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न्यायकन्दलीसंवलिप्तप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे मोल
न्यायकन्दली बाह्येन्द्रियव्यापारोपरमात् । तत्र कः संभवः कर्मणाम् ? तथा च श्रुतिः-'न शृणोतीत्याहुरेकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकोभवतीत्यादि' । तदा चाकरणनिमित्तः प्रत्यवायोऽपि नास्ति सन्ध्येयमुपस्थितेत्यादिकमजानतो ब्राह्मणोऽस्मीति प्रतीतिरहितस्य कर्माधिकारपरिभ्रंशात् । यथोक्तम्
ब्राह्मणत्वानहमानी कथं कर्माणि संसृजेत् ॥ इति । न चास्योपरतसमस्तव्यापारस्य काष्ठवदवस्थितस्यापि प्राणिहिंसापि संभवति । यत् पुनरस्य दृष्टद्रष्टव्यस्य क्षीण तव्यस्य वशीकृतमनसो विषयावबोधस्मरणसंकल्पसुखदुःखबहिष्कृतस्य ब्रह्मलग्नसमाधेरपि शरीरं कियन्तञ्चित ( कालमनुवर्तते ) तच्छरीरस्थितिमात्रहेतोरायविपाकस्य कर्मग्रन्थेरनुच्छेदात् । यदा तु यावन्तं कालमायुविपाकेन कर्मणा शरीरं धारयितव्यं तावत्कालप्राप्तिरभूत्, तदा स्वकार्यकरणात् कर्मसमुच्छेदे तत्कार्यस्य शरीरस्य निवृत्तिः।
विनाश हो गया है। जिस आत्मज्ञान की उत्पत्ति एकाग्र अन्तःकरण से होता है। ऐसे आत्मज्ञानवाले पुरुष को केवल आत्मा का ही ज्ञान उस समय होता है। बाह्य किसी विषय का भान उन्हें नहीं रह जाता, क्योंकि बाह्य विषयों के साथ उनकी इन्द्रियों का सम्बन्ध हो नहीं रह जाता है। ऐसी स्थिति में उनसे कर्म सम्पादन की कौन सी आशा की जा सकती है ? इसी स्थिति को अति ने 'न शृणोतीत्याहुरेकीभवति' इत्यादि वाक्यों से कहा है। उस समय उनसे विहित कर्मों का अनुष्ठान न होने पर भी उन्हें प्रत्यवाय नहीं होता। क्योंकि जिन्हें कर्माधिकार का सूचक 'अभी सन्ध्या उपस्थित हो गयी, मैं ब्राह्मण हूँ' इत्यादि ज्ञान नहीं है, उनका कर्म करने का अधिकार भी छूट जाता है। जैसा कहा गया है कि-- - 'मैं ब्राह्मण हूँ' जिनको इस प्रकार का अहङ्कार नहीं है, वे ब्राह्मणोचित कर्म के साथ कैसे सम्बद्ध हो सकते हैं ?
इस प्रकार सभी कर्म छूट जाने के कारण जो काठ की तरह हो गये हैं, उनसे किसी भी प्राणी की हिंसा सम्भव नहीं है। जिन्होंने जानने योग्य सभी विषयों को जान लिया है, छोड़ने योग्य सभी विषयों को छोड़ दिया है । जिन्होंने मन को वशीभूत कर विषयों के अनुभव, स्मरण, संकल्प, सुख एवं दुःख सभी से छुटकारा पा लिग है, वे यदि ब्रह्म के ध्यान में समाधिस्थ भी हैं तथापि उनकी शरीर की अनुवृत्ति जो थोड़े समय के लिए भी चलती है, उसका कारण वह कर्मग्रन्थि रूप विपाक है जो केवल शरीर स्थिति का ही कारण है। जितने समय के आयु तक उक्त कर्मविपाक से शरीर की स्थिति आवश्यक है, वह समय जब समाप्त हो जाता है, तब अपना कर्त्तव्य समाप्त होने के कारण कर्म भी समाप्त हो जाता है । कर्म की समाप्ति से शरीर की समाप्ति, और शरीर की समाप्ति से तत्त्वज्ञान की भी समाप्ति हो जाती है, जिससे आत्मा को कैवल्य प्राप्त होता है।
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