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प्रकरणम् ] भाषांनुवादसहितम्
५४६ न्यायकन्दली कार: ? निवृत्तो हि तद्वस्त्वनुपलम्भस्तस्योपलभ्भेन । न चानुपलम्भः पूर्वमासीदिति सम्प्रत्यविद्यमानोऽपि प्रतीतिहेतुः, प्रनष्टेन्द्रियस्यापि विषयग्रहणप्रसङ्गात् । अद्यतनेन तूपलम्भेनाद्यतनानुपलम्भस्तस्य निवर्तितः, प्राक्तनानुपलम्भस्त्वस्त्येव । तेन प्राक्कालीनाभावपरिच्छेदयोग्येन प्राक्तनाभावः परिच्छिद्यत इति चेत् ? अहो पाण्डित्यम् ? अहो नेपुण्यम् ? अनुपलम्भ उपलम्भप्रागभावः, स च वस्तुत्पत्त्यधिरेक एव न प्राक्तनाद्यतनकालभेदेन भिद्यते, तत्राद्यतनानुपलम्भो निवृत्तः, प्राक्तनो न निवृत्त इति कः कुशाग्रीयबुद्धेरन्य इममतिसूक्ष्मविवेकमवगाहते । तस्मादभावोऽभावेनैव परिच्छिद्यत इति न बुद्धधामहे ।
कथं तहि स्वरूपमात्रं गृहीत्वा स्थानान्तरगतस्य स्मर्यमाणे प्रतियोगिन्यभावप्रतीतिः ? अनुमानात्, यो हि यस्मिन् स्मर्यमाणे स्मृतियोग्यः इस प्रकार का ज्ञान होता है कि 'उस अधिकरण में उस समय यह वस्तु नहीं थी' वहाँ ( अनुपलब्धि को प्रमाण माननेवाले ) आप क्या प्रतीकार करेंगे ? अर्थात् यहाँ अभाव का ग्रहण किससे होगा ? क्योंकि यहाँ वर्तमान काल के प्रतियोगी की उपलब्धि से प्रतियोगी को भूतकालिक अनुपलब्धि नष्ट हो चुकी है। (प्र०) उस अधिकरण में उस वस्तु की अनुपलब्धि तो पहिले से ही थी, किन्तु उसका ज्ञान भर नहीं था; वही (भूतकालिक) अनुपलब्धि वर्तमान काल में उपलब्धि के द्वारा नष्ट हो जाने पर भी उस अधिकरण में उस वस्तु के अभाव का ग्राहक होगी। (उ०) यह समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य के अव्यवहित पूर्वक्षण में न रहने पर भी यदि भूत काल में कभी रहने से ही कोई किसी का उत्पादन कर सके, तो फिर जिसे कभी इन्द्रिय थी और अभी वह नष्ट हो गयी है, ऐसे व्यक्ति को भी रूपादि का प्रत्यक्ष होना चाहिए । (प्र.) आज की किसी वस्तु की उपलब्धि से आज की ही उस वस्तु की अनुपलब्धि विनष्ट होगी, उससे पूर्व की अनुपलब्धि नहीं, अतः पूर्वकाल की उस विषय को अनुपलब्धि तो इस ( उपलब्धि के ) समय भी है ही, इस अनुपलब्धि का तो विनाश नहीं हुआ है। पूर्वकालिक इसी अनुपलब्धि के द्वारा पूर्वकालिक उस वस्तु के अभाव का निश्चय होगा । (उ०) इस पाण्डित्य और निपुणता का क्या कहना ? (यह आप नहीं समझते कि ) अनुपलब्धि शब्द का अर्थ है उपलब्धि का प्रागभाव । वह अनादि काल से अपने प्रतियोगी की उत्पत्ति के समय तक बराबर रहनेवाली एक ही वस्तु है। वह वर्तमान काल और भूतकाल के भेद से भिन्न नहीं हो सकती। अतः प्रकृत में पूर्वकालिक अपलब्धि का नाश नहीं हुआ है, और एतत्कालिक अनुपलब्धि का नाश हो गया है, इस भेद को किसी कुशाग्रबुद्धि महापुरुष को छोड़कर और कौन समझ सकता है ? तस्मात् हम लोग इस बात को नहीं समझ पाते कि ( अनुपलब्धि रूप ) अभाव से ही अभाव का ग्रहण होता है।
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