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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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सुवर्णमयसंस्थानरम्या सर्वोत्तरस्थितिः । सुमेरोः शृङ्गवीथीव टीकेयं न्यायकन्दली ॥ १ ॥ अक्षीणनिजपक्षेषु ख्यापयन्ती गुणानसौ । परप्रसिद्ध सिद्धान्तान् दलति न्यायकन्दली ॥ २ ॥ आसीद् दक्षिणराढायां द्विजानां भूरिकर्मणाम् । भूरिसृष्टिरिति ग्रामो भूरिश्रेष्ठिजनाश्रयः ॥ ३ ॥ अम्भोराशेरिवेतस्माद् बभूव क्षितिचन्द्रमाः । जगदानन्दनाद् वन्द्यो बृहस्पतिरिव द्विजः ॥ ४ ॥
तस्माद् विशुद्धगुणरत्नमहासमुद्रो विद्यालतासमवलम्बनभूरुहोऽभूत् । स्वच्छायो विविधकीत्तिनदीप्रवाहप्रस्पन्दनोत्तमबलो बलदेवनामा ॥ ५ ॥
तस्याभूद् भूरियशसो विशुद्धकुलसम्भवा । अब्बोकेर्त्यचतगुणा गुणिनो गृहमेधिनी ॥ ६॥
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( १ ) यह 'न्याय कन्दली' टीका सुमेरु के शृङ्गों की पङ्क्तियों की तरह मनोरम है, क्योंकि सुमेरु के शृङ्ग भी सुवर्ण (हिरण्य) के संस्थानों से रचित होने के कारण रमणीय हैं । यह टीका भी सुवर्णों अर्थात् सुन्दर अक्षरों के विन्यास से रचित होने के कारण अति रमणीय है । सुमेरु का शृङ्ग भी सभी वस्तुओं की अपेक्षा उत्तर दिशा में रहने के कारण 'सर्वोत्तर स्थिति' है । यह टीका भी ( प्रशस्तपाद भाष्य की ) अन्य टीकाओं से उत्कृष्ट होने के कारण 'सर्वोत्तरस्थिति' अर्थात् सर्वातिशायिनी है ।
( २ ) इस टीका का नाम 'न्यायकन्दली' इस लिए है कि इसमें कथित न्याय अपने सिद्धान्तों की पूर्ण रक्षा और विरोधी सिद्धान्तों का सम्यक् रूप से 'दलन' करते हैं । ( ३ ) राढ़ देश के दक्षिण भाग में 'भूरिसृष्टि' नाम का एक गाँव था, जिसमें अनेक सत्कर्मों के अनुष्ठान करनेवाले ब्राह्मणों का एवं अनेक सेठों का निवास था । चन्द्रमा स्वरूप एवं बृहस्पति के समान ( बुद्धिउत्पन्न आकाश के चन्द्रमा की तरह विश्व के के वन्दनीय थे ।
( ४ ) इसी गाँव में पृथ्वीतल के मान् ) एक द्विज उत्पन्न हुए जो समुद्र से सभी प्राणियों को सुख देने के कारण सभी
( ५ ) उन्हीं से अनेक प्रकार के यशों की नदी के सतत गतिशील प्रवाह से प्राप्त उत्कृष्ट बल से युक्त ( होने के कारण ) अन्वर्थ नाम के निर्मल अन्तःकरणवाले 'बलदेव' उत्पन्न हुए, जो विद्या रूपी लता के आश्रयीभूत वृक्ष के समान एवं विशुद्ध अनेक सद्गुण रूपी रत्नों के ( आकर ) महासमुद्र के समान थे ।
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( ६ ) अत्यन्त यशस्वी और गुणी उन्हीं ( बलदेव ) की अत्यन्त कुलीना, गुणानुरागिणी एवं गृहकार्यदक्षा 'अब्बोका' नाम की पत्नी थीं ।