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प्रकरणम् ]
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भावानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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११
रविशेषात् । वक्तृप्रामाण्यानुसरणन्तु स्वरूपविपर्यासहेतोर्दोषस्याभावावगमाय । प्रत्यक्ष इव स्वकारणशुद्धेरनुगमो विपर्य्यासशङ्कानिरासार्थ इत्येषा दिक् । विस्तरस्त्वद्वयसिद्धौ द्रष्टव्यः ।
ननु कार्येऽर्थे शब्दस्य प्रामाण्यं न स्वरूपे, वृद्धव्यवहारेष्वन्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्य्यान्वितेषु पदानां शक्त्यवगमात् । अतो वेदान्तानां न स्वरूपपरतेति दोनों शब्दों के सामर्थ्य में कोई अन्तर नहीं है । ( प्रमात्व के ) स्वरूप के विपर्यासरूप अप्रमात्व के प्रयोजक दोषों के अभाव को जानने के लिए ही लौकिक वाक्यों में वक्ता के प्रामाण्य का अनुसन्धान किया जाता है । जैसे प्रत्यक्ष में स्वरूप विपर्यास, अर्थात् अप्रमत्व की शङ्का को हटाने के लिए उसके कारणों की शुद्धि का अनुसन्धान किया जाता है । यह केवल इस विषय का दिग्दर्शन मात्र है इसका विशेष विचार हमारे 'अद्वयसिद्धि' नामक ग्रन्थ में देखना चाहिए ।
( प्र०) कोई ( प्रभाकर ) कहते हैं कि काय्र्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही शब्द की शक्ति है । 'स्वरूप' अर्थात् कार्यत्व से असम्बद्ध केवल अर्थ में ही नहीं । क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक से वृद्धों से व्यवहृत कार्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही शक्ति गृहीत होती है' । अतः वेदान्त वाक्य भी 'स्वरूप' अर्थात् कार्य्यत्व से असम्बद्ध अर्थ के बोधक नहीं है" ।
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'साधकतम ' करण नहीं है । एवं यथार्थानुभव से उत्पन्न स्मृति अप्रमा न होती हुई भी प्रमाणजन्य न होने के कारण प्रमा नहीं है । जिस यथार्थानुभव से उत्पन्न होने के कारण जिस स्मृति में प्रमात्व की सम्भावना है, उस यथार्थ पूर्वानुभव का करण उस स्मृतिविषय-विषयक उसी यथार्थानुभव को उत्पन्न करने के कारण तज्जनित स्मृति की उत्पत्ति के समय में ज्ञातज्ञापक हो जाता है । सुतरां उससे स्मृति में प्रमात्व की सम्भावना नहीं हैं । तस्मात् उक्त स्मृति में अयथार्थभिन्नत्वप्रयुक्त कदाचित् प्रमात्व का गौण व्यवहार हो भी, तथापि उसके करण प्रमाणत्व के व्यवहार की सम्भावना नहीं है ।
For Private And Personal
१. शब्द की शक्ति को ग्रहण करने की स्वाभाविक रीति यह है कि जिस स्थल में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कहता है कि 'मामानय', अर्थात् गाय ले आओ, अथवा 'गां बन्धय' अर्थात् गाय को बाँध दो । तब यह व्यक्ति गाय को ले जाता है या बाँध देता है । अगर उस स्थान पर कोई ऐसा व्यक्ति खड़ा रहता है जिसे 'आनय' या 'बन्ध' रूप क्रियापद के अर्थ का ज्ञान है किन्तु उस क्रिया के कर्म के बोधक 'गाम्' इस पद के अर्थ का ज्ञान नहीं है, वह व्यक्ति अनायास ही जिस व्यक्ति को लाया या बाँधा गया देखता है, उस व्यक्ति को गोपद का अर्थ समझ लेता है । तब फिर दूसरे समय आनयनादि काय्यों को छोड़कर केवल 'गो' प्रभृति अर्थों में गोपद की शक्ति कैसे गृहीत हो सकती है ?
२. अर्थात जिस " अशरीरम्" इत्यादि वेदान्तवाक्य को आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिरूप मोक्ष