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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उपसंहारः न्यायकन्दली सच्छायः स्थलफलदो बहुशाखो द्विजाश्रयः। तस्यां श्रीधर इत्युच्चरथिकल्पद्रुमोऽभवत् ॥७॥ असौ विद्याविदग्धानामसूत श्रवणोचिताम् । षट्पदार्थहितामेतां रुचिरां न्यायकन्दलीम् ॥ ८ ॥ त्र्यधिकदशोत्तरनवशतशाकाब्दे न्यायकन्दली रचिता श्रीपाण्डुदासयाचितभट्टश्रीश्रीधरेणेयम् ॥६॥
समाप्तेयं पदार्थप्रवेशन्यायकन्दली टीका।
समाप्तोऽयं ग्रन्थः॥
(७) उन्हीं से 'श्रीधर' उत्पन्न हुए जो ( इन सादृश्यों के कारण ) अथियों के लिए कल्पवृक्ष के समान थे। क्योंकि कल्पवृक्ष भी अपनी धनी छाया से अथियों के ताप को दूर करता है। इनसे भी अथियों के अनेक विघ्न ताप दूर होते थे। कल्पवृक्ष भी बहुत बड़े फल का दाता है, इनसे भी मोक्ष रूप महान् ( उपदेशादि के द्वारा ) फल प्राप्त होता था । कल्पवृक्ष की भी अनेक शाखायें हैं। उनके भी शिष्य प्रशिष्य की अनेक शाखायें थीं। कल्पवृक्ष भी अनेक द्विजों (पक्षियों) का आश्रय है, ये भी अनेक द्विजातियों के आश्रय थे।
(८) उन्हीं के द्वारा तत्त्वज्ञान को उत्पन्न करनेवाली ओर विद्याप्रेमियों के सुनने योग्य यह अतिरमणीय 'न्यायकन्दली' टीका रची गयी ।
(१) श्रीपाण्डुदास कायस्थ की प्रार्थना ( से प्रेरित होकर ) भट्ट श्री श्रीधर ने ६१३ शकाब्द में 'न्यायकन्दली' की रचना की। षट् पदार्थों के तत्त्वज्ञान को उत्पन्न करनेवाली न्यायकन्दली टीका
समाप्त हुई ॥
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