________________
४०७
संकीर्णवर्गः २] मणिप्रभाव्याख्यासहितः । १- अन्धितेऽन्धोतं २ प्रकाशप्रकटौ स्फुटे (२२)
इति विशेष्यनिधन्वर्गः ॥ १ ॥
२ अथ संकीर्णवर्गः। ३ प्रकृतिप्रत्ययार्थाः संकाणे लिङ्गमुन्नयेत् ।
१ [ अन्वितम् , अन्वीतम् ( २ नि ), 'युक्त, सहित' के २ नाम हैं ] ॥ २ [प्रकाशः, प्रकटः, स्फुरः (३ त्रि), 'प्रकट, स्पष्ट' के ३ नाम हैं ] ।
इति विशेष्य निम्नवर्गः ॥ १॥
२ अथ संकीर्णवर्गः। ६ पूर्वोक्त शब्दों के आपसमें संकीर्ण होने (मिल जाने ) के भयसे पहले नहीं कहे हुए शब्दों के संग्रह के धास्ते 'प्रकृति-इस श्लोकसे द्वितीय 'संकीर्ण वर्ग' का प्रारम्भ करते हैं। संकीर्ण अर्थ और संकीर्ण लिमसे आरब्ध होने के कारण 'संकीर्णवर्ण' नाम के इस प्रकरण में प्रकृति , प्रत्यय २ भादि (आदिसे रूपभेद ३, साहचर्य ४, के अर्थका संग्रह है) से लिङ्गोको समझना चाहिये।' ("प्रत्येकके क्रमशः उदाहरण। २ला प्रकृत्यर्थ जैसे-अपरस्पराः (त्रि), इस उदाहरणमें 'परवल्लिङ्ग द्वन्द्वसत्पुरुषयोः' (पा० सू० २.४४४६) इस सूत्रसे पर (आगे) बाले शब्दके लिङ्गका अतिदेश होनेसे यहाँ ( अपरस्पर शब्दमें ) 'पर' शब्द के त्रिलिग होने के कारण अपरस्पर' शब्द भी त्रिलिङ्ग है। इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये । २रा प्रत्ययार्थजैसे---'शान्तिः, कृति, चितिः, विपत्तिः,....... (स्त्री), 'हसितम् , हसनम् , जहिपतम् , शयनम् ............ (४ न ), 'आकरः, रामः, सन्धिः ,........ (३ पु) इन
दाहरणों में 'स्त्रीलिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग और इंजिन' में चिन्, मादि प्रत्ययों के होनेसे ये शब्द भी क्रमशः स्त्रीलिङ्ग आदिमें प्रयुक्त होते हैं । इसी तरह अन्यान्य (९ रा रूपमेद और श्या साहचर्यके) वाहरणका भी स्वयं तक कर लेना चाहिये")
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org