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[ २३ ] या०स्मृ०या याज्ञस्मृ०-याज्ञवल्क्यस्मृति अ०-अध्याय मनु या मनुस्मृ०-मनुस्मृति
चतु० चिन्ता-चतुर्वर्गचिन्तामणि सा. ३०-साहित्यदर्पण
दा० खं०- दानवण्ड गी--श्रीमद्भगवद्गीता
वृ० रत्ना०-वृत्तरत्नाकर वि० पु०-विष्णुपुराण वै०सि० म०-वैयाकरणसिद्धान्त लघु
वीर० राजप्रक०-वीरमित्रोदयराजमन्जूपा
प्रकरण सु. श्रु० क० रथा-सुश्रुत कल्पस्थान कु. सं०-कुमारसम्भव मा. नि.-माधवनिदान वाचस्प०-वाचस्पत्याभिधान भने० सं०-अनेकार्थसंग्रह नि० सिं०-निर्णय सिन्धु मे. या मेदि०-मेदिनी कोष रघु०--रघुवंश पृ.-पृष्ठ
*, + + $, इत्यादि चिह्न टिप्पणीके श्लो०-श्लोक
प्रतीक हैं। देखनेका प्रकार-१ जिस शब्दके बाद जो संकेत है, उसीके साथ उस संकेतका सम्बन्ध है । २ संख्यासहित संकेतका पहलेवाले इतने शब्दों के साथ सम्बन्ध है । ३ कहीं-कहीं एक ही शब्द में एकाधिक भी संकेत हैं। ४ नामके अन्तमें लिखी हुई संख्या में पाठान्तर, कोषान्तर भादिके कोष्ठमध्यगत पर्यायोंकी गणना नहीं है। उदाहरण-'स्वः (= स्वर् , अ०), स्वर्गः, नाका, त्रिदिवः, त्रिदशालयः सुरलोकः (५ पु), चौः ( = घो); घोः ( = दिन् । २ स्त्री), 'त्रिविष्टपम्' (न । + त्रिपिष्टपम् ), 'स्वर्ग के ९ नाम है", यहाँ पर 'स्व' के प्रातिपदिकावस्थाका शुद्ध रूप 'स्वर' है और यह अव्यय है । 'स्वर्ग' श्रादि पाच शब्द पुंलिंग हैं। पहले 'चौः' के प्रातिपदिकावस्थाका शुद्ध रूप 'वो' और दूसरे के प्रातिपदिकावस्थाका शुद्ध रूप 'दिव्' है, तथा ये दोनों शब्द 'सीलिंग' हैं । 'त्रिविष्टप' शब्द नपुंसक है, मतान्तरसे 'त्रिविष्टपम्' यह भी पर्याय है। 'स्व' आदि ९ नाम 'स्वर्ग' के हैं, इसमें 'त्रिपिष्टपम्' की गणना नहीं है। इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये ।
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