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अमरकोषः।
[तृतीयकाग्रे१ विष्टरो विटपी दर्भमुष्टिः पीठाद्यमासनम् । २ द्वारि द्वाःस्थे प्रतीहारः प्रतीहार्यप्यनन्तरे ।। ७० ॥ ३ विपुले नकुले विष्णौ बभ्रुर्ना पिलले त्रिषु । ४ सारो बले स्थिरांशे च न्याय्ये क्लीवं वरे त्रिषु ॥ १७१ ॥ ५ दुरोदरो द्यूतकारे पणे धुते दुरोदरम्। ६ महारण्ये दुर्गपथे कान्तारं पुनपुंसकम् ।। ६७२ ॥ ७ मत्सरोऽन्य शुभद्वेषे तद्वत्कृपणयोनिषु । ८ देवावृते वरः श्रेष्ठे त्रिषु फली मनाविप्रये ॥ १७३ ।।
, 'विष्टरः' (पु) के पेड़, कुशाकी मुट्ठी (जिसमें २५ कुशा हो), पीढ़ा (पाटा) मृगचर्म नादि भाप्सन, ३ अर्थ हैं।
२ 'प्रतीहारः' (पु) के द्वार, द्वारपाल, २ अर्थ और 'प्रतीहारी' (बी) का द्वारपालिका, १ अर्थ है ॥
३ 'बभ्रः' (पु) के बड़ा, नेवला, विष्णु, मुनि, ३ अर्थ और 'बभ्रु' (त्रि) के पिङ्गल वर्णवाला ( भूभर ), अग्नि, शूली, ३ अर्थ हैं।
४ 'सार' (पु) के बल, स्थिरअंश, ( सारिल लकड़ी आदि), २ अर्थ, 'सारम' (न ) का न्याययुक्त, । अर्थ और 'सार' (त्रि) का उत्तम, अर्थ है।
५ 'दुरोदर" ( + दरोदरः। 5 ) के चुत कार ( नालदार अर्थात् जुभा खेलानेवाला), दाव, २ अर्थ और 'दुरोदरम' (न ) का जुभा, १ अर्थ है ।
६ 'कान्तारः' (पु न ) के बड़ा जङ्गल, कठिन रास्ता, बिल, ३ अर्थ हैं ।
७ 'मत्सरः' (पु) का दूसरेकी उन्नति आदि शुभ कर्मों से द्वेष करना, १ अर्थ और 'मत्सरः' (त्रि) के दूसरेकी उन्नति आदि शुभ कर्मों से द्वेष करनेवाला, कृपण, २ अर्थ हैं।
८ 'बरः' (पु) के वरदान (देवता आदि से प्राप्त सभीप्सित फल ), दामाद, विट, ३ अर्थ; 'वरः' (त्रि) का श्रेष्ठ, " अर्थ और 'घरम्' (न । + अध्य० क्षो.) का थोबा प्रिय (जैसे-'वरं कृपशताद्वापी,........), १ अर्थ है।
१. 'विष्टरप्रमाणं यथा-'भवेरपञ्चाशता ब्रह्मा तदर्दैन तु विष्टर' । इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org