लो. शब्दाः २ ६ १०४ : लामन्जक १ १ ३८ लालसा
का. ब. इलो. २ ४ १६५
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२ ५ ३५ । लेह १ ७ ८ लोक
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लोकालोक २ ३ २ २ ७ ५४ लोकेश १ १ १६ २ ८ १५ | लोचन २ ६ ९३ २८ १६ । लोचमस्तक २ ४ १११ ३ १ ९० लोत्र २१० २५ २ ८ ८८
लोध्र २ ७ २७ लोपामुद्रा २ ८ १६ ३ १ ११० लोमशा २ ४ १३४ १ ७ ३२ ! लोल
७४ १ ७ ३२ ३ ३ २०० लोलुप ३ १ २२
लोलुम ३ १ २२
लोष्ट २ ९ १२ २१० २१ लोष्टमेदन
लोमन
लवणोद कवन लवित्र कशुन हस्तक लाक्षा
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लाक्षाप्रसादन २ ४ ४१ लागल लाङ्गलिकी २ ४ ११८ डाकी
२ ४ १६८
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२ ९ ९९ २ ८ ५० ११ ८ लोहकारक २१. ७ २८ १५, लोहपृष्ठ २ ५.१५
लेखक
२ ९ ८०
Page #682
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोहल]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(८५)
[वमथु
का. व. श्लो. शब्दाः
का. व. श्लो. २ ४ १३३
शब्दाः का. व. श्लो. शक्षाः लोहल ३ १ ३६ वक लोहाभिसार २ ८ ९४ लोहित १ ५ १५ বক্সিন
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:
२
४ २७
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लोहितक २ ९ ९२ लोहितचन्दन २ ६ १२४ लोहिताङ्ग १ ३ २५
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वक्र
वक्षस
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वटो २ ४ २६०
४६ वनतिक्तिका ३ ४ ८५
| वनप्रिय २ ५ १९ ३ २१५ वणिज
पनमक्षिका २ ५ २७ वंशिक वाणिज्या
१
७९, वनमालिन् २६ १२६
१ २१ वंशरोचना
२ ९ २७ २
वननुद्र वण्टक
९ वक्तव्य वत्स
वनशृङ्गाट २ ४ ९९ वक्र
वनस्पति वक्त
बनायुज
बनिता २ ६ २ वत्सक २ ४ ६६ २ ६ ७८
३ ३ ७४ वत्सतर वब्क्षण २ ६ ७३
वनीयक वङ्ग २ ९ १०६ वत्सनाम १ ८ ११
वनौकस् वत्सर वचन
वन्दा वचनेस्थित ३ १ २४
वन्दारु वचस
१ ६ १ वत्सल वचा २ ४ १०२ वत्सानी ૨ ૪ ૮૨
१ ४७ २ ४ १०५ वदन। वदान्य
| वप्र २ २ ३ वज्रनिर्घोष १ ३ १०
३ ३ १६१ वज्रपुष्प २ ४ ७६ । वदावद
२ ९१०५ वज्रिन् १ १ ४२ / वध २ ८ ११५ । वमयु ___
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वमथु]
[वलक्ष
का. व. श्लो
वमथु वमि वयस्
वतिष्णु
(८६) मूलस्यशब्दानुक्रमणिका का. व. सो. : शब्दाः का. व. श्लो. शम्दाः २८ ३७ । वरिवस्या २ ७ ३५ : वतिक २ ६ ५५ : वरिवस्थित ३ १ १०२ : ३ ३ २३१ वरिष्ट
वर्तुल २ ६ ४२ वरिष्ठ ३ १ १११ २ ४ ५८ वरी २ ४ १००
वरीयस् ३ ३ २३६ २ ४ १४४
दकण २ ८ १२
वर्धन
बयस्थ
वर्मन्
वयस्था
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३ १२१ ४ ९०
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वयस्य
वयस्या
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२ ६ १२४ | वरुणात्मजा २ १० ३९
वरूथ ३ ३ १७३
वरूथिनी २ ५ २५ वरेण्य
वर्कर
वर्धमान वर्धमानक वर्षिष्णु वर्बरा
वरटा
سه
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वर्मन्
वर्ग
४ १३९ २ ८ ६४ २ ८ ६५ ३ १ ५७
बरण
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वर्चस्
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वर्या
ه
चवणा
२ ५ २६ २ ४ ९०
ه
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३ ३ २२४ २ ८ ९
वणित
वरत्रा
२१० ३१ वरद
: ४८ बरवणिनी २ ६ ४
३ ५ ३८
वघ वराज ३ ३ २६
३ १ ११०
वर्षा बराङ्गक २ ४ १३४
૭ ૪૨ वर्षाभू बराटक ११० ४३
वर्षान्वी २१० २७
११ वर्षीयस् वरारोहा
वर्षोपल वराशि २६ ११६
३ १ २९
वर्मन् वराह २ ५ २ बरिवसित ३ १ १०२ | वर्ति २ ६ १३६ | बलक्ष
५
११० २४ ११० २४
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२ ६ ७० ३ ३ १२३
Page #684
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________________
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वलज ]
शब्दाः
वलज
वलभी
वलय
वलयित
वलिन
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वलिर
वलीक
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वल्कल
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वलकी
वल्लभ
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वल्लरी
वल्लो
19
वल्लूर
वश
वशक्रिया
बशा
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वशिक
वशिर
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वश्य
वषट्
वषटकृत
का. व. इलो.
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
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शब्दाः
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का. व. श्लो.
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(८)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[वास्तु
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का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. बाणी
वामा २ ६ २ वार्तावह बात
वामी २ ८ ४६ वार्धक २ ६ ४० वातक
वायदण्ड २१० २८ वाधुषि बातकिन्
वायस २५ २० ! वाईषिक २ ९ ५ वातपोथ
वायसाराति २ ५ १५ वार्मण वातप्रमी २ ५ ७ वायसी २ ४ १५१ । वार्षिक २ ४ १५० बातमृग २ ५ ७
| वायसोली २ ४ १४४ : वाल २ ६ ९५ पातरोगिन् २
वायु
१ १ ६१ वालधि २८ ५० वातायन वायुसख
वालपाश्या २ ६ १०३ बातायु वार
वालहस्त वातूल ३ ३ १९६ वार
२ ५ ३९
वालुक २ ४ १२१ वात्सक २ ९ ६०
३ ३ १६२ वाल्क २ ६ १११ बादर
६ १११
वारण २ ८ ३४ वावदूक वादित्र
वारणबुसा . २ ४ ११३ वाथ
वारमुख्या २ ६ १९ याशिका २ ४ १०३ वान
वारबाण २ ८ ६३ वाशित बानप्रस्थ बारस्त्री
वास वाराही २ २ १५१ वासक २ ४ १०३ वानर
वारि १ १० ३ वासगृह वानस्पत्य
वारिद १३ ७ वासन्ती २ ४ ७२ ૨ ૪ ૨૦ वारिपणी ११० ३८ वासयोग २ ६ १३४ वानेय २ ४ १३१ वारिप्रवाह २ ३ ५ वासर वापी १ १० २८ वारिवाह
वासव वाप्य २ ४ १२६ ।
२ ८ ४३ | वासस् वाम ३ ३ १४५ वारणी
वासित वामदेव १ १ ३२
२ ६ ५७ वामन
वासिता
वासुकि
९ १ वासुदेव १ १ २० वामलूर २ १ १४ , ३ ३ ७५ | वासू बामलोचना २ ६ ३ | वार्ताकी २ ४ ११४ | वास्तु
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मुलस्थशब्दानुक्रमणिका
(४९)
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२ ८ १८ वितथ।
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शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. वास्तुक २ ४ १५८ विक्रयिक २ ९ ७९
३ ५ १७ वास्तोष्पति १ १ ४३ विक्रान्त २ ८ ७७ विटङ्क २ २ १५ वास्न
विक्रिया ३ २ १५ | विटप २ ४ ५४ वाह २८ ४४ विक्रेत
७९ विक्रेय २ ९ ८२
विटपिन्
विखदिर वाइद्विषत् विव
२ ४ ५० २ विक्षाव
30 विटचर वाइस
२१० २३ विगत १०. वि
२ वाहित्य
५ १०६ वाहिनी
विडाल २ ८
विगतातवा ७८
२ ६ २१ विन
विडौ जस् १ १ ४१
वितण्डा विग्रह २ ६ ७०
१ ६ २१ वाहिनीपति २ ८ ६२ .,
वितरण वि
वितदि विकत विकच
वितस्ति विवस विकर्तन १ ३ २९ । विघ्न
वितान विकलाङ्ग २ ६ ६ विघ्नराज विकसा २ ४ ९० विचक्षण
वितुन्न
२ विकसित
वितुनक ४ १२६ विचयन विकस्वर
विचचिंका २ ६ विकार
| विचारणा १ विकासिन् ३ १ विचारित ३ विकिर
३३ | विचिकित्सा विकिरण २ ४ विच्छन्द्रक विकुर्वाण ३१ ७ | विच्छाय ३ ५ २६ / विदर ३ २ ५ विकृत १ ७ १९
विदल विजन २ ६ ५८ विजय २ ८ ११०
विदारक ११० १० विकृति ३ २ १५ विजिल
विदारी २ ४ ११० विक्रम २ ८ १०२ विश
विदारिगन्धा २ ४ ११५ ३ ३ १४१ विशात ३ १ ९ विदित ३ १ १०८ विक्रय २ ९ ८३ | विज्ञान
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शब्दाः
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विदुर
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विपाशा
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वियद]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (९) [विषुवत् शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. / शब्दाः का. व. सो. वियत्
विवस्वत् ३ ३ ५७ विश्राव ३ २ २८ वियद्गङ्गा १ १ ४९ विवाद १ ६ ९ विश्रुत वियम ३ २ १८ विवाद
| विश्व वियात ३ १ २५ विविक्त २ ८ २२ वियाम ३ २ १८ विरजस्तमस् २ ७ ४४ | विविध
९३ विश्वकद २१२२ विरति
विवेक २ ७ २८ विश्वकेतु १ १ २७ विरल ३ १ ६६ विश्वोक १ ७ ३१ विश्वकर्मन् ३ ३ १०९ विराज्
विश्वभेषज २ ९ ३८ विराव
विश्वम्भर १ १ २२ विरिञ्च
विश्वम्भरा २ १ २ विरूपाक्ष विशङ्कट
विश्वसूज विरोचन १ ३ ३० विशद १ ५ १२ विश्वस्ता २ ६ ११ ३ ३ १०८
विशर २ ८ ११५ विश्वा २ ४ ९९. विरोष १७ २५ विशल्या
विश्वास २ ८ २३ विरोधन ३ २ २१
२ ४ १३६ विष विरोधोक्ति १ ६ १६ , ३ ३ १५६ विलक्ष ३ १ २६ | विशसन
२ ८ ११४ विषधर विलक्षण ३ २ २ विशाख
विषमच्छद २ ४ २३ विलम्ब ३ २ २८ | বিয়া। १ ३ २२ विषय विलाप १६ १६ विशाप विलास
विशारण २ ८ ११२ विलीन
विशारद विलेपन विशाल
विषयिन् | विशालता
विषवेष १८ ११ विलेपी
विशालत्वच् २ ४ विवष
विशाला २ ४ १५६ विषाक्त
| विशिख २ ८ ८६ विषाण विवर्ण २ १० १५ विशिखा २ २ ३ | विषाणी १ ४ ११९ विवश
विशेषक २ ६ १२३ | विषुव १ ४ १४ विवस्वत ५ ३ २९ | विश्राणन २ ७ २९ | विषुवव १ ४ १४
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विषा
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विष्किर ] (९१) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[वृजिन शब्दाः का. व. श्लो. 1 शब्दाः का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्री. विष्किर २ ५ ३३ विस्मय १७ १९ वीर विष्टप ३ १ ६ विस्मयान्वित ३ १ २६ विष्टर विस्मृत ३ १ ८६
२ ८ ७७
वीरण विष्टरश्रवस् १ १ १७ : विस्र १ ५ १२
२ ४ १६४ विष्टि १ ९ ६ विनम्म २८ २३
वीरतर विष्ठा २
वीरतरु ६ ६८ , ३ १३५ विष्णु १ १ १८ विस्रसा
वीरपत्नी विष्णुकान्ता २ ४ १०४
वीरपान विष्णुपद १ २ २
वोरमा विहङ्ग २ विष्णुपदी ११० ३१
वीरमात | विहङ्गम २ विष्णुरथ ११
वीरवृक्ष २ ४ ३२ विहलिका __२९ विष्य ३ १ ४५
वाराशंसन २ ८ १०० विष्वच् ३ ४ १३ विकसित
वारम् विष्वक्सेन १ १ १९ विहस्त
वीरहन्
२ ७ ५२ विष्वक्सेनप्रियार ४ १५१ विहापित
वीर्य विष्वक्सेना २ ४ विष्वद्रथच ३ १ विहार
३ ३ १५५ विह्वल
वीवध ३ ३ २६ विसर्जन
वीकाश
३ २१५ वुक
२ ४ ८१ विसर्पण विसंवाद
वृकधूप २ ६ १२८ विसार
२ ६ १२९ विसारिन् ३ १ वीणावाद १. १३
वृक्ण
३ १ १०३ विसृत
वीन २ ८ ४३ वृक्ष विसृस्वर ३ १ ३१
वोतंस २१. २६ वृक्षभेदिन् २१० ३६ विसमर
वीति २ ८ ४३ वृक्षरुहा २ ४ ८२ विस्तर ३ २ २२ वीतिहोत्र
वृक्षवाटिका २ ४ २ विस्तार ३ २ २२ वीथी
वृक्षादनी २ ४ ८२ 'विस्तृत . ३ १ ८६ । ३ ३ ८७
२१० ३४ विस्फार २ ८ १०८ वीध्र
३ १ ५५ वृक्षाम्ल २ ९ ३५ विस्फोट २ ६ ५३ वीनाह ११० २७ / वृजिन १ ४ २३
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________________
वृजिन ]
[ वेसवार
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (९३) का. व. श्लो. शब्दा का. व. श्लो. । शब्दाः ३ ५ ७५ वृन्द २ ५ ४० वेणुध्म ३ ३ १०९ वृन्दारक १ १ ९ वेतन ३ १ ९२
वेतस वृन्दिष्ठ ३ १ ११२ बेतस्वद ३ १ ६९
वेताल वेत्रवती
का. व. श्लो. २ १० १३ २ १० ३८ २ ४ २९
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वृषध्वज २ ४ १२२ वृषन्
वृषम वृषल
वृषस्यन्ती २ ४ १३७ वृषा २ ६ ६१
वृषाकपाथी १ १ ४१ बृषाकपि ६.४० पृषी
| वृष्टि २ ४ ११२ वृष्णि
वृद्धव वृद्धदारक वृद्धनामि वृद्धश्रवस्
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देहत् ] (९४) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[व्यूढकङ्कट शम्दाः का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. वेहत २ ९ ६९ । वैरशुद्धि २८ ११० व्यस्त ३ १ ७२ वै ३ ४ ५ वैरिन्
व्याकुल वैवधिक २१० १५ व्याकोश | वैवस्वत
व्याघ्र वैकक्षिक २ ६ १३६ वैशाख १ ४ १६ | वैकुण्ठ
व्याघ्रनख २ ४ १२९ वैजयन्त १
व्याघ्रपाद वैजयन्तिक २ ८ ७१ वैश्रवण १
व्याघ्रपुरुछ २ ४ ५० वैजयन्तिका २ वैश्वानर
व्याघ्राट २ ५ १५ वैजयन्ती वैसारिण
व्याघ्री २ ४ ९३ वैशानिक
व्याज वैणव २ ४ १८
व्यक्ति वैणविक
व्याड वैणिक
१९० २ १० १३
व्याडायुध २ ४ १२९ ध्यजन २ ६ १४० वैतंसिक
व्याध २१० २१ ब्याक वैतनिक
व्याधि २ ४ १२६ व्यअन वैतरणी
११६ वैतालिक २ ८ ९७
२३ व्याभिषात २ ४ २४ वैदेहक व्यडम्बक
ध्यापित व्यत्यय
२३ ध्यान वैदेही ध्यत्यास
भ्यापाद ५७ न्यथा
व्याम २ ६ ८७ २ ४ १०३ व्यध
व्याल १ ८ ७ व्यव
३ ३ १९७ व्यय ३ २ १७ न्यालग्राहिन् १ ८ ११
व्यलोक ३ ३ १२ व्यास ३ २ २२ वैनीतक २८ ५८ भ्यवधा
व्याहार वमात्रेय २ ६ २५ व्यवहार
व्युत्थान ३ ३ ११८ व्यवाय
ब्युष्टि वैर १ ७ २५ व्यसन ३ ३ १२० | ब्यूट ३ ३ ४५ वैरनिर्यातन १ ८ ११० | बसनातं ३ १ ४३ | म्यूटकट २ ८ ६५
. .
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२ १
१६
वैधमात बैधात्र वैधेय देनतेय
.
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वैयाघ्र
Page #692
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्यूति]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(९५)
[शनैस
शटी
२ ४ १११
शण्ड
६७ शत
व्रण
যাঃ का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शम्दा: का. व. श्लो. भ्यूति २१० २८ शकुनि २ ५ ३२ शशिनी २ ४ १२६ न्यूह २ ५ ३९
शकुन्त २ ५ ३२ इची " २ ८ ७९
३ ३ ५८ - शचीपती ३ २ २३९ शकुन्ति
२ ४ १५४ व्यूपाणि २ ८ ७९
शठ ३ ११० १९
१ शकुल
४६ व्योकार २१० ७
२ ४ १५९ शकुलाक्षक
शणपणी २ ४ १४९ व्योमकेश १ १ ३४
शणपुष्पिका व्योमन्
२ ४ १०७ १
शकुलादनी २ ४ ८६ २ १
२ ६ ३८ व्योमयान , ४८ व्योष २ ९ १११
। शकुलार्भक ११० १७ शकत २ ६
२ ९ ८४ व्रज शकरकरि २ ९ ६२
शतकोटि को शक्ति व्रज्या
० ८ १९ शतपत्र ११० ४० २ ८ ९५
शतपत्रक २ ५ १६ शतपदी
५ १३ व्रत
शक्तिपर १ १ ४० शसपर्वन् व्रतति
शक्तिहेतिक २ ८ ६९
| शतपत्रिका
शक १ १ ४२ जतिन्
शतपुष्पा २ ४ १५२ द्रधन
३२
शक्रपनुस् १ ३ १० शतप्रास व्रात शक्रपादप
शतमन्यु व्रात्य
शकपुष्पिका २ ४ १३६ । शतमान बोग
शतमूली ब्रीहि
शतवीयो २ ४ १५९
शतवेषिन् २ ४ १४१ ८ शतहदा १ ३
शता २ ८ ५१ शंवरी
शतावरी २ ४ १०१ शकट २८ ५२
१ १० २३ शत्रु
२ ४ २३० , शकलिन् ११० १७
३ ३ २८ शनैश्चर १ ३ २६ २ ५ २२ । शानख ११० २३ | शनस् ३ ४ १७
6m k Gma
श्रेय
२०
. .. 6 6
Page #693
--------------------------------------------------------------------------
________________
शपथ ] (९६)
शब्दाः
शपथ
शपन
शफ
शफरी
शवर
शबरालय
शत्रुल
शबली
शब्द
#9
31
शब्दग्रह
शब्दन
शम
शमय
शमन
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शमल
शमित
शमी
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शमोर
शम्पा
शम्पाक
शम्भ
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का. व. लो.
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
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शब्दाः
शम्बूक
शम्भली
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शयनीय
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शरण
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९ | शरीरिन्
शरभ
शरब्य
शराभ्यास
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शराव
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शब्दाः
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शर्करिल
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शर्वरी
शर्वाणी
शल
शलभ
शलल
शब्ली
शकाद्र
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शव
शरा
शशधर
शशलोमन्
शशादन
शशोर्ण
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Page #694
--------------------------------------------------------------------------
________________
शल]
मुलस्थशब्दानुक्रमणिका
(९७)
[शिफा
-
-
शम्दाः शस्त्र शखक शस्त्रमा शस्त्राजीव
का. व श्लो. शब्दाः ३ ३ १८० शाबर २ ९ ९८ शाम्बरी २१० ७ शार २ ८ ६७ शारद
का. व. लो. २ १० ३० ३ १ ८९
aur
का. व. श्लो. शब्दाः २ ४ ३३ | शिक्य २ १० ११ शिक्यित ३ ३ १६६ शिक्षा
शिक्षित शिखण्ड
शिखण्डक २ १० ४६ शिखर २ ४ ११२ २ १ ११ शिखरिन्
शस्त्री
१३६
२ २
शाक
शारदी
५ ३१ ६ ९६
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शाकट शाकुनिक शाक्तीक शाक्यमुनि शाक्यसिंह शाखा
शारिफल शारिवा शार्कर হাজিল शार्दूल
२ १० १४ २ ८ ६९ १ १ १४ १ १ १५
२ ३ १ ३ ३ १०६
२ ५ १ शिखा
शावर
शाल
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शाला
शाखानगर शाखामृग शाखिन् शाहिक शाटक शाटी शाठ्य
२ ५ २ ४ २ १०
३ ५ ८
२ ६ ९७ ११० १९
शिखावत १ १ ५५
शिखावल २ ५ ३० ३ १ १२ शिखिग्रीव २ ९ १०१ २ ९ २४ शिखिन् २ ५ ३० १ १ २६ : ११. ३८ शिखिवाइन १ १ ४० ११० २४ शिग्रु
शालावृक शालि शालीन शालूक
*
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१ ७ ३० २१० ३२
शाण
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शालेय
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शाणी शाण्डिल्य शात शातकुम्म शात्रय
६ शिग्रुज
२ ३
४ ३२ १ ९१
शाल्मलि
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शावक
س
११ शाश्वत
س
शाद
२ ४ ४६
शिक्षित २ ५ ३८ शिञ्जिनी १ ८ ८५ ३ १ ७२ शितशूक २ ९ १५ ३ २ ४० शिति २८ २५ शितिकण्ठ १ १ ३२ १ १ १४ शितिसारक २ ४ ३८
शिपिविष्ट ३ ३ ३४ ३ १ ७ शिफा ३ ११२
س
शाष्कुलिक शासन
शास्तृ ३ १ ९७ शाख ३ २ ३ | शास्त्रविद्
س
ه
शान्त शान्ति
ه
___
Page #695
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिफा]
[शुभ
शब्दाः शिफा शिफाकन्द शिविका शिविर
(९८) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका का. व. श्लो. शब्दाः का. व. इलो. शब्दाः २ ४ ११ शिवा २ ५ ५ शील ११० ४३ , ३ ३ २१३ , २८ ५३ शिशिर १ ३ १९ शुक
का. व. श्लो. १ ७ २६ ३ ३ २०१ २ ४
शिम्बा
शिरस्
२ ९ २३ . शिशा शुकनास २ ६ ९५ : शिशुक
शुक्त २ ८ ६४ शिशत्व
५० शक्ति शिशुमार ११० १०
२ ४ ५७ ३ ३ ८३ ११० २३ २ ४ १३० १ १ ५६ १ ३ २५
९८ ६५
হি
६३
शिरख शिरस्य शिरा शिरोष शिरोधि মিলে शिरोरुह शिला
शिश्विदान ३ , ४६ शिष्टि
शिष्य
२ ६ १०२ २ ६ ९४ २ २ १३
२ ६ ६२ १ १ १२
शुक्रशिष्य शुक्ल
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१ ४ १६ १ ५ १२ १७ १७
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शिलाजतु २ ९ १०४
२ ४ ३० शुन् शिली ११० २४
४ ३४ शुचि शिलीमुख ३ १ १८
५ १२२ , शिलोचय २ ३ १ शतक २१० १८. शिप २१० ३५ | शीतभीर शिपिन् २१० ५ शीतल १ ३ १९ शिक्षिपशाला २ २ ७
२ ४ १४९ शुण्ठी शीतशिव २ ४ १०५ शुण्डा
२ ४ १२२ शुतुद्रि शिवक २ ९ ७३
२ ९ ४२ शिवमझो २ ४ ८१
ম্ভার शीर्ष शिवा १ १ ३७ शीर्षक
शुनक २ ४ ५२ शीर्षच्छेच
शुनी २ ४ ५९ शीर्षण्य २ १ ९८ शुभ
२ ४ १२७ ,
२१० ४० ११० ३३
११०
.
२ २ १२ ३ ३ ६६ २१० २२ २१० २२ १४ २५
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९
७६
Page #696
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुम शम्दाः शुभ शुभंयु सुभान्वित शुभ्र
:
शुभ्रदन्ती शुभ्रांशु शुल्क शुल्ब
»
वेर
: :
A = 6 + 6 + + 4
. . .
शृङ्गार
, য়গম্বা शुषि शुषिर
. .
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका (९५) [शौखोदनि का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शम्दा का. व. भो. ३ ५ २३ शूल्य २ ९ ४५ शैलालिन् २१० १२ भृगाल
२ ५ ५ शैलूष २ ४ १२ ३ १ ५० शृङ्खल
२ १० १२ १ ५ १२ , २ ८ ४१ शैलेय ३ ३ १९३ : शृझलक
२ ९ ७५ शैवलिनी १ ३ ५. शृङ्खला २८ ४१ शैवाल ११० ३८ १ ३ १४ शृग २ ३ ४ शैशव २ ६ २८ ७७ , २ ४ १४२ शोक २ ९ ९७ , ३ ३ २६ शोचिष्केश १ १ ५४
__ ३७
शोचिस् १ ३ ३४ ३ ५ २३ शृङ्गाटक २ १ १७
शोण १ ७ १७
११० ३४ शृङ्गार १ ७ १७
शोणक २ ४ ५७ १ ८ १
शोगरत्न २ ९ ९२ भृङ्गिणी
शोणित शृङ्गी ११० २५ २ ६ ६३
शोथ ૨ ૨ ૧૨ २ ८ १०२
शोथनो २ २ १४९ १ १ ५४
२ २ १८ शृङ्गीकनक २ ९ २३
शोधित शृत ३ १ ९५ | शेखर २ ६ १३६ "
शोफ शेफस्
२ ६ ५२ २ ४ ८७
शोभन शेफालिका २ ४ ७०
३ १ ५२
शोमा १३ १७ शेमुषी
शोभाजन २ ४ ३१ शोष २ ६ ५१
शौक | शेवधि २ ८ ७७
शौकिकेय १८ शेवाल
शौण्ड ३ १ २३ ३ ३ १९७ शैक्ष
शौण्डिक २ १० १० २ ९ ४५ शैखरिक २ ४ ८८! शौण्डी १ १ ३० | शैल २ ३ १। शौद्धोदनि १ १ १५
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शुष्कमांस शुष्म शुष्मन् शुक शुक्रकीट शूकधान्य शूकशिम्मि
२ ४ ११६ शोधनी
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शूद्रा
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शेष
.
शुलाकृत शूलिन्
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श्रेष्ठ
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श्रोणि
श्रोत्र
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श्रौषट्
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श्लेष्मल
श्लेष्मातक
श्लोक
श्वःश्रेयस
श्वदंष्ट्रा
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श्वेतगरुव श्वेतमरिच २ ९ ११० श्वेतरक्त १ श्वेतसुरसा २ ४ ७१
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________________
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शब्दाः
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सदातन
सदानीरा
सदृक्ष
सदृशू
सदृश
सुदेश
९ १६
११
१ ५८
૪ २९
३ २१३
१ १६ सन्नत
सन्तति
सन्तप्त
सन्तमस
सन्तान
सद्मन्
सद्यस्
सायन्
सनत्कुमार
सना
सनातन
सुनाभि
मनि
सनांड
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सन्ताप
सन्तापित
૪
सन्दान
१५ सन्दानित
[ सन्दानित
का. व. इलो.
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________________
सन्दात्र ]
शब्दाः
सन्दाव
सन्दित
19
सन्देशवाच्
सन्देशहर
सन्देह
सन्दोह
सन्द्राव
सन्धा
सन्धान
सन्धि
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सन्धिनी
सन्ध्या
सनकदु
सन्नद्ध
सन्नय
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सपर्या
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सपिण्ड
सपीति
सप्तकी
सप्ततन्तु सप्तपर्ण
का. व. इलो.
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सन्निकर्षण
सन्निकृष्ट
३
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सन्निधि सन्निवेश २ २ १९
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शब्दाः
सप्तला
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सभाजन
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सब्रह्मचारिन् २ ७ ११
सभर्तृका
२
६ ११२
सभा
सभास्तार
समिक
सभ्य
सम
99
समग्र
समङ्गा
99
समज
समझा
समज्या
समजस
समधिक
३४
३३
९ ३५
६ १०९ समन्तभद्र
७
१३ समम्
× १३ समय
(१०३)
का. व. इलो. शब्दाः
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समक
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समन्ततस् ३ × १३ समन्तदुग्धा २
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समसन
समस्त
समस्या
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समांसमीना २ ९ ७२
समाज
समाधि
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समान
समाकर्षिन् ५
समाघात
[ समाहित
का. व. इलो.
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४ समाहार
१ | समाहित
२
१
३
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३७
३ ३ १२७ समानोदर्य २ ६ ૪ समालम्भ
३ २
२७
समावृत
२ ७
१०
समासाद्य
३ १
९२
समासार्था
१ ६
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[ सर्वतोमुख का. व. श्लो. २ ४ ५९
km
समिति
११० २८
समिध्
११० ४०
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१ ६ १ ११० ३४ ११० २९
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समाहृति ] (१०४) मूलस्थशब्दानुक्रमणिका शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः समाहृति १ ६ ६ समुपजोषम् ३ ४ १० । सरल समाह्वय २१० ४६. समूर समित २ ८ १०६ समूह २ ५ ३९ सरलद्रव । २ ७ १५ समूह्य
। सरला २ ८१०६ । ममद्ध ३१ ११ सरम् ३ ३ ७० समद्धि ३ २ १० सरसी
२ ४ १३ । सम्पत्ति २ ८ ८२ : सरसोरुह समीक २८ १०४ । सम्पद २ ८ ८१ । सरस्वत समोप
| मम्पराय समीर १ १ ६२ सम्पुटक २ ६ १३९ । सरस्वती समीरण १ १ ६२ : सम्प्रति
३ ४ २३ " २ ४ ७९ सम्प्रदाय ३ २ ७ सरित् समुच्चय ३ २ १६ । सम्प्रधारणा २ ८ २५ । सरिस्पति समुच्छ्य ३ ३ १५२ / सम्प्रहार २ ८ १०५ ! सरीसृप समुज्झित ३ ११०७ सम्फुल्ल
सर्ग समुत्पा सम्बाध
सर्ज समुदक्त सम्भेद
सर्जक समुदय सम्भ्रम
सर्जरस समुदाय
३ २ २६ सर्जिकाक्षार सम्मद
सर्प समुद्र सम्मानी
सर्पराज समुद्रक २ ६ १३९ सम्मूच्र्छन ३ २
३
६ सपिस् समुद्भिरण ३ ३ ५५ सम्मृष्ट
सर्व समुदत ३ १ २३ , सम्यक्
सर्वसहा १ सम्राज् २ ८ ३ सर्वच समुद्रान्ता २ ४ ९२ सरक २ ४ ११६ सरपा
सर्वतस् २ ४ १३३ सरट
सर्वतोमद्र समुन्दन
__ सरणा २ ४ १५२ , समुन्न ३ १ १०५ सरणि
सर्वतोभद्रा समुनद . ३३१०३ सरमा . २१० २१ | सर्वतोमुख
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________________
सर्वदा]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(१०५)
[सामान्य
साधित
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शब्दाः का. व. श्लो. , शब्दाः का. व. श्लो. । शब्दाः का. व. श्रो. सर्वदा ३ ४ २२ । सहधर्मिणी २ ६ ५ / सातला २ ४ १४३ सर्वधुरीण २ ९ ६६ सहन ३ १ ३१ साति ३ २ ३८ सर्वमङ्गला १ १ ३७ । सहभोजन __ २ ९ ५५ सर्वरस २ ६ १२७ सहस् १ ४ १४ सर्वला २ ८ ९३
२ ८ १०२ सातिसार सर्वलिङ्गिन् २ ७ ४५
३ ३ २३३
। सात्विक १ ७ १६ सर्ववेदस् २ ७ ९
सादिन् सहसा सर्वसत्रहन २ ८ ९४ सहस्य १४ १५ ।
३ ३ १०७ सर्वानुभूति २ ४ १०८ सहस्र २ ९
साधन . ३ ३ ११९ सर्वान्नमोजिन् ३ १ २२ | सहस्रदंष्ट्र
साधारण
११० १८ सर्वानीन ३ १ २२ सहस्रपत्र ११० ४०
३ १ ८२ सर्वामिसार २ ८ ९४ सहस्रवीयर्या २ ४ १५८ सर्वार्थसिद्ध १ १ १५
साविष्ट ३ १ ११२ सहस्रवेधिन् २ ४ १४१
साधायस्
३ ३ २३६ सर्वोष २ ८ ९४
साधु सर्षप २ ९ १७ सहस्रांशु १ ३ ३१ सलिल सहस्राक्ष १ १ ४४
३ ३ १०१ सलकी २ ४ १२४ सहस्रिन् २ ८ ६२
साध्य सव २ ७ १३. सहा २
साध्वस १७ २१ सवन २ ७ ४५
साध्वी सवयस २८ १२ !
सहाय
___ ७१ सानु सवित सहायता
सान्स्व १ ६ १८ सविध
सहिष्णु सवेश
सायात्रिक ११० १२ सान्दृष्टिक २८ २९ सव्य सायुगीन २ ८ ७७
सान्द्र सव्येष्ठ सांवत्सर
सान्नाय्य सस्य सांशयिक
साप्तपदीन सस्यसम्बर २ ४ ४४ साकम्
सामन ३ ४ ४ . साक्षात् ३ ३ २४४ | " सहकार २ ४ ३३ मागर
सामाजिक सहचरी २ ४ ७५ साचि ३ ४ ६ । सामान्य १ ४ ३१ सहज २ ६ ३४ , सात १ ४ २५ ।
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________________
सिन्धु
सामि ) (१०६) मूलस्थशम्दानुक्रमणिका
[मुख शब्दाः का. ब. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. लो. सामि ३ ३ २५० सिंह
सिनीवाली १ ४ १ सामिधेनि २ ७ २२ , ३ १ ५९ सिन्दुक २ ४ ६८ साम्परायिक २ ८ १०४ : सिंहतल २ ६ ८५, सिन्दुवार २४ साम्प्रतम्
सिंहपुच्छो २ ४ ९३ सिन्दूर २ ९ १०५ सिंहसंहनन ३ १ १२
३ ५ ३१ सायक
सिंहाण सायम्
सिंहासन सिंहास्य
सिन्धुज सार
सिंही २ ४ १०३ सिन्धुसङ्गम ११० ३५ सारस
२ ४ ११४ सिह २ ६ १२८
३ ३ ७३ सीकर सारथि
सिकतामय ११० ९ ! सीता २ ९ १४ सारमेय
२१
सिकतावत सारव ११० १६
सिक्थक
१०७ सारस सित
सीमन् २ २
२ २० ५ २२ २ ६ १०९ , ३
सीमन्त
१ ९५ सारसन
३ ५ १९ ११ ९८ सोमन्तिनी २ ६ २
सीमा २ २ २० सारिका सार्थ सितच्छता २ ४ २५२
सोर सार्थवाह २ ९ ७८ सिता
सीरपाणि १ १ २४ सा
३ ११०५ सिताम्र २६ १३० सीवन सार्धम् ३ ४ ४ सिताम्मोज ११० ४१ | सोसक २ ९ १०५ सार्वभौम २ ८ २ सिख
सीहुण्ड
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| सुकन्दक सिसि
११२ सुकरा सालपणी सिष्म
सुकल सिध्मल
सुकुमार साना
सिध्मला ३ ५ १० साहस
१३ २२ सुकृतिन् साइन
३ २ ४३ / सित्रका ३ ५ ८ मुख
३
१
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२ ८६२ सिध्य
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--------------------------------------------------------------------------
________________
तुख
मूलस्यशम्दानुक्रमणिका
(१०७)
[मूत
का. व. श्लो.
स्वर
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शब्दाः का. ब. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः सुख ३ ५ २३ मुप्रयोगविशिख २ ८ ६८ सुवर्णक
सुप्रलाप , ६ १७ सुवरिल सुख सन्दोहा २ ९ ७१ तुमगात २ ६ २४ सुवदा सुगत
सुभिक्षा मुगन्धा २ ४११४ सुगन्धि
सुमनस्
४ ४
७० ११५
सुम
सुचरित्रा
२
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मुखता
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२ ४ १४० २ २ ७१ ३ २ ५२
सुमनोरजन २ ४ १७
सुषम
सुत
मुषमा
सुर
मुषवी
२ ४ १५५ २ ९ ३७
सुतश्रेणी
२
७ ४७
२ ४ १२९
सुत्रानन् सुत्या सुस्वन् सुदर्शन
मुषिर सुषिरा मुषोम सुषेण सुषेणिक सुष्टु
१
सुरङ्गा सुरज्येष्ठ १ १ १६ सुरदाधिका १ १ ४१ सुरद्विष् ११ १२ सुरनिम्नगा ११० ३१ सुरपति सुरभि १ ४ १८
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सुदूर सुधर्मन् सुधा
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सुसंस्कृत मुरहृद्
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१ १ ४१ २ ४ १४९ ३ १ ५२
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१ १ ३ १४४
सुधांशु सुधी सुनासीर मनिषण्णक सुन्दर सुन्दरी सुपथिन् सुपर्ण सुपर्वन् सुपाश्चक मप्रतीक
सुरमी सुरषि सुरलोक सुरवर्मन् सुरसा सुरा मुराचार्य सुरालय मुराष्ट्रज सवचन सुवर्ण
२ ४ ११४ २ १० ३९ १ ३ २४
..
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१
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१
३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
सूतिकागृह ]
(१०८)
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
[स्तन
२८ ९१
सेवक सेवन
सैनिक
शब्दाः का. व. डो. शब्दाः का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्लो. सूतिकागृह २ २ ८ सेनाङ्ग २८ ३३ | सोमवल्लिका २ ४ ९५ सूतिमास २ ६ ३९ / सेनानी
सोमवल्ली २ ४ ८३ सूत्थान २ १० १९
सोमोद्भवा ११० ३२ सूत्र २१० २८ सेनामुख
सौगन्धिक ११० ३६ सूत्र वेष्टन
२४ सेनारक्ष सूद
२ ९ १०२ ३ २ ५
सौचिक २१० ६ सूना
११३ सेव्य
सौदामनी १ ३ १ सनु सैहिकेय
सौध २ २ १० सनृत सैकत
सौमागिनेय २६ २४ सूपकार २७ सैतवाहिनी १
सौम्य १ ३ २६ सूर
३ १६१ सूरण २ ४ १५७
सौरभेय २ ९ ६०
सौरभेयी सूरत सैन्धव
२ ९ ६६
सौराष्ट्रिक १८ १. सूरसूत सूरि
सौरि १ ३ २६
सौवर्चल २ ९ सूमी
४३
९ १०९ सैरन्ध्री
सौषिद सूर्यतनया सरिम
सौविदल २८८ सूर्येन्दुसम्म १
सौवीर सैरेयक
२ ४ सूक्विणी
३७ सोढ सुग
३
२ ९ १०० सणि मोदयं
सौहित्य सूणिका
सोन्माद सोपप्लव
स्कन्ध सपाटी सोपान २ २
२ ६ ७८ समर सोम १३ १४
३ ३ १०० सोमपा २ ७ ९ स्कन्धशाखा २ ४ ११ सेकपात्र १ १० १३ सोमपीथिन् २ ७ ९
३ १ १०४ सेचन ११० २३ सोमराजी २ ४ ९५
स्खलन सेतु २ १ १४ सोमवक २ ४ ५०
स्खलित २ ८१०८ सेतु २ ४ २५
स्तन २ ६ ७७ सेना २ ८.७८ | सोमवल्लरी २ ४ १३७ |
३ ५ १२
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________________
स्तनन्धयी ]
मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
(१०९)
[स्फार
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का. व. श्लो. २ ६ ११६ ३ ३ १४२
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स्थलशाटक स्तनपा २ ६
स्थली २ : ५ स्थलोचय स्तनयित्नु ३
स्थविर स्तनित
स्थौगय स्तबक स्थाणु १
स्थौरिन् स्तब्धरोमन् स्तम्ब
स्नातक स्थाण्डिल २७ ४४ स्तम्घन
२ ७ ४४ | स्नान स्तम्बन
स्थान
२ ८ १९ । स्नाय स्तम्बरम
स्निग्ध स्तम्भ
१३५
स्थानीय
स्थाने स्तव स्तिमित
स्थापत्य
२ ८ स्तुत ३ १ ११० स्थापनी
२ ४ ८४
स्नुत स्तुति
स्थामन् २ ८ १०२ स्नुषा स्तुतिपाठक २८ स्थायुक स्तूप
स्थाल स्तेन
स्थाली स्तेम स्थावर
स्पर्श स्तेय
१० २५
स्थाविर स्तैन्य १० २५ | स्थासक
स्पर्शन स्तोक
६१
स्थास्नु स्तोकक स्थिति २ ८ २६
स्पश स्तोत्र
३ २ २१
स्पष्ट स्तोम | শিলং
स्पृक्का स्तोम ३ ३ १४१ स्थिरा २६ २
२ ४ १२५ सीधर्मिणी २ ६ २० स्थिरायुष
स्पृष्टि स्थण्डिल २ ७ १८
स्पृहा २१० ३५ स्थूणा
स्पष्ट स्थण्डिलशायिन् ७ ४४
स्फटा स्थल स्थपति
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का. व. श्लो. सस्त ३ १ १०४ स्वर्ग स्फुट
स्राक स्रुच्
स्वर्ण स्फुटन
स्वर्णकार २ १० ८ स्फुरण
स्वर्णक्षीरी २ ४ १३८ स्फुरणा नुवा
स्वर्णदो १ १ ४९ स्फुलिङ्ग
१ ५७ स्रुवावृक्ष २ ४ ३७
स्वर्भानु १ ३ २६ स्फूर्जक स्रोतस् ११० ११
स्वर्वेश्या १ १ ५२ स्फूर्जथु
स्ववैध स्फेष्ठ ३ १ ११२ । स्रोतस्वती
स्ववासिनी २ ६ ९ स्म स्रोतोजन २ ९ १०० स्वस २६ २९
स्वस्ति ३ ३ २४२ १ १ २५
३ ३ २१२ स्वस्तिक स्मरहर
स्वच्छन्द ३ १ १५ स्वस्रीय स्मित स्वजन
स्वाति स्मृति स्वतन्त्र
स्वादु स्वधा
स्वादुकण्टक २ ४ ३७ स्यद
स्वधिति स्यन्दन २ ४
२६ स्वन २६
स्वादुरसा २ ८ ५१
स्वादी २ ४ १०७ स्वनित स्यन्दनारोह २८ ६०
स्वाध्याय स्यन्दिनी
स्वान स्वप्न स्यन्न
स्वभाव स्यूत स्वभू
स्वाप स्वयंवरा २ ६ ७ स्वापतेय स्यूति
स्वयम् ३ ४ १६ / स्वामिन् २ ८ १७ स्योनाक
स्वाराज स्रज
स्वाहा सव
१ १ ४७ सबर्मा
३ ३ १६८
३ ३ २४२ सवन्ती
१ ७३८ स्वेद
१ ७ ३३ सष्ट्ट १ १ १७/
३ १ १११/ स्वेदन
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का. व. श्लो. शब्दाः २ ९ ३० हरित
इल्लक स्वैर ३ ३ १९३ .
इव स्वैरिणी स्वैरिसा स्वैरिन्
इव्य हरिताल
३१ । हव्यवाहन हरितालक
५ ारतालक ३ ४
२ ९ १०३ ! हस हरिदश्व १ ३ २९ इसनो
हरिद्रा २ ९ ४१ हसन्तो
३ २२६ हरिद्राम १५ इंसक
६ ११० हरिद्व २ ४ १०१ हलिका २ ४ ८९ हरिन्मणि २ ९ ९२
हमनवारण हरिप्रिया १ १ २७
हस्तिन् हरिमन्थक २ ९ १८ हट्टविलासिनी २ ४ १३
हस्तिनख हरिवालुक २ ४ १२१ हठ २ ८१०८
हस्तिपक हरिहय १ १ ४३ हण्डे १ ७ १५
हस्स्यारोह हरीतकी २ ४ १८
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मूलस्थशब्दानुक्रमणिका
शब्दाः
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हिमवालुका २ ६ १३० हिमसंहति १ ३ १८ हिमांशु १ ३ १३
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२
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४७
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इत्यमरकोषमूलस्थशब्दानामकारादिशब्दानुक्रमणिका समाप्ता ॥
१
३
१
१ ७०
४ ११७
૪ ૪૨
१
४७
३ ९
१० ३०
३ ११२
७ २३
५
१
Page #710
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमरकोष-क्षेपकटीकास्थ-शब्दानामकारादिक्रमेण शब्दानुक्रमणिका
[अन मि सम्पच
अंल]
w w x x n oo w w w
१०७
का. व. श्लो. । शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. अ
। अग्रेदिधिपु २ ६ २३ । अटा अंल १ ५ ९ , २६ २३ अट्टालिक २ २ ९ अंशु १ ३ ३३ अग्न्य
अट्या २ ७ ३५ ४१अंशुमालिन् १ ३ ३० अङ्क २ ६ ७७ : अणवीन २ ९ ७ ३ अकल्मष ३ १ ११० अडकूर
४ ४ अणव्य २ ९ ७ अकिञ्चन ३ १ ४९ । अजाट
२९ १७ अणिमा १ १ ३५ अक्षपटालिक २ ८ ५ अङ्गन
अण्डकोष २ ६ ७६ १८ अक्षपाद २ ७ ६ अङ्गारधानो २
१ अण्डज १ १ १७ अक्षरविन्यास २ ८ १६ । अङ्गारपात्रो २ ९ २९ । अतिक्रम २ ८ ९६ अक्षरसंस्थान २ ८ १६ अङ्गरि २ ६ ८२ | अतिथी
अतिथी २ ७ ३४ अक्षिगत
११२ | अङ्गुरीयक २ ६ अतिवल २ ८ ७२ अक्षिव २ ९ ४१ अङ्गल २ ६ ८२ : अतिसौरम १ ४ ३३ अगच्छ
अङ्गुलि २ ६ ८२ अतीसारकिन् २ ६ ५९ अगरी
. ६९ अङ्घस् १ ४ २३ । अत्यन्तकोपन ३ १ ३२ अगरु २ ६ १२६ । अघ्रिप २ ४ ५ अत्यल्प ३ १ ६२ २ ६ १२७ / अघ्रिपणिका २ ४ ९२
अधः अगस्ति १ ३ २० । ३४ अन्छ ३ ३ २९ अधःक्षिप्त अगुरुवासन १ ५ ११ अजननि ३ २ २९ अधामार्गव २ अगुरुशिंशपा २ ४ ६२ अजर्य २ ८ १२ अधिक अग्निज्वाला २४ ११८. अजिर ३ ५ २३ अधिप २ ८ अग्निमुखा २ ४ ११८ अञ्जना
अधिपाङ्ग अग्रसर २८ ७२ । ३२ अञ्जलिका.
अधीर अग्रिम २ ६ ४३ . रिका २१० २८ अधोमुख ३ १ १० अग्रीम २ ६ ४३ : अटनि २ ८ ८४ अधरेधुस् ३ ४ २१ अग्रीय २ ६ ४३ : अटरुष २ ४ १०३ अनधीनक २ १० ९
३ १ ५८ अटवि २ ४ १ अनमितम्पच ३ १ ४८ ४४ अ० ___
ras A M - K - A
Page #711
--------------------------------------------------------------------------
________________
me m mr mr mar
अब्ज
अनर्थक ] (11) क्षेपक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका [चिंत शब्दाः का. ब. लो. ! शब्दाः का. व. सो. शम्दाः का. व. लो. अनर्थक १ ६ २० अपश्य
अमण्ड अनायासकृत ३ १ ९४ अपदान
अमल २ ९ १०० अनाह २ ६ ११४ अपध्वस्त
अमला २ ४ १२७ ४६ अनीकस्य ३ ३ ८५ अपर
अमलाञ्झटा २ ४ १२७ अनुकर्षन् २ ८ ५७ अपरेघुस ३ ४ २१ अमा अनुचर २ ८ ९ अपशद
अमानस्य १ ५ ३ भनून ३ १ ६५ अपष्टुर ३ १ ८४/ अमामासी १ ४ ८ अनृत १ ६ २१ अपाची
अमावासी १ ४ ८ अनेडमूक ३ १ ३८ अपोदका २ ४ १५७ श्रमावसी १४ ८ ३२, ३ ३ १७ अबर
९२ अमृत ३ ३. २३ १२ अन्तरिक्ष १ २ १
२ ९ ८४ २१ अमृष्य ३ ३ ११२ भन्तर्गडु ३ १ ११२ ४१अग्जिनीपतिर ३ ३० अमेघस् ३ १ ४८ अन्तर्गल २ ४ ७४ | अमिख्या १ ३ १७ अमोधा २ ४ ५४ मन्तवैशिक २८ ८ अमिनवोद्भिज २ ४ ४ अम्बरमणि १ ३ ३० मन्तिका १ ७ १५ | अमिभूत २ ८ ११२ | मघातक २ ४ २७ भन्तिकामय १ २ १९ अमिमदं २ ८ १०५ भम्ल १५ ९ भन्तिम
ममियाति २ ८ ११ अम्ललोणिका २ ४ १४० अन्ती
२९ ४६ ममियोग १ ६ १६ मम्सलोलिका २ ४ १४० मन्त्री २ ४ १३७ अमिषा ३ २ ६ अम्लवेतस २ ४ १४१ मन्दिका २ ९ ९ अमिपस्ति २ ७ ३२ अम्लीका २ ४ ४२ बन्दू २ ८ ४१ अमिसर २८ ७२ अयस्कर २१० मन्ध
अमीर २ ९ ५७ अपस्कार २१० अन्धतामित्र १ ९ २ अभीशु ३ ३ २२० अयुत २२ मन्वित ३ १ ११२ अभ्यजन
अयोनि अन्वीक्षण ३ २ ३० अभ्यवहार
भरटु २२ मन्वीत ३ १ ११२ अभ्यास ३ १ ६७ अररि २ २ १७ अन्वेषण ३ २ ३० अभ्याहार ३ २ १७
२ २ १७ ९ अन्वेष्ट्र ३ १ ११० | २० अभ्युत्थान २ ७ ३१ १५ अरविन्द १ १ २६ अपकृष्ट ३१ ५४ अभ्युस
अराल २ ६ १२७ अपगा २.१० ३० अभ्योष
अचि १ १ ५७ मपटान्तर ३.१ ३८ } अभी ११० १३ । अचिंत ३ १ ९८
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Page #712
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्जुन ]
शब्दाः
अर्जुन
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शब्दाः
२
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अलक्ष्मी १
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अवच्छुरित
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अवदाहेष्ट
४४ अवधान
अवध्य
अवनद्ध
अवन्ध्य
अवपात
अवराह
अवलक्ष
५० अवला
५२ अवलेप
अववाद
१
५२ अवष्टम्भ १
भवसर्प
अवसित
क्षेपक- टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
३ ३ ८५
१ १० २१
१ ५ १३
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१
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२
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अवस्कन्दन २
अवहेला अवाचीन
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अश्रप
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असुरी
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१४ अष्टमूर्ति १ असनपर्णी
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२
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४६ आक्रोश १ ६ १६
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६२ आत्मजा
५३ | आत्मदर्श
२९
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२
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२
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१
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२ ६ ११२ | आनुपूर्व्यं
का. व. श्री.
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२ ६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
रज्या
माप्त ] (१६) पक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका . [इषिका?
का. व. श्लो. शब्दाः का. व. सो. शब्दाः का. व. इलो. आप्त
आवर्तनी २१० ३३ आप्य २ ४ १२६ | आवली २ ४ ४ इक्षुद ११० र आवाचा आवाप ११० ११
इजल ९२ आमरण ३ ५ २३ आविग्न २ ४ ६७ आमीरपछी २ २ २० आवृत्त
इतरेधुस् ३ ४ २१ भाम
२० + आवेशिकर ७ ३३ इत्वर २ ९ ६२ आमण्ड २ ४ ५१ / आशय ३ २ .१ | ४१ इन १ ३ ३०
आशयाश १ १ ५४ ९ इन्दिरा १ १ २७ आमन्त्रण मामिषी २ ४ १३४ ६९, ३ ३ १६१ इन्दीवार ११० ३७ आमिक्षा २ ७ २३ आशिर १ १ ५९
| १४ इन्द्रलुप्तक २ ६ ५५ ७१ आम्नाय ३ ३ १६१ ५५ आशिस् १ ८ ८
इन्द्रसुरिस २ ४ ६८
१६ इन्द्राणी १ १ ३५ आम्टिका २ ४ ४३ आशीविष १८ ७
दार २ ४ १५५ आम्लीका २ ४ ४३ । ८७ आशु ३ ३ २१८
१ ला २ १ ३ ७ आयाआशुव्रीहि २ ९ १५
२ ८ ९१ लिक ११० आश्रव ३ २ २९
२ ८ ९१ भारग्वध ४३ + आधिन १ ४ १३
इषिका २ ८ ३८ भारनाल २ ९ ४० ४३+आश्विनी १ ४ १३
२१० ३२ आर्वध २ ४ २३ आश्वीय २ ८ ४८
इषीका माति ४०+आषाढ १ ४ १३
२ १० ३२ १९ आर्या १ १ ३७ | ४०+आषाढकर ४ १३ १८ आईक २ ७ ६ ४०+आषाढी १ ४ १३
ईरिण भाला २ ४ १५६ आस २ ८ ८३ थालाबू २ ४ १५६ आसन २ ४ ४४ ईर्वारु २ ४ १५५ बालामु २ ४ १५६ आसनपणी २ ४ १४९ ईर्वालु २ ४ १५५ आलि
आसुर १ १ १२
| ६ ईर्ष्यालु ३ १ ११० मालिन्द २ २ १२ आस्फोत २ ४ ८० माली २ १ १४ आस्फोता २ ४ ७० ईशा " २ ५ २४
२ २ १०४ १८ ईशिख १ १ ३५ मालोकनयम ३ २ ३१ माहितलक्षण ३ १ १० ईश्वरा मालोचित ३ १ ९९ | बाहिण्डिक १ ८ ११ ईषिका २८ ३८
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२३
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इर्या
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Page #714
--------------------------------------------------------------------------
________________
उच्छादन ]
शब्दाः का. व. इलो. शब्दाः
१३ उद्धव
उद्धान
उद्धार
उजुर
१५ उद्धृत
उच्छादन
२ ६ १२१
उच्छृङ्खल ३ १ ८३
उच्छ
२
९ २
९४ उड्ड
३
५ २३
उडुम्बर
२
४ २२
उडुम्बरपर्णी
२
उत्कण्ठित
उत्तरा
उत्तरे
xx
क्षेपक- टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
का. व. इलो.
१ १ २८
३
१ ९७
२
९ १२
३
१ ७०
३
१ ११२
३
१ ३
३
१ २२
३० उत्कलिका ३ ३
उत्तुङ्ग
उत्तेरित
उत्पलिनी
१२. उत्पश्य ३
१५ उत्पादित ३
उत्सर्ग
४ १४४
१. ૮
१७
३ ३ १९०
३ ४ २१
३ १ ७०
२ . ૪૮
१ १० ३९
१ ११०
१ ११२
२ ७ २९
उत्सुक
१८ उदश्चित
९३ उदर
उदरम्भरि
उदरिल
३० उदलावणिक२९
उदश्वित
३ १ १८
३
१ ११२
३
५ २३
३ १ २१
२ ६ ४४
४४
२ ९ ५३
४५ उदास्थित ३३ ८५
उदित
३
१ ९५
३४ उदीचीन १ ३
उदूखलक २ ४ ३४ उद्धर्षण
१ ७
३५
उद्धारान
२ १०
उद्दाम
१
२७
८३
उद्यमवत्
उद्रिक्त
उद्वान
99
उधस्य
उध्मान
उन्दुर
उन्मथ
उन्मद
उन्मादिन्
उन्मान
उन्मुख
उन्मूलित
उपकण्ठ
२
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२
३
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२ ९ ५१
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३ १ २३
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३
२
उपकालिका
उपचर्या
उपजोषम् उपदंश
१ उपप्लुत ३
उपयोषम्
३
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२
२
२ १० ४०
ASS A30
३
(११७)
शब्दाः
उपोषण
उपोषित
उप्तकृष्ट
उम्
उभ्य
उरणाक्ष
उरीकृत
उरुवुक
उरुवूक
२२ उर्वशी
१९ उल्का
उल्कासनक
उल्व
उपण
उपती
उषा
99
99
३३ उष्टिका
उष्णक
उष्मक
उष्मागम
१ २३ | ऊर्जस्
૪ १०
३ २००
ऊर्ध्वच ऊर्ध्वन्दम ऊर्ध्वस्थ
उपाय
उपोदका
उपवस्त
२
७ ३८
२५ + उपवाह्य २ ८ ३६ ऊर्वः
११ उपविष्ट ३ १११० ऊर्वरा
३ १ ५९ ऊषणा
२
४ १५७ கன
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का. य. इलो.
२ ७ ३८
२
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२
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२
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२ ૪ ९७
१ ४ ta
Page #715
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऊष्मण
ओजस्
३
ऊष्णक] (16) पक-टीकास्यशम्दानुक्रमणिका [कपिजल
का. ब. श्लो. । शन्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. ऊष्णक १ ४ १८
ओ
२३ कण्टक ३ ३ १७ ऊष्णोपगम १ ४ १९ | ओक ३ ३ २३३ कटंवरा २ ४ ८५
ओकार १ ६ ४ कटम्बरा
८ १०२ ऋचीष
| औ
कटि २ ६ ७५ ४४ ऋत ३ ८५ औदुम्बर २ ९ ९७
कटिपाथ ऋतुराज १ ४ १८ औपवन २ ७ ३५
७ ३५ कटिल्लक २ ४ १५४ ऋश्यकेतु १ १ २७ २५ औपवास २ ८
कटी २ ६ ७४ ऋष्टि भौमीन २ ९
कडकर २ ९ २२ औरस्य २६ २८. कणिष २ ९ २१ ऋष्यकेतु १
ओर्वदेहिक २ . कण्टकारी २ ४ ९३ ऋभ्यगन्धा २ ४ ११०
बोलूक्य २ ७ ६ कण्टकाशन २ ९ ७५ " २ ४ १३७
कण्टफलक २ ४ ६१ अष्यगन्धिका २ ४ ११०
८ कण्ठीरव २ ५ १
कण्डु २ ६ ५३ ७८ एककुण्डका ३ २०५ ककुन्दर
कण्डूरा २ ४ ८६
कण्डोलवीणा २ १० ३१ एकतर
कथ्य २ ६ ७९ कण्डोली २ १० ३१ १६ एक दृष्टि २ ५ २०
२ ५ २२ २६ कदन २८११५ एकपाद १ १ १५
२ ६ ११० कदल
२ ९ २० कदला २ ४ ११३
कचपक्ष २ ६ ९८ कदलिन् २ ५ एडोक
कचपाश एवार २४ ११५
कचहस्त २ ६ ९८ कनक २ ९ ९६ एकगज
३ ३ २९ कनीनिका
कच्छप ११० २० कनीयस् २६ एपिका
२९, १ १ ७१
कजलध्वज २ ६ १३८ | कन्दलिन् २ ऐकाय ११ ८०५३ कञ्चुकिन् २ ८ ८ | कन्दू ऐडविड
२ ६ ९० कपिकच्छू २ ४ ८७ पैविक १ १ ६९ | २३ कटक ३ ३ १७ / कपिञ्चक २ ५ ३५
कर
काणी
कम्ग
।
कट
Page #716
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्कराटु
२
कबर
कपित्य] क्षेपक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका (१९) [कार्तिकी का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो.
का. व. श्लो. कपित्थ २ ४ २१ कर्कटक २ ४ १६३ कवाट कपिल २१० २२ कर्कटि २ ४ १५५ कविस्थ २ ४ २१ कपिला
कर्कन्धु २ ४ ३६ : कविय २८ ४८
२ ५ १९. कवी . २ ८ ४८ कपिशायन २ १० ४० कर्णजलौका २ ५ १३ कशारका २ ६ कपिशीर्ष ३ ३ २२५ कपर
कश्मल ३ १ ५५ कपूय
३ ३ १९२ . काक . २ ५ ४३ कपोणि २ ६ ८० कराल २ ४ २९
काकचित्रा २ ४ ९८ कफणि २ ६ ८० | कोसी २ ४ ११६ काकचिनि २ ४ ९८ कवरी २ ४ १३९ कर
काकजला २ ४ ११८ कमन्ध ११०
कालि १७ २ १ कमलोद्भव १ १
| काकस्थाली २ ४ ५४ कमलिनी ११० ३९ कबूरक
। ९३ काकुद ३ ५ २३ कम्बलिवासक २ ८ ५२ कर्मण्यभुज ३ १ १९ | काचमाची २ ४ १५१ कम्बो
२० कर्ममोटी १ १ ३७ काचर कम्मारी
कर्मवृत्त १ २ ३ কারিক ३९कर्मसाक्षिन् १ ३ ३०
काण्डस्पृष्ट करटक १. २० कीर
१३३ कर्वरी २ ९ ४० काद्रव करडक ११० २० कर २ ९ ९४ कापय २ ४ १६५ करपाल
फलपोत २ ९ ९५ १९ कापिल २ ७ करपालिका २ ८ ९१
२ ९ ९६ कापोत करपीरन २ ७ ५६
२ ४ ९३ कामगामिन् २ ८ ७६ २ ८ ५
२ ९ ७४ कामदान ३ २ ३ करहाट २ ४ ५२ कलस
७ कामात २ ४ ३३ करिगर्जित २८ १०७ कलिकारक
काम्पिस्य २ ४ १४६ करिपिप्पली २ ४ ९७ कल्प
कायस्था २ ४ ५८ करोटी कल्य
कारित ३१ ८९ ११० २० कस्यपाल
कारोत्तम २१० ४२ ११. २१/ कल्याण
४३+कार्तिक १ ४ १३ कर्कट ११० २१ । कवरी ११ ९७ | ४३+ कार्तिकी १ ४ १५
कादम
९५
Page #717
--------------------------------------------------------------------------
________________
कार्मरी ] ( १२० ) क्षेपक-टीका स्थशब्दानुक्रमणिका
का. व. श्रो.
का. व. श्लो. ! शब्दाः किञ्जल्क
४ ३६
३ ३ १७
६ किम्पच
३
१. ४८
२
२
२
४ १४३
शब्दाः
कार्मरी २
कार्षक
२
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२
कालख
२
३७ कालज्ञ
२
३ ३३
कालमेशिका २ ४ ९०
कालमेशी
काला
९
८ ११६ | किर
६ ६६
२
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१
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३६
२
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२
९
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कालायीन कालिका २ ९ ३७
कालेयक २ ४ १०१
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काल्य
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२
१
२
१
२
२
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१ १ १३
काष्ठाम्बुवाहिनी १ १० ११
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६ १२६
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२ ४ १६२
२ ५ १६
किकि किकिदिव २ ५ १६ किकिदिवि २ ५ १६ किकीदिव २ ५ १६
किकीदिवो २ .५ १६ किकीदीवि २ ५ १६
किङ्किणी २ ६ ११० किञ्चिलिक १ १० २२
किञ्चुलुक
१ १० २२
किरात
किलाटी
किल्मिष
कोकट
कीनाश
कोर्ण
कीशपर्णी
कुक
कुकुद
कुविका
कक्षी
कुटप
कुट
कटि
ट्टिम
कुटमल
कुडप
कुतप
५९.
२३ कुन्द
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कुपथ
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कुरण्डक
19
कुरुबक
"
कुरुवक
७८ कुल
कुलिक
कुलिर
कुव
कुवर
कुवल
२ ૪ २१
२. १ १६ | कुषीदक
२ १०
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१
३
१ १०
कुम्मज
कुम्भिक
कुम्मिन्
१ कुम्भिनी
२
१
कुल्माषाभिषुत २
कुल्मास
२
कुल्य
कुल्या
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99
कुशाल्मलि
कुशोद
कुशीदक
कुशीद
कुष्माण्डक
कुसीद
कुस्तुम्बुरी
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कुहु
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कूटक ]
शब्दाः
कूटक
कुणी
कूपक
कृतहस्त
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का. व. इलो. | शब्दाः
९ १३ केशर
૪
कृष्णभेदा
कृष्णसार
क्षेपक- टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
२
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कूलङ्कषा
३०
कृकलाश २ ५ १२
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२ ६ ७५
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कृकुलास २ ५ १२
कृतकर्मन् ३ १
कृतकृत्य
३
१
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२ १०
कृत सापलका २ ६
३ १
३ १
३ ३
३९ कृपीट कृमिकोशोत्थ २ ६ १११ कृमिकोषोत्थ २ ६ १११
कृमिघ्नी
२
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कृशर
२ ९ ४९
कोटीश
कृषिक
२
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कोट्टवी
कृषिका
२
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कृष्णकर्मन्
३. १ ४६
कोयष्टि
· कृष्णका
ર ९ १९ कोरक
कोला
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केशवेष
केशहस्त
४
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४ कैन्दर्य
२२ | कैदार
७ कैरात
२
२
४कैवर्त मुस्तक ४कैवतमुस्तक २
३९ | कोक
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कृष्णा
२
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कृष्णामिष २
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कृष्णायस
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कसर
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का. व. इलो. ! शब्दाः
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का. व. इलो.
१ १ ४०
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१२ कौशिक
कौचदारण
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२२- कौषिक २
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२
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२
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६९ क्रिया
क्रुश्च
क्रुधा
क्रूर
क्रेतृ
क्रोधिन्
किन्नाक्ष
कोमन्
कङ्गु
क्षतव्रत
२० क्षार
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कौश्कुट
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९ + क्षीराब्धि
२
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क्षिपा
क्षिष्णु
१० क्षीरसागर
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For more
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क्षुण्ण ] (२२) पक-टीकास्थाम्दानुक्रमणिका
[गुस्सक शब्दाः का. व. को. शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. ९ क्षुण्ण ३ १ ११० खानि २ ३ ७ गन्धर्व २५ ११ क्षुधा २ ९ ५४ | खानी २ ३ ७गरा २ ४ ६९ क्षुधाभिजनन २
खार २ ९ ८८! गरागरी २ ४ ६९ क्षुब्ध
खुल्लक
१६ १७ गरिमा ११
२८ खेटक ३ १७ गर्भवती २६ क्षुरमर्दिन् २
खेला
३२ गोपघातिनी २ ९ क्षुरिका २
खोर २ ४३ गर्मुद ३ ३ २० क्षुरित ३ १
६ ४९ गलती २ ९
गलोदेश २ ८ ४८ क्षेपणि ११. १३ गगनमणि १ १ ३०
गबेडु २ ९ २५
। गवेषणा ३ २ ३०
गजबन्धनी क्षोणी
न १ गहरी २ १ ३
गजमक्षा क्षौणी २ १ १२
। २२ गाय १७ ३५ १४ गजारि ११ २ १ १२
गायत्रिन् २ ४ ४९ गजाशन क्षोम २ १ १२
गार्गक १ २ ३९ गजा माभुज
गिन्दुक २ ६ १३८ गडु
गिरा १६ । गण २ ४ १२८ ७६ गिरि ३ खक्खट
३ १९२ २० खचित
गिरिज १ ११२ ३ ३१ गणिका १३ १७
२ ९ १०० खजक २ ९ गणिकापति
१९ गिरिजा १ १ ३७ ७४
३ ३ २३
गिरिसार ३३, ३ ३ १७ ४१ गण्ड १३ ४३ खदिर २
गीर्वाण ४ ४१
११ ९ गण्डकाली २ ४ १४१ ४० खयोत १३ गण्डूक २६ १३८
गोम्पति १ ३ २४ १० खनक २ ५ ११ ९१ गण्डूष ३ ३ २२५ गुच्छ खरागरी २ ४ ६९ 1 ४३ गति खर्जुर २ ९ ९६ १३ गद १ १ २८ खर्व २ ४६ गन्त्रीक २८ ५२ २३ खर्व १ | ५३ गत १३ १०४ गुण्डित
गन्धक २ ९ १०२ गुत्स खलेदार २ ९ १५ ११ गन्धमुषी २ ५ ५ " २ १ २१ खादन २ ४ ५६ । गन्धमून २ ४ १५४ गुत्सक २४ १६
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गुडुची
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रथित
ग्रहणी
गुत्साई]
पक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका (१२३) [चर्पट হ : का. व. को. शब्दाः का. व. को. | शब्दाः का. व. श्लो. गुत्साई
गोरत २ १ १८ बोट २८ ४३ गुत्स्य २ ६१०५/ गोलिह २ ४ ३९/ घोणा २८ ४९ गुत्स्था २६ १०५ गोष्ठश्व
८८ घोष ३ ३ २२५ गुथित ३ १ ८६ गोस २ ९ ५१ ६१ गुम्फ ३ ३ १३२ गोस्तना २ ४ १०७
चकवाड गुम्फित ३१ ८६ गौधुमीन २ ९
चक्रिक २ ८ ९७ गुरण गौर २ ९ १०३
चक्षण २१० ४० २० गौरव २ ७ ३३
४ चक्षुष्य ३ १ ११० गुवाक
चटका २ ५ २१ अन्य ३ ३ ८७
४७ चटु १ ३ १६ गृन्न ३ १ २२ । ग्रस्त १ ६ २०
चण्डांशु गृष्टि
चण्डा गृहगोलिका २ ५ १२ ग्रहणीरुज् २ ६ ५५ चण्डालिका ३ १. ३१ गृहमणि २ ६ १३८ ग्रामाधीन २ १० १ २० चण्डिल २ १० १० ८ गृहेनदिन् १ १ ११० ग्रामीण ३ १ ११२ चतुःशाला २ २ ६ १२ गृह ३ १ ११० १३ ग्रामेयक ३ १ ११२ चतुरन्दा २ ९ ६८ गेण्डुक २ ६ १३८ ग्राम्य ३ १ ११२ १९ चतुर्थ ३ १ ११२ ८ गेहेशर ३ १ ११० ग्रेव
६१०४ चन्दना २ ४ ११२ ग्रेवेयक २ ६ १०४ चन्द्रमागी ११० ३४
चन्द्रवाला २ ४ १२५ ३ गोकर्ण १
घटना २८ १०७ | ५ चन्द्रशाला २ २ ८ गोद २६ ६५ ३९ घटा
चन्द्रिका गोदुर
५७ घटिक २ ८ ९७ चपेट २ ६ ८४ गोनास घण्टा
चपेटिका गोप घुण्टा
चमर गोपकण्ट २ ४ ३७ १२धूक
१२ धूक २ ४ २५ चरणप
२२ घृताची १ १ ५१ / चरण्टी गोमत
घृतोद ११० चरिण्टी २ ६ १ गोमुख
घृष्टि
| ७७ चर ३ ३ १९२ गोरण २ ११३८,
२० चर्चिका १ १ ३७ गोरस २१ ५१ वृष्णि १३ १३ चपेट २६ ८४
or
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गोपा
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--------------------------------------------------------------------------
________________
चर्मप्रसेवक]
(१२४)
क्षेपक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
[जलजन्तुका
our rurr .
| जटि
६ चूत चूषा
जडा
शम्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. शम्दाः का. व. श्लो. चर्मप्रसेवक २ १० ३३ चिराव ३ ४ १ छगलागी २ ४ १३७ २० चर्ममुण्डा १ १ ३७ चिरविल्व २ ४ ४७ छगलानी २ ४ १३७ चर्वण २१० ४० चिरका २ ५ २८ । छगलाण्डी २ ४ १३७ चर्षणी
१० चिरे ३ ४ १ ३२ छायानाथ १ ३ ३८ चषक २ ९ ३२ चिरेण
१. ११ छुछुन्दरी २ ५ ११ ४७चाद्ध
चिलचिमि ११० १८ चाणक ३ २ ४० चिलिका २ ५ २८ ३९ जगचक्षुस् १ ३ ३० चाणकीन
चिलका २ ५ २८ जगत् १ १ ६२ चाण्डाल
चीर २ ६ ११५ २ जगती चान्द्रभागा ११० ३४
चुचुक चान्द्रमागी ११०
चुली २ ९ २९ ९२ चाप ३ ५ २३
१ १ २६ जटी चामरा २ ८ ३१
૨ ૮ ૪૨ १६ चामुण्डा १ १ ३५ चूल्या ૨ ૮ ૪ર २० , १ १ ३७ चेडक २ १० १७ जतिल चार्वण ३ २ ४२
२. ६ ११५ जतुका २ ४ १५३ १९ चार्वाक २ ७ ६
जतूका २ ५ २६ चालन २ ९ २६ ४३+चैत्र १ ४ १३ ५८ जन ३ ३ १२८ चास २ ५ १६ ४३+चैत्री १ ४ १६ जननि
६ २९ चित्तसमुन्नति १ ७ २२ चोदनो २ ४ ९२ जननी
४ १५३ ७५ चित्तोद्रेक १ ५ ५२ ४६ चोच १६ १६ ८ चित्रकाय २ ५ १ चोर । चित्रकूट २ ३ ३
जनित्री चिनपिष्ट २ ९१०५ चोरका
जन्म चिपिट चोरित
जपन
२ १२ १३चिरीविन्२ ५ २० १४,
जमन चिरण्टी २ ६ ९ चोली
जम्बुक चिरतिक्त २ ४. १४३
जम्मर चिरम् ३ ४ १ छा २ ९ ७६ जम्मीर २ ४ ७९ चिरातिक्त २४ १४३ . छगल २ ९ ७६ / जलकुक्कुट ११० २० चिरात्तिक्त २ ४ १४६ छगला २ ४ १३७ | जलजन्तुका ११० २२
| जनि
चोरट
६
२९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
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शब्दाः
जलङ्गम
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जलवेतस् २ ४ ३० ११ जलशायिन् १ १ २१ जलशुक्ति १ १० जळहस्तिन् १ १०
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जातिकोश जातीकोष २
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३३ जातुष
७२ जारय
जानपद २८ जालिक
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२
क्षेपक- टीकास्थशब्दानुक्रमणिका । ( १२५ )
शब्दाः का. व. श्री. | शब्दाः जीवितकाल २ ८ १२०
टिटिमक
८५ जीवितेश ३
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१६ जैमनीय २
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ज्ञानेन्द्रिय ४३ + ज्यैष्ठ
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२
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५
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तटाग
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३ ३ १७ तरणी
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१०
१०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
तुन्न
तकुंक] (१२५) पक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका [खरितोदित
शब्दाः का. व. लो. शब्दाः का. व. को. | शब्दा: का. व. श्लो. तर्कुक ३ १ ४९ तुण्डिकेशी २ ४ १३९ / तृतीयप्रकृति २ ६ ३९ २ ४ १६८ तुण्डित ३ ६ ४४ तृफला २ ९ १११
२१ तुण्डिन् १ १ ४० तृषा २ ९ ५५ तलमीन ११० १८
तृष्णक ३ १ २२ सलुनी २ ६ ८ तुण्डिभ २ ६ ४४ तृष्णा तसर
२ २४ तुण्डिल २ ६ ४४ ३८तेजसाराशि १ ३ ३० ताडपत्र २ ६ १०३ तुत्थरसाजन १ ९ १०१ तेन ३ ३ ४३ तापन १ ३ ३१ तुन्तुम २ १ १७ ३१ तैल २ ९ ४९ तापिन्छ २ ४ ६८ तुन्दपरिमार्ज २ १० १८
तोकक . २ ५ १७ तापित
तुन्दिक २ ६ ४४ प्रप्स २ ९ ५१ तामिस्र तुन्दित
३९ त्रयीतनु१. १ ३. तात्र २ ९ ९७ तुन्दिम
त्रयीधर्म १ ६ ३ ५१ तार १ ७ २ तुन्दिल
সন্ত ३ १ २६ २ ९ ९६
२ ९ १०१
प्रसा २ ४ १०८ तारा २ ६ ८४
तुम २ ९ ७६
३३ त्रायुष २ ३ ३८ १२ तारापय १ २ १ ८२ तुमुल ३ ३ २०५
त्रिपिष्टप साल २ ६ ८४ तुम्ब
२ ४ १०८ तालवृन्त २ ६ १४०
त्रिशोत्य तित्तिर. २ ५ ३५
२ ९ ९ तुम्बि तिन्तिली २ ४ ४३ १९ तुरीय ११
३१ तिसर २ ९ ४९ तिन्दुकी २ ४ ३८ १९ तुर्य ३१
२१ त्रिसरा २ ९ ४९ तिमिलिगिल ११० २०
त्रुटी २ ४ १२५ तुलाकोटी २६ तिरस्करिणी २ ६ १२०
३ १ ३२ तिरस्कारिणी २ ६ १२० तुली २ ४
त्र्यम्दा २ ९ ६८ २२ तिलोत्तमा १ १ ५१ तूणी २ ४ ९५
| ज्युषण २ ९ १११ १ तिलौदन २ ९ ४९ ८१ तलि
त्वपत्री
२ ९ ४० तुकाक्षीरी २ ९ १०९ तली २ ४ त्वच २ ४ १३४ तुकाशुभा २ ९ तवर १ ५ ९ स्वच तुणि २ ४ १२८ , ३ ३ १६५ स्वचा २ ६ ६२ तुवरिका
त्वरि २ २ २६ तुण्डकेरी २ ४ १३७ ) तणशूल्य २ ४ ६९ स्वरितोदित १६ २०
त्रिपुटी
..............mam
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दंष्ट्रा ]
शब्दाः
दंष्ट्रा
दक
९० दक्ष दक्षिणेय
दग्धकाक
दण्डुभ
दद्रुहर
दद्रुघ्न
दद्रूग
दध्यूद
'६ दन्तक
दन्तिजा
दमूनस्
दरित
दरोदर
दण
दरोगिन्
दर्दूण
५२ दर्प
दविका
दवीं.
६४,
८० दल
२५ दव
दशपुर
दशपूर
दशेन्यन
का. व. लो.
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२ ६
१ १०
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क्षेपक टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
का. व. श्रो.
२ * ६४
३
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३
१
२ ५
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२
४ १४७
२
४ १४७
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२
१
३
शब्दाः
दाडिम्ब
९० | दात्यौह
४ २९ दाधिक
दायित
३१ दारक
दारा
दारु
९३.
२
२
२
१
२
२
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दालिम
१
३
६ | दिधिषु
४ १४४ | दिविष्
१
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दिवीष
१
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९
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२१ | विक
४ ११९ | दीपवृक्ष
९
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दीप्यक
३ १३३
३ २०५
१
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२
२
३
३
२
१३ दारुक
५९ दार्विकाक्काथोद्भव२ ९१०१
दीर्घकोषिका
दीर्घग्रीव
५७ दीर्घजह
२
३
१
१
२
२
४ १३१
२
६ ११८ दीर्घसूत्रिन्
३
२ ३९
दाक्षक दुन्दुक १९ दाक्षायणी १ १ ३७ दुन्दुमि दाक्षिण्य
३ १
५ दुरालम्भा
५
९
१
२ ४
२
६
२
६
२
४० दिनमणि १
४ दिवस्पृथिवी २
१२ दिवान्ध
२
११ दिवान्धिका २
६
४
६ दुष्प्रधर्षिणी
१३
५
२३
१ २८
६
१
१
५
५
२१ दुर्गसवर
४४ दुर्नाम्नी दुर्वाच्
४०
१७ | दुलि
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१२ दिवाभीत २
१
२ ६ १३८
३३
११
१ १० २५
(१२७)
शब्दाः
४६ दुरेषणा
दुष्पुत्र
दूरदृश्
दूष्य
दूषीका
दूढमुष्टि
देवखात
२७ देशिक
१४
११ | देशीय
३
२
देवखातविल २
२३
देवताल
२
३० | देवाजीविन् २१०
१८ देश
२ १०
३
१
२ १०
५
१४ | दोली
१ ७ ९० दोष
३६ दोषक
दोषा
९० १
२ ९ ७५ दोषातिलक
[ द्रप्स्य
का. व. लो.
१ ६ १६
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२५
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२
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७५ | दौत्य
२
११ दीर्घतुण्डी २
५
११ | दौवारिक
२
२७ दीर्घनिद्रा २
८ ११६ | ३ द्यावापृथिवी २
३
१ १७
३ यावाभूमी
२
२
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३ ३ २२५
२
६ ११८
८ १६
८
१
१.८
१
१८
३
१
३ ३ १२८
२
९
५१
Page #725
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रुधन ] (१२८)
पक-टीकास्थशम्दानुक्रमणिका
[नवमल्लिका
धौर्य
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८११०
का. व. श्लो. शब्दा: का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. द्रुघन
८ ९१ । धनू २ ८ ८३ धूस्तूर २ ४ ७७ ११ धन्य
धृष्णु
३ १ १२५ द्रोण
धन्या
२ ९ ३८ धेनुक ३ ३ १५ द्रोणि धन्याक
घोरित २ ८ ४८ द्वाःस्थ धन्व
थोरितक २ ८ ४८ द्वाास्थित २ ८ ६ धमनी
धौतकौशेय २ ६ ११२ द्वादशाङ्गुल २ ६ ८४
धरणी ९४ द्वार ३ ५ २३ धरणीसुत
६६ ध्याम ३ ३ १४५ दास्थितदर्शक २ ८ ६ धर्मन्
ध्वज २ १० १० द्वास्थोपस्थित
| धर्षणी २६ १० ध्वनित १ ३ ८ दर्शक २ ८ ६ धाटि
९५ ध्वान्त ३ ५ २३ द्विगुणाकृत २ ९ ९
धाटी
८११० ছিল २ ७ ४ धातकी
२ ४ १२४
नखो २ चातुपुष्पिका २ ४ १२४
४ १३०. ५३+ द्विजित १ ८ ८
धातुपुष्पी ९
नमहू द्वितीयाकृत २ ९
२ ४ १२४
४२
२ १० ८ धान्यक २
नडमीन ५३ दिरसन १ ८
९ ३८
१ १० १८
नडिनी . १ १० ३९ द्विवर्षा २ ९ ६८ | धान्यत्वच २१ २२ धान्याम्बल
२ ६ नतनासिक
४५
२ ९ द्विशोत्य
३८ ४१ धामनिधि १ ३ ३०
१४ नतोन्नत ३ १ ११२ द्विसीत्य
धारण २ ८ विहल्य
४८
ननन्दृ २ ६ २९ २१ द्वेष्य ७५ धारा
२१ नन्दिक १ १ ४० ३ १ ११२
३ ३ १९२ २३ द्वैपायन २ ७ ३५
२१०
२१ नन्दिकेश्वर१ १ ४० धार्मपत्तन २
नन्दिनी २ ६ २९ धावनी
नन्दीवर्त १२० २० ५६ बनिन् ३ ३ १२८ | विपाङ्ग २८
४८ नप्त ३ ३ ८५ धनीयक २ ९ ३८ ७० धिष्ण्य ३
३ नरकान्तक १ १ २१ धनेयक धुतूर
नराधिप २८ धनु
घुस्तुर . २ ४ ७७
नारायण १ १ धनुर्मध्य २ ८ ८५ धुस्तूर २ ४ ७७ धनुर्यास
२ ६ १२७ नर्तक धनुस
धूम्रक २ ९ ७५ | ५ नवमल्लिका १ १ २६ धनुष्पट
२ ८ ९८ , २ ४ ७२
x 2
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< < <
नरेश
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--------------------------------------------------------------------------
________________
| निश्रेणी
२
र
नवसूति]
क्षेपक-टीकास्थशम्दानुक्रमणिका (१२९) [ पक्ष्य शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. ब. श्लो. नवसूति २ ९ ७१ , २ ९ ८४ | २६ निशुम्मन २ ८ ११५ नसा २६ ८९ । निग्राह ३ २ ३९
२ २ १८ नस्तोत निघस
निष्कलो २ ६ २१ नस्या
८९ । १६ निचित ३ १ ११२ निष्कामित ३ १ ३९
१०५ निचुल नागज
निष्कुट २ ६ ११६
२ ४ १३ नागजिह्वा २ ९ १०८ निचोल २ ४ ६१
निष्कुटी २ ४ १२५ नागसुगन्धा २ ४ ११४ ६३ नितम्ब ३ ३ १३३
निष्ठूत ३ १ ८७ नाडिका २ १ ३४ ५६ निदान ३ ३ १२८
निशुदन २ ८ ११३ नाडिकेर २ ४ १६८ निद्रित
| ८६ निखिंश ३ ३ २१८ ननाविध ३ १ ९३ | १ निधन १ १ १३
निचिकी २ ९ ६७ नान्दीवृक्ष २ ४ १२८ निबन्धन १
नीरोग
७ नामि २ ६ १२९
निरोध १६ निभृत ३ १ ११२ १ नामिजन्मन् १ १ १७ नियमित
३० नील १ १ ७१
३ १ ९५ २ ८ १५६ नियातन
नीलसार २ नामी
४ ३८ ३ २ २७ | निरङ्कुश ३ १ १५
नीला नाम
२ ५ १३
नीलाम्बुज ११० ३७ नायक २ ६१०२ ३ ३ १७ १७ निरर्थक ३ १ ११२
१० नीलीराग ३ १ ११०
६ नीलोत्पल २ १ २१ नार निरालस २ १० १९
२ ४ नूद
४१ नारक निरीष २ ९ १३
नृत्त नारिकेर २ ४ १६८ निर्गन्धन २ ८ ११३
नेदीयस् ३ १ ६८ नारिकेल २ ४ १६८ निर्गुण्ठी २ ४ ६८ नेमि नारिकेलि २ ४ १६८ ५८ निर्झरिणी १ १. ३० नेमिन् २ ४ नारी केली २ ४ १६८ | निर्धाय ३ १ १३ | नेमी नाला २ १० ४२ निर्बण २ ८ ११२ | १८ नैयायिक २ ७ ६ नाली
निर्मर्याद ३ १ २३ | १८ न्यनित ३ १ ११२ २ १० ४२ । नियन्त्रण ३ १ १५ न्युज २ ६ ४८ ८६ नाश ३ ३ २१८
निवन्ध २ ६ ५५ | १२, ३ १ ११० नासामल २ ६ ६६ निवृत
निश् १ ४ ४ पक्ति ३ २ ८ निकाय २ २ ५ निशाकर १ ३ १५ | १२ पक्ष ३ १ ११० निकोटक
१२ निशाटन २ ५ १४ पक्षती निक्षेप २ ९ ८१ निशात ३ १ ९१ ॥ निखर्व २६ ४६ | निशारण २ ८११२ । पक्ष्य ३ १ ११०
२५॥
निःकृत
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्की ]
शब्दाः
पङ्की
पङ्गु
पचम्पचा
पञ्ज
पञ्चव
८ पश्चनरु
पणस
पणती
पतद्गृह
पत्रल
पत्त्र
पथ
पद
पदवि
( १३०) क्षेपक टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
का. व. इलो.
का. व. इलो.
२
४
४
१
३ ७
१
३ २
२
६
२७
99
२
४ १०१ | पयोमुच्
१
३
७
२ १० १
परः सहस्र
३ १
६४
२
८ ११६
परस्परपराइत १ ६ १९
२ ८
९२
१८
२
૮૪
७९ पर्शु
पर्श्वष
पदात
पद्धती
५ १
३ १ २३
पट
पटकुटी
पटकुख्य
पटगृह
पटवासस् २
पट्ट
पट्टन
पट्टी
२९ पद्म
पद्मवर्ण
O'
पञ्चभद्र
पालिका २ १०
२
૪
२
६ १२०
३
६ १२०
२ ६ १२०
६ १२०
३ १ ३५
२ २ १
२ ४ ४१
२ ४ ६
२
१९
पण्यवीथी २ २
२
पण्यखी
२ ६ १९
२ ८ ७९
२
९ ५१
परिष्कन्द
४ १३४ | परिष्कन्न
१ १५
परिष्कृत
६ ७१
परिसार
१ १५
परिसृता
८
६६
परिस्कन्न
१
५
परिस्कार
१
१ ७१
२
४ १४५
१ ३ ३०
२
२
२
२
२
२
ܐ
३८ पद्माक्ष
४१+ पद्मिनीपति १ ३
पद्म २ १०
शब्दाः
पयोधर
१९
२५ | परार्द्ध
३०
परस्वध
पराजित
१
परायण
परिग्रह
परिपाटी
परिभूत
परिमाण
परिमेद
परिवत्सर
परिवर्त
परिवाद
परिवाह
परिवेश
परिवेष्टित
परिव्राजक
परिस्पन्द
परिहास
परीत
परीरम्भ
२
२ १०
३ २
२
९
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.
७
३६
८ ११२ |पर्षद
९
८५
५०
४ २०
२
२
२ ૪
१
२ ६ १००
३ २ २१
३९
~
२ १०
२ १०
२
२ ९ ८०
१
६
१३ पशुप्रेरण
१ १०
१०
पष्ठवाह
१ ३ ३२
३ १
--
२ ७ ४१
२ १० १८
२ १० १८
२
१
शब्दाः
परेत
परेष्टि
परीयुत
परोलक्ष
परोष्ठी
पर्णशाल
२६ पर्यक
पर्व
पर्व सन्धि
६ १०१
६ १३७
७ ३२
८८
पलाश
पलिष
२ पल्लवक
२ पल्लविक
पस्स्य
पांशु
२५ पाक
97
पाटकी
पाणिग्रहण
१८ पाथःपति
पाटला
पाटलि
[ पादातिग
का. व. श्लो.
१ ९
२
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१
३
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२
२
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२
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पादकृत
पादत्राण
१४ पादलक्ष्मीक२
पादात
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--------------------------------------------------------------------------
________________
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पादाविक क्षेपक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका (१३) [प्रकटौदित शब्दाः का. व. श्लो. शम्माः का. य. श्लो. : शब्दाः भा. व. इको. पादाविक २ ८ ६६ / १५ पिञ्जष २ ६ ६६ । १६ पूर्ण ३ १ ११२ पादुकाकृत २
पिटक २ ९ २६ / १ पूर्व पानगोष्ठी
पिटिका २ ६ ५३ " पानवणिज पिण्ड २ ९ २६
पूर्वा ३ १ १३४ 'पापडि
४० पिण्डी ३ ३ ४३ पृक्का २ ४ १३३
८ पिण्डीशूर ३ १ ११० पृथगास्मता २ ७ पामर
३८ पारत पिण्डोल
पृथप पारापत
पृथवी पिप्पलि २ पारावताघी २ ४ १५०
पियाल २ ४ ३५ पृश्नि
पिष्ट २३ पाराशर्य २ ७ ३५
२ ९ १०४ पृषन्ति पाराशव पिष्टप
पृषातक
२ ७ २४ पारिपन्यिक २१० २५ । पीतक २ ९ १०३ पृष्ठास्थि पारिमद्र २ ४ ५३ पीतदुग्धा
पृष्णि पारिमान्य २ ४ १२६ . पीतशालक
२७ पेटक ३ १७ पारियात्रिक २ ३ ३ पीति
पेडा 'पारी २ ९ १२ पुकस २१० २० पाश्चमाग २ ४ ४० पुण्ड २ ४ १२७ पास्थि
पुण्डरीक २ ५ १ पेशी पालिन्धी २ ४ १०८
पुत्री २ ६ ८ पेशीकोश २ ५ पाली २ ८ ९३/ पुनर्नव २ ६ ८३ . पेशीकोष २ ५
३ ३ १९८ १० पुध्वज २ ५ ११ | पैत्र (तीर्थ) २ ७ पाशक २ १० ४५ पुरन्धि २ ६ ६ पैश्य (तीर्थ) २ ७ ५१ पाशयन्त्र २१० २६ पुरह ३ २ ६३ पोगण्ड २ ६ ४६ पापण्ड २ ७ ४५ ३ पुराणपुरुष १ १ २१ | ३८ पोटा ३ ३ ३९ ७ पिकवल्लम २ ४ ३३
५६ पोत ११० १३ पिचण्डिल २ ६ ४४
पुष्पदन्त
४ १०
पौण्ड्र २ ४ १६३ पिचिण्ड २ ६
पुष्परथ ७७
| पौतव २ ९ ८५ पिचिण्डिल २ ६ ४४ पुष्पवन्त
| पौत्तिक २ ९ १०७ पिचुतुल २ ९ १०६ पुष्पाञ्जन
४३ पौष १ ४ १३ पिचुमर्द २ ४ ६२ पुष्पिता
४२ पौषी १ ४ ४३ पिचुल २ ९ १०६ | पूतीकरज २ ४ ४८ | पौष्पक २ ९ १०३ पिच्छिला २ ४ ६२ | पूतीकरज २ ४ ४८ | २२ प्रकट ३ २ ११२ पिञ्ज २ ५ ४२ । १६ पूरित ३ १ ११२ | ४९ प्रकटोदित १.६ २०
पेयूष
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--------------------------------------------------------------------------
________________
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प्रेष्य
प्रकम्पन ] (१३२) पक-टीकास्थशम्दानुक्रमणिका
[फाल्गुनी शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. । शब्दाः का. ब. श्लो. २६ प्रकम्पन १ १ ६२ | प्रपुनाल २ ४ १४७ | ३५ प्राचीन १ ३ १ २२ प्रकाश ३ १ ११२
प्रपुन्नड २ ४ १४७ प्राचीर २ २ ३ प्रक्ष्वेदन २ ८ ८७ प्रपुत्राल २ ४ १४७ २१ प्राचेतस २ ७ ३५ ९ प्रग्रह २ ८ ८७ प्रफुल्ल
प्राण १ १ ६२ प्रचचित ३ १ ११२ २७ प्रमय २८ ११६ प्रातिहारक २ १० ११ प्रजविन् २ ८ ४५ प्रमाण
प्रातिहारिक २ १० ११ प्रमातामह २ ६ ३३ ८३ प्राध्व ३ ३ २१३ प्रमीलन २ ८ ११६ ।।
८ प्राप्ति १ १ ३५१ ४ प्रणाय्य ३ १ ११०
प्रमृत २ ९ २ | प्रावधिक २८५४ ४४ प्रणिधान १ ५ १ प्रमेह २ ६ ५६ प्रावर ६ १२ १७ प्रतति २ ४ ९ प्रयुत
प्राश २ ८ ९३
प्राशक २१० ४५ प्रतिकर्मन् २ ६ १२१
प्रयुखार्थ ३ २ २६
४ प्रियदर्शन ३ १ ११० प्रतिग्रह २ ६ १३९ प्ररोह २ ४ ४ प्रतिदान २ ९ ८० | प्रबयण
३ २ ९ १२
३ २२०
३१० १७ प्रतिध्वनि १ ६ २६ | प्रवल्हिका १६
प्रेयङ्गवीण २ २१० २५
९ ८ प्रतिरोधक | प्रवाही १ ६ ६
प्रोत १ ६ १२५ प्रतिश्या २ ६ ५१ २७ प्रविष्ट ३ १ ११२
प्रोथ १७ प्रतिश्रित ३ १ ११२ प्रविख्याति ३ २ २८ प्रोष प्रतिश्रुत ३ १ १०८ प्रविषात २ ८ ११४ प्रतिहार २ २ १६ प्रवेणि २ ६ ९८
प्रौष्ठपदा
प्लवङ्गम ३५ प्रतीचीन १ ३ १ प्रश्नदूती १
प्लीहा २ २ ६ ६६ प्रतीप ३ १
प्रसर ३ २ २१ प्रतीष्ट ३ १
प्रसरणि प्रतीहास २ ४ ७६
प्रसरणी प्रत्यक्पुष्पी २ ४ ८९ प्रसवबन्धन
५४ फणधर १ ८ ८ प्रत्यवसान २ ९ ५६ प्रसुत २ ६ ८५
२ ४ १५ प्रत्युत्क्रान्ति ३ २ २६ प्रदिश १ ३ ५ १८ प्राकाम्य १ १ ३५ प्रदेशनी २ ६ ८१ २० प्राघुणक २ ७ ३३ ४० प्रचोतन १ ३ ३० २० प्रापूर्णक २ ७ ३३ फजिका २४ ८९ ५० प्रपात ३ ३ ८५ प्राङ्गण २ २ १३ | ४३ फागुन १ ४ १३ प्रपुनार २ ४ १४७ । प्राशन २ २ १३ | ४३ फाल्गुनी १ ४ ११
२
६
प्रोह
प्सा
फटा
Page #730
--------------------------------------------------------------------------
________________
फेरण्ड ]
शब्दाः
फेरण्ड
फेली
बधू
बन्धनालय
बन्दी
बन्धुक
बन्धुर
७६,
बरीवर्द
बणा
बर्बरा
९४ ह
बहि
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बलिमुख बलिर
१
शुष्मन् १३ बलात ३
१२ बलाहक
बलिवाचक
बलिश बली मुख
बष्कयणी
बसिर
बस्त्य
बहलिक
बहुपाबू
बहुरूप बहुलीकृत
बहक
लोक
बागुची
बादर
५७ बाधना
का. व. इको.
२ ५ ५
२
९ ५६
२
४ १३३
२ ८ ११९
२ ९ ७३
२
४ ७३
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२ ५ २६
२
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३
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२ ५ ३ बुद्धिमती
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३
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शब्दाः
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बाल
बाल गर्मिणी
बालपत्त्र
बालपाश्या
बाल्मीक
बाल्हिक
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६४ विम्ब
बिल
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का. व. श्लो. । शब्दाः
३ ३ १०४
२
६ ९६
२ ९ ७०
२ ४ ४९
२
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२
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३
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बिन्दुजालक बिभीतकाक्ष २ ४
३
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२
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(१३३)
४७ मक्ति
मक्षण
मक्षङ्कार
मक्ष्यकार
४१ भग
मङ्ग
भङ्गीन
मङ्गुर
मक्थ
मण्डिन्
भण्डर
मण्डील
भद्र
मद्रा
भन्द
भम्मा
भर्ग्य
२४ मसित
२४ भस्मन्
भस्मगन्धा भस्मगर्भा
१
१ ११०
७ ६
१ ११० | मिण्डिपाक
१ ३५ भिदिर
१० भार्गवी
भाव
४५ भावना
[ मिदिर
का. व. श्लो.
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३
३ ब्रह्मण्य . १६ ब्रह्मवादिन् २
३ ब्राह्मणहित ३
१५ ब्राह्मी
१
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२
२
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२
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४३ + भाद्रपद १ ४३ + भाद्रपदी १
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२
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२० | भारतवर्ष
४१ | मारिन्
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(१६४)
पक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
[मस्तिक
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145FGAR 119F1j9Y ३ ३ ३ 113
का. व. लो. | शम्दाः का. द. शो.! शब्दाः का. व. श्लो. मिया भ्रातृब्ध
मधुल ૨ ૪ ૨૭ ६६ मीम भ्रामर
मधूल मोरू भोलु २ ६ ३
२९ मकर २ १ ७१ मधवष्ठील
मकुट २ ६ १०२ भीलू
मनोजव ३ १ २ भुजङ्ग
२ ६ १४० ३ १ २३ मकुर
मनोजवस् ३ १ २१० ३७ मकुष्टक
मनोहर ३ १ ५२ २ भूतधात्री . १ ३ मकुष्ठ २ ९ १६ : ४९ मनोहारिन१ ६ २० भूतनाशन २ ९ १८
मकुष्ठक भूतवास
मकूष्टक २४ भूति १ १ ५७ मक्षीका २ ५ २६
मन्दर भूत्तम २ ९ ९५ मङ्कर
५१ मन्द्र भूपति मज्जा
मपष्ट भूपाल २ ८ १ मारी २ ४ १३ मपष्ठक भूभृत मजील
मपुष्ट भूमिजम्बू २ ४ ३८ २३ मजुघोषा ११ ५१
मपुष्ठक मयष्ठक
२ ९ ७ भूमिसुत १ ३ २५ ४८+मणित १ ६ २०
मथुर भूमी मणी
मयुष्ठक भूर् मण्डक
मरिच भूषण २ ६ १०१ मण्डन
मरुवक भूषा २ ६१०१ मण्डल
८५ २० भूषित ३ १११२
२२ मलपू भूसुर मत्तकासिनी
मलय मद भूकुंश भृकुटि भूगुजा मदिष्टा
मल्लिकाख्य २ ५ २४ भृङ्गरज २ ४ १५१ मद्गुरी
मषि २ ४ २३४ भूगरनस् २ ४ १५१ मद्र
मपी २ ४ १३४ २१ महिन् १ १ ४० . मथु
मसि
२ ४ १३४ १६ भूत ३ १ ११२ मधुक २ ४ २७
मसी भेरि १७ ६
मसुर २ ९ १७ ५४ भोगधर १८८९ मधुदूत २ ४ ३३ मसुरा ६५ भ्रम ३ १ १४५ मधुपर्णी २४ ९४ मसूरा २ ९ १७
भ्रातृभगिनी २ ६ ३६ | मधुरिका २ ४ १०५ । मस्तिक २६ ६५
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nr n m m m any or na ini in so n innan rn s. n r. ovo n' r .
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मलापू मल्लिका
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Page #732
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मह]
क्षेपक-टीकास्थशम्दानुक्रमणिका
(१३५)
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मार्षक माष्य
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मूषी
। मिषि
যাঃ का. व. श्लो. शब्दाः का. व. इलो. | शब्दाः का. व. श्लो. मह ३ ३ २३१ / ९४ मानस ३ ५ २३ । मुषी २१० ३३ महला २ ६ २ ४३+मार्ग १ ४ १३ | १४ मुष्ट महाधन २ ६ ११३ ४३+मागी १ ४ १३ | मुष्टिक २ १० ८ १४ महानट १ १ ३४ मार्ताण्ड
मुस्तक २ ४ १५९ २९ महापद्म १ १ ७१
मूर्छा
मूर्ण ३२ महाविल १ २ १ मासिक
मूर्द्धावसिक्त २ ८ १ महाम्बुज २ ९ ८४
मूर्धज माहा महायश २ ७ २४ माहाकुल २
मूवी महिका १ ३ १८
मूषक माहिष २१० ३ १७ महिमा १
मूषिकाहया १५ माहेश्वरी १ १ ३५ महिर
मिशि
૨ ૪ मही २ १ ३ । मिशी
मृग
२ ६ १२९
२४ १०५ महीप २ ८ १ मिश्रेय
मृगदंश २१० २१ महीपति
८ मृगदृष्टि २ ५ १
४ १३४ महीपाल २ ८ १ मिषी
८ मृगद्विष
२ ४ १३४ महोमुज २ ८ १ मिसि
५ ८ मृगरिपु २
१
२
४ १३४ महीसुर २ ७ ४ मिसी
मृगया ३६ महीसूनु १ ३
२ ४ २५२
मृगव्या २१० २३
८ मृगाशन २ ५ १ महेरणा २ ४ १२४ : मिहर
मृणाल २ ४ १६४ महेला २ ६ २ १६ मीमांसक २ ७ ६ ९ मा
मृत्तालक २ ४ १३१ २ १ २७ ४ मकन्द १ १ २१
मृत्सा ७ माकन्द २ ४ ३३
१ १ ७१
मृदङ्ग ४३ माघ १ ४ १३ । मुकुष्ठ
२ ४३+माषी १ ४ १३
मृदुच्छद ४ ४६
१४४ मुकूलक
९३ मृधा ३ ५ २३ माणव २ ६ ४२
मृषार्थक १६ २१ माणिवन्ध २ ९ ४२ ४१ + मुण्ड ३ ३ ४३ मातुला २ ६ ३० ४१ मुण्डक ३
मेघज्योतिस् १ ३ १०
३ ४३
४ मुरमर्दन मातृमुख
१ १ २१ १२ मेघपुष्प १ १ २८ मातुष्वसेय मूलकर्मन् ३ २ ४
३२ मेघाध्वन् १ २ १ मातृष्वनीय २ ६ २५ मुषक २ ५ १२
मेण्टक २ ९ ७६ मातृशासित ३ १ ४८ मुषा २ १० ३३ मेथि २ ९ १५ माधवीलता २ ४ ७२ मुषलिन् १ १ २४
२ ९ ८५ / १४ मुषित ३ १ ११२ | २२ मेनका १ १ ५१
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मेनकात्मना ] (१३५) पक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
[ रोहित शब्दाः का. व. श्लो. । शब्दाः का. व. श्लो.
का. व. श्लो. १९मेनकात्मजा १ १ ३७
राला २ ६ १२७ मेल ३ २ २९ रक्त
३ १ ५६ मेला रक्तपुष्पक
रिङ्गण १ ७ ३६ मैत्रावरुण १ ३ २०
२ ४ ४७ २१ रिटि २१ , २ ७ ३५
रिद्ध २१मैत्रावरणि २ ७ ३५ २५ रक्षा १ १ ५७ रिरि २ ९ ९७ मैनाक
रिष्ट २ ४ ३१ मोषा २ ४ १०६
रीति २ ९ ९७ मोच २४
रीरी २ ९ ९७
३ ३ २३२ मोचनी २ ४
रुक्मकार २ १० ८ रजनि १३ मौकुलि २ ५ २०
रुण्ड
८ ११७ ३१ प्रक्षण २ रजनी
रुबु ९
२ ४ ९५ २ रजोमूर्ति
४ रुमा म्लान म्लेच्छनाति २१० २० रक्तिका २
रुशती
४ ९८
२ रलगा २ १ ३ ३ यज्ञपुरुष १ १ २१ २ रस्वती २ १ ३
रुषा रथव्रज यशसूत्र २ ७ ४९ रथाम्रपुष्प
रूपक यथाकामिन् ३
रथिन् यन्त्रित ३१ ९५
रमणा यमनिका २ ६ १२०
रूवुक ९ रमा यमानिका २ ४ १४५ २२ रम्मा
२ ४ १०८ पविष्ट २ ६ ४३ यष्टीमधुक २
३६ रवि १ ३ २ रेप ३ १ ५४ याव्य रशना २ ६ ९१
रोगिन् मिन
२ ६ ५८ रश्मि ६ ४२
२
३ रोदस् युवती
९ १०४
२ १ १८ रसगन्ध २ ९१०४ ३ रोदसी २ १ १८ यूपकटक
रसना २ ६ १०४ यूष २ ४ ४१
२ ४ १६३ ५८ रोधीवका ११० ३० येन
राजयक्ष्मन् २ ६ ५१ | रोध २ ४ ३२ १८ योग्य ३ ३ १६१
२५ राबवाघ २ ८ ३५ रोमहर्षण १ ७ ३५ योजनपणी २ ४ ९१ राजील १ ८ ५/ रोमोम १ ७ ३५ योधसराव २ ८ १०७ रात्रिचर २१० २५ | रोषण योषिता २६ २ रात्री १ ४ ४ । रोहित २ ४ ४९
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रोहिणी] क्षेपक-टीकास्थशम्दानुक्रमणिका (१३०) [वलमि
का. व. श्लो. ] शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः ___ का. व. रलो. रोहिणी ४ ८५ लुप्तवर्णपद १६ २० | वक्त रोहिण २६ लुब्धक ३ ३ १७
३ ३ २४४ लक्तक ६ ११५
वतोका ८३ लेलिहान १ ८ ८ वदन्य १०लोकजननी १ १ २७
बदरा
४ ११६ ८८, ३ ३ २२५
३९ लोकबन्धु १ ३ ३० लक्षणा ૨ ૬ ૨૬
२५वनहुताशन १ १ ५७ लक्ष्मण १ ३ १७ ४०लोकबान्धव १ ३ ३० बनायु কম্বিকা
९ लोकमातृ १ १ २७ वनी १७ लधिमा १ १ ३५ / १९लोकायतिक २ ७ ६
नीपक ४ १६५ | लोचमर्कट २ ४ १११
वन्दनी लोत
वन्दी | लोत्र २१० २५ वन्ध्य
२ ४ ७ ललामन् ३ ३ १४४ लोहमर्षण , ७ ३५
वन्ध्या २ २ ६९ लशून २ ४ १४८ लोहकार २१० ७ ९२ लागल ३ ५
लोहामिहार २ ८ ९४ लाङ्गलदण्ड २ ९ १४
वमी. लोहित २ ५ लागलपद्धति २ ९ १४
वयस्था लोहिताश्व . लागली २ ४ १६८
वरटी
वरण ५८ लान्छन ३ ३ १२८
वरला
२५ वंशक लाबुका २ ४ १५६
वरा
१०० वंशजा २ ९ १०९ लासक
वंशलोचना २ ९१०९ वराज लास्फोटनी २
वकुल
वक लिखित २
वर्तनि लिखिताक्षर ९२ वक्र ३ ५ २३
वर्ति २ ६ ११४ वभोज संस्थान २
वज्रदु २ ४ १०५ लिपिकर वज्रनिष्पेष १
वर्तमान २ २ १० लिपिकर २ ८ १५ वक २ ५
वर्ध २ ९ १०५ लिपी
वटाकर ' २१० २७ | वर्वरा २ ४ १३९ लिप्त
वटीगुण २१० २७ / वर्षा ३ ३ २२४ लिपिकर २ ८ १५ बडमी २ २ १५ / १५ वहित ३ १ ११२ लिपिहर २ ८ १५ । वणिग्भाव २ ९ ३ । बलमि २ २ १५
वन्य वम
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वलयित ]
शब्दाः
वलयित
३
वलि बलीवर्द
२
२०+ वश्मिक २
२० वल्मीक २
वल्लरी
२
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वल्लुर
वशिर
वष्कयणी
वसिर
वसूक
वस्त
वस्तक
वस्ति
(१३८)
का. व. लो. ! शब्दाः
३
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वारिपर्ण
वाट्यालक
वाण
वाणि
वाणिज्य
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वारणा १६ वाराही वारिधि
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क्षेपक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
का. व. श्लो.
१ १० ३८
वारिवास
वारुणी
वार्ता
वार्ताक
वार्ताक
बार्द्धक
वार्द्धक्य
वार्द्धि
वार्धुषिन्
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२ १० १०
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वाष्प
वाष्प
वाष्पीका
वासगृह
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वासिका
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वाह्लीक
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२२ वाल्मील २ ७ ३५
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शब्दाः
विख
विखु
विख्य
विख्यात
१.
विख
विखु
विग्रह
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२ ९. ४०
२ २ ९
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४ १५८ | विधुनन
२
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४५
२
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३०
विच्छदक
विजिपिल
विजिविल
विज्जन
विज्जल
विज्जिल
३७ विश
विज्ञानिक
२ विट
विटप
विटिका
विड
वितंस
वितद १ विदन्ध विदारीगन्धा
विदेह
विधा
३६ विधु
[ विपादिका
का. व. लो.
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२
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२ ६ ४६
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३
३ २१५ | विपदा
३५ विकाशिन् ३ १ ३० विपर्याय
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क्षेपक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
(१३९)
[शकलिन
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| वीर
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वृक
शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. । शब्दाः का. व. श्लो. १ वपुला २ १ ३ विस्राव २ ९ ४९ वणुक विप्रकृष्ट ३ १ ६८ | ३३ विहायस १ २ १ । वैदेह विप्रतिसार १ ७ २५ वीज २ ६ ६२ ६७ वैद्य ३ ३ १६१ १+ विप्लुत ३ १ २३ वीजकोश
वैमात्र २ ६ २५ विप्लुप ११० वीमकोष
| वैमेय विभु ३ १ वीणादण्ड
५ वैरागिक ३ १ ११० विमय २ १ वीतदम्भ
११०
१७ वैशेषिक २ ७ ६. ४५ विमर्श
वीथि विमलात्मक
१५ वैष्णवी १ १ ३५ १२४
ब्यक्त ३ १ ८१ विमलार्थक ३ १ वीरपाण
१०३
व्यडम्बन २ ४ ५१ विरहन् २ ७
११ ५२
व्यडम्बर २ ४ ५१ ५ विरागाह ३ ३ ११० विरिञ्चि वृक्का
व्यभिचारिणी २ ६ १२ विरोध
वृक्षारोहा २ ४ ८२ ७३ व्यवाय ३ ३ १६१ विल
वृक्षाम्ब्ल २ ९ ३५ १ व्यसनिन् ३ १ २३ १५ वृद्ध
3 विलपन
, ११०
व्याकोष २ ४ ७ विलाल वृत्ताध्ययनर्द्धि २ ७ ३८
ब्याघदल २ ४ ५० विलेशय
वृद्धकाक विलोचन
व्याघ्रपाद वृद्धसङ्घ
२ ४ ३७ विलोम ३ ५ ८४ वृश्चन
व्याघ्रपादप २ ४ ३७ विवधिक २ ९ १५ वृषम २ ४११६
व्याड विवासस ३ २ ३९ वृषोपगा
२६ व्यापादन २ ८११५ विशरण २ ८ ११ वृष्णि
व्याप्य २ ४ १२६ २६ विशमन २ ८ ११५ | वेणी २६ ९८
व्यालग्राइ १ ८ ११ विशाख २ ८ ८५
व्यावृत्त विश्राम २ ८ २३ वेतन
२३ व्यास १६ वेदान्तिन् २ ७ ६
व्युति २१० २८ विश्वक्सेन
वेधनी २ १० ३३ विश्वद्यच ३ १ ३४
९ व्युत्पन्न ३ १ ११० वेल्लि २ ४ ९ ४ विश्वरूप १ १ २१ | देश
व्रतती २२ विश्वामित्र २ ७ ३५
व्रधन विषुण ५ ४ १४
वेश्यापति ३ १ २३ बीड वेश्याजनसमाश्रय२२ २
२ ९ २१ विस
वेषवार विस्तार २ ४ १४ वेष्या २ ६ १९ ४९ विस्पष्ट १ ६ २० वैकड़त
शकलिन् ११० १७
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Mod... morn 000000000000000000'
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शकुलिन् ] (१४०)
शब्दाः
शकुलिन्
९२ शकृत
शक्त
शक्तुफली
शक
शक्कर
श
शङ्कुकर्ण
२९ शक
शङ्खनक
शठन
शनि
६१ शफ
शम
शम
शमि
शमीधान्य
शम्पाक
शम्बरी
(१४०) चेपक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
शणसूत्र
शण्ड
शण्ट
शतभीरु
२
शतयष्टिका २
१
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शम्बुक
का. व. इलो.
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शराडि
शराति
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शब्दाः शरीरास्थि
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शश
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शस्यशूक
शस्यसम्बर
का. व. इलो.
शब्दाः ६९ शार्वरी
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शाल्मली
शामली वेष्ठ
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शाष्कल
शित
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५५ शासन
शिंशपा
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शिखरिणी
शिखरी
शिखा
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२ ९ ९४ शिपविष्ट
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शिखाण्डक
शिखातर
शिङ्खाण
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शिरोमणि ] क्षेपक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका। (११) [संस्था
शब्दाः का. व. को. | शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. लो. शिरोमणि
शुम्य २१० २७ श्रीपणी शिरोऽस्थि २ ६ ६९ २९ शुल्क ३ ३ १७, श्रीपिष्ट १ ६ १२९ शिवशिष्ट ३ ३ ३४ | शुल्वा २ १० २७ ११ श्रीवत्स १ १ २८ शिवारि ૨૨ शुषिर
श्रेणी शिविका शुषिरा २ ४ १२९
श्रोणी शिविर शूकर
श्रोतस् २ १० ११ शिवी
१७शून्यवादिन् ७ ६ ४७ श्लाघा १ ६ १६ शिल | शूरण २ ४ १५७
२०शिष्टसम्पृक्त ३ १ ११२ शिला १०८
१४ श्वीपद २ ६ ५५ शिलो
९४ शृङ्ग ३ ५ शिकासार २ ९ ९८ | शृङ्गारभूषण २
श्वपाक __ २ १० २० शिलोम्छ २ १ २ | शृषि
श्वान २१० २२ शिल्पशाला २ २ ७ २१ शृङ्गिन् १ शोकर १ ३ ११ शृङ्गो २ ९ ९६ पण्ड शीतलवातक २ ४ शृणि शोत्य २ ९ शेष शीधु २ १० ४१ शेपस्
२वित २२ शोन ३ १ ११२ शेफ शिफालिका २ ४ ७० | ११ शैन्य १ १ संयोगित ३ १ ९२ शीर २ ९ १४ ७२ शैत्य
संवदन शोहुण्ड २ ४ १०५
शोणभद्र ११०
संवपन शुकबई २ ४ १३२ शोनक २ ४ ५७
संवर ३६ शुक्र १ ३ २ शोभाजन २ ४
२ ५ १० शुण्ठी २ ९ ३८
संवहन ३ २ २२ शुण्डापान २१० ४० २२ श्यान
संविहित
३ १ १०९ शुन २१० २२ श्यामक
५ संशित ३ १ ११० शुनाशीर १ १ ४१ श्याल २ ४ ४४ संसुक्षंण १ ७ २३ शुनासीर १ १ ४१ श्योनाक २ ४ ५७ | संसूक्षण १ ७ २३ शुनी २ १० २२ ४४+प्रावण १ ४ १३ संस्कारहीन २ ७ ५३ शुन्य ३ १ ५६ | ४३ + श्रावणी १ ४ १३ | ८ संस्कृत ३ १ ११० शुभदन्ती ११ ५४९ मान्य १६ २० | १७ संस्था २ ८११६
२१० २७/ श्री २६ १२९ } ५२, ११ ८७
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संस्फेट ]
(१४२)
पक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
[सिध्मली
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शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. श्लो. । शब्दाः का. व. श्लो. संस्फेट २ ८ १०५ । ४५ समाहित ३ ३ ८५, सहोदर २ ६ ३४ संहतल २ ६ ८५ ५१ समित् ३ ३ ८५ सय संहार १ ९ २ समुद्धरण ३ ३ ५५ साक्तुक ३ २ ४० सकलिन ११० १७ ५७+ समुद्रिकार १० १३ २ सागराम्बरा २ १ ३ सकार २ २ १८ । ५६ समुद्रिय १ १० १३ सात १ ४ २५ सची
सम्परायक २ ८ १०४ सातानीक २ ९ १५ ३ ४ ४ सम्प्रतापन १ ९ २ सादन २ २ सञ्जीवन
। सम्फेट २ ८ १०५ साधुवाहिन् २ ८ ४४ संश
सम्ब १ १ ४७ साप्तपदीन २८ संशा
सम्बरारि १ १ २६ साबर २ ४ २ सत्यक १ १ १७ ५१ सम्बाध ३ ३ १०४ सामज २ ८ ३४ २३ सत्यवतीसुत २ ७ ३५ सम्मलो
सामवायिक २ ८ ४ सत्यापना २ ९ ८२
५७ सामुद्रिका १ १० १३ २ सदानन्द १ १
२ ४ १६२
सायः १ ४ ३ सधर्मिणी २ ६ सरडा
सारव २ ९ १११ सनत् सरणा
सारिवा २ ४ ११२ सनपणी २ ४ १४९
सारोष्टिक १ ८ १० सनात ३ ४ १७ सरलि
२९ सार्षिक २ ९ ४४ सनात्कुमार १ १ ५१ ५८ सरस्वती ११० ३०
३१सालमशिकार १० २८ सनिष्ठीव १ ६ २० सराव
३१ सालमजी २ १० २८ सन्था १ ४ ३ सरिल
| सालावृक ३ ३ सन्धि १ ४ ७ . सरिषप २ ९ १७ सालूर ११० २४
२ ४ ३ सरोजिनी ११० ३९ सिंहताल २ ६ ८५ २५ समास्य २ ८ ३५ | सर्व
सिंहपुच्छक २ ४ १३ सप्ताचि
सर्वरसाय १.९ ४९ १५ सिद्धाण २ ६ ६६ समक्ष ३ १ ७९ सलिर
| सिकाणी २ ६ ९८ समज्या १ ६ ११ सव्येष्ट
सिडान २ ९ ८९ समपाद २ ८ ८५ ससन ૨ ૭ ૨૬ सिलिनी २.६ १०८ २५ समरोचित २ ८ ३५ सह २ ८ १०२ सितशिव २ ९ ४२ समधुक ३ १ ७
सहचरी २ ६ ५ | सितशूक २ ९ १५ समा १ ६ ११ | सहा २ ८ १०२ सिताम ४ समापान १ ५ १ सहदब १ १ ३ सिष्मली २ ६ ५३
.
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सरणी
Page #740
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिरा
सास
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सिन्धुक] क्षेपक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका। (४३) [स्थिरस्नेह शब्दाः का. व. श्लो. । शब्दाः का. व. श्लो. । शब्दाः का. व. श्लो. सिन्धुक २ ४ ६८ ! सुवासिनी २ ६ ९ सेव ३ २ ५ सिन्धुर २ ८ ३४ । सुशवी २ ४ १५५ सैरिन्ध्री २ ६ १८ सिम्बा २ ९ २३ । सुशोम १ ३ १९ सैरीयक २ ४ ७५ सिम्बि २ ९ २३ सुषि
सोत्कण्ठ २ १ ८ सिम्बी २ ९ २३ । सुषिम १ ३ ११ ४८ सोत्प्रास १ ६ २० सुषिर
सोदर २ ६ ३४ सिल्लकी २ ४ १२४
सोमाजन २ ४ ३१ सिरह २ ६ १२८ ससवी २४ १५५ सामन् सिहुण्ड २ ४ १०५ सुनवा २ ४ १२१ | सोमप २ ७ ९
२ ९ १०५ सतकाग्रह २ २ ८ सोमपोतिन् २ ७ ९ सीसपत्र
सूत्रतन्तु २ १० २८ : सोमवकरी २ ४ १३१ २३ सुकेशी १ १ ५१ सूत्रामन् १ १ ४१ सोमवल्ली २ ४ ९५ सुखसन्दुमा १ ९ ७१
सुनु २ ६ २८ ४८ सोल्लुण्ठन १ ६ २० १२ मुग्रीव १ १ २८
३ १ २३ १७ सौगत २ ७ १६ सुता २ ६ २८
.१ ३ २६ सौदामिनी १ ३ ९ मुतात्मजा २ ६ २९ सूरिन् २ ७ ६ सौप्तिक २ . ११० ५ मुनिभित ३ १ ११०
२ ९ २६ सौभाजन २ ४ ३१ मुन्दरा २ ६ ४
२ १० ३५ सौरि १ १ २१ सुपर्ण २ ४ २४
२ ६ ९१ सौवस्तिक २ ८ ५ २ ४ २४
सुकन् २ ६ ९१ सौवीर्य सूक्ति
सौहार्द २८ १२ समना २ ४ ७२ | सकिणी
सौहृद २ ८ १२ २ १० २७ | सक्छिन् २ ६ ९१ : सौहृदीय
२८ १२ सुम्य २१० २७ । सूक्क २ ६ ९१ स्तम ३ १ १५ सकन्
स्त्रीपुंस २ ५ ३८ मुरमि २ ४ १२३ सकि
स्थपति २१० ९ २ ९ ६६ सूक्विणी
१४ स्थपुट ३ १ ११२ सुरमीरसा २ ४ १२३ सक्छिन् सुरामाण्ड २ १० ४२
स्थाली २ ४ ५४ १ ९ १९ सगाल
| ११ स्थित ३ १ ११० मुरोद १० २ सृणीका
| ५१ स्थिति ३ ३ ८५ २ ४ २४ । सृष्टि ३ ३ ३९ } १० स्थिरस्नेह ३ ३ ११०
सूर्प
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स्थूललक्ष ] (१४४)
पक-टीकास्थशब्दानुक्रमणिका
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शब्दाः का. व. श्लो. शब्दाः का. व. श्लो. | शब्दाः का. व. स. स्थूललक्ष ३ १ ६ स्वन १ ८ २हारहूर २१० ४० स्नुहा २ ४१०५ । स्वरस १ ४ ४७८०हाल ३ ३ २०५ स्नेहपात्र
स्वर्णवती २ ४ १३८ हालहल १ ८ १० स्नेहाश २ ६ १३८ ३६ स्वर्मानु १ ३ २ ८०+हाला ३ ३ २०५ स्पश
१ २ १४ स्वस्तिक २ २ ९ हालाहल १ ८ १० स्पष्ट स्वस्रिय २ ६ ३२
हासिका १ ७ १९ स्फरण
स्वनेय २ ६ ३२ १७ हिंसा २ ८ ११६ स्फारण ३ २ १०
स्वादुरसा २१. ४० हिण्डिर २ ९ १०५ स्फिर ३ २ ६४ स्वादद
हिण्डीर २ ९ १०५ २२ स्फुट ३ १ ११२ स्वाधीन
हिरण्यवाहु ११० ३४ स्वार
७९ हिलि ३ ३ २०५ स्फोटन ३ २. ५ स्वीकार १५ ५ होर स्फोरण ३ २ १०
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२ ९ ७६ ५२ स्मय १ ७ २१ इंसपदी २ ४ ११९ स्मश्च २ ६ ९९ / २ हंसवाहन १ १ १७
२ ७ २८ ५४ हरि १ ८ ८ | ६७ हृच्छय ३ ३ १६१ १८ स्याद्वादिक २ ७ ६
९३ हृदय ३ ५ २३ हरिताल २ ९ १०३
हृदयिक ३ १ ३ स्योन १० हरिद्रागक ३ १ ११०
४९ हब १६ २० स्त्रवा हरिप्रिय २ ४ ४२
हेमन् १ ४ १८ हरिमन्य २ ९ १८
७९ हेला ३ ३ २०५ हरिमन्यज २ ९ १८
७९ हेलि ३ ३ २०५ स्रोत ११० ११
३ ७ २७ हैरिक २ ८ ७ स्रोतस्विनी ११० ३० इविष्य २ ९ ५२
हादिनी ११० ३० स्वःश्रेयस १ ४ २५ | इसन्तिका २ ९ २९ | होवेर २ ४ १२२ स्वच्छ ११० १४ हस्तधारण ३ २ ५। हादा २ ४ १२४
इत्यमरकोषक्षेपक-मूलस्थशब्दानामकारागनुक्रमणिका समाप्ता।
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हविष्
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________________ आख्यातचन्द्रिकानाम-क्रियाकोशः / भट्टमल्लविरचित: (चौ. सं. सी. 22) 150-00 / तिडन्तार्णवतरणिः / बृहत्तमधातुरूपकोशः / ण्यन्तप्रक्रियादि सहित। पण्डित धन्वाङगोपाल कृष्णाचार्य सोमयाजी प्रणीतः। सम्पादक-पण्डित रामचन्द्र झा (कृ.सं.सी.३१) 200-00 | महाभारतकोशः। (महाभारत के नाम और विषयों की अनुक्रमणिका)। सम्पादक-डॉ० रामकुमार राय / प्रथम भाग (अ-क) 150-00 द्वितीय भाग (ख-द) 150-00 तृतीय भाग (द-भ) 150-00 चतुर्थ भाग (भ-व) 150-00 पञ्चम भांग (वृक्ष-ह्लादकम्) 150-00 सम्पूर्ण एक जिल्द में (चौ. सं. सी.७८) 750-00 वाचस्पत्यम्। (Themost&stupendous Sanskrit Lexicon) तर्कवाचस्पति श्रीतारानाथ भट्टाचार्येण संकलितम्। 1-6 भाग, सम्पूर्ण वृत्ति परिनिष्टिति रूप, पूर्वोत्तरपदों में परिवृत्ति-सहत्वासहत्व आदि यथेष्ट सामग्री भूमिका रूप में देकर चार्वाक आदि समस्त दर्शन, समस्त श्रौतसूत्र-गृह्यसूत्र-स्मृति-पुराण आदि, रामायण-महाभारत, ज्योतिष, आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, राजशास्त्र, शकुनशास्त्र, तन्त्रशास्त्र, नीतिशास्त्र, पाकशास्त्र, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, छन्दोलंकारादि शास्त्रों में प्रयुक्त शब्दों के लिंग, विग्रह, व्युत्पत्ति, विभिन्न अर्थों में पर्याय, उदाहरण तथा तत्तत् शब्द के सम्बन्ध में यथाशक्य अधिकतम ज्ञातव्य सामग्री प्रस्तुत की गई है। विश्व में इससे बड़ा कोई दूसरा संस्कृत कोश नहीं है। (चौ. सं. सी. 94) 6000-00 श्रीकोशः। (हिन्दी-संस्कृत कोश)। पण्डित केदारनाथ शर्मा (ह.सं. सी. 127) 20-00 सर्वलक्षणसंग्रहः (पदार्थलक्षणकोशः)। स्वामी गौरीशङ्करभिक्षु 15-00 अपरं च प्राप्तिस्थानम् कृष्णदास अकादमी पोस्ट बॉक्स नं० 1118, के. 37/118, गोपाल मन्दिर लेन, वाराणसी-२२१००१ (भारत) e-mail : cssoffice@satyam.net.in TISBN : 31-7080.019- 6 P rice : Rs.125.00 |