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नादिसंग्रहवर्ग: ५] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
५४५ संगमं शतमानार्मशम्बलाव्ययताण्डवम् ॥ ३४॥ कवियं 'कन्दकर्पासं पारावारं युगन्धरम् । 'यूपं प्रग्रीवपात्रीवे यूषं चमसचिसो ।। ३५ ।। अर्धर्चादी घृतादीनां पुंस्त्वाचं वैदिकं भूवम् । तन्नोक्तमिह लोकेऽपि तच्चेदस्त्यस्तु शेषषत् ।। ३६ ।।
इति पुनपुंसकलिङ्गसंग्रहः।
लेग और संख्याले रहित सब cिङ्गों और वचनों ने तुल्य रूपवाला ('अव्यय' 'संज्ञक शब्द-भेद), तास्वम् ताण्डवः (नाचना), कवियम् कवियः (लगाम), इन्दम् कन्दः ( + कर्म । सूरन कन्दा बण्डा भादि कन्द), कर्पासम् कक्षा
कपास, रूई), पारम् पारः ( नदी आदिका पार अर्थात् दूसरा किनारा), पवारम् अवारः (नदी आदिके इघरका किनारा), युगन्धरम् युगन्धरः 'जिसमें घोड़े बैल आदि जोते जाते हैं वह रथका लम्बा काष्ठ-विशेष), यूपम्
पः ( यज्ञमें पशु बाँधने का खम्भा। + 'पूयम् पूयः' अर्थात् पीब), प्रग्रीवम् ग्रीवः ( खिड़की), पात्रीवम् पात्रीवः (यज्ञ-पात्र-विशेष), यूषम् यूषः (माँर), बमसः चमसम् (यज्ञ-पान-विशेष), चिकस: चिकसम् (यज्ञ-पान-विशेष रहे०, यवका भाटा सी. स्वा०), ये ४० शब्द पुंल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग होते हैं।
१ अर्धर्चादिगण में 'घृत' आदि शब्दके जो लिङ्ग आदि (नपुंसकलिङ्ग) कहे गये हैं, वे निश्चय वैदिक हैं अर्थात् उनका वेदमें ही प्रयोग होता है । असएव यहाँ लोकमें वे नहीं कहे गये हैं। यदि प्रमाद भादिसे लोकमें भी दोनों लिङ्ग के प्रयोग मिल जाय तो शेष (अवशिष्ट) शब्दों के समान उनका भी मुशिङ्ग और नपुंसकलिङ्गमें प्रयोग होता है।
इति पुनपुंसकलिङ्गसंग्रहः ।
१. 'कर्मकर्षासम्' इति पाठान्तरम् । २. 'पूयम्' इति पाठान्तरम् ।।
३. 'अव्यय लक्षणं 'तद्धितश्वास'.' (पा० सू० १ । १। ३७) इति सूत्रीयपातजम्माष्य उक्तं तद्यथा
'सदृशं त्रिषु लिनेषु सर्वासु च विमक्तिषु ।
वचनेषु च सर्वेषु या ज्येति तदम्ययम् ॥१॥इति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org