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स्वर्गवर्गः १] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
१. अथ स्वर्गवर्गः, १ स्वरव्ययं स्वर्गनाकत्रिदिवत्रिदशालयाः, । अन्तमें 'तु' शब्द है; अत एव 'पुखि' इस पदका आगेवाले 'अन्तर्षि' शब्दके साथ होनेसे वही (अन्तर्धि शब्द ही) पुंल्लिङ्ग है, पूर्व (पहलेवाला) नहीं। तीसरा (सर्वनामपद) त्वन्त जैसे-'गोष्ठं गोष्ठानकं तत्तु गौष्ठीनं भूतपूर्वकम् (२।१।१३)' यहाँ 'तत्' इस सर्वनाम पद के भागे 'तु' शब्द होनेसे उसका सम्बन्ध आगेवाले 'गोष्ठीन' शब्दके साथ है, पूर्ववाले 'गोष्ठानक' शब्दके साथ नहीं। चौथा (अव्ययपद) त्वन्त जैसे-'वियद्विष्णुपद वा तु पुस्याकाशविहायसी (१२।२)यहाँ 'वा' इस अव्यय पदके अन्तमें 'तु' शब्द है, अतः 'वा' पदका सम्बन्ध 'पुंसि' के साथ होनेसे 'आकाश और विहायस्' ये ही दो शब्द विकल्पसे पुंल्लिङ्ग होते हैं, पूर्ववाला 'विष्णुपद' शब्द नहीं। इसी तरहसे पहला (नामपद ) अथादि ( 'अथ' शब्द आदिमें हो ऐसा) जैसे'मोक्षोऽपवर्गोऽथाज्ञानमविद्या......(१५७)' यहाँ 'अज्ञान' शब्दके पूर्वमें (पहले) 'अथ' शब्द रहने से वह 'अज्ञान' शब्द भागेवाले 'अविद्या' शब्दका ही पर्याय है, पूर्ववाले 'अपवर्ग' शब्दका नहीं। दूसरा (लिङ्गपद) अथादि जैसे'शस्तं चाथ त्रिषु द्रव्ये पापं पुण्यं (१।४।२६)' यहाँ 'त्रिषु' इस लिंगपदके आदिमें 'अथ' शब्द रहनेसे पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्गके अर्थ में प्रयुक्त "त्रिषु' इस शब्दका आगेवाले 'द्रव्ये' इसके साथ सम्बन्ध होनेसे 'शस्त' शब्द द्रव्य ही अर्थमें त्रिलिंग है, पूर्ववाले शब्दोंका पर्यायवाचक (कल्याणमात्र का वाचक) होनेपर त्रिलिंग नहीं है। इसी तरह तीसरे और चौथे अर्थात् सर्व. नामपद और अव्ययपदके भी अथादिका उदाहरण समझना चाहिये)।
विशेषः- यहाँ 'अथ' शब्द 'अयो' शब्दका उपलक्षण है, अतः 'अथके तुल्य 'अथो' शब्द भी जिसके भादिमें रहे, उसका सम्बन्ध भी पूर्ववाले शब्दके साथ नहीं होता है । (जैसे-.........साम सान्त्वमथो समो- 'भेदोपजापावु..........(२।८।२१)' यहाँ 'समौके आदि में 'अथो' शब्दके रहने से 'समौ' इस शब्दका सम्बन्ध आगेवाले 'भेद और उपजाप' इन्हीं शब्दों के साथ होगा, पूर्ववाले 'सारव' शब्द के साथ नहीं)। इसी तरह अन्यत्र भी अन्यान्य उदाहरणोंको स्वयं समझ लेना चाहिये ॥ . स्वः (=स्वर अ०), स्वर्गा, नाकः, त्रिदिवः, त्रिदशालयः, सुरलोकः
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