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प्राक्कथन
__डॉ. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री एम. ए., पी-एच. डी., ए. एफ. आई., प्रिंसिपल टीचर्स ट्रेनिङ्ग कालेज, भागलपुर
हमारे शास्त्रों ने 'शब्द'को ही साक्षात् ब्रह्म कहा है। शब्द अथवा अनाहतनाद के रूप में प्राणियोंने ब्रह्मका साक्षात्कार किया है, मतः मानवजीवन में शब्न तथा उसके अवबोध एवं अनुभूनिकी कितनी महत्ता तथा उपयोगिता है-इसकी कल्पना समज ही की जा सकती है। पशु और मानवमें क्या अन्तर है ? बर्बरता और सभ्यताये क्या भेद है ?-व्यक्त, व्युत्पन्न एवं सार्थक शन्द । इसीलिये हमारे भाचार्यों ने कहा है कि यदि एक भी वर्ण, एक भी शब्द, सम्यग्ज्ञात तथा सुप्रयुक्त हुआ तो इहलोक तथा परलोकमें मनोवान्छित फल देनेवाला होता है।
थोड़ी-सी भ्रान्ति से कितना अनर्थ हो सकता है, यह निम्नलिखित श्लोकसे स्पष्ट परिलक्षित है--
'यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र ! व्याकरणम् ।
स्वजनः श्वजनो मा भूत् सकलं शकलं सकृच्छकृत् ॥' अतः यह सिद्ध हुआ कि मानवमात्रको वर्गों तथा शब्दोंका यथावत् ज्ञान होना आवश्यक है।
वेदोंसे लेकर आधुनिक साहित्य तक जो अनगिनत ग्रन्थ निर्मित हुए हैं, वे ही हमारी संस्कृनिकी प्रगति के प्रतीक हैं। ये ग्रन्थ क्या हैं ?-शब्द तथा अर्थका समन्वय-'सम्पृक्त वागर्थ' । इसकी महिमाको इजित करने के उद्देश्यसे कालिदासने 'पार्वतीपरमेश्वरौ'को 'वागर्थाविव सम्पृक्ती'का विशेषण दिया है। मानवकी समस्त भावनाएँ मन में ही विलीन हो जायँ, यदि उसे उन सार्थक, इतरावबोध्य शब्दों में गुम्फित करने की पमता नहीं हो। यदि भाम हमने वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसी, सूर आदिको अमरत्व प्रदान किया है
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