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मानार्थवर्गः३] मणिप्रभाव्याख्यासहितः ।
४५५ १ निर्वादो जनवादेऽपि २ शादो जम्बालाग्योः । ३ मारावे रुदिते प्रातर्याक्रन्दो दारुणे रणे ॥१०॥ ४ स्यात्प्रसादोऽनुरागेऽपि सूदः स्पद् व्यञ्जनेऽपि च । ६ गोष्ठाध्यक्षेऽपि गोविन्दो ५ हामीमदः॥ ११ ॥ ८ प्राधान्ये राजलिङ्गे च वृषाङ्गे सकुन्दोऽस्त्रियाम् । ९ स्त्री संविधानसभाषाकिया काराजिनामसु ॥ ९२ ।।
१ 'निर्वादः' (पु) के जनापवाद, सिद्धान्त, २ अर्थ हैं । २ 'शादः' (पु) के कीचड़ (पक ), घास २ अर्थ हैं ।
३ 'आकन्दः ' (पु) के कष्ट युक्त शब्द, रोना, रक्षक, भयङ्कर शुद्ध, ४ अर्थ हैं।
४ 'प्रसाद' (पु) के अनुग्रह, प्रसन्नता, काव्य का 'गुग--विशेष, ३ अर्थ हैं । _५ 'सुदः' (त्रि) के व्यञ्जन (कई, बरी, तरकारी आदि), रसोइयादार, २ अर्थ हैं ॥
६ 'गोविन्दः' (पु) के गोष्ट ( गोशाला ) का मालिक, विष्णु, वृहस्पति, ३ अर्थ हैं ॥ ___७ 'आमोदः' (पु) के हर्प, दूर ही से चितको आकर्षित करनेवाला कस्तूरी आदिका गन्ध, २ अर्थ और 'मदः' (पु) के हर्प, कस्तूरी, वोर्य (शुक्र), गर्व ( अहङ्कार ), हाथीका मद, ५ अर्थ हैं ।
८ ककुदः (पुन) के प्राधान्य, राज-चिह्न (छत्र, चंबर आदि), बैल या साँड़सा डील, पहाड़की चोली, ४ अर्थ हैं ।
९ 'सांवत्' ( = संविद् स्त्री) ज्ञान, संभाषा (संभाषण । + संकेत), कर्मका नियम वा व्यवस्थापन, लड़ाई, नाम, तोषण, आचार, प्रतिज्ञा, ८ अर्थ हैं। १. विश्वनाथेन प्रसादलक्षणमुत्तन्तद्यथा
'चित्तं व्याप्नोति यः क्षि शुष्कन्धनमिवानलः ।
स प्रसादः समस्तेषु रसेषु रचनासु च' ॥ इति सा० द० ६ । ६३१ ।। काव्यप्रकाशे च-'शुष्कन्धनादिवत्स्वच्छजलवत्सहसैव यः।
व्याप्नोत्यन्यत्प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थितिः' ॥ इति ।।
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