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४५२ अमरकोषः।
[ तृतीयकाण्डे१ निघताचाश्रयावानी शस्त्राभेदां च धर्म यत् ॥ ८४ ॥ २ जाताना म्युरुच्छिता ३ उत्थिताम्त्वमी।
वृद्धि नाचलो . सातो सादराचिंती ।। ८५ ॥ ५ कर्मवो विगति ६र्गदम्युल्बणे तृणे (४३) ७ ऋलनुञ्छशिले रूत्ये शोभनेऽपि विवक्षितम् (४४) ८ उदास्थितः प्रतीहारे चरभेदे ९ समाहितः (४५)
ध्यानस्थे चाप्य १० नीकस्थो गजलक्षणवेदिनि (४६) ११ श्रद्धारचनयाभक्तिर्गौण्यां वृत्ती च सेवने (१७)
१ निवात.' (त्रि) के निवासस्थान, वायुसे रहित देश-स्थान आदि, हथियारसे अभेद्य कवच, ३ अर्थ हैं ॥
२ 'उच्छ्रितः' (त्रि) के उत्पन्न, अभिमानी, बढ़ा हुआ, ३ अर्थ हैं ।
३ 'उत्थितः' (त्रि) के वृद्धिवाला, प्रवृत्त ( लगा हुआ, तैयार ), उत्पन्न, ३ अर्थ हैं।
४ 'आरतः' (त्रि) के सत्कारसे युक्त, आदर पाया हुआ, २ अर्थ हैं । ५['गतिः' (स्त्री) के कर्म-विपाक, गमन, २ अर्थ हैं ] ॥ ६ [ 'गर्मुत्' (पु) के सोना, स्पष्ट, तृण; ३ अर्थ हैं ] ॥
७ ['ऋतम्' (न) के उच्छशिल (खेत या खलिहान आदिसे अन्नका १-१ दाना चुंगना), सत्य, सुन्दर, ३ अर्थ हैं ] ॥
6 [ उदास्थितः' (पु) का प्रतीहार(द्वार),दूत-विशेष, अध्यक्ष, ३ अर्थ हैं।
९ ['समाहितः' (त्रि) के ध्यानमें मग्न, आहित, प्रतिज्ञात, समाधान करनेबाला, ४ अर्थ हैं ] ॥
१० [अनीकस्थः' ('पु) के युद्ध में स्थित, हाथी के लक्षणों को जाननेपाला, राजरक्षक, ३ अर्थ हैं ] ॥
११ ['भक्तिः' (स्त्री) के श्रद्धा, रचना-विशेष, गौणी वृत्ति, सेवा करना, ५ अर्थ हैं ] ।
१. 'कर्मविपावेऽपि...."स्थितिः' इत्यरं क्षेपकांशः क्षी० म्वा० व्याख्यायां दुर्गवचनत्वे. नोपलभ्यत इति प्रकृतोपयोगितयात्र क्षेपकत्वेन निहितः।
२. तान्तशब्देषु थान्तशब्दपठनमनुचितं प्रतिभाति ।। ३. थकारान्तः कथमुक्तः क्षी० स्वा० ॥
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