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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्य
ने उपमानान्तर्भाव
न्यायकन्दली
प्रत्येकं परिसमाप्तत्वेऽपि सादृश्यं यद्यपि गवयग्रहणाभावाद् गवयसदृश इति गवि पूर्व प्रतीतिर्नासीत्, तथापि स्वाश्रयसन्निकर्षमात्रभाविनी सादृश्यप्रतीतिरुचितेव। यथा प्रतियोग्यन्तराग्रहणात् तस्मादिदं दीर्घमिदं ह्रस्वमिति प्रतीत्यभावेऽपि स्वाश्रयप्रत्यासत्तिमात्रेण परिमाणस्य स्वरूपतो ग्रहणम् । कथमन्यथा देशान्तरगतः प्रतियोगिनं गृहीत्वा अस्मात् तद्दीर्घ ह्रस्वमिति व्यवस्यति ।
यदि गवि पुरा सादृश्यमिन्द्रियापातमात्रेण न गृहीतम् ? सम्प्रत्यपि गवये न गृह्यते, गवयदर्शनादेव गव्येव च स्मरणमित्युभयनियमो न स्यादविशेषात् । यावतां खुरलाङ्कलित्वादिसामान्यानां गवि ग्रहणम्, तावतामेव गवयेऽपि ग्रहणात् स्मरणनियम इति चेत् ? भूयोऽवयवसामान्यान्येवोभयवृत्तित्वात् सादृश्यम् । तानि चेत् प्रत्येकमाश्रयग्रहणेन गृह्यन्ते, गृहीतमेव सादृश्यम् । तस्माद्
यद्यपि सादृश्य अपने प्रत्येक आश्रय में स्वतन्त्र रूप से ही रहता है, फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि गवय को देखने से पहिले उसका ज्ञान न रहने के कारण (गो प्रत्यक्ष के समय ) गो में 'यह गवय के समान है' इस आकार की प्रतीति नहीं थी, तथापि केवल सादृश्य के आश्रयीभूत गवय मे चक्षु के संनिकर्ष से, (फलतः ज्ञानलक्षण सन्निकर्ष से सादृश्य का प्रत्यक्ष सम्भव न होने पर भी स्वसंयुक्तसमवाय सम्बन्ध से ही) मादृश्य का ग्रहण होना अनुचित नहीं है। जैसे कि दीर्घत्वादि के आश्रयीभूत दण्डादि आश्रय जहाँ प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत रहते हैं, एवं इन दीर्घत्वादि परिमाणों के दूसरे अवधि द्रव्यों का ज्ञान नहीं रहता है, ऐसे स्थलों में यह इससे दीर्घ है या 'यह इससे छोटा है, इत्यादि विशिष्ट प्रतीतियाँ यद्यपि नहीं होती हैं, फिर भी 'यह दीर्घ है' या 'यह ह्रस्व है' इत्यादि आकारों से स्वरूपतः केवल परिमाण का ग्रहण तो होता ही है, यदि ऐसी बात न हो तो दूसरे देश में जाकर वह उसके दूसरे अवधि रूप प्रतियोगी को जब वेख लेता है, उसके बाद 'यह उस दम्ब से बड़ा या छोटा है' इस प्रकार की जो प्रतीति होती है, वह कैसे होगी ?
(प्र०) गी में यदि गोत्व की तरह गवय का सादृश्य भी रहता तो गवय को देखने से पहिले भी गो में इन्द्रिय सम्बन्ध के होते ही गवय के सादृश्य की भी प्रतीति हो जाती, सो नहीं होती है ? (उ०) गवय के प्रत्यक्ष के समय भी तो गो में उस सादृश्य की प्रतीति नहीं होती है। अतः यह दोनों नियम नहीं किये जा सकते कि उक्त सादृश्य को प्रतीति (१) गवय-प्रत्यक्ष से ही उत्पन्न होती है और (२) गो में ही उत्पन्न होती है । क्योंकि इससे विपरीत कल्पना के भी लिए स्थिति समान है । (प्र०) खुर पूछ प्रभृति जितने धर्मों का पहिले गो में ग्रहण हो चुका है, उतने का ही जब गवय में भी ग्रहण होता है तभी गो में गवय सादृश्य का स्मरण होता है, ऐसे नियम की कल्पना करेंगे । ( उ०)
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