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अमरकोषः ।
- १ नभः खं श्रावणो नभाः ।
२ ओकः समाश्रयश्ौकाः ३ पयः क्षीरं पयोऽम्बु च ॥ २३३ ॥ ४ ओजो दीप्ती बले ५ स्रोत इन्द्रिये निम्नगारये । ६ तेजः प्रभावे दोप्तौ च बले शुक्रेऽभ्यन्तस्त्रिषु ॥ २३४ ॥ ८ विद्वान्दिंश्चबीभत्सो हिंनोऽध्य १०तिशये त्वमी । वृद्धप्रशस्ययोज्ययान् -
१ 'नमः' (= नभल् न ) का आकाश, १ अर्थ और 'नभाः' (= नभस् पु) के श्रावण महीना, मेव ( बादल ), पिकदान ( उगलदान ), नाक, मृगालसूत्र, वर्षा ऋतु, ६ अर्थ हैं ॥
| 'ओकः' (= ओकस् । न + अक: = ओक पु ) का मकान, १ अर्थ और 'ओका:' ( = ओकस् पु ) का आश्रयमात्र, १ अर्थ है ॥
३ ' पय:' ( = पयस् न ) के दूध, पानी, २ अर्थ हैं ॥
४ 'ओजः' (= ओकस् न) के दीप्ति, खल, प्रकाश (उजाला), ३ अर्थ हैं ॥ ५ 'स्रोतः' (= स्रोतस् न ) के इन्द्रिय, सोत ( नदी आदिका बहाव ), २ अर्थ हैं ॥
६ 'तेज:' ( = तेजस् न ) के प्रभाव, दीप्ति, खक, वीर्य ( मनुष्यका शरीरस्थ धातु ), 'असहन, ५ अर्थ हैं ॥
७ यहांसे आगे सब सकारान्त शब्द त्रिलिङ्ग हैं |
[ तृतीय काण्डे -
८ 'विद्वान्' (= विवस त्रि ) के पण्डित, आत्मज्ञानी, प्राज्ञ, ३ अर्थ है ॥ ९ 'बीभत्सः' (त्रि) के हिंसक या क्रूर, भयङ्कर ( डरावना ), २ अर्थ और 'बीभत्सः' (पु) के बीभास रस ( 'यह पृ० ७३ में उक्त शृङ्गार आदि नवरसों के अन्तर्गत है' ), १ अर्थ है ॥
१० 'ब्यायान्' (= उपायस् त्रि) के अत्यन्त बूढा, बहुत प्रशंसा करने अर्थ हैं ॥
योग्य,
१. तदुक्तं साहित्यदर्पणे विश्वनाथेन -
'अविक्षेपापमानादेः प्रयुक्तस्य परेण यत् । प्राणात्ययेऽप्यसनं तचेत्रः समुदाहृतम् ॥ १ ॥
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इति सा० द० ३ । ९७ ॥
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