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द्वितीय संस्करण
लोकशङ्कर भगवान् शङ्करकी असीम अनुकम्पासे स्व-प्रथम-प्रयास सम्पादित अमरकोषीय 'मणिप्रभा के द्वितीय संस्करणको प्रकाशित होते हुए देखकर अनुवादक होनेके नाते मुझे परम प्रसन्नता हो रही है, क्योंकि कविकुछशिरोमणि महाकवि कालिदास-जैसे विद्वान् भी सूत्रधारके मुखसे
'भा परितोषाद्विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम् ।
बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेतः ।' कहलवाते हुए कृतिकी सफलता सशक होना अभिव्यक्त करते हैं, तब अपनी कृति-यह भी अध्ययनावस्थाकी प्रथम कृति-होने के कारण मुझ जैसे अल्पज्ञको अपनी सफलतामें पाशङ्कित होना अस्वाभाविक नहीं समझा जा सकता; परन्तु 'मणिप्रभा' युक्त इस अमरकोष अन्य के प्रथम तथा द्वितीय काण्डोंका पाँच-पाँच, संस्करण प्रकाशित होना और इस सम्पूर्ण ग्रन्थ के पुनः प्रकाशनार्थ अनेक वर्षोंसे पत्रादिद्वारा प्रेरणा करते रहना इस कृतिकी सफलता को स्पष्टतः अभिव्यक्त करता है।
इस अमरकोषके ही नहीं, किन्तु 'मणिप्रभा' नामक मेरे राष्ट्रभाषाऽनुवाद. सहित अन्यान्य प्रन्थों-रघुवंश, शिशुपालवध, नैषधचरित तथा मनुस्मृति आदि-को भी अन्यान्य विद्वज नसम्पादित विविध टीकाओं तथा अनुवादोंके रहते हुए भी अपनी नीर-क्षीर विवेकिताद्वारा जिनलोगोंने अपनी गुणेकपक्षपातिताका स्पष्ट परिचय प्रदान किया है, मन परमादरणीय विद्वानोंका आभार मानता हुआ मैं उन्हें भूरिशः धन्यवाद देता हूँ। ___ साथ ही वर्तमानमें शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय के प्राचार्य एवं समाज (सोसल )-विभाग, विहार सरकार के भूतपूर्व उपनिर्देशक श्रीमान् माननीय 'डॉ. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री महोदयका भी अस्यन्त आभारी होता हुआ उन्हें अनेकानेक धन्यवाद देना अपना परम कर्तव्य समझता हूँ; जिन्होंने मेरी
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