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नानार्थवर्गः ३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः।
४५ -१ अन्धं समस्यपि। २ मतस्त्रिषु ३ समुन्नद्धी पण्डितंमन्यगर्विती ॥ १०३॥ ५ ब्रह्मबन्धुरधिक्षेपे निदेशे ५ ऽथावलस्थितः।
अविदूरोऽप्यवष्टब्धः ६ प्रसिद्धौ ख्यातभूषितौ ॥ १०४।। ७ 'लेशेऽपि गन्धः ८ संबाधः गृह्यसंकुलयोरपि (५३) ९ बाधा निषेधे दुःखेऽपि १० ज्ञातृवान्द्रिसुरा बुधाः' (५४)
इति धान्ताः शब्दाः।
१ 'अन्धम्' (न) का अन्धकार, १ अर्थं और 'अन्धः' (त्रि) का अन्धा, १ अर्थ हैं॥
२ यहाँसे आगे सब तान्त शब्द त्रिलिङ्ग हैं ।
३ 'समुन्नद्धः (त्रि) के स्वयं पण्डित न होते हुए भी अपनेको पण्डित समझनेवाला, अभिमानी, २ अर्थ हैं।
४ 'ब्रह्मबन्धुः' (त्रि) के निन्दा, (जैसे-हे ब्रह्मवन्धो ! दुष्टोऽसि, ...... ), निर्देश, २ अर्थ हैं ।
५ 'अवष्टब्धः' (त्रि) के अवलम्वित (आश्रित ), समीप (पासवाला), बँधा हुआ, रुका हुआ ४ अर्थ हैं ।
६ 'प्रसिद्ध ' (त्रि), के विख्यात, सुशोभित, २ अर्थ हैं ॥ ७ [ 'गन्धः ' (पु) के लेश, गन्ध ( सुवास), २ अर्थ हैं ] ।
८ ['संबाध' (पु) के गुप्त, सङ्घल (भीड़ आदिसे ठसाठस भर हुआ), २ अर्थ हैं ]॥
९ [ 'बाधा' (स्त्री) के निषेध, दुःख, २ अर्थ हैं ॥ १० [ 'बुधः' (पु) के जाननेवाला, बुध नामका ग्रह, देवता, ३ अर्थ हैं।
इति धान्ताः शब्दाः ।
१. अयं क्षेपकांशः क्षी० वा. व्याख्याने मूलमात्रमुपलभ्यत इति प्रकृतोपयोगितया क्षेपकत्वेन स्थापितः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org