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अमरकोषः ।
[ तृतीय काण्डे
३ पदं
४
१ धर्मे रहस्युपनिषत् २ स्यादतौ वत्सरे शरत् । व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्मात्रिवस्तुषु ॥ ९३ ॥ गोष्पदं सेविते माने ५ प्रतिष्ठा कृत्यमास्पदम् । ६ त्रिविष्टमधुरो स्वादू ७ मृदू चातीक्ष्णकोमलौ ॥ ९४ ॥ ८ मूढाल्पापनिर्भाग्या मन्दाः स्यु ९ औँ तु शारदी। प्रत्यग्राप्रतिभौ १० विद्वत्सुप्रगल्भो विशारदौ ॥ ९५ ॥ इति दकारान्ताः शब्दाः ।
अथ धकारान्ताः शब्दाः ।
११ व्यामो वटश्व न्यप्रोधौ
१ 'उपनिषत् ' ( = उपनिषद् स्त्री ) के धर्म, एकान्त, वेदान्त ( ग्रन्थविशेष ), ३ अर्थ हैं ॥
२ 'शरत्' (= शरद् खी) के शरद् ऋतु ( पृ० ४२ ), वर्ष, २ अर्थ हैं ३ 'पदम् ' ( न ) के व्यवसाय, रक्षा, स्थान, चिह्न, पैर, शब्द (सुबन्ध और तिङन्त ), वाक्य, एक वस्तु, व्यवसाय, अपदेश, १० अर्थ हैं ॥
४ ' गोष्पदम् ' ( न ) के गौओसे सेवित स्थान, गौके चरणतुल्य प्रमाणवाला गढा २ अर्थ हैं ॥
५ 'आस्पदम् ' ( न ) के प्रतिष्ठाका स्थान, काम, १ अर्थ हैं ॥
६ 'स्वादुः' (त्रि ) के इष्ट, मधुर, स्वादिष्ट, ३ अर्थ हैं ॥
७ 'मृदुः ' (त्रि ) के तेजोहीन, कोमल २ अर्थ हैं ॥
८ ' मन्दः' (त्रि) के अल्प, बेवकूफ भाग्यहीन, शिथिल, स्वच्छन्द, रोगी, शनि, ७ अर्थ हैं ॥
९ 'शारदः' (त्रि ), के नया (टटका), डरपोक ( ढिठाई से होन ), शरद् ऋतु में उत्पन्न, ३ अर्थ हैं ॥
१० 'विशारदः' (त्रि ) के विद्वान्, प्रतिभावाला, २ अर्थ हैं ॥ इति दान्ताः शब्दाः |
अथ धान्ताः शब्दाः |
हुए
११ 'न्यग्रोधः' (पु) के व्याम ( अँकवारभर अर्थात् फैलाये हार्थोके घेरेका प्रमाण-विशेष ), बरगद ( बढ़ ) का पेड़, २ अर्थ हैं ॥
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