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अमरकोषः
(तृतीयकाण्डे
१ "भूभृनितम्बवलयचकेषु कटकोटस्त्रियाम् ( २३) २ सूच्यग्रे क्षुद्रशत्रौ च रोमहर्षे च कण्टकः (२४) ३ पाको पक्तिशिशु मध्यरत्ने नेतरि नायकः ( २५) ५ पर्यः स्यात्परिकरे६ स्याव्यानेऽपि च लुब्धकः (२६) ७ पेटकस्त्रिषु वृन्देऽपिटगुरौ देश्ये च देशिकः ( २७) ९ खेटको प्रामफलकौन्धीवरेऽपि च जालिकः (२८)
['कटकः' (पु न ) के पहाड़ के बीचका भाग, कङ्कग ( कँगना), चक्र, ३ अर्थ है ]॥
२ ['कण्टक:' (त्रि) के सूई, कोटा या हँड आदिका नोक (आगेवाला हिस्सा), जुद्र (छोटा) बैरी, रोमाञ्च (रोआका खड़ा होना ), ३ अर्थ हैं ] ॥
३['पाकः' (पु) के पकाना, बालक, २ अर्थ हैं ] ॥
४ [ 'नायकः' (पु) के मालाके बीचवाली मनियाँ ( सुमेरु), नेता (किसी कामके आगे चलनेवाला मुखिया आदि), २ अर्थ हैं ] ॥
५ ['पर्यत:' (पु) के परिकर (नौकर आदि बास्मीय जन ), पछङ्ग या मचान, २ अर्थ हैं ] ॥
['लुब्धकः' (नि) के बाध, लोभी, २ अर्थ हैं ] ॥ ७ ['पेटकः' (नि) के समूह, पिटारी (बकस, झपोली मादि), अर्थ हैं] ॥
८ [ 'देशिकः' (त्रि) के गुरु, देशमें होने वाला पदार्थ (जैसेदेशिकं वासः, देशिका, पुत्तलिका, देशिकोऽश्वः, ....... ), २ अर्थ हैं ] ॥
९ [ 'खेटक' (त्रि) के ग्राम, ढाल, २ अर्थ हैं ] ॥
१. ['जालिकः' (त्रि) के मल्लाह, ग्रामज अलि, जाल की वृत्तिसे जीविका करनेवाला, ३ अर्थ है ] ॥
१. 'भूभृन्नितम्ब..."दाश्मदारणो' इत्ययं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यानेऽमरविवेकपुस्तके च मूलमात्रमुपलभ्यते । 'मृद्भाण्डे "द्रवके' (पृ० ४२९) इत्येष क्षेपकांशश्च क्षी० स्वा० व्याख्यायामेवोपलभ्यत इत्यतोऽयमप्यंश क्षेपकरूपेणैव मया मूले निक्षिप्त इत्यवधेयम् ।।
२. 'भाद्रोयामपि लुग्धकः' इति पाठान्तरम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org