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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
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प्रशस्तपादभाष्यम् विभागौ । मूर्तत्वात्परत्वापरत्वे संस्कारश्च । अस्पर्शववाद् द्रव्यानारम्भकत्वम् । क्रियावत्वान्मृतत्वम् । साधारणविग्रहवत्त्वप्रसङ्गादज्ञत्वम् । की इस उक्ति से मन में संयोग और विभाग भी सिद्ध हैं । यतः इसमें मूर्त्तत्व है, अतः परत्व, अपरत्व और ( वेगाख्य ) संस्कार भी हैं। यत: इसमें स्पर्श नहीं है, अतः यह किसी द्रव्य का समवायिकारण भी नहीं है। यतः इसमें क्रिया है, अतः इसमें मूर्त्तत्व भी है। मन चेतन नहीं है, क्योंकि मन को चेतन मान लेने पर
___ न्यायकन्दली कारितानि" इति सूत्रेण मनसः पूर्वशरीरादपसर्पणं शरीरान्तरे चोपसर्पणञ्चादृष्टकारितमित्युक्तम्, तस्मादस्य संयोगविभागौ सिद्धौ । मूर्त्तत्वात्परत्वापरत्वे संस्कारश्च । विभवाभावान्मूर्त्तत्वं सिद्धं तस्माद् घटादिवत् परत्वापरत्ववेगाः सिद्धाः । अस्पर्शवत्त्वाद् द्रव्यानारम्भकत्वम् । अस्पर्शवत्त्वं मनसः शरीरान्यत्वे सति सर्वविषयज्ञानोत्पादकत्वादात्मवत् सिद्धम्, तस्माच्चात्मवदेव सजातीयद्रव्यानारम्भकत्वम् । क्रियावत्त्वान्मूर्त्तत्वमिति। अणुत्वप्रतिपादनान्मूतत्वे सिद्धेऽपि विस्पष्टार्थमेतदुक्तम् । साधारणविग्रहवत्त्वप्रसङ्गादज्ञत्वम् । यदि ज्ञातृ मनो भवेच्छरीरमिदं साधारणमुपभोगायतनं स्यात् । न चैवम्, एकाभिप्रायानुरोधेन तस्य सर्वदा प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात्, तस्मादशं मनः। चैतन्ये निषिद्धेऽपि प्रक्रमात् में जाना ये दोनों ही अदृष्ट से होते हैं, अतः मन में संयोग और विभाग को सिद्धि होती है। चूंकि मन में मूर्तत्व है, अतः परत्व, अपरत्व और (वेगाख्य) संस्कार भी हैं । विभुत्व के न रहने पर ही मन में मूतत्व सिद्ध है। मूर्तत्व हेतु से घटादि की तरह मन में परत्व, अपरत्व और वेग ( संस्कार ) ये तीनों भी सिद्ध होते हैं। चूंकि मन में स्पर्श नहीं है, अतः वह किसी द्रव्य का समवायिकारण भी नहीं है। मन में स्पर्श इसलिए नहीं है कि शरीर से भिन्न होने पर भी आत्मा की तरह ज्ञान का कारण है, एवं आत्मा की तरह ही अपने सजातीय द्रव्य का अनारम्भक है। चूंकि मन में क्रिया है, अतः मूर्तत्व भी है। यद्यपि उसमें अणु परिमाण के कह देने से ही मुर्तत्व भी सिद्ध हो जाता है, फिर भी और स्पष्ट करने के लिए किया रूप हेतु का भी उपादान किया है। 'वह अज्ञ ( अचेतन ) इस लिए है कि ( उसको चेतन मानने पर ) 'साधारणविग्रहवत्त्व' प्रसङ्ग होगा'। अभिप्राय यह है कि मन में अगर ज्ञान ( चैतन्य ) मान लिया जाय तो शरीर जो केवल आत्मा के ही भोग का आयतन' है, उसे आत्मा और मन दोनों के ही भोग का 'आयतन' मानना पड़ेगा, किन्तु शरीर की प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दोनों ही एक ही व्यक्ति के अनुरोध से देखी जाती हैं, अतः मन 'अज्ञ' (चेतन नहीं) है। यद्यपि मन के
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