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अमरकोषः ।
-१ सूर्यवह्नी विभावसु ॥ २२६ ॥ २ वत्सौ तकवर्षो द्वौ ३ सारङ्गाश्च दिवौकसः । ४ शृङ्गारादौ विषे वीर्ये गुणे रागे द्रवे रसः ॥ २२७ ॥ ५ पुस्युत्तंसावतंसी द्वौ कर्णपूरे च शेखरे ।
देवभेदेऽनले रश्मौ वसू रत्ने धने वसु ॥ २२८ ॥ ७ विष्णौ च वेधाःद स्त्री त्वाशीडिताशंसाद्दिदंष्ट्रयोः । लालसे प्रार्थये १० हिंसा चौर्यादिकर्म च ।। २२९ ।।
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१ 'विभावसुः' (पु) के सूर्य, अग्नि, २ अर्थ हैं ॥
२ 'वत्सः' (५) के गौका बछवा या पुत्र आदि ( बच्चा ), वर्ष, २ अर्थ और 'घत्सम् ' ( न ) का छाती, अर्थ है ॥
३ 'दिवौकसः' ( = दिवौकस् पु) के चातक पक्षी, देवता, २ अर्थ हैं ॥
[ तृतीय काण्डे
४ 'रसः' (पु) के शृङ्गार आदि ( १/७/१७ में उक्त ) नव रस, विष, वीर्य, कसाव आदि ( ११५१९ में उक्त ) छ रस, राग ( जैसे- रसिकस्तरुणः, ), पिघलना, पारा, जल, स्वाद, ९ अर्थ हैं ॥
५ 'उत्तंसः, अवतंसः' (२ पु) के कानका भूषण, भूषणमात्र, २ अर्थ हैं ॥
६ 'वसुः' (पु) के घर आदि आठ वसु ( १ घर, २ ध्रुव, ३ सोम, ४ अहनू ( दिन ), ५ वायु, ६ अग्नि, ७ प्रत्यूष, ८ प्रभास; ये आठ वसु' हैं ), अभि, किरण, राजा, जोती ( जुवाठमें बंधी हुई बैठ के गले में बांधने की रस्सी ), ५ अर्थ; 'वसु' (न) के रश्न, धन, वृद्धि औषध, स्वर्ण, ४ अर्थ और 'वसुः' (त्रि ) का मधुर, १ अर्थ है ॥
७
'वेधाः ' ( = वेधस् पु ) के विष्णु, ब्रह्मा, पण्डित. ३ अर्थ हैं ॥
८ 'आशीः' ( = आशिस खी) के आशीर्वाद, सर्पका दाँत, २ अर्थ हैं ॥
९ 'लालसा' (खी) के प्रार्थना, उत्सुकता, अधिक चाह, याचना, ४ अर्थ हैं ॥
१० 'हिंसा' (स्त्री) के चोरी आदि ( बांधना, डराना ) बुरा काम, मारना, २ अर्थ हैं ॥
१. तदुक्तम्- 'घरो ध्रुवश्च सोमश्च अहश्चैवानिलोऽनलः ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टाविति स्मृताः ॥ १ ॥ इति मा० आ० ६६० -' इति वाचस्पस्म० पु० ४८६३ ॥
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