________________
५०५
नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
-१ कनीयांस्तु युवालायोः ॥ २३५॥ २ घरीयांस्तूरुवरयोः ३ लाधीयान्साधुवाढयोः ।
हति सान्ताः ला!
अथ हान्ताः शब्दाः। ४ दलेऽपि बह ५ निर्बन्धोपरागार्कादयो ग्रहाः ।। २३६ ।। ६ द्वार्यापीडे क्वाथरसे नियूँ हो नागन्तके । ७ तुनासूत्रेऽश्वादिरश्मौ प्रपाहः प्रग्रहोऽपि च ।। २३७ ॥ ८ पत्नीपरिजनादानमूलशापाः परिग्रहाः। ९दारेषु च गृहा:-- 1 'कनीयान्' (= कनीयस् त्रि) के बहुत युवा, बहुत छाटा, २ अर्थ हैं । २ 'घरीयान्' ( = वसीयस त्रि) के बहुत बड़ा, बहुत श्रेष्ठ, १ अर्थ हैं ।
३ 'साधीयान्' ( = साधीयस त्रि) क बहुत साधु (अच्छा), बहुत ज्यादा, २ अर्थ हैं॥
इते सान्ताः शब्दाः।
अथ हान्ताः शब्दाः। ४ 'बहम्' (न पु) के पत्ता, मोरका पंख, १ अर्थ हैं।
५ 'ग्रह' (पु) के ग्रहण करना, सूर्य चन्द्र ग्रहण, सूर्य मादि ग्रह (पूर्य,चन्द्र, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु ये नव 'ग्रह" हैं), ३ अर्थ हैं ।
६ '
नियूँइ.' (पु) के द्वार, शिखा या चोटीमें बांधनेको माला, काका रस, खूटी, ४ अर्थ हैं।
'प्रग्रहः, प्रवाह' (२ पु) के तनी ( तराजू के खण्डोकी रस्तो), घोड़े आदिका वागडोर या लगाम, १ अर्थ हैं ॥
८'परिग्रह' (पु) के परनी (स्त्री), परिजन, लेना, वृक्षादिको जह, शाप या शपथ, राहुप्रस्त सूर्य, ६ अर्थ हैं।
९ 'गृहाः' (नि० पु. ५० ५० ) का स्रो, । अर्थ और 'गृहम्' (न) का घर, " अर्थ है ॥ १. तदुरूम्-'सूर्यश्चन्द्रो मङ्गलच बुधश्चापि बृरस्पतिः।
शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति नव ग्रहाः ॥ १॥ इति वाचस्स.पू. २७४५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org