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अमरकोषः। [द्वितीयकाण्ड१ अनूचानः प्रवचने साङ्गेऽधीती २ गुरोस्तु यः ।
लब्धानुसः समावृत्तः ३ सुत्वा स्वभिषवे कृते ॥१०॥ ४ छात्रान्तेवासिनो शिष्ये ५ शैक्षाः प्राथमकल्पिकाः। ६ एकब्रह्मवताचारा मिथः सब्रह्मचारिणः ॥ ११ ॥ ७ सतीर्थ्यास्त्वेकगुरवश्चितवानग्निमग्निचित् रघुने विश्वजित् यज्ञकर सर्वस्व दक्षिणा दी थी। विश्वजित् आदि यज्ञका यह नाम है, यह भा. दी० का मत चिश्य है')॥
मनूचानः (पु), 'व्याकरण आदि ६ अङ्गोंके सहित वेदको पढ़नेवाले' का नाम है ॥
२ समावृत्तः (पु), 'गुरुकी आक्षा पाकर गृहस्थाश्रममें रहने के लिये गुरुकुलसे लौटे हुए ब्रह्मचारी का नाम है ॥
२ सुस्वा (सुस्वन् पु), 'यक्षके अन्तमें अवभृथनामक स्नान किये हुए' का । नाम है। - छात्रः, अन्तेवासी ( = अन्तेवासिन् ), शिष्यः (३ पु), 'शिष्य, छात्र के ३ नाम हैं।
५ शैक्षाः, प्राथमकल्पिकाः (२ पु । बहुवचन अविवक्षित होनेसे एकवचन भी होता है।) 'अध्ययनको प्रथम भारम्भ किये हुए ब्रह्मचारी आदि' के नाम हैं।
सब्रह्मचारिणः ( = सब्रह्मचारिन् , पु) आपसमें समान वेद, समान वत और समान आचारपाले ब्रह्मचारियों का नाम है।
७ सतीयः, एकगुरुः (मा० दी । २), 'सहपाठी, एक गुरुसे पढ़नेवाले' के नाम हैं।
८ अप्रिथित (पु), 'अग्निहोत्री' का । नाम है ॥ १. यथाऽ रघुवंशे कविकुलकमलदिवाकरः कालिदासः
__ 'स विश्वजितमाठे यशं सर्वस्वदक्षिणम्' इति रघुवंशः ४६ ८६ ॥ २. तदुक्कं हेमाद्रिणा चतुर्वर्गचिन्तामणो दानबण्डस्य परिभाषाख्ये तृतीयप्रकरणे
'वेदवेदाङ्गतत्वहः शुद्धास्मा पापवर्जितः। शेष मोत्रियवसाय खोऽनूचान इति स्मृतः ॥१॥
इति चतु चिन्ता.दा. खं०१० २८॥
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