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[ ११ ] छोड़ दिये गये हैं । 'यस्य ज्ञानदयासिन्धोः......(11) श्लोकके पूर्व जिन एवं जैनसम्मत सोलहवें तीर्थकरकी वन्दना अमरसिंहने दो श्लोकों में की है, तथा 'सुरलोको ....... त्रिविष्टपम् ।' ( 16) के बाद ८.३ श्लोकोंमें अमरसिंहने महावीर आदि तीर्थङ्करों एवं जैनसम्प्रदायसम्मत देवी-देवताओंके पर्यायों को कहा है। द्वितीय काण्डमें भी प्रायः १०-१२ श्लोकोंका वर्तमान अमरकोषमें छूट जाने या छोड़ दिये जानेको चर्चा उक्त दोशी महोदयने की है। यद्यति दोशीमहोदय कथित मङ्गलाचरणके दो श्लोकों में से प्रथम श्लोक वाहोमसिंह-विरचित 'गधचिन्तामणि' अन्धमें भी मिलता है, अतः यह कहना कठिन है कि यह श्लोक भमरसिंहकी रचना है या वादीमसिंहकी, किन्तु द्वितीय
छोक अन्यत्र कहीं नहीं उपलब्ध होता और वह श्लोक दोशीजीके कथनानुसार यदि मङ्गलाचरणका ही है तब तो दोशीमहोदयके कथनकी विशेषतः पुष्टि होती है कि अमरसिंह बौद्ध नहीं, किन्तु जैनी ही था।
मेरा विचार था कि उक्त दोशीजीके ट्रैक्टके श्लोकोंको अपने अमरकोष द्वितीय संस्करण में भी समाविष्ट करूँ, किन्तु उक ट्रैक्टके श्लोकों में प्रचुर. मात्रामें अशुद्धियाँ होनेसे वैसा करना उचित प्रतीत नहीं हुआ और दोशीजी महोदय के ट्रैक्टकी मूल प्रति-जो द्रविडप्रान्त-निवासी 'आप्पण्डानाथशास्त्री से द्रविडा बरमें तालपत्रपर लिखित थी-को प्राप्त करनेका प्रयत्न करनेपर भी कृतकार्य न हो सकने के कारण मुझे अपने विचारको स्थगित कर देना पड़ा। ____ अमरसिंहने अन्य किसी ग्रन्थको भीरचना की या नहीं, यह विषय सन्देहास्पद है। जयपुर सं० पाठशालाओं के निरीक्षक साहित्याचार्य पं. भट्ट श्रीलङ्ग मथुरानाथ शास्त्रीने 'अमरकोषे टीकाकाराणां कृपा' शीर्षक लेखमें अमरभारती में लिखा है कि इनके विषय में यह भी प्राचीन दन्तकथा है कि 'ये अनेक अन्धोंकी रचनाकर इन्हें नाव में रख कहीं अन्यत्र जा रहे थे, किन्तु बौद्धधर्मः
1. तद्यथा-जिनस्य लोकनपन्दितस्य प्रहालयेस्पाइसरोज युग्मम् ।
नखप्रभादिष्यसरिस्प्रवाहैः संसारपकं मयि गाठलम्मम् ॥ ॥ नमः श्रोमान्तिनाथाय कारातिविनाशिने । पञ्चमबक्रिमा पस्तु कामस्तस्मै मिनेशिने ॥१॥'इति।
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