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अमरकोषः ।
[द्वितीयकाण्डे१ व्याधिभेदा विद्रधिः स्त्री ज्वरमेहभगन्दराः। २ "श्लीपदं पादवल्मीकं ३ केशधनस्त्विन्द्रलुप्तकः' (१५) ४ अश्मरी मूत्रकृच्छ्रे स्यात् ५ पूर्वे शुकावधेत्रिषु ।। ५६ ॥ ६ रोगहार्यगवङ्कारो भिषग्वैद्यौ चिकित्सके । ७ वार्तो निरामयः कल्य ८ उल्लाघो निर्गतो गदात् ।। ५७ ॥
विद्रधिः (स्त्री), ज्वरः, मेहः (+ प्रमेहः), भगन्दरः (३ पु), 'पेट आदि कोमल स्थानमें होनेवाला फोड़ा, ज्वर, प्रमेह और भगन्दर' (गुदाके बगल में होने वाला व्रण विशेष) का क्रमशः - नाम है। ये सब 'न्याधि भेद' हैं।
२ [ श्लोपदम्, पादवल्मीकम् ( २ न ), 'पीलपांव' अर्थात् 'जिसमें पैरके घुटने के नीचेका हिस्सा फूलकर बहुल मोटा हो जाय, उस रोग' के २ नाम हैं ] ॥
३ [ के शमः, इन्द्रलुप्तकः (२ न ), 'टुनकी लगना' अर्थात् 'जिसमें 'शिर आदिके बाल झड़कर गिर जाय, उस रोग' के २ नाम हैं ] ॥
४ अश्मरी (स्त्री), मूत्रकृच्छ्रम् (न), 'मूत्रकृच्छु' अर्थात् 'जिससे पेशाब करने में अत्यन्त कष्ट हो, उस रोग' के २ नाम हैं।
५ यहांसे आगे 'शुकम्' (२१६६१) के पहलेवाले सब शब्द त्रिलिङ्ग हैं ।
६ रोगहारी ( = रोगहारिन् ), अगदङ्कारः, भिषक (= भिषज), वैद्यः, चिकित्सकः ( ५ पु), 'वैद्य डाक्टर, कविराज, हकीम आदि दवा करने वाले के ५ नाम हैं । ( "ती. स्वा० मतसे 'रोगहारी, अगदङ्कारः' ये २ नाम 'औषध' के भी हैं")॥ ____७ वार्तः ( + वान्तः ), निरामयः, कल्यः (+ नीरोगः । ३ त्रि), महे. मतसे 'नीरोग' के ३ नाम हैं ॥
८ उल्लाघः (त्रि), महे• मतसे 'रोगसे शीघ्र ही छुटे हए' का , नाम हैं । ("भा० दो० मनसे 'वार्तः,......' ४ नाम 'नीरोग' के हो हैं")॥
१. अयं क्षेपकांशः क्षी० स्वा० व्याख्यायामुपलभ्यत इत्यवधेयम् ॥
२. 'वान्तो निरामयः' इति पाठान्तरम् । अत्र मूलपाठ एव युक्तः, अग्रे ( नानार्थवर्गे) 'वात फरगुन्यरोगे च त्रिषु' ( ३१३१७६ ) इति स्वयं वक्ष्यमाणस्वात , '-वातै खारोग्यारोग. फल्गुषु' (अने० संग्र० २११९४ ) इति ईमोक्तश्चेत्यवधेयम् ॥
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