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अमरकोषः।
[तृतीयकाण्डे
-१ पिशुनौ खलसूचकौ ॥ १२७ ।। २ हीनन्यूनावूनगहों ३ वेगिर्रौ तस्विनौ। ४ अभिपन्नोऽपराद्धोऽभिग्रस्तन्यापद्गतावपि ॥१२८ ॥ ५ "लेख्यं भूम्यादिदानार्थ यातनाऽऽज्ञा च शासनम् (५५) ६ निदानमवसानेऽपि ७ साथै वार्धषिके धनी (५६) ८ कक्षापटेऽपि कौपीनं ९ न ना ज्ञानेऽपि बाधना (५७) १० द्युम्नं बले, 'पिशुनः' (त्रि) के दुष्ट, चुगलखोर, २ अर्थ हैं। . 'हीनः, न्यूनः' (२ त्रि) के कम, निन्दनीय, २ अर्थ हैं । ३ 'तरस्वी' ( = तरस्चिन् त्रि) के वेगवान् , शूरवीर, २ अर्थ हैं ॥
४ 'अभिपन्नः' (त्रि ) के अपराधी, शत्रुसे आक्रान्त, विपत्तिमें पड़ा हुआ, ३ अर्थ है ॥ __ ५ [शासनम्' ( न ) के राजासे मिली हुई भूमि आदि जागीर, शास्त्र (जैसे-'अथ धर्मानुशासनम' यो. सु. ११), माज्ञा, राज्य-लेख्य-भेद, शासन ( दण्ड देना), ५ अर्थ हैं ] ॥
६ [निदानम्' (न) के अवसान ( अन्त ), रोग-निर्णय, आदि कारण, कारणमात्र, कारण समूह, शुद्धि, रोग ७ अर्थ हैं ॥
['धनी' ( =धनिन् पु) के सूदखोर (व्याजपर रुपया देनेवाला महाजन ), बनियोंका झुण्ड, धनवान् , ३ अर्थ है ॥
८ [ 'कौपीनम्' ( न ) के नहीं करने योग्य, गुह्य (लिङ्ग), लंगोटी, ३ अर्थ हैं ] ॥
[ 'बाधना' (सी) के प्रतिरोध (रोक), स्वभाविक ज्ञान, हेत्वाभात. भेद, पीड़ा, न्यायोक्त, ५ अर्थ और पा० भे० से + 'वेदना' (स्त्री) के ज्ञान, दुःख, २ अर्थ हैं ] ॥
१. [ 'द्युम्नम्' (न) के बल, धन २ अर्थ हैं ।।
१ 'ख्यं......लान्छनम्' इत्ययं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यायां मूलमात्रमुपलभ्यते इति प्रकृतोपयोगितयाऽत्र स्थापितः ।
२ 'न ना खेदेऽपि वेदना' इति पाठान्तरम् ।
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