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जिन्होंने इस प्रन्थका प्रकाशनभार लेकर संस्कृत साहित्य ग्रन्थोद्धार में उत्साहपूर्ण अपनी उदारताका परिचय दिया है ।
ग्रन्थ-सम्पादन के समय मानवसुलभ दृष्टिदोषवश एवं टाइपके अतिसूक्ष्माचर होने से तथा यन्त्र-सम्बन्धी दोषोंसे अर्थात् किसी प्रकारकी यदि अशुद्धि हो गयी हो तो—
'गच्छतः स्खलनं कापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधनि सज्जनाः ॥
इस पथ के अनुसार वीरग्राही हंसके समान विद्वज्जन उन अशुद्धियों को सुधार कर मुझे अनुगृहीत करेंगे ।
इति शम् ।
रथयात्रा, सं० १९९४
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विद्वत्पादाब्जरजश्चञ्चरीकहरगोविन्दशास्त्री
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