________________
नानार्थवर्ग: ३ ]
मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
१ तिरोऽन्तर्धौ तिर्यगर्थे २ हा विषादशुगतिंषु ।
३ अत्यद्भुते खेदे ४ हि देतावत्रधारणे ॥ २५७ ॥
इत्यव्ययाः शब्दाः । इति नानार्थवर्गः ॥ ३॥
१ तिरः' ( = तिरस् ) के अन्तर्धान ( छिपना ), तिर्छा, २ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा० - १ इति व्याहृत्य विबुधान्विश्वयोतिस्तरोदधे ( कु० सं० २। ६२ ), २ तिरोवर्तते भास्करः, ' ) ॥
२ 'हा' के विषाद, शोक, दुःख, ३ अर्थ हैं । ('क्रमशः उदा० --- ---१ हा गतो रमणीयः कालः, २ हा वनं गतो रामचन्द्रः, ३ हा हतोऽस्मि मन्दभाग्यः, १) ॥ ३ ' अहद्द' ( + अहहा ) के अद्भुत, खेद, २ अर्थ हैं । (क्रमशः उदा० - १ अहह बुद्धिप्रकर्षो नृपालस्य, २ अहह नीतो मया व्यसनेनामूल्यः, कालः, अहह हता विधवा बाला,
) ॥
9
Jain Education International
४ 'हिं' के हेतु, अवधारण ( निश्चय ), २ अर्थ हैं । ( 'क्रमशः उदा०१ अग्निरत्रास्ति धूमो हि दृश्यते, २ चन्द्रो हि शीतलः, ) ॥
५१५
विशेषः - 'नानार्थ अव्यय' शब्दों के अव्ययमात्र होनेसे अन्य प्रकरणों के समान ('अच्य ० ' ) इस तरह प्रत्येक शब्द के बाद नहीं लिखा गया है, अतः ३।३।२४० से ३/३/२५७ तक के प्रत्येक शब्दोंको 'अध्यय' समझना चाहिए ॥ इस 'नानार्थवर्ग' में ग्रन्थकारके अतिरिक्त 'अनेकार्थसंग्रह, मेदिनीकोष, विश्वकोष, अभिधानत्नमाला, कोषग्रन्थों में लिखित अतिप्रसिद्ध अर्थ तथा ग्रन्थकार के लिखित 'च, तु, अपि, ......7 शब्दसे संगृहीत- टीकाकारों के सम्मत बाहरी अर्ध भो लिखे गये हैं । कहीं-कहीं आवश्यकीय स्थलों में उदाहरण आदि भी दिये गये हैं। टीका बढ़ने के भने उन्हें पृथकू लिखना या सर्वथा त्याग करना अनुचित-सा प्रतीत होनेसे एकत्र ही किंवा वया है । यद्यपि पूर्वोक्त अव्यय शब्द भी 'कान्त, खान्त, गान्त आदि से हो कहे गये हैं तथापि इन नानार्थ अध्यय शब्दको 'कान्त अव्यय शब्द, वान्त अव्यय शब्द, टोकावृद्धि के भय से नहीं कहा गया है। पाठकगण स्वयं कान्त, खान्त, गन्त, अव्ययों को समझ लें ||
...
.... "
इत्यव्ययाः शब्दाः । इति नानार्थवर्गः ॥ ३ ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org