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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [समवायनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् योगाचारविभूत्या यस्तोषयित्वा महेश्वरम् । चक्रे वैशेषिकं शास्त्रं तस्मै कणभुजे नमः ॥ इति प्रशस्तपादविरचितं द्रव्यादिपट
पदार्थभाष्यं समाप्तम् ॥ योग के अभ्यास से उत्पन्न अपनी विभूति के द्वारा उन्होंने महेश्वर को प्रसन्न कर वैशेषिकशास्त्र का निर्माण किया, उन कणाद ऋषि को मैं प्रणाम करता हूँ। प्रशस्तपाद के द्वारा रचित छ: पदार्थों के प्रतिपादक वैशेषिक सूत्रों का यह
भाष्य समाप्त हुआ।
न्यायकन्दली यदि समवायविषयमैन्द्रियकं संवेदनमस्ति ? सम्बन्धाभावाभिधानं प्रलापः । अथ नास्ति, तदेव वाच्यमित्यत्राह-स्वात्मगतसंवेदनाभावाच्चेति । यथेन्द्रियेण संयोगप्रतिभासो नैवं समवायप्रतिभासः, सम्बन्धिनोः पिण्डीभावोपलम्भात्, अतोऽयमप्रत्यक्षः । उपसंहरति-तस्मादिति ।।
परस्परोपसंश्लेषो भिन्नानां यत्कृतो भवेत् ।
समवायः स विज्ञेयः स्वातन्त्र्यप्रतिरोधकः ।। इति भट्टश्रीश्रीधरकृतायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां
__ समवायपदार्थः समाप्तः॥ ज्ञान होता है ? तो फिर यह कहना प्रलाप सा ही है कि अपने सम्बन्धियों के साथ उसका (प्रत्यक्ष के उपयुक्त ) सम्बन्ध नहीं है । यदि इन्द्रियों से उसका ज्ञान नहीं होता है, तो फिर यही कहिए कि समवाय अतीन्द्रिय है। इसी प्रश्न के उत्तर में 'स्वात्मगतसंवेदनाभावाच्च' यह वाक्य लिखा गया है। अर्थात् जिस प्रकार इन्द्रियों से संयोग का ग्रहण होता है, उस प्रकार इन्द्रियों से समवाय का ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि उसके दोनों सम्बन्धियों की उपलब्धि ऐक्यबद्ध होकर ही होती है ( अर्थात् सम्बन्धियों में समवाय की सत्त्व दशा में सम्बन्धियों कीपृथक् से उपलब्धि नहीं होती है, किन्तु सम्बन्ध के प्रत्यक्ष के लिए उसके दोनों सम्बन्धियों का स्वतन्त्र रूप से प्रत्यक्ष होना आवश्यक है, सो प्रकृत में नहीं होता है), अतः समवाय अतीन्द्रिय है। 'तस्मात्' इत्यादि से इसी प्रसङ्ग का उपसंहार किया गया है।
अपने सम्बन्धियों के स्वातन्त्र्य को अपहरण करनेवाला वही सम्बन्ध 'समवाय' कहलाता है, जिससे परस्पर भिन्न दो वस्तुओं का परस्पर अति नैकट्य का सम्पादन हो । भट्ट श्री श्रीधर के द्वारा रचित और पदार्थ को समझानेवाली न्यायकन्दली
टीका का समवायनिरूपण समाप्त हुआ।
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