Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 836
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७६१ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली रणानां प्रतिपिण्डभाविनां निर्विकल्पकानामप्येत्कवम् । तेषामेकत्वाच्च तत्कारणानां व्यक्तीनामेकत्वावगमः । यथोक्तम् एकप्रत्यवमर्षस्य हेतुत्वाद् धीरभेदिनी। एकधीहेतुभावेन व्यक्तीनामप्यभिन्नता ॥ इति । एतदप्ययुक्तम् विकल्पानुपपत्तेः । विकल्पाकाराणां भेदाग्रहणादारोपितमैक्यं सामान्यमाचक्षते भिक्षवः । अत्र ब्रूमः । किमाकाराणां भेदाग्रहणमेवाभेदसमारोपः ? आहोस्विदभेदग्रहणमभेदारोप: ? न तावदाद्यः कल्पः, भेदसमारोपितस्यापि प्रसङ्गात् । यथा विकल्पाकाराणां भेदो न गाते, तद्वदभेदोऽपि न गृह्यते । तत्र भेदाग्रहणादभेदारोपवदभेदाग्रहणाद् भेदारोपस्यापि प्रसक्तावभेदोचितव्यवहारप्रवृत्त्ययोगात् । अभेदग्रहणमभेदारोप इत्यपि न युक्तम्, आत्मवादे एको ह्यनेकदर्शी तेषां भेदाभेदौ प्रत्येति । नैरात्म्यवादे त्वेकोऽनेकार्थद्रष्टा न कश्चिदस्ति, विकल्पानां प्रत्येकं स्वाकारमात्रनियतत्वात् । अस्तु में उत्पन्न होनेवाले निर्विकल्पक ज्ञानों में भी एकता की प्रतीति होती है। निर्विकल्पक ज्ञानों की इस एकता से ही उनके कारणीभूत विभिन्न व्यक्तियों में एक आकार की प्रतीति होती है । जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि ___ एकत्व ज्ञान के कारण ही परस्पर विभिन्न व्यक्तियों में अभेद बुद्धि उत्पन्न होती है, एवं उस एकत्वविषयक बुद्धि को हेत होने से ही व्यक्तियों में अभिन्नता होती है। (उ०) यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस पक्ष के सम्भावित सभी विकल्प अनुपपन्न ठहरते हैं । विकल्प के आकारों में जो परस्पर भेद है, उस भेद के अज्ञान से उनमें जिस एकत्व का आरोप होता है, उसे ही भिक्षुगण 'सामान्य' कहते हैं। इस प्रसङ्ग में सिद्धान्तियों का पूछना है कि-(१) आकारों के भेद का जो अग्रह क्या वही अभेद (एकत्व) का आरोप है ? या (२) अभेद के ग्रहण को ही अभेद का आरोप कहते हैं ? (१) इनमें यदि प्रथम पक्ष मानें तो जिन व्यक्तियों में परस्पर भेद निश्चित है, उन दोनों में भी अभेद व्यवहार की आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि, जिस प्रकार विकल्प के आकारों में भेद का ज्ञान नहीं होता है, उसी प्रकार उन आकारों में जो अभेद है, उसका भी भान नहीं होता है। इस स्थिति में भेद के अज्ञान से अभेद के आरोप की तरह अभेद के अज्ञान से भेद का आरोप भी होगा। फिर विकल्प के आकारों में अभेद व्यवहार की कथित रीति अयुक्त हो जाएगी। (२) 'अभेद का ग्रहण ही अभेद का आरोप है' यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'आत्मवाद' में अनेक विषयों का एक द्रष्टा स्वीकृत है, अतः उस पक्ष में एक ही पुरुष विकल्पों के भेद और अभेद दोनों ६६ For Private And Personal

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