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अमरकोषः
[प्रथमकाण्डे१ समाहृत्यान्यतन्त्राणि,सङ्क्षिप्तः प्रतिसंस्कृतैः ।
सम्पूर्णमुच्यते वगै मलिङ्गानुशासनम् ॥२॥ २प्रायशो रूपभेदेन साहचर्याच्च कुत्रचित् ।
१ ग्रन्थ-समाप्तिके लिये इष्ट देव 'जिनदेव' का स्मरण कर श्रोता आदिके उत्साहवर्धनार्थ साभिधेय प्रयोजनको कह रहे हैं-'समाहृत्य' । नाम और लिङ्गको बतलानेवाले वररुचि आदिके तन्त्रों ( कोशों) को एकत्रित कर विस्तार के थोड़ा होनेपर भी अधिक अर्थवाले, प्रत्येक पदकी प्रकृति और प्रत्ययोंको विचारपूर्वक संस्कार कर बनाये हुए वर्गों (प्रकरणों) से सम्पूर्ण नाम ( स्वः, स्वर्गः, नाकः, आदि) और लिङ्ग (पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग) को बतलाने वाले इस शास्त्रको मैं कहता हूँ। त्रिकाण्ड-उत्पलिनी भादि कोशोंमें केवल नाम (पर्याय ) बतलाये गये हैं और वररुचि आदिके ग्रन्थों में केवल लिङ्ग बतलाये गये हैं; नामलिङ्गानुशासन' (अमरकोष) नामक इस शास्त्र (ग्रन्थ ) में तो नाम (पर्याय ) और लिङ्ग (पुंल्लिङ्ग..... ) ये सभी बतलाये गये हैं; अतः इसीको पढ़ना चाहिये ।
२ अब 'प्रायशः' इत्यादिसे इस ग्रन्थमें लिङ्गादि जाननेका उपाय (परिभाषा) बतलाते हैं-प्रायः रूप ( आकार ) भेद अर्थात् 'छोप , ङीष् , टाप, विसर्ग और अमादेश' आदिसे लिङ्गों (स्त्रीलिङ्ग, पुंल्लिा और नपुंसकलिङ्ग) को जानना चाहिये। ( उदाहरण-स्त्रीलिङ्ग जैसे-'शिवा भवानी रुद्राणी शर्वाणी सर्वमङ्गल।।' (११३७), यहां 'शिवा और सर्वमङ्गला' इन दो शब्दों के आबन्त होनेसे तथा 'भवानी, रुद्राणी और शर्वाणी' इन तीनों शब्दों के व्यन्त होनेसे 'सु' (प्रथमा विभक्ति एकवचन) का लोप हो गया है। अतएव 'शिवा'.....' पाँचों शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं । क्रमशः पुंल्लिा और नपुंसकलिन जैसे-..... प्रदोषो रजनीमुखम् (४६) यहाँ 'प्रदोष' शब्दकी
१. नाम च लिङ्गं च नामलिङ्गे, तयोरनुशासनमिति नामलिङ्गानुशासनम् । स्वरादिनाम्नां पुंस्त्वादिलिङ्गानां च व्युत्पादकमिति यावत् ।।
२. आदिपदेन यत्र 'वामोरू' इत्यादावूडप्रत्ययः, कृतिरित्यादौ चिन्प्रत्ययश्च तस्य ग्रहणम् । एवञ्च 'लक्ष्मीः' इत्यादौ सुलोपाभावे स्त्रीत्वं 'दधि' इत्यादौ सुलोपेऽपि क्लीबत्वमेवेति
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